निमन्त्रण (बांग्ला उपन्यास) : तसलीमा नसरीन
Nimantran (Bangla Novel in Hindi) : Taslima Nasrin
मेरा नाम शीला है वैसे शीला पुकार का नाम है। भला नाम- तहमीना अख्तर। आजकल मैं, मंसूर नामक, एक नौजवान की मुहब्बत में पड़ी हूँ। मंसूर को मैंने पहली बार, गीतों के एक जलसे में देखा था। वह काफ़ी दौड़-धूप कर रहा था। मेरी निग़ाह लगातार उस पर गड़ी हुई थी, क्योंकि वह उस जलसे में सर्वाधिक सुदर्शन मर्द था। मुझमें यह एक बुरी आदत है कि खूबसूरती की तरफ़ से मैं सहज ही नज़रें नहीं फेर पाती।
मंसूर की तुलना में मैं कहीं से भी सुन्दर नहीं हूँ। मेरे बदन का रंग काला है। लोगों का कहना है कि 'काली होते हुए भी चेहरा प्यारा है।' प्यारे चेहरे से क्या मतलब है, यह आज भी मेरी समझ में नहीं आता। मेरी लम्बाई पाँच फ़ीट, दो-ढाई इंच होगी। चेहरे का गढ़न पान के पत्ते जैसा, आँखें बड़ी-बड़ी, सुतवां नाक, नरम-चिकने होट, नितम्ब पर मुटापे की चर्बी भी नहीं है। कोई मेरी सेहत ख़राब बताता है, कोई ठीक-ठाक बताता है। वैसे मैं शरीर-स्वास्थ्य, चेहरे-मोहरे या आँखों के बारे में गहराई से कभी, कुछ नहीं सोचती। लेकिन मंसूर को पहली बार देखते ही, घर लौट कर, मैं आइने के सामने जा खड़ी हुई। अपने को निहारती रही। अपने काले रंग के लिए मन-ही-मन दुःखी हुई। माथे पर कटे का एक छोटा-सा दाग़ था, वह देख कर भी अर्से बाद मुझे अफ़सोस हुआ। उस दिन मंसूर से मेरी कोई बात नहीं हुई, उसने एक बार भी मेरी तरफ़ नज़र उठा कर नहीं देखा, लेकिन घर में आईने के सामने, मैंने उसे अपनी बग़ल में ला खड़ा किया। उसकी ज़बान से मैंने यहाँ तक कहलाया-'तम तो खासी सुन्दर हो।'
गीतों की वह महफ़िल मृदुल के घर में जमी थी। मृदुल चक्रवर्ती! मृदुल मेरे भइया का दोस्त है। उस महफ़िल से लौटने के बाद पूरे सात दिन गुज़र गये। इन कई दिनों में मैंने काग़ज़ पर मंसूर का नाम कम-से-कम पाँच-छह सौ बार लिख मारा। मेरी परीक्षा बिल्कुल क़रीब थी, लेकिन किताब ले कर बैठते ही, किताब-कॉपी, हथेली पर बार-बार मंसूर का नाम ही लिखती रही। यह सब मेरे चेतन में घट रहा था या अवचेतन में, मुझे सच ही समझ में नहीं आता।
एक दिन मृदुल'दा मेरे घर आये। मैंने उन्हें अपने ड्रॉइंगरूम में बिठाया। उनके लिए खुद चाय बना कर ले आयी। कैसे हैं? गाना वगैरह कैसा चल रहा है? वगैरह-वगैरह दो-चार सवालों के बाद, मैंने असली सवाल पूछ डाला।
'वह लड़का कौन था, जी? उस दिन आप लोगों के गाने की महफ़िल में मौजूद था? लम्बू-सा, देखने में गोरा, बेहद सुन्दर-सा चेहरा... बदन पर नीली शर्ट, सफ़ेद पैंट! कौन था वह लड़का?'
मृदुल'दा ने चाय की चुस्की भर कर कहा, 'वा-ह! चाय तो बहुत अच्छी बनी है। तूने बनाई?'
'हाँ!'
'तेरी पढ़ाई-लिखाई कैसी चल रही है?'
'चल रही है! ठीक ही चल रही है! उस दिन महफ़िल ख़ासी जम गयी थी, है न मृदुल'दा? अब वैसी मज़लिस, दुबारा कब लगेगी?'
'देखता हूँ! फुर्सत कहाँ है, बता? नौकरी-चाकरी करूँ या गाना-बजाना?'
'सुना है, उस लड़के का नाम मंसर है?'
'ओ-हाँ! मंसूर है।'
चाय ख़त्म करके मृदुल ने सिगरेट सुलगा ली।
'फ़रहाद कहाँ है?' उन्होंने पूछा।
'भइया शाम को निकले हैं, आपको बैठने को कह गये हैं। शायद आते ही होंगे।'
'पढ़ाई-लिखाई में मन लगा। दिन में अठारह घण्टे पढ़ना होगा। तेरा भविष्य इसी परीक्षा पर निर्भर करता है।'
हाँ, बात तो सही है। लेकिन, आप चाहे जो कहें, आम लड़कियों की तरह दिन-दिन भर किताब में मुँह गड़ाए रहना, मुझे अच्छा नहीं लगता। अच्छा, मृदुल'दा, उस दिन जो लोग आये थे, सभी क्या गाते हैं?
'हूँ-'
'मंसूर भी?'
'हूँ-'
मेरे लिए यही मुश्किल है। मैं एक कड़ी भी नहीं गा सकती। सिर्फ़ कान लगा कर सुन सकती हूँ। किसी गाने वाले को साथ ले कर चलने-फिरने में मुझे परेशानी होती है। फ़र्ज़ करें, वह अचानक गा उठे। स्थायी गाने के बाद, अगर वह पूछ बैठे-'अन्तरा का सुर...कैसे गाते हैं?' ऐसे सवालों का जवाब देना मेरे लिए कतई सम्भव नहीं होता। मुमकिन है, वह पूछ बैठे, 'यह कौन-सा राग है या यह किस लय-ताल में है?' उस वक़्त, निर्वाक बैठे रहने के अलावा, मेरे लिये और कोई उपाय नहीं होता।
मंसूर को और एक बार देखने का मन करता है। उससे बातें करने का चाव होता है। चलो, मान लिया कि वह गाना जानता है, तो में क्या कुछ भी नहीं जानती? मैं कविता लिखती हूँ, भले वह मेरी निजी और गोपन कॉपी तक ही सीमित हो। कविता लिखती हूँ, तो ज़ाहिर है कि मुझमें भी कुछ कम प्रतिभा नहीं है। अगर प्रतिभा कुछ कम नहीं है, तो उसकी तुलना में भले मैं असुन्दर हूँ, वह क्या एक बार मेरी तरफ़ पलट कर, देख भी नहीं सकता?
मेरे एक संन्यासी मामा ने एक दिन मुझसे कहा था, 'अगर तू खूब मन से कुछ चाहे, तो ज़रूर मिलेगा तुझे।'
मैंने अवाक हो कर कहा, 'कितना चाहती हूँ, लेकिन मिलता तो कुछ भी नहीं।'
'चाहने जैसी चाह होनी चाहिए।'
'कैसे?'
'सुन, पहले कमरे का दरवाज़ा बन्द कर लेना। ज़मीन पर आसन मार कर बैठ जाना। तेरी दोनों हथेलियाँ, तेरे मुड़े हुए घुटनों पर हों। आँखें मूंद कर बैठी रहना। एकदम स्थिर! ज़रा भी हिलना-डुलना मत। जितनी देर हो सके, साँस रोके रखना। जो चाहिए, सिर्फ उसी बारे में सोचती रहना। पहले चरण में आकांक्षा तरल होती है, यही तरल चीज़ जब घनी होने लगती है, तब तुझे फल मिलने लगेगा। हर रोज़, दो घण्टे तुझे यह तपस्या करनी होगी।'
संन्यासी मामा के बदन पर, उजला-धुला, बुर्राक़ पायजामा-कुर्ता!
चेहरे पर घनी-घनी दाढ़ी! लम्बे-लम्बे बाल!
आजकल माँ उन्हें देखते ही भड़क जाती है, 'तू यहाँ किसलिये?'
मामा भी साफ़ जवाब सुना देते हैं, 'खाने आया हूँ। लाओ, खाना दो।'
'रास्ता-घाट घूमता-भटकता फिरता है, खाना नहीं जुटता?'
'ना री, दिदिया, नहीं जुटता। बड़ी भूख लगी है।'
संन्यासी मामा पर मुझे बहोत तरस आता है। वह बन्दा पूरे बारह साल घर नहीं लौटा। बारह साल पहले उन्होंने शादी की थी। लेकिन शादी के दूसरे दिन ही, वे अचानक घर छोड़ कर चले गये। उनकी बीवी बेचारी दिन-रात रोती रहती थी।
नाना ने कहा, 'अब, इस बहुरिया का मैं क्या करूँ? परायी लड़की ठहरी! उस बदमाश की वजह से इस लड़की की ज़िन्दगी क्यों बर्बाद हो?'
नानू भी रोती रहती थी।
मामी के अब्बू-अम्मी बेटी को लेने आये।
बेटी ने कहा, 'मैं नहीं जाऊँगी। वे लौट आयेंगे।'
उन्हें जितना ही समझाया गया कि उसे गये हुए छह महीने हो गये, अब वह नहीं लौटेगा। उतना ही वह रो-रो कर कहती रही-मेरा मन कहता है, वे लौट आयेंगे। बहरहाल, उस बार, मामी के माँ-बाप उन्हें अपने साथ नहीं ले जा सके। साल भर बाद, बेटी खुद चली गयी।
जाने से पहले उसने सास-ससुर के पैर छूकर सलाम किया और कहा, 'जब वे लौट आयें, तो मुझे ख़बर दीजियेगा।'
बारह वर्ष बाद, उसी मामा को मेरे अब्बू ने ट्रेन में देखा। अब्बू राजशाही से ढाका लौट रहे थे। बहादुराबाद घाट से लम्बे-लम्बे बाल-दाढ़ी वाला एक शख्स ट्रेन के उसी डिब्बे में चढ़ा और बिल्कुल उनके आमने-सामने आ बैठा। अब्बू उसे गौर से देखते रहे। उस शख्स की आँखें काफ़ी पहचानी-पहचानी-सी लगीं। जब उन्होंने होटों में सिगरेट दबा कर, अब्बू से माचिस माँगा, तब उनकी आवाज़ भी काफ़ी परिचित लगी।
अब्बू की नज़रें उन्हीं पर गड़ी रहीं।
उन्होंने पूछा, 'कहाँ जा रहे हैं?'
'ढाका!' उस शख्स ने जवाब दिया।
इतना कह कर वे मुस्करा उठे। लेकिन उनकी मुस्कराहट, उनके बाल-दाढ़ी में ही छिप गयी।
अब्बू का शक नहीं मिटा।
उन्होंने दुबारा पूछा, 'आपका घर कहाँ है?'
वह शख्स मुस्करा उठा। उसने कोई जवाब नहीं दिया।
कोई जवाब न पा कर, अब्बू ने भी अपनी नज़रें ट्रेन की खिड़की की तरफ़ घुमा लीं।
पहले दर्जे का डिब्बा!
अब्बू को अन्दाज़ा हो गया कि वह शख़्स बिना-टिकट है। चार मुसाफ़िरों के इस कमरे में अतिरिक्त यात्री को सफ़र की अनुमति नहीं देनी चाहिए थी। लेकिन अब्बू का उन्हें निकाल बाहर करने का मन ही नहीं हुआ।
उस शख्स ने अपने कन्धे का झोला बग़ल में रखते हुए पूछा, 'यहाँ मैं सो सकता हूँ?'
अब्बू ने जवाब दिया, 'हाँ, सो जाइये।'
अब्बू ने अपनी सीट उस शख्स को दे दी।
वह शख्स लेटते ही सो गया।
बाक़ी रात अब्बू ने अकेले ही जाग कर गुजार दी।
भोर फूटते ही वह सज्जन जाग गये और उन्होंने उठ कर खिड़की खोल दी और बाहर के उजले-धुले उजाले से समूचा डिब्बा भर दिया। उमस भरे डिब्बे में ताजा हवा का झोंका घुस आया।
उस शख्स ने उच्छ्वसित लहजे में कहा, 'बड़ी मोहक भोर है।" उच्छ्वास की मुद्रा भी बिल्कुल वैसी ही!
अब्बू को याद आ गया...अब्बू की शादी के फ़ौरन बाद ही, नानू के घर, शरत पूनो की रात! रात भर छत पर बैठे-बैठे गपशप चलती रही, गाना-बजाना होता रहा, अड्डेबाज़ी भी चलती रही। वहाँ अब्बा, अम्मी, दो-दो ख़ाला, अम्मी की एक सहेली और मामा मौजूद थे।
मामा थोड़ी-थोड़ी देर बाद उस जमघट से उठ कर अपनी दोनों बाँहें, शून्य में फैला कर कह उठते थे–'वाह! कैसी मोहक रात है!'
ट्रेन के उस शख़्स का हाव-भाव अब्बू के मन में शक़ को डाल गया। उनका मन हुआ कि वे उनसे पूछ ही लें-'तुम मुनीर हो न?' लेकिन अन्त तक उन्होंने नहीं पछा। कहीं वह शख्स कहीं यह न बोल उठे– 'आप मुझे इतना तंग क्यों कर रहे हैं, साहब?'
आमतौर पर अब्बू ट्रेन में कुछ नहीं खाते। उस दिन सुबह साढ़े छह बजे ही दो कटलेट और दो चाय का ऑर्डर दे डाला।
कटलेट की प्लेट उस शख्स की तरफ़ बढ़ाते हुए कहा, 'लीजिये, गर्म-गर्म खा लीजिये।'
वह शख़्स चाय-कटलेट का नाश्ता करने में जुट गया।
अब्बू ने अगला सवाल दाग़, 'आपका नाम जान सकता हूँ?'
उस शख्स ने हँसते-हँसते जवाब दिया, 'दूल्हा भाई, आपकी सेहत बहोत गिर गयी है।'
अब्बू ने छूटते ही उस केश-दाढ़ीवाले शख्स का हाथ कस कर थाम लिया, 'मुनीर?'
उसके बाद बारह वर्ष से लापता प्रिय साले मुनीर को साथ ले कर अब्बू घर लौटे। अपने संन्यासी भाई को देखते ही, माँ ने बेभाव रोना शुरू कर दिया। हम सब भाई-बहन, मामा को घेर कर बैठे रहे। मामा बारह वर्ष कहाँ रहे, क्या करते रहे, यह जानने के लिए हम लोग उनके पीछे पड़ गये। लेकिन मामा ने कुछ नहीं बताया। वे बस, हँसते रहे।
अब्बू ने कहा, 'अब, यह दाढ़ी-वाढ़ी साफ़ करके, ज़रा इन्सान बनो। बीवी को तो खो ही दिया, अब तो घर लौटो।'
'सुरमा घर में नहीं है?' मामा ने बेतरह अचकचा कर पूछा।
हम सबने एक-दूसरे की तरफ़ विस्मित निगाहों से देखा। उस वक़्त मामा खाना खा रहे थे। अचानक वे खाना छोड़ कर उठ गये और हाथ धो कर, घर से बाहर निकल गये। हम लोग उन्हें पीछे से खींच कर या उन्हें आवाज़ दे कर, किसी हाल भी, रोक नहीं पाये।
वही मामा अब अकसर आने-जाने लगे हैं।
आते ही वे ज़ोर का ठहाका लगा कर आवाज़ देते हैं, 'क्यों भई, कहाँ हो तुम लोग? आओ, आओ, इधर आओ। बताओ कहानी सुनोगे या मैजिक देखोगे?'
हम सब कौतूहल और कौतुक से घेर कर बैठ जाते हैं। हम लोग से मतलब है-मैं, मेरे एक बड़े भाई, दो छोटी बहनें!
एक दिन, इन्हीं मामा ने मुझे उदास देख कर पूछा, 'क्या बात है? उदास क्यों है? जो चाहती है, वह मिलता नहीं, इसलिए?'
मैं हँस पड़ी, 'बिल्कुल यही बात है, मामा! बताइये तो मैं करूँ क्या?'
मामा ने कहा, 'अगर तू शिद्दत से...खूब मन से कुछ चाहे, तो मिलेगा।
मंसूर के लिए मेरा ध्यान में बैठने का मन होता है। ध्यान किया जाये, तो आराध्य धन मिल जाता है। लेकिन कभी-कभी मेरे मन में यह सवाल भी जागता है कि अगर यह सच है, तो मामा जो तिब्बत की किसी गुफा में पूरे बारह वर्ष गुज़ार कर लौटे हैं, उन्हें क्या मिला? मामा क्या उसी गुफा में बैठ कर ध्यान का सबक सीख आये हैं? वे किसका ध्यान कर रहे थे? संसार-समाज, आत्मीय-स्वजन, अनिन्द्य सुन्दरी बीवी को छोड़ कर, वे किसके ध्यान में बैठे थे? मामा की जिन्दगी की यह रहस्यमयता भेद करना, मेरे लिए कभी सम्भव नहीं हुआ।
यह ढाका शहर! छोटा-सा, इत्ता-सा शहर! इस शहर में, मंसूर नामक वह लड़का जाने कहाँ तो रहता है! उस लड़के का आदि-अन्त, अता-पता जानने के लिए, मैं आकुल-व्याकुल हो आयी हूँ।
* * * * *
हमारे घर में कुसुम नामक एक तेरह वर्षीया लड़की काम करती है। वह लड़की पाँचों वक़्त नमाज़ पढ़ती है। अज़ान सुनते ही, वह सारा कामकाज़ छोड़ कर, नल की तरफ़ दौड़ जाती है। वजू करती है। बावर्चीख़ाने के एक कोने में बैठ कर, बड़ी तन्मय मुद्रा में नमाज़ पढ़ती है।
मैं उससे अकसर सवाल करती हूँ, 'यह जो तू इतना-इतना नमाज़ पढ़ती है, सुरा वगैरह जानती है?'
कुसुम भौंहें सिकोड़ कर मेरी तरफ़ देखते हुए जवाब देती है, 'जानती हूँ, क्या मतलब? ग़रीब हूँ, तो का भया, सुरा नाहीं जानूँगी? यह कईसी बात करती हैं?'
एक दिन किसी शाम के वक़्त, मैंने उससे सवाल किया, 'अच्छा, कुसुम, यह जो तू पाँचों वक़्त नमाज़ पढ़ती है यानी यह जो तू ध्यान में बैठती है, क्यों?'
कुसुम मेरे कमरे में, फर्श पर पाँव पसार कर बैठ गयी और उसने तमक कर कहा, 'ए हो, आपा, आप तो ख़ाली-खूली दुनियाबी लिखाई-पढ़ाई ही करत रहीं। आख़िरत के लिए तो कुछ भी साथ नाहीं लिया।
'आख़िरत के लिए क्या लेना पड़ता है? नमाज़?'
कुसुम के होटों पर हँसी खेल गयी, 'क्यों? बहिश्त!'
मैंने अगला सवाल किया, 'तू बहिश्त आखिर क्यों जाना चाहती है?'
'वहाँ मछली का कलेजा खावे को देता है।'
मैं मारे विस्मय के तड़ाक से उठ खड़ी हुई और ज़ोर का ठहाका लगा कर मैंने पूछा, 'मछली का कलेजा? अरे, मछली का कलेजा तो हातिरपुल बाज़ार में ही मिलता है। अगर तू कहे, तो अभी ख़रीद कर ला सकती हूँ! इसी वक़्त!'
कुसुम ज़रा भी विचलित नहीं हुई।
उसने कहा, 'दुनियाबी मछली का कलेजा तो तीता होत है, बहिश्त में मछली का जो कलेजा देत है, वह तो मिट्ठा होवेगा।'
कुसुम अपने दिल की सारी बात मुझसे कहती-सुनती रहती है।
मैंने भी एक उदास दोपहरी के वक़्त, कुसुम को आवाज़ दे कर पूछा, 'कुसुम, तू प्रेम समझती है? प्रेम?'
कुसुम लाज से लाल हो उठी, 'समझती हूँ।'
बिस्तर पर लेटे-लेटे, अपने एक पाँव पर दूसरा पाँव नचाते हुए बताया, 'मैं एक लड़के के प्यार में पड़ गयी हूँ।'
कुसुम ने फर्श पर बैठे-बैठे, मेरे पैरों की उँगलियाँ चिटखाते हुए, उसी तरह लजाई-सी मुद्रा में कहा, 'यूसुफ़ भी जुलेखा बीवी से प्रेम करता था।
मैंने लम्बी-सी उसांस फेंक कर कहा, 'लेकिन, कुसुम, उस लड़के से मेरी कभी भेंट नहीं होगी।'
मंसूर से मेरी कभी भेंट नहीं होगी, यह बात मैं क़बूल नहीं कर पा रही हूँ। क़रीब महीने भर गुज़र गये, मैंने उसे मृदुल'दा के यहाँ देखा था। मगर, अब उसे दुबारा देखने का कोई उपाय नहीं था।
आजकल ज़्यादातर मुझे घर में ही बैठे रहना पड़ता है, क्योंकि मैंने हायर सेकंडरी पास कर लिया है, अब जगह-जगह इम्तहान देने का दौर चल रहा है। लेकिन पढ़ाई से मेरा मन अकसर उचट जाता है और उस हसीन चेहरे के ख़यालों में खो जाता है। ऐसा क्यों होता है? कौन है यह मंसूर? कैसा है उसका स्वभाव-चरित्र? क्या है उसका वंश-परिचय? यह क्या शादीशुदा है या कुँवारा? इन सबके बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं, लेकिन, मन है कि सिर्फ उसे ही चाहने लगा है।
क्या इसी का नाम प्रेम है? हाँ, शायद इसे ही प्यार कहते हैं। लेकिन इसे प्रेम भी भला कैसे कह सकते हैं? अगर यह वाक़ई प्रेम है, तो दो लोगों में न बातचीत हुई, न आँखों से आँखें मिलीं, न हाथ में हाथ आया, न कोई सुख, न सपना-यह कैसा प्रेम?
इस दौरान, मैंने कुछ कविताएँ लिखी हैं। सारी कविताएँ मंसूर के लिए! मैंने अपनी कविता की कॉपी, अपनी किताब-कॉपियों में छिपा कर रख दी है, ताकि किसी के हाथ न पड़ जाए। अगर पड़ गयी, तो मुसीबत! भइया तो शर्तिया झमेला खड़ा कर देंगे। दोनों छोटी बहनें भी दिनोंदिन पकती जा रही हैं! इन लोगों को भी इसकी ख़बर न लगे, तो बेहतर!
मैंने अपनी एक कविता की शुरुआत यूँ की है-
तुम्हें जाने कब तो देखा था!
जाने कब से तुम,
मेरे समूचे मन में बस गये हो, पता है?
अगर पता होता, तो मेरे दर पर ज़रूर दस्तक देते
और मैं दरवाज़ा खोल कर बाहर आ खड़ी होती।
तुम मुझे बाँहों में उठाये, पूरे आँगन में नाचते-गाते-
'मोरे हिया में छिपी बैठी थीं, देख नहीं पाया मैं!'
यह कविता मैंने पूरी नहीं की। ढेरों आधी-अधूरी कविताएँ जमा होती जा रही हैं। आजकल मेरे साथ एक अजीब बात होने लगी है। पहले मैं फूल-पत्ती, पंछी-पखेरू, नदी वगैरह पर ज़्यादा कविताएँ लिखती थी, लेकिन अब इन्सान पर लिखने लगी हूँ, वह भी अपने प्रेमी के लिए!
मौक़ा देख कर मैंने भइया से पूछ ही लिया, 'तुम क्या मंसूर को पहचानते हो? उस दिन मृदुल'दा के यहाँ देखा-'
'वह लड़का तो देखने में बेहद खूबसूरत है? वेरी हैंडसम?'
'हाँ-हाँ!' मैंने छूटते ही कहा।
'पहचानूँगा क्यों नहीं? बेशक़ पहचानता हूँ।'
'वह क्या गाता भी है?'
'अरे, नहीं!'
दादा की उपेक्षा भरी भंगिमा देख कर, मैंने मन-ही-मन राहत की साँस ली। उसे गाना न आता हो, तभी ग़नीमत है! वैसे मैं ज़रा सहम भी गयी। गाना आता हो, तो अलस दोपहरी, शामें काफ़ी खुशनुमा गुज़रती हैं। प्रतिभाहीन इन्सान क्या ज़्यादा दिनों तक भला लगता है?
इधर मैंने गौर किया है कि भाई में दिनों दिन एक किस्म का बदलाव आ रहा है।
भाई कुल मिला कर छह दिन घर नहीं लौटे थे। उस दिन आधी रात को लौटे। उनके मुँह से तीखी गन्ध आ रही थी।
अब्बू ने जवाब तलब किया, 'फरहाद, तुमने शराब पी है?'
'शराब' शब्द सुन कर माँ को लगभग बेहोशी आने लगी। उसकी कोख-जाया बेटा, भला शराब क्यों पीने लगा? अगर उसे शराब पीनी ही थी, तो बचपन में उसके मुँह में आहार क्यों डाला था? माँ खासे सुर में रोती रही। लेकिन मैं ठीक समझ गयी कि भाई ने शराव क्यों पी है। रूमा ने उसे बता दिया है कि वह उससे व्याह नहीं करेगी, इसीलिए वह शराब पी कर लौटा है। रूमा, भाई की प्रेमिका है। कभी-कभार मुझसे भी भेंट हो जाती है।
मुझे देखते ही वह चन्द रटे-रटाए जुमले दुहराने लगती है।
'उफ़! तुम्हारा भाई कितना भला, कितना शरीफ़ है! वर्ताव कितना प्रेमभरा!' वगैरह-वगैरह जुमले, वह आँख मूंद कर दोहराने लगती है।
अकसर मुझे अलग ले जा कर पूछती है, 'तुम्हारे भाई ने घर में, मेरे बारे में कुछ बताया है?'
'बताना क्या है?'
'यही कि...रूमू मुझे अच्छी लगती है। रूमू के अलावा, मैं और किसी से ब्याह नहीं करूँगा। यही सब...'
'भाई तो ऐसे भी ज़रा चुप्पा है, बात कम करता है। ऐसी बातें वह अपने पेट में ही दबाए रखता है, जुबान पर नहीं लाता।'
थोड़ी आशा, थोड़ी निराशाभरी निगाहों से, रूमू ने मेरी आँखों में झाँका।
हैरत है, उसी रूमू ने पिछले दिन मुझसे कहा, 'देखो, शीला, माँ-बाप ही इन्सान के सबसे ज़्यादा अपने, सबसे ज़्यादा सगे होते हैं। उनका आदेश हमें नहीं ठुकराना चाहिए। उन लोगों का दिल दुखाना क्या उचित है? बताओ?'
