पालटा बाघ (ओड़िआ कहानी) : दाशरथि भूयाँ

Paalta Baagh (Odia Story) : Dasarathi Bhuiyan

(वह इंसान जो जब चाहे बाघ में तबदील हो जाए और जब चाहे फिर बाघ से इंसान में तबदील हो जाए, उसे ओड़िशा की लोक कथाओं में पालटा बाघ कहा गया है ।) ’वाह-वाह कैसा मजा, भालू नाचता है बजाके बाजा ।“ सरकस की बात याद आते ही मैं बेचैन होकर दौड़ी इन्दु के घर की ओर । काफी साल बाद शहर में सरकस आया था । मैंने कभी सरकस देखा नहीं था । इन्दु ने कहा था कि किसी छुट्टी के दिन आने से मिल कर सरकस देखने चलेंगी । जब मैं इन्दु के घर पहुँचा, उस समय वह घर में नहीं थी । पिछवाड़े के बरामदे में धूप लेते हुए मौसाजी अखबार पढ़ रहे थे ।

'आप सरकस देखने जा रहे हैं ?' इन्दु कहाँ है ? “ मैंने मौसाजी से पूछा ।"

सरकस देखने जाने के लिए मेरे इस तरह के उताबलेपन और बेचैनी को देखकर मौसाजी तनिक मुसकराए । अखबार को सोफा पर रख कर कहा - ’सरकस देखने जाना है न ! इन्दु के आने तक इंतजार कर ।“

’मैंने पूछा, इन्दु कहाँ गयी है ?“

’वह गणित समझने के लिए सर् के पास गयी है ।“

मौसाजी की एकलौती माँ छमंड लाड़ली बेटी इन्दु और मैं दसवीं कक्षा के सेक्सन ’ए“ में पढ़ रही थीं । एक ही बेंच में बैठती थीं । हम दोनों की आन्तरिकता को देख कर संस्कृत के सर् हमें मजाक में कहते, उलुपि-सुलुपी।

मैं फर्श पर बैठ गयी और अखबार का एक पन्ना लाकर पलटने लगी । उसमें सरकस का जो विज्ञापन निकला था, उसे पढ़ने लगी । कागज का बाघ किस तरह दहाड़ते हुए भयंकर दीख रहा था । बाघ की बगल में बिना सूँड़ का हाथी जैसा एक जानवर था । मैंने मौसाजी से पूछा यह क्या है । मौसाजी ने समझा दिया कि वह हिप्पोपोटामस है । अफ्रीका के जाम्बेजा नदी में ये ज्यादा तादात में दिखाई पड़ते हैं । हम उन्हें ओड़िशा में जलहस्ती कहते हैं । अचानक मौसाजी की नजर मेरे बदन पर टिक गयी । तिरछी नजर से मुझे निहारते हुए उन्होंने मुझे कहा कि तू इतनी अपरिष्कार क्यों दीख रही है ? तेरी माँ क्या तेरे कपड़े-लत्ते साफ करती नहीं है ? सिर में तेल क्यों नहीं लगाती है ? क्या होटल के काम से फुरसत मिलती नहीं है?

मौसाजी एक जमींदार हैं । अपने इलाके में राजनीति करते थे । गाँव में ढ़ेर सारी जमीन-जायदाद भी है । सिर्फ इन्दु को पढ़ाने के लिए शहर में बनवाये गये मकान में आकर रह रहे हैं । मौसाजी खुद अपने हाथों से रसोई बनाते हैं । इन्दु के मैले कपड़े-लत्ते भी साफ कर देते हैं । इस शहर में हाईस्कूल में एडमिशन होने के दिन ही इन्दु से मुलाकात हुई थी । इन्दु पैदा होने के बाद माँ बीमार पड़ी और गुजर गयीं । माँ छमंड इन्दु के प्रति मुझ में सहानुभूति जगी थी । एक दिन मैं उनके घर गयी थी । पहली मुलाकात में ही मौसाजी ने मुझे खूब स्नेह दिया था । उसी दिन से मेरा मौसाजी के घर आना-जाना चलता रहा । मौसाजी को जब हमारे घर की कमजोर आर्थिक स्थिति का पता चला, तब उन्होंने मेरी पढ़ाई में सहायता पहुँचायी । इन्दु और मैं एक ही ट्यूशन सर् से कोचिंग लेती हैं । जिस महीने ट्यूशन के पैसे देने में पिताजी असमर्थ होते थे, मौसाजी मेरे लिए दे देते थे । गणेशजी की पूजा या दशहरे के त्योहार में इन्दु के लिए मौसाजी जो ड्रेस खरीदते थे, उसमें से एक जोड़ी मुझे उपहार में देते थे । हमारे घर में मौसाजी की बात जब भी छिड़ती है, सभी उनकी तारीफ करते हैं । उनकी तारीफ सुनकर सब से ज्यादा खुशी मुझे होती है ।

