पान शॉप (कहानी) : राजिन्दर सिंह बेदी

Paan Shop (Hindi Story) : Rajinder Singh Bedi

बेगम बाज़ार की मनहूस दुकान में एक दफ़ा फिर बेलदार व सूती के भारी भारी पर्दे लटकने लगे। मूजिद “दाफे चंबल-ओ-दाद” और जापानी खिलौनों की दुकान... ओसाका फेयर (जापान से मुतअल्लिक़) के मुलाज़िम इस्तिजाब से थारू लाल फ़ोटोग्राफ़र को ओक पलाई का डार्क रुम बनाते देख कर उसके तारीक मुस्तक़बिल पर आँसू बहाने लगे।

“एक माह से ज़्यादा चोट न सहेगा... बेचारा।”
“दुकान क्या होगी... बाज़ार से कुछ हट कर है ना। नज़र उसे सामने नहीं पाती और बस...”

एक माह, दो और चार... थारू लाल वहीं था। मूजिद “दाफे चंबल-ओ-दाद” और ओसाका फेयर के मुलाज़िमों ने हैरत से उंगलियाँ मुँह में डाल लीं। जब कि 11 अगस्त की सुबह को उन्होंने एक जहाज़ी साइज़ का साइनबोर्ड इस मनहूस दुकान पर आवेज़ाँ होते हुए देखा। 6x12 फुट साइज़ के साइन बोर्ड पर देव सूरत हुरूफ़ ख़ालिस सनअती अंदाज़ से नाचते हुए इंटरनेशनल फ़ोटो स्टूडियो की शक्ल इख़्तियार कर रहे थे।

ओसाका फेयर के मुंतज़िम समीम (ख़ानज़ादा) ने सेलोलाइड की एक बड़ी सी गुड़िया के अंदरूनी फीते को उसके अंदरूनी क़ुलाबों से एहतियात के साथ बांध दिया (ताकि गाहक को शिकायत का मौक़ा न मिले) और फिर थारू की दुकान पर आवेज़ाँ साइनबोर्ड को देख कर मुस्कुराने लगा।
“इन्टर... नेशनल फ़ोटो स्टूडियो!”

थारू का काम बेगम बाज़ार, उसके नवाह के तीन मोहल्लों, सामने के नशीबी चौक या छावनी के हाई स्कूल तक महदूद होगा, मगर वो अपनी दुकान को एक बैन-उल-अक़वामी कारोबार से कम नहीं देखना चाहता। क्या अजब जो उसे किसी दिन पेट्रो ग्राड, टिम्बकटू, या होनोलोलू से फ़ोटो का माल मुहय्या करने के आर्डर मिलने लगें... बहरहाल बैन-उल-अक़वामी नाम रखने में हर्ज भी तो कोई नहीं। इस नाम से दुकानदार की फ़ित्री रजाइयत टपकती है।

मगर अफ़्सोस! सौदे की बिद्अत, तरक़्क़ी पसंद हिंदुस्तानी दुकानदार को बेगम बाज़ार के नवाही तीन मोहल्लों, सामने के नशीबी चौक और छावनी के हाई स्कूल से दूर क्या जाने देगी। वो हर जायज़-ओ-नाजायज़ तरीक़ा से गाहक को फँसाने की कोशिश में कस्ब-ए-कमाल की तो धज्जियाँ उड़ा देता है। गोया अपने पाँव में आप बेड़ियाँ डालता है और यूँ ज़्यादा आमदनी की तवक़्क़ो में तिब्बी आमदनी भी मादूम...! थारू की दुकान पर इस जहाज़ी-क़द के साइनबोर्ड के नीचे एक ओर टीन की प्लेट पर जदीद ऐनक साज़ भी लिखा था। तरक़्क़ी-पसंद मगर भोले थारू ने जदीद ऐनक साज़ी, महज़ सौदे की बिद्अत या नक़ल में शुरू की थी, क्यूँकि उसका पड़ोसी दुकानदार जुराबों के कारख़ाना के साथ “टीटा घर” काग़ज़ भी फ़रोख़्त करता था।

