निर्वाण (कहानी) : शिवानी
Nirvaan (Hindi Story) : Shivani
मैंने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि चार इंच की हृस्व कंचुकी-धारिणी
आधुनिका मनोरमा चोपड़ा को ऐसी आकस्मिक निर्वाण-प्राप्ति हो जाएगी।
मनोरमा से मेरा परिचय कई वर्ष पूर्व आकाशवाणी केन्द्र में हुआ था।
किन्तु तब तक की मन्नू और आज की मन्नू में धरती-आकाश का अन्तर
था। तब वह अपनी मधुर और कुछ-कुछ तोतली वाणी में अपनी महिला
श्रोताओं को, फालसे का शरबत या आम का मुरब्बा बनाने की विधि बताती
और कभी सोहर-बन्ने को सरल लोकगीतों के टेप बजा उनका मनोरंजन किया
करती थी। किन्तु अब उसके श्रोता कम थे, दर्शक अधिक। टेलीविजन की
वह अब एक अत्यन्त लोकप्रिय तारिका थी। पता नहीं किस अमरबूटी शतावरी
का सेवन कर उसने अपने यौवन को मुट्ठी में बन्दी बनाकर रख दिया था।
धीरे-धीरे उस आकर्षक व्यक्तित्व से मेरा परिचय घनिष्ठ होता हुआ प्रगाढ़
मैत्री में बदल गया था।
एक दिन मैंने उससे पूछ भी लिया, "मन्नू, इन पन्द्रह वर्षों में तू क्या
कोई योग-साधना करती रही है? एक छटाँक मांस भी तो नहीं चढ़ा तेरे शरीर
पर।"
"यह सब मेरे गुरुदेव की कृपा है, बहन।" उसका चेहरा एक अलौकिक
दर्प से दीप्त हो उठा था।
"गुरु?" मैंने उसे आश्चर्य से देखा। विधाता-प्रदत्त नैन-नक्श को भी,
उसने जैसे बड़े दुस्साहस से किसी अदृश्य स्पर्श से मिटा दिया था। पेंसिल
से अंकित दो धनुषाकार भँवें, लिपस्टिक के कलात्मक प्रहार से सपाट अधरों
को दिया गया बंकिम उभार, कपोलों पर ‘ब्लश-आन’ की लालिमा और
निर्लज्ज धड़ल्लेपन से खुली सोफिया लौरेन की-सी मेकलाइन। उसकी संध्याएँ
रोज ही पाँच-सितारे के किसी होटल में बीतती थीं, पति की फर्म की ऊँची
नौकरी जिसे आए दिन गगनचारिणी बना देश-विदेश के गगनांगनों में उड़ाती-
फिरती थी, क्या उसका भी कोई गुरु हो सकता था।
मनोरमा चोपड़ा, कैसी आधुनिका क्यों न हो, उसके एक ही गुण पर
मुग्ध हो, मैंने कभी निःसंशय चित्त से उसकी ओर मैत्री का हाथ बढ़ाया था।
वह एक आदर्श पत्नी, पुत्रवधू और जननी थी। उसका सुखी पारिवारिक
जीवन किसी भी सम्पन्न श्रीमन्त की पत्नी का हृदय ईष्र्या से उद्वेलित कर
सकता था। पति के आफिस जाने से पूर्व और लौटने के पश्चात, वह जिस
निष्ठा से उसकी सेवा में जुटी रहती, उसे देखना भी स्वयं अपने-आपमें एक
आनन्दपूर्ण अनुभूति थी। उसके उस व्यवहार में कहीं भी, किसी को प्रभावित
करने की बनावटी फुर्ती का आडम्बर नहीं रहता। वह स्वयं पति के जूतों में
पालिश करती, उनके कपड़े निकाल पलँग पर धरती, कमीज की बाँहों में
‘स्टड’ जड़ती, फिर उसी फुर्ती से, शून्य में फैली उसकी बाँहों को दिशा-निर्देश
देती, कोट लेकर उसके पीछे खड़ी हो जाती।
एक दिन ऐसे ही समय में काम से, उनके घर में बिना द्वार खटकाए
ही धड़धड़ाती हुई मैं भीतर चली गई और अप्रस्तुत होकर द्वार पर ही ठिठककर