मैंने भी इनकार में सिर हिलाया, 'ना-'
रूमू आईने के सामने खड़ी-खड़ी, अपने चेहरे पर बड़े जतन से क्रीम मल रही थी।
उसने कहा, 'बप्पा ने किसी इंजीनियर लड़के के साथ मेरा रिश्ता तय किया है। वैसे मैं अभी राज़ी नहीं हुई हूँ।'
भाई और रूमू सहपाठी हैं! क्लासमेट! मास्टर की डिग्री के लिए परीक्षा देने वाले हैं! जाने कव से तो दोनों में प्रेम चल रहा है। कितने सालों से? शायद पाँच सालों से! हाँ, पाँच ही वर्ष तो हुए! पिछले पाँच वर्ष तक मैं उनके ख़त लाती-ले जाती रही। कब, कहाँ, मिलना है, यह बता आती थी।
कभी-कभी रूमू मुझसे आग्रह करती थी, 'सुनो, आस-पास अगर कोई न हो, तो मुझे 'भाभी' कह कर बुलाया करो। ठीक है?'
लेकिन उसे 'भाभी' कहने में, मुझे शर्म आती थी। नतीजा यह हुआ कि 'भाभी' बुलाने के उलझन में, मैंने उसे 'रूमू आपा' बुलाना भी छोड़ दिया। अन्त में 'रूमू आपा' या 'भाभी' सम्बोधन के विकल्प के तौर पर, सारा मामला-एइ, अच्छा. इस तरफ़. देखती हूँ, वगैरह पर आ टिका था।
उस दिन रूमा, आईने के सामने खड़े-खड़े क्रीम मलते-मलते बातें करती रही, अपने व्याह, व्याह में उसके राज़ी न होने के बारे में बताती रही। अचानक वह ज़ोर-ज़ोर से रो पड़ी। मैं विमूढ़-सी खड़ी रही।
घर लौट कर, मैं यह तय नहीं कर पायी कि भाई को रूमू के विवाह के बारे में बताऊँ या अचानक उसके रो पड़ने के बारे में बताऊँ। वाद में, भाई जव शराब पी कर घर लौटा, तो मैं साफ़ समझ गयी कि भाई सव जान गया है। मुझे कुछ कहने या बताने की ज़रूरत नहीं पड़ी।
मेरा जीवन नितान्त वैचित्र्यहीन है। सातवीं क्लास तक मुझे स्कूल. पहुँचाने के लिए, कोई साथ जाता था, छुट्टी होने पर ले भी आता था। कहीं घूमने निकलो, तो भी वही इन्तज़ाम! या तो माँ संग होती थी या अब्बू या भाई!
एक बार माँ घर के काम-काज में बेतरह व्यस्त थी। मेरा पापड़ी के घर जाना बेहद ज़रूरी था। उससे फ़िज़िक्स के नोट्स लेने थे। उस वक़्त, मेरा दस वर्षीय फुफेरा भाई घर में था। नाम-रतन।
माँ ने हिदायत दी, 'ख़बरदार, अकेली मत जाना। रतन को ले जा।
उन दिनों मेरी उम्र सत्तरह या अठारह साल थी। अपनी सुरक्षा के लिए मैं एक दस वर्षीय बालक को ले जाऊँ?
मैंने अवाक हो कर पूछा, 'रतन को क्यों ले जाऊँ? रास्ता-घाट पर रतन क्या मुझे बचायेगा? वह तो मुझसे छोटा है।'
माँ ने कहा, 'भले छोटा हो, लड़का तो है।'
लड़का होने की अहमियत बहुत ज़्यादा है, यह मैं बखूबी समझती हूँ। समझूगी क्यों नहीं? मैं तो ऐसी गृहस्थी में बड़ी हो रही हूँ, जहाँ लड़के-लड़की दोनों ही मौजूद हैं। इस फ़र्क को मैं इसलिए भूली रहती हूँ, क्योंकि जितना-सा मिल रहा है, वही काफ़ी है। हायर सेकण्डरी के बाद, मेरी पाँच-पाँच सहेलियों की शादी हो गई। अब उनका लिखना-पढ़ना शायद बन्द! ऐसे में क्या यह मेरा परम सौभाग्य नहीं है कि मेरे अब्बू ने मुझे व्याह कर, किसी अनिश्चित भविष्य की ओर नहीं धकेल दिया? मेरे अब्बू बदस्तूर भलेमानस हैं। वे मुझे अकेले, घर से बाहर जाने नहीं देते। इसकी वे एक ही वज़ह बताते हैं, 'आजकल जो दिन-काल है, तुम लाँछित या बेआबरू नहीं होगी, इस बारे में मैं निश्चित नहीं हो पाता। मुझे खटका लगा रहता है।'
वैसे कभी-कभी मुझे बहुत गुस्सा आता है। मिमी, श्रावणी, लूपा-ये लोग आराम से समूचा ढाका शहर घूमती-फिरती हैं। मेरे लिए ही इतनी रोक-टोक! इतने निषेध!
मुझे लगता है, मेरी ज़िन्दगी निस्तरंग पोखर है। अब मेरी उम्र उन्नीस वर्ष है! मैं ज़िन्दगी को खुल कर देखना चाहती हूँ। लेकिन, छत पर जाने, स्कूल जाने, स्कूल या घर के आँगन में कभी-कभी दौड़ लगाने, किताब-कॉपियों, लिखाई-पढ़ाई में डूबे रहने, अचानक-अचानक कभी दो-एक फ़िल्म या थियेटर देखने,
नाते-रिश्तेदारों के घर जाने, विविध पर्व-त्यौहारों पर जान-पहचान के लोगों से मिलने-जुलने कभी-कभार भाई के दो-एक दोस्तों से बातें कर लेना और माँ-खालाओं के साथ घरेलू अड्डेबाज़ी-इनके अलावा, मेरे पास जीवन का और कोई संचय नहीं है। मेरे हिस्से में और कोई अर्जन नहीं है।
* * * * *
मंसूर के साथ मेरी फिर भेंट हुई!
इस बार, गानों की किसी महफ़िल में नहीं, बल्कि किताब की दुकान के सामने! मैं बेली रोड के 'पोथीवितान' में दाखिल हो रही थी। अचानक मेरी नज़र बग़ल की वीडियो कैसेट की दुकान पर पड़ी। मंसूर उस दुकान से बाहर आ रहा था। बदन पर सिल्क का कुर्ता, सफ़ेद पायजामा, पैरों में कोल्हापुरी चप्पल! बेहद स्मार्ट लग रहा था।
मैं ठिठकी-सी खड़ी रही। मेरे दिल की धड़कनें तेज़ हो गयीं। मैं गर्दन मोड़ कर, मंसूर को जाते हुए देखती रही। उसके साथी की नज़रें मुझ पर ही गड़ी हुई थीं। उसकी मंसूर को भी शायद पीछे मुड़ कर देखने का इशारा किया। मंसूर ने पलट कर मुझे देखा। मैं ठहरी काली-कलूटी लड़की। मेरी तरफ़ भला वह क्यों देखता? लेकिन, मेरे अचरज का ठिकाना नहीं रहा। मंसूर सचमुच मुझे ही देख रहा था। उसकी निगाह मझ पर से हट ही नहीं रही थी। बग़ल में खड़ी सफ़ेद कार के दरवाजे पर हाथ रख कर, मेरी तरफ़ नज़रें गड़ाए-गड़ाए, वह शायद यह याद करने की कोशिश कर रहा था, यह चेहरा उसने पहले कहीं देखा है या नहीं। मंसूर का हाथ टोयटा करोला कार के दरवाज़े पर, उसकी आँखें मेरी आँखों में! मैं भी उसकी तरफ़ मन्त्रमुग्ध हो कर देखती रही। मेरी ख़ाला, किताब की दुकान के अन्दर किताबें देख रही थी और मैं मंसूर में खोई, बाहर खड़ी थी।
इस घटना ने मुझे बेहद अचरज में डाल दिया।
असल में मैंने एक बात बखूबी समझ ली है कि किसी भी वन्द दरवाजे के फाँक-दरारों से हो कर, और कोई भले अन्दर न जा सके, मगर प्रेम दाखिल हो जाता है। जन्म से ही मैं जंजीर-बँधी लड़की हूँ। बेहद छोटे-से दायरे में रहती हूँ मैं। मेरे कमरे में रोशनी-हवा आती है, यही काफ़ी है। उँगलियों पर गिने जाने लायक़, कुल चन्द जाने-पहचाने रिश्तेदारों को, मेरे कमरे में आने-जाने का हक़ है। इसके बावजूद, मन-ही-मन, मैं मंसूर को अपने साथ अन्दर ले आयी। मंसूर जैसे मेरे पढ़ने की मेज़ के सामने बैठा है, मैं बिस्तर पर पाँव उठाये, गोद में एक तकिया दबाये बैठी हूँ। तकिये पर कोहनी गड़ाये मैं उसे देख रही हूँ, उसका असम्भव सौन्दर्य निरख रही हूँ। वह मेरी किताब-कॉपियाँ उलटते-पलटते, मेरी ही कोई कविता में मगन हो गया है। कविता शायद यूँ है-
जीवन गुज़रता जाता है...
मैं उसे कस कर बाँधे रखती हूँ,
राह रोक कर खड़ी हो जाती हूँ,
लेकिन, भला वह सुनता है मेरी बात?
यह जीवन मेरा ही है, फिर भी,
नहीं मानता मेरा आदेश,
दौड़ जाता है तुम्हारी ओर!
कैसी सिरचढ़ा है, देखो,
मैं पड़ी रहती हूँ निःस्व! अकेली!
घर के सन्नाटे में!
तमाम सुख-समृद्धि पीछे फेंक कर,
मेरा हुक्म ठुकरा कर,
पहुँच जाता है, तुम्हारे चरण-स्पर्श के लिए!
वह कविता वह ज़ोर-ज़ोर से पढ़ता रहा। मेरी ओर देखता भी रहा!
अगले ही पल, उसने हँस कर कहा, 'किसके चरण-स्पर्श के लिए तुम्हारा मन लुढ़क-पुढ़क रहा है? ज़रा मैं भी सुनूँ!'
मैंने आँखें मूंद कर जवाब दिया, 'अगर मैं कहूँ तुम्हारे?'
मंसूर विस्मय से उठ कर खड़ा हो गया।
'शीला! शीला! शीला! तुम्हारे दिल में इतनी हल चल क्यों मची है? मैं तुम्हें इतना अच्छा क्यों लगता हूँ?'
उसे देख कर मेरा मन-प्राण भर उठता है।
'पोथीवितान' में काफ़ी देर तक मैं कितावें वगैरह उलटतीपलटती रही। किसी-किसी किताब के दो-एक पन्ने पढ़ भी गयी, लेकिन मन अक्षरों में नहीं, मंसूर के साथ था। मंसूर का चल कर जाना, अचानक पीछे मुड़ना, देखना, गाड़ी में सवार होना, मेरी तरफ़ देखते हुए मंद-मंद मुस्कराना...सारा कुछ, मेरी छाती में गुंथ गया था और मुझे आकुल-व्याकुल किये दे रहा था।
मैंने ख़ाला से कहा, 'आओ, चलें! रिक्शा ले कर दो घण्टे घूमते हैं-'
'दो-घण्टे ऽऽ कहाँ? कोई ज़रूरी काम है?'
'नहीं! बस, ऐसे ही!'
'ऐसे-ऐसे ही भला कोई घूमता है?'
'घूमने में नुकसान क्या है? बता, क्या नुकसान है?'
'तुझे हुआ क्या है, बता तो?'
'शहर में सर्दी पड़ने लगी है। जाड़े की ठण्डी-ठण्डी बयार, तन-बदन को भली लग रही है।'
ख़ाला को साथ ले कर, मैं खुले-हुड के रिक्शे पर सवार हो गयी। ख़ाला उम्र में मुझसे कम-से-कम दस वर्ष बड़ी थी। लेकिन, उससे मेरी अच्छी-खासी दोस्ती है। ख़ाला अपनी ज़िन्दगी के तमाम कहानी-क़िस्से मुझे बताती रहती है। ख़ाला का नाम है-शरीफ़ा!
छह वर्ष पहले शरीफ़ा ख़ाला की शादी हुई। उनकी पाँच वर्ष की एक बेटी भी है। ख़ाला के मन में अपने शौहर की गृहस्थी के प्रति अजीब-सी उदासीनता घर कर गयी है।
मैं उससे पूछती हूँ, 'ख़ालू कैसे हैं? कहाँ गये हैं? हमारे यहाँ बहुत दिनों से नहीं आये।'
ख़ाला की भौंहें चढ़ गयीं, 'मुझे नहीं मालूम!'
'क्यों? इतना मान क्यों ठाने है?'
यह सवाल करते ही, ख़ाला एकदम से झुंझला उठी, 'सुन, अच्छी-अच्छी बातें कर। यह सब फ़िजूल की बातें अब मुझे अच्छी नहीं लगतीं।'
एक दिन ख़ाला मुझे एक घर में ले गयी। ज़फर के घर! ज़फर इक़बाल! वे साहब, भलेमानस क़िस्म के थे। अकेले रहते थे। खुद ही पकाते-खाते थे, खुद ही अपने कपड़े धोते थे, आँखें झुका कर बातें करते थे। हँसते कम थे।
उन्होंने मुझसे पूछा, 'मुन्नी, तुम क्या पढ़ती हो?'
अपने को 'मुन्नी' कहे जाने पर, मुझे भयंकर गुस्सा आया। विश्वविद्यालय में दाखिला लेने वाली हूँ, मैं 'मुन्नी' क्यों होने लगी?
उन्होंने शरीफ़ा से कहा, 'आओ, शरीफ़ा बैठो। मैं फटाफट चाय बना लाऊँ-'
वहाँ ख़ाला के चलने-फिरने की भंगिमा देख कर, मुझे अन्दाज़ा हो गया कि वे यहाँ अकसर आती-जाती रहती हैं। इस बीच वे दो बार बावर्चीखाने भी हो आयीं।
मेरी तरफ़ देख कर, उन्होंने मुस्करा कर कहा, 'तुझे बड़ा अचरज हो रहा है न? सोच रही है, यह भला किसका घर है? ये ज़फ़र हैं, यूनिवर्सिटी में मेरे प्रोफ़ेसर थे। शादी-ब्याह नहीं किया। यूनिवर्सिटी के इस क्वार्टर में अर्से से रहते हैं। मुझसे बेहद लगाव है।'
सारा मामला मुझे बेहद अजीब लगा। ख़ाला को कभी इतना उच्छवसित होते नहीं देखा, ख़ास कर ख़ालू के सामने!
ख़ालू अगर कभी यह कहते थे, 'शरीफ़ा, चलो, आज कहीं घूम आयें।'
'आज मेरे सिर में काफ़ी दर्द है, जी!'
बहरहाल, ज़फ़र इक़बाल खुद ही चाय बना लाये।
चाय पीते-पीते उन्होंने ख़ाला से कहा, 'ज़िन्दगी आखिर कितने दिनों की है, बताओ? अभी है, अभी ख़त्म हो जायेगी। इतने-से जीवन में तुम ही सब कुछ बनी रहीं।'
हालाँकि वे काफ़ी धीमी आवाज़ में बातें कर रहे थे, लेकिन मैं कान लगाए, सब सुन रही थी। दिखाने को मैं एक किताब के पन्ने उलट-पलट रही थी, लेकिन मन उसी तरफ़ लगा हुआ था।
ख़ाला ने कहा, 'बहुत जल्दी ही मेरे जीवन में उलट-पलट होने वाला है, तुम देखना।'
मेरे विस्मय की मूर्छना ही नहीं कट रही थी। यह मैं कौन-सी दुनिया में आ पड़ी हूँ? ख़ाला किसके साथ यूँ घनिष्ठ हो कर बैठी है? इतने प्रेम भरे अन्दाज़ में आख़िर वह किससे बातें कर रही है? यह तो गुनाह है!
घर लौटते-लौटते ख़ाला ने कहा, 'सुन, दीदी से कुछ मत कहना समझी?'
मैं काफ़ी गम्भीर मुद्रा में बैठी थी।
मैंने सवाल किया, 'लेकिन उस शख्स से तुम्हारा क्या रिश्ता है, यह बताओ?'
'मैं उससे प्यार करती हूँ।' ख़ाला ने जवाब दिया।
'प्यार करती हूँ...क्या मतलब?'
'प्यार करती हूँ, मतलब, प्यार करती हूँ।'
'फिर...ख़ालू...?'
'तेरे ख़ालू, मेरे शौहर हैं। मेरे प्रेमी नहीं हैं, सिर्फ़ पति हैं। मैं उसके साथ सोती हूँ। वह मेरी देह के साथ क्या सब करता रहता है। सुबह-सुबह घर-ख़र्च थमा कर वह बाहर निकल जाता है।'
मेरा सिर बेतरह चकराने लगा। यह कैसी ज़िन्दगी है?
'तुम्हारा यह रंग-ढंग सही नहीं है, ख़ाला! तुम ख़ालू को धोखा दे रही हो।'
'वह मुझे कितना धोखा दे रहा है, शीलू, तू बड़ी होगी, तो किसी दिन समझेगी। ज़फ़र बेहद भलामानस है, री! अगर ज़फ़र न होता, तो मेरा जीना नामुमकिन होता।'
'उससे तुम्हारा कितना-सा रिश्ता है?'
ख़ाला के बोलने के लहज़े में उदासीनता थी, मगर आवाज़ में एक किस्म का ज़ोर झलक उठा, 'पूरा रिश्ता है! भरपूर रिश्ता!'
'तुम पर मुझे भयंकर गुस्सा आ रहा है, ख़ाला। ख़ालू को अगर पता चल जाये, तो क्या होगा, कभी सोचा है?'
'तेरे ख़ालू को पता चल भी जाये, तो कुछ नहीं होगा, मैं कहे देती हूँ! तू देख लेना।'
'क्यों, वे कुछ नहीं कहेंगे?'
'कुछ भी नहीं कहेगा! कुछ बोलने की उसमें हिम्मत ही नहीं है। वह कुछ बोलने लायक़ ही नहीं है।'
मैं इन रिश्तों की उलझी हुई गाँठे खोल नहीं पाती। यह तो मैं साफ़-साफ़ समझ गयी कि ख़ालू के प्रति ख़ाला के मन में अब कोई प्रेम-प्यार नहीं बचा है। सिर्फ लोक दिखावे का एक सामाजिक सम्पर्क भर टिका हुआ है।
काफ़ी दिनों बाद, आज ठण्डी-ठण्डी बहती बयार में मैंने पूछा, 'तुम्हारा ज़फ़र कैसा है?'
'अच्छा है, मज़े में है।' ख़ाला ने जवाब दिया।
ज़फ़र का प्रसंग छिड़ते ही उनकी आँखें, चेहरा-मोहरा हँसने लगता है।
अगर वह उनसे प्यार करती थी, तो पहले ही उनसे विवाह क्यों नहीं कर लिया, मैंने उससे पूछ ही लिया। यह सवाल काफ़ी दिनों से मेरे मन में जगा हुआ था। आज मैंने पूछ लिया।
ख़ाला ने जवाब दिया, 'विवाह करके क्या फायदा होता? मैं उस शख्स को घर-गृहस्थी के तेल, नमक, प्याज़ के हिसाब-किताब में नहीं खींच सकती थी।'
'तो अन्त में, आख़िर नतीजा क्या निकलेगा?'
'जो हो रहा है, वही होगा। मैं मज़े में हूँ। टीचरी कर रही हूँ! बेटी स्कूल में पढ़ रही है...'
अचानक ख़ाला पूछ बैठी, 'तू किसी को प्यार करती है?'
मैं सकपका गयी। यह 'प्यार' शब्द आजकल मुझमें भयंकर कँपकँपी भर देता है। मंसूर से आज भी मेरा कोई संवाद नहीं हुआ। हालाँकि यह भी सच है कि मैं उससे प्यार करती हूँ।
ख़ाला के सवाल का जवाब देते हुए मैंने कहा, "हाँ, मन-ही-मन!"
'अरे, प्यार तो मन-ही-मन होता है! प्यार क्या कोई बाहरी चीज़ है?'
खाला के इस सवाल पर मैंने काफ़ी खुशी महसूस की।
* * * * *
बिना किसी कारण के ही, एक दिन मैं मृदुल'दा के घर जा पहुँची। मेरे घर का बग़ल का ही घर। यहाँ अकेले ही आने-जाने की अनुमति है। मृदुल'दा की छोटी बहन, तुलसी ने मुझे ले जा कर, अन्दर कमरे में बिठाया। चाय-मुरमुरों का नाश्ता करते हुए, उससे मेरी गपशप चलती रही। तुलसी मेरी हम उम्र है। लिखाई-पढ़ाई में वह ज़रूर मुझसे दो वर्ष पीछे है। उसमें एक किस्म का लड़कियानापन है।
उसने कहा, 'इश्श शीला, दिनों दिन तू कितनी खूबसूरत होती जा रही है!'
मैं हँस पड़ी, 'कल्लू लड़की में किसी को, कोई खूबसूरती नज़र नहीं आती। तुझे नज़र आयी, दिल बड़ा खुश हो गया।'
'क्यों जी, अब तक तुमसे किसी ने नहीं कहा-तुम इतनी हसीन हो, इसीलिए मैं तुम्हें निहारता रहता हूँ, प्रिय?'
'नहीं! बल्कि मैं ही औरों की खूबसूरती की तरफ़ टकटकी बाँधे देखती रहती हूँ।'
'कौन है वह ? ज़रा मैं भी सुनें।'
'यह बात ऐसी है कि पकड़ में नहीं आती, छुयी नहीं जाती, बतायी नहीं जाती।' –यह कहते हुए मैं हँस पड़ी।
'अच्छा, तुलसी, मृदुल'दा का मंसूर नामक एक दोस्त है न? वह रहता कहाँ है?' मैंने पूछ ही लिया।
'नया पल्टन में! गानों का एक स्कूल है! उसके बग़ल में।'
'घर का नम्बर जानती है?'
'क्यों? तू जायेगी?'
'अरे नहीं, एक ज़रूरी काम है। तुझे बाद में बताऊँगी।'
तुलसी ने मृदुल की, नाम-पतेवाली कॉपी से मंसूर का नम्बर खोज कर मुझे पकड़ा दिया।
'यह मंसूर किस किस्म का लड़का है, तुलसी?'
'बेहद भला! बेहद शरीफ़! अदभुत! मंसूर भाई जैसा इन्सान नहीं होता! देखने में जितना खूबसूरत, गाने की आवाज़ उतनी सुरीली! दौलतमंद का बेटा! बहुत बड़ा निजी बिज़नेस! बर्ताव बेहद भला!'
'इसी उम्र में बिज़नेस करता है?'
'एम. ए. का इम्तहान देने वाला है, वर्ना फूफाजी बहोत नाराज होंगे।'
मेरे अन्दर फिर वही तूफान शुरू हो गया। प्यार का तूफ़ान! अच्छा, इस मंसूर को पाया नहीं जा सकता? अपने बेहद करीब? यही सब सोचते-सोचते, मेरे हाथ-पैर, कैसे तो अवश हो आये!
मैंने मंसूर को एक ख़त लिखा। ख़त यूँ था-
"प्रिय नौज़वान, आप अतिशय खूबसूरत हैं। आपका मन भी क्या इतना ही खूबसूरत है? आपको शिद्दत से प्यार करने को मन करता है।
इति,
पुनश्च : अगर चाहें, तो मुझे ख़त लिखें।
ख़त के अन्त में पता भी लिख दिया! ख़ाला का पता। फ़ोन पर मैंने ख़ाला से भी बात कर ली है। उन्हें बता दिया है कि उनके यहाँ, मेरे नाम, कोई ख़त आ सकता है। इस ख़बर के बारे में, मेरे किसी घरवाले को पता न चले।
ख़ाला ने मुझे अभय दिया है।
'सुन, तू इस बारे में बिल्कुल फ़िक्र ना कर। कोई ख़त आते ही, मैं तुझे पहुँचा दूंगी।'
'ग्रेट! तुम ग्रेट हो, ख़ाला!' यह कहते हुए मैंने फ़ोन पर ही चकास-चकास दो चुम्बन जड़ दिये।
'पता है, कल तेरे ख़ालू ने क्या काण्ड किया? पन्द्रह सिडक्शिन निगलकर, मरने गया था। मैं फटाफट हस्पताल ले गयी, 'वाश' कराया और उसे ज़िन्दा घर लौटा लाई।'
'यानी ज़ाहिर है कि ख़ालू को तुम प्यार करती हो।'
'अरे, बुद्धराम, इसे 'प्यार' नहीं कहते। इसका नाम है, अपने को बचाना। वह साला मर जायेगा और मुसीबत मुझे झेलनी पड़ेगी क्यों मरा? क्या कहानी है? उसे क्या दुख था? वह मरता, अपने दुख से और इलज़ाम लगता मुझ पर!'
मंसूर को खत भेज कर, मैं जवाब का इन्तज़ार करती रही। ख़त नहीं आया। सात दिन गुज़रे, दस दिन गुज़र गये, ख़त नहीं आया। असल में शीला, मेरा ही नाम है; मैं उसी गाने के जलसे वाली लड़की हूँ; किताब की दुकान के सामने खड़ी, मैं वही लड़की हूँ-यह वात, मंसूर नहीं जानता है।
इस बार मैंने अपनी फोटो समेत, दूसरा ख़त लिखा।
मैंने लिखा-
'एक दिन मैं 'पोथीवितान' के सामने खड़ी थी। आपने मेरी तरफ़ देखा था। मेरे अन्दर तूफ़ान जाग उठा था। कोई मुझे उस नज़र से निहारे और मैं तबाह न हो जाऊँ-ऐसा भला होता है? ऐसी खूबसूरती का तो पूजा करने का मन होता है। मैं नहीं जानती कि मुझे सुन्दर की पूजा करने का सौभाग्य मिलेगा या नहीं। मैं नहीं जानती कि सुन्दर को छू कर, अपना जीवन धन्य करने का सौभाग्य, मुझे इस ज़िन्दगी में नसीब होगा या नहीं। मंसूर, खत दो। झूठमूठ ही सही, तुम मुझे प्यार करते हो।
इति,
शीला!'
इस बार भी कोई जवाब नहीं आया।
मैंने ख़ाला से पूछा, 'तुम्हारा ठिकाना तो सही है न? एक बार देखो!'
ठिकाना बिल्कुल सही था, लेकिन ख़त नहीं आया। मंसूर किसी और को तो प्यार नहीं करता? मेरे ख़तों का उस पर बिल्कुल असर नहीं हुआ। ऐसा भी हो सकता है कि मेरे ख़त से उसके चेहरे पर कौतुकी हँसी खेल गयी हो और उसने मेरा ख़त कूड़े की पेटी में डाल दिया हो।
ख़ाला ने पूछा, 'क्या, री, तेरी चिट्ठी तो नहीं आयी। तूने कैसे हृदयहीन, पत्थरदिल को लिखा था?'