11 अगस्त की शाम को ओसाका फेयर का मुंतज़िम समीम (ख़ानज़ादा) और थारू, कुछ उदास ख़ातिर हो कर मिले। दोनों की आमदनी का बेश्तर हिस्सा तातीलात-ए-गर्मा या सरकारी दफ़ातिर के शिमला की तरफ़ कूच की नज़र हो चुका था। उन दिनों में स्टूडियो के सामने पान-शॉप पर बहुत रौनक रहती थी।

पान शाप के पहियेदार तख़्तों में खड़िया मिट्टी से साफ़ किए हुए शीशे बहुत ही ख़ूबसूरत दिखाई देते थे। एक हल्की और सब्ज़ झलक रखने वाले शीशे के पीछे एक हुक के साथ एक नफ़ीस तिलाई सेकंड्स घड़ी लटक रही थी। उसके नीचे क़ानून ओ फ़िक़्ह की किताबें बेतर्तीबी से पड़ी थीं। शायद कोई क़ानून का बेक़ानून और फ़ुज़ूल खर्च तालिब-इल्म इतनी क़ीमती किताबें कौड़ियों के मोल गिरवी रख कर पैसे ले गया था। किताबों के पीछे एक पुरानी सिंगर मशीन पड़ी थी। उसे गिरवी रखने वाले को इतनी ज़रूरत या इतनी जल्दी थी कि उसने मशीन पर से धागा की गोली भी न उठाई थी।

पान शॉप के एक कोने में कांसी और पीतल के फ़लस्तीनी प्यालों की शक्ल के गुलदस्ते और लंबी लंबी टांगों वाले कुलंग पड़े थे। फ़र्नीचर की दो क़तारों में अख़रोट की लकड़ी में कश्मीरी तराश का एक बड़ा सा गणेश भी पड़ा था और दीवार के साथ पान शॉप का मालिक एक आहनी संदूकची पर अपनी कोहनियाँ रखे हुए अपने किसी गाहक से बातें कर रहा था।
दो बिला वर्दी सिपाही पान शॉप के मालिक से इजाज़त पा कर बरामदे में पड़े हुए साईकलों के नंबर देख रहे थे।
“A-11785... नहीं।”
“A-222312... ये भी नहीं।”
“H- 97401... ये भी नहीं। कोई भी नहीं। चलो।”

एक ईसाई लड़की दो दफ़ा बेगम बाज़ार में पान शॉप से नशीबी चौक और नशीबी चौक से पान शॉप की तरफ़ वापस आई। वो बार-बार ग़ौर से पान शाप के अंदर देखती। उस वक़्त उसके दबे हुए शाने फिरकने लगते। शायद वो चाहती थी कि पान शॉप के अंदर बैठे हुए दो एक आदमी चले जाएँ और सिपाही अपना काम कर के रुख़्सत हों ताकि वो तख़लिया में आज़ादाना अपना कारोबार कर सके, या शायद वो अपना माल गिरवी रखते हुए झिझकती थी, अगरचे उसके पास गिरवी रखने के लिए कोई चीज़ दिखाई न देती थी....उसके क़दरे उम्दगी से तराशे हुए कुसमई लब फड़कते दिखाई देते थे और उसकी बेख़्वाब और भारी आँखें बेक़रारी से पपोटों में हरकत कर रही थीं। पसीने से सफ़ेद मलमल का फ़्राक उसकी पुश्त पर चिमट गया था और पुश्त की जानिब से उसकी अंगिया के तनाव के रेशमी फीते शानों पर गोल चक्कर काटते हुए साफ़ दिखाई दे रहे थे।

“आज बहुत गर्मी है... तौबा...! शाम को ज़रूर बारिश होगी...” ओसाका फेयर के मुंतज़िम ने कानों को छूते हुए कहा।

थारू ने ये बात न सुनी और बहुत इन्हिमाक से पान शॉप के अंदर देखता रहा। फिर यकायक काँपते हुए उठा और बोला,
“इस से तो मैं भूका मर जाना पसंद करता हूँ।”
समीम ने ग़ौर से पान शॉप के अंदर देखा और बोला,
“ज़रूरत मजबूर करती है मेरे भाई, वगर्ना कोई ख़ुशी से थोड़ा ही...”