रह गई। मैंने सोचा था, वक्त के पाबन्द चोपड़ा साहब दफ्तर चले गए होंगे
और मन्नू अकेली ही होगी।
"आइए-आइए, संकोच क्यों कर रही हैं? मन्नू मेरी पत्नी ही नहीं, मेरी
बैले भी है। माम की ‘टेªजर’ पढ़ी है आपने? मेरी ‘टेªजर’ है मन्नू।" चोपड़ा
साहब ने हँसकर कहा, तो मन्नू मेरी ओर बढ़ आई, "देख रही हो ना। अब
बुढ़ापे में वसन्त जाग रहा है इनके। दस साल का बेटा भी अपने हाथ से
टाई बाँधकर स्कूल चला जाता है, पर बाप की टाई का फन्दा अब भी मुझे
ही ठीक करना पड़ता है।"
ईश्वर ने, उसे मुँहमाँगे दो स्वस्थ-सुन्दर बच्चे दिए थे, जिन्हें वह खिलौना-
सा सजा-धजा स्कूल भेजने पर ही काम पर निकलती थी। सास पहले-पहले
उससे असन्तुष्ट रहती थी। पुत्र ने स्वयं अपनी पसन्द से ही उस विजातीय
लड़की से प्रेम-विवाह किया था। वह बंगाली थी और चोपड़ा साहब थे ठेठ
पंजाबी, किन्तु मक्का की रोटी और सरसों के साग को, मन्नू ने उसी
स्वाभाविक सरलता से ग्रहण कर लिया था, जैसे जनमते ही कभी अपने देश
की चच्चड़ी और घंट को किया था।
उसका पंजाबी बोलने का लहजा जितना ही त्रुटिहीन था, उतनी ही
त्रुटिहीन उसकी वेशभूषा भी थी। जहाँ तक मुझे याद है, मैंने कभी उसे ‘ताँत’
या ‘डूरे घनेरवाली’ साड़ियों में नहीं देखा। चटकीले-भड़कीले रंगों की शिफान,
क्रेप नाइलाॅन की पारदर्शी साड़ियों के चयन में वह पंजाबी जीवंत रुचि का
ही परिचय अधिक देती। कभी-कभी अपनी पृथुल वेणी को ऐलोकेशी जूड़े
में सँवार वह एक-आध गुलाब खोंस लेती, तो चोपड़ा साहब हँसकर उसे
छेड़ने लगते, "देखो न, आज इन्हें अपने ‘सोनार बांगला’ की याद हो आई
है, पर कुछ भी कहो, मन्नू, जूड़ा अब तुम्हें सूट नहीं करता।"
फिर एक दिन वह स्वेच्छा से ही जूड़े का भी आमूल विध्वंस कर आई।
अब उसके कटे केशगुच्छ रेशमी गुच्छे-से कन्धे तक झूलते उसके व्यक्तित्व
को और आकर्षक बना गए थे। कोई भी उसे देखकर नहीं कह सकता था
कि वह बंगाली है। सास की सेवा में तो वह किसी भी आज्ञाकारिणी पुत्रवधू
को पराजित कर सकती थी।
"मैं तुझे भी एक दिन अपने गुरुदेव के दर्शन कराऊँगी।’’ उसने एक
दिन मुझसे कहा, तो मैंने हँसकर हाथ जोड़ दिए थे, "माफ करना, मन्नू, मेरी
इन स्वामियों में कोई श्रद्धा नहीं है।" मैं एकदम ही एग्नोस्टिक हूँ, ऐसी बात
नहीं है, ईश्वर में मेरा दृढ़ विश्वास है, किन्तु किसी साधु-सा पहुँचे सिद्ध का
अन्धानुगमन, मेरी प्रकृति के विरुद्ध है, किसी लब्धप्रतिष्ठ स्वामी का सान्निध्य,
मेरे या अन्य किसी के जीवन में, मांगलिक परिवर्तन संघटित कर सकता है,
या किसी गुरु का भृकुटि-विलास अप्रसन्न होने पर किसी का अनिष्ट कर
सकता है, यह सहसा मान लेने को मेरा चित्त प्रस्तुत नहीं होता।"
कुमायूँ आदिकाल से उन्नत कोटि के ऐसे साधकों की पदधूलि से धन्य
रहा है, जिन्हें प्राच्य-पाश्चात्य सभी देशों ने कभी मान्यता दी थी। मैं अब
भी अवसर पाते ही वर्षों पूर्व समाधिस्थ हुए एक ऐसे ही साधक की प्रस्तरमूर्ति