मैंने मन-ही-मन कहा-वाक़ई, पत्थरदिल ही निकला! पत्थरदिल न होता, तो मुझे यह दुर्भोग क्यों झेलना पड़ता? नहीं, ख़त तो मैं लिखती ही रहूँगी। जिसे प्यार करती हूँ, उसे क्यों न बताऊँ कि मैं प्यार करती हूँ। ज़रूर बताऊँगी। वैसे लड़कियों को जुबान नहीं खोलना चाहिए। उन लोगों को कुछ नहीं बताना चाहिए। अपने प्यार के बारे में खुद आगे बढ़ कर क़बूल नहीं करना चाहिए। लेकिन बताने या कहने की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ मर्दो की है, यह मानने को मैं राजी नहीं हूँ। यह क़बूल करने को मैं हरग़िज राज़ी नहीं हूँ कि मेरे भाव, मेरे आवेग, मेरे अन्दर ही उमड़-घुमड़ कर दम तोड़ दें और मैं राह में पलकें बिछाए, इन्तज़ार करती रहूँ कि मंसूर कब आयेगा, कब कहेगा-मैं भी प्यार करता हूँ। देरी मुझसे बर्दाश्त नहीं होती। मेरा मन नहीं मानता।
काफ़ी दिनों बाद मैंने मंसूर को फिर एक ख़त लिखा। इस बार, 'आप' या 'प्रिय नौजवान' सम्बोधन भी नहीं! ख़त यूँ था :-
'मंसूर,
तुम जानबूझ कर मुझे ख़त नहीं लिख रहे हो, मैं खूब समझ रही हूँ। मैं तुम्हारी तरह सूरत-शक्ल से सुन्दर नहीं हूँ। मेरे बदन का रंग भी काला है! तुम्हारे जितनी दौलत भी नहीं है मेरे पास। मेरे अब्बू नौकरी करते हैं। उनकी अपनी कोई इण्डस्ट्री नहीं है। हालाँकि नौकरी में वे ऊँचे पद पर हैं, उनका काफ़ी मान-सम्मान भी है, लेकिन चूंकि अटूट दौलत नहीं है, इसलिए तुम्हारी तरह हम गाड़ी नहीं हँकाते फिरते। हम रिक्शों पर आते-जाते हैं। तुम मेरे भाई को ज़रूर पहचानते होगे। मेरे भाई का नाम-फरहाद है। मृदुल'दा के दोस्त हैं। तुम भी तो मृदुल'दा के दोस्त हो। मृदुल चक्रवर्ती! तुम्हें मैंने पहली बार उन्हीं के घर में देखा था। भाई को मेरे ख़त के बारे में कभी मत बताना। भाई को पता चलेगा, तो वह चीख-चीख कर, समूचा घर, अपने सिर पर उठा लेगा। मैं किसी से प्यार कर सकती हूँ या कोई मुझे पसन्द आ सकता है, इस घर में कोई यह कल्पना भी नहीं कर सकता। मेरे भाई एक दिन दारू पी कर घर लौटे थे। घरवालों ने इस बात को ले कर काफ़ी रोना-धोना मचाया। भाई आजकल कभी-कभी घर नहीं लौटते। मैं ठीक समझ चुकी हूँ, वह कहीं दारू पीता है, इसीलिए वह घर नहीं लौटता। भाई की ज़िन्दगी बर्बाद हो गयी। वह किसकी वजह से इस क़दर उच्छृखल हो उठा है, मैं जानती हूँ। मेरा विश्वास है कि प्रेम, इन्सान को स्थिर करता है, संयत बनाता है। लेकिन, इसने भाई को किस क़दर असंयत बना डाला है, यह देख कर मुझे बेहद तरस आता है। भाई की प्रेमिका, रूमू भी, भाई को बेहद प्यार करती थी। मुझे समझ नहीं आता कि अब उन्हें क्या हो गया है! किसी रिश्ते में दरार पड़ जाती है, तो मुझे बेहद तकलीफ़ होती है।
मैं इस घर की बड़ी बेटी हूँ। वैसे मुझे बड़ा कोई नहीं मानता! कहीं जाना चाहूँ, फ़र्ज करो, तुम्हारे घर ही जाना चाहूँ, तो किसी बन्दे को मेरे साथ कर दिया जायेगा। मुझे रास्तों की पहचान नहीं है, ऐसा नहीं है। बस, फिजूल ही...। मैंने सोचा है कि अब से मैं अकेले ही निकला करूँगी। मैंने अब्बू को बता दिया है कि मुझे नोट्स लेने के लिए, अपनी सहेली के घर जाना है और मैं अकेली ही चली जाऊँगी। पिछले दिन मैं गयी भी थी। ख़ाला के घर भी अकेली ही गयी थी। वहाँ जा कर देखा, तुम्हारा कोई ख़त नहीं आया। तुम ख़त क्यों नहीं लिखते? मैं तुम्हें पसन्द नहीं हूँ। मैं क्या इतनी बदसूरत हूँ? मंसूर, विश्वास करो, मैं तुम्हें सच ही प्यार करती हूँ? दिन-रात, मेरे ख़यालों में, तुम्हारे अलावा और कोई नहीं होता। तुम्हें मैं ज़िन्दगी भर के लिए, दिल की गहराइयों से, तुम्हें अपने क़रीब पाना चाहती हूँ। तुम ज़रूर यही सोचे होगे कि इस लड़की की हिम्मत तो देखो, बिना किसी योग्यता के ही, तुम्हें पाना चाहती है। चलो, मान लेती हूँ कि मुझमें कोई योग्यता नहीं है, लेकिन मेरे पास तुम्हें प्यार करने वाला एक अदद दिल तो है। सुनो, इस दिल को तुम ठोकर मत मारो। जितने दिनों तुम्हारा जवाब नहीं आता, इसी तरह मैं तुम्हें ख़त लिखती ही रहूँगी। तुम अगर मुझसे नफ़रत करना चाहो, करो। ज़िन्दगी में पहली बार, मैंने तुम्हें प्यार किया है, तुम्हें ही प्यार करती रहूँगी। इसे तुम किसी बुद्धू लड़की का संस्कार कहो, मुझे कोई एतराज़ नहीं होगा। लेकिन, तुम्हें पाने के लिए, मैं अपनी ज़िन्दगी की बाज़ी लगा दूँगी। सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा प्यार पाने के लिए, और कुछ पाने के लिए नहीं। न तुम्हारी धन-दौलत, न परिपार्श्व, न तुम्हारी देह, न खूबसूरती! कुच्छ भी नहीं!
तुम एक बार तो आवाज़ दो! ओ निर्वाक् जड़-पत्थर, एक बार तो जागो।
- शीला
मैंने हफ्ते में दो-दो ख़त लिखना शुरू कर दिया।
मैं यह देख कर ही दम लूंगी कि मुझे ख़त लिखे बिना, मंसूर कितने दिनों रह पाता है! कितने दिनों वह अपने को पत्थर बनाये रख सकता है, मैं देखूगी।
घर के क़रीब ही पोस्ट-ऑफ़िस! मैं ख़त लिख कर, घर के छोकरे नौकर के हाथ पर रख देती हूँ, वह लेटर-बॉक्स में डाल आता है। कभी-कभार ख़ाला के हाथ में भी थमा देती हूँ। कभी मैं खुद ही डाल आती हूँ। लेकिन जवाब नहीं आया।
दो महीने गुज़र गये। तीन महीने भी गुज़र गये। मैं रंग में भंग नहीं डालती।
तुलसी से भेंट होते ही, मैंने दरयाफ़्त किया, 'तेरे यहाँ गाने की महफ़िल अब नहीं लगेगी?'
'क्यों, मंसूर भाई को देखने का मन हो रहा है?' उसने पलट कर पूछा।
मंसूर का नाम सुनते ही, मेरी छाती कैसी तो धक्क् रह जाती है। मंसूर! वह क्या सचमुच मन का सूर है? मेरे मन में तो उसी का सुर बजता रहता है। मैं उसे समझा नहीं पाती। मैं ख़त में उससे अपनी बात करती हूँ और ख़त की भाषा, वह नहीं समझता, वर्ना एक चिरकुट ही सही, वह मुझे लिखता तो सही!
मैं ऐसी बदनसीब लड़की हूँ, इतनी अभागी हूँ कि मेरी तरफ़ कोई भी निगाह नहीं देखता। यह जो प्यार-प्यार की रट लगाती हुई, मैं कातर हुई जा रही हूँ, मेरे प्यार का मानस, मेरी तरफ़ पलट कर भी नहीं देखता।
एक दिन संन्यासी मामा अचानक मेरे घर हाज़िर हुए। मैं अपने पढ़ने की मेज़ पर सिर टिकाये, सच ही, रो रही थी। अपने को बेहद अस्पृश्य, बेहद बिरादरी-बाहर होने का एहसास हो रहा था। यह जो अब्बू, माँ, भाई-बहनों ने मुझे चारों तरफ से घेर रखा है, उनमें से कोई भी मेरा अपना नहीं है। ये लोग ही किसी दिन मुझे घर-बाँधकर, किसी अपरिचित-अचीन्हे मर्द से मुझे ब्याह देंगे, जिसे मैंने अपनी तरुणाई के शुरुआती दिनों में इतनी शिद्दत से चाहा, उसे मैं नहीं पा सकी। प्रत्याखयान...ख़ारिज कर देने के अलावा, उसने मेरे लिए कोई प्राप्य नहीं रखा। यही सब सोचते-सोचते, ढेर सारा दर्द मेरी आँखों में उमड़कर उतर आया। लाचारी में, मैं मेज़ पर सिर टिकाये बैठी थी।
संन्यासी मामा ने मेरे सिर पर हाथ रख कर कहा, 'रो रही है? चल, रो ले! खूब ज़्यादा आँसू न बहें, तो मन का कूड़ा-कर्कट साफ़ नहीं होता।'
मैंने सिर नहीं उठाया।
मामा की यह बात सुन कर, मुझे और ज़्यादा रुलाई छूटने लगी। रोने की आवाज़ तक मैं रोक नहीं पायी।
मामा ने चीख-चीख कर समूचे घर में हंगामा मचा दिया।
उन्होंने अपनी दीदी को बुला कर पूछा, 'बच्ची इतनी रो क्यों रही है, दीदी? तुम तो दिन भर बावर्ची खाने में रहती हो और यह लक्ष्मी बेटी दिन भर मन के दुख में घुटती हुई रोती रहती है, कुछ ख़बर है तुम्हें?'
माँ आँचल में अपने भीगे हुए हाथ पोंछते-पोंछते बोल उठीं, 'मेडिकल में चांस नहीं मिला, शायद इसीलिए रो रही होगी। यूनिवर्सिटी में चांस मिला है, वह भी फिजिक्स या पॉल-साइंस में, पता नहीं! यह सब पढ़ कर क्या होगा, बताओ?'
मामा ने मेरी पीठ थपथपाते हुए कहा, 'रो मत, बिट्टी! हर विषय, अच्छा विषय होता है। बस, मन लगा कर पढ़ना ज़रूरी है...।'
* * * * *
क्लास शुरू होने में अभी काफ़ी दिन बाकी थे। यूनिवर्सिटी में यूँ अलस भाव से घूमती-फिरती हूँ। परिचितों के साथ झुण्ड बाँधकर इधर-उधर टहलती रहती हूँ। अभी तक यहाँ का माहौल मेरी समझ में नहीं आया था। झुण्ड भर छोकरे, इर्द-गिर्द खड़े हो कर, फिकरे उछालते रहते हैं। मुझे यह सब बिल्कुल नापसन्द है। मैं दाखिले, फीस, रुटीन वगैरह के कामकाज निपटा कर यथाशीघ्र घर लौट आती हूँ।
ख़ाला ने हिदायत दी, 'घूमा-फिरा कर! लाइब्रेरी के सामने मैदान में, लड़के-लड़की मिलकर अड्डा मारा कर! दल बाँध कर खाया-पीया कर। टी. ए. सी. की तरफ़ चली जाया कर। खूब यार-दोस्त बना ले। देखना, अच्छा लगेगा। अब तू छुटकी-सी नहीं रही। अब अक्लमंद हो चुकी है। दीदी की डाँट-डपट सुनकर, उदास मत हुआ कर। दीदी ज़रा कम पढ़ी-लिखी है। वह तो चाहेगी, तू ज़रा और सयानी हो जा, तो तेरा ब्याह कर दे। ख़बरदार, कभी राज़ी मत होना। मुझे देख, मैं भी बाकी लड़कियों की तरह गृहस्थी की घानी में पिसती रहती। लेकिन, ज़फ़र ने ही मुझे सीख दी-शरीफ़ा, तुम अपने पैरों पर खड़ी हो। किसी के आसरे-भरोसे रहने से बदतर शर्मिन्दगी और कुछ नहीं होती, शरीफ़ा!' यह कहते-कहते शरीफ़ा ख़ाला की आँखों में आँसू आ गये।
मुझे एहसास हुआ कि उस इन्सान के प्रति ख़ाला के मन में कितनी अपार श्रद्धा है।
छह महीने गुज़र गये।
मंसूर का कोई ख़त नहीं आया। उसे मुझे भूल ही जाना चाहिए। लेकिन भूलूँ कैसे?
उससे मेरी फिर टक्कर हो गयी। मैं महिला समिति द्वारा आयोजित नाटक देखने गयी थी।
ख़ाला दो टिकट ख़रीद कर घर आयीं और उन्होंने माँ के सामने ही मुझसे कहा, 'घर में बैठी-बैठी, तु कएँ की मेंढकी बनती जा रही है।' उन्होंने अपनी दीदी से मुखातिब हो कर कहा, 'सुनो, दीदी, उसे घर में बाँध कर मत रखो। ज़िन्दगी के बारे में, अन्त तक, उसे कोई जानकारी ही नहीं होगी। घर में बैठ कर, सिर्फ़ पोथी
पढ़-पढ़ कर ही ज्ञान नहीं बढ़ता।'
माँ ने जवाब दिया, 'असल में उसमें इतनी बुद्धि-शुद्धि नहीं हुई है कि अकेले-अकेले चले फिरे।'
‘उसे छोड़ दो। बुद्धि-शुद्धि अपने आप आ आयेगी।'
ख़ाला बहुत भली महिला हैं! आज़ाद महिला! घर-गृहस्थर सँभालती हैं, बच्चे पाल रही हैं, जब मन होता है, घूतीम-फिरती हैं, इश्क़ भी करती हैं, खुद कमाती हैं, किसी के सिर पर बैठ कर नहीं खातीं। ख़ाला को देख-देख कर मुझे ताज्जुब होता है। इस समाज में रहते हुए भी, ख़ाला कैसे तो ऐसी आज़ाद ज़िन्दगी बसर कर पाती हैं।
नाटक का नाम-'चक्का' ! सलीम-अल-दीन का नाटक! मंच की तरफ़ मेरी नज़र ही नहीं गयी। मंसूर मेरे ठीक सामने की क़तार में बैठा था।
उसने मेरी तरफ़ दो बार देखा भी! उसने जब भी नज़रें उठा कर देखा, मुझे अपनी तरफ़ देखते हुए पाया। मेरी निगाह उसी पर गड़ी थी। उसने क्या मुझे पहचाना नहीं? लेकिन उसे इतने-इतने ख़त मिल रहे हैं, हफ्ते में दो-दो ख़त, मुझे पहचाना क्यों नहीं होगा? मैंने तो उसे अपनी तस्वीर भी भेजी थी। किताब के सामने मुझे देख कर, वह हँसा भी था और आज ऐसा बर्ताव कर रहा है, मानो मुझे पहचाना ही नहीं। मेरा दिल टूट गया। उसके बदन पर पीले रंग की शर्ट, काली पैंट! कैसा राजकुमार-सा लग रहा था! पीछे से उसके घने काले बाल और उसके गोरे जबड़ों का थोड़ा-सा हिस्सा नज़र आ रहा था। उसे चूम लेने का मन हो आया।
ख़ाला मुग्ध हो कर नाटक देखती रहीं। मैं उनसे नज़रें बचा कर, बार-बार उसे ही देख रही थी! मैं अपने राजकुमार को देख रही थी। मैंने नाटक ज़रा-सा भी नहीं देखा। पूरे समय में बस, उसे ही देखती रही। नाटक ख़त्म होने के बाद, काफ़ी देर तक मैं गेट के क़रीब खड़ी रही! ख़ाला घर चलने की हड़बड़ी मचा रही थीं। लेकिन, मैं आसानी से हिलने वाली नहीं थी। मैं बस, उसे ही निहारे जा रही थी!
वह सौम्य नौजवान सीढ़ी पर खड़ा-खड़ा, दो अन्य नौजवानों से बातें कर रहा था। गेट पर खड़ी मैं, उसे निहार रही हूँ, उसने पलट कर एक बार भी नहीं देखा। यह कैसा अजीब मर्द है! एक अदद उन्नीस वर्षीया लड़की दिनोंदिन उसके लिए पागल हुई जा रही है, वह उसकी ख़बर भी नहीं रखता।
ख़ाला ने स्कूटर बुला लिया। एक साथ ही, मैं उसको देख पाने की खुशी और उसकी उपेक्षा का विषाद समेटे बेबी स्कूटर पर सवार हो गयी।
घर की तरफ़ जाते हुए मैंने ख़ाला से पूछा, 'अच्छा, ख़ाला, फ़र्ज़ करो तुम किसी से प्यार करती हो! बे-हद प्यार करती हो। लेकिन, वह व्यक्ति तुम्हें रत्ती भर भी प्यार नहीं करता। वह तुम्हारी तरफ़ पलट कर भी नहीं देखता। तब तुम क्या करोगी?'
'मैं भी पलट कर उसकी तरफ़ नहीं देलूँगी। अपना दिल कड़ा कर लूंगी।'
लेकिन मैं तो अपने को सख्त नहीं कर पा रही हूँ। मेरी कविताओं की कॉपी भर गयी है। सारी कविताओं में विषाद, दर्द, प्यार न पाने की पीड़ा! कभी-कभी मन होता है, ये कविताएँ, पत्र-पत्रिकाओं में छपा हूँ। शायद तब उसकी नज़र पड़े। शायद तब वह समझ पाये कि प्यार कितना गहरा है, जो मैं अपनी कविताओं में भी उसी के बारे में लिखने लगी हूँ। मेरे घर में बांग्ला की दो पत्रिकाएँ आती थीं। उन पत्रिकाओं के ठिकाने पर एक के बाद एक, मैंने अपनी कई कविताएँ भेज दीं। काफी दिनों बाद, उनमें से एक कविता छप भी गयी। कविता का शीर्षक था-नया पलटन!
नया पल्टन के मोड़ पर उससे होगी, मेरी मुलाक़ात!
किसके संग, पता है?
एक सुदर्शन नौजवान के संग!
उसकी तरफ़ देखते हुए-
जैसे टूटती है, नदी की कगार,
पम्पाई की ज्वालामुखी में ध्वंस हो जाते हैं शहर,
जैसे जाड़े के मौसम में,
उतरती है बर्फ की बारिश, साइबेरिया में,
मैं भी झर जाती हूँ, बर्फ़ के चूरे की तरह,
चिन्दी-चिन्दी! झर-झर!
वह नौजवान मेरी तरफ़ मुड़ कर भी नहीं देखता,
नौजवान के पास वक़्त नहीं, देखे-सुने इन्सान का दुख!
फिर भी जाती हूँ नया पलटन, हर दिन!
क्यों जाती हूँ, पता है?
अगर कहीं वह सुदर्शन नौजवान दिख जाये
अगर वह नौजवान मुड़ कर देखे मेरी तरफ़! एक बार!
लेकिन, सच ही, मैं नया पलटन गयी। 'लुक' वीडिओ की मेम्बर बन गयी। ख़ाला ने खुद ही मुझे मेम्बर बनने के लिए पैसे दिये।
उन्होंने कहा, 'अच्छी-अच्छी फ़िल्में देखना, क्लासिक फ़िल्में! धूपधड़क्कावाली फ़िल्में हरगिज़ मत देखना। ऐसे तो फ़रहाद जो ले जाता है, वही तुम लोगों को हज़म करना पड़ता है। लेकिन, अब अपनी रुचि तैयार कर! तुझसे मुझे ढेरों उम्मीदें हैं।'
ख़ाला का बर्ताव देख कर मैं मुग्ध हो गयी।
खाला मुझे छुटपन से ही वेहद प्यार करती हैं। सुना है, वे खुद ही मुझे झूला झुलाती थीं। मुझे बोलना सिखाया! उँगली पकड़-पकड़ कर चलना सिखाया। एकाध बार मेरे मन में आया कि उन्हें मैं अपने प्यार की दास्तान सुना दूं। ख़ाला भी तो किसी से प्यार करती हैं। वे जरूर मुझे डाँटेंगी-डपटेंगी नहीं। बस, मैं सोचती रही, जुबान से कभी कुछ नहीं कहा। मारे संकोच के मेरी आवाज़ अवरुद्ध हो आयी।
एक दिन काफ़ी आँधी-तूफ़ान-बरसात की रात!
मुझे ख़याल आया, इस भरी बरसात में अगर मंसूर और मैं भीग रहे होते, तो कितना मज़ा आता। भीगी देह लिये, हम एक-दूसरे से लिपट कर बैठे होते। ऐसी ही भीगी-भीगी बरसात की एक रात का दृश्य मेरे मन में अपने गहरे निशान छोड़ गया था... सत्यजित राय की फ़िल्म-'पथेर पांचाली'। उस फ़िल्म की दुर्गा, हड्डियाँ गला देने वाली सर्दी में, वह बरसाती बारिश में भीग रही है।...सोचती हूँ, तो आज भी मेरे तन-बदन में कँपकँपी भर जाती है। मेरा बचपन और कैशोर्य, तो निरे सूखे में गुज़र गया। बारिश में भीग सकूँ, इतनी आज़ादी मुझे नहीं थी।
जैसे ही मैं भीगने जाती, माँ एकदम से हुक्म जारी करती थी, 'जल्दी आ! भाग कर आ, वर्ना बुखार चढ़ जायेगा।'
अगर मुझे मंसूर मिल जाये, तो मैं दुनिया-जहान की सैर पर निकल जाऊँ। समुन्दर में उतर जाऊँ! पानी में तैरती रहूँ...तैरती रहूँ! पद्मा, मेघना, यमुना में नौका-विहार करूँ! अगर वह मुझे मिल जाये, तो मैं कैसे ग़ज़ब-ग़ज़ब के काण्ड करूँ। हर बारिश में भीगूंगी। कोई भी बारिश खाली नहीं जाने दूंगी।
यूनिवर्सिटी, रिक्शे में मैं अकेली ही जाती हूँ! और मन-ही-मन उसे खोजती फिरती हूँ। ऐसा हो भी तो सकता है, इतनी सारी चिट्ठियाँ पा कर, वह सोच रहा हो कि मेरे सामने अचानक प्रकट हो कर, वह मुझे चौंका दे। यूनिवर्सिटी के कॉरीडोर में मैं अकेली खड़ी रहती हूँ, मगर कोई नहीं आता।
मैं चिट्ठियाँ पोस्ट करती रही! निरलस!
इस बार मैंने लिखा-
प्रिय मंसूर,
अगले इतवार, दिन के दस बजे, मैं कलाभवन की दूसरी मंज़िल पर, 'अपराजेय बांग्ला' के ठीक पीछे की तरफ़, खड़ी रहूँगी, तुम आ जाना। अच्छा, चलो, ख़त न दो, कम-से-कम मिल तो सकते हो। सिर्फ़ नज़र भर देख लेने देना! अगर चाहो, तो हम दोनों कैंटीन में चाय पीने भी चल सकते हैं। यूँ गले पड़ कर, यह जो मैं तुमसे मिलना चाहती हूँ, तुम इस ग़लतफ़हमी में न पड़ जाना कि मैं बड़ी आसानी से सुलभ हूँ। मुझमें व्यक्तित्व नाम की कोई चीज़ नहीं है। ऐसा बिल्कुल नहीं है।
वैसे, जब जान-पहचान हो जायेगी, तो तुम यह बात समझ जाओगे। प्यार करने में, मैं कोई शर्म महसूस नहीं करती। दुनिया में प्यार से ज़्यादा खूबसूरत और भला क्या है, बताओ?
इति,
शीला
उस दिन मैं पूरे चार घण्टे खड़ी रही। मंसूर नहीं आया। असल में, मंसूर मुझे प्यार नहीं करने वाला! वह ज़रूर किसी और से प्यार करता है। मुझ जैसी अन्कल्चर्ड लड़की को वह ख़ामख्वाह प्यार क्यों करने लगा? ठीक है, अब मैं भी, निर्लज्ज की तरह उसे नहीं लिखूगी। यही सब सोचते-सोचते मैं घर चली आयी। दो-एक लड़के, खुद सिर पड़ कर, मुझसे बात करना चाहते हैं, मैं टाल गयी। कहाँ वह मंसूर, कहाँ ये सीधे-सादे छोकरे! मंसूर की कान्ति, मेरे
समूचे मन को आलोकित किये रहती है।
लेकिन, यह कैसा प्यार है? एकतरफ़ा! उस तरफ़ से न कोई आवाज़, न प्रतिउत्तर! अच्छा, वह बन्दा क्या ढाका शहर में नहीं है? अगर मैं सचमुच ही उसे इतनी असहनीय लगती हूँ, तो एक बार, इतना-सा तो बता सकता है कि मुझे तंग मत करो। मैं और कहीं बँधा हुआ हूँ।
आजकल मैं खड़ी-खड़ी, दूर-दूर तक दिगन्त देखा करती हूँ। दिगन्त देखती रहती हूँ और सोचती रहती हूँ, लो, देखो, मेरा 'टीन-एज' का समय निकला जा रहा है, मैं दो के क्षणस्थाी दायरे में पहुँचती जा रही हूँ। इस लम्बी ज़िन्दगी में मुझे क्या मिला? घर में इतने सारे लोग हैं, लेकिन मुझे बेहद अकेलापन लगता है।
माँ के पास दो पल भी बैठो, तो धर्म-कर्म का प्रसंग छिड़ जाता है।
मैं अकसर संशय ज़ाहिर करती हूँ, 'यह सब आख़िरत, पुलसरात, दोज़ख, बहिश्त...इन सबमें मेरी कोई आस्था नहीं। यह अल्लाह वगैरह क्या है?'
माँ ने चीख कर, मेरी जुबान बन्द कर दी, 'देख, अभी भी वक़्त है, तौबा कर और नमाज़ शुरू कर दे।
आजकल माँ एक ही बात की जुगाली करती रहती हैं-तौबा कर, नमाज़ शुरू कर! मुझसे यह धर्म-कर्म नहीं किया जाता। असल में अलौकिक में मेरा विश्वास नहीं है।
माँ ने मुझे अपने क़रीब बुला कर, मुझे समझाते हुए कहा, 'यह जो तू कहती है, दोज़ख़-बहिश्त कुछ नहीं होता। चल, ठीक है, नहीं है, लेकिन, फ़र्ज़ कर, हश्र के मैदान में अचानक तू देखे, दोज़ख़-बहिश्त मौजूद है, तब तेरी क्या हालत होगी, ज़रा बता?
