निष्ठा (इतालवी कहानी) : इतालो काल्विनो
Nishtha/Solidarity (Italian Story in Hindi) : Italo Calvino
मैं उन्हें देखने के लिए वहीं ठहर गया।
वे लोग रात में काम कर रहे थे। एक सुनसान गली में एक दुकान के शटर से जुड़ा हुआ कोई काम कर रहे थे।
दुकान का शटर थोड़ा भारी था। उसे उठाने के लिए उन्होंने एक लोहे का डंडा नीचे लगाया हुआ था। पर शटर था कि ऊपर उठ ही नहीं रहा था।
मैं वहाँ से पैदल गुजर रहा था। कोई जल्दी नहीं थी।
मैंने लोहे का डंडा अपने हाथों में थाम लिया। उन्होंने मेरे लिए जगह बनाई। वे सबलोग एक साथ ताकत नहीं लगा रहे थे। मैंने कहा – अरे भाई जोर लगाओं ऊपर। मेरी दाहिनी तरफ खड़े आदमी ने मुझे कोहनी मारी और कहा – चुप रहो, पागल हो क्या? क्या तुम चाहते हो कि वे हमें सुन लें?
मैंने अपना सर कुछ इस तरह हिलाया जैसे की वे शब्द मैंने बोले नहीं थे, बल्की वे तो फिसल गए थे।
इसी तरह कुछ समय गुजर गया और हम पसीने-पसीने हो गए। पर अंतत: हमने शटर को इतना ऊपर उठाने में कामयाबी पा ही ली कि कोई उसके नीचे से दुकान के अंदर घुस सके। फिर हम सभी अंदर चले गए। मुझे एक बोरा पकड़ा दिया गया। अन्य लोग सामान उठा-उठा कर लाते और मेरे बोरे में डालते जाते।
उनमें से एक बोला – जब तक कि कमीने पुलिस वाले न आ जाएँ।
मैंने कहा – हाँ, वे सही में कमीने हैं।
उन्होंने कहा- चुप रहो, तुम्हें किसी के चलने की आवाज़ नहीं आ रही ?
मैंने अपने कानों पर जोर डाला और थोड़ा डरा सा महसूस किया। फिर कहा – अरे नहीं, ये उनकी आवाज़ नहीं है।
एक बोला – वे लोग तभी टपकते हैं जब उनकी कोई आशा भी नहीं कर सकता।
मैंने अपना सर हिलाया और कहा – मारो कमीनों को…और क्या।
फिर उन लोगों ने मुझे बाहर सड़क के मोड़ तक जाकर देखने के लिए कहा कि कहीं कोई आ तो नहीं रहा। मैं चला गया।
बाहर मोड़ पर कुछ अन्य लोग थे। दीवार के साथ दम साधे वे छिप कर खड़े थे। मैं उनके साथ खड़ा हो गया।
मेरे बगल वाले आदमी ने मुझसे कहा – उन दुकानों के पास से आवाज़े आ रहीं हैं। मैंने उस ओर झांक कर देखा।
उसने तुरंत ही फुसफुसाते हुए कहा- बेवकूफ, सिर नीचे करो, वे हमें देख लेंगे और फिर भाग जाएंगे।
मैंने अपने बचाव में कहा – मैं तो देख रहा था। और फिर मैं दीवार की आड़ में छुप गया।
दूसरे ने बोलना शुरू किया- अगर हम उन्हें चुपचाप घेर लें तो हम उन्हें पकड़ सकते हैं। वे ज़्यादा लोग नहीं हैं।
अपनी सांस रोक कर पंजो के बल चलते हुए हम धीरे-धीरे एक-दूसरे की आँखों में झांकते हुए हम आगे बढ़्ते गए।
उनमें से एक बोला – आखिरकार हम उन्हें रंगे हाथों पकड़ ही लेंगे।
मैंने कहा – उनका समय आ गया है।
दूसरा बोला – हरामी दुकानों में चोरी करते हैं।
मैंने गुस्से में दुहराया – हरामी चोर।
उन्होंने जायजा लेने के लिए मुझे आगे भेज दिया।
अब फिर से मैं दुकान के अंदर था।
एक ने अपने कंधे पर बोरा लटकाते हुए कहा – वे अब हमें नहीं पकड़ पाएंगे।
किसी और ने कहा – जल्दी। पीछे के रास्ते से बाहर चलो। इस रास्ते हम ठीक उनकी नाक के नीचे से रफूचक्कर हो जाएंगे।
अब हम सबके होंठो पर जीत की मुस्कान फैल रही थी।
पीछे के दरवाज़े से बाहर निकलते हुए मैंने कहा- उन्हें अफसोस होगा।
उन्होंने कहा- हमने बेवकूफों को फिर से चकमा दे दिया।
पर तभी एक आवाज़ ने हमें चौंका दिया – रुको, कौन है वहाँ?…और फिर बत्तियाँ जल उठीं। हम दम साधे खड़े रहे और किसी तरह छिपते-छिपाते वहाँ से भाग खड़े हुए।
सभी ने कहा- हमने कर दिखाया..वाह।
भागते-भागते मैं फिसल कर पीछे छूट गया। तब मैंने अपने आपको उनके साथ पाया जो दुकान के लोगों का पीछा कर रहे थे।
उन्होंने मुझसे कहा – आओ, अब हम उनको पकड़ने ही वाले हैं।
और मैं उनके साथ दौड़ने लगा और बीच-बीच में वे कहते – दौड़ो, वे अब नहीं बच पाएंगे।
इधर-उधर भागते-भागते मैंने एक को पकड़ लिया।
उसने मुझसे कहा – बधाई हो, तुम उन्हें चकमा देने में सफल रहे। इधर आओ, यहाँ से वे हमें नहीं देख पाएंगे।
उसके साथ कुछ देर दौड़ने के बाद, मैं अकेला रह गया। तभी मोड़ पर कोई आया और उसने मुझसे कहा- इधर आओ, मैंने उनको देखा है। वे अधिक दूर नहीं निकले होंगे। अब मैं उसके साथ दौड़ने लगा।
कुछ देर बाद पसीने-पसीने होकर मैं ठहर गया। वहाँ कोई नहीं था। किसी की आवाज़ नहीं आ रही थी।
मैंने अपने हाथ जेब में डालकर अपने रास्ते चलना शुरू किया। कोई जल्दी नहीं थी। रात अभी बाकी थी।
(अनुवाद - अभिषेक अवतंस)