के दर्शन करने जाती हूँ। और जब भी दर्शन कर लौटती हूँ, लगता है,
अपार्थिव रूप से ही उनके वरदहस्त का शीतल स्पर्श मुझे फूल-सा हल्का बना
गया है। किन्तु इस फरेबी युग में ऐसे किसी सिद्ध का अस्तित्व मेरे सन्देही
मन को शंकित ही अधिक करता है, इसी से जब कभी मन्नू ने मुझे अपने
गुरुदेव के दर्शन के लिए आमन्त्रिात किया, मैं एक-न-एक बहाना बना उसे
घिस्सा देती रही थी। मुझे जैसे भय होता था कि उनके समक्ष उपस्थित होने
पर कहीं उनके व्यक्तित्व के सम्मोहक प्रभाव में आकर, मेरी विचारधारा
परिवर्तित न हो जाए, किन्तु उस दिन मन्नू के निवास-स्थान की एकदम
विपरीत दिशा में जाने पर भी, न जाने कौन-सी शक्ति मुझे उसी ओर खींच
ले गई। उनकी दर्शनीय कोठी की छटा मुझे सर्वदा ही नित्य नवीन लगती
थी। कभी जयपुर के कारीगरों से बनवाया गया संगमरमरी कुंड, कभी किसी
जादुई स्पर्श से उसी के बीच स्थापित की गई शिवमूर्ति, उनकी भव्य जटाओं
के मध्य से निकलती फव्वारे की जलराशि, उनके आशुतोष दिव्य स्मित को
भिगोती मुझे आश्चर्यचकित कर देती थी।
उधर दूसरे में, अपनी इटली-यात्रा के दौरान खरीदकर लाई गई वीनस
की खंडित मूर्ति स्थापित कर चोपड़ा साहब ने अपनी सर्वथा मौलिक रुचि
का मुझे विधिवत् परिचय भी दे दिया था, "देख रही है ना? एक ओर
स्फुरणमौलि कल्लोलिनी गंगा, दूसरी ओर वीनस की भुवनमोहिनी सुन्दरता।
प्राच्य-प्रतीचि का यह मिलन, कैसा लगा आपको? हम किपलिंग की उक्ति
में विश्वास नहीं करते थे ‘ईस्ट इज ईस्ट एंड वेस्ट इज़ वेस्ट’।"
सचमुच ही चोपड़ा साहब का मौलिक प्रयोग गोल की सज्जा को एक
अनोखी भव्यता से मंडित कर गया था। जहाँ शिपनडेल का एकदम ही विदेशी
रुचि का फर्नीचर था, वहीं बीचोंबीच झूलता था काठियावाड़ी ‘हिचका’!
काकटेल पार्टी भी होती, तो अलभ्य आसवों का वह बहुचर्चित सम्मिश्रण,
मुरादाबादी गंगा-जमनी काम की कलात्मक सुराही से, बेल्जियन कट गिलास
के जाम में ढाल, देशी-विदेशी अतिथियों को परिवेशित किया जाता। उस
दिन भारी दक्षिणा देकर चोपड़ा साहब एक-से-एक चुस्त सुन्दरी किशोरियों
को न जाने किस रत्नगर्भा खान से बटोर लाते। मैं कई बार उनकी इन
दावतों की कर्णकटु आलोचना भी सुन चुकी थी अतिथियों को आसव का
ही नहीं, सौन्दर्य का भी मादक घूँट पिला-पिलाकर ही तो इस अल्प अवधि
में वे इस विख्यात फर्म के जनरल मैनेजर के पद पर आरूढ़ हो गए हैं।
लोग कहते, तो मुझे बड़ा दुख होता। यह ठीक था कि उनके अतिथि
साधारण तबके के नहीं होते थे। मन्त्री, उनके आत्मीय सचिव, उद्योगपति,
राजदूत एक-से-एक राजसी अतिथि निमन्त्रण बड़ी ललक से ही स्वीकार किया
करते थे। वह आकर्षण साकी का था, जाम का या उदार मेजबान की मैत्री
का, यह मैं कभी समझ नहीं पाई।
उस दिन मैं पहुँची, तो बरसाती से लेकर बाहर तक रंग-बिरंगी कारों की
कतार देख ठिठककर खड़ी रह गई। तभी, न जाने किस काम से मन्नू निकली