लड़की पान शॉप से बाहर आई। उसके बुशरे से साफ़ अयाँ था कि गिरवी माल पर उसके अंदाज़े और ज़रूरत से उसे बहुत ही कम रुपया मिला था। नहीं तो इत्मिनान और ख़ुशी की तहरीर उसके चेहरे पर ज़रूर दिखाई देती... वो अपने बीमार ख़ाविंद पर अपना सब कुछ लुटा चुकी थी। अब उसके पास सुनहरी बालों के सिवा गिरवी रखने के लिए रहा भी क्या था। काश उन हलक़ादार लंबी लंबी सुनहरी ज़ुल्फ़ों की हिंदुस्तान में कुछ क़ीमत होती।

लड़की ने अपना दायाँ हाथ ऊपर उठा कर एक उंगली को जड़ से मसलना शुरू किया। उंगली पर एक ज़र्द सा हलक़ा नज़र आ रहा था। नामालूम कितनी ज़रूरत से मजबूर हो कर उसने अपनी अज़ीज़तरीन चीज़, अपनी रुमानवी हयात मआशक़ा की आख़िरी निशानी पान शॉप में गिरवी रख दी थी। उसने अपने रंडूवे हाथ से अपनी सुनहरी ज़ुल्फ़ों को नफ़रत से पीछे हटा दिया, क्यूँकि उनकी कोई क़ीमत न थी और पॉनशाप के पहिएदार-तख़्तों में खड़िया मिट्टी से साफ़ किए हुए ख़ूबसूरत शीशों में उसने अपने हसीन चेहरे के धुँदले अक्स को देखा और रोने लगी... क्यूँकि वो हुस्न फ़रोश न थी।

लोहे की एक ख़ुर्दबीननुमा नाल में थारू कर्कस के चंद हल्के से मुहद्दिब शीशे डाल कर निस्फ़ घंटे के क़रीब एक बूढ़े की आँखों का मुआइना करता रहा। बूढ़े के सामने कुछ दूर एक ताक़ के साथ उर्दू के हुरूफ़-ए-तहज्जी आवेज़ाँ थे।

थारू बार बार उस नाल की दर्ज़ में किसी नए और हल्के से मुहद्दिब शीशे को रख देता। बूढ़ा कहता,
“अब “मीम” तुम्हारे कोट से भी बड़ी दिखाई देती है।”
“अब “ज़ो” से शुआएँ निकल रही हैं।”
“अब “ऐन” धुंदली धुंदली और परछाईं-दार नज़र आती है।”
“अब सब हुरूफ़ दिखाई तो ठीक देते हैं... मगर बहुत ही छोटे छोटे... तुम्हारे कोट के बटन से भी छोटे।”
वो बूढ़ा क्या जाने कि अगर किसी मुहद्दब शीशे में से तमाम हुरूफ़-ए-तहज्जी अपने क़द ओ क़ामत के दिखाई देने भी लगें, तो भी वो थारू लाल... जदीद “ऐनक साज़” और फ़ोटोग्राफ़र से एक दीदा-ज़ेब सेलोलाइड का फ्रे़म किया हुआ चश्मा लगवा कर हमेशा के लिए अंधा हो जाएगा।
डेढ़ घंटा की “साइन्टिफ़िक” देख भाल के बाद थारू ने शीशे का नंबर एक काग़ज़ पर लिखा, और ऐनक बूढ़े को दे दी।

बूढ़ा उन अमीर ग्राहकों में से नहीं था, जो थोड़े पैसों की अदायगी के लिए भी यकुम का वादा किया करते हैं। पैसे उस की मुट्ठी में थे। थारू लाल के मांगने पर उसने चंद पसीना से शराबोर सिक्के कॉउंटर पर बिखेर दिए। उन सिक्कों के देखने से घिन आती थी। थारू ने एक हरीसाना अंदाज़ से सिक्के उठा कर अपनी जेब में डाल लिये और अपना हाथ पतलून से पोंछने लगा।

