निर्धन (कहानी) : जोगिंदर पॉल

Nirdhan (Story in Hindi) : Joginder Paul

मैं आजकल कोई काम-वाम नहीं करता। अब इस उम्र में किसी काम का रहा भी नहीं। बस सारा दिन अख़बार पढ़ता रहता हूँ - हाँ, अख़बार पढ़ना तो आध-पौन घण्टे में ही हो लेता है। पहले-पहल तो मैं इसे एक बार पढ़ने के बाद फिर से पढ़ना शुरू कर देता था और फिर न मालूम कैसे मेरी आदत-सी हो गयी कि मेरी नज़र ख़बर के पहले ही वाक्य की आड़ में खड़ी रह जाती और वह सारी घटना मेरे सामने शुरू से आखि़र तक घटने लगती - एक और विवाहिता नारी ने अपनेआप को जला लिया। उस बीस-बाईस वर्षीय लड़की का नाम रामप्यारी है। उसके हाथ-पैर अभी तक शादी की मेंहदी से रँगे हुए हैं। वह अपने कमरे में बन्द है और अचानक अपने इरादे से भयभीत होकर चिल्लाने लगी है। उसके घरवाले उसकी आवाज़ें सुनकर बाहर से दरवाज़ा पीटने लगे हैं जिस पर उसने सिर झटककर माचिस की तीली जलायी है और पेट्रोल से भीगे हुए अपने वस्त्रों पर लगा ली है और फिर मृत्यु के अग्निवर्षक हाथों को अपने मुँह-सिर की ओर उठाते हुए पाकर ज़ोर-ज़ोर से चीख़ने लगी है। घर के लोग उसे पुकार-पुकारकर दरवाज़ा पीटते जा रहे हैं। वह दरवाज़े की ओर लपकी है किन्तु दो-चार क़दम में ही गिर गयी है और...

"तुमने ही आगे बढ़कर उसे क्यों न बचा लिया, बाबा?"

मैं अपने भोले-भाले पोते-पोतियों को कैसे समझाऊँ कि वाक्यों की ओट में सहमा हुआ-सा मैं किसी को क्या बचाऊँगा? कहाँ तो मनुष्य प्रलय की सौन्दर्यपरक कल्पना से इतने फ़ासले से ज़रा डरकर ख़ुश हो लेता था और कहाँ अब हर सुबह आँख खुलते ही उसे सचमुच की प्रलय का सामना करना पड़ता है। और अख़बार पढ़ते हुए उसकी नज़र फटकर रह जाती है और फिर हड़बड़ाकर उसे याद आता है कि काम पर जाने के लिए देर हो रही है - अरे, नाश्ता जल्दी लाओ या फिर क्या आज नाश्ते के बिना ही चला जाऊँ?

नहीं, मेरी बात और है। मुझे कहीं काम पर नहीं जाना होता। बता चुका हूँ न? कोई दो पंक्ति का समाचार भी मेरे मन और मस्तिष्क में एक लम्बा-चौड़ा क़िस्सा बनकर फैल जाता है। यही कारण है अख़बार पर सारा दिन झुके रहने के बावजूद आजकल मैं पहले पन्ने से भी आगे नहीं बढ़ पाता।

"बाबा! बा...बा...!"

मैं अपनी पोती शोकी की आवाज़ सुनकर आँखें खोलकर अपनी दोनों बाँहें उसकी ओर फैला देता हूँ। "आओ बिटिया, आओ, हमारी गोद में बैठ जाओ।"

"तुम्हारी गोद में अख़बार पड़ा है, बाबा!"

"लो, हम अख़बार को एक ओर डाल देते हैं, बेटी।"

वह उछलकर मेरी गोद में आ बैठी है परन्तु ‘तुम्हारी गोद बहुत छोटी है, बाबा!’ मेरी गोद से वह उठ खड़ी हुई है, ‘मैं अब बड़ी हो गयी हूँ - देखो!’

वह मुझे और भी नन्ही-मुन्नी मालूम होने लगी है। ‘तुम्हें एक कहानी सुनाऊँ, शोकी बेटी?’

"हाँ, बाबा!" किन्तु उसका चेहरा एकदम ढीला पड़ गया है। "क्या फ़ायदा? तुम्हें कोई सचमुच जादू की कहानी तो आती नहीं। वही अख़बार की कहानियाँ सुनाते हो।"

मेरे सामने मानो सारी दुनिया का चेहरा मासूम इच्छाओं से तमतमा रहा था - फिर?... फिर क्या? पर्वताकार देव ने दोनों हाथ बाँधकर पूछा, "बताओ बालिका, तुम्हारी क्या इच्छा है?"

"मुझे सोने-चाँदी का महल चाहिए..."

‘"क्या तुम्हें सोने-चाँदी का एक महल चाहिए, शोकी बेटी?"

"नहीं, बाबा, मैं तो चाहती हूँ दंगे-फसाद बन्द हों और हमारे स्कूल खुल जायें।"

"परन्तु तुम्हें तो ख़ुश होना चाहिए कि छुट्टियाँ ही छुट्टियाँ हैं।"

"छुट्टियों से क्या होता है? बाहर तो हर समय कर्फ्यू लगा रहता है।" "तो क्या हुआ? फ़्लैट के अन्दर खेला करो।"

"अन्दर फ़ुटबॉल कैसे खेलें, बाबा?"