और मुझे देखते ही भागकर मुझसे लिपट गई, "ओह, तू स्वयं आ गई, मैं
जानती थी, एक दिन ऐसा ही होगा।" भाव-विभोर होकर, वह मुझे हाथ
पकड़कर भीतर खींच ले गई।
पहले मैं समझ ही नहीं पाई, पर कमरे में पैर रखते ही सब स्पष्ट हो
गया। जहाँ दीवान, सोफा, रेशमी गद्दियों, रा सिल्क के पर्दों के बीच अपूर्व
नग्न मूर्तियों का जमघट रहता था वहाँ सबकुछ तिरोहित हो, फर्श पर दूधिया
चाँदनी बिछी थी। एक ओर था छोटा-सा कुशासन और बीच में धरी उसके
गुरुदेव की बड़ी-सी तस्वीर के सामने अगरबत्तियों के गुच्छे का गुच्छा जलता
पूरे कमरे को अपनी लच्छेदार धूम्ररेखा से सुवासित कर रहा था। कमरे में
तिल धरने की भी जगह नहीं थी। एक-से-एक समृद्ध अतिथि, सहमी मुद्रा
में नतमस्तक बैठे, गुरुदेव की प्रतीक्षा कर रहे थे। कौन कह सकता था कि
ये वे परिचित चेहरे हैं, जिन्हें मैं कुछ दिन पूर्व एक सुख्यात होटल में दिए
गए विवाह भोज में, इस्तांबूल की नग्नप्राय कैबरे नर्तकी की चिकनी देह पर
निर्लज्जता से आँखों-आँखों में लार टपकाते देख चुकी थी! कमरे में तानपूरे
और तबले की जोड़ियों के बीच बैठी आकाशवाणी की कई परिचित नायिकाओं
को मैं पहचान, स्मित का अभिवादन दे रही थी कि दूसरी ओर बैठी अपनी
साहित्यिक बिरादरी के व्यंग्यात्मक स्मित से सहम गई। उस तिर्यक् स्मित में
किसी बादशाह के हरम में, सहसा अनधिकार प्रवेश पा गई किसी सौत के
प्रति प्रदर्शित कई जोड़ा प्रतिष्ठित आँखों की अवज्ञामिश्रित सौतिया डाह की-
सी ही दहन थी। सहमकर मैंने आँखें फेर लीं और सकपकाकर बैठ गई।
सहसा गुरुदेव का पदार्पण हुआ। स्कंध स्पर्श करते रेशमी घुँघराले बाल,
स्थूलकाय प्रसन्नवदन उस दिव्यपुरुष को देखते ही जैसे सबको एकसाथ
बिजली का-सा झटका लगा और सब खड़े हो गए। संकेत से ही उन्होंने
सबको बैठने का आदेश दिया, फिर अपनी गूढ़ दृष्टि, मेरी ओर निबद्ध कर
बोले:
"अवश्यंभावी अवश्य होता है, लड़की, क्यों? अपने पति के विषय में
अब भी सोच रही है क्या?"
मुझे पसीना आ गया। कैसे जान गया था यह प्रज्ञाचक्षु? मेरे पति को
उस दिन हरारत हो आई थी। और वैसी ही अवस्था में उन्हें दौरे में बाहर
जाना पड़ा था। मैं सचमुच उस क्षण यही सोच रही थी। क्या यह उनका
परिचित ज्ञान था या विचार-स्थानांतरण? मैंने लज्जा और परिताप से सिर
झुका दिया।
"यह यहाँ नहीं आना चाहती थी।" स्वामीजी का दिव्य स्मित मेरी नंगी
पीठ पर फिर तड़ातड़ चाबुक-सी मारने लगा, "किन्तु इसे यहाँ आना पड़ा,
सोच रही थी पति को बुखार ही में दौरे में जाना पड़ा है, पता नहीं कैसे
हैं।"
वे फिर हँसे, "चिन्ता मत कर, सब मंगल होगा, मेरे लिए यह सब जल-सा
सुगम है।"
उन्होंने अब अपनी दृष्टि को कमरे में बिखरी भीड़ पर घुमाकर कहा,
"इसे जानने के दो मार्ग समीकरण अर्थात जागतिक शक्तियों के संघट्ट का
स्वरूपज्ञान और दूसरा तीव्र दृष्टि, जिसे तुम लोग शायद दिव्य-दृष्टि कहने
पर अधिक स्पष्ट रूप से समझ लोगे..."