'हालत क्या होनी है? दोज़ख़ में ही चली जाऊँगी।' मैं बिल्कुल ही निर्विकार बनी रही।
माँ दहशत से गौंगियाती रहीं।
उन्होंने फिर कहा, 'जाने तेरी क्या हालत होनी है! अल्लाह तुझे माफ़ करें।
मैं हँस पड़ी, 'दोज़ख़ में तुम्हारे प्रिय दिलीप कुमार, मधुबाला, सुचित्रा, उत्तम-सभी लोग मौजूद होंगे। उन लोगों के साथ मेरा वक़्त बुरा नहीं गुज़रेगा। बल्कि तुम ही बहिर में बैठी-बैठी पछताओगी, काश, एक बार दोज़ख़ जा पाऊँ।'
मेरे अमंगल की आशंका से माँ अचानक बेहद गम्भीर हो आयीं।
उन्होंने घर भर में प्रचार किया, 'असल में औरत जात को ज़्यादा पढ़ाना-लिखाना नहीं चाहिए। ज़्यादा पढ़-लिख कर औरत के पँख निकल आते हैं। ऐसी औरतें झूठी खुशफ़हमी में जीने लगती हैं। घर-गृहस्थी में उनका मन नहीं लगता। लड़कियों का जल्दी-से-जल्दी ब्याह कर देना चाहिए।'
उनकी बातें सुन कर, अब्बू और भाई गम्भीर बने रहे।
मैंने बीचोंबीच खड़े हो कर, चुनौती दी, 'ठीक है! कर दो मेरी शादी! शादी कर दोगी, तो गृहस्थी में खूब मन लगा कर, बर्तन घिसा करूँगी और तुम लोग भी मुझे पालने-पोसने के ख़र्च से बच जाओगे।'
मंसूर का कोई ख़त न पाने की वजह से ऐसी स्थिति आन पड़ी है कि मैं जो अवसाद और घुटन झेल रही हूँ, उसे छिपाए रखने का भी कोई उपाय नहीं रह गया है। आजकल परलोक को ले कर, माँ से भी कोई बहस नहीं होती। कभी-कभी मेरे मन में यह ख़याल भी जागने लगा है कि आत्महत्या ही कर डालूँ। कितने ही लोग तो आत्महत्या करते हैं। अगर मैं मर गयी, तो दुनिया का क्या नुकसान होगा? दुनिया को कोई यादगार दे जाने की योग्यता मुझमें है ही नहीं।
वीडियों कैसेट लेने के बहाने, मैं अकसर 'लुक' वीडियो, पहुँच जाती थी। लेकिन, असल में, मैं बग़लवाली गली में जाने के लिए ही जाती थी। अगर कहीं, एक बार उससे भेंट हो जाये। नया पलटन में वह रहता कहाँ है? तुलसी ने बताया था कि वह संगीत स्कूल के पास रहता है। मैंने अन्दाज़ा लगाने की कोशिश की यह घर उसका है या वह घर? वह घर है या यह घर?
गली के नुक्कड़ पर ‘पड़ोसी' नामक एक कन्फेक्शनरी स्थित है। वहाँ जाकर मैंने बेमतलब ही कुछेक चीजें खरीद डालीं। कलम, च्विंगम, बालों के बैण्ड वगैरह ख़रीदने में, मैंने जानबूझ कर, थोड़ा वक़्त बर्बाद किया। घर से निकलते हुए या घर के अन्दर जाते हुए, अगर कहीं मंसूर की नज़र मुझ पर पड़ जाये। ऐसे में, वह मुझे लाँघ कर, हरगिज़ नहीं जा सकेगा। और चाहे जो भी हो, आखिर है तो इन्सान ही।
मैंने सोचा, अगर वह दिख गया, तो मैं सीधे-सीधे उसे आवाज़ दूंगी-मंसूर! मंसूर! सुनो, मेरा नाम शीला है।'
लेकिन दुकान के अन्दर बेवजह ही आख़िर कितनी देर रहा जा सकता है? कितनी देर की जा सकती है? इसी बीच, दुकानदारों ने मुझे कौतुहली निगाहों से घूरना शुरू कर दिया। पैदल-पैदल मैं मोड़ तक आ पहुंची। वहाँ से मैंने एक रिक्शा ले लिया। मंसूर से भेंट नहीं हुई।
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मेरी एक सहेली थी। नाम-नादिरा! दो महीने पहले, उसकी शादी हो गयी। लाइब्रेरी के मैदान में, अचानक उससे भेंट हो गयी।
मुझे देख कर मारे उछाह से वह चीज़ उठी, 'क्या, री, कुएँ की मेंढकी, तू यहाँ?'
मेरे होंटों पर उदास हँसी तैर गयी।
हम दोनों लाइब्रेरी-मैदान की हरी-हरी घास पर जा बैठीं। कॉलेज की दो और क्लासमेट भी आ जुटीं। हमारी जमघट में दाम्पत्य जीवन के किसे शुरू हो गये।
नादिरा की गर्दन पर जमे हुए खून के लाल-लाल निशान देख कर, मैंने निरीह लहज़े में सवाल किया, 'यह तेरी गर्दन में क्या हुआ है?'
नादिरा समेत सभी लड़कियों ने ज़ोर का ठहाका लगाया।
'यह चुम्बन का दाग़ है।'
सबने मिल कर मुझे समझाया। विवाह के बाद, ऐसे चुम्बन से समूची देह भर उठती है।
उनकी बात सुन कर, मारे लाज के, मेरा चेहरा आसक्त हो उठा। अपनी मूर्खता पर, मुझे अपने पर ही बेतरह गुस्सा आया।
नादिरा की आँखें, चेहरा खुशी से चमक रहा था।
मैं अपलक निगाहों से उसे देखती रही। शादीशुदा ज़िन्दगी शायद बेहद सुखद होती है। मेरे तन-बदन में, जाने कैसी तो झुरझुरी फैल गयी। अकेले में, आँखें मूंदे, मैं कल्पना किया करती थी-किसी ने मेरी तरफ़ अपनी बाँहें फैला दी हैं; किसी की मोहक-मज़बूत बाँहें, मेरी ओर बढ़ आयी हैं! मुझे मालूम है, वे मंसूर की बाँहें हैं...उस वक़्त, मेरे तन-बदन में कैसा तो अद्भुत एहसास जाग उठता है! नादिरा जैसी शादीशुदा लड़कियाँ, उस एहसास के कितने क़रीब...कितनी गहराई में उतर गयी हैं। और मैं? बदनसीब शीला, मेरे लिए तो यह सम्भव ही नहीं हो पाया कि उस गहराई तक पहुँच सकूँ। उसके प्रति क्या मेरे मन में थोड़ी-बहुत ईर्ष्या जाग उठी है? शायद यह सच है! मुझे अपने पर भी काफ़ी तरस आने लगा।
मैंने गौर किया, नादिरा ने हमारी दो विवाहित सहेलियों को अपने यहाँ आने की दावत दी। मुझे भी आमन्त्रित किया। वे दोनों अपने पति के साथ जायेंगी। उनके यहाँ नादिरा भी अपने शौहर के . साथ जायेगी। उन तीनों लड़कियों ने अपना एक अलग अड्डा गढ़ लिया है। ऐसा लगता है कि मेरे या मुझ जैसी अन्यान्य कुँवारी सहेलियों के मुक़ाबले, वे लड़कियाँ अचानक बेहद 'मैच्योर्ड' हो गयी हैं। वे लोग दीन-दुनिया के बारे में, हम सबसे ज़्यादा जानती हैं, समझती भी ज़्यादा हैं। उन लड़कियों में मर्दो की समझ ज़्यादा है; संसार-समाज भी ज़्यादा समझती हैं। नादिरा मेरे स्कूल-कॉलेज की सहेली है, लेकिन अब वही, कितनी अलग-थलग हो गयी है, जैसे मेरा और उसका जीवन कहीं से भी एक जैसा नहीं है।
एक दिन रजिस्ट्री बिल्डिंग से मैंने ख़ाला को फ़ोन किया।
ख़ाला ने बताया, 'नहीं, कोई ख़त-वत नहीं आया।'
कोई ख़त नहीं आया, यह सुन कर मैंने एक लम्बी उसाँस छोड़ी। कोई भी मानव जीवन शायद इतना व्यर्थ...इतना अकारथ नहीं होता। दोपहर भर मैं सोचती रही, नींद की एकाध दवा मिल जाती, तो बेहतर होता। दवा खा कर, मुमकिन है, मुझे नींद आ जाती। यह सब असहनीय पीड़ा-यन्त्रणा, अब अच्छा नहीं लगता।
शाम को तुलसी मेरे यहाँ आयी।
तुलसी गपशप के मूड में थी।
मैंने भी सोचा, पिछली सारी व्यर्थता भूल कर, आज जम कर अड्डेबाज़ी की जाये। तुलसी मेरे बचपन की सहेली है। हम दोनों ने एक ही स्कूल में, पहले दर्जे में दाखिला लिया था। बचपन में गुड़ियों का खेल, छत पर ईंटें बिछा कर, रसोई-रसोई का खेल, अपेन्टो बायस्कोप, इक्का-दुक्का, गोल्लाछूट का खेल-इन सबमें, तुलसी ही मेरी पक्की सहेली थी। जब हम आठवीं क्लास में पहुँचे, खेल-कूद छोड़ना पड़ा।
माँ कहती थीं, 'लड़कियाँ जव सयानी हो जाती हैं, तो मैदानों में नहीं खेलतीं।'
सयानी होने की संज्ञा माँ ने कैसे गढ़ ली, मुझे ठीक-ठीक समझ में नहीं आता। वैसे तुलसी ने एक बार बताया था कि...'वह सब होने के बाद, लड़कियों को सयानी कहते हैं।'
'वह सब होना?'
'नहीं समझी? अरे, वही ऽ ऽ खून-टून बहना...'
लेकिन इस घटना के साथ सयानी होने का मामला मैं ठीक-ठीक मिला नहीं पायी। मेरा ख़याल था, सयानी होने के लिए, और भी कुछ होना पड़ता है।
तुलसी को मैंने आड़ में ले जा कर पूछा, 'नया पलटन में कौन-सा मकान मंसूर का है? वहाँ एक विज्ञापन-फ़र्म है, उसके किस तरफ़?'
तुलसी ने अपनी जुबान काट कर कहा, 'हे राम, मैं तुझे यही तो बताना चाहती थी। साल भर हुए, मंसूर भाई और उनका परिवार, नया पलटन से गुलशन चले गये हैं! अपने मकान में!'
मेरे तन-बदन का रक्त-संचार अचानक एकदम से रुक गया। मैंने साफ़ महसूस किया, छाती के अन्दर धड़ाम से कुछ गिरा हो। मेरा सिर चकराने लगा। आँखों के आगे धुंधलका छा गया। तुलसी का चेहरा, मेरे पढ़ने की मेज़, किताब-कॉपियाँ, तकिया-बिछौना, काठ की अलमारी, कमरे की दीवार-खिड़कियाँ, सिर के ऊपर घूमता हुआ पंखा-सारा कुछ धुंधला हो आया! सारा कुछ हिल उठा। सामने कुर्सी पड़ी थी, मैं धम्म से बैठ गयी। मेरी समूची देह निस्तेज और अवश हो आयी।
मैंने दुबारा पूछा, 'क्या कहा तूने? वे लोग नया पलटन में नहीं रहते?'
'अरे, नहीं! उस दिन भइया ने बताया-मंसूर के घर में पार्टी थी। में उसी पार्टी से आ रहा हूँ। क्या विशाल कोठी है! गुलशन के दस नम्बर रोड पर!'
'गुलशन?'
'हाँ, गुलशन में! उनका अपना मकान!'
'तो नया पलटन में कैसा घर था?'
'नया पल्टन में वे लोग किराये के मकान में रहते थे, क्योंकि उस वक़्त तक, गुलशन में उनका अपना मकान पूरी तरह बन कर तैयार नहीं था। सुना है, अब तो 'वारिधारा' में भी उन लोगों का कोई मकान बन रहा है।'
बहरहाल, कहाँ, कौन-सा मकान बन रहा है, यह जानने में, मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी।
उस रात मेरी जगी-जगी आँखों से लगातार बेभाव आँसू बहते रहे। मेरे लिखे हुए इतने सारे ख़त, एकबारगी कूड़े के ढेर में चले गये, यह जान कर, मेरे सीने के अन्दर लहराता हुआ-हरा-भरा जंगल, एकदम से रेगिस्तान हो आया।
तुलसी ने फुसफुसा कर पूछा, 'शीला, तू ऐसी क्यों हो रही है?'
-शीला, तू ऐसी क्यों हो रही है-यह मैंने तुलसी रानी को किसी हाल भी समझने नहीं दिया।
उस दिन तुलसी काफ़ी देर तक बैठी रही।
माँ ने उससे पूछा भी, 'आज तुम्हें अपने घर में कोई काम नहीं है।ऽ
फिर भी तुलसी बैठी रही।
उसने धीमी आवाज़ में फिर कहा, 'रूमू की ख़बर जानती है? पिछली शाम उसकी मँगनी हो गयी।
उस वक़्त मैं किसी से भी बात करने की मनःस्थिति में नहीं थी। तुलसी से भी नहीं! मेरा मन हुआ, कमरे के खिड़की-दरवाजे
बन्द करके, मैं बिस्तर पर लेटी रहूँ...बस, लेटी ही रहूँ!
मैंने तुलसी से कहा, 'अब, तू जा, मेरी तबीयत ठीक नहीं लग रही है। मैं ज़रा देर सोना चाहती हूँ।'
तुलसी चली गयी।
मेरे सीने के अन्दर प्रचण्ड हाहाकार होता रहा।
सारी रात मेरी आँखों में नींद नहीं उतरी।
मैं निरी बुद्ध लड़की! पिछले छह महीनों से ग़लत पते पर खत लिखती रही और यह उम्मीद लगाये रही कि मेरे ख़त का जवाब आयेगा। मैं तो इसी उधेड़बुन में उलझी रही कि मंसूर इतना निष्ठुर क्यों है। पिछले छह महीनों में, लगभग पचास ख़तों के बदले में, एकाध ख़त ही सही, उसने लिखा क्यों नहीं? मंसूर एक भी ख़त न लिखे, इतना तो पत्थर दिल वह नहीं है, बेकसूर मंसूर को कसूरवार ठहराना मेरी तरफ़ से बिल्कुल भी उचित नहीं हुआ।
मेरे घर में इन दिनों कैसे-कैसे तो काण्ड घट रहे हैं! इसी दौरान अचानक एक रात भाई घर नहीं लौटे। आजकल वे अकसर घर नहीं लौटते। शायद किसी यार-दोस्त के यहाँ रुक जाते हैं। उनके न आने से अब हम लोग भी परेशान नहीं होते।
लेकिन तुलसी के माँ-बाप चिन्तित हो उठे।
उसके माँ-बाप रात को क़रीब साढ़े बारह बजे मेरे घर का दरवाजा खटखटाया।
'फरहाद कहाँ है?' उसने पूछा।
'फरहाद? होगा कहीं!' हम सबने बारी-बारी से जवाब दिया।
'तुलसी सुबह-सवेरे ही, छोटे काका के यहाँ जाने को कहकर घर से निकली, अभी तक घर नहीं लौटी। खोजने गये, तो पता लगा, छोटे काका के घर ही नहीं गयी।'
मेरे अब्बू-माँ तुलसी के लिए परेशान हो उठे, लेकिन फ़रहाद को क्यों खोजा जा रहा है, इसकी वजह उनकी समझ में नहीं आयी।
पूछने पर उन लोगों ने कहा, 'परसों फ़रहाद और तुलसी को एक ही रिक्शे में, श्यामली की ओर जाते हुए देखा गया था।'
मैं मन-ही-मन अवाक् हो उठी। भाई के साथ मेरी इतनी घनिष्ठता है, तुलसी के साथ भी, लेकिन उन दोनों में एक ही रिश्ते में आने-जाने का रिश्ता है, यह तो मुझ पर कभी ज़ाहिर नहीं हुआ। वैसे एक ही रिक्शे में आना जाना, किसी क़िस्म के शक़ की वजह नहीं भी हो सकती है, लेकिन कल ही तो तुलसी से मेरी भेंट हुई थी। तलसी ने तो नहीं बताया कि वह मेरे भाई के साथ श्यामली की तरफ़ गयी थी। खैर, जो भी हो, भाई अगले दिन भी नहीं लौटे, उसके बाद वाले दिन भी नहीं। तुलसी भी नहीं लौटी। घर के सभी लोग यह सोच लेने को लाचार हो गये कि फरहाद और तुलसी अपने-अपने घर से भाग गये।
यह दुनिया मेरी नज़रों में दिनोंदिन नयी होती जा रही है। जिस शख्स का रूमू के साथ पाँच वर्षों से इश्क चल रहा हो, जिसने तुलसी की तरफ़ एक बार नज़रें उठा कर देखने में आग्रह नहीं दिखाया, वह तुलसी को ले उड़ा? असल में यह प्रेम-प्यार, बेहद अजीब होता है। तुलसी के माँ-बाप-भाई खामोश हो रहे। मेरे अब्बू-माँ नाते-रिश्तेदारों को बुला-बुला कर, हर रोज़ मीटिंग करते रहे। मुझे नहीं पता, इस प्रेम की समस्या का उन लोगों ने क्या समाधान निकाला।
घर में बड़े और इकलौते बेटे के लिए कैसी तो घबड़ाहट शुरू हो गयी। अब घर में चूल्हे पर खाना चढ़ाना तक ठहर गया है। ख़ाला, मामा, काका वगैरह होटल के खाना ख़रीद कर, घर में दे जाते हैं। दूर-दूर के नाते-रिश्तेदारों, यार-दोस्तों के यहाँ भी भाई का कोई सुराग नहीं मिला। माँ-अब्बू परेशान! खैर! मुझे यह सारा मामला ख़ास बुरा नहीं लग नहीं रहा है। तुलसी अगर मेरी भाभी बन गयी है, तो अच्छा ही है। मैं उसे 'भाभी' तो नहीं बुलाऊँगी, 'तुलसी' ही कहूँगी। अब्बू और माँ की प्रमुख समस्या...? तुलसी लक्ष्मी लड़की है, हम सभी जानते हैं, सूरत-शक्ल से भी सुन्दर है, मन भी भला-भला है, लेकिन जाति से हिन्दू है! हिन्दू के साथ मुसलमान की शादी कैसे हो सकती है? लेकिन मुझे नहीं लगता कि वह हिन्दू है, इसलिए रूमू या नादिरा या मुझसे कहीं से अलग है।
मेरा अन्दाज़ा है, वे दोनों ढाका शहर से कहीं बाहर चले गये हैं। चट्टग्राम में भाई का एक दोस्त है, शायद उसी के पास गये हैं। लेकिन मैंने चट्टग्राम वाले दोस्त की जानकारी अब्बू को नहीं दी। भाई अकसर मुजाहिद नामक, अपने किसी दोस्त का ज़िक्र किया करते थे।
वे कहा करते थे, 'अगर एक बार मुजाहिद के घर पहुँच जाये, तो चट्टग्राम, बॉक्स बाज़ार-सभी जगह देखा जा सकता है।'
उस तरफ़ उनका कभी जाना नहीं हुआ! मुजाहिद भाई के स्कूल का साथी है। आजकल चट्टग्राम में बस गया है।
यह तो कहना ही पड़ेगा कि भाई में ज़बर्दस्त साहस है। किसी को कानों कान ख़बर नहीं होने दी और भाग लिये? पता नहीं, उनके हाथ में रुपये-पैसे हैं या नहीं। पता नहीं किसी मुसीबत में न पड़ गये हों! पता नहीं, चट्टग्राम तक पहुंच पाये या नहीं।
दिन गुज़रते रहे! मन में थोड़ी-थोड़ी करके आशंकाएँ भी जमा होती रहीं। हर दिन ही मैं कल्पना करती रही-तुलसी को सुर्ख लाल साड़ी पहना कर, भाई डरते-डरते घर में दाखिल हो रहे हैं! अन्दर आते ही, टुप से माँ-अब्बू के पैर छू कर कह रहे हैं- 'हमें माफ़ कर दें।'
लेकिन यह उम्मीद, उम्मीद ही बनी रही। भाई नहीं लौटे।
सुना है, निखिल काका ने जी डी एण्ट्री की है और सावधान किया है कि तुलसी को अगर मुसलमान बनाया गया, तो नतीजा अच्छा नहीं होगा।
बाबा जहाँ थे, वहीं से उन्होंने जवाब दे डाला, 'उस लड़की को मैं अपने घर में घुसने दूंगा, निखिल बाबू ने यह सोच कैसे लिया?'
* * * * *
मंसूर से अचानक मुलाक़ात हो गयी।
मैं नादिरा के साथ, बनानी की किसी दुकान में गयी थी। वह अपने शौहर की सालगिरह पर, उसे कोई उपहार देना चाहती थी।
'सुन, कोई क्लास नहीं है। चल, घूम आयें।' उसने कहा।
'चल!' मैं भी राज़ी हो गयी।
मंसूर पर नज़र पड़ते ही, मैं एकदम से अचकचा गयी। दुकान का दरवाज़ा धकेल कर, मैं अन्दर दाखिल ही हो रही थी कि सामने मंसूर खड़ा था। नीली ट्राउज़र और सफ़ेद बनियान! उफ़! दिल छीन लेने वाला कैसा तो सौन्दर्य! मैं पत्थर की बुत बनी, जहाँ की तहाँ जम गयी। मंसूर की निगाह भी मुझ पर पड़ी और वह मेरी तरफ़ बढ़ आया। मंसूर मेरी तरफ़ बढ़ा आ रहा है, इस एहसास ने मेरे समूचे तन-बदन में पुलक भर दिया।
मंसूर आगे बढ़ आया और मेरी बग़ल में खड़े-खड़े, वह कसीदेदार नक्काशी के 'कांथे' गौर से देखता रहा।
मैंने अस्फुट आवाज़ में कहा, 'आपको मैंने ढेरों ख़त लिखे।'
आवाज़ सुन कर मंसूर की निगाहें, मेरी तरफ़ उठी गयीं।
उसके होंटों की कोरों में हँसी! मुझे बार-बार यही ख़याल आता रहा कि काश, उसे मेरे सारे खत मिले होते! वह खुद ही आगे बढ़ कर मुझसे बातें करता।
वह मुझसे कहता, 'चलो, हम हवा में घुलमिल कर कहीं खो जाएँ।'
बहरहाल, उसकी निगाहें मेरे चेहरे पर गड़ी हुई थीं! उसके होंटों पर प्रश्रय की हँसी!
मैंने पूछा, 'अपना पता बतायेंगे?'
'क्यों?' मंसूर ने पूछा।
'ज़रूरत है।'
'ब-होत ज़रूरत है?' यह पूछते हुए, मंसूर और क़रीब आ गया और लगभग सट कर खड़ा हो गया। उसकी देह से मीठी-मीठी खुशबू निकलती हुई!
दुकान की चीजें उलटते-पलटते हुए, मैंने फुसफुसा कर जवाब दिया, 'हाँ, बे-हद ज़रूरत है।'
अपनी जेब से एक कार्ड निकाल कर मंसूर ने मेरे हाथ में थमा दिया। उसकी छाती भी धक-धक कर रही थी।
नादिरा की आवाज़ पर मेरी मुग्धता टूटी, इतनी-सी देर में उसने गिफ्ट खरीद ली थी।
बिल चुका कर, उसने मुझे आवाज़ दी, मंसूर वहाँ से हट गया।
'कौन है वह?' नादिरा ने पूछा।
'तू ही अन्दाज़ा लगा, वह कौन है!'
नादिरा ने मेरी हथेली कस कर थाम ली और हँसते हुए पूछा, 'तू कितनी चुप्पी लड़की है, री! हम लोगों को तो तूने कुछ नहीं बताया! नाम क्या है, री?'
'मंसूर!'
हम दोनों ने एक स्कूटर ले लिया।
रास्ते में नादिरा बार-बार कहती रही, 'तेरा प्रेमी बेहद हैंडसम है, री! खूबसूरत लवर है।'
'लवर' शब्द सुन कर, मुझे बेहद अच्छा लगा। साथ ही मन कहीं उदास हो गया। मंसूर क्या वाक़ई मेरा ‘लवर' है? मंसूर के प्रति मैं तो अपना सारा प्यार उँडेले दे रही हूँ। लेकिन उसे इस प्यार की ख़बर तो दी ही नहीं गयी। अगर उसे एक बार भी मेरे मन की ख़बर होती, तो क्या वह यह कहे बिना रह पाता-शीला, मैं तुम्हारे लिये सात समुन्दर, तेरह नदी पार कर सकता हूँ। मंसूर को इसकी जानकारी नहीं थी, तभी तो, वह इस क़दर ख़ामोश था। मुझे ही उससे बात करनी पड़ी। मुझे ही उसके घर का पता माँगना पड़ा। कार्ड पर लिखा हुआ था-मंसूर अहमद चौधरी, घर का नम्बर, सड़क-नम्बर, गुलशन, ढाका-सभी कुछ लिखा हुआ था। उसके नीचे दो फ़ोन नम्बर भी अंकित थे। फ़ोन नम्बर देख कर, मुझे ख़याल आया कि अब मैं जब चाहूँ, उससे फ़ोन पर सम्पर्क कर सकती हूँ। मंसूर अब मेरे बेहद क़रीब है। कौन कहता है कि रूपवान इन्सान, अहंकारी होते हैं? मैंने तो मंसूर में कोई अहंकार नहीं देखा। जब उसने हाथ बढ़ा कर, अपना कार्ड, मेरे हाथों में थमाया, मैंने दोनों के हाथों का रंग मिला कर देखा, उसकी हथेली, मेरी हथेली से गोरी है। उसकी त्वचा, मेरी त्वचा से शायद चिकनी और कोमल है।
ख़ाला के घर से उसे फ़ोन करना होगा। हमारे घर में फ़ोन नहीं है। ख़ाला ज़रूर मुझे फ़ोन करने की अनुमति दे देंगी। इसके अलावा, अगर वह पूछेगी, तो मैं बता दूंगी कि मंसूर कौन है और क्यों मैं उसे प्यार किये बिना नहीं रह सकती। दुकान से निकल कर, बाहर आते हुए, मैंने मंसूर की तरफ़ दुबारा पलट कर देखा। मंसूर ने हँसते हुए हाथ हिलाया यानी फिर मिलेंगे। लेकिन मिलेंगे कहाँ? नादिरा के प्रति मुझे एक किस्म का गुस्सा भी आया। उस वक़्त अगर वह मुझे आवाज़ न देती, तो वहाँ से वह नहीं हटता। अगर वह नहीं हटता, तो बातचीत चलती रहती। नादिरा ने और कुछ देर क्यों नहीं की?
दोपहर के वक़्त मैं ख़ाला के घर पहुँच गयी। ख़ाला घर पर नहीं थीं। मैंने कार्ड देख कर नम्बर मिलाया। मेरी छाती धड़क रही थी।
उस छोर से किसी मर्द ने सवाल किया, 'किससे बात करनी है?'
'मंसूर से!'
'वह नहीं है।'
यह कह कर उसने खट से फ़ोन रख दिया।
मैं बेतरह आहत हुई। वह कब आयेगा, कब मिलेगा, कुछ भी पता नहीं चल सका।
उस वक़्त खाला के यहाँ सिर्फ नौकरानी मौजूद थी।
मैं उसी को बता कर चली आयी।
'ख़ाला जब वापस आयें, बता देना, शीला आयी थी।'
शाम को मैं बेहद उदास मूड में, बरामदे में बैठी थी।
माँ ने पूछा, 'सुना कि आज तू शरीफ़ा के घर गयी थी?'
'हाँ!'
'क्यों?'
'कोई क्लास नहीं थी। सोचा मिल आऊँ।'
'फ़ोन किसे किया था?'
'किसने कहा?'
'सुन, मुझसे कुछ मत छिपाना। आजकल तेरे रंग-ढंग मुझे ठीक नहीं लग रहे। दिन-दिन भर तू किस सोच में डूबी रहती है, बता तो?'
