नमोलियां (पंजाबी कहानी) : गुरमीत कड़ियालवी

Nimoliyan (Punjabi Story) : Gurmeet Karyalvi

प्राइमरी स्कूल के पास से गुजरते हुए अक्सर दिल में एक टीस सी उठती है । गुजरते हुए सोचता हूं कि अन्दर नहीं झांकूंगा परन्तु फिर पता नहीं चलता कि कब पांव स्कूल का मुख्य द्वार लांघ कर अन्दर प्रवेश कर जाते है। कितना बदल गया है स्कूल । उस समय दो कमरे और दो बरामदे हुआ करते थे परंतु अब कई कमरे बन चुके हैं । सभी कक्षाएं कमरों में ही बैठती हैं । सहन में लगी पित्तरों जैसी छायादार नीम भी उखाड़ दी गई है । इस नीम के फल घोटा मास्टर हमें जबरन निगलने पर मजबूर किया करता था । वह अक्सर कहा करता था,

"नीम बहुत गुणकारी वृक्ष है । इसके फल खाने से बहुत सी बीमारियां पास भी नहीं फटकती मलेरिया की क्या मजाल कि पास आ जाए फोड़ा - फुंसी निकलने का तो सवाल नहीं पैदा होता बीमार होकर दवाई खाने से तो बेहतर हैं कि निंबकौड़ी ( निंबोली ) पहले ही खा ली जाए।"

वह डण्डा लेकर बच्चों के सिर पर आ खड़ा होता सभी को पांच - पांच निंबकौड़ी खानी पड़ती थी उसका डण्डा , जिसे वह घोटा कहता था , सारे स्कूल में मशहूर था इस डण्डे के कारण ही उसका नाम घोटा मास्टर ' पड़ गया था । पिटाई करने का तो वह जैसे बहाना ही ढूंढा करता था । जरा सा भी कोई बहाना मिला कि बच्चों की पिटाई शुरू हो जाती । जिस दिन वह गैरहाजिर होता , ऐसा लगता कि जैसे स्कूल के किवाड़ एकदम खुल गए हों। उसके स्कूल में प्रवेश करते ही मानो कोई बुरी रूह स्कूल में आ बैठती । सारा स्कूल जैसे एकदम जड़ हो जाता। हम आंखों ही आंखों में एक दूसरे की पीड़ा को महसूस करते । पीठ और हाथों पर पड़ने वाले डण्डे का दर्द महसूस होने लग पड़ता । कलास में प्रवेश करते ही वह घर का काम देखना शुरू कर देता । जिसने काम न किया होता उसकी तो शामत ही आ जाती। कोई भी झूठा या सच्चा बहाना उसके सामने नहीं चलता । वह बैत का डण्डा भी बरसाता जाता और पुलसिया अंदाज में गालियां भी निकालता जाता।

"मां के में अपनी मां की गोद में छुपा रहा। स्कूल का काम तेरे बाप ने करना था ।"

घोटा मास्टर का डण्डा उतनी देर चलता रहता , जब तक कि वह खुद थक न जाता था ।
गर्मी की छुट्टियों में वह घर के लिए ढेर सा काम देता।इतना काम कि सारी छुट्टियों में भी कठिनता से पूरा हो सके । खेलने - कूदने वाले लड़कों से तो यह काम कभी पूरा नहीं होता । छुट्टियां समाप्त होने पर जब स्कूल लगता तो पहले दिन ही घोटा मास्टर का घोटा हम पर बरस जाता । इतनी मार खाकर भी पता नहीं क्यों मेरे सहपाठी उदास नहीं होते । शायद वे समझते थे कि महीना भर मस्ती कर लेने की कीमत अगर दो - चार डण्डे ही है तो यह सौदा कोई महंगा नहीं । परंतु मेरे तो शरीर पर ही नहीं बल्कि दिमाग पर भी जैसे डण्डा बरस जाता था ।