कमरे की भीड़ को आतुरता की लहर चंचल कर गई। आधुनिक जीवन
के अनेक संशयों से क्षुब्ध कितने ही व्याकुल चित्त, एकसाथ अनेक प्रश्न
पूछने को लालायित हो और निकट खिसक आए। उधर द्वार के पास ही
बैठी तीन-चार सुन्दरी किशोरियाँ एकसाथ हवा के झोंके की तीव्रता से बाहर
निकल गईं।
क्या पता, स्वामीजी के दिव्य-चक्षु, पढ़ाई के साथ-साथ चल रही उनकी
दूसरी आजीविका का उद्गम श्रोत भी सबके सामने खुली पुस्तक-सा बाँच
कर, उन्हें अपदस्थ कर दें।
"शान्त हो, शान्त हो, मैं यहाँ योग-प्रदर्शन करने नहीं आया हूँ...तुम लोग
नवीन सभ्यता की सन्तान हो, प्रत्येक शंका का समाधान चाहते हो, क्यों, है
न?" स्वामीजी की झकझक करती दन्तपंक्ति देख, मैं अवाक् रह गई। चेहरे
की-सी ही चमक उजले दाँतों की भी थी, "मैंने इसी से तुम्हारी शंका का
एक छोटा-सा समाधान प्रस्तुत किया था, मन्नू, अब कीर्तन आरम्भ करो।"
और फिर कमरा कीर्तन की मधुर स्वर-लहरों से गूँज उठा था।
इस घटना के पश्चात मेरे न चाहने पर भी मेरी विचारधारा में एक
आमूल परिवर्तन संघटित हो गया। अनेक तर्क-वितर्कों से भी मैं अपने अशान्त
चित्त को शान्त नहीं कर पाई थी। गुरुदेव तो उसी रात की फ्लाइट से
शिकागो चले गए, किन्तु मुझे ऐसा अनुभव होने लगा जैसे मेरी समग्र सत्ता
सचेत होकर मुझे अद्भुत पुकार से झकझोरकर कह रही है, ‘आँखें खोल,
मूर्ख मैं हूँ, मैं हूँ!’ यह पुकार शुद्ध बोधात्मक थी। उधर जब कभी मन्नू
मिलती, गुरुदेव के अनेक चमत्कारों की कहानियाँ सुना, मुझे और भी अशान्त
बना देती।
"जानती है, क्या कहते हैं गुरुदेव? कहते हैं, ‘मन्नू, साधना तुझे नहीं
करनी होगी, तेरे लिए जो करणीय है, मैं करूँगा। शक्ति, अनुभूति ये सब
बाह्य वस्तुएँ हैं, इनमें तेरी आसक्ति रही तो कभी भी तुझे निर्वाण की प्राप्ति
नहीं होगी। साधना का तब तक कोई महत्त्व नहीं होता जब तक गुरु अनुगत
न हो। धीरे-धीरे तेरे सब कार्य स्वतः सिद्ध होंगे, पगली। ’’
यह सुनाते, मन्नू का चेहरा शिशु-सा सरल बन जाता और मैं ईष्र्या से
उसे देखती रहती।
कैसा सहज, सरल विश्वास था उसका, न मेरे विवेकी चित्त जैसी व्यर्थ
की दलीलें, न कोई संशय, कब और कैसे उन्होंने मेडिकल इंस्टीट्यूट से
असाध्य करार दिए गए किस कैंसरग्रस्त रोगी को, केवल अपनी धूनी की
चुटकी-भर भस्म से ठीक कर दिया; कब, किस लक्षाधिपति विदेशी चेले के
अशान्त चित्त की खोई शान्ति लौटा दी; सुनने में अब मुझे भी आनन्द आने
लगा। किन्तु साथ-ही-साथ मन्नू के सुखी दाम्पत्य जीवन में क्रमशः गहरी
बनी जा रही दरार को भी अब मैं स्पष्ट रूप से देख रही थी। जब कभी
उनकी कोठी में गुरुनाम संकीर्तन होता, मैं देखती, चोपड़ा साहब घर में
उपस्थित रहने पर भी पत्नी की प्रार्थनासभा में अनुपस्थित ही रहते। यही
नहीं, एक-दो बार मेरे ही सामने इसी प्रसंग को लेकर दोनों बड़ी बुरी तरह
उलझ पड़े थे और मैं अप्रस्तुत होकर बाहर खिसक आई थी। फिर मुझे अपने
पति की बीमारी के कारण सुदीर्घ अवधि तक पहाड़ पर रहना पड़ा, जब
लौटी, तो मनोरमा चोपड़ा निर्वाण प्राप्त कर चुकी थी।
मैंने आते ही फोन किया, तो किसी ने नहीं उठाया। दूसरे दिन मैंने फिर
फोन किया, प्रातःकाल तो वह केवल अपने परिवार के लिए सुरक्षित रखती
थी, निश्चय ही घर पर होगी। बड़ी देर तक फोन की घंटी किर्र-किर्र कर
बजती रही। अन्त में जब निराश होकर मैं रखने ही जा रही थी कि उनकी
नन्ही बेटी बुलबुल ने फोन उठाया, "हैलो!"