माँ का सवाल सुन कर मैं अन्दर-ही-अन्दर चौंक उठी। दिन भर मैं कुछ-कुछ सोचती रहती हूँ, यह तो सच है। मैं किसी ऐसे मर्द के बारे में सोचती रहती हूँ, जो मेरा कोई रिश्तेदार नहीं है। ख़ाला के घर, मैं फ़ोन करने गयी थी, यह ख़बर उन्हें किसने दी? मामूली-सी बात! एकाध फ़ोन करना! यह भी मेरी तक़दीर में नहीं है? मरने-मारने के उतारू अभिभावकों को इसकी भी ख़बर हो जायेगी? मेरा मन बेतरह खट्टा हो आया। ऐसा लगा, ख़ाला के घर जा कर मेरा फ़ोन करना, माँ के मन में शक़ जगा गया है। शक तो एक बात का हो सकता है, मैं किसी से प्रेम करने लगी हूँ। असल में भाई का मसला जब तक हल नहीं होता, उतने दिन मुझे भी नज़रबन्द रखा जायेगा। कहावत है, दूध का जला, छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है।
अगले दिन ख़ाला आ पहुँची।
माँ ने मुझे बुला कर उनके सामने ही जवाब तलब किया, 'शरीफ़ा घर पर नहीं होगी, यह जानते हुए भी तू उसके घर गयी। क्यों? किसे फ़ोन किया था?'
झूठ मुझसे बोला नहीं जाता। एक बार ख़याल आया कि कह दूँ-अपनी किसी सहेली को। लेकिन यह बात मेरी ज़बान से नहीं निकली। मैं सिर झुकाए खड़ी रही।
ख़ाला ने ही कहा, 'तुम जाओ तो, दीदी, मैं बात करती हूँ उससे।'
मुझे पास बुलाकर ख़ाला ने कहा, 'सुन, शीला, यह ख़बर तेरी माँ को, तेरे खालू ने दी है। उस आदमी को तो खा-पी कर कोई काम नहीं होता, सिर्फ़ फ़िजूल की गड़बड़ी मचाता रहता है। ऐसा कर, अगर जरूरत पड़े, तो मेरे स्कूल में चली आया कर। इन दिनों दीदी को ज़रा शान्ति से रहने दे। फ़रहाद की वजह से आजकल उनकी मानसिक हालत कुछ परेशान है।'
मुझे बेतरह गुस्सा आया। इतनी पराधीनता अब मुझे बिल्कुल नहीं सुहाती। नादिरा कितने मज़े-मज़े से अपनी मन-मर्जी की करती है। अभी उसी दिन क्लास ख़त्म होने के बाद, रूबी, शमीमा, नुसरत, पॉपी, शिप्रा, नूतन कौर दल बाँधकर, चायनीज़ रेस्तरां में खाना खाने चल दी।
तहमीना ने मुझसे भी पूछा, 'तुम चलोगी?'
मैंने इनकार में सिर हिला दिया, 'ना-'
बात खाने-पीने की नहीं है। कहीं भी दल बाँध कर जाने में ही ज़्यादा मज़ा आता है। लेकिन मैं कैसे जाती? मुझे तो रिक्शे का किराया तक बस, गिन-गूंथ कर दिया जाता है। हर रोज़, अब्बू के दफ़्तर जाने से पहले, उनके आगे हाथ पसारना पड़ता है-'रिक्शा-भाड़ा दो।' अब्बू अपना मनीबैग निकाल कर, बीस या पच्चीस रुपये, हाथ पर रख देते हैं। वही मेरे दिन भर का ख़र्च है। हाँ, कभी-कभार माँ से दस-बीस रुपये, चाय-वाय पीने के लिए ले लेती हूँ या कभी-कभार यह-वह ख़रीदने के लिए! कुछेक रुपये जमा भी होते रहते हैं, जो मैं ड्रॉअर में रखती जाती हूँ। लेकिन, काफ़ी मामूली-से रुपये होते हैं! मेरे कपड़े-जूतों के लिए माँ मुझे अपने संग ले जाती है और पसन्द करके, मेरे लिये सामान खरीद देती हैं। कभी-कभार खाला भी तरह-तरह के फैशनदार कपडे बनवा लाती हैं। वैसे भी मैं कपड़े-लत्तों की कभी फ़र्माइश नहीं करती। जो बन जाता है, ठीक है। मेरी दो छोटी-छोटी बहनें हैं-सेतु और सेवा। उनकी ढेरों फ़र्माइशें लगी रहती हैं। माँ उन्हीं दोनों में ज़्यादा व्यस्त रहती हैं। खैर, मुझे इसमें कोई एतराज़ भी नहीं।
हाँ, मैं माँ से एक बात अकसर दोहराती रहती हूँ, 'उसे बालों के इतने-इतने रिबन ख़रीद देने के बजाय रबड़-पेन्सिल ख़रीद दिया करो, इतने-इतने चॉकलेट-आइसक्रीम न दिला कर, किताबें वगैरह दिया करो। पिछली बार मैंने उसके जन्मदिन पर सुकुमार राय का समग्र दिया था, उसने छू कर भी नहीं देखा। सेतु-सेवा को पास बिठा कर, मैंने ही उन दोनों को छह-सात कहानियाँ पढ़-पढ़ कर सुनायीं, उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं है।'
मैंने देखा है, इन किताबों से ज़्यादा उन्हें और-और कामों में दिलचस्पी है। माँ जब नमाज़ पढ़ कर उठ जाती है, वे दोनों जानामाज़ पर बैठ कर दुरूद रटती रहती हैं। मैं अकसर उन पर डाँट-डपट करती रहती हूँ। उनसे कहती हूँ–'गणित के दो सवाल देती हूँ या कोई निबन्ध लिखने को देती हूँ।
तुम दोनों फटाफट सवाल हल कर डालो या निबन्ध लिख कर मुझे दिखाओ।' लिखने-पढ़ने के बजाय, खेल-कूद, नमाज़, आलतू-फ़ालतू विषयों में उनकी दिलचस्पी ज़्यादा है! डाँट-डपट न की जाये, तो उनका सर्वनाश निश्चित है।
सेतु-सेवा मेरी जुड़वाँ बहनें हैं। माँ उन दोनों को एक जैसे कपड़े पहनाती थीं, एक जैसे सजाती थीं और दोनों को अपने अग़ल-बग़ल ले कर घूमने-फिरने निकलती थीं। लोग बाग पहचान नहीं पाते थे कि कौन सेवा है, कौन सेतु और तब माँ खूब मज़ा लेती थीं। वे समझाने लगती थीं-'यह...जिसकी नाक के नीचे तिल है, वह सेतु है और जिसके तिल नहीं है, वह सेवा है।' उन दोनों की उम्र दस वर्ष है! मेरे जन्म के नौ वर्ष बाद, सेतु-सेवा पैदा हुई थीं। उधर, भाई मुझसे पाँच साल बड़े थे। जब मैं जरा-जरा करके बड़ी हो रही थी. मेरे अब्ब ने सोचा कि और एक बेटा हो जाये. तो घर भर उठेगा।
'हाँ, और एक बेटा हो जाये, तो भला होता-' यह बात, बहुतेरे नाते-रिश्तेदार भी कहते थे।
वे लोग समझाने पर भी उतर आते थे, ‘फ़र्ज़ करो, फ़रहाद को अगर कुछ हो जाये, तो ख़ानदान में कोई चिराग़ जलाने वाला नहीं बचेगा। सावधान कभी मार नहीं खाता। ऐसा करो. एक लड़का गोद ले ही लो।'
मेरे जन्म के नौ वर्ष बाद, माँ गर्भवती हुईं और अब्बू तथा सभी नाते-रिश्तेदारों का सपना धूल में मिलाते हुए, माँ ने एक नहीं, दो-दो कन्या-सन्तानों को जन्म दे डाला। उन दोनों का कोई ख़ास आदर-जतन नहीं करता था।
माँ मुझे ही बुला-बुला कर कहतीं, 'ले, यह कथरी ज़रा धूप में डाल आ। फ़ीडर में दूध भर दे। ज़रा इसे गोद में ले ले-'
मैं उनकी सारी छुटपुट फर्माइशें पूरा करने में जुटी रहती थी। ना, मैं कभी खीजती नहीं थी, बल्कि दो-दो गुड़िया जैसी सोनामणि पर मुझे बेहद प्यार आता था।
मैं तो माँ से भी अकसर पूछती रहती थी, 'अब्बू तो इन्हें एक बार भी गोद में नहीं उठाते, क्यों, माँ, ये दोनों लड़की हैं, इसलिए?'
माँ मेरा सवाल टाल जाती थीं।
'अरे, नहीं री, बहुत नान्ही-नान्ही हैं न! जरा बड़ी हो जाये, बाद में उठायेंगे।' माँ जवाब देती थीं।
'अब्बू क्या मुझे भी गोद में नहीं लेते थे?'
'लेते क्यों नहीं थे?' 'मैं भी तो लड़की थी, इसलिए?'
'नहीं री, तू तो पहलौठी की बेटी थी। तुझसे पहले, तेरा भाई, इस दुनिया में आ चुका था।' माँ मुझे आश्वस्त करती हुई कहती थीं, 'तुझे गोद में नहीं लेते थे, यह तू क्या कहती है? तेरा तो वे बेहद लाड़ करते थे। कहते थे-यह तो मेरी माँ है! इसकी सूरत बिल्कुल मेरी तरह है।'
मैंने लम्बी उसाँसें भर कर कहा, 'शुक्र है, मैं बच गयी। इसलिए बच गयी, क्योंकि मुझसे पहले, एक बेटा उन्हें मिल चुका था।'
मैं सब समझती थी। मेरे उच्च शिक्षित अब्बू भी मन-ही-मन एक बेटे की कामना करते थे। बेटे की उम्मीद में, कोख तैयार की, लेकिन अजमेर शाहजलाल को मत्था टेक कर जब लौटे और देखा कि एक नहीं, दो-दो कन्या-सन्तान का आगमन हुआ है, तो दिल भला बर्दाश्त कर पाता? मेरे अब्बू भी नहीं सह पाये। इसलिए उन्होंने निर्लिप्त भाव से, लोकखबावे के लिए सेतु-सेवा के प्रति, सिर्फ़ लोक-दिखावे की फ़र्ज-अदायगी के अलावा, और कुछ नहीं किया।
भाई लौट आये हैं। जो सोचा गया था, वही हुआ। साथ में तुलसी! तुलसी भाई के कमरे में चुपचाप बैठी रही। मुँह में मानो जुबान ही न हो। भाई को जो भी मिला, उससे ही कहते रहे, 'हिन्दू है, तो क्या हुआ? रूमू तो मुसलमान थी, उसने क्या करतूत की? मुसलमान हो, तो इन्सान बेहद भला होता है और हिन्दू हो, तो बुरा, यह बात सच नहीं है।'
इतने सारे तर्क देने के बावजूद भाई माँ को पिघला नहीं पाये। मैं और क्या कहती? इसमें मेरा टाँग अड़ाना सही नहीं होगा, क्योंकि दो-एक बार मैंने भी उन्हें समझाने की कोशिश की।
'अब, मान जाओ। क़बूल कर लो। तुलसी तो भली लड़की है-'
माँ तले हुए बैंगन की तरह छन्न से जल उठी, 'तुम अपना काम करो, जाओ! यह सब समझने की, अभी तुम्हारी उम्र नहीं हुई।'
सेतु-सेवा को पढ़ने बिठा कर, मैं भी एक किताब ले कर बैठ गयी।
मैंने उन दोनों को डपट दिया, 'चुपचाप पढ़ाई कर! ख़बरदार, मुँह से ज़रा भी आवाज़ निकली, तो...'
सेतु-सेवा बार-बार मुझसे पूछती रहीं, 'तुलसी'दी को हम लोग क्या अब भाभी बुलायेंगे?'
'हाँ-' मैंने जवाब दिया।
अब्बू ने आदमी भेज कर ख़ाला, मामा, फूफू लोगों को फ़ौरन चले आने को कहा यानी जहाँ, जो भी नाते-रिश्तेदार हैं, सब चले आयें। शाम तक सभी लोग आ पहुँचे। भाई बिना नहाये-खाये, कमरे का दरवाज़ा बन्द किये बैठे रहे। घर में कहीं, कोई मौजूद है, ऐसा बिल्कुल नहीं लग रहा था। माँ ने तो बिस्तर पकड़ लिया। अब्बू ड्रॉइंगरूम में सोफे पर ख़ामोश बैठे पैर नचा रहे थे। समूचे कमरे में सन्नाटा पसरा हुआ!
मैं शतरंज बिछा कर बैठ गयी।
मैंने सेवा-सेतु से कहा, 'सुन, दोनों मिल कर अक़्ल भिड़ाओ और चाल फेंको। अगर मैं जीत गयी, तो समझ लेना, भाई आज जीत जायेंगे।'
असल में, खेल में मेरा बिल्कुल मन नहीं था। मेरा मन तो उस तरफ़ पड़ा हुआ था। अब्बू अन्त में क्या फ़ैसला लेंगे?
कुछ देर बाद, भाई और तुलसी को ड्रॉइंगरूम में तलब किया गया। मैंने खेल-वेल बन्द कर दिया और उन लोगों की बातें सुनने के लिए, मैं साँस रोक कर बैठ गयी। तुलसी से मिलने का एक बार भी मौक़ा नहीं मिला था। माँ ने सख्ती से मना कर दिया था-'ख़बरदार, उस कमरे में मत जाना। और रात को उन दोनों को झुण्ड भर अभिभावकों के सामने, पारिवारिक दरबार में पेश होना पड़ा है। तुलसी ज़रूर मन-ही-मन बेतरह डरी-डरी होगी।
सबसे पहले बड़े मामा ने सवाल किया, 'फ़रहाद, तुमने माफ़ी माँगी?'
मैंने दरवाज़े से झाँक कर देखा, भाई सिर झुकाये खड़े हैं, पीछे तुलसी!
बड़े मामा ने ही अगला वाक्य जोड़ा, 'तो फिर माँगो माफ़ी, अपने बाप से माफ़ी माँगो।'
भाई जस के तस खड़े ही रहे।
दोलन फूफी ने भाई को पकड़ कर अब्बू के सामने ला खड़ा किया और उन्हें धकेल कर उकहूँ की मुद्रा में झुका दिया।
भाई कमरा भर लोगों के सामने ज़रा भी उकडूं नहीं हुए!
बल्कि तुलसी ही आगे बढ़ी और अब्बू के सामने उकडूं हो कर बैठ गयी और फूट-फूट कर रो पड़ी।
उसने अस्फुट आवाज़ में कहा, 'काका बाबू, माफ़ कर दीजिए।'
मगर काका बाबू कहाँ माफ़ी देने वाले।
आख़िरकार फ़ैसला यह हुआ कि तुलसी को उसके घर छोड़ आया जाये। फ़रहाद अपनी पढ़ाई-लिखाई पूरी करके, अपने पैरों पर खड़ा हो। उसके बाद, तुलसी को इस घर में लाया जायेगा।
भाई उन लोगों की यह बात मानने को राजी नहीं हुए।
उन्होंने कहा, 'इससे तो बेहतर है कि तुलसी को ले कर, मैं घर छोड़ कर चला जाऊँ और कहीं नौकरी-चाकरी करके पेट भरूँ।'
बस, चीख-चिल्लाहट, चीत्कार शुरू हो गयी।
'नौकरी-चाकरी करने की कौन-सी योग्यता है तुममें, ज़रा सुनूँ? अरे, पागल भी अपना भला-बुरा समझता है। तुम्हारे अब्बू ने जो कहा, तुम्हारे भले के लिए ही तो कहा। चलो, ठीक है, शादी जब कर ही ली है, सब कुछ का एक नियम भी तो होता है। तुम्हारे अब्बू यही चाहते हैं कि...तुम दोनों की शादी की उम्र, अभी नहीं हुई और बीवी को ले कर, उसके बाप के होटल में आख़िर कितने दिन खाओगे? आखिर अपने पाँवों पर खड़ा होना है या नहीं? इसलिए, बेहतर यही है कि बीवी बग़ल के ही मकान में रहे। तुम पहले अपने पाँव पर खड़े हो, उसके बाद घर-गृहस्थी शुरू करना। इसके अलावा, ब्याह भी आखिर किस नियम से किया है, हमारे लिये यह जानना भी तो ज़रूरी है। काज़ी के दफ्तर में या कोर्ट में?'
'कोर्ट में!' भाई का जवाब।
'बीवी का नाम क्या रखा गया है?'
'नाम कोई एक रखा गया था, पाँच मिनट के लिए। पाँच मिनट बाद असली नाम पर लौट आया गया। उसका नाम तुलसी था, तुलसी ही है-तुलसी रानी चक्रवर्ती।'
'मतलब? वह मुसलमान नहीं हुई?'
'होना पड़ता है, इसलिए हुई। लेकिन निग़ाह के काग़ज़ पर ही, असल में नहीं हुई।
'क्यों?'
'मुसलमान होने की ज़रूरत क्या है?'
सब लोग एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे।
सबने बारी-बारी से कहा, 'लड़की अगर मुसलमान नहीं हुई, तो यह निक़ाह तो क़बूल नहीं किया जायेगा।'
अब्बू शायद अब तक अपना गुस्सा संयत करने में लगे हुए थे, अब उनके संयम का बाँध टूट गया।
अचानक वे उठे और भाई का हाथ पकड़कर, एक झटके में घसीटते हुए, दरवाज़े की तरफ़ ले गये और कहा, 'गेट आउट! गेट आउट फ्रॉम माइ हाउस! निकलो मेरे घर से।'
उन्होंने तुलसी को भी जाने का इशारा किया।
अब्बू गुस्से से फट पड़े थे। आँखें सुर्ख लाल! दाँत पीसते हुए।
अब्बू की ऐसी मूरत मैंने कम ही देखी है।
तुलसी डर से थर-थर काँप रही थी।
घर के सभी लोग इस कोशिश में लगे हुए थे कि किसी तरह समस्या का समाधान हो जाये। उन्होंने अब्बू को रोकना चाहा। जेठूमणि, फूफी, ख़ाला, मामा-सभी लोग! नहीं, अब्बू ने किसी की बात नहीं मानी।
भाई तुलसी को ले कर, घर से बाहर निकल गये। सुबह आये थे। इस घर में दिन भर उनके लिए आहार नहीं जुटा। दिन भर उपासी देह लिये, पारिवारिक अदालत के कठघरे में खड़े हो कर, उन्होंने पराजय स्वीकार की और निर्वासन में चले गये। मुझे बेहद तकलीफ़ हुई। मुझे लगा, घर के सभी लोग भयंकर निर्मम और पत्थर दिल हैं।
मंसूर को फ़ोन करना, किसी हाल भी सम्भव नहीं हो पा रहा है।
ख़ाला के स्कूल पहुँच जाऊँ, लेकिन ख़ाला कहीं नाराज़ न हो जायें, यह सोचकर मेरा ख़ाला के स्कूल जाना भी नहीं हो पाया। खाला के मन में यह ख़याल आ सकता है कि बड़ा भाई घर छोड़ कर चला गया है। कहाँ है, किस हाल में है, यह भी ख़बर नहीं है। ऐसी हालत में, अगर बेहद ज़रूरी न हो, तो मुझे किसी को भी फ़ोन नहीं करना चाहिए। इन्हीं सब कारणों से सोच रही हूँ, उसे ख़त ही लिख भेजूं।
लेकिन मेरा ख़त क्या मंसूर के हाथों तक पहुँचेगा? असल में, खत-वत के मामले में, मुझे गुस्सा आने लगा है। सच तो यह है कि मैंने उसे ढेर-ढेर लिखा है। अब नये सिरे से वह सब लिखना, मुझे अच्छा नहीं लगता। वैसे भी ख़तों के प्रति मेरा जो प्रचण्ड आवेग था, वह अब नहीं रहा। एक बार उससे छोटी-सी मुलाक़ात और बातचीत के बाद, मेरे मन में उससे मिलने और बातें करने का चाव बेतरह बढ़ गया है।
वैसे फ़ोन तो रूमू के घर से भी किया जा सकता है। लेकिन, भाई ने शादी कर डाली, इस बात को ले कर उस घर के लोग मुझे ताने-व्यंग्य सुनायेंगे, मैं जानती हूँ, इसलिए उस घर में जाना भी मुमकिन नहीं है, वैसे फ़ोन तो बड़े मामा और जेठूमणि के घर में भी मौजूद है। लेकिन उन लोगों के यहाँ मेरा अकेले जाना सम्भव नहीं है। माँ भी आजकल कहीं आती-जाती नहीं। एक उपाय और है। कॉयेन-बॉक्स से भी फ़ोन किया जा सकता है।
असल में, मंसूर को इस घटना के बारे में बताने की मेरे मन में तीखी चाह जाग उठी थी। प्रेम, समाज-संसार को भी तुच्छ कर देता है, मैं उसे बताना चाहती थी। भाई का यूँ घर छोड़ कर चले जाना...मेरे मन में लगातार खुशी भरता रहा है। प्रेम बेहद मूल्यवान मामला है, यह समझना मेरे लिए बाक़ी नहीं रहा। प्यार के प्रति मैं असम्भव रूप से अनुरक्त हो आयी। लेकिन मंसूर को किसी हाल भी यह खबर नहीं दे पायी कि प्यार को मैं दिनोंदिन नये-नये रूप में आविष्कार कर रही हूँ और यह राय बाँटती फिर रही हूँ कि प्रेमहीन जीवन बेहद दुःसह जीवन होता है।
अच्छा, मंसूर क्या सुदूर का कोई नक्षत्र है, जिसे छुआ नहीं जा सकता? शायद यही बात हो। मंसूर मुझे निहार रहा है; मुझे देखना उसे अच्छा लग रहा है; मैं और मंसूर बोलते-बतियाते, हरी-हरी घास पर टहल रहे हैं-मुझे ये तमाम सपने जैसे लगते हैं।
किसी को प्यार करने लायक़, अब मेरी उम्र हो चुकी है, यह बात मेरे घर में शायद कोई मानना नहीं चाहता। अगर मानते, तो किसी लड़के से फ़ोन पर बातें करने में, इतनी बाधा भला क्यों आती? या यह भी हो सकता है कि किसी को प्यार करने की, अब मेरी उम्र हो चुकी है, इसीलिए इतनी बाधाएँ आ रही हैं, ताकि मैं किसी कपात्र को अपना प्यार-दान न कर बैठे।
मंसूर से फ़ोन पर सम्पर्क करने की एक और राह मैंने खोज निकाली। रुकैया हॉल के टेलीफ़ोन-बॉक्स से फ़ोन करना, फ़ोन करने के लिए चार चवन्नी चाहिए। आजकल इस-उस से चवन्नी इकट्ठा करना, मेरा बड़ा काम बन गया है! एक दिन तो पूरे पन्द्रह मिनट की कोशिश के बाद मुझे उसकी लाइन मिली।
'हलो...' कहते ही, दूसरी छोर से किसी औरत की आवाज़ सुनायी दी।
'कौन बोल रहा है?' उस नारी-कण्ठ ने पूछा।
'जी, मेरा नाम शीला है-' मेरा विनीत उत्तर!
'किससे बात करनी है?'
'जी, मंसूर से!'
मंसूर चाहिए-यह सोचते हुए मुझे बेहद भला लगा। मंसूर तो चाहिए ही चाहिए। भला क्यों न चाहूँ? मंसूर को न चाहने को क्या है?
'आप कहाँ से बोल रही हैं?' उधर से पूछा गया।
‘रुकैया हॉल से।'
'मंसूर घर पर नहीं है।'
'कब मिलेगा?'
'रात को।'
'रात को?'
उधर से फ़ोन रख देने की आवाज़ आयी। यह भी तो सम्भव नहीं था कि मैं कोई नम्बर दे देती और वह मुझे बाद में फ़ोन कर लेता। असल में, मेरी तक़दीर ही बुरी है। तक़दीर बुरी न होती, तो रूपा, फ़िरोज़ा, शिप्रा वगैरह, जहाँ मेरी नज़रों के सामने ही जम कर प्रेम कर रही हैं, मैं बस, मुँह बाये उन लोगों को देखती रहती हूँ या घास चबाती रहती हूँ।
उस दिन मैं लाइब्रेरी-प्रांगण में बैठी हुई थी।
एक छोकरा मेरे सामने आ कर खड़ा हो गया।
'आपसे बात करनी है-'
मेरे साथ पारुल नामक एक सहपाठी भी थी।
मैं उठ खड़ी हुई, 'हाँ, कहिये?'
'मैं पोलिटिकल साइंस का छात्र हूँ! ज़रा इधर आयेंगी?'
यानी पारुल न सुन पाये, इसलिए ज़रा दूर जाना होगा।
मैं चली गयी।
लड़के ने कहा, 'मेरा नाम जहाँगीर है। मैं आपके साथ दोस्ती करना चाहता हूँ-'
यह सुन कर मुझे गुस्सा आ गया।
मैंने तमक कर कहा, 'देखिये, मेरा एक दोस्त है। मंसूर नाम है! मुझे किसी और दोस्त की ज़रूरत नहीं है।' इतना कह कर मैं लौट पड़ी।
'चाय की तलब लगी है। चल, दो कप हो जाये। चलता है?'
पारुल ने भी सहमति जतायी।
चाय पीते-पीते मैं पारुल के इश्क के किस्से सुनती रही।
वह लड़का, उसका ममेरा भाई था! इंजीनियर! पता चला, वह दो बार उस को चूम भी चुका है। कहीं भी घर खाली पाता है, तो लिपट कर चूम लेता है।
'चुम्बन लेते हुए कैसा लगता है, रे?'
पारुल हँस पड़ी, 'जिसने कभी चुम्बन न लिया हो, उसे इसका स्वाद कभी कह कर नहीं समझाया जा सकता।'
एक बार फिर, अपने बेहद ख़ाली-खाली होने का एहसास हो आया। अच्छा, मंसूर जब पहली बार मुझे चूमेगा, तो क्या वह हौले से मुझे अपनी बाँहों में लपेट भी लेगा? नहीं, यूँ लपेट लिया जाना मुझे अच्छा नहीं लगेगा। मुझे सबसे ज़्यादा तब अच्छा लगेगा, अगर वह मेरी हथेली की पीठ पर चुम्बन आँके।
उसके होठों का स्पर्श महसूस करते रहने के लिए, मैं बहुत दिनों तक अपना हाथ ही नहीं धोऊँगी। आह! कितना आनन्द आयेगा। मुझे इतना आनन्द क्यों होगा? मंसूर से अगर किसी निर्जन मैदान में मेरी भेंट हो, मैं लाज से सिर झुकाये-झुकाये खड़ी रहूँगी।
मंसूर मुझे पास बुलायेगा, 'आओ।'
मुमकिन है, मैं क़रीब आ बैठू! आँखें झुकी-झुकी! छाती धड़कती हुई! मंसूर की गहरी-गहरी, भरी-भरी आवाज़ मुझे गहरे तक छू जायेगी।
वह कहेगा, 'आओ, क़रीब आओ! शर्म कैसी? तुम मुझसे लजा क्यों रही हो? मैं क्या तुम्हारा सबसे ज़्यादा अपना...ज़्यादा सगा नहीं हूँ? बताओ?'
वह मुझे अपने क़रीब बिठा लेगा और कहेगा, 'चेहरा ऊपर करो, सोना लड़की!'
मैं चेहरा उठाऊँगी। मंसूर मुझे अपलक निहारता रहेगा और फिर घास पर लेट जाएगा। अचानक वह गा उठेगा- 'मेरी एक ओर सिर्फ तुम, दुनिया दूसरी ओर, मैंने थाम लिया तुम्हारा ही छोर!'