इच्छा होती थी कि स्कूल छोड़कर ही भाग जाऊं । स्कूल का काम पूरा न होने में भला मेरा क्या कसूर ? छुट्टियों के दौरान मुझे कभी खाली नहीं रहने दिया जाता । पहली छुट्टी से ही मेरा बाप मुझे अपने साथ धान रोपने के लिए खेत में ले जाता था । फिर सारी छुट्टियां इसमें ही गुजर जाती। सारा दिन झुक कर काम करने से कमर पका हुआ फोड़ा बन जाती। दोपहर में खेतों में खड़ा पानी जब गर्म हो जाता तो जैसे पैरों की हड्डियां पिघलने सी लगती । सिर पर आग उगलता सूरज कहर बरपाता मालूम होता। मन करता कि कहीं ठण्डे पानी के पोखर में जा कूदू। सारा दिन सिर उठाकर भी देखने का समय नहीं मिलता । कभी - कभी बापू से आंख बचाकर गांव की पगडण्डी की ओर देखता और अपने हमउम्र लड़कों को गलियां नापते हुए पाता तो दिल उचाट सा हो जाता । धान रोपते नन्हें - नन्हें हाथ शिथिल हो जाते। धान का तिनका बड़ी कठिनाई से पानी में से होता हुआ दलदली भूमि में धंसता। हाथ में पकड़ी पनीरी फेंकने की इच्छा बलवती हो उठती पर पता नहीं बापू को कैसे पता चल जाता । मेरे हाथ की गति धीमी होते ही उसके मुंह से गाली निकलती ।
"माँ के ..... हाथ चला । फिर सारा साल बैठ कर ही खाना है। पूछ - पूछ कर तिनका न गाड़ । रोप चार तिनके जल्दी जल्दी।"

दिल करता कि गठी फेंक कर कहीं भाग जाऊं । परंतु बापू की मार से सिहर उठता था । मुंह वैसे ही कसौला हो जाता जैसे घोटा मास्टर द्वारा जबरदस्ती खिलाई गई निंबकौड़ियां खाने से हो जाता था । जब मैं कहता कि स्कूल का काम न करने से मास्टर द्वारा पिटाई होगी तो बापू भड़क उठता । उसकी आंखें सूर्ख हो जाती। बिल्कुल घोटा मास्टरं जैसी ।

"तूने पढ़ कर कौन सा कानून दान बन जाना है । यह खेती ही तो करनी है । अगर पिटाई का इतना ही डर है तो आगे से स्कूल मत जाना । पढ़ कर कौन सा तूने मैदान मारना है।"

छुट्टियों के दौरान कुछ बोलने का जैसे साहस ही समाप्त हो जाता । मन मारकर मे काम में जुटा रहता । दिल में गुस्से का उफान उठता , परन्तु क्या करता जब भी गुस् आता तो धान के कई तिनके एक - साथ एक ही जगह पर रोप देता। मन को संतुष्टी होती और क्रोध कहीं फुर्र हो जाता । इस तरह करने से मन को एक शांति की प्राप्त होती पर मां मेरे चेहरे की उदासी को देख दुखी हो जाती।

"बस पुत्र यही चार दिन का काम है । हम गरीबों के लिए तो यही मौका होता है । अगर थोड़ी हिम्मत मार लें तो कुछ कमा लेंगे । मेरा सयाना पुत्र लगवा दे चार दिन। तेरे कमाए पैसों से तुझे एक सूट सिलवा देंगे।"

मां मुझे बार - बार दिलासा देती । मेरा मन करता कि मां के गले लगकर ऊंचे स्वर में जोर - जोर से रोऊं । मुझ से बड़ी मेरी तीन बहनें भी मेरे साथ ही काम करती थीं। वह सारा दिन सिर झुकाए धान की रोपाई करती रहती चुपचाप। मैं सोचता शायद वे भी मेरी तरह ही थक - टूट जाती होंगी । उनके चेहरों की रौनक मुझे , सदैव नदारद मिलती । मैंने कभी भी उन्हें पड़ौसियों की लड़कियों से खेलते नहीं देखा था । जब भी देखा , काम में जुते हुए देखा-बैल की तरह । आस - पड़ौस की लड़कियों को खेलते देखता तो सोचता , बहनें क्यों नहीं खेलती ?
यह सवाल पूछने को मेरा मन तो करता पर हिम्मत नहीं जुटा पाता ।