नन्हें स्वर को फोन पर ही दुलारकर मैंने पूछा, "मम्मी को फोन देना
तो, बेटी।"
"मम्मी तो है नहीं।" स्वर की अस्वाभाविक उदासी ने मुझे चौंका दिया।
"कहाँ गई?"
उसने इस बार बिना कुछ कहे ही फोन नीचे रख दिया।
ऐसा तो वह पहले कभी नहीं करती थी। मन्नू ने नम्रता और शिष्टाचार
की घूँटी तो अपने बच्चों की जन्मघुट्टी ही में घोलकर पिलाई थी। उसी दिन
फिर मैं स्वयं ही उसकी कोठी पर पहुँच गई थी। स्वार्थ कुछ मेरा भी था।
मेरी एक मौसेरी बहन कैंसर के क्रूर पंजे में दबी, भयावह यन्त्रणा में छटपटा
रही थी। क्या पता, उसके चमत्कारी गुरु की चुटकी-सी भभूत उसे भी
नवजीवन प्रदान कर दे? गुरुदेव का पता लेने ही मैं उस दिन वहाँ पहुँची
थी। घंटी बजाई, तो चोपड़ा साहब ने ही द्वार खोला। मैं उन्हें आश्चर्य से
देखती ही रह गई। जिस दर्शनीय व्यक्ति की साज-सज्जा देखकर कभी भूख
भागती थी, वह मेरे सम्मुख किसी निगरगंड फकीर-सा ही खड़ा था। मैला-सा
सिलवट पड़ा, नाइटसूट, डेªसिंग गाउन की उधड़ी तुरपन एक ओर लटकी थी,
बढ़ी दाढ़ी चेहरे को रुग्ण बना जैसे उनकी वयस के दस साल और बढ़ा गई
थी।
"यह क्या, चोपड़ा साहब, बीमार थे क्या? मन्नू कहाँ है?" मैंने पूछा।
किसी परमहंस की-सी हँसी से उनका चेहरा सहसा करुण हो गया, विद्रूप
और व्यंग्य की ऐसी वीभत्स झुर्रियाँ मैंने आज तक किसी चेहरे पर फिर नहीं
देखीं।
"मन्नू? शी हैज गोन, गोन विद द विंड...(वह चली गई हवा के साथ
उड़ गई...)," और फिर हाथ का बुझा सिगार, हाथ में ही लिये वे अपनी
भूल-भूलैया-सी कोठी के, न जाने किस कमरे में जाकर खो गए।
भीतर जा, माताजी से सबकुछ सुन मैं स्तब्ध होकर घर लौट आई थी।
मन्नू ने इधर अपनी सुखी गृहस्थी की लक्ष्मण-रेखा स्वेच्छा से ही लाँघ कपटी
रावण का हाथ पकड़ लिया था। पहले भी कई बार उसकी पति से इन्हीं
गुरु को लेकर झड़प हो चुकी थी। आए दिन उनके साथ धार्मिक गोष्ठियों
में भाग लेने, देश-विदेश की खाक छानती मन्नू पति, पुत्र, पुत्री सबको भुला
बैठी थी।
"खोती नूँ कुछ खिला दिया सी गुरु दे बच्चे ने।" माताजी के आँसू
उनके अनुभव की झुर्रियों पर टपकते, एक पल को उन्हें विह्नल कर गए।
फिर उन्होंने मन्नू के दुर्भाग्य का पूरा प्रकरण मुझे सुना दिया।
एक दिन, पुत्र को तीव्र ज्वर में छोड़ वह अपने गुरु के साथ तिरुपति
जाने लगी, तो उसके पति ने उसे उसके गुरुदेव के सम्मुख ही डपट दिया
था, ‘संजय को तेज बुखार है, बेबे का भी ब्लडपे्रशर कल से बहुत बढ़ गया
है, ऐसे में तुम नहीं जा सकतीं, मन्नू!’ मन ही मन क्रोध से जला-भुना जा