थारू ने एक मग़रूराना अंदाज़ से पान शॉप की तरफ़ देखा। एक अधेड़ उम्र का शरीफ़ आदमी जिसका मुँह कान तक तमतमा रहा था, आहिस्ता-आहिस्ता पान शॉप के सामने की तीन सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था। नीचे उतरते हुए उसने पान शॉप के पहिये दार तख़्तों में खड़िया मिट्टी से साफ़ किए हुए ख़ूबसूरत शीशों में से अपने पुर-शराफ़त चेहरे के धुँदले अक्स को देखा... और ग़म-ज़दा हो गया... क्यूँकि वो बदमाश नहीं था।
“पान शॉप का मालिक चार दिन में भी इतना सूद जमा नहीं कर सकता।” थारू ने अपनी जेब में सिक्कों की खनकार पैदा करते हुए कहा।
फिर थारू एक बेसूद, बे-हासिल ग़ुरूर के जज़्बे के साथ आस पास के दुकानदारों की आमदनी का अंदाज़ा लगाने लगा।

इस ला-हासिल जमा ख़र्च में बेगम बाज़ार के बिसातियों का कोई दख़ल न था। उनकी आमदनी ला-महदूद थी और थारू के महदूद तख़य्युल से बहुत ही परे।

हाँ! मूजिद “दाफे चंबल-ओ-दाद” के नुस्ख़ा की क़ीमत ज़्यादा से ज़्यादा दो आने होगी। गंधक राल, सुहागा, फिटकिड़ी का एक हिस्सा और नीला थोथा 1/8 हिस्सा और एक मख़्फ़ी चीज़, जो इस नुस्ख़े की कामयाबी की कलीद है और जिसने इस अत्तार को मुजिद का ख़िताब दिया है, वो भी एक-आध पैसा में आ जाती होगी... इसमें वो कमाता क्या है? ओसाका फेयर के मुंतज़िम को कमीशन बट्टा की बिना पर मिलता ही क्या होगा...? हेयर कटिंग सैलून वाले फ़ी हजामत चार आने... पाँच आने कमा लेते होंगे... थारू ने एक दफ़ा फिर चमकती हुई आँखों से पान शॉप की तरफ़ देखा।
उसकी पतलून की जेब में पसीने से शराबोर सिक्के, उसकी रानों को गीले गीले लगने लगे।
उस वक़्त ओसाका फेयर का मुंतज़िम आया।

हफ़्ता भर उसकी दुकान पर सिवाए परचून के चंद ग्राहकों के और कोई न आया था। दसहरा, शब्ब-ए-बरात, या दीवाली में अभी अढ़ाई तीन माह बाक़ी थे। क्या ओसाका का बड़ा ऑफ़िस अक्तूबर तक इंतिज़ार करेगा? समीम (ख़ानज़ादा) का चेहरा क़दरे सियाह हो गया था और उसके गुज़िश्ता एक डेढ़ हफ़्ता में इतने मुअम्मर दिखाई देने की कोई ख़ास वजह थी।
समीम ने अपने आपको आराम कुर्सी पर गिरा दिया। थारू बोला,
“ये पान शॉप का काम... हमारे कामों से ब-यकवक़्त अच्छा भी है और बुरा भी।”
“अच्छा कैसे?”

“आमदनी... हम कर्कस के चश्मे और फ्रे़म ख़रीदते हैं। अक्स लेने के लिए मनफ़ी प्लेटें और मुस्बत काग़ज़ लाते हैं। कभी कभी हमारा नुक़्सान भी हो जाता है। पान शॉप में पल्ले से क्या ख़र्च करना पड़ता है। अगर कोई मीयाद के बाद ली हुई रक़म से तिगुनी रक़म की चीज़ छुड़ाने न आ सके, तो सब कुछ अपना... और एक बड़ा सा डकार।”
“बुरा कैसे?”
“बुरा? बुरा... इसमें धोके का ख़तरा है। ये लोग दूसरे का माल अपने पास गिरवी रखते हुए और बग़ैर महसूस किए हुए अपना ज़मीर अपने गाहक के सामने गिरवी रख देते हैं और यहाँ से कभी कभी कोई हसीन लड़की अपनी रुमानवी हयात-ए-मआशक़ा की अज़ीज़ तरीन और आख़िरी निशानी दे कर हसरत के आलम में अपने रंडुवे हाथ को मसलती हुई चली जाती है। अगर हमारे हाँ सुनहरी ज़ुल्फ़ों की कोई क़ीमत हो, तो ये हरीस आदमी उनको भी गिरवी रख लिया करें। अगर किसी शरीफ़ अधेड़ उम्र के आदमी की शराफ़त बिकाऊ हो... तो ये लोग उसे भी गिरवी रखने से गुरेज़ न करें।”
और थारू मुस्कुरा कर ग़रूर से सिक्के अपनी जेब में उछालने लगा।