स्कूल की छुट्टी के बाद ज्यों ही मैं घर में दाखिल होता , दरांती और पल्ली हाथों में थमा दी जाती । खेतों की मेंडों और वीरान पड़ी जमीन में उगे घास के तिनकों को तलाशता और दरांती की मदद से काट कर पल्ली में डालता जाता , कहीं दिन ढ़ले जाकर घास की एक गठरी बनती। घास लेकर जब घर पहुंचता तो अन्धेरा हो चुका होता था । बापू हर साल कोई - न - कोई भैंस का बच्चा पालने के लिए खूंटे पर ला बांधता था । उस पशु के खूंटे पर बांधते ही एक हुक्म मुझे सुनाई पड़ता था ,
"ले पकड़ , यह अब तूने ही संभालनी है । साल - डेढ़ साल में कुछ - न - कुछ दे ही जाएगी । फिर बाकी के पैसे भी अदा करके इसे घर पर ही रख लेंगे । सारा परिवार भरपेट दूध पीयेगा , सभी मौज़ उड़ाना ।"

परन्तु यह कथित मौज - मस्ती हमें कभी भी नसीब नहीं हुई थी । थनों में दूध उतरने से पहले ही भैंस किसी और के खूंटे पर जा बंधती ।
"भैंस तो हम घर पर ही रख लेते , लेकिन वह हमे रास नहीं आने वाली थी । बहुत दोष थे उसमें। उसका एक थन तो बहुत सख्त था । वैसे भी वह सींग दिखाती थी। इस तरह का डंगर घर रखना ठीक नहीं होता ।"

भैंस को घर न रखने की हवाई दलीलें सुनकर तरस भी आता और क्रोध भी। भैंस अपने खूंटे से निकलने पर मन कई दिन उचाट सा रहता । हर बार इसी आस पर भैंस को घास खोद - खोद कर डालता कि शायद अब की बार तो इसका दूध हमें नसीब होगा ही । दही से आधी छुट्टी को खूब स्वाद से मक्की की रोटी खाया करूंगा । मैंस जब खेतों से मेरी लायी हुई घास चबाती तो मेरा मन नाचने - सा लगता। बर्तन लेकर दूध दुहती मां --दूध की झाग से लबालब बर्तन , दही और दूध से सरोबार घर - बाहर के सपने दिमाग में घूमते रहते । पर ये सपने कभी सच नहीं हुए ।

पांचवीं कलास में जब मैं प्रथम दर्जे में पास हुआ तो घोटा मास्टर ने स्कूल से एक लड़का भेजकर मेरे बापू को स्कूल में बुलवाया था । बापू के आने पर घोटा मास्टर ने मुझे प्यार से अपने आलिंगन में लेकर भींचा था । बड़े आदर से उसने बापू को पास वाली कुर्सी पर बैठने को कहा था । बापू सकुचाता हुआ सा इस तरह कुर्सी पर बैठा था जैसे कुर्सी कोई सांप हो।

"योग्यता किसी की निजी संपत्ति नहीं होती । क्या हुआ अगर यह गरीब घर में जन्मा है , दिमाग तो गरीब नहीं होता । बहुत से नामी - गिरामी लोगों के बच्चों को पिछाड़ा है इसने । स्कूल को नाज़ है इस लड़के पर । अगले महीने छात्रवृत्ति की परीक्षा आने वाली है । मैं स्वयं इसे लेकर जाऊंगा परीक्षा के लिए । मुझे अपने बेटे से भी अधिक प्यारा है।"

घोटा मास्टर के मुंह से यह शब्द सुनकर मेरी आंखों में पानी आ गया था । मैंने देखा कि घोटा मास्टर की कोरें भी भीगी हुई थीं । बापू तो जैसे हवा में उड़ रहा था । पहली बार मुझे घोटा मास्टर बहुत - बहुत अच्छा लगा था ।

"देख जगीर सिंह , लड़के को पढ़ने से नहीं हटाना । पढ़ने दो जहां तक पढ़ता है । बड़ा अफसर बनाना है इसे। तुम्हारी सारी गरीबी को झाडू लगा देगा, यह जिस दिन किसी ओहदे पर पहुंच गया । ये कथित सरदार तुम्हारे आगे - पीछे घूमा करेंगे।"घोटा मास्टर ने बापू से कहा था ।

मैंने उस दिन पहली बार किसी के मुंह से बापू का पूरा नाम सुना था । नहीं तो काम - धन्धे पर बुलाने वाले उसे गीरी कह कर ही बुलाते थे ।