पुराना गाना है, फिर भी सुनना अच्छा लगेगा।
मंसूर मुझसे पूछेगा, 'तुम्हारी हथेलियाँ ज़रा छू लूँ?'
मैं सिर हिला कर सहमति जताऊँगी।
मंसूर मेरी उँगलियों से खेलते हुए कहेगा, ‘सच तो यह है कि अर्से तक मैंने तुम्हें बहुत-बहुत तकलीफ़ दी है, पता है क्यों? तुम्हें तकलीफ़ों की आग में तपाता रहा, ताकि तुम तप-तप कर सोना बन जाओ।'
यह कहते-कहते, वह मेरी हथेली, अपने होठों तक ले जायेगा अचानक हथेली की पीठ चूम लेगा। बस, इतना भर ही! मैं अपना हाथ हटा लूँगी और उसके बचपन के किस्से सुनती रहूँगी। वह बतायेगा...वह अपने गाँव की कंस नदी में, अपनी नाव ले कर, दूर. ..काफ़ी दूर पहुँच जाता था। शाम ढले लौटता था।...भुतहे बांस-झाड़ में भूत देखने के लिए, वह आधी-आधी रात को खड़ा रहता था। फ़ज़ की नमाज़ के समय, वह घर लौटता था। अपने हम उम्र साथियों को बुला-बुला कर बताता था-'सुनो, तुम सब सुनो, दुनिया में भूत-बूत कुछ नहीं है।'
यह सब सुनते हुए मुझे भला-भला लगेगा।
मंसूर कहेगा, 'चलो, अब तुम सुनाओ, अपने छुटपन की कोई कहानी-'
मैं उसे तलैया में अपने डूब जाने की कहानी सुनाऊँगी। '..जब मैं नौ साल की थी, नाना के घर की तलैया में कमल का एक फूल खिला था। उसे तोड़ लाने के लिए मैं तलैया में उतरी थी। अचानक, मैंने देखा, मैं डूब रही हूँ। डूब रही हूँ, उतरा रही हूँ,
हला-हला पानी निगल रही हूँ, चीख रही हूँ, फिर पानी निगल रही हूँ-डूबती जा रही हूँ, डूबती जा रही हूँ, मगर कोई मुझे बचाने नहीं आया। मेरे हाथ कमल तक नहीं पहुंच पाये घाट के किनारे भी मुझसे दूर! उस वक़्त, उस तलैया से मुझे संन्यासी मामा ने निकाला था। मैं मरते-मरते बची...।'
मंसूर और मैं, अपने-अपने बचपन, अपने कैशौर्य की गपशप में डूबे रहेंगे और रात उतर आयेगी। अपने-अपने घर लौटने का वक़्त हो आयेगा, फिर भी हमें होश नहीं आयेगा...।
एक दिन ऐसा भी आयेगा, जब उसे मेरे अलावा और किसी चीज़ का होश नहीं रहेगा, मेरे अलावा उसे और कुछ समझ नहीं आयेगा। यह जगत-संसार उसके लिए तुच्छ हो जायेगा। मेरे लिए, इस शीला के लिए, मंसूर मेरा मंसूर, एक दुनिया रच देगा!
मंसूर शायद ज़्यादा बातें नहीं करता। कम बोलने वाले इन्सान में, एक अलग-सा सौन्दर्य होता है! मैं भी बहुत ज़्यादा बकबक करती हूँ, ऐसी बात नहीं है। लेकिन मैं नाप-तौल कर भी बात नहीं करती। मेरा जो बोलने का मन होता है, मेरे मन में जो आता है, वह मैं अपने क़रीबी इन्सान से छिपा कर भी नहीं रख पाती। मंसूर को बिल्कुल अपने की तरह पाने के लिए, मेरी जो यह अविराम कोशिश है, कोई भी शायद इसे निरा पागलपन कहेगा। लेकिन, किसी लड़की से प्यार करने के लिए मर्द के पागलपन को तो ठीक मान लिया जाता है, तो अगर लड़की पागल हो गयी है, तो . ग़लत क्या है? हमेशा मर्द को ही आगे बढ़ना होगा, औरत आगे नहीं बढ़ सकती? अगर वह चाहे. तो अलबत बढ़ सकती है। लेकिन ऐसी इच्छा, कोई लड़की करती ही नहीं। मैं बैठी रहूँगी, प्यार करने के लिए, कोई नौजवान मुझे पसन्द करेगा। अच्छा, जो नौजवान मुझसे प्रेम-निवेदन करेगा, वह अगर मुझे पसन्द न आये, तो? ठीक है, मैं उसे लौटा दूंगी। कहूँगी-देखो, भइया, तुमसे प्रेम करने की मेरे मन में क़तई कोई चाहे नहीं है। लेकिन उसके बाद? फिर उसी तरह बैठे-बैठे, किसी को पसन्द आने का इन्तज़ार! चलो, फिर किसी ने पसन्द कर लिया! लेकिन, फिर वही समस्या! मुझे वह बिल्कुल पसन्द नहीं आता।
बस, इसी तरह उम्र बढ़ती जायेगी। मारे भय, भीति और चिन्ता में डूबी-डूबी, मैं आँख-कान बन्द करके, किसी कुपात्र के गले में जयमाला डाल दूंगी। आसमान की तरफ़ देखते-देखते, मैं उससे बातें निपटाऊँगी प्यार निपटाऊँगी! और नहीं तो क्या? फ़र्ज़ करो, चेहरे की तरफ़ देखने का उपाय न हो, तो? चेहरे जैसा चेहरा न हो, तो क्या उसकी तरफ़ देखा जा सकता है? तब क्या शौकिया ही आँखों के रोग को दावत देनी होगी?
मंसूर मेरे सपनों का पुरुष है। मैं अल्लाह या भगवान में विश्वास नहीं करती। अगर करती होती, तो यह सोच सकती थी कि ऊपर वाले ने हमें एक-दूसरे के लिए ही बनाया है। अच्छा, मंसूर के साथ क्या मैं बे-हद मिसफिट हूँ? लेकिन सपने देखते-देखते, अब मेरी यह हालत हो गयी है कि मंसूर की बग़ल में अपने अलावा, मैं किसी और की कल्पना भी नहीं कर सकती। मंसूर बातें कम करता है। हर वक़्त, हर बात के सहारे, हर कहानी समझाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। मंसूर के भी मामले में होट या आँखें पढ़ने की ज़रूरत नहीं पड़ती। आँखों की एक अपनी भाषा होती है। वह भाषा निःशब्दता के अक्षरों से तैयार की गयी है। यह अक्षर-ज्ञान अगर हो, तो मंसूर को पढ़ा जा सकता है। मुझमें वह ज्ञान न हो, तो मेरा चलेगा कैसे? मैं नयी छात्रा हूँ। इसलिए क्या मैं उस भाषा को समझने के लिए, तप नहीं करूँगी? आँखें तो धूप के चश्मे तले ढंकी होती हैं। चश्मे की आड़ से इस-उस की आँखें मुझे देखती रहती हैं। देख-देख कर मुग्ध होती रहती हैं। उन आँखों के सागर में ज़रूर प्यार की कश्ती बहती रहती है। कोई-कोई इसी तरह ख़ामोशी से प्यार करता है। मसलन भाई! भाई क्या जोर-शोर से डंका पीट-पीट कर तुलसी से प्यार करते थे।
किसी दिन भी किसी को यह अन्दाज़ा नहीं लग सका कि भाई के दिल में तुलसी को ले कर भाग जाने की हद तक प्यार पल रहा है। मंसूर का चरित्र भी काफ़ी कुछ भाई जैसा है! वैसे वह चेहरे-मोहरे में भाई से हज़ार गुने ज़्यादा सुन्दर है। लेकिन, अपने प्यार के बारे में किसी को अन्दाज़ा न लगने देने, अकेले-अकेले अपने ही एहसासों में डूबे रहने जैसी खूबी, हर किसी में नहीं होती। अब मुझे ही लें, जब तक सैंकड़ों लोगों को यह न बता दूं कि मैं प्यार में गिरफ़्तार हूँ, मेरा नहीं चलता। मंसूर ने बेशक, यह बात किसी को न बतायी हो। किसी दिन वह मुझे लाल साड़ी पहना कर अपने घर ले जायेगा और सबको चौंका देगा। हाँ, वह समूचे दुनिया-जहान में यह घोषणा करके सबको चौंका देगा कि मैं शीला को प्यार करता हूँ। मैंने शीला से विवाह किया है। यह ख़याल आते ही, मुझे अपना आपा कैसा तो रंगीन लगने लगता है! लेकिन कहीं से अवश होने का एहसास भी जाग उठता है। मंसूर को क्या चूमना आता है? मैं तो यह सोच कर ही अवश होने लगती हूँ कि वह मुझे चूम रहा है। भाई ने भी ज़रूर तुलसी को चूमा होगा। तुलसी जानती है कि चुम्बन कैसा एहसास देता है। मुझे भी यह एहसास होने लगा है कि मंसूर मुझे कितनी गहराई से प्यार करता है। कैसी मोहक शैली में उसने कहा-आइ एम सॉरी! उसे सच ही अफ़सोस है। आखिर कितने लोग इतने आकर्षक अन्दाज़ में ‘आइ एम सॉरी' कह पाते हैं? उसका अंग्रेज़ी उच्चारण भी कितना मोहक है! सिर्फ़ जुबान से ही नहीं, उसने सच्चे मन से 'सॉरी' कहा है। मैंने गौर से देखा है, उसके चेहरे पर सचमुच अफ़सोस का भाव था। वह भाषा जुबान पर ही नहीं थी, आँखों में भी थी। धूप के चश्मे के पीछे छिपी आँखें साफ़ नज़र आ रही थीं, आँखों का वह दुख महसूस तो किया जा सकता था। उसने मेरे लिए गाड़ी का दरवाजा खोल दिया। मुझे अपने क़रीब बिठाया। इतने स्मार्ट तरीके से क्या सभी लोग गाड़ी चला सकते हैं? गाड़ी ज़रा भी धचके नहीं खा रही थी, अचानक ब्रेक कसने की भी ज़रूरत नहीं पड़ी। रिक्शों की भीड़-भड़क्के वाली गन्दगी काट कर, मंसूर हौले-हौले उस जंजाल से बाहर निकलता जा रहा था। लग रहा था, गाड़ी की बॉडी उन सवको छू रही है, लेकिन बिल्कुल भी नहीं छू रही थी। मंसूर में अदभुत क्षमता है। अचानक दो मुसाफ़िर गाड़ी के सामने से गुज़रने लगे। वह उन दोनों को ‘मोटी बुद्धि' कह कर गाली भी दे सकता था। लेकिन, उसने कुछ नहीं किया, बल्कि उन दोनों को निश्चिन्त भाव से सड़क पार कर जाने दिया। हालाँकि अन्यान्य गाड़ियाँ तेज़ रफ़्तार से दौड़ती जा रही थीं। बस, इसी बात से मैं समझ गयी कि मंसूर के मन में इनसानों के प्रति कैसी असाधारण ममता है! खैर, जो लड़का गाता है, उसमें माया-ममता तो होती ही हैं। उसकी कोमल-सुकुमार वृत्तियों को इसी तरह मैं ज़रा-ज़रा करके आविष्कार करना चाहती हूँ। मंसूर अपने बारे में कुछ भी न बताये...कुछ भी नहीं बताने से आविष्कार का सुख नष्ट हो जाता है। मैं उसे ज़िन्दगी भर आविष्कार करना चाहती हूँ। उसके अद्भुत सुन्दर, उदार मन के क़रीब, इसी तरह थोड़ा-थोड़ा करके, हौले-हौले पहुँचना चाहती हूँ। मंसूर क्या जानता है कि मैं उसे कितना प्यार करती हूँ? क्या उसे अन्दाज़ा है कि मैं उस पर कितना भरोसा करती हूँ। भरोसा करती हूँ, इसीलिए तो उसके साथ चली आयी। वह मुझे चाहे जहाँ भी...जितनी भी दूर ले जाये, मैं जाऊँगी। मंसूर के अलावा मेरा और कोई गंतव्य नहीं है। अच्छा, मैं क्या अन्धी हूँ? हाँ! अन्धी ही हूँ! मंसूर के लिए अन्धी हो जाने में, मुझे ज़रा भी एतराज नहीं है। ऐसा भी तो होता है कि किसी-किसी के लिए इन्सान कुछ भी कर सकता है। वैसे मुझे थोड़ा-थोड़ा डर भी लगता है, मंसूर अगर अभी ही विवाह करना चाहे, तो क्या होगा? अब्बू तो विश्वविद्यालय पास किये बिना, अभी तो ब्याह का नाम भी उच्चारण नहीं करने देंगे।
फ़र्ज़ करो, मंसूर अगर यह ज़िद कर बैठे, 'देखो, अब मेरी शादी की उम्र हुई। अगर अभी शादी नहीं की, तो नहीं चलेगा। तुम अपने को राजी कराओ।'
अपने अब्बू के सामने, यह प्रस्ताव रखना, मेरे लिए क्या सम्भव होगा? वैसे भी, बात मैं क्यों करूँ? मंसूर के घरवालों को ही पैग़ाम भेजना होगा। लेकिन अब्बू साफ़ मना कर देंगे, यह बात मैं आँख मूंद कर बता सकती हूँ। लेकिन, क्या पता? यह बात भी कैसे कहूँ? अब्बू तो भाई की शादी भी क़बूल करने वाले नहीं थे। मुझे भी उन्होंने ठीक ढंग से लिखाई-पढ़ाई करने की हिदायत दी है, ताकि मैं अपने पैरों पर खड़ी हो सकूँ। अब, अगर इसका उलटा हुआ, तो वे मुझे जिन्दा नहीं छोड़ेंगे। लेकिन, उनका यह अक्खड़पन, शायद न रहे, जब मंसूर जैसा अमीरज़ादा, सुशिक्षित, सुदर्शन, सुपुरुष, मुझसे शादी करने का प्रस्ताव देगा। तब तो अब्बू और जितने भी नाते-रिश्तेदार हैं, सब हो-हल्ला मचाते हुए, पूरे जोश से शादी के इन्तज़ाम में टूट पड़ेंगे। मेरा रुचि-बोध देख कर, सब ताज्जुब में पड़ जायेंगे। भला कोई रूपसी या हूर-परी तक, मंसूर जैसे नायक-गायक को अपनी मुट्ठी में लाने की कलपना कर सकती हैं? नहीं, आसान नहीं है! बिल्कुल आसान नहीं है। तपस्या किये बिना मंसूर को पाना असम्भव है। मंसूर काफ़ी हद तक ईश्वर जैसा है। मेरी तीखी चाह, प्रबल आकांक्षा, मेरी एकाग्र तपस्या ने ही मुझे मंसूर से ला मिलाया है। आख़िर प्रकृति का भी तो कोई इन्साफ़ होता है। इन्साफ़ ज़रूर होता है। अल्लाह, खुदा, भगवान, ईश्वर भले एक-आँख वाले हों, पक्षपात करें, प्रकृति ऐसा नहीं करती। प्रकृति सभी इन्सानों को बराबरी की नज़र से देखती है। अगर यह सवाल उठे, तो शायद सभी यही कहेंगे कि बाढ़, आँधी-तूफ़ान, रोग-शोक, बुढ़ापे से, विचारे ग़रीब लोग ही मरते हैं। अमीर नहीं मरते। लेकिन प्रकृति इस मामले में भी कोई असमानता नहीं बरतती। यह तो इन्सान ही है, जिसने विषमता का इन्तज़ाम कर रखा है, इसीलिए कोई मर जाता है, कोई नहीं मरता। अमीर लोगों का घर-मकान सख्त-पुख्ता होता है। अमीरों के पास डॉक्टरों को खरीदने के लिए दौलत होती है। लेकिन गरीब ? ज़ोर की आँधी-तूफ़ान में ही उनकी मडैया की छप्पर-छादन तक उड़ जाती है। गरीबों में यह औक़ात नहीं होती कि वे डॉक्टर तक पहुँच सकें। अशिक्षा-कुशिक्षा-सब कुछ गरीबों को ही निगल जाती है।
मंसूर छह फ़ीट लम्बा! काफ़ी कुछ अमिताभ बच्चन या अफ़ज़ल हुसैन जैसा। लेकिन चेहरे की गढ़न अफ़ज़ल-अमिताभ, दोनों के ही मुक़ाबले काफ़ी खूबसूरत! बाल तो इतने घने-काले कि देखते ही उनमें हाथ डुबा देने का मन करे। सुतवां, तीखी नाक! आँखें जैसे बोलती हुईं! काली, मोहक भौंहें! होठ गुलाबी! मूंछे न मोटी, न पतली! बस, बीच-बीच की! वह हजामत भी बनाता है! गाल हल्के-हल्के नीलाभ! मैंने चोरी-छिपे गौर किया था, उसके गालों पर नीलाभ छाया है! वह देखने में क्या थोड़ा-बहुत ग्रिगोरी पेक जैसा उसके होटों में जादू है! सचमुच का जादू! वह जादू मुझे पागल करता है। उसकी छाती पर क्या रोमावली है? शर्ट के दो बटन खुले रहते हैं। हाँ, हाँ, रोमावली से भरे हैं। पता नहीं, उन रोमावली का मैं क्या करूँगी। लेकिन 'सुन्दर' कभी एक संज्ञा, मैंने जाने कब, कहाँ से प्राप्त की है। शायद अब्बू या भाई के चेहरे से, मंसूर बिल्कुल वैसा ही! जैसा पत्र-पत्रिकाओं में हीरो लोग दिखते हैं, मेरे लिए ‘सुन्दर' की संज्ञा बिल्कुल वैसी ही है। खैर, मंसूर की नाक-आँख-सूरत का मुझे क्या करना है? हाँ, बस, आँखें तृप्त हो जायेंगी। ज़रूरत है, मन सुन्दर हो। अगर मन सुन्दर हो, तो सब कुछ मिल जाता है। मंसूर अपने प्यार से सिर्फ़ मुझे ही क्यों, समूची दुनिया जीत सकता है। मुझे तो वह पहले ही जीत चुका है। लेकिन मैंने क्या मंसूर को जीत लिया है? हालाँकि मेरा मन कैसा-कैसा तो होता रहता है, फिर भी कहता है-हाँ, जीत लिया है। मंसूर स्मार्ट लड़का है। उसकी जगमगाहट ही बिल्कुल अलंग किस्म की है। यह जगमगाहट ही शायद सच्ची रोशनी है। मेरी हथेलियाँ, अपने हाथ में ले कर, वह मेरी उँगलियों से खेलता रहता है। लेकिन, मंसूर की उँगलियाँ देख कर, मुझे ऐसा महसूस होता है, जैसे उँगलियाँ, खेल के बहाने, मुझे प्यार कर रही हैं। उँगलियों में प्यार पहुँचाने की इतनी ज़बर्दस्त ताक़त होती है, अगर मैंने मंसूर की उँगलियों का स्पर्श न किया होता. तो मझे पता ही नहीं चलता। मंसर अपनी उस हल्की-सी छुअन से, मुझे पिघला कर यूँ मोम कर देता है, पता नहीं, उस वक़्त मेरा चेहरा कैसा नज़र आता होगा। जैसी मैं हूँ, वैसी ही दिखती हूँ न! उस वक़्त की मेरी सूरत देख कर माँ, अब्बू, भाई या तुलसी, मुझे पहचान तो लेंगे न कि मैं, मैं ही हूँ?
किसी को नहीं मालूम कि आज मैं मंसूर से मिलने आयी हूँ। मैं किसी को बताऊँगी भी नहीं। सिर्फ़ चुपके-चुपके उसका प्यार, अपने दिल में उतार लूँगी। अभिसारिका हूँ। आ-ह!
गाड़ी किस तरफ़ जा रही है, मेरे यह पूछने पर, मंसूर ने संक्षिप्त-सा जवाब दिया-'गुलशन की तरफ़!'
गुलशन में ही तो मंसूर का मकान है। यानी वह ज़रूर अपने घर जा रहा है। अपने घर ले जा कर, वह ज़रूर अपने माँ-बाप, भाई-बहनों से मेरा परिचय करायेगा। यानी मंसूर सच ही, गम्भीर रूप से इस रिश्ते के बारे में सोच रहा है। उस दिन, जब उस अन्दाज़ में, उसकी आँखों ने मुझे देखा था, शायद तभी...उसी पल मैं उसकी आँखों में बस गयी थी। पल भर के लिए निग़ाहें मिलते ही, कितना कुछ हो जाता है। किसी-किसी के साथ ऐसा भी तो होता है कि ज़िन्दगी भर आँखें मिली रहें और कुछ भी नहीं होता।
जिसके साथ ऐसा होता है, वह एकाध पल में ही हो जाता है। फ़िल्मों में तो ऐसा ही होता है।
* * * * *
संन्यासी मामा, श्यामली में टिन की छादन वाले छोटे-से एकमंजिला घर में रहते थे। भाई और तुलसी, उनके यहाँ ही रहने लगे हैं। भाई नौकरी खोज रहे हैं। एम. ए. का इम्तहान सामने हैं, लेकिन, सुना है, वे इम्तहान नहीं देंगे। यह ख़बर कोई अब्बू को भी दे गया। घर में अब्बू, माँ के सामने खूब-खूब गुस्सा करते रहे।
'तुम्हारे भाई ने उसे अपने घर में पनाह क्यों दी? हिन्दू लड़की से उसने ब्याह किया, सुना है, हिन्दू ही रहेगी वह लड़की समाज-बिरादरी में, मैं क्या मुँह दिखाऊँगा?'
सुबह यूनिवर्सिटी जाते हुए रास्ते में अब्बू ने दरयाफ़्त किया, 'तुम लोगों की क्लास-क्लास हो रही है?'
'हाँ, हो रही है।'
'तुम मेरी एकमात्र आसरा-भरोसा हो, बिटिया! तुम मेरा मान रखना। बेटा तो चौपट हो गया। तुम ऐसा कोई काम मत करना, जिसे लोग बुरा कहें।'
नाश्ते की टेबिल से उठ कर, अब्बू मेरे क़रीब आये और मेरा माथा अपने सीने में दुबका कर, मेरी पीठ पर हाथ फेरने लगे।
'खूब भली बनी रहना, समझीं? सीधे यूनिवर्सिटी जाया करो, क्लास ख़त्म करके, बिना दाएँ-बाएँ देखे, सीधे घर लौटा करो। कहीं और मत जाना, फ़िजूल कहीं अड्डेबाज़ी मत करना। लक्ष्मी बेटी बन कर रहना। फरहाद ने तो मेरे मुँह पर कालिक पोत दी। तुम पढ़-लिख कर, महान बनना। मैं कहूँगा, मेरी एक ही सन्तान है। वह मेरी बेटी भी है और बेटा भी है।'
मैं दो-दो किताब-कॉपियाँ अपनी छाती में दुबकाये खड़ी थी। अब्बू का लाड़-दुलार पा कर, मेरी आँखें भर आयीं। असल में, लाड़-प्यार की बेहद तरसी हुई...बेहद कंगाल हूँ। कोई अगर ज़रा प्यार से मुझसे बोले, मेरी आँखें नम हो उठती हैं! जिसके हल्के-से स्नेह का स्पर्श पा कर, मैं आवेग से काँपने लगती हूँ।
अब्बू के हाथ, अपनी दोनों हथेलियों में कस कर, मैं मन-ही-मन बुदबुदा उठी, 'तुम मुझे प्यार करते हो, यह बात मैं कभी समझ नहीं पायी, अब्बू। मैं सोचती थी, तुम बेहद निष्ठुर इन्सान हो। भाई को तुमने लाड़-प्यार और प्रश्रय दे कर बड़ा किया, क्योंकि वे तुम्हारे खानदान के चिराग़ थे। हम तो पराये घर चली जातीं, इसलिए तुमने सोचा कि इन लड़कियों को लाड़-प्यार दे कर क्या फ़ायदा? लेकिन, सिर्फ़ मैं ही क्यों, भाई, सेतु, सेवा, सभी तुम्हारी सन्तान हैं। पता नहीं, क्यों तो हमारे बीच इतनी दूरी आ गयी है।'
अब्बू ने लम्बी उसाँस छोड़ी।
असल में, अब्बू से मैं जो कहना चाहती थी, वह मुझसे कहा ही नहीं गया। भाई को वापस ले आने की बात भी, मेरी जुबान से नहीं फूट सकी। अब्बू तो यह चाहते थे कि मैं भी किसी से इश्क़-मुहब्बत करके, कोई हादसा न कर डालूँ। लेकिन मंसूर को प्यार करना क्या अघटन या हादसा है? बेशक, नहीं! क्योंकि अब्बू अगर उसकी आर्थिक हालत के बारे में सोचें, तो मंसूर दौलतमंद पिता का बेटा है और अगर यह सवाल उठे कि लड़का पढा-लिखा. शिक्षित है या नहीं, तो वह लडका एम. ए. का इम्तहान देने वाला है और इसका मतलब है, वह शिक्षित है। देखने में कैसा है? भला-भला! स्वभाव-चरित्र कैसा है? वह तो बेशक़ बहुत भला है। भला न होता तो क्या गानों के कार्यक्रमों में शामिल होता? वह शरीफ़ लड़का है, तभी तो तुलसी ने कहा कि वह कमाल का अच्छा लड़का है। वह शरीफ़ और भला है, तभी तो मैं बस, उसे निहारती रहती हूँ। उसे देख कर कभी सीटी नहीं बजायी, कभी आँख नहीं मारी।
मेरी एक गुप्त डायरी है। दो वर्ष पहले, यह डायरी मुझे भाई ने दी थी। डायरी में लिखा था-'अपनी प्रिय छोटी बहन, शीला को! भाई! आजकल डायरी खोलते ही, पहले पन्ने पर नज़र पड़ते ही, मन बेतरह दुखी हो जाता है! सन्यासी मामा तो अपने लिए ही भर पेट आहार नहीं जुटा पाते, वे उन दोनों को क्या खिलाते होंगे? और उस कोठरी में उन दोनों के सोने के लिए, कहाँ जगह होगी। भाई मुझे अकसर ही छुटपुट चीजें उपहार दिया करते थे। एक बार, जीवनानन्द दास का काव्य संग्रह दिया था; पार्कर पेन भी दी थी और कहा था-'इससे तू कविता लिखा करना।' इसी तरह रंग-तलि खरीद कर दिया और कहा-'आसमान की तस्वीरें बनाया कर।' वैसे कविता लिखने का मुझे ज़्यादा चाव है। आजकल डायरी भी लिख रही हूँ। उसमें मंसूर की बातें ही ज़्यादा होती हैं।
मंसूर को मैंने फिर ख़त लिखा। ठीक ख़त भी नहीं, कविता-
तुम सकुशल तो हो, मेरी जान?
अच्छे तो हो, मेरे हरियल, सदाबहार?
मैंने तुम्हें कभी छू कर नहीं देखा,
सिर्फ आँखें मल-मल कर निरखती रही, तुम्हारा विराट क़द!
तुम हो प्राणवान इन्सान,
कितनी भी दूरी से तुम्हें किया जा सकता है प्यार!
अगर तुम मुझसे प्यार नहीं भी करते, मत करो।
मैं करती रहूँगी,
जब तक मेरे सीने में धड़कता है दिल!