हाँ, वाकई - मैं सोचने लगा हूँ कि जीना तो तभी होता है जब फ़ुटबॉल ठोकर लगते ही बेरोक-टोक लुढ़कता चला जाये।

‘बेटी!’ मैंने शोकी की ओर सिर उठाकर उसे सम्बोधित किया है परन्तु वह न जाने कब से मेरे कमरे से जा चुकी है। मैं आप-ही-आप बातें किये जा रहा हूँ। मेरा छियासठवाँ वर्ष भी अभी पूरा नहीं हुआ परन्तु मैं सत्तरा-बत्तरा चुका हूँ।

मैंने अख़बार फिर हाथों में ले लिया है जिसके पहले पृष्ठ पर मेरी नज़र एक छोटी-सी ख़बर में अभी तक वैसे ही दुबकी पड़ी है जैसे मैंने इसे छोड़ा था -

"अमेरिका का कोई अप्रवासी पण्डित मध्यप्रदेश की एक बस्ती में भगवान कृष्ण की स्वर्णमूर्ति पर हाथ साफ़ करते हुए पकड़ा गया था। पण्डित राधेश्याम अमेरिका में यही पुजारी का धन्धा करता था। वर्षों बाद वह अपने पुश्तैनी शहर आया हुआ था और अमेरिका लौटने से पहले अपने शहर के इस पुराने मन्दिर में पूरे पाँच किलो बर्फ़ी का चढ़ावा साथ लाया था। दोपहर बाद जब वह वहाँ पहुँचा तो मन्दिर बन्द पड़ा हुआ था। परन्तु उसके पास समय बहुत कम बचा था, उसने सोचा होगा कि भारत के पुजारी तो दिन-भर दिन के खाने की गरानी से खर्राटे भरते रहते हैं और रात-भर रात के खाने की गरानी से, हम अपने काम रोककर कैसे पड़े रहें? अब आप इसे भगवान की ही करनी कह लीजिये, उस दिन मन्दिर का पुजारी दरवाज़ा बन्द कर चटखनी लगाना भूल गया था, सो पण्डित ने ज़रा-सा दरवाज़ा धकेला और भीतर प्रवेश कर सीधा मूर्तिस्थल पर जा पहुँचा। मूर्ति के दर्शन करके वह खड़े का खड़ा रह गया। नटखट कन्हैया को अपने सोने के बदन में साँस भरते हुए पाकर वह स्वयं मूरत-सा बन गया। आखि़र कुछ सोचकर उसने अपना सिर हिलाया और पहले तो वापस जाकर मन्दिर के बाहरी पट बन्द किये और फिर दबे पाँव पुजारी के रिहाइशी कमरे में घुस गया और अपनी आशानुसार उसे स्वप्नावस्था में पाकर बेहोशी की दवा सुँघा दी, "जी भरकर सो लो, पण्डित!" फिर मुस्कुराते हुए मन्दिर में लौट आया और भगवान की नज़रों से टटोल-टटोलकर तसल्ली करने लगा कि सारे का सारा सोने का ही है या कहीं खोट भी भरा हुआ है? नहीं, खरे सोने का भगवान है - जय गिरधर गोपाल! अपने दोनों हाथ जोड़े हुए उसे गिरधर गोपाल पर दया आने लगी - कितना लापरवाह पुजारी है। बेचारे को उठायीगीरों के लिए इस तरह छोड़कर सोया पड़ा है। पण्डित को मालूम होने लगा कि कन्हैया अपने आस-पास से बहुत बोर हो रहा है मानो हिलने-डुलने की विफल चेष्टा से थक-हारकर खड़ा हो और उससे यह भी न हो पा रहा हो कि ज़रा दिल बहलाने के लिए मुरली वाले हाथ को होंठों पर ही ले जाये।

शायद भगवान की बेबसी अनुभव करके पण्डित राधेश्याम को बँगला के कवि नजरुल का एक क़िस्सा याद आने लगा जिसे अमेरिका में किसी से सुनकर उसने कहा था कि ऐसा कैसे हो सकता है। उस ग़रीब को जब यह बताया गया कि पूरे एक लाख की लागत पर शहर के एक बड़े चौराहे पर उसके बुत का निर्माण किया जा रहा है तो उसने बेइख़्तियार इच्छा प्रकट की कि यदि एक लाख रुपया मुझे दें तो मैं स्वयं ही चौराहे पर बुत बनकर खड़ा हो जाता हूँ। पण्डित के होंठों पर मुस्कुराहट घिर आयी - ग़रीब कवि को क्या पता, अपनी क़ीमत प्राप्त करके सदा बुत-का-बुत बने रहना जानलेवा होता है? फिर हम भगवान का बुत क्यों बना लेते हैं? उसे आज़ादी से घूमने-फिरने के लिए क्यों नहीं छोड़ देते? या...या यह भी तो है कि अपने बारे में सदियों से हमारी इतनी भली-भली बातों पर रीझकर उसके लिए कोई और चारा ही न रह गया हो और सुध-बुध खोये एक वही अकड़-अकड़कर आप-ही-आप बुत बनकर रह गया हो, अब हिले-डुले कैसे? पण्डित अपनेआप को समझाने लगा, अपने इसी कमाल से तो तुम बड़ों-बड़ों को चित कर लेते हो बन्धु - हाँ, यही तो है बन्धु। जो तुम्हें सुनने से इन्कार करता है, उसे केवल उसकी प्रशंसा सुनाओ - इतनी प्रशंसा कि वह हिलने-डुलने के योग्य ही न रहे, निरा-पुरा भगवान बन जाये...