"यह लड़का तुम्हें तंग नहीं करेगा । छात्रवृत्ति पर ही पढ़ता रहेगा । हम भी जितना हो सकेगा मदद कर दिया करेंगे । हम सभी स्टाफ वाले इसे कुछ बना हुआ देखना चाहते हैं । बापू ने जवाब में सिर्फ"अच्छा जी"कहा था । मुझे यह सब सुनकर इतनी खुशी हो रही थी कि उड़ने को जी चाहता था । घर आकर मैं घोटा मास्टर की बातें याद करके रोता रहा था- पता नहीं कयों।

मां के पांव भी धरती पर नहीं पड़ रहे थे । उसने पड़ोस में पतासे बांटे थे । बतासों के लिए घर में पैसे कहां से आए थे , मुझे पता नहीं था ।

"बहन अपना पाल पास हुआ है । मास्टर जी कहते है कि स्कूल में फस्ट आया है । इस पर ही हमारी आशाएं टिकी हैं । हो सकता है कि रब्ब हमारे हाथ से खुरपा छुड़वा ही दे। मास्टर जी कहते हैं कि इसका दिमाग बहुत तेज है, किसी दिन बड़ा अफसर बनेगा। शायद गरीबी जैसी बीमारी हमारा पीछा छोड़ ही दे ।"मां आंचल की कोर से आंखों में तैर आए आंसुओं को पोंछने लग पड़ी । थी । मेरी समझ में नहीं आया था कि मां मेरे पास होने की खुशी में रो क्यों रही थी।

पांचवीं के बाद मैं छठी में दाखिल हुआ । यह स्कूल गांव के दूसरी तरफ था । मेरे कई सहपाठी अपनी पढ़ाई छोड़ चुके थे । जीता भी स्कूल छोड़ चुका था। इसका मुझे बहुत दुःख हुआ था । में जीते की मां को मौसी कहा करता था । एक दिन मैंने जीते की मां से जीते को आगे पढ़ाने के लिए कहा तो उसने कहा,

"बेटा , क्या करें , फिर घर किस तरह चलेगा ? तेरा ताया तो जो भी कमाता है , डोडे पी जाता है । घर में तो एक वक्त की रोटी जुटानी भी मुश्किल पड़ रही है , फिर इसकी पढ़ाई का खर्चा कौन देगा ? पुत्तर हम गरीबों को पढ़ाई से क्या लेना - देना ? हमारी इतनी अच्छी किस्मत कहां ?"

मैं बिना कुछ बोले , उदास - सा घर लौट आया था ।
प्राइमरी स्कूल में पढ़ते हुए तो मेरा दिल कई बार स्कूल से भागने को करता था पर इस स्कूल में पढ़ते हुए कभी भी ऐसी बात मन में नहीं आई थी । बस एक ही धुन में लगा रहता था । पढ़कर किसी ओहदे पर पहुंचने का सपना सदा आंखों में तैरता रहता था । मुझे अपने मैले और पुरानों कपड़ों से कभी हीन भावना का अहसास नहीं हुआ था । ये बातें मेरे लिए बेमतलब थीं । हां , गणित वाले एक बौने कद के अध्यापक , जिसे सभी चमगादड़ कहा करते थे , की तरफ से जाति का नाम लेकर चिढ़ाने की बात कभी - कभी जरूर दुःखी करती थी । मुझे तो वह कुछ नहीं कहता था क्योंकि कुछ कहने का मैं मौका ही नहीं देता था लेकिन दूसरे लड़कों के साथ जो पढ़ाई में कमजोर थे , वह बुरी तरह पेश आता था।

"सरकार के जमाई हो तुम ... मुफ्त किताबें। फीसें माफ , छात्रवृत्तियां भी पा रहे हो। तुम लोगों ने पढ़कर कौन सा तीर मारना है ?"