मैं करती रहूँगी प्यार!
प्यार किये बिना, मेरी मुक्ति नहीं!
मेरी इस सीलनभरी कोठरी में,
तुम हो अंजुरी भर धूप,
जो आ लेटी है मेरे माथे पर!
मैं जाग उठी हूँ!
दीर्घ उन्नीस वर्षों की टूटी है नींद!
अब, तुम्हें अर्जित करना ही,
मेरा एकमात्र सपना!
इति,
शीला
मुझे ख़त लिखने के लिए मैंने पारुल के घर का ठिकाना दे दिया है। मैंने यह भी लिख दिया कि पारुल के नाम का बग़ल में एक तारा-चिह्न अंकित किया गया हो, तो यह समझ में आ जायेगा कि यह मेरा ख़त है। मैंने पारुल को भी समझा दिया है।
दिन के वक़्त फ़ोन करने से मंसूर मिलता नहीं, इसलिए यह कोशिश फ़िजूल थी। रात के वक़्त मेरा फ़ोन करना सम्भव नहीं है, इसलिए मैं ख़त के जवाब की ही प्रतीक्षा करती रही।
पारुल से मैं हर दिन पूछती थी, 'क्या? कुछ आया?'
पारुल होट बिचका कर जवाब दे देती थी, 'न्ना!'
एक दिन! दो दिन! तीन दिन! चार दिन! पूरे सात दिन गुज़र गये। ख़त नहीं आया। इधर ‘मंसूर' नाम, क्लास में बहुतेरे विद्यार्थी जान चुके थे। नादिरा ने ही यह ख़बर फैला दी थी कि शीला के प्रेमी का नाम मंसूर है। लड़का देखने में बेहद सुदर्शन है।
अब बकुल, मणि, रुबीना, लकी, मदिरा, मउमी वगैरह सभी लड़कियाँ मुझे छेड़ने लगी हैं-'मंसूर साहब की क्या ख़बर है?'
'दूल्हा भाई कैसे हैं?' 'यूँ डूब-डूब कर आख़िर कितने गैलन पानी ढकोल डाला, हम भी तो सुनें।'
यह सब फ़िकरे सुन कर मुझे लाज भी आती है और खुशी भी होती है।
मुझे ताज्जुब में डालते हुए, ग्यारहवें दिन, पारुल ने एक लिफ़ाफ़ा, मेरे किताब में लूंस दिया। उस वक़्त क्लास चल रही थी। वह आयी और मेरी बग़ल में बैठ गयी और यह काण्ड कर बैठी। मैं दत्तचित्त हो कर क्लास में लेक्चर सुनती रहूँ, मेरी किताव में एक पीला ख़त रख दिया जाये-यह देखने के बाद, मेरे लिये अपने मन को स्थिर रखना सम्भव नहीं था। मैंने वह किताब अपने और क़रीब खींच ली और वह लिफाफा खोल डाला। अन्दर से सफ़ेद काग़ज़ पर लिखा हुआ खूबसूरत-सा ख़त निकल आया।
ख़त में लिखा था-शीला, तुम्हारा ख़त पढ़कर बहोत अच्छा लगा। तुम मुझे प्यार करती हो। यह जान कर बेहद खुशी हुई। अब तुमसे मिलना ज़रूरी है। ऐसा करो, अगले शनिवार (तारीख 12) को दोपहर, साढ़े बारह बजे, क्रिसेन्ट लेक के किनारे आ जाओ। मेरे बदन पर सफ़ेद पर नीली धारीदार शर्ट, काली पैंट होगी और आँखों पर रेबॉन सनग्लास होगा। मेरे साथ लाल रंग की होण्डा सिविक कार होगी। गाड़ी का नम्बर है-1704!
इति,
मंसूर!
यह ख़त नहीं था। इसे ख़त नहीं कहते। यह तो स्वर्ग से आयी हुई खुशखबरी है। मेरे लिए क्लास में मन लगाना मुश्किल हो आया। पिछले दरवाज़े से मैं चुपचाप बाहर निकल आयी। कॉरीडोर में अकेली खड़ी रही। उफ़! सब कुछ कितना भला लग रहा है! हरे-हरे पेड़ों पर इतनी ज़्यादा हरियाली, मैंने पहले कभी नहीं देखा। आसमान भी बेहद उदार और बेहद नज़दीक लगा। यूनिवर्सिटी की दीवारें, क्लासरूम, अपराजेय बांगला, छात्र-छात्राएँ, प्रोफ़ेसर-सभी बेहद अपने लगने लगे। रेलिंग पर टिक कर मैंने नीचे की तरफ़ झाँका। नीचे सड़क पर दो दरिद्र बच्चे खेल रहे थे। उस वक़्त वे दोनों भी मुझे निहायत अपने जान पड़े।
‘एइ, सुन!' मैंने आवाज़ दी!
उन दोनों ने ऊपर की ओर देखा।
'ले, पकड़!' मैंने अपने पर्स से दस का एक नोट निकाला और मोड़ कर नीचे की तरफ़ फेंक दिया।
रुपये पा कर, वे दोनों क्या खुश! रुपये उठा कर वे दौड़ पड़े। मैं भी बेहद खुश! आज मैं कोई क्लास नहीं करूँगी। हालाँकि इसके बाद ही अहमद की क्लास है। उनका लेक्चर मुझे पसन्द है। लेकिन, आज उनकी क्लास में भी जाने का मन नहीं हुआ। चलो, टी. एस. सी. चलें। चाय पीने के लिए मैं अकेली-अकेली ही कैंटीन में आ खड़ी हुई। अपने सामने अपनी उपार्जित आज़ादी रख कर, मैंने चाय की चुस्की ली और किताब के अन्दर रखी हुई चिट्ठी, छू-छू कर महसूस करती रही। अहा, मन में इतनी पुलक क्यों जाग उठी है? मेरे एहसासों में इतना सुख क्यों लहर उठा है? आज, टी. एस. सी. में जमघट लगाये लड़के-लड़कियों के प्रति, मैं मन-ही-मन बुदबुदा उठी-'सुखी रहो!'
मेरे पहचान के दो-एक छात्र-छात्रा मेरी बग़ल में आ बैठे।
'क्यों, क्लास नहीं है?' उन्होंने पूछा।
'है, मगर करूँगी नहीं-' मैंने हँस कर जवाब दिया।
मेरा मन तो ख़त में पड़ा हुआ था। मैंने वह ख़त दुबारा पढ़ा फिर पढ़ा। लिखावट ख़ासी सुन्दर है, काग़ज़ भी। पारुल को मैं अभी तक धन्यवाद नहीं दे पायी थी। मेरा मन हुआ, उसे गले लगा कर, चूम लूँ। मन-ही-मन, पारुल के गाल पर चुम्बन आँक कर मैं बुदबुदा उठी, 'पारुल, तू खुश रह। आज मेरे लिए भी बेहद सुखद दिन है।'
उसके बाद मैं जिससे भी मिली उससे कहा, 'आज मेरे लिए बेहद सुखद दिन है।'
नर्गिस नामक एक लड़की, जो मुझसे ऊँची क्लास में थी, उसने पूछा, 'क्यों शीला, यहाँ क्यों बैठी हो? मन उदास है?'
मैंने हँस कर जवाब दिया, 'नहीं, नर्गिस आपा, आज मेरा मूंड बहोत अच्छा है।'
आज मेरा मन हो रहा है कि टी एस सी के मोड़ पर खड़े होकर, सबको सुना-सुना कर ऐलान करूँ-'आज मेरे लिए बेहद खुशी का दिन है।' सच्ची, आज, बहुत बड़ी खुशी का दिन है। आज मेरे प्यार ने मुझे ख़त लिखा है। इससे बढ़ कर खुशी और कोई नहीं; मेरी ज़िन्दगी में इससे बड़ी आकांक्षा और कुछ नहीं! आज मैं सार्थक हो गयी। मेरी उन्नीस साला ज़िन्दगी में, आज यह पहली सफलता है। दीर्घ-दीर्घ दिनों का एक सपना आज पूरा हुआ। अर्से से अँधेरे में पड़ी ज़िन्दगी ने आज पहली बार उजाले का मुँह देखा! किसी बन्द कोठरी का दरवाज़ा, काफ़ी-काफ़ी दिनों बाद, अचानक पूरी तरह खुल गया। आज दुनिया भर की रोशनी-हवा लहरा कर मेरे अन्दर घुस आयी है।
शनिवार आने में तो अभी भी पूरे चार दिन बाक़ी हैं। शनिवार को मैं उसके पास जाऊँगी। शनिवार को वह क्रिसेन्ट लेक के किनारे, मेरा इन्तज़ार करेगा। उस दिन मैं क्या पहनूँगी? मेरी सबसे सुन्दर ड्रेस कौन-सी है? एक तो बिल्कुल नयी ड्रेस है, दर्जी के यहाँ से आज ही आयी है, जो मैंने अभी तक अपने बदन पर नहीं डाली है, चलो, वही पहन लूँगी वैसे पहले पहन कर देखना होगा कि अब ड्रेस में मैं कैसी दिखती हूँ। कान में ईयरिंग पहनूँ? सोने के? या कपड़ों के रंग से मिलते-जुलते नगों के गहने? होटों पर गाढ़ी लिपस्टिक लगाऊँ या हल्की? दोपहर का वक़्त है, शोख मेकअप नहीं किया जा सकता। हल्के-से फाउण्डेशन पर हल्का-सा फेस-पाउडर ही चलेगा। मेरे पास सजावट की चीजें नहीं थीं। मेरी जेठू बहन की शादी तो साल भर पहले ही हो चुकी है। गिफ़्ट में मिले, ढेरों मेकअप-बॉक्स में से, एक बॉक्स उसने मुझे दे दिया था।
माँ ने हिदायत दी, 'यह सब ज़्यादा मत लगाना, त्वचा चौपट हो जायेगी।'
मैंने कभी नहीं लगाया। लगाने की कभी ज़रूरत भी महसूस नहीं की। लेकिन शनिवार को ज़रा सगूंगी नहीं? न्ना, थोड़ा-बहुत साज-सिंगार तो करना ही होगा।
अच्छा, बाल किस स्टाइल का बनाऊँ ? चोटी बना लूँ या बाल खुले-खुले छोड़ दूं? वैसे चोटी बनाऊँ, तो मेरे पास लाल रंग का सुन्दर बैंड भी है, वही बाँध लूँगी। आँखों में काजल लगाऊँ? बिन्दी भी लगा लूँ? वैसे बिन्दी लगा कर, ऐसा लगेगा, जैसे मैंने कुछ ज़्यादा ही बनाव-सिंगार किया है। मंसूर को क्या पसन्द है, कौन जाने? मुझे तो, हल्की-फुल्की सजावट ही भली लगती है। मेरी सैण्डल का फीता ढीला हो गया है। काश माँ से कह कर अगर आज ही एक जोड़ी सैंडल खरीद पाती, तो मज़ा आ जाता। यह तो हुई मेरे साज-सिंगार की बात! लेकिन मैं उससे बात क्या करूँगी? लेक-किनारे बैठ कर गपशप क्या करूँगी? ज़िन्दगी भर की सारी बातें, क्या एक दिन में कही जा सकती हैं? अच्छा, मैं क्या खाली हाथ जाऊँ? नहीं, खाली हाथ जाना ठीक नहीं लगेगा। उसके लिए रजनी गंधा या गुलाब ले जाया जाये। काश, मैं जान पाती कि उसे कौन-से फूल पसन्द हैं? वैसे गुलाब क्या कोई नापसन्द कर सकता है? या बेहतर यह रहेगा कि दोनों हाथों में गुलाब भर कर ले जाऊँ?
सारे गुलाब उसके हाथ में सौंप कर कहूँगी, 'लो, मेरा समूचा तुम्हारे लिये है-'
मंसूर वे तमाम गुलाब अपनी हथेलियों में समेट कर, ज़रूर बेहद खुश होगा। वह समझ जायेगा, यह लड़की बड़े दिलवाली है!
इस वक़्त हॉल में जाऊँ भी, तो कोई मिलेगा नहीं, लेकिन अभी घर जाने का भी मन नहीं हो रहा है! चलो, आर्ट कॉलेज ही
चलते हैं। वहाँ शिमुल, नामक मेरी एक दोस्त है! महिला दोस्त! अच्छा, शिमुल को क्या मंसूर के बारे में बता दूँ?
उससे कहूँगी, 'मुझे अपने प्रिय इन्सान से अगले शनिवार को मिलना है। उस दिन क्या किया जाये? वह दिन कैसे मनाया जाये? इस बारे में, तुझसे सलाह लेने आयी हूँ मैं!'
शिमुल! वह लड़की गाना गाती है, तस्वीरें आँकती है और आवृत्ति भी करती है। रुचियों से भरी-भरी! जबकि अपना आपा मुझे बेहद मेधाहीन, बुद्धू-बक्काल क़िस्म का लगता है। ऐसी मेधा ले कर, मैं मंसूर जैसे विराट क़िस्म के शख्स से मिलूँगी, मुझे जाने कैसा तो डर भी लगा। अगर कहीं वह मुझे नापसन्द कर दे?
अगर वह मुझसे पूछ बैठे! 'अच्छा, बोलो तो, तुम्हें यूरोप कैसा लगता है?'
मुझे कहना ही पड़ेगा, 'वहाँ कभी गयी नहीं।'
मेरी यह बात सुन कर, वह क्या यह नहीं सोचेगा कि इस जाहिल-गँवार लड़की को बुला कर मैंने बहुत बड़ी भूल की है। असल में, शिमुल ही मुझे सलाह दे सकती है कि ऐसा क्या किया जाये कि ऐसा रुचिवान, संस्कृतिवान इन्सान, मुझे पसन्द कर ले।
शिमुल से मिलने के इरादे से, मैं आर्ट कॉलेज की तरफ़ बढ़ती गयी। वह पेंटिंग्स की छात्रा है।
लेकिन सारा कॉलेज छान मारा, शिमुल कहीं नहीं मिली। अन्त में, जब मैं हताश मन से कॉलेज से बाहर आ रही थी, अचानक शिमुल मिल गयी। वह दो लड़कों के साथ कैम्पस में दाखिल हो रही थी।
उसने पूछा, 'क्या, री, यहाँ कैसे?'
उसे अलग ले जा कर मैंने बताया, 'सुन, एक जन को मैं प्यार करती हूँ। कल मैं उससे मिलने जा रही हूँ। अब बता, मैं क्या करूँ? मेरी तो अभी से रूह काँप रही है। वह लड़का, उस पर से, तुम
लोगों की दुनिया का जीव है। मुझे तो गानों-वानों की कोई समझ भी नहीं है। इस वक़्त, मेरी अक्ल बिल्कुल ही जवाव दे गयी है। कहीं वह लड़का मुझे निरी खोखली, दिवालिया न समझ ले।'
'वाह! तू तो कमाल की मुहब्बत में पड़ी है! तू भी तो कविताएँ लिखती है, सुना देना कुछेक कविताएँ! भई, गाना आना, एक खूबी है और कविता लिखना, दूसरे किस्म की खूबी है! सुन, तू अपने को कहीं से भी कमतर मत समझना; अपने को कुण्ठित निगाहों से मत देखना।
'और ?'
'और ज़रा रौब में रहना! ज़रा-जरा देर बाद कहना, सिर चकरा रहा है. चलो, घर जायें।'
'सर न भी चकरा रहा हो, तो भी?'
'हाँ! इससे तेरी क़द्र बढ़ेगी। लड़का तुझे आने नहीं देगा। आग्रह करेगा, जरा देर और बैठो न!'
'अगर वह ऐसा न कहे, तो?'
'कहेगा! ज़रूर कहेगा।'
'और?'
शिमुल निहायत हड़बड़िया लड़की है! उसने छूटते ही अगला जुमला जोड़ा, 'मेरी बनायी हुई एक तस्वीर ले जा। कहना यह तुम्हारे लिये है। वह खुश हो जायेगा।'
'तू अपनी बनायी हुई कोई तस्वीर देगी?' 'चल, दे दूंगी।' मुझे बेहद-बे-हद अच्छा लगा।
* * * * *
शुक्रवार की सुबह,
अब्बू दफ़्तर नहीं गये।
वे सीधे श्यामली, संन्यासी मामा के मटकोठे में पहुंचे और भाई तथा तुलसी, दोनों को घर लिवा लाये। माँ उन दोनों को अपनी छाती से लगा कर, खूब-खूब रोयीं। मुझे भी बेहद खुशी हुई।
मैंने तुलसी का गाल मसल कर कहा, 'कैसा कमाल का काण्ड किया तूने! तेरे मन में यह कुछ था?'
‘अब यह तू-तुकारी नहीं चलेगा। अब 'तुम' कहना पड़ेगा।'
भाई ने भी कहा, 'अपनी भाभी को 'तू' कह रही है?"
मुझे इतनी ज़ोर की हँसी आयी-अभी कल की लड़की, तुलसी! आज माथे पर पल्ला डाल कर, 'भाभी' सज कर बैठी है। उसे देख कर मैंने भी मन-ही-मन, अपने माथे पर पल्ला डाला और कलपना करती रही कि मंसूर के घर में, इस रूप में मैं कैसी दिसूंगी। कौन जाने, मुझे भी तुलसी की तरह, ऐसा ही कोई हथकण्डा इस्तेमाल करना होगा या नहीं।
तुलसी दोपहर को ही बावर्चीख़ाने में चली गई। मेरी माँ को आराम से 'माँ' बुलाने लगी। यह-वह काम करने में भी जुटी रही। यह सब देख कर, मुझे ताज्जुब होता रहा। तुलसी ने खाना पकाना कब सीखा?
तुलसी को मैंने मंसूर के बारे में कुछ नहीं बताया।
शाम को उससे गपशप के इरादे से मैंने कहा, 'चल, छत पर चलते हैं।
'रुक जा, माँ से कह आऊँ।'
माँ की अनुमति ले कर, तुलसी छत पर चली आयी।
उसने माथे पर बिन्दी लगायी थी। वह बहुत सलोनी लग रही थी। वे मेरे भाई की दुल्हन थी। तुलसी नामक पड़ोसन सहेली से अब, वह ज़्यादा अपनी और सगी लगी। बल्कि उसे तो अब एक ‘सरप्राइज' दिया जाये। जैसे उसने हम सबको बिना बताये, भाई से विवाह करके, एक सरप्राइज़ दिया, वैसे मैं भी मंसूर से जम कर इश्क़ करूँगी और अचानक उससे विवाह कर लूँगी और तुलसी से पूछूगी-'देखो, इसे पहचानती हो या नहीं?'
उस वक़्त, मारे अचरज के तुलसी की आँखें आसमान पर जा चढ़ेंगी और वह अपने माथे पर हत्थड़ मार कर कहेगी-'अरे, ये तो मंसूर भाई हैं।'
वैसे छत पर खड़े हों, तो वहाँ से तुलसी का घर साफ़ नज़र आता है! लेकिन, तुलसी ने उस तरफ़ देखा ही नहीं।
मैंने ही कहा, 'देख, देख, वो रही तेरी माँ...इधर ही देख रही है।'
'देखती है, तो देखने दो। उनकी बेटी सुखी तो है।'
'मामा के यहाँ इतनी तकलीफ़ सही, उसके बाद भी सुखी है?'
'प्यार मिल जाये, तो और किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं पड़ती।
'यह तू क्या कह रही है, तुलसी? तू इतनी भली कब से हो गयी?'
'क्यों, बुरी कब थी?'
'भाई को इतना प्यार करती है, वही भाई कभी रूमू के प्रेम में गिरफ़्तार थे।'
'तेरे भाई तो निहायत भलेमानस हैं। ऐसा भलामानस मैंने अपनी ज़िन्दगी में बहुत कम देखा है।'
मैंने रेलिंग पर टिक कर देखा, 'तू मुझे बेहद प्यारी लगने लगी है, तुलसी! सुन, तू भाई को ज़िन्दगी भर यूँ ही प्यार करती रहना।'
'बता, अपनी बता! तेरी क्या ख़बर है? किसी से प्यार-व्यार...?'
होटों पर ईषत रहस्यभरी मुस्कान खिला कर, गाने में अनाड़ी होने के बावजूद, मैं गा उठी, 'धीरे! धीरे! धीरे बहो! ओ जी उत्ताल हवा!'
गाना रोक कर मैंने तुलसी की ठुड्डी हिला कर कहा, 'उसके साथ...कल मेरी होगी मुलाक़ात! समझीं, सोनाभाभी!'
तुलसी छत पर टहलती रही। अपनी आँखें क्या जबरन हटायी रखी जा सकती हैं? मेरी निगाहें तुलसी के घर की तरफ़ जा पड़ी। उसके घर का आँगन, यहाँ से साफ़ नज़र आ रहा था। उसके घर के आँगन के बीचों बीच, तुलसी का पौधा! अचानक मेरी निग़ाह, तुलसी पर जा पड़ी। तुलसी मुझसे नज़र बचा कर, अपने घर के आँगन के उस पौधे को निरखती हुई, रो रही थी।
'अरे, तुलसी, तू रो क्यों रही है? घर की याद आ रही है? ठीक है, कल मैं माँ से कह कर, तुझे, तेरे घर ले चलूंगी।'
मुझसे लिपट कर, तुलसी और ज़ोर-ज़ोर से रो पड़ी।
तुलसी क्या सचमुच सुखी है या सुखी होने का नाटक कर रही है, मेरे पल्ले नहीं पड़ा। जहाँ तक मेरी समझ में आया है, तुलसी को अपने सगे-सम्बन्धी याद आ रहे हैं।
मैंने उसे और कस कर अपनी छाती से लिपटा लिया और उसे तसल्ली देते हुए कहा, 'सुन, तुलसी, तू सिन्दूर लगा या कर, कलाई में शाँखा पहना कर। अपने माँ-बप्पा के पास जाया-आया कर! दुर्गा-पूजा आ रही है। तू पहले की तरह ही जश्न मनाना। सुन, तू उदास मत हो, तुलसी! मैं माँ को समझाऊँगी।'
तुलसी की रुलाई और तेज़ हो गयी।
तुलसी के लिए मुझे बेहद तकलीफ़ होती है। वैसे हर इन्सान के मन में थोड़ा-थोड़ा दुख बसा ही होता है। तुलसी महासुखी लगती थी, लेकिन उसकी रुलाई ने मुझे समझा दिया कि असल में वह सुखी नहीं है। इतना दुख-सुख मुझे बिल्कुल नहीं सुहाता। दुनिया के सभी लोग सुखी क्यों नहीं हो पाते? मैं ज़रूर सुखी होऊँगी, यह मुझे विश्वास है। मंसूर क्या कभी कोई ऐसी हरक़त करेगा, जो मुझे रुला दे या मुझे रोना पड़े? मुझे विश्वास नहीं होता।
मैं तुलसी को नीचे ले आयी।
'चल, मुँह-हाथ धो ले और लेटी रह। भाई आ जायें तो हम सब मिल कर चाय-मुरमुरों का नाश्ता करेंगे। ठीक है?'
भाई शाम के बाद लौटे। तुलसी के लिए वे लाल किनारेदार, हरे रंग की साड़ी ख़रीद कर लाये हैं। साड़ी देख कर, तुलसी खुश हो गई। शाम का दुख भूल कर, वह हम तीनों के लिए चाय बना लायी।
माँ ने भाई की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा, 'बेटा फ़रहाद, अब तुलसी को ज़रा नमाज़, कलाम पढ़ना सिखाओ। अब से उसका नाम फ़रज़ाना सुलताना होगा। यह नाम मैंने पसन्द किया है।'
भाई सर झुकाये बैठे रहे।
'ठीक है, माँ, देखा जायेगा। भाई ने जवाब दिया।
इस बीच तुलसी चाय ले आयी।
'यहाँ तो आओ, बहू!' माँ ने उसे पास बुलाया।
भाई और तुलसी, दोनों को अगल-बग़ल खड़ा करके, माँ ने जाने क्या-क्या बुदबुदा कर, उनके चेहरे-आँखों पर फूंक मारी।
अन्त में उन्होंने हिदायत दी, 'बेटा, अब से तुम बहूरानी को फ़रज़ाना नाम से बुलाना-'
मैंने देखा, भाई सिर झुकाये खड़े रहे। फ़रज़ाना नाम से बुलाने के हुक्म के विरोध में उन्होंने जूं तक नहीं किया। तुलसी भी चुप! दोनों प्राणियों ने माँ का आशीर्वाद लिया।
काफ़ी देर खड़ी रह कर, मैं भी अपने कमरे में चली आयी।
मैंने सेवा-सेतु से कहा, 'भाभी को तुम लोग खूब-खूब प्यार करना। ठीक है? भाभी काफ़ी लक्ष्मी-बेटी है।'
सेतु-सेवा ने कहा, 'लेकिन, माँ ने तो कहा है कि भाई के कमरे में मत जाना।
* * * * *
मेरा इन्तज़ार ख़त्म होने का वक़्त क़रीब आ पहुँचा।
शनिवार की सुबह, मैंने नये कपड़े पहने। हल्का-सा मेकअप किया। हल्की लिपस्टिक लगायी। कानों में, ड्रेस से मेल खाते हुए ईयरिंग! आँखों में काजल! भाई के कमरे से परफ्यूम ले कर, मैंने अपने कपड़ों और दुपट्टे पर छिड़क लिया। आईने के सामने खड़े होकर, बार-बार घूम-फिर कर अपने को निखरा-परखा। अपने को ही मैं ख़ासी खूबसूरत लगी। गुलाबी क़मीज, हल्की-नीली सलवार और आसमानी रंग का दुपट्टा! ख़ासी जंच रही थी मैं! मैंने बालों की चोटी बना ली।
मैंने तुलसी से पूछा, 'क्यों, कैसी लग रही हूँ, बता तो?'