अपनेआप को खी-खी हँसते पाकर पण्डित अपनी सोच पर लज्जित होकर भगवान की स्वर्णमूर्ति की ओर देखने लगा और व्यावसायिक संकोच से हाथ जोड़कर कोट-पतलून के कसे हुए पहनावे में भी इसी तरह आसानी से घुटनों के बल बैठ गया जैसे धोती-कुर्ता पहने हो। और भगवान के सामने सिर झुकाकर संगमरमर के फ़र्श पर उस समय तक नाक रगड़ता रहा जब तक अमेरिकी क्रीम की चिकनाहट से फ़र्श पर एक चमकीली रेखा न खिंच आयी। फिर वह छींक मारते हुए उठा और पिस्ते वाली बर्फ़ी की टोकरी लिए दो सीढ़ियाँ चढ़कर भगवान की सतह पर जा खड़ा हुआ और टोकरी से बर्फ़ी निकालकर भगवान के अधखुले मुँह में ठूँसने लगा जो भुर-भुर उसके क़दमों में गिरती रही।

"ठहरो, पण्डित!"

पण्डित राधेश्याम ने चौंककर इधर-उधर देखा।

"मैं बोल रहा हूँ।"

अमेरिकी पण्डित को अपने कानों पर विश्वास न आया। भगवान उससे कह रहा था कि मेरे मुँह में इतना मीठा मत ठूँसो। मीठा खा-खाकर मुझे डाइबिटीज हो गया है, पण्डित!

अमेरिकी पण्डित अपना आश्चर्य भूलकर अनायास हँसने लगा।

"इसमें हँसने की क्या बात है?" किन्तु भगवान स्वयं भी हँसने लगा, "वास्तव में मुझे यही डर लगा रहता है, यदि डाइबिटीज हो गया तो मेरा सोने का बदन मिट्टी हो जायेगा। तुम तो अमेरिकी नागरिक हो। फीका और उबला हुआ भोजन क्यों नहीं लाये?"

"इसके लिए तो तुम्हें मेरे साथ हो लेना पड़ेगा, गिरधर गोपाल!"

"सच?’ भगवान की बाँछें खिलकर सोने में साफ़ दिखायी देने लगीं, "मेरी भी बड़ी इच्छा है एक बार अमेरिका देख लूँ।"

पण्डित राधेश्याम ने अपने दोनों हाथ सोने के भगवान की ओर बढ़ाते हुए रोक लिये। "पर तुम तो हर जगह हो दयालु - यहाँ भी, वहाँ भी - कहाँ नहीं! मैं तो वहाँ भी चौबीस घण्टे तुम्हारी ही सेवा में मग्न रहता हूँ।"

"नहीं पण्डित, मेरी सेवा करना चाहते हो तो मुझे भी अपने साथ वहीं ले चलो।"

"मैं तो इसीलिए आया हूँ, भगवान!" पण्डित ने भगवान को फ्रेमवर्क से उतारने के लिए अपने कोट की भीतरी जेब से कोई छोटा-सा हथियार निकाल लिया। "वहाँ पहुँच लो दाता, फिर देखना तुम्हारा यह तुच्छ भक्त कैसे वहीं एक वृन्दावन खड़ा कर देता है।" उसने तुरन्त ऑपरेशन के लिए हथियार प्रभु की ओर बढ़ाया। "वृन्दावन छोड़ो, भक्त।’ भगवान उसे बताने लगे, "अमेरिका में भी अमेरिकी बनकर न रहे तो क्या मज़ा?"

"न-न, भगवान!" वह अपने काम में जुट चुका था, "ग्रीन कार्ड तो तभी मिलेगा जब तुम अमेरिकियों को अपने मोर मुकुट में दिखोगे।"

किन्तु वह अभी भगवान को उतार भी नहीं पाया था कि अचानक वहाँ मन्दिर का पुजारी आ पहुँचा। शायद अपने सपने में मूर्ति की चोरी का दृश्य देखकर सोते-सेाते बिस्तर से उठ खड़ा हुआ हो और यों बामन ने बामन को धर लिया। भगवान? - कुछ भी घटित हो जाता, उसे क्या? वह तो सोने का बना हुआ था। सो जिसने किया वह पकड़ा गया और करनीवाला गुमसुम खड़ा रहा।

"बाबा!" मेरा सबसे छोटा बेटा सुरेश किसी विदेशी कम्पनी का रिसेप्शन ऑफ़िसर है। शायद वह लंच के लिए आया है या लंच करके काम पर वापस जा रहा है।

"तुम आप ही आप मुस्कुराये क्यों जा रहे हो?"