दो घंटा से थारू ने चंद मनफ़ी प्लेटें बर्फ़ीले पानी में डाल रखी थीं। अब वो उनसे मुसबत काग़ज़ पर अक्स उतारना चाहता था। उसने पानी में हाथ डाल कर देखा। पानी गर्म हो चुका था और मनफ़ी प्लेटों पर मसालिहा पिघल कर लावा की सूरत इख़्तियार कर गया था। थारू के रौंगटे खड़े हो गए।
वो कुछ न बोला... वो कुछ बोल ही न सका।
ये उसे छः रुपये का नुक़्सान था। एक ऐनक की बचत से तीन गुना ज़्यादा नुक़्सान।

थारू एक अंगड़ाई ले कर समीम के पास बैठ गया। उसे यूँ महसूस हुआ जैसे एक लम्हे में उसकी सकत उसके जिस्म से खींच ली गई हो। थारू टकटकी बांध कर पान शॉप की तरफ़ देखने लगा। शीशे के पीछे तिलाई सेकंड्स क़ानून-ओ-फ़िक़ह की किताबों पर लटक रही थी। एक कोने में कांसी और पीतल के फिलस्तीनी प्यालों की शक्ल के गुलदस्ते और लंबी लंबी टांगों वाले कुलंग पड़े थे। फ़र्नीचर की दो क़तारों में अख़रोट की लकड़ी में कश्मीरी तराश का एक बड़ा सा गणेश भी दिखाई दे रहा था और एक दीवार के साथ पॉन शाप का मालिक एक आहनी सैफ़ पर अपनी कुहानियाँ रखे... ऊक पलाई के डार्क रुम में दम घुट जाने पर थारू ने एक गहरा सांस लिया और फिर मुसबत काग़ज़ पर नक़्श को मुस्तक़िल करने वाले मुरक्कब को हिलाता रहा। उस वक़्त पसीना उसकी कमर से हो कर घुटनों की पुश्त पर क़तरा ब-क़तरा टपक रहा था।

शायद थारू ओक पलाई के डार्क रुम में पिघल कर अपनी जान दे देता, अगर समीम ओसाका फेयर को बंद करते हुए उधर न आ निकलता। थारू ने समीम की आवाज़ पर बाहर आते हुए आहिस्ता-आहिस्ता अपनी क़मीस उतारी। उसमें से पसीना निचोड़ा और क़मीस को पानी के एक टबी में छोड़ दिया और हाँपते हुए बोला,
“आज कल ईमानदारी के काम में पड़ा ही क्या है?”
और बैन-उल-अक़वामी कारोबार के शाइक़ थारू ने एक फटी हुई बनियान आहिस्ता आहिस्ता सर से नीचे उतार ली।

पानी के टब में थारू की क़मीस की जेब में से काग़ज़ का एक पुर्ज़ा निकल कर पानी पर तैरने लगा। इस पर लिखा था, तीन आने का मुरक्कब, दो आने यूनियन का चंदा, एक पैसे की गंडेरियाँ। कुलल सवा पाँच आने।

थारू बोला, “ये मेरी तमाम दिन की आमदनी और ख़र्च है... तुम कंवारा देख कर मज़ाक़ करते हो... ब्याह... मोहब्बत कितनी मीठी चीज़ है। मगर ख़ाली मादे में तो पानी की सी नेमत भी जा कर तड़पा देती है।”

