ओवर टाइम (कहानी) : मुहम्मद मंशा याद

Over Time (Story in Hindi) : Muhammad Mansha Yaad

उसे अक्सर दफ़्तर बंद हो जाने के एक घंटा बाद तक ओवर टाइम बैठने की इजाज़त मिल जाती थी और एक रुपया फ़ी घंटा के हिसाब से बीस-पच्चीस रुपये माहवार तनख़्वाह से ज़्यादा मिल जाते थे उसने कई बार कोशिश की थी कि उसे एक घंटा मज़ीद ओवर टाइम काम करने की इजाज़त मिल जाये लेकिन उसके इंचार्ज ने कभी इसकी मंज़ूरी नहीं दी थी।

आज भी वो दफ़्तर बंद हो जाने के एक घंटा बाद घर जाने के लिए बाहर निकल रहा था कि चौकीदार ने उसे जी. एम. साहिब की वालिदा के इंतिक़ाल की ख़बर सुनाई।

दुख की ऐसी ख़बरों में जिनका ता’ल्लुक़ किसी दूसरे से हो आदमी के कहीं अंदर इत्मिनान का एक पहलू भी मौजूद होता है कि ये हादिसा या अलमिया उसके अपने साथ पेश नहीं आया। उसने भी ये ख़बर ऐसे ही इत्मिनान बख़्श मलाल के साथ सुनी। वैसे भी उसका जी. एम. साहिब से बराह-ए-रास्त कोई ता’ल्लुक़ या वास्ता नहीं था अलबत्ता पिछले हफ़्ते उसने अपनी तरक़्क़ी के लिए उनके नाम एक अपील थ्रू प्रॉपर चैनल भिजवाई थी जिसमें ज़ाती तौर पर हाज़िर होने और अपना मौक़िफ़ पेश करने की इजाज़त भी मांगी थी और वो इसी रोज़ से परेशान और ख़ाइफ़ था कि वो उनका सामना कैसे करेगा और अपना मौक़िफ़ किस तरह बयान करेगा। उसके और जी.एम. साहिब के दरमियान बहुत फ़ासिला था। दरमियान में कितने ही बड़े बड़े आफ़िसरान दुश्वार-गुज़ार पहाड़ों की तरह ईस्तादा थे जिनके सामने जा कर उसकी टांगें काँपने और ज़बान लड़खड़ाने लगती थी फिर वो सबसे बड़े अफ़्सर जी. एम. साहिब का सामना कैसे करेगा ऑफ़िसरों के सामने उसके हमेशा बिला वजह हाथ पांव फूल जाते थे।

उसने पलट कर आर एंड आई ब्रांच और टेलीफ़ोन एक्सचेंज में झाँका। आर एंड आई ब्रांच का मुख़्तसर-सा अ’मला ख़ुशगप्पियों में मसरूफ़ था और टेलीफ़ोन एक्सचेंज के दूसरी शिफ़्ट के ऑप्रेटर्ज़ तेज़ी से मुख़्तलिफ़ नंबर डायल करने, आफ़िसरान को उनकी इक़ामत गाहों पर इत्तिला देने और नमाज़-ए-जनाज़ा का वक़्त बताने में मसरूफ़ थे। उसे ख़्याल आया कि अगर वो जी. एम. साहिब के बंगला पर इज़हार-ए-ता’ज़ियत करने और नमाज़-ए-जनाज़ा में शिरकत के लिए चला जाये तो जूनियर स्टाफ़ की ग़ैरमौजूदगी में उसकी अहमियत बहुत बढ़ जाएगी और जब वो कुछ दिनों बाद जी. एम. साहिब के सामने अपनी अपील के सिलसिले में हाज़िर होगा तो फ़िलहाल नहीं लिखते या कहते वक़्त उनकी निगाहों में अपनी वालिदा का जनाज़ा घूम जाएगा और वो ‘मंज़ूरी दी जाती है’ लिख देंगे। इस ख़ुशगवार ख़्याल के साथ ही न चाहते हुए भी उसके अंदर अगर बत्ती सी सुलगने लगी और उसका सारा अंदर ख़ुशबूदार धुंए से भर गया।