चमगादड़ अध्यापक की इस तरह की जहर बुझी बातें मुझे विचलित कर देती थीं । परन्तु क्या करता , यह जहर किसी तरह निगलना ही पड़ता । उसकी बिल्ली जैसी आंखों से भय प्रतीत होता था । उसका पीरियड तो बड़ी कठिनाई से समाप्त होता। लगता था कि जैसे वक्त एक जगह ठहर गया हो।

हिन्दी का अध्यापक गंजा था। उससे मार खाकर बहुत स्वाद आता। इसलिए नहीं कि हिन्दी में कमजोर था, बस जान - बूझकर उसका काम नहीं करता था । यह आदत मुझे दसवीं में जाकर पड़ी थी।

"गन्दा अण्डा ! सुअर ! गधा !! अच्छा भला था- पता नहीं क्या हुआ इसको। इन गधों से मिल के निकम्मा होता जा रहा है ।"हिन्दी का अध्यापक डण्डे से सेवा भी करता जाता और श्लोक भी पढ़ता जाता। मार खाते हुए मेरी दृष्टि लड़कियों की तरफ चली जाती । मैं देखता कि जिंदर को बहुत दुःख होता । मुझे लगता कि अगर उसका वश चले तो वह अध्यापक के हाथ से डण्डा छीन ले। जितनी देर मुझे प्रसाद मिलता रहता , वह आंखें बंद रखती । पीरियड समाप्त होने के बाद जैसे ही उसे मौका मिलता वह मेरे पास आ जाती।

"पाल तुम स्कूल का काम क्यों नहीं करते ? तुम मार क्यों खाते हो ? क्या तुम्हें तकलीफ नहीं होती ?"वह मेरे नीले पड़े हाथों को देखती और सुबक पड़ती । मुझे उसका रोना अच्छा लगता। दिल चाहता कि उसके आंसुओं को अपनी उंगलियों द्वारा पोंछ डालू , पर चाहकर भी ऐसा नहीं कर पाता । शायद इतना साहस मुझ में नहीं था।

इतिहास वाला अध्यापक जिसे सभी अध्यापक कॉमरेड स्टालिन कहा करते थे , हमारे दिमागों में समाजवाद ठूंसा करता था । उसके द्वारा उच्चारित कठिन शब्द हमारे भेजों में कभी नहीं घुसते। बुर्जुआ , प्रोलेतारी , बस्तीवाद नव बस्तीवाद जैसे शब्द हमारे सिरों के ऊपर से गुजर जाते। कलास के सभी लड़के पीठ पीछे उसको"बुर्जुआ"कहते थे ।उसका कठिन दर्शन हमारे में से कोई भी नहीं समझ पाता । इसके बावजूद भी अमीरी - गरीबी , असमान सामाजिक बंटवारे और जाति - धर्मों के विरुद्ध उसकी बातें मुझे बहुत अच्छी लगतीं । मुझे अहसास होता कि इस अध्यापक के अन्दर इन सबके विरुद्ध कोई लावा धधक रहा है । उसकी बातें सुनकर हल जोतते बापू का चेहरा , कपास बीनती हुई बहनों , धान रोपता हुआ मैं स्वयं , गोबर कूड़ा बुहारती हुई मां , सबके चेहरे बार - बार मेरी आंखों के आगे धूम जाते ।

कॉमरेड अध्यापक बात तो शुरू करता महमूद गजनवी हमले से , पर समाप्त करता हमेशा रूस और चीन के समाजवाद पर ही। उसकी बात सुनकर कई बार तो खून खौल उठता था। दिल चाहता कि भगत सिंह की तरह मेरे भी हाथ में पिस्तौल हो , परन्तु इससे मारू किसे ? यह मुझे समझ में नहीं आता । मैं गांव के सभी लोगों की ओर नजरें दौड़ाता , परन्तु अंतिम निर्णय नहीं ले पाता।

जिस दिन मेरा दसवीं का परिणाम आया । मां ने चूम - चूम कर मेरा मुंह लाल कर दिया था । पड़ोस से मिली बधाइयों से मां फूली नहीं समाती थी।

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मैं सोचता था कि डिग्री मिलते ही किसी दफ्तर में खाली कुर्सी पर आसीन कर दिया जाऊंगा , परंतु जब कॉलेज से डिग्री लेकर खुले में आया तो मेरे और मां के सपनों में दरारें आनी शुरू हो गई । मैं हैरान था कि दफ्तरों में पड़ी खाली कुर्सियों में से कोई एक भी मेरे लिए नहीं थी । सप्ताह में एक बार कोई नौकरी ढूंढने के लिए, किसी टैस्ट या इंटरव्यू के लिए अवश्य निकलता। हर बार मां कोई - न - कोई मन्नत जरूर मांगती। किसी राजमिस्त्री के साथ दिहाड़ी करके कमाए रुपये इन टैस्टों की भेंट चढ़ जाते। बजरी वाला तसला उठाने से सिर पर बने गूमड़ , जैसे टीस पैदा कर देते थे । इतना ही नहीं घर का माहौल भी तनाव भरा होने लगा था । बापू का चेहरा तना तना ही रहता।