"क्योंकि मुझे सवेतन मुस्कुराहट का अवसर नहीं मिलता, बेटे!" मैंने हँसकर उत्तर दिया।

"तुम तो निरुत्तर कर देते हो, बाबा! अच्छा, मुझे ऑफ़िस के लिए देर हो रही है। कुछ चाहिए?" जैसे उसे विश्वास हो कि मुझे कुछ नहीं चाहिए, वह मेरा उत्तर सुने बिना उलटे पाँव कमरे से बाहर चला गया है।

मैंने सारी उम्र इतना कुछ चाहा है कि अब हर इच्छा पर किसी बीती हुई इच्छा का भ्रम होता है - कोई नयी इच्छा? - नहीं, कोई इच्छा मुझे नयी मालूम नहीं होती। कोई भी इच्छा हो, यही मालूम होता है कि ज़माना वर्तमान को अतीत में जीने और अपनेआप को दोहराने में लगा हो। मेरी मुश्किल एक और भी है। मैंने इतिहास पढ़ाकर अपना सारा जीवन बिताया है और स्पष्ट रूप से समझ चुका हूँ कि प्रत्येक काल में उसी एक मनुष्य की उन्हीं इच्छाओं के कारण इतिहास कैसे अपनेआप को दोहरा रहा है - प्रत्येक काल में मनुष्य की ज़रूरत अलग होती है? - नहीं, मनुष्य की ज़रूरत सदा से वही रही है और पेट में उन्हीं इच्छाओं का भँवर उठने पर कोई कंस बेचैनी से चिल्ला उठता था, "मैं भगवान हूँ! - हा-हा-हा! - जल्लादो, अपराधी का सिर उड़ा दो! नहीं, ठहरो - यदि अब वह स्वीकार कर लेता है कि मैं ही भगवान हूँ तो उसे छोड़ दो! - हा-हा!"

"आज? आज क्या अलग है?"

"नहीं! तुम्हारा भगवान भगवान नहीं! - बोलो, केवल मेरा भगवान भगवान है - बोलो, वरना तुम्हारे पेट में यह खंजर भौंक दूँगा। नहीं?... तो यह लो, जाओ अपने भगवान के पास!... हा हा हा!"

बताओ, क्या अलग है? स्वयं भगवान बनना सुविधाजनक न लगा तो भगवान को ही अपनी इच्छाओं का पुतला बना लिया - हाँ, इसीलिए तो उन्हें विश्वास है भगवान की सबसे बड़ी इच्छा यही है कि उसे किसी तरह अमेरिका का ग्रीन कार्ड उपलब्ध हो जाये।

"बात क्या होती है बाबा और तुम इसे कहाँ उड़ा ले जाते हो?" मेरी बड़ी बहू प्रायः शिकायत करती है, "इसीलिए आपसे कोई बात करना मुमकिन नहीं।" केवल बड़ी बहू क्यों? घर के दूसरे बालिगों से भी मेरा केवल ‘हैलो, हैलो’ तक ही सम्पर्क है। वे इतना भी न करें तो मैं क्या कर सकता हूँ?

परन्तु मुझे अख़बार पढ़ने के सिवा और करना भी क्या है? मैं अख़बार पकड़कर फिर उसे पढ़ने लगा हूँ।

आज पहले पृष्ठ पर भगवान के नाम के सिवाय और कुछ है ही नहीं। सारे समाचार उसी के हैं। और तो और, एक इश्तहार में भी लोगों से करुणापूर्ण अपील की गयी है कि सारे देश से एक-एक रामसेवक रामजन्मभूमि मन्दिर के लिए एक-एक ईंट लिए जान की बाज़ी लगाकर भी अयोध्या में पहुँच जाये।

"हे राम!"

मुझे क्या पता था राम मेरी एक ही पुकार पर बाल्मीकि के पन्नों में से उठकर चला आयेगा।

"बोलो, भक्त!"

"मैं क्या बोलूँ? तुम ही बताओ।"

"मैं क्या बताऊँ, भक्त? तुमने याद किया है, तुम ही बोलो।"

"मेरा चिन्तन इतना छोटा पड़ गया है जो करोड़ों ईंटों का घर बनवाने पर अड़ गये हो? बताओ, रामजी!"

"मैं क्या बताऊँ, भक्त? अपनेआप से ही पूछो।"

मैं अपनेआप से पूछता रह गया हूँ और भगवान अन्तर्धान हो भाग लिये। मैंने सटपटाकर नज़रें अख़बार में अटका लीं। ठीक बीच में एक सुर्ख़ी है, ‘कश्मीर के पहाड़ों में उग्रवादियों ने एक पूरा गाँव साफ़ कर दिया।’ और सुर्ख़ी के नीचे लिखा है: "केवल बीस घायल बचे जिन्हें नीचे वादी के अस्पताल में भरती कर दिया गया है।"

मैं अपनेआप को बताने लगा हूँ कि यों तो इस गाँव में कश्मीरी पण्डितों, बनियों और मुसलमान किसानों के बीस-पच्चीस घराने ही बसे हुए थे परन्तु दो जहान की ज़िन्दगी की रेल-पेल यहाँ सिमट आयी थी। सूर्योदय होते ही बड़े पर्वत की ललकार सुनते ही सभी दूसरे छोटे-बड़े पहाड़ स्वप्निल धुन्ध और अँधेरे से निकलकर गाँव के इर्द-गिर्द ठीक अपनी जगह जमकर खड़े नज़र आने लगते और सूर्य और पर्वतों में कबड्डी शुरू हो जाती और उस समय तक जारी रहती जब तक सूर्य पर्वतों के घेरे में विवश होकर हार मान लेता, और फिर सारा गाँव, गाँव के फलों से लदे हुए पेड़ और उन पेड़ों की चोटियों पर प्रजनन की सारी सुविधाओं का प्रबन्ध किये भाँति-भाँति के पंछी और पंछियों के सुरों पर कान धरे हुए केसर और गेहूँ के खेत और खेतों के कच्चे और ऊँचे-नीचे किनारों पर एक ओर क़हक़हाती लोटनियों में गिरते हुए झरने और दूसरी ओर बसे-बसे पालतू जानवर और जानवरों से भी पालतू मानव और उन्हीं के आसपास घास-फूस में छिप-छिपकर खेलते हुए अनगिनत कीड़े-मकोड़े - तात्पर्य यह कि गाँव के सभी वासी अपना हर दिन सूर्य पर पर्वतों की विजय को एक साझा त्योहार मनाने के ढंग से शुरू करते। जैसा यह गाँव था, वैसा ही इसका नाम भी - जन्नत। हिन्दू और मुसलमान यहाँ घी-खिचड़ी जैसे रह रहे थे। औरों को छोड़िये, मस्जिद के मौलवी साहब को भी ख़ुदा की इस छोटी-सी जन्नत में हिन्दुओं के स्थायी निवास पर आपत्ति न थी।