मेरा सारा कुरता मैला हो गया है कहकर मौसाजी जब मेरे कुरते को सूँघने लगे, तब मैं बहुत डर गयी । मेरा तमाम बदन पसीने से लथपथ हो गया । मैं सोच रही थी कि मौसाजी मेरे कुरते को सूँघ कर करेंगे क्या ? हो सकता है कि जोर से एक चाँटा मार कर साफ-सफाई के साथ रहने की ताकीद करेंगे । उसी भय से मैं काँपने लगी ।

मौसाजी ने मुझ पर न गुस्सा किया न गाल पर चाँटा मारा । उल्टा मेरी पीठ और गाल को सहला दिया । मेरे सिर के बालों पर हाथ फेरा । मुझे लगा कि मेरे तमाम बदन पर कोई बिच्छू घूम-फिर रहा है । मेरे सारे अंग थरथर काँप रहे थे । मौसाजी मुझे खींच कर ले गये और मुझे गोद में बैठा लिया । डर के मारे मेरी आँखे अपने आप बंद हो गयीं ।

मैं मोसाजी के चेहरे को देखने की कोशिश कर रही थी, पर देख नहीं पा रही थी । क्योंकि मेरी आँखें खुल नहीं रही थीं । बन्द आँखों से ही मैंने अनुभव किया कि मैं हमारे गाँव के रमेश की गोद में लेटा हुआ हूँ । हमारा गाँव बहुत ही घने जंगल के बीच में है । गाँव की पश्चिम दिशा में एक छोटा-सा झरना बह रहा है । झरने के किनारे शहर की तरफ एक काली माता का मन्दिर है । काली-मंदिर की बगल में हमारा स्कूल था, जिसके दरवाजों में बाँस की टट्टियाँ लगी रहती । छुट्टियों के दिन तपती दोपहर में हम लोग दौड़ते हुए जाते थे झरना के किनारे । जो जिसे पहले देखता था, उसे स्टैच्यू कह देता था । स्टैच्यू सुनते ही तनिक भी हिलने से उसकी पीठ पर मुक्के दस बार मारने का नियम था । हम बच्चों की टोली में रमेश सब से हट्टा-कट्टा था । रमेश की उम्र की तुलना में उसकी शारीरिक अभिवृद्धि ज्यादा थी । उसकी उस चौड़ी छाती और शक्तिशाली दोनों भुजाओंको देखकर सबसे ज्यादा मैं डरती थी । कहीं वह मुझे पहले स्टैच्यू न कह दे, इसलिए मैं उसे देखते ही स्टैच्यू कह देती थी । मेरा निर्देश न मिलने तक वह उसी तरह स्टैच्यू बनकर खड़ा रहता था । इससे छुटकारा पाने के लिए वह मुझे जंगली बेर और इमली लाकर देने का प्रलोभन दिखाता था । फिर मैं उसे स्टैच्यू बनने से मुक्त कर देती थी । वह फौरन गायब हो जाता था घने जंगल में । उसे किसी भूतप्रेत या जंगली जानवरों का भय नहीं था । कैथ, बेल, जंगली बेर आदि जो कुछ मिलता था, उसे अपने पतलून और कमीज की जेब में भरकर लाता था । फिर हम सब काली मंदिर के पक्के मकान में जाकर घरौंदा बनाकर खेलते थे । सबकी सहमति से हमारे घरौंदे के खेल का पिता बनता था रमेश । उससे बेर खाने की आशा से हम में माँ बनने की प्रतियोगिता प्रारंभ हो जाती थी । लेकिन चूँकि लिली हम सबमें सुन्दर थी और बड़ी थी, रमेश उसे ही माँ बनने का मौका देता था । बाकी हम सब बहन, बेटी या कोई और भूमिका पाकर संतुष्ट हो जाते थे । फिर हम साल के पत्तों को इकट्ठा करके झूठ-मूठ की दावत के लिए रसोई बनाते थे । रमेश झूठ-मूठ में खेत में हल चलाने तथा लकड़ी इकट्ठा करने के लिए जाता था । लौटते समय वह सूखी टहनियों का एक गट्ठा लेकर आता था । घरौंदे की दावत खाकर हम सब सोने के लिए जाते थे । कुछ मंदिर के बरामदे में तो कुछ आम के पेड़ों की आट में छिपकर सोने का अभिनय करते थे। मैं छिपने के लिए टट्टी के दरवाजे वाले स्कूल में जाती थी । रमेश सबको धमकाते हुए कहता था कि जब झूठ-मूठ की सुबह होगी, तब वह सभी को जगाएगा । यदि पहले कोई जाग गया तो उसकी पीठ पर घूँसे लगाये जाएँगे । इसलिए मार खाने के डर से रमेश के न बुलाने तक हम छिपे रहते थे ।