ओसाका फेयर का मुंतज़िम मब्हूत बुना थारू के ग़मज़दा चेहरे के टेढ़े-मेढ़े शिकनों की तरफ़ देखता रहा और बोला,
“तुम ठीक कहते हो भाई... ईमानदारी के काम में पड़ा ही क्या है... ओसाका से चिट्ठी आई है। अगर छः माह के अंदर नक़्शा कैफ़ियत में आमदनी की मद भारी या कम-अज़-कम ख़ातिर-ख़्वाह दिखाई न दी, तो ये दुकान दिल्ली के दफ़्तर से मुल्हिक़ कर दी जाएगी।”
चंद लम्हात के लिए दोनों ख़ामोश रहे। फिर थारू बोला,

“पान शॉप का मालिक दस से लेकर 12-1/2 फ़ीसदी तक फ़र्नीचर पर दिए हुए रूपों में से काट लेता है। आम तौर पर नैशनल बैंक और पांसे के सोना पर एक पैसा फ़ी रुपये सूद लेते हैं। मगर उधर देखो समीम। तस्वीर की तरफ़ मत देखो। तुम्हें वो लड़की याद है न जिसने मजबूरी और हसरत के आलम में अपनी अज़ीज़ तरीन चीज़ पान शॉप के मालिक को दे दी थी... उसकी अंगुश्तरी की क़ीमत अस्सी रुपये थी।”
ख़ानज़ादा उछल पड़ा... थारू बोला,
“पान शॉप के मालिक ने ख़ुद मुझे बतलाया है... उसकी क़ीमत उसने तीस रुपये डाली... सिर्फ़ तीस... मैं सच कहता हूँ तीस रुपये और एक आना फ़ी रुपये सूद लगाया। मीयाद 31/अगस्त तक है, यकुम भी नहीं... उसके बाद वो अँगूठी उसी लुटेरे और दरिंदे की होगी।”
एक चीथड़े से किसी तस्वीर की पुश्त को कबूतरों की बीट से साफ़ करते हुए थारू बोला,
“मेरी जेब में कच्ची कौड़ी भी नहीं... दुकान में न मन्फ़ी प्लेटें हैं न मुसबत काग़ज़। 200 बत्ती की ताक़त का एक बल्ब फ्यूज़ हो गया है। मैं काम कैसे कर सकता हूँ?”

ख़ानज़ादा ने ओसाका से आई हुई चिट्ठी जेब से निकाली और शायद दसवीं बार उसे पढ़ने लगा। कुछ देर ग़ौर-ओ-फ़िक्र में ग़र्क़ रहने के बाद थारू ने तस्वीर और चीथड़े को मेज़ पर रख दिया और बोला, “बेगम बाज़ार की मनहूस दुकान फिर अपनी दुख भरी कहानी को दोहराएगी... अनक़रीब ही ख़ाली हो जाएगी। इंटरनेशनल फ़ोटो स्टूडियो का काम पेट्रो ग्राड, टिम्बकटू या होनोलोलू तक वसी होना तो एक तरफ़ रहा, वो बेगम बाज़ार से नशीबी चौक तक भी पहुंचने से क़ासिर रहा... और क्या भाई... आज कल ईमानदारी के काम में रखा ही क्या है...”

समीम ने सर उठा कर देखा। सामने थारू खड़ा था। थारू जिसका जिस्म-ओ-रूह दोनों इर्तिक़ा पज़ीर हो चुके थे।
पान शॉप का मालिक और थारू मक़ामी कॉटन मिल के हड़ताली मज़दूरों का मुज़ाहरा देख रहे थे। यकायक पान शॉप के मालिक ने थारू को अंदर ले जा कर एक छोटा सा काग़ज़ सामने रख दिया।
थारू का चेहरा कान तक तमतमा उठा। उसकी आँखों में ख़ून के आँसू उतर आए। हकलाते हुए उसने कहा,
“दस फ़ीसदी...? द... स फ़ीसदी तो बहुत है।”
“तुम्हें ये ख़ास रियाएत है... वर्ना बारह से कम नहीं।”
“तुम कैमरे को फ़र्नीचर में क्यूँ गिनते हो?”
“और वो जे़वरात में भी तो शुमार नहीं हो सकता।”
थारू लाल ने फिर एक दफ़ा काग़ज़ पर नज़र डाली, और अपनी शोला फ़िगन आँखों को ऊपर उठाते हुए कहा,
“31 / अगस्त को नहीं... तुम मुझे लूटना चाहते हो... यकुम की शाम तक। बाबू लोग यकुम को ही पैसे देते हैं।”

“बात सिर्फ़ ये है, 31/अगस्त की रात को मैं शिमला जा रहा हूँ। वर्ना यकुम हो जाती तो क्या पर्वा थी... उमूमन इस मुआमले में ग्राहकों की रजामंदी हमें मतलूब होती है... मगर...”