रहा था, पर स्वर था एकदम शान्त, निरुद्वेग।
पर उस मत्थासाड़ी के सिर पर तो गुरु का जादू चढ़कर बोल रहा था,
‘नहीं, मैं जा रही हूँ, गुरु मेरे साथ हैं, संजय का कोई अनिष्ट नहीं हो सकता,
मैं उसे भभूत लगा जाऊँगी।’
‘मन्नू!’ इस बार पति का पौरुष, उसके कंठस्वर में तीव्र होकर गूँज उठा
था।
‘तुम बिल्कुल नहीं जाओगी, अगर गईं, तो फिर दरवाजे तुम्हारे लिए
लाख खटखटाने पर भी कभी नहीं खुलेंगे, सोच लो।’
माता जी ने लपककर द्वार की ओर बढ़ रही बहू को बाँहों में भर लिया
था, ‘मत जा, बेटी, अरे इसका गुस्सा बड़ा बेढब है। मैंने तो, इसे गर्भ में
रखा है। मन्नू, जो कहेगा, वह करके रहेगा। महाराज, आप ही समझाइए
इसे। विह्नल-सी होकर, बहू को छोड़ माताजी हाथ बाँधे अब तक प्रस्तर मूर्ति-
से खड़े स्वामीजी के सम्मुख दुहरी हो गई थीं। किन्तु, कैसा आश्चर्य था कि
एक सुखी-सम्पन्न परिवार की नींव में जान-बूझकर ही डाइनामाइट सुलगाता,
वह संसार-त्यागी, रहस्यमय, स्वामी चुपचाप खड़ा था।
‘मम्मी, मम्मी!’ बुखार में पड़ा संजय तभी कमरे से उसे जोर-जोर से
पुकारने लगा।
‘कसाई भी होता तो शायद पसीज जाता, बेटी।’ माताजी दुपट्टे से आँखें
पोंछती कहती जा रही थीं, ‘पर वह अभागी नहीं पसीजी। मैंने रोकर हाथ
पकड़ लिया, पर उसने झटका देकर छुड़ा लिया और तेजी से बाहर निकल
गई, बाहर स्वामी की कार खड़ी थी। दोनों कब बैठे और कब गए, फिर हम
जान भी नहीं पाए। शायद उसी के साथ-साथ, हम पर भी कुछ मूठ चला
गया था अभागा।"
फिर उसका वह सर्वनाशी पत्र एक दिन किसी घातक भूकम्पी धक्के के
आकस्मिक प्रहार से उसकी गृहस्थी के बचे-खुचे खँडहर को भी भरभराकर
भूमिसात कर गया। "आप लोग मेरा मोह छोड़ दें, मैंने गुरु-कृपा से अपने
जीवन का लक्ष्य पा लिया है।"
उसके बाद मुझे महीनों तक उसका कोई समाचार नहीं मिला। फिर एक
दिन एकसाथ ही देश के प्रमुख समाचारपत्रों ने उसके गुरुदेव की धज्जियाँ
उड़ाकर रख दीं। कभी इन्हीं अखबारों में, उनके भक्त पत्रकारों ने उनकी
प्रशंसा में कलम तोड़कर रख दी थी। आज वही लेखनी विमुख होकर उसके
लिए आग उगल रही थी। उसकी तस्करी की कहानियाँ, भोली-भाली युवतियों
को ही नहीं, अनेक सुशिक्षिता आधुनिकाओं को भी अपने सम्मोहन-पाश में
बाँधने का रंगीन विवरण, कई विदेशी चेले-चपाटों की लूटपाट, उन्हें पथ का
भिखारी बना देने का लेखा पढ़कर भी मुझे सबकुछ अधूरा-सा ही लगा था,
क्योंकि उनकी जिस शिष्या ने, उन्हें दीक्षा की सबसे गहरी दक्षिणा दी थी,
उस अभागिनी का नाम मुझे कहीं ढूँढ़ने पर भी नहीं मिला।