"हर समय घोड़े पर सवार रहती थी--पुत्तर को पढ़ाकर बड़ा अफसर बनाना है । लगवा ले अब इसे कानूनगो। कोई इसे चपड़ासी भी रखने को तैयार नहीं । काम से टलने के लिए सारा दिन घूमकर पैसे बेकार करके घर वापिस आ जाता है । बापू के कटाक्ष सिर में हथौड़े जैसे बरसने लगे।

"पता नहीं रब्ब कंजर क्यों हमारा दुश्मन हो गया है ? मेरा पुत्तर तो पढ़ - पढ़कर पागलों जैसा हो गया है । सारा - सारा दिन किताबों में सिर खपाता रहता है । हमारी तो किस्मत ही बुरी है। हमारे नसीब में सुख नहीं लिखा शायद।"मां सिसकने लगती थी।

मैंने मां और बापू को कभी नहीं बताया कि मैं जहां भी इंटरव्यू और टैस्ट के लिए जाता हूँ , वहां पहले से ही किसी मन्त्री या अफसर का बेटा - भतीजा या कोई चांदी के जूते वाला रख लिया जाता था । मैं यह सोचकर नहीं बताता था कि उन्हें यह सब जानकर बहुत दुःख होगा । बापू तो शायद तंग आकर यही कह देता कि, "अब हमारी हडियां शेष हैं इन्हें भी बेच आ।"

"यह साले बड़ी - बड़ी तोंदों वाले कहीं गरीब को अपने पास भी फटकने देते हैं। लोग कुड़ी के ----नोटों की थैलियां लेकर घूमते हैं , इन अफसरों के आगे - पीछे। हम गरीबों को नौकरी कहाँ ? इतने साल यूं ही गंवा दिए । किसी मिस्त्री के साथ लगा होता तो आज पूरा मिस्त्री बना होता यह लड़का । परन्तु मेरी एक न सुनी इस औरत ने-- कहा करती थी कि अफसर बनाना है इसे। बना ले ... ।"

मुझे बापू पर तरस भी आता और दुःख भी। ऐसा लगता कि वह एक बहुत बड़ी सच्चाई उगल रहा है । बापू को यह सब कैसे पता चला , यह मेरी बुद्धि से बाहर था।

रोजगार दफ्तरों के धक्के खा - खाकर एक दिन थक - हारकर ट्रकों की वर्कशॉप में जा लगा । इसी बीच कभी - कभी किसी ओहदे की खोज में भी निकल जाता था । वर्कशॉप में सारा दिन पांच - सेर का हथौड़ा चलाना पड़ता । हाथों पर सख्त मांस की परतें चड्डी गई थीं । हाथों पर पड़े नीले निशानों को देखकर जिंदर याद आ जाती थीं।

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"पाल !" आवाज़ सुनकर मैंने इधर - उधर देखा । देखा , जिंदर अपनी मां के साथ खड़ी थी । उसे चार साल हो गए थे कैनेडा गए हुए , पर मैं हैरान था कि वह अब भी पहले की तरह सादा सी लगी थी ।
"पाल क्या कर रहे हो आजकल ?"उसकी आवाज़ में पहले की ही तरह अपनत्व था ।

"वर्कशॉप में हथौड़े से ठक - ठक।"मैंने दृष्टि झुकाए हुए ही उत्तर दिया । मेरे चेहरे पर आए हीन भावों को जिंदर ने शायद पढ़ लिया था । मेरा जी चाहा कि वह मेरे हाथों को पकड़े और उन पर उभरे नीले निशानों को चूमे तथा पूछे, "यह नीले निशान कैसे पड़े ?" और मैं बताऊं कि यह नीले निशान मैंने अपनी इच्छा से नहीं डाले । अब तो दिल करता है कि हाथों पर उमड़े नीले निशानों के लिए जिम्मेवार लोगों को नीला कर दूं।