उसने जी. एम. साहिब के बँगले पर जाने का तहय्या कर लिया लेकिन अभी जनाज़ा उठने में ख़ासी देर पड़ी थी और अगरचे उसे पता था कि ता’ज़ियत के लिए जाने में थ्रू प्रॉपर चैनल के दफ़्तरी ज़ाब्ते लागू नहीं होते फिर भी उसका अपने सीनियर आफ़िसरान से पहले जी.एम. साहिब के बँगले पर पहुंच जाना मुनासिब नहीं था।

एक-बार उसने सोचा कि वो पहले अपने घर चला जाये और खाना खाने और थोड़ी देर आराम करने के बाद जी.एम. साहिब के हाँ जाये लेकिन इस तरह दुगना किराया ख़र्च होता था और फिर उसे डर था कि कहीं अड़ोस-पड़ोस में उसका कोई कोलीग न मिल जाये। वो अगले रोज़ दफ़्तर में सबको जी.एम.साहिब के बँगले पर जाने, नमाज़-ए-जनाज़ा में शिरकत करने और जी. एम. साहिब से हम कलाम होने की ख़बर सुना कर हैरत में डाल देगा और कम अज़ कम उसके इंचार्ज की आँखें ज़रूर खल जाएँगी जिन्हें आदमी की बिल्कुल क़दर नहीं थी।

वो दफ़्तर से निकल कर ख़ुश-ख़ुश बस-स्टॉप पर आया और बस में सवार हो कर उस चौक पर उतर गया जहां से एक सड़क जी. एम. साहिब के बँगले की तरफ़ जाती थी। अभी जनाज़ा उठने में काफ़ी देर थी इसलिए वो सड़क से हट कर टहलता हुआ क़रीबी सिनेमा हाऊस में आ गया और वक़्त गुज़ारी के लिए पोस्टर और तस्वीरें देखने लगा। बड़े अ’र्सा से उसने फ़िल्म नहीं देखी थी। घर के अख़राजात ही पूरे न होते थे ऊपर से बीवी अक्सर बीमार रहती और उसके ईलाज मुआ’लिजे पर ख़ासे पैसे ख़र्च हो जाते थे। इसलिए जब कभी उसका फ़िल्म देखने को जी मचलता वो किसी सिनेमा हाऊस का रुख करता और ‘आज शब को’ वाले बोर्ड पर लगी स्टिल्स (Stills) देखकर फ़िल्म की कहानी और मौज़ू का अंदाज़ा कर लेता था। बा’ज़ सिनेमा ऐसे थे जहां बाहर खड़े हो कर मकालमे और गाने भी सुनाई देते थे उसने देखा... इस फ़िल्म में हिरोइन को निहायत ग़रीब दिखाया गया था। कहीं वो झाड़ू दे रही थी कहीं बोझ उठा रही थी और एक तस्वीर में बर्तन धो रही थी, क़रीब ही मालकिन जो शायद हीरो की माँ थी कूल्हों पर हाथ रखे खड़ी उसे किसी बात पर बुरा-भला कह रही थी। एक और तस्वीर में हिरोइन एक बहुत बड़े शॉपिंग प्लाज़ा में शश्दर खड़ी थी उसके सामने रंगा-रंग मलबूसात बिखरे पड़े थे। वो परेशान हो गया, वो यहां कैसे आ गई लेकिन फिर उसकी नज़र एक और तस्वीर पर पड़ी वो ख़ुश शक्ल हीरो के साथ कार में बैठी हुई थी। फ़िल्म शुरू हो चुकी थी और बंद दरवाज़ों से छनछन कर दिलकश साज़ों में लिपटी हीरो और हिरोइन के गाने की आवाज़ें सुनाई दे रही थी शायद ये उसी सीन का गाना था।

उसने बहुत सी तस्वीरों पर उचटती सी निगाह डाली और हीरो-हिरोइन की शादी की तस्वीरें ढूँढने लगा जो उसे जल्द ही मिल गई। हिरोइन को दुल्हन बनाया जा रहा था। बैकग्रांऊड में झोंपड़ी नुमा मकान और मामूली क़िस्स्म के लोग नज़र आ रहे थे शायद किसी कच्ची बस्ती में अमीर कबीर दूलहा की बरात आने वाली थी। उसने इत्मिनान का लंबा सांस लिया और बाहर आ गया। वो सोच रहा था उसकी तरक़्क़ी हो गई और उसकी तनख़्वाह में इज़ाफ़ा हो गया तो वो हर माह कम अज़ कम एक फ़िल्म ज़रूर देखेगा, कभी-कभी बीवी को भी साथ ले आया करेगा। फिर उसे जी. एम. साहिब की वालिदा का ख़्याल आया यक़ीनन वो नेक औरत थीं जिसने मर कर उसे जी.एम. साहिब की नज़रों में आने और अपील मंज़ूर हो जाने का मौक़ा बख़्शा था। उसे जी. एम. साहिब पर भी तरस आने लगा, माँ आख़िर माँ होती है। माँ को नहीं मरना चाहिए ख़्वाह किसी की माँ हो। माँ मर जाये तो लगता है ज़मीन पांव के नीचे से निकल गई और आदमी ख़ला में मुअ’ल्लक़ रह गया।

बाहर आकर उसने चने ख़रीदे, नल से पानी पिया और फिर आहिस्ता-आहिस्ता चलता हुआ दुबारा उस सड़क पर आ गया जो जी.एम. साहिब के बँगले की तरफ़ जाती थी। अचानक घोड़ागाड़ी एक बस से टकराते-टकराते बची। गाड़ीबान बस ड्राईवर को गंदी गालियां देता हुआ मरियल घोड़े को बुरी तरह पीटने लगा। घोड़े की पीठ पर बड़े से खुरंड से ख़ून बहने लगा वो लम्हा भर के लिए घोड़े की जगह जुत गया। कुछ देर चाबुक खाता और दर्द से बिलबिलाता रहा फिर जब घोड़ागाड़ी दूसरे तरफ़ मुड़ गई तो उसे ये जान कर इत्मिनान हुआ कि वो घोड़ा नहीं आदमी है और मज़े से फुटपाथ पर जा रहा है। वो सिगरेट सुलगा कर लंबे-लंबे कश लेने लगा।

सड़क के दोनों जानिब ऊंचे-ऊंचे ख़ूबसूरत दरख़्त थे जिनके तनों को सफ़ेद रंग से पेंट किया गया था। आस-पास फूल, पौदे और हरी-भरी घास थी। उसने जी. एम. साहिब का बंगला नहीं देखा था लेकिन उसे लोकेशन का अंदाज़ा था, वैसे भी शादी-ब्याह और मातम वाला घर तलाश करना मुश्किल नहीं होता।

एक सब्ज़ा-ज़ार के पास पहुंच कर वो ठीटक गया। यक़ीनन सामने का शानदार बंगला जी.एम. साहिब का ही था। बँगले के बाहर कुशादा जगह पर कारें और जीपें इस तरह खड़ी थीं जैसे मेला मवेशियां में लातादाद मवेशी। चंद एक कारों को पहचान कर उसे इत्मिनान हुआ कि वो वक़्त से पहले नहीं आ गया।

गेट से अंदर बहुत बड़ा लॉन था जिसमें ख़ूबसूरत शामियाने लगे थे और निहायत उम्दा किस्म की रंग-बिरंगी कुर्सियाँ बिछी थीं मगर ज़्यादा-तर लोग छोटी-छोटी टोलियों में बटे इधर-उधर खड़े बातें कर रहे थे वो जिस तरफ़ से गुज़रता, सलाम के लिए उसका हाथ ख़ुद बख़ुद उठ जाता लोग उसे चौंक कर देखते या शायद उसे ऐसा ही महसूस होता जैसे उसका सलाम करना नागवार गुज़रा हो। उसे फ़िक्र दामन-गीर थी कि वो जी.एम. साहिब से इज़हार-ए-ता’ज़ियत कैसे करेगा, यूं उसने एहतियातन चंद जुमले सोच रखे थे;

“अल्लाह का हुक्म सर।”

“रब की रज़ा सर।”

“सब्र करें सर।”

लेकिन उसे ये जान कर इत्मिनान हुआ कि यहां रस्मी इज़हार-ए-अफ़सोस की ज़रूरत थी न गुंजाइश। जो आता था ख़ामोशी से बैठ जाता था या दूसरों से महव-ए-गुफ़्तुगू हो जाता था। उसने देखा जी.एम. साहिब बहुत मसरूफ़ थे, कभी अंदर जाते कभी बाहर आते। उसे उनके क़रीब जाने की हिम्मत न हुई ताहम वो ऐसी जगह कुर्सी रखकर बैठ गया जहां से आते-जाते उनकी नज़र उस पर पड़ सकती थी।

फिर उसकी नज़र अपने सीनियर अफ़्सर पर पड़ी फिर उससे सीनियर अफ़्सर पर। उसे लगा जैसे वो उस की जुर्रत पर हैरान हों और अंदर ही अंदर ग़ुस्से में खौलते उसकी जवाब तलबी की डिक्टेशन दे रहे हों।

वो बहुत मरऊ’ब और दिल-ओ-दिमाग़ को शल कर देने वाली नज़रों से बचना चाहता था लेकिन कहीं जाये अमान न थी अगर कहीं थी तो जी.एम. साहिब की नज़रों से ओझल हो जाने का एहतिमाल था। उसने परेशान हो कर नज़रें झुका लीं और अपने सामने और आस-पास चलते-फिरते लोगों के जूतों और एड़ियों पर नज़रें गाड़ दीं। थोड़ी देर बाद उसने सर उठाया तो उसकी समझ में न आया कि उसका क़द सिकुड़ कर बालिशत भर रह गया है या लॉन में मौजूद लोग अचानक देव क़ामत हो गए हैं। वो चारों तरफ़ से बहुत से बड़े बड़े लोगों और उन्नीस-बीस, इक्कीस और बाईस ग्रेड वाले अफ़सरों में घिरा हुआ था। ये वज़ीर, वो सफ़ीर, ये चेयरमैन, वो सेक्रेटरी।ये आई.जी, वो एम. डी.। ये ई. डी., वो डी.जी.। उसे ये देखकर नदामत हुई कि उसके आस-पास बड़े बड़े लोग कैपिटल लेटर्ज़ की तरह खड़े थे और वो हमज़ा सा मज़े से कुर्सी पर बैठा हुआ था।अपनी कोताह अ’क़ली पर उसका मातम करने को जी चाहा। उसने फ़ौरन कुर्सी छोड़ दी और एक तरफ़ हट कर खड़ा हो गया मगर टहलते और बातें करते हुए लोग ख़ुदबख़ुद उसके क़रीब आ जाते। फिर उसे चौंक कर देखते जैसे इतने छोटे क़द का आदमी उन्होंने पहली बार देखा हो।

काश वो अपने किसी कोलीग को साथ ले आया होता... उसने इधर-उधर नज़रें दौड़ाईं शायद उसे कोई अपने क़द का आदमी मिल जाये मगर वहां सब नौ गज़े थे। उसका दिल डूबने सा लगा कहीं उसने यहां आकर ग़लती तो नहीं की। अगर जी.एम.साहिब उसे देख लें... एक भरपूर नज़र... न भूलने वाली... तो वो चुपके से उठकर घर चला जाये।

थोड़ी देर में और बहुत से लोग आ गये।

गेट के बाहर कारों की ता’दाद और बढ़ गयी। अंदर लॉन में तिल धरने की जगह न रही तो कुछ लोगों को ड्राइंगरूम में जाने की दावत दी गयी। वो अंदर जाने वालों में शामिल हो गया। वो ज़्यादा नज़रों का सामना नहीं करना चाहता था। उसे सिर्फ़ जी. एम.साहिब की एक भरपूर नज़र का इंतिज़ार था। ड्राइंगरूम में गिनती के चंद लोगों में इसका इमकान ज़्यादा था।

सजा सजाया ड्राइंगरूम उसके दो कमरों के क्वार्टर से ज़्यादा कुशादा और निहायत ख़ूबसूरत था। खिड़कियों के बेशक़ीमत और नफ़ीस पर्दे, ख़ुशनुमा क़ालीन और आ’लीशान सोफ़े देखकर अंदर दाख़िल होते हुए उसे झिजक महसूस होने लगी। उसने इधर-उधर नज़र दौड़ाई शायद बैठने के लिए मा’मूली क़िस्म की कुर्सी, स्टूल या मोंढा मिल जाये मगर उसे गद्देदार सोफ़े में बैठना पड़ा। थ्री सीटर सोफ़े में उस समेत चार आदमी बैठे थे शायद उसने कुछ भी जगह नहीं घेर रखी थी। उसने देखा कार्निस पर बड़ी-बड़ी ख़ूबसूरत ट्रॉफ़ियाँ, मैडल और सजाट की चीज़ें पड़ी थीं। दरवाज़े के सामने बारीक तारों में पिरोई हुई मछलियाँ मुअ’ल्लक़ थीं। हवा के झोंकों से बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों के पीछे लपकती थीं। उसे लगा कि तैरते-तैरते उसके पर और गलफड़े थक गये हैं और अपना बड़ा सामना खोले शार्क उसके पीछे लपकती चली आ रही है लेकिन फिर उसे ये जान कर इत्मिनान हो गया कि बड़ी और छोटी मछलियों के दरमियान फ़ासिला कम नहीं होता और वो आपस में टकराती नहीं थीं। उसी लम्हे साथ वाले कमरे से किसी ने ड्राइंगरूम में झाँका जैसे अँधेरी रात में अचानक बिजली कौंदती या सामने से आँखों पर सर्चलाइट पड़ती है, उसका दिल उछल कर हलक़ में आ गया।

वो ता’ज़ीमन खड़ा होना चाहता था कि वो पर्दे के पीछे चली गयी मगर पर्दे के नीचे से देर तक उसके सफ़ेद और उजले पांव नज़र आते रहे। उसने सामने फैले हुए अपने पांव पीछे हटा लिये। उसे पहली मर्तबा पता चला था कि उसके पांव इस क़दर मटियाले और भद्दे थे।

फिर उसकी नज़र वाल क्लाक पर पड़ी। इतना बड़ा, ख़ूबसूरत और अनोखे डिज़ाइन का क्लाक उसने आज तक नहीं देखा था क्या पता वो मास्टर क्लाक हो। उसने सुना था कि मुख़्तलिफ़ कमरों में लगे हुए क्लाक मास्टर क्लाक से कंट्रोल होते हैं, सब के अलार्म एक साथ बजते हैं और सबकी सूईयां मास्टर क्लाक के ताबे होती हैं। उसने ये भी सुना था कि मास्टर क्लाक पर वक़्त उ’मूमन दुरुस्त होता है लेकिन अगर कभी वक़्त मास्टर क्लाक से आगे निकल जाये या पीछे रह जाये तो मातहत क्लाक भी ग़लत वक़्त बताने लगते हैं।

अचानक जी. एम. साहिब अंदर आ गये और उसकी तरफ़ देखे बग़ैर हवा के झोंके की तरह दूसरे दरवाज़े से बाहर निकल गये। उसने दीवार पर लगी पेंटिंग में पनाह ली।

उसने देखा।

शाम होने को थी... पहाड़ी लड़की अपनी भेड़ों को हाँकती हुई घर जा रही थी उसके हाथ में ज़ैतून की शाख़ थी और उसके हमराह उसके वफ़ादार कुत्ते... चारों तरफ़ सब्ज़ा था थोड़े फ़ासले पर घना जंगल, अ’क़ब में नीली-नीली पहाड़ियां... उसे ख़्याल आया अगर कोई भेड़िया या चीता हमला कर दे तो? उसने पहाड़ी लड़की से पूछा,

“तुम्हें डर नहीं लगता?”

“लगता है।” वो बोली, “लेकिन नहीं लगता था। मेरे कुत्ते शेर से ज़्यादा बहादुर, चीते से ज़्यादा फुर्तीले और भेड़ियों से ज़्यादा ख़ूँख़ार थे, मेरा भाई क़रीब ही जंगल में लकड़ियाँ काटता था उसके कुल्हाड़े की धमक से जंगल गूँजता था और उसकी ललकार सुनकर जानवर सहम जाते और परिंदे फड़फड़ा कर दरख़्तों से उड़ जाते थे लेकिन फिर मैं अपनी भेड़ों, वफ़ादार कुत्तों और नीली पहाड़ियों समेत तस्वीर में क़ैद हो गयी। अब मेरी भेड़ें ख़ामोश हैं, कुत्ते साकित और भाई के कुल्हाड़े की आवाज़ सुनाई नहीं देती।”

उसने चौंक कर देखा सब लोग अपनी अपनी नशिस्तों पर इत्मिनान से बैठे थे मगर वो खड़ा था। जी.एम. साहिब के कमरे में आने और लौट जाने के बाद वो अब तक खड़ा था। खड़े खड़े उसकी टांगें शल हो गयी थीं। वो जल्दी से फिर सोफ़े में धँस गया।

मय्यत को लॉन में लाया गया तो सब लोग बाहर आ गये और नमाज़-ए-जनाज़ा के लिए सफ़ें बनाने लगे... उसने बहुत कोशिश की कि वो इस हुजूम में जी. एम. साहिब को ढूंढ निकाले और नमाज़-ए- जनाज़ा पढ़ते हुए उनके क़रीब खड़ा हो मगर वो उसे न मिल सके। बार-बार अपने दूसरे सीनियर ऑफ़िसरान से उसका सामना हो जाता।

दुआ के बाद वो लपक कर आगे बढ़ा और जनाज़े को कंधा देने वालों में शामिल हो गया। दो एक-बार जी. एम. साहिब क़रीब आये मगर उन्होंने उसे नहीं देखा।

बहुत से लोग नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ कर रुख़्सत हो गये थे, उसका ख़्याल था अब थोड़े लोगों में वो उसे ज़रूर देख लेंगे और याद भी रख सकेंगे लेकिन वो दूसरी जानिब कंधा देकर पीछे हट गये और सर झुका कर जनाज़े के पीछे चलने लगे।

चंद एक-बार उसकी जगह बदली गयी मगर वो इस ख़्याल से फिर अपनी जगह पर वापस आ जाता कि शायद वो उसकी जगह लेने आयें तो उनसे आँखें चार हो जायें। लेकिन डेढ़-दो मील चलने के बाद भी उन्होंने उसकी तरफ़ कोई तवज्जो न दी तो उसका दिल बैठने लगा।

क़ब्रिस्तान पहुंचते-पहुंचते शाम का अंधेरा हर तरफ़ फैल गया और कुछ फ़ासले से एक दूसरे को पहचानना मुश्किल हो गया।

दफ़्तर से निकले अब उसे तक़रीबन पाँच घंटे हो चले थे। उसे अपने पाँच घंटे ज़ाए होते नज़र आ रहे थे, ताहम उसने हिम्मत नहीं हारी और मय्यत को लहद में उतारते वक़्त नीचे उतर गया और क़ब्र के अंदर खड़े हो कर ऊपर देखता रहा कि वो उसे देख रहे हैं या नहीं। क़ब्र पर मिट्टी डालते और गुलाब का इत्र छिड़कते वक़्त भी वो पेश-पेश रहा और दुआ के दौरान आमीन कहते हुए भी उसकी आवाज़ नुमायां थी।

उसके दूसरे सीनियर आफ़िसरान में से बहुत से अब भी मौजूद थे और मुसलसल उसकी कारकर्दगी का नोटिस ले रहे थे मगर वो सब दरख़ास्त फ़ारवर्ड (Forward) करने वाले थे। आख़िरी फ़ैसला जी. एम. साहिब के हाथ में था और वो उसकी तरफ़ कोई ख़ास तवज्जो नहीं दे रहे थे।

फिर क़ब्रिस्तान के बाहर कुछ कारें आकर रुक गयीं। उनमें शायद जी.एम. साहिब की एयर कंडीशंड कार भी थी।

दुआ के बाद जी. एम. साहिब बचे खुचे बलंद क़ामत लोगों के हमराह कार की तरफ़ चले गये और वो गुम-सुम क़ब्र पर खड़ा रह गया।

लेकिन फिर एक शख़्स जो गोरकनों को पैसे दे रहा था उसकी तरफ़ आया और उसके हाथ पर पाँच रुपये का नोट रख दिया।

उसका जी चाहा वो फफक-फफक कर रोने लगे लेकिन फिर उसे ख़्याल आया कि अगर वो दफ़्तर में ओवर टाइम काम करता तो भी इतने ही पैसे बनते, उसने पाँच रुपये का नोट जेब में डाला और एक तरफ़ चल दिया।

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