"अरे भई, अल्लाह की यह जन्नत उसके सभी नेक बन्दों के लिए है", वे मुसलमानों से कहा करते, ‘उनके हिस्से की नमाज़ें भी तुम ही पढ़ लिया करो।’ फिर वे दुआ माँगने के अन्दाज़ में अपने दोनों हाथ ऊपर उठा लेते, ‘अल्लाह के रहम का कोई हिसाब नहीं। एक की वजह से अल्लाह दूसरे को भी माफ़ कर देता है।’

जन्नत के जिन घायलों को श्रीनगर के अस्पताल में भरती किया गया, उनमें महमूद मियाँ भी था। महमूद मियाँ के दोनों जवान लड़के, बहुएँ, विधवा बेटी, पोते, पोतियाँ सभी उग्रवादियों की गोलियों का निशाना बन चुके थे और वह भी अस्पताल में अन्तिम साँसें गिन रहा था। गोलियाँ लगने से पहले वह अपने ध्यान में गाँव के एकमात्र बाज़ार में खड़ा गुड़ ख़रीद रहा था और अपने हमउम्र बनिये से मज़ाक़ में कह रहा था, "क्यों मेरे उधारी बनते हो, गंगू खूसट? हमारे दिन अब मौत से डरने के हैं।"

"इसीलिए तो तोल में डण्डी मार रहा हूँ, महमूद मियाँ! मरके भी तो हम दोनों को इसी जन्नत में आना है। चार पैसे होंगे तो तुम्हारे दाना-पानी का प्रबन्ध भी मैं ही कर दिया करूँगा।"

उत्तर में अभी महमूद मियाँ को कह-कह हँसने की इच्छा ही हुई कि उन दोनों पर गोलियाँ बरस पड़ीं।

महमूद मियाँ की हालत इस समय गम्भीर है। उसे ऑपरेशन थियेटर ले जा रहे हैं और उसके घायल साथियों ने अभी से सोच लिया है कि महमूद मियाँ बेचारा गया और उनमें से एक के मुँह से निकला, "बड़ा मस्तमौला आदमी था, सीधा जन्नत में जायेगा।" और महमूद मियाँ अपनी नीम-बेहोशी में बड़बड़ा उठा है, "नहीं-नहीं! ख़ुदा के लिए मुझे वापस जन्नत में मत भेजो - मत भेजो!" और उसके कानों में गोलियों की कड़-कड़ बौछार होने लगी है और इस बार वह उसी दम ढेर हो गया है।

इसी बीच मेरी पोती आसू दौड़ती हुई मेरे कमरे में आती है और मुझे देख ठिठक जाती है, "रो रहे हो, बाबा?"

उसे क्या मालूम महमूद मियाँ ने अभी-अभी किस हालत में मेरी आँखों के सामने दम तोड़ा है।

"कहीं दर्द हो रहा है, बाबा?"

"हाँ, आसू!"

"कहाँ?"

"यहाँ दिल में।"

वह अपने छोटे-से हाथ से मेरी छाती सहलाने लगी है।

"अपना ख़याल रखो, बाबा!"

"हाँ, आसू!"

"हर वक़्त अख़बार मत पढ़ते रहा करो।" उसने मुझे नरमी से झिड़का है, "अब ठीक है?"

"हाँ, आसू!"

"तो मैं चलती हूँ।" वह दरवाज़े की ओर भाग जाती है, "मुझे खेलने जाना है।"

मैं उसकी पीठ पर दो छोटी-छोटी चोटियों को ज़ुबान निकालकर चिढ़ाते पाकर हँस दिया हूँ और घुटनों से सरकता हुआ अख़बार सँभालने लगा हूँ। आखि़री कालम में ऊपर ही एक ख़बर है कि मुसलमानों के एक गिरोह ने अचानक कहीं हल्ला बोल दिया है। कारण? कारण बस यही था कि जब हम उन्हें मुसलमान नहीं समझते तो वे क्यों अपनेआप को मुसलमान कहने पर तुले रहते हैं। हाँ, यह क्या कम है कि तुम्हें इन्सान समझने से उन्हें इन्कार नहीं? परन्तु सुनिये, एक बार मेरे एक पुराने सहयोगी ने बड़े अपनत्व से मुझसे कहा, "प्रोफ़ेसर साहब, अगर मुझे आपका नाम मालूम न होता तो मुझे यही ख़याल रहता कि आप भी मेरी तरह मुसलमान हैं।"

"आपको यह ख़याल रहता तो मेरे लिए इससे बढ़कर और क्या इज़्ज़त की बात थी?" मैंने ख़ुश होकर उसे जवाब दिया, "आदमी मूलतः अपना नाम तो नहीं होता।"

हमने एक-दूसरे को इस तरह गले लगा लिया जैसे कोई भी रोज़ा खता न होने पर अल्लाहवाले ख़ुदा का शुक्र अदा करते हुए ईद मिल रहे हों।

मैंने अख़बार की ख़बर को एक बार फिर पढ़ा है और ख़बर की ओट में ही चल-चलकर ठीक वहीं जा पहुँचा हूँ जहाँ हमला हुआ था। जले हुए मकानों के मलबे से गुज़रते हुए एक सफ़ेद दाढ़ी वाले बुज़ुर्ग से मेरा सामना हो गया है जो शायद सदमे को न सह सकने पर पागल हो चुका है और वहाँ कुछ ढूँढ़ रहा है।

"अस्लामा-ए-लैकुम, मौलाना।"

"वा-लैकुम-अस्लाम।"

उसने आगे बढ़ना चाहा है।

"ठहरिए, आप कुछ ढूँढ़ रहे हैं?"

"हाँ, मैंने चप्पा-चप्पा छान मारा है।" उसने फ़रियाद करने के अन्दाज़ में कहा है, "वे सबकुछ ले गये हैं, उसे भी।"

मैंने जिज्ञासा से पूछा है, "किसे?"

"एक उसे छोड़ जाते तो हम फिर अपने पाँव पर खड़े हो जाते, वही सबकुछ फिर से ठीक-ठाक कर देता..."

"मगर वह है कौन, मौलाना?"

"हमारा ख़ुदा।" मौलाना जवाब देकर अपनी धुन में आगे बढ़ गया है।

और मैं अपनी धुन में चलकर अख़बारी ख़बर की ओट में लौट आया हूँ और फिर वहाँ से निकलकर अपने अस्तित्व में, और सोच रहा हूँ, क्या ज़माना आ गया है। लोग ख़ुदा को भी लूट-मार में लपेटकर चलते बनते हैं उसका क्या करते होंगे? बेच देते होंगे! लूट का माल है, ख़रीदने वाले ने जो भाव लगा दिया वही सही, या फिर अपने विजय-स्मारकों में उसे भी सजाकर रख देते होंगे ताकि उन्हें ख़ुदा से भी बड़ा समझा जाये - उन्हीं को ख़ुदा मान लेते होंगे!

हमारा नौकर रामकृष्ण चाय की ट्रे लिए मेरे पास आ रहा है।

"लीजिये बाबा, गरमा-गरम चाय पी लीजिये।" ट्रे मेरे सामने मेज़ पर रखकर वह प्याले में चाय डालने लगा है। "बड़ी बीबी का हुक्म है बाबा, मैं आपके साथ बातों में न उलझ जाऊँ।" उसने प्याला मेरी ओर बढ़ाया है। "यह चाय लीजिये और मुझे छुट्टी दीजिये।"

"अरे भई, जल्दी क्या है?" मैं उससे दो बातें न कर लूँ तो मुझे चाय फीकी लगती है, ‘तुम राम भी हो और कृष्ण भी, रामकृष्ण!’ मैंने अपनी सोच पर हँसकर उससे पूछा, "कभी-कभी तो तुम्हें ज़रूर लगता होगा तुम ही भगवान हो।"

"मैं तो आपका नौकर हूँ, बाबा!"

मेरा माथा ठनका है और मैं ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा हूँ, "यही बात है। भगवान न हो तो हमारे घर-बाहर के सारे काम कौन करे?... धन्य हो, भगवान!" मैंने चाय का प्याला मेज़ पर रखकर उसकी ओर अपने दोनों हाथ जोड़ लिये हैं, "धन्य हो!" रामकृष्ण घबराकर दरवाज़े की ओर पलट गया है। मैंने निरन्तर हँसते हुए चाय का प्याला उठा लिया है और प्याले को मुँह से भी नहीं लगाया है कि आसू फिर चहकती हुई फुर्र से दाखि़ल हो गयी है।

"हँस रहे हो, बाबा?"

"हाँ, आसू!" वह मेरी गोद में आ बैठी है तो मैंने चाय का प्याला फिर परे रख दिया है।

"गुदगुदी हो रही है?"

"हाँ, आसू!"

"कहाँ?"

"दिल में।"

"हँसते रहो, बाबा!" चिड़िया ने दरवाज़े की ओर उड़ान भरी है, "मैं देखने आयी थी, तुम अभी तक रो तो नहीं रहे।"

मैंने जल्दी-जल्दी चाय ख़त्म की है और फिर अख़बार ले लिया है। आज वाकई सारा अख़बार केवल भगवान के नाम से भरा हुआ है। एक और ख़बर है कि पंजाब में एक सिक्ख ख़ानदान के सदस्यों को इसलिए गोलियों से भून दिया गया कि ख़ानदान का मुखिया अपने धर्म के युवकों को समझाता फिरता था कि मानव-संहार जैसे हिंसक कार्यों से बाज आ जायें। सारे ख़ानदान में बस एक लड़की बची, जिसने जब बेहोशी से आँखें खोली तो वह अपनी स्मरण-शक्ति खो चुकी थी।

"अमर कौरे!" बाज बुर्जुगों ने जब बड़ी सहानुभूति के साथ उसे सम्बोधित किया तो वह इधर-उधर देखने लगी कि अमर कौरे कौन है।

भगवान का शुक्र है कि उसे मालूम न था कि वही वह है, वरना उसे पूरी ज़िन्दगी अपनी मौत को जीना पड़ता।

मुझे विश्वास नहीं आ रहा कि मौत किसी का वर्तमान और भविष्य उसके लिए छोड़ जाये और केवल उसका अतीत लेकर चलती बने। मैंने भी अपने समाधान के लिए उससे मुख़ातिब होकर कहा है, "अमर कौरे!" और वह मेरी ओर खिंच आयी है और मुझ पर दया करके सोच रही है कि बूढ़ा शायद अपनी पोती को सदा के लिए खोकर पागल हो गया है और अब हर लड़की उसे वही दिखायी देती है। उसने मेरा हाथ बड़ी नरमी से अपनी हाथों में ले लिया है, "बाबा!" अरे, मेरी शोकी इतनी छोटी-सी थी, मेरे देखते-ही-देखते कितनी बड़ी निकल आयी है। उसे मैं अब अपनी गोद में कैसे बिठाऊँगा? मेरी उलटी-सीधी तोतली कहानियों से उसका दिल कैसे बहलेगा?... शोकी बिटिया!..." अमर कौर दया और शोक की मिली-जुली भावना से सिर हिलाती हुई मेरा हाथ थपथपाने लगी है और... और मैं ज्यों का त्यों झुर्रियों से कटा-फटा मुँह लिए खाँस-खाँसकर मानो एकाएक पहली और आखि़री बार बे-माँ पैदा हो गया हूँ और मेरा कोई नहीं, सबसे कटा हुआ अकेला मैं ही हूँ। मुझे किसी माँ ने दूध नहीं पिलाया तो मैं किससे मुहब्बत करूँगा? कोई भाई-बहन नहीं, मैं किस पर गर्व करूँगा?... मैंने किसी से प्रेम नहीं किया, मेरे बच्चे और मेरे बच्चों के बच्चे कैसे पैदा होंगे?... मेरा अतीत नहीं, मेरा भविष्य कैसे होगा?... नहीं, अमर कौरे! तुम्हें मालूम नहीं, तुम मर चुकी हो... तुम्हें क्या मालूम, तुम्हें भी मार दिया गया था और तुम केवल अपनी मौत जिए जाने के लिए जीवित हो... ज़िन्दगी क्या होती है, तुम्हें क्या पता, अमर कौरे?... मैं अमर कौरे पर तरस खाये जा रहा हूँ और अमर कौरे मुझ पर। ऊँघ-ऊँघकर जब मेरी आँख खुली है तो अख़बार नीचे फ़र्श पर गिरा हुआ है जिसे मैंने उठा लिया है।

"बाबा...! बाबा...!"

मोहना मेरा सबसे चहेता पोता है। रसोईख़ाने में मेरी कोई मनपसन्द वस्तु पके तो वह उसी समय उसे चुराकर मेरे लिए ले आता है।

"यह देखो, बाबा!" उसने जेब में ठुँसी हुई काग़ज़ की एक पुड़िया निकालकर खोली और दो गरमागरम बड़े मेरे सामने रख दिये।

"एक तुम खाओ, बेटा, एक मैं खाता हूँ।"

"नहीं, दोनों तुम ही खा लो।"

"नहीं, एक तुम, एक मैं।"

हम दोनों ने बड़ों की ओर हाथ बढ़ाये हैं। इसी बीच शोकी अचानक आ धमकी है और हमें देखकर दरवाज़े पर तालियाँ पीट-पीटकर शोर मचाने लगी है, "पकड़ लिया!... पकड़ लिया!" और मोहना अपना बड़ा झपटकर उसके पीछे भागते हुए बाहर निकल गया है और मैं अपने बड़े को मुँह में घोलते हुए अपनी स्वर्गीय पत्नी के बारे में सोचने लगा हूँ - जिस दिन वह मेरे लिए बड़े तैयार करती, उस दिन ख़ूब सजी-धजी होती क्योंकि वह जानती थी कि उस दिन मैं उसे बार-बार बहुत प्यार से देखता हूँ।

अख़बार फिर नीचे फ़र्श पर गिर पड़ा है। मैंने एक ठण्डी साँस भरकर उसे उठाया है और जैसा कि मेरे साथ कई बार होता है, जो कुछ अख़बार में लिखा है उसकी बजाय कोई पुरानी ख़बर फर-फर पढ़ने लगा हूँ। किसी बिहारी क़स्बे की एक अछूत कन्या के बनाये हुए कच्ची मिट्टी के पुतले की ख़बर है, जिसे कन्या की जातिवालों ने भगवान मानकर स्थापित कर लिया था और जिसके पास आकर कोई भी सवाली बेमुराद न लौटता था।

वह कन्या रूपमती कोई पन्द्रह-सोलह साल की अनपढ़ छोकरी थी, परन्तु जब वह अपनी सरल बातें करना शुरू करती तो उसके मुँह से मानो गंगा फूट पड़ती; जो चाहता धारा में बैठकर अपनी जन्म-जन्म की मैल धो लेता। ग्यारह-बारह बरस की उम्र में वह प्रतिदिन हर समय बस्ती के बड़े मन्दिर के दरवाज़े पर खड़ी रहती और ऊँची जात के कार-सेवक यह समझकर कि वह पेट की आग बुझाने के लिए आती है, उसे डाँट-डपटकर पंक्ति में खड़ा होने को कहते और उसकी झोली में बचा-खुचा प्रसाद डाल देते।

रूपमती उन दिनों रूपा कहलाती थी। इस मिट्टी-रंगी मैली-कुचैली बाला ने सुन रखा था कि मन्दिर के भगवान का बदन चाँदी का है और उसके कानों में सोने की बालियाँ हैं और सिर पर सच्चे मोतियों का मुकुट और...