मक़ामी कॉटन मिल के हड़ताली मज़दूरों के हुजूम को चीरते हुए एक शख़्स बाहर निकला। उंगली से पेशानी पर से पसीना पोंछते हुए उसने पान टिकट निकाला। बयालिस रुपये पान शॉप के मालिक की मेज़ पर रख दिए और सिंगर मशीन छुड़ा कर इस तेज़ी से भागा कि धागा की गोली दुकान के अंदर गिर कर उसके पीछे पीछे घिसटती हुई दरवाज़े की एक दरज़ में टूट गई।

थारू ने काँपते हुए हाथों से काग़ज़ पर दस्तख़त कर दिए। पान शॉप के मालिक ने एक डिबिया को खोलते और बंद करते हुए कहा,
“एक गवाही भी डलवा दोना… ख़ी ख़ी… रस्मिया तौर पर ज़रूरत होती ही है ना… ख़ी ख़ी...”
ओसाका फेयर के मुंतज़िम को ले आओ।
थारू के हाथ ज़्यादा काँपने लगे। वो भी समीम की तरह मुअम्मर नज़र आने लगा। थारू खाँसते हुए बोला,
“मगर मैं समीम के सामने रुपये लेना नहीं चाहता।”

पान शॉप का मालिक ड्रामाई अंदाज़ से हँसने लगा। हंसते हुए उसने सामने लटकते हुए झूमरों की तरफ़ इशारा किया और बोला,“वो समीम की बीवी के हैं।”

अब थारू ने जाना कि क्यूँ समीम एक हफ़्ते में ही मुअम्मर दिखाई देने लगा था। उसने चुपके से सनद पर भी दस्तख़त कर दिए। पान टिकट हाथ में लिया और किसी दूसरे दुकानदार की गवाही डलवा दी।

फिर वो पान शॉप के पहियेदार तख़्तों में खड़िया मिट्टी से साफ़ किए हुए ख़ूबसूरत शीशों में अपने मुअम्मर और दयानतदार चेहरे के धुँदले अक्स को देखते हुए पान शॉ की सीढ़ियों पर से उतरा। उस की आँखें पुरनम हो गईं... क्यूँकि वो ईमान फ़रोश और बदक़माश नहीं था।

31/अगस्त तक थारू सूख कर कांटा हो गया। वो उसी रस्सी की मानिंद हो गया था जो जल जाने के बाद भी वैसी सूरत रखती है। उसे किसी तरफ़ से आमदनी की सूरत नज़र न आती थी। उस पर सुकरात की सी कैफ़ियत तारी हो गई, जब कि आदमी मायूस हो कर आसमान की तरफ़ सर उठा देता है... ईमानदार की ख़ुदा मदद करता है... ईमान की कमाई... ईमान की कमाई में बरकत... ईमान... लानत!

ओसाका फेयर का मुंतज़िम थारू के पास आया। मायूसी के अंदाज़ से उसने अपने आपको एक कुर्सी पर गिरा दिया और बोला,
“पान शॉप... में एक कैमरा दिखाई देता है।”
थारू लाल ने शर्मिंदा हो कर सर उठाया और एक गहरी नज़र से पान शॉप में देखते हुए बोला,
“हाँ... दिखाई देता है... और झूमरों की एक जोड़ी भी...।”
ख़ानज़ादे ने एक सर्द आह भरते हुए कहा, कितनी मियाद है?”
“31 /अगस्त... और तुम्हारी?”
“31/अगस्त।”
“कोई सबील?”
“कोई नहीं... और तुम्हारी?”
“ऊऊँ हूँ।”

और दोनों ने एक सर्द आह भरते हुए सर गिरा दिया।

  • मुख्य पृष्ठ : राजिन्दर सिंह बेदी की कहानियाँ हिन्दी में
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां