ओ रे चिरुंगन मेरे (कोंकणी कहानी) : मीना काकोडकर
O Re Chirungan Mere (Konkani Story) : Meena Kakodkar
माँ की मौत के दो दिन गुज़रे थे। उसकी याद में मुझे बार-बार रोना आ रहा था। पिता
जी दिन-रात सिर पर हाथ रखे कोने में बैठे रहते। उन्हें देख कर तो मुझे माँ
की याद और भी सताती थी। हर रात माँ मुझे बगल में ले कर सोती थी। इन दो
रातों में सुरंग मुझे अपनी झोंपड़ी में ले गई थी। उसके बगल में मैं पिल्ले
जैसा सुस्ता गया था। पर आज पिता जी ने मेरा बिछौना अपनी झोंपड़ी में ही लगा
दिया। जब सुरंग मुझे लेने आई तो उन्होंने कहा,
"सोने दो उसे यहीं पर। मुझ अकेले को खाली झोंपड़ी खाने को
दौड़ती है।"
सुरंग के पास जाने के लिए मेरा जी तरस रहा था। फिर भी मैं
चुप रहा। रात को अकेले ही बिछौने पर लेटा और मुझे रुलाई आ गई। अंधेरे में
हाथ लंबा कर के मैंने योंही इधर उधर टटोल कर देखा,
माँ नहीं थी। कम से कम पिता जी तो मुझे अपनी बगल में सुला लें,
इस आशा से पिता जी को पुकारने के लिए मैंने मुँह खोला। पर
मुझे उनके रोने की सी आवाज़ आई। उन्हें भी माँ की याद आती होगी,
यह सोच कर मैं हिचक-हिचक कर रोने लगा। माँ। । । ऐसा आक्रोश
कर के मैं धम्म से पिता जी के बिछौने पर आ धमका। उन्होंने मुझे कस के गले
लगाया। मैंने भी उन्हें बाँहों में जकड़ा। उनके आँसू मेरे गालों पर टपकने
लगे। वे मुझे सहलाते रहे। जैसे कि मेरी माँ सहलाती थी।
दूसरे दिन
मौसी आई। आते ही मुझे गले लगा कर रोने लगी। उनकी गोद में मुँह छुपाए मैं भी
रोने लगा। मौसी के कपड़ों से फूलों की सी खुशबू आ रही थी। माँ के कपड़ों से
हमेशा धुएँ की गंध आती थी। पर मेरा मन चाहा कि मौसी के कपड़ों से धुएँ की
ही गंध आती तो कितना अच्छा होता!
उनको समय पर बुलावा नहीं भेजा इसलिए मौसी पिता जी से बहुत
गुस्सा कर रही थी। माँ की याद कर-कर के उनका मुँह भी लाल हो गया। मौसी ज़रा
भी माँ जैसी नहीं दिखती। मेरी माँ साँवली थी, तो
मौसी थी गोरी।
दोपहर के वक्त मौसी ने पिता जी से कहा, "मैं
रघू को अपने घर ले जाती हूँ। इधर उसकी परवरिश ठीक से नहीं होगी।
पिता जी चुप रहे।
"तुम्हारे काम पर जाने के बाद वह अकेला पड़ जाएगा। उसके
खान-पान का क्या होगा?"
पिता जी ने मेरी तरफ़ देखा।
"अगर उसको भेजा तो मुझसे अकेले में दिन कैसे काटे जाएँगे?"
"तुम मर्द हो। काम शुरू करते ही सब कुछ भूल जाओगे। ये
बेचारा मुसीबत का मारा हो जाएगा।"
मैं बैठकर दोनों के मुँह ताकता रहा। मैं जाना भी चाहता था
और नहीं जाना भी। आख़िर पिता जी ने मेरी दो कमीज़ें,
पतलून थैले में रख दिए और बोले, "रघू,
तू अपनी मौसी के साथ जा।"
जब उन्होंने ''जा''
कहा तब न जाने को मेरा जी चाहा। पिता जी मुझे बहुत लाड़
करते थे। मुझे साथ लेकर वे कई बार छोटे पुल पर मछली पकड़ने जाएा करते थे।
तब हमारी लाई गई मछली माँ अच्छी तरह आग में सेंकती थीं। शनिवार के दिन
चौराहे पर बड़ा बाज़ार भरता था। पिता जी उधर छोटी-बड़ी रस्सियाँ बेचने
बैठते थे। मैं भी उनके साथ बैठता था। धूप तेज़ होने पर पिता जी छाता खोलते
थे और हम बड़ी अकड़ के साथ उसके नीचे बैठते थे। उधर पिता जी मुझे चने,
मूँगफल्ली वगै़रह देते थे।
आज भी
शनिवार था। मगर पिता जी नहीं गए। माँ के जाने के बाद से पिता जी बदल ही
चुके हैं। मेरा तो बिल्कुल दम घुटता है।
"पिता जी, आप भी आइए ना!"
"पगला! पहले तू जा।"
"आप कब आएँगे?"
"आऊँगा।"
"पर कब?"
"आऊँगा एक दिन।"
"जल्दी ही आ जाइए।"
पिता जी कुछ नहीं बोले।
"जल्दी आएँगे न?" मैंने फिर से
दुहराया। उन्होंने सिर हिला दिया।
मौसी की
अँगुली पकड़ कर मैं झोंपड़ी से बाहर आया। पिता जी दरवाज़े तक आए। जुवांव की
शराब की दूकान के पास पहुँचने तक मैंने बार-बार मुड़-मुड़ कर देखा। पिता जी
वहीं खड़े थे। उत्तम की दूकान के बाद अब झोंपड़ी दिखाई नहीं दे रही थी।
पिता जी भी ओझल हो गए। मौसी की अँगुली छोड़ कर पिता जी तक दौड़ने को मन
चाहा। मैंने मौसी की अँगुली छोड़ी भी पर मौसी ने ही मेरा हाथ मज़बूती से
पकड़ लिया।
"रघू, तुम सयाने लड़के हो। है ना?"
मैंने गर्दन हिलाई और चुपचाप उनके साथ चलता रहा।
"हम बस में बैठ कर जाएँगे।"
"बस में बैठकर?"
"हाँ. . ."
पिता जी, माँ और मैं एक बार मेले
में गए थे। तब बस से ही गए थे। आज फिर से बस की मुलायम सीटों पर बैठने को
मिलेगा, यह सोच कर मैं खुश हो गया और मौसी की
अँगुली कस कर पकड़ ली।
मौसी का घर हमारी झोंपड़ी से बड़ा था। सफ़ेद चूने से पुता। उस रात बेहद बारिश हुई। पर ज़रा भी चुआ नहीं। हमारी झोंपड़ी में जगह-जगह पानी चूता था। सब जगह बर्तन रखते-रखते माँ ऊब जाती थी। अगर ज़्यादा ही चूने लगे, तो पिता जी सीढ़ी पर चढ़ कर छत की मरम्मत करने लगते और माँ या मैं चिमनी का प्रकाश दिखा कर, "इधर चूता है उ़धर चूता है" ऐसा बताते।
आज अगर छत
चूने लगे,
तो पिता जी को दिया कौन दिखाएगा?
मौसी की बगल में सोते हुए ये विचार मेरे दिमाग में आ रहे थे।
"मौसी. . ." मैंने पुकारा।
"चुपचाप सो जाओ।" मौसी ने मेरी पकड़ और भी मज़बूत कर ली और
मुझे थपथपाने लगी। उस की साड़ी की गंध मेरी नाक में घुसी। माँ की बगल में
सोते हुए धुएँ की अच्छी-सी गंध आती थी। सुरंग की साड़ी से भी वही खुशबू आती
है, जैसी कि माँ की साड़ी से आती थी। उस गंध का
चिंतन करते हुए मैं मौसी की बगल में घुसा।
मौसी ने मुझे वहाँ की पाठशाला में पढ़ने भेजा। मेरा पहले
वाला स्कूल इससे बेहतर था। स्कूल के सामने ही बरगद का पेड़ था। उसकी जटाओं
को पकड़ कर हम इधर से उधर झूलते थे। वैसे तो इस स्कूल के रास्ते पर भी एक
इमली का पेड़ था। ढ़ेर सारी इमलियाँ मिलती थीं। जेब भर कर इमली लेते समय
मुझे शिरी और बेंदित की याद आती थी।
हमारी
झोंपड़ी के पास एक नाला था। हम कई बार नाले पर जाते थे। डुबुक-डुबुक कर के
डुबकियाँ लगा कर नहाते थे। मौसी के घर के पास नाला नहीं था,
कुआँ था। मौसी सुर-सुर कर रस्सी खींच के गागर से कुएँ का
पानी निकाल कर मेरे सर पर उंडेल देती। पूरे बदन में साबुन लगाती। घर पर मैं
अकेला ही नहा लेता था। मैंने माँ को कभी मुझे नहलाने नहीं दिया। मैं क्या
अब नन्हा-सा बच्चा था? पर मौसी सुने तब न! मुझे
गुस्सा आता था।
"आठ बरस का घोड़ा, पर कौए जैसा
नहाता है! गंदा कहीं का।" ऐसा कह कर मौसी मुझे साबुन रगड़ती थी। आँखों में
झाग जा कर मेरी आँखें भी जलने लगती थीं। मुझे लगता था कि मैं मौसी को भींच
लूँ। पर मैं कुछ नहीं करता था। बेचारी माँ को मैंने कई बार भींचा था।
पिता जी के साथ कभी-कभी मैं भी नदी पर जाता था। तब हम
दोनों कंकड़ ले कर एक दूसरे की पीठ मलते थे। उस याद से पिता जी के पास जाने
को मेरा मन ललचाया। जब मौसी मेरे गीले बाल पोंछने लगती,
तब मैं आँखें बंद कर के वही सोचता रहता।
मौसी की
कोई संतान नहीं थी। मौसी,
मौसा और उसकी माँ इतने ही लोग वहाँ रहते थे। पड़ोस में भी
मेरी उम्र की कोई लड़का नहीं था। जो बड़े थे, वे
मुझे अपने खेल में शरीक़ होने नहीं देते थे। मैं बहुत ऊब जाता था। तब मौसी
अपना काम छोड़ कर मेरे साथ खेलती थी। मौसी, अंटों
से खेलना नहीं जानती थी। लेकिन पाँच कंकड़ वाला खेल वह बहुत ही अच्छा खेलती
थी। पिट्ट-पिट्ट कर के कंकड़ पकड़ती थी। मौसी के पास बहुत-बहुत गजगे थे।
मौसी के साथ खेलने में बहुत मज़ा आता था। मैं ठगा भी लूँ,
तो मौसी की समझ में कुछ नहीं आता था। जब पूरे अंटे मेरे हो
जाते, तब वह मुझे गोद में बिठाकर, "बड़ा
होशियार है मेरा राजा बेटा!" ऐसा कह कर हँसती थी।
जब मैं स्कूल जाने निकलता तब मौसी आँगन में खड़ी रह कर
मुझे देखती थी।
"ठीक से जाओ।"
"हाँ मौसी।
इमली के
आकर्षण से मेरे कदम जल्दी-जल्दी पड़ते थे। मौसी के घर के सामने वाली सड़क
सीधी जाती है। बाद में मोड़ पर एक आम का पेड़ है। उधर पहुँचने तक मैं रोज़
पीछे मुड़ कर देखता था और मौसी को हाथ हिला कर जो दौड़ लगाता था,
तो एकदम इमली के पेड़ के नीचे। मेरे हाथ हिलाने तक मौसी
आँगन में ही खड़ी रहती थी। एक बार मैं हाथ हिलाना भूल गया,
तो मौसी को एकदम बुरा लगा। स्कूल से जब मैं लौटा तो कहने
लगी-
"रघू, आज तूने पीछे मुड़ कर देखा
ही नहीं।"
"कब मौसी?"
"स्कूल जाते वक़्त।"
"भूल गया।"
"ऐसे कैसे भूल गया? तुझे तो मुझसे
अपनापन ही नहीं है। मैं ही तुझ पर जान देती हूँ।" मौसी की आँखें भर आई।
मुझे बहुत बुरा लगा। पीछे मुड़ कर नहीं देखा तो इसमें मौसी को इतना दुखी
होने की क्या बात थी, यही मैं सोचता रहा। पर उस दिन
से आम के पेड़ के पास पहुँचते ही मैं बिना भूले पीछे मुड़ कर देखने लगा।
रात को मौसी मुझे कहानी सुनाती थी। उस रात उसने मुझे
चिरुंगन की कहानी सुनाई।
"एक था चिरुंगन। एकदम नन्हा-सा। एक दिन उसकी माँ मर गई।
चिरुंगन घोंसले में अकेला रह गया। चिरुंगन की एक मौसी थी। उसने बड़ी ममता
से उसे अपने पंखों तले सहारा दिया। उसे प्यार दिया। पाला-पोसा।
मैंने मौसी से पूछा, "मौसी उस
चिरुंगन की मौसी के अपने बच्चे नहीं थे क्या?"
"नहीं बाबा, वह मुई थी बड़ी
बदनसीब!"
"तब।"
"चिरुंगन की मौसी उसका पालन पोषण करने लगी। मौसी उसे बहुत
प्यार करती थी। वह उसे अपना ही बच्चा समझती थी। मौसी ने उसे उड़ना सीखाया।
बच्चे ने पंख फैलाए। वह अकड़ से उड़ने लगा। मौसी खुशी से फूली न समाई। एक
दिन चिरुंगन घोंसले से बाहर निकला। उड़ कर दूर-दूर चला गया। मौसी चिरुंगन
को भूल न सकी। वह उसकी राह देखती रही। कहने लगी -
"ओ रे चिरुंगन मेरे,
कब आएगा तू?
प्यार करती हूँ तुम से मैं
पर भूल गया रे तू!"
और उस चिरुंगन की याद में मौसी घोंसले में रोती रहती थी।
कहानी
सुनाते-सुनाते मौसी खुद ही रोने लगी। उसका रोना देख कर मैं भी रोने लगा।
मौसी ने मुझे गोद में लिटाया और थपथपाते हुए धीमे स्वर में वह गाने लगी।
"ओ रे चिरुंगन मेरे. . ."
हमारी छमाही परीक्षा हो चुकी थी मगर पिता जी एक बार भी
मौसी के घर नहीं आए। मुझे उनकी, माँ की बहुत याद
आती थी। रविवार के दिन कभी-कभी मैं मौसा जी के साथ बस स्टैंड पर जाएा करता
था। तब, शायद किसी बस से पिता जी उतरेंगे,
इस आशा से मैं देखता रहता। पर पिता जी नहीं आए। मैंने उनसे
कहा था, "जल्दी आना।" बहुत राह देखी और एक दिन पिता
जी आ धमके। स्कूल की छुटि्टयाँ थीं। मैं अकेला ही आँगन में अंटों से खेल
रहा था। सामने कोई खड़ा रहा। ऊपर देखा तो पिता जी! मैंने अंटे फेंक दिए और
पिता जी की कमर में बाहें डाल दीं।
"मौसी पिता जी आ गए।"
पिता जी ने मुझे कस कर पकड़ा। मेरा चेहरा खुशी से खिल उठा।
मौसी बाहर आई।
चाय पीते वक्त पिता जी ने कहा, "रघू
को लेने आया हूँ।"
मौसी के हाथ का सूप ज़मीन पर गिरा। उस में से चावल सब जगह
बिख़र गए। मौसी बिल्कुल गई बीती। सूप भी ठीक तरह पकड़ना नहीं जानती।
"तुम काम पर निकलोगे। रघू अकेला रह जाएगा। उसका क्या होगा?"
"वह अकेला नही होगा।"
"नहीं कैसे?"
"मैंने दूसरी शादी की है।" पिता जी ने धीरे से कहा।
"क्या? मोगरू के चल बसे छ: महीने
भी नहीं बीते, और तुमने। । ।।"
"क्या करता? दुनिया में रहना तो है
न? बड़ी मुसीबत में था। आख़िर रघू को भी कितने दिन
यहाँ रखता?" मौसी का चेहरा तमतमा गया।
"रघू का नाम मत लेना। उसे वहाँ ले जा कर क्या सौतेली माँ
के मुँह में दोगे? मैं उसे कभी नहीं भेजने वाली।"
मौसी
गुस्से से बोलने लगी। मैं दोनों के मुँह ताकता रहा। सौतेली माँ?
मौसी ने मुझे सौतेली माँ की बहुत कहानियाँ कही थीं। सब
सौतेली माँएँ बुरी होती हैं, यह मैं जानता था। पिता
जी मेरी भी सौतेली माँ लाए हैं यह सोच कर मुझे रोना आया और माँ की याद में
मैं हिचकियों पर हिचकियाँ भरता रहा।
"रघू को सौतेली माँ से कुछ तकलीफ़ नहीं होगी। वह उसे प्यार
ही करेगी।"
"यह तुम मुझे मत बताना। तुम अभी से कैसे जान गए?"
"वह पड़ोस में ही रहती थी। हमारे रघू को वह बहुत चाहती
है।"
"कौन है वह?"
"सुरंग. . ."
सुरंग? मेरी आँखें चमक उठीं। हटो,
सुरंग भी कभी सौतेली माँ हो सकती है भला?
वह कितनी अच्छी है! उसकी बगल में जब सोया था,
तब मुझे लगा था कि जैसे मैं माँ की गोद में सो गया हूँ!
मैं फ़क
से हँसा। पिट्ट कर के कूद कर पिता जी के पास पहुँचा।
"पिता जी, मैं चलूँगा।"
पिता जी हँसे। मेरे बाल सहलाने लगे। मौसी चुपके से खाली
सूप ले कर अंदर चली गई।
"मौसी मेरी कमीज़ किधर है? पतलून
किधर है?" कह कर मैं उनके पीछे दौड़ा।
मौसी रसोई घर में खड़ी थी। उनकी नाक लाल हुई थी।
"रघू, क्या तू सचमुच जाएगा?"
सचमुच याने? पगली मौसी! क्या पूछती
है, जानती ही नहीं! मैंने सिर हिलाया।
"यहाँ तुझे अच्छा नहीं लगता?"
''यहाँ मुझे अच्छा लगता था पर पिता जी के साथ और भी अच्छा
लगेगा।'' मैंने मौसी से वैसा कहा।
"मैं ही पगली!" ऐसा बोलते-बोलते मौसी ने सूप में चावल डाल
दिए।
"मौसी, बाहर चावल बिखरे हैं। वैसे
ही पड़े हैं।"
"हाँ, जानती हूँ,
च़ावल बिखरे हैं।"
"मैं जमा कर लाऊँ?"
"नहीं रघू, मुझसे बिखरे थे,
मैं ही जमा कर लूँगी।" कह कर मौसी बाहर चली गई।
दोपहर भोजन के बाद मौसी ने मेरे कपड़े थैली में रख दिए।
मेरी मनपसंद पिपरमिंट मेरी जेब में भरी। कुछ लड्डू बाँध दिए।
"आएगा न कभी-कभी?"
मैंने सिर
हिलाया। पिता जी के तैयार होने से पहले ही मैंने पैरों में चप्पल भी पहन
लीं। मैं आँगन में आ पहुँचा। मौसी ने मुझे कस कर गले लगाया,
चूम लिया। मैं शरमिंदा हुआ। पिता जी ने देखा होगा,
यह सोच कर ही मैं लाल हो गया। पिता जी का हाथ पकड़ कर मैं
चलने लगा।
"पिताजी, क्या नाले में अभी तक
पानी है?"
"पिताजी, हम छोटे पुल पर मछलियाँ
पकड़ने जाएँगे न?"
" स़ुरंग भी अभी हमारे ही साथ रहेगी?"
मैं बहुत कुछ जानना चाहता था। पिता जी हँस-हँस कर मुझे
जवाब देते थे। बेंदित और शिरी को बहुत सारे समाचार सुनाने थे। जेब में से
इमलियाँ देनी थीं। घर पहुँचने को मैं बहुत उतावला था।
खुशी-खुशी मैं बस में चढ़ा। बस चलनी शुरू हो गई।
बोलते-बोलते जेब में हाथ डाला। मौसी के दिए पिपरमिंट हाथ लगे और झट से मुझे
याद आया-
आम के पेड़ के पास पहुँचने पर,
पीछे मुड़ कर, मौसी को हाथ हिलाना मैं भूल गया था।
बिल्कुल भूल गया था।
(रुपांतरकार - लीला गायतोंडे)