"पाल , मुझे तुम्हारी ऐजूकेशन का पता है । मैं अक्सर तुम्हारे बारे में पूछती रहती थी । खैर ! इसमें कोई शर्म की बात नहीं । किसी भी काम से घृणा नहीं करनी चाहिये , चाहे वह काम क्लीनिंग का ही क्यों न हो । फिर जो काम हमें रोटी देता है , वह घटिया क्योंकर हुआ ?"उसके शब्दों में मेरे प्रति सहानुभूति का अहसास अंदर तक कचोट गया था और मुझे कॉमरेड मास्टर की बातें याद आ गई थी।
"परन्तु ?"मैं जिंदर से कुछ कहना चाहता था पर कुछ नहीं कह सका।

"पाल ! यही दुनिया है ? जो योग्य होता है उसे काम नहीं मिलता और जिसे काम का मौका मिलता है , वह उसके योग्य नहीं होता ।"मुझे विश्वास नहीं हो पा रहा था कि ये समुद्र से भी गहरी बातें जिंदर की थीं ।
"पाल मेरे हाथों की ओर देख !"

जिंदर ने अपने दोनों हाथ मेरी ओर फैला दिए । उसके हाथों को देख मुझे जैसे झटका लगा था । ऐसा लगा कि जैसे मेरे हाथ जिंदर के हाथों में परिवर्तित हो गए हों । मैं बहुत देर तक कुछ भी न बोल सका सिर्फ उसकी ओर मूक बना देखता रहा।

"मेरे अपने हाथ है ये ! वही हाथ , जिन्होंने कभी कोई तिनका तक भी नहीं तोड़ा था । वहां सभी को काम करना पड़ता है । कोई भी बेकार नहीं रहता । दो - दो शिफ्ट लगाए बगैर गुजर नहीं होती । फैक्टरी के काम ने हाथों पर खुरदरी तहें ओढ़ा दी है । मेरे अन्दर दर्द की एक लहर सी दौड़ गई। दिल में आया के जिन्दर के हाथ पकड कर चूमता रहूं।

जिंदर के चले जाने के बाद में देर तक अपने हाथों को देखता रहा था । प्राइमरी स्कूल , घोटा मास्टर , नीम के फल , गेहूं की कटाई , धान के खेत , घास चबाती हुई भैंस , मां के आंसू , बाप के माथे की त्यौरियां , बहनों के चेहरों पर काई सी उगी हुई उदासी , कॉमरेड की फिलासफी और गंजे मास्टर की पिटाई , धीरे - धीरे सब कुछ आंखों के आगे से गुजरता चला गया।

अब जब भी मैं स्कूल के आगे से गुजरता हूं तो मां की बात बहुत याद आती है । वह अक्सर कहा करती, "पुत्तर गरीबी सबसे बड़ी बीमारी है ।"

कॉमरेड मास्टर भी ग़रीबी को बीमारी कहा करता था , "किसी को अपनी विद्वता का उचित मूल्य नहीं मिलता अगर उसे गरीबी की बीमारी लगी हुई हो ।"

मां द्वारा ग़रीबी को बीमारी कहने की बात मुझे पहले - पहल बहुत अजीब लगती थी । तब हम समझा करते थे कि खांसी , बुखार और जुकाम ही बीमारी होते हैं । गरीबी भी एक भयानक बीमारी है , इसका पता अब चला था । अपने और जिंदर के हाथों की गांठें याद आ गई थीं । दिल चाहता है कि मां को कहूं ,
"मां , यह बीमारी हाथों पर पड़ी गाठों वाले सभी को है ।"

घोटा मास्टर द्वारा नीम के फल खिलाने वाली बात याद करके एक हल्की सी मुस्कराहट चेहरे पर फैल गई है । कहता था कि नीम के फल खाने से बहुत सी बीमारियां नष्ट हो जाती हैं । तब नीम के फल बहुत कड़वे लगा करते थे । उन्हें खाने से बचने के लिए बहुत से ढंग अपनाने पड़ते थे । अब अगर घोटा मास्टर मिलता तो उससे कहता,

"जितने कहो नीम के फल खाने को तैयार हूं, बस यह बीमारी टूटनी चाहिए ।

(अनुवाद : द्वारका भारती)

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