हमारा यह झूठ-मूठ का खेल एक दिन सचमुच के खेल में बदल गया था । इस कुतूहल को लेकर मैं बाँस की टट्टी की दरार से देख रही थी कि रमेश और लिली क्या कह रहे हैं । मैंने जो कुछ देखा, डर के मारे मेरी आँखें बन्द हो गयीं। मुझे लगा कि रमेश लिली पर सवार है और उसकी हत्या कर रहा है । मैं फौरन मन्दिर के अन्दर जाकर शिवजी की छाती पर खड़ी काली माता से हाथ जोड़ कर मिन्नत करने लगी - ’हे माँ, लिली को बचा लो।“

जब मैं मन्दिर से बाहर निकली, तब झूठ-मूठ का सवेरा हो चुका था । यह जानकर मुझे आश्चर्य हुआ कि लिली मरी नहीं है । बल्कि लिली काफी खुश नजर आ रही है । लौटते समय मैने लिली से पूछा -’तुम दोनों कौन-सा खेल खेल रहे थे ?

उसने उत्तर दिया-’पहले माँ और पिताजी का खेल खेला, फिर वे शिव बाबा बने थे और मैं काली माता बनी थी ।“

मैंने उनके शिव बाबा और काली माता के खेल को लिली की माँ को बता दिया था । इसलिए लिली को उसकी माँ ने खूब पीटा था । उसके अगले दिन हम जितने बच्चे थे, सभी झरना के किनारे वाले मन्दिर के पास गये थे, सभी को एक ही बात कहकर डरा दिया गया था कि बगल वाले गाँव के धिड़या माझी की औरत गगरी भर मंत्रित हल्दी लेकर जंगल में घूम रही है । जिस दिन वह पालटा बाघ को देखेगी उस दिन वह उसके ऊपर मंत्रित हल्दीr पेंÀक देगी । उससे फौरन वह बाघ फिर से धिड़या माझी में तबदील हो जाएगा ।

उसके अगले दिन से पालटा बाघ के डर के कारण हम लोगों के घरौंदे का खेल बन्द हो गया । सातवीं कक्षा पास होने के बाद आगे की पढ़ाई न करने की अनिश्चितता में रही । गरमी की छुट्टियों में पिताजी घर से शहर को लौटे । पिताजी ठेला छोड़कर नाश्ते का होटल खोलने के कारण हम सपरिवार शहर में आ गये ।

मौसाजी की गोद में मैं आँखे बन्द करके बैठी रही । मौसाजी ने कहा कि तू इतनी शरमा क्यों रही है? मेरे लिए इन्दु जैसी है, तू भी वैसी है । तू जहाँ चाहेगी मैं तुम्हें ले जाऊँगा । सरकस कौन-सी बड़ी बात है ? मैं तुझे पी. सी. सरकार जूनियॅर के चमत्कार जादू का खेल दिखाने ले जाऊँगा । वह तुम्हे स्वर्गलोक की ओर उड़ाकर ले जाएगा । तू वहाँ ढ़ेर सारे चमत्कार से भरे हुए खेल देखेगी । जाएगी ? मेरे साथ चलेगी ? च...ले....गी...?

मैं चीखते हुए कह रही थी कि नहीं जाऊँगी.... नहीं जाऊँगी, लेकिन मेरे गले से कोई आवाज बाहर निकल नहीं रही थी । उस पल मैं क्रोध, आतंक, पीड़ा, ग्लानि और घृणा से जल रही थी । अब जीवन को जैसे भी हो बचाना होगा । मुझे नहीं पता था कि आदमी किस तरह बेहोश हो जाता है। फिर भी मैंने बेहोश होने का नाटक किया और नीचे गिर पड़ी । सँ....सँ.... की आवाज के साथ मौसाजी के दोनों नथुनों से साँस निकल रही थी । गाँव के धिड़आ माझी के बाघ में तबदील हो जाने की तरह मौसाजी भी पालटा बाघ में तबदील हो गये थे ।

पालटा बाघ शिकारी को दबोच कर दहाड़ मार रहा था । अब पालटा बाघ शिकार पर सवार होकर हमारे गाँव के रमेश द्वारा लिली की हत्या किये जाने की तरह हत्या करने लगेगा । उस भय से मेरे शरीर का सबकुछ ठण्डा पड़ता जा रहा था । अचानक इन्दु के आने की पद-चाप को सुनकर मौसाजी मुझे होश में लाने की कोशिश कर रहे थे । इन्दु के पहुँचते ही मैं होश में आकर खड़ी हो गयी । बिना मंत्रित जल के पालटा बाघ फिर से पल भर में इंसान में तबदील हो गया था, जिसे देख कर मैं आश्वस्त हो उठी थी ।

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