"और जानते हो, कम्मो?" रूपा छोटी-सी थी मगर जिसके विषय में कोई दिन-रात सोचता रहता है; वह आप-ही आप उसके दिल और दिमाग़ पर हूबहू खिंच आता है। "जानते हो, भगवान के चार हाथ होवें। दो ऊपर उठे होंवे और दो सामने भक्तों की तरफ़।"

"तुमने उसे अन्दर जा के देख लिया है, रूपा?"

"नाहीं, कम्मो, माटी मिला बामन मन्दिर की दहलीज़ पर ही दुतकार देवे है।"

"भगवान..."

"भगवान को का पता, कौन बाहर है, नाहीं तो ख़ुद चले आवै... हाँ!"

"कैसे चले आवैं? चाँदी का बदन चले थोड़ा ही।"

एक दिन रूपा इन्तज़ार से बेचैन होकर कार-सेवक के क़दमों में गिर गयी।

"बस एक बार भगवान के दरसन करवा दो भगवान।"

"चल, हट!" कार-सेवक ने उसे धक्का देने के लिए हाथ बढ़ाया, पर यह सोचकर रुक गया कि उसे छूकर फिर नहाना पड़ जायेगा।

आखि़र छोकरी की समझ में आ गया कि मोतियों के भगवान का उससे क्या नाता? सो उसने कच्ची और सुगन्धित माटी को पानी में गूँथ-गूँथकर आदमी के गोश्त की तरह नरम कर लिया और फिर उसमें अपना प्यार और ध्यान फूँक-फूँककर अपनी उँगलियों की पोरों से भगवान के नैन-नक़्श को मूर्ति की गोलाइयों में उतारती चली गयी और मूर्ति के तैयार होते ही उसने अपने भगवान को पहचान लिया, "हाँ, ये ही तो वो है!..." फिर उसने कई दिन सुबह की हल्की-हल्की धूप में उसे सुखाया और अपनी झोंपड़ी के एक सुरक्षित कोने को साफ़ करके उसे वहाँ सजाकर रख दिया और फिर जैसे भी कच्ची कुँवारी प्रेमिका के मन में आया वैसे ही वह पाठ-पूजा में इतनी मग्न हो गयी कि उसे पता भी न चला कि उसकी साँसों से मिट्टी के पुतले में कब जान पड़ गयी - इसके बाद? इसके बाद होते-होते वह गँवार लड़की, जो अपनी नाक साफ़ करना भी न जानती थी, चन्द ही वर्षों में अपने प्रेम से दीवानी हो-होकर पुस्तक पढ़े बग़ैर विद्वान पण्डित हो गयी और शुरू में उसकी झोंपड़-पट्टी से, फिर सारी बस्ती और फिर दूर-दूर से लोग रूपमती के मन्दिर अपने पाप क्षमा करवाने और मुरादें पूरी करवाने आने लगे।

जो हुआ, उसे होना ही था। ऊँची जात के लोगों को रूपमती के मन्दिर की रौनक खलने लगी और जब उनकी और कोई चाल न चली तो मौक़ा पाकर एक रात उन्होंने रूपमती का मन्दिर तहस-नहस कर दिया और साथ ही आसपास की सारी झोपड़पट्टी को भी आग के शोलों में झोंक दिया। उनके चाँदी के भगवान से इतना भी न हुआ कि ज़रा अपना मुँह खोलकर उन्हें रोक देते, पर उन बेचारे का भी क्या दोष? चाँदी के भगवान थे, बोलते कैसे? प्राण केवल कच्ची मिट्टी में होते हैं, सो जीवित भगवान तो रूपमती के घास-फूस के मन्दिर में अपने ख़ाकी बदन में धड़क रहे थे। मूरख पण्डितों ने इन जीते-जागते भगवान को इतनी निर्दयता से मौत के घाट उतारा, मानो वे भी उन्हीं तुच्छ लोगों में से हों। उनका सिर तन से जुदा था और हाथ-पैर कटकर इधर-उधर बिखरे पड़े थे और जिन्होंने देखा, उनका कहना है कि उनके ख़ून से - सचमुच के ख़ून से झोंपड़ी का कच्चा फ़र्श लथपथ हो गया था और एक कोने में बैठी रूपमती ख़ून पर एकटक नज़र बाँधे हुए थी और उसका सिर कुल्हाड़े के वार से फटा हुआ था और आँखें सफ़ेद पड़ चुकी थीं और शरीर अकड़कर मिट्टी हो चुका था, केवल उसका बुत वहाँ था, वह आप न जाने कहाँ...

मैं फिर ऊँघ रहा हूँ और धुआँ-धुआँ वधस्थल में घूम रहा हूँ और तिलकधारी हत्यारों से हाथ जोड़कर मिन्नत कर रहा हूँ - नहीं, इस बालिका ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?... नहीं, इस अबला की जान मत लो।... नहीं, तुम जिसे भी मारोगे, अपने भगवान को ही मारोगे... भगवान को तो बख़्श दो! बख़्श दो!..."

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