'बे-हद, खूबसूरत!' इतना कह कर, उसने मेरे हाथ में एक खत सौंप कर, फुसफुसाहट भरी आवाज़ में कहा, 'जाते हुए, रास्ते में मृदुल'दा को दे देना।'
लेकिन मुझे उस घर में जाने की मनाही थी। अब्बू ने ही यह हुक्म जारी किया था। मृदुल'दा के हाथ में ख़त में ख़त थमाने के लिए, तुलसी मुझे उसी मृदुल'दा के घर में जाने को कह रही है? अगर कहीं, किसी को इस बात की खबर हो गयी, तो शर्तिया मैं मुसीबत में पड़ जाऊँगी। चलो, मुसीबत आयेगी तो आये, मैं जाऊँगी।
उन लोगों के घर का गेट खोल कर, मैं सीधे मृदुल'दा के कमरे में पहुंची। मृदुल'दा लेटे हुए थे। मुझे देख कर, वे हड़बड़ा कर उठ बैठे। उन्हें और ज़्यादा परेशान न करके-'आपका ख़त-' कहकर, मैंने वह ख़त उनके हाथ पर रखा और तेजी से वापस लौट आयी।
आज मुझे ढेरों काम है। यूनिवर्सिटी में भी आज मैं कोई क्लास नहीं करूँगी। आज मुझे मंसूर से मिलना है। आज वह मेरे लिए क्रिसेन्ट लेक के सामने खड़ा होगा, मेरा इन्तज़ार कर रहा होगा। मेरे लिए आज यूनिवर्सिटी की क्लास-क्लास, सब कुछ तुच्छ है। आज मेरे लिये एक ओर समूची दुनिया है, दूसरी ओर मंसूर! मैं मंसूर को ही चुनूँगी।
मंसूर का ख़त रातों को जाने कितनी ही बार पढ़ चुकी हूँ। हर रात, सोने जाने से पहले, ख़त को किताब में रख कर, किताब लिये-दिये मैं मसहरी में जा घुसती हूँ। देर रात तक ख़त के अक्षरों को छू-छूकर, मंसूर का प्यार परखती रही हूँ।
आज मैं एक भी क्लास नहीं करूँगी। बार-बार घड़ी देख रही हूँ। घड़ी में जब बारह बजेंगे, तभी मैं चल पढूंगी। मंसूर ने साढ़े बारह बजे का वक्त दिया है। आधे घण्टे में पहुँच जाया जायेगा। ग्यारह बजे से ही मेरे दिल की धक-धक तेज़ हो गयी। क्या करूँ? अगर अभी भी रवाना नहीं हुई और अगर साढ़े बारह बज गये और मंसूर मुझे वहाँ न पाकर, अगर लौट जाये, तो? इसके अलावा, अभी तो फूल भी ख़रीदना है।
रिक्शा ले कर, मैं 'मालंच' आ पहुँची। पूरे दो सौ रुपयों के फूल खरीद डाले। गुलाबों को सजाने में दुकानदार ने काफ़ी वक़्त ले लिया। अब, मैं रिक्शा लूँ या स्कूटर? सवा ग्यारह बज गये, रिक्शा ही ले लूँ। मंसूर ज़रूर दूर से ही मुझे आते हुए देख लेगा। मैं क्या असुन्दर दिख रही हूँ? मैंने आईने में अपने को देखा, यह पोशाक मुझ पर, काफ़ी सूट कर रही है, पाँवों में चप्पल भी खूब अँच रही हैं। मंसूर समझ जायेगा कि लड़की में खासा रुचिबोध है।
रिक्शा शाहबाग़ पार करके, एलिफैण्ट रोड होते हुए, धानमण्डी आ पहुँचा। शिमुल के यहाँ से तस्वीर नहीं ले सकी। बिचारी के पिता का इन्तक़ाल हो गया और तस्वीर अधूरी छोड़ कर, वह चली गयी। केलाबाग़ान, शुभानबाग़ पार करके, रिक्शा तेजी से आगे बढ़ता जा रहा है। मेरे अन्दर मानो कोई सर्द चीज़ बार-बार हिल-डुल उठती है। लेकिन अपने साहसी होने का भी एहसास हो आया है। इसी तरफ़ ख़ाला का भी घर है। अगर किसी जान-पहचान वाले ने मुझे देख लिया, कि दिन के बारह बजे मैं यूनिवर्सिटी की उलटी दिशा में कहीं जा रही हूँ और उसने अब्बू या माँ को खबर कर दी, तो मेरी खैर नहीं। यूँ भी भाई के मामले में ऊपर से चाहे जितनी भी उदारता दिखा रहे हों, अन्दर-ही-अन्दर भयंकर क्रुद्ध हैं। तुलसी को इन लोगों ने अपने घर में भले शामिल कर लिया हो, मगर उसे फ़रज़ाना बनाये बिना नहीं मानेंगे। माँ का जो स्वभाव है, लगता है कि नमाज़-रोज़ा पाठ पढ़ा कर ही मानेंगे। उसके बाद, अड़ोसी-पड़ोसी, आत्मीय-स्वजनों के घर-घर जा कर यह प्रचार कर आयेंगे कि फ़रज़ाना तो पाँचों वक़्त नमाज़ पढ़ती है, सारे रोज़े रखती है। कोई नहीं चाहता कि उनका सामाजिक आसन डगमगाए। लगता है कि भाई भी अपने परिवार और समाज से समझौता करते हुए चल रहे हैं। लेकिन प्यार में कोई समझौता क्यों हो? अबाध और शर्तहीन प्यार क्यों न हो? प्रेम को तो तमाम जंजीरों से मुक्त रहना चाहिए। मेरी समझ से प्रेम का मतलब है आपस में प्रबल प्यार, एक-दूसरे के प्रति अटूट विश्वास! प्रणयी युगल एक-दूसरे के सपनों और सम्भावनाओं में बाधक नहीं, प्रेरणा बनें।
मंसूर के प्रति मेरे मन में विश्वास जन्म ले चुका है। वह ज़रूर मेरी अपेक्षाओं और आकांक्षाओं का सम्मान करेगा। मंसूर के लिए मैंने फूल ख़रीदे हैं। अब्बू से कल सुबह ही मैंने तीन सौ रुपये।
अब्बू ने पूछा, 'अचानक इतने सारे रुपये किसलिये?'
'जरूरत है! डिपार्टमेंट में एक कार्यक्रम होनेवाला है, चन्दा देना है।'
अब्बू ने तीन सौ रुपये दे दिये।
मैं कभी झूठ नहीं बोलती, लेकिन कल बोलना पड़ा। और कोई उपाय भी क्या था? मंसूर के लिए मैं कुछ भी ले कर न जाऊँ, फूल भी नहीं, इसकी तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकती। इसलिए लाचारी में अब्बू से झूठ बोलना पड़ा। कहने को तो मैं सच बोल सकती थी, लेकिन तब रुपये नहीं मिलते।
क्रिसेन्ट लेक की तरफ़ रिक्शे आने-जाने की मनाही है। मैं मोड़ पर ही उतर गयी। मुझे कहीं डर भी लग रहा है, दोपहर के वक़्त इस जगह, काफ़ी सन्नाटा रहता है। इस तरफ़ यूँ अकेली-अकेली मैं कभी नहीं आयी। पता नहीं, इतना साहस करके, मैंने कोई भूल की है या नहीं। कई-कई लोग मुझे घूर रहे हैं, कई हमउम्र लड़के-लड़कियाँ मेरी ओर देख-देख कर हँस भी रहे हैं। मैं उन सबकी निगाहें घुमा कर, सीधे अपनी राह चलती रही। मेरी नज़रें नीली होण्डा सिविल कार खोजती रहीं, नीला आसमान, नीली गाड़ी, मैं, मंसूर...यह सब सोचते हुए भी काफ़ी भला-भला लग रहा है।
पैदल चलते-चलते मैं काफ़ी दूर चली आयी। मैं दाहिने-बायें तलाश करती रही। नीली गाड़ी कहीं नहीं थी। घड़ी में कुल बारह बज कर दस मिनट हुए थे। मैं काफ़ी पहले पहुँच गयी थी। मैं आगे बढ़ती रही, लेक की सीढ़ियों पर अग़ल-बग़ल कई जोड़े बैठे हुए। ज़रा दूरी रख कर, मैं भी वहीं बैठ गयी, क्योंकि साढ़े बारह बजे तक मुझे इन्तज़ार करना होगा। मूंगफली बेचने वाले को बुलाकर, मैंने दो रुपये की मूंगफली भी ख़रीद ली। मेरे मन में कहीं यह ख़ौफ़ भी समाया हुआ था कि अगर कोई मुझे यूँ अकेली-अकेली बैठी देखे, तो शायद पागल-छागल ही समझ ले। खैर, जो समझना है, समझे! मंसूर आ जाये, तो सारा झमेला ही ख़त्म हो जायेगा।
मेरी निगाहें बार-बार घड़ी पर जा ठहरती हैं।
वैसे इस जगह मैं पहले भी दो बार आ चुकी हूँ।
...भाई ही हमें ले कर आये थे। साथ में सेतु-सेवा भी थीं, उन दोनों ने चटपटी खाई थी, मैंने और भाई ने गोलगप्पे! भाई का मूड अच्छा होता था. तो हमें साथ ले कर. इसी तरह सैर-सपाटे पर चल पड़ते थे। ज़्यादातर मुझे साथ ले कर सैर पर निकल पड़ते थे।
....एक बार, काफ़ी छुटपन में, भाई साईकिल चलाना सीख रहे थे।
उन्होंने मुझसे कहा, 'आ, साईकिल पर बैठ जा।'
मैं महाखुश!
वे साईकिल चलाते रहे...चलाते रहे। अचानक साईकिल उलट गयी।
मेरे हाथ-पैर छिल गये। वे मुझे ले कर घर लौटे और अपने तथा मेरे घावों पर, बड़े जतन से डेटॉल लगाया। माँ ने अब्बू को कुछ नहीं बताया।
लेक का पानी कितना स्वच्छ है! मुझे तैराकी नहीं आती, मंसूर को ज़रूर आती होगी! ऐसे स्वच्छ पानी में अगर मंसूर और मैं, तैरने उतरें, तो क्या हालत होगी, यह ख़याल आते ही मुझे बेभाव हँसी आने लगी। चलो, ठीक है! मंसूर मुझे तैरना सिखा देगा।
वह कहेगा, 'दाहिना हाथ फैलाओ, अब पैर चलाओ।'
तैरने की कोशिश में, ढेरों पानी-वानी पी कर, मेरी कैसी बरी हालत हो जायेगी। मंसूर बेतरह परेशान हो उठेगा। धत्! मंसूर को परेशान-हाल देखने का, मेरा बिल्कुल मन नहीं चाहेगा।
साढ़े बारह बज गये! पौने एक बजा! एक भी बज गया। मैं बेचैन हो उठी। सीढ़ियों पर बैठे-बैठे, पेड़ से टिके-टिके, टहलते-टहलते, मैं उसी का इन्तज़ार करती रही।
उसी समय, बायीं तरफ़ से एक नीली गाड़ी आ कर, कुछ दूर पर रुक गयी। मंसूर गाड़ी से नीचे उतरा। उतरते ही वह मुझे देख ले, कहीं ऐसा न हो कि मैं उसे नज़र न आऊँ और वह लौट जाये-यह सोच कर, लगभग दौड़ कर, मैंने आपस की दूरी कम कर डाली।
मंसूर गाड़ी से टिका-टिका आस-पास खोज भरी निगाहों से देखता रहा, मैं उस तक पहुँच कर, विल्कुल आमने-सामने जा खड़ी हुई।
अपना सनग्लास उतार कर, वह मुस्कराने लगा।
मैंने उसे फूलों का गुच्छा थमा दिया।
फूल लेते हुए मंसूर ने कहा, 'चलो, गाड़ी में बैठो।'
वह खुद ड्राइव कर रहा था। उसकी बायीं तरफ़ मैं बैठी हुई। गाड़ी के अन्दर मीठी-सी खुशबू! कैसेट पर गाना बजता हुआ–'प्रथमतः मुझे तुम चाहिए। द्वितीयतः मुझे तुम चाहिए! नृतीयतः मुझे तुम चाहिए! अन्ततः तुम ही चाहिए...।' गाना सुन कर मेरा मन-प्राण जुड़ा गया। यह तो मेरे ही दिल की बात है।
मंसूर गाड़ी चलता रहा और बार-बार मुझे लिखता-परखता रहा। गाड़ी का लुकिंग-ग्लास इस क़ायदे से घुमा रखा था कि उसमें मेरी सूरत दिखती रहे। मंसूर कितनी ग़ज़ब का रोमांटिक है। ग्लास पर नज़र जाते ही, मेरी और उसकी आँखें एक-दूसरे से टकराती हुईं। वह हँस रहा था! कितनी मासूम है, उसकी हँसी! कोई कुछ नहीं बोल रहा था। मैं सोचती रही, पहले मैं ही बातचीत की पहल करूँ।
लेकिन मंसूर ने ही बातचीत की शुरुआत की, 'मुझे आने में देर हो गयी। एक काम में फंस गया। तुम्हें आये कितनी देर हुई?'
‘बहुत देर!'
'आई एम सॉरी!' कहते हुए, मंसूर ने मेरे दाहिने हाथ पर हौले-से हाथ रखा।
मैं ज़रा-सी सकुचा भी गयी।
मंसूर कहाँ जा रहा है, मुझे नहीं मालूम!
एक बार ख़याल भी आया कि उससे पूछूँ, लेकिन इसकी क्या ज़रूरत है? पतवार उसके हाथ में है! जब मैंने ही कहा है कि बहा ले चलो तरी, अनन्त सागर में, तो दिक्दर्शन यन्त्र अपने हाथ में क्यों लूँ?
मैंने पूछा 'रवीन्द्रसंगीत नहीं है?'
'न्ना! लगता है तुम्हें कवि गुरु रवीन्द्रनाथ के गाने पसन्द हैं?'
मंसूर के इस सवाल ने मुझे विस्मित किया।
'क्यों? तुम्हें नहीं पसन्द हैं?' मैंने पूछा।
मंसूर हँस पड़ा, 'तुम्हारी जुबान से 'तुम' सम्बोधन बेहद प्यारा लग रहा है।'
गाड़ी गुलशन की तरफ़ बढ़ रही थी।
मैंने तो सोचा था कि बातों का कलकल झरना बहा दूंगी। मन में सैकड़ों बातें जमा थीं, लेकिन बोल नहीं पा रही थी। मैं अपनी डायरी साथ ले आयी थी। अगर वह देखना चाहे, तो उसे थमा दूंगी। वह भी देख ले, उसके बारे में सोचते-सोचते, कितने लम्बे-लम्बे दिन, कितनी लम्बी-लम्बी रातें गुज़ारी हैं मैंने। मेरे आकाश पर कुल एक सितारा है।
मंसूर को यह पता होना चाहिए कि वह कौन-सा सितारा है! उसका नाम क्या है! वह बात क्यों नहीं कर रहा है? उसके चेहरे की सारी हँसी, सारी मुस्कान मेरे लिए ही तो है। मंसूर सिर्फ मेरे लिये है। मेरा मंसूर! यह सब सोचते हुए, मेरे हाथ-पाँव, अंग-अंग अवश हो आये। लगता है, मैं बेहोश हो जाऊँगी। मंसूर मुझे प्यार करता है। मंसूर किसी दिन मुझे बेहद-बेहद प्यार करेगा...!
* * * * *
गुलशन के एक मकान के सामने मंसूर ने गाड़ी रोक दी। अरे, हाँ, उसका मकान तो गुलशन में ही है? वह क्या अपने सभी घरवालों से मेरा परिचय करायेगा?
मैंने दरयाफ़्त किया, 'यह तुम्हारा मकान है?'
'ना-'
'आओ!' उसने बेहद शान्त आवाज़ में उतरने को कहा।
मैं उसके पीछे-पीछे चली आयी।
दो बड़े-बड़े कमरे पार करके, मैं एक छोटे-से कमरे में दाखिल हुई। बग़ल के कमरे में अंग्रेज़ी गीत बज रहा था। कई लोगों की आवाजें भी सुनाई दीं। एक बड़ा-सा बिस्तर, एक सोफा सेट, एक मेज़, क़रीब ही एक रिवॉल्विंग कुर्सी, फर्श पर लाल रंग की क़ालीन, दीवार पर दो तैल-चित्र-बस, उस कमरे में यही कुछ था, जहाँ मंसूर ने मुझे बैठने को कहा।
'यह मेरे दोस्त का घर है. समझीं?'
'ओ अच्छा !'
'तुम यहाँ आराम से तो हो?'
मैंने सिर हिला कर सहमति जतायी।
मंसूर बग़ल के कमरे में चला गया। गाने की आवाज़ धीमी हो गयी। करीब दस मिनट बाद, वह लौट आया। अपने पीछे-पीछे पाँच और नौजवान भी ले आया था।
उसने हँस कर कहा, 'ये सब मेरे दोस्त हैं। तुम्हें देखने के लिए उतावले बैठे थे।'
जो लड़के खड़े थे, उनके चेहरों पर सलज्ज मुस्कान!
'इसका नाम, लाबू है-'
सिर पर कच्चे-पक्के बाल, काले रंग के उस युवक ने सिर हिलाया।
'इसका नाम है, संगम!'
दुबले-पतले जबड़ों वाला नौजवान मुस्कराया।
'यह है, मुफ़ख्खर-'
गोरा-चिट्टा, देखने में सुदर्शन, मोटे-मुटल्ले नौजवान ने सिर हिलाया।
'यह है, चिश्ती-'
बदन मासहीन, घुघराले बाल, आँखों पर चश्मा!
'इसका नाम, महमूद है।'
काफ़ी स्वस्थ देह, काला रंग। उसने हँस कर हैंडशेक के लिए हाथ आगे बढ़ा दिया।
मैंने मंसूर की तरफ़ देखा।
उसने हँसकर बढ़ावा दिया, 'शर्म की क्या बात है? हाथ बढ़ा दो।'
इसके बावजूद मैं हाथ समेटे रही।
महमूद ने कहा, 'इट्स ओ के! नो प्रॉब्लम!'
मेरी अभ्यर्थना करके, एक-एक करके, वे पाँचों नौजवान बग़ल के कमरे में वापस लौट गये।
मैं पलकें झुकाये, नाखून खुरचती रही।
मंसूर क़रीब आ कर बैठ गया।
'क्या बात है? तुमने उन लोगों से कोई बात ही नहीं की। वे लोग क्या सोचेंगे, बताओ तो?'
उस वक़्त मुझे अपने पर ही बेतरह गुस्सा आने लगा। वाक़ई, मैं निरी गँवार और अनकल्चर्ड लड़की हूँ। अगर लड़के-लड़के हाथ मिला सकते हैं, तो लड़के-लड़की हाथ मिलाएँ, तो क्या हाथ में छाले पड़ जायेंगे? मुझे हाथ बढ़ा देना चाहिए था। मुझे उनसे थोड़ी-बहुत बात करनी चाहिए थी। लगता है, उन लोगों को मैं पसन्द नहीं आयी।
'यह किसका मकान है?' मैंने सिर उठा कर, सवाल किया। शायद अपनी गँवारू मुद्रा मिटाने के इरादे से ही ऐसा किया था।
'उस लड़के, मुफ़ख्वर को देखा न, गोरा-गोरा? घर उसका है।'
'वे लोग वहाँ क्या कर रहे हैं?'
'अड्डा दे रहे हैं, ताश खेल रहे हैं, गाने सुन रहे हैं।'
'कितना मज़ा आ रहा होगा, है न?'
'हाँ! ऐसे मज़े करने का तुम्हारा मन नहीं करता?'
'खूब करता है। लेकिन माँ-अब्बू अनुमति नहीं देते।'
'अनुमति की क्या ज़रूरत है? अब, तुम बड़ी हो गयी हो या नहीं?'
'हाँ, हो तो गयी हूँ, लेकिन, वे लोग यह नहीं समझते।'
'वे लोग तो, खैर, कभी भी नहीं समझेंगे। तुम वही करो, जो मन करे।'
मंसूर रिवॉल्विंग कुर्सी पर लगभग लेटा पड़ा था, दोनों टाँगें पलंग पर टिकी हुईं। बीच-बीच में वह कुर्सी समेत झूला झूलने लगता था, इधर से उधर लहरा उठता था।
'तुम बेहद खूबसूरत हो, शीला!' वह मेरी तरफ़ मुख़ातिब हुआ।
मैं सकपका गयी। मेरे सीने में जाने कैसी तो कँपकँपी शुरू हो गयी। मैंने नज़रें उठा कर, उसकी तरफ़ देखा। उसका ऐसा अगाध सौन्दर्य कि आँखें, हटाए नहीं हटती थीं, मैं उसे निहारती ही रही। मेरे दिये हुए गुलाब मेज़ पर पड़े हुए थे। मंसूर मुग्ध निगाहों से मेरी तरफ़ देखता रहा। मुझे सबसे ज़्यादा यह देख कर अच्छा लगा कि वह मेरे बदन से सट कर नहीं बैठा, मुझे चूमने की कोशिश नहीं की। यह शख़्स काफ़ी संयमी जीव है, वर्ना ऐसे एकान्त कमरे में, पागलों की हद तक उस पर फ़िदा प्रेमिका को पा कर भी, भला कोई कर्सी पर य बैठा रह सकता है?
मंसूर अपनी कुर्सी से न हिला, न डुला, बस, बार-बार, लगातार मुझे निहारता रहा।
'चाय पीओगी, शीलू?' उसने पूछा।
'शीलू' सम्बोधन सुन कर, मैंने मुग्ध निगाहों से उसे देखा।
उसकी बड़ेरी युगल आँखों में स्नेह मानो उमड़ा पड़ रहा था।
'चाय तो मैं पीती नहीं-' मैंने जवाब दिया।
'चाय के अलावा तो इस घर में कुछ है भी नहीं! मुफ़ख्खर के अब्बा-अम्मी खुलना गये हुए हैं। मुफ़ख्खर ठहरा चरम बोहेमियन जीव! अपनी चाय वह खुद बना कर पी लेता है और एक लड़का है, जो खाना ख़रीद कर पहुंचा जाता है। तुम खाना पकाना जानती हो?'
'थोड़ा-थोड़ा!'
'किसी दिन पका कर खिलाओगी?'
मैं बेतरह लजा गयी।
'मुझे खाना पकाना नहीं आता। मेरा पकाया हुआ खाना भला खाया जा सकता है?' मैंने हँस कर जवाब दिया।
'हूँऽऽ! लेकिन खाऊँगा किसी दिन!'
मंसूर ने एक सिगरेट सुलगा ली। सिगरेट के धुएँ के छल्ले बना कर, उसने हवा में छोड़ दिये।
'पकड़ों तो यह छल्ले! पकड़ सकती हो?'
एक बात मैं बखूबी समझ गयी कि मंसूर के मन में कोई रूढ़ि नहीं है। मैं उसकी प्रेमिका हूँ, उसकी निजी सम्पत्ति नहीं हूँ-वह इस बात पर विश्वास करता है, इसीलिए तो मुझे उसने अपने दोस्तों से भी बातचीत करने को कहा। मैंने हाथ नहीं मिलाया, इस बारे में शिकायत भी की। खैर, धुएँ के छल्ले बना कर, बच्चों से खेला जाता है, मुझ जैसी सयानी लड़की से नहीं, मंसूर मुझे अपना वही शैशव देना चाहता है। शायद वही चिर-आकांक्षित किशोर उम्र! मैं जो-जो चाहती हूँ, वह मुझे इतना ज़्यादा मिल रहा है। यह देख कर मुझे बेहद भला लगा। प्यार की शुरुआत में ही बदन पर हाथ लगाना-वगाना बेहद फूहड़ बात है। मैंने कहानी-उपन्यासों में प्रेम-प्यार के बारे में काफ़ी पढ़ा है। ऐसा भी वक़्त गुज़रा है, जब सारी-सारी रात शरतचन्द्र को पढ़-पढ़ कर, खूब-खूब रोयी हूँ। प्यार बिल्कुल अलग चीज़ है। प्यार में कोई स्वार्थ और देह नहीं जुड़ा होना चाहिए।
मंसूर मेरे सपनों का वही पुरुष था, जिसके लिए शायद मेरा जन्म हुआ है। जिसकी वजह से ही, मेरा यह जीवन सार्थक है।
मंसूर ने अचानक अपनी घड़ी पर नज़र डाली और हड़बड़ा कर, कुर्सी छोड़ कर उठ खड़ा हुआ।
'अचानक एक ज़रूरी काम आ पड़ा है। अभी, इसी वक़्त मुझे 'साभार' जाना होगा। वहाँ हमारे कारखाने के श्रमिक-कर्मचारियों में कोई फ़साद हो गया है। वैसे ये सब झमेले, तुम नहीं समझोगी। उसके वाद, मुझे एयरपोर्ट जाना है, कुछेक विदेशी सामान आने वाला है।'
मंसूर ड्रॉइंगरूम की तरफ़ चला गया, जहाँ उसके दोस्त बैठे-बैठे गपशप कर रहे थे।
वहाँ से लौट कर, उसने कहा, 'इस घर की तरफ़ से तुम्हें निमन्त्रण है! दोपहर के वक़्त आ जाना। ठीक है? हम सब मिलकर खायेंगे-पीयेंगे। मुफ़खखर को संकोच हो रहा है कि तुम भरी दोपहरी में आयीं और तुम्हें बिना कुछ खिलाये-पिलाये, विदा करना पड़ रहा है। मैंने भी सोचा था कि अगर कोई काम न आ पड़ा, तो हम, कहीं बाहर खायेंगे, यहाँ गपशप भी कर लेंगे। यह घर सुरक्षित है। लेकिन सुबह-सुबह ही कारखाने में गड़बड़ी की ख़बर आ पहुँची।'
मैंने ड्रॉइंगरूम में एक बार झाँक कर, 'चलती हूँ, कल आऊँगी-' वगैरह औपचारिक जुमले दुहरा कर, विदा ली।
मंसूर ने खुद ही दरवाज़ा खोल दिया।
स्टीयरिंग पर हाथ रख कर उसने एक बार फिर मीठी-सी हँसी बिखेरी। उसकी हँसी में मोती झर रहे थे।
'तुम्हें क्या रुकैया हौल तक छोड़ दूं?'
'ना-'
'क्यों? तुम तो उसी हॉल में ही रहती हो न?'
'नहीं, घर में रहती हूँ। घर, शान्तिनगर में है। अच्छा, एक बात तो बताओ, तुमने पहली बार मुझे कहाँ देखा था?'
'क्यों? बनानी की आढ़त में!'
'उससे भी पहले, किताबों की किसी दुकान के सामने? उससे पहले, किसी घर में? गानों के कार्यक्रम में?'
मंसूर ने दुविधाग्रस्त मुद्रा में सिर हिलाया, जिसका मतलब था, 'ना' या उसे याद नहीं आ रहा है।
'तुम्हें मैं कहीं आस-पास छोड़ दूँ, शीलू? असल में, मुझे बेहद जल्दी है।'
'ठीक है! ठीक है!'
'कल आ जाना! कल के लिए तुम्हें निमन्त्रण रहा।'
'हाँ, ज़रूर आऊँगी।'
'घर तो पहचान लोगी न?'
'हाँ, पहचान लूंगी।'
'स्कूटरवाले से कहना-गुलशन, एक नम्बर मार्केट के पीछे। घर का नम्बर तो याद है न?'
'हाँ, याद है।'
'कल खूब सारी बातें होंगी, शीलू! तुम बेहद लक्ष्मी-लड़की हो! कल साड़ी पहन कर आना।'
मुझे मगबाज़ार उतार कर, मंसूर बांग्ला मोटर की ओर बढ़ गया। वह जितनी दूर तक नज़र आता रहा, मैं उसे देखती रही।
असल में, मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मंसूर से आज मैं सचमुच मिली हूँ। मैं काफ़ी देर तक मगबाज़ार के मोड़ पर ही खड़ी रही।
मुझे लगा, दोपहर एक बजे से ले कर ढाई बजे तक, जो-जो घटनाएँ घटी, सब किसी सपने की बेसुधी में घटी हैं। असल में, सब कुछ हवाई था! निरा शून्य! रिक्शा ले कर शान्ति नगर की तरफ़ जाते-जाते, मंसूर की हर बात, हर हाव-भाव, उसके दोस्तों के नाम, शक्ल-सूरत-सब कुछ मेरे मन की आँखों में तैरता रहा। मैंने ज़रूर कोई ग़लती नहीं की, मेरे हाव-भाव स्वभाव में ऐसा असंलग्न कुछ भी नहीं था, जिसके आधार पर वे लोग कह सकें कि वह लड़की बुद्धि विचारहीन थी।
घर लौटते ही, दरवाज़े पर ही खड़ी तुलसी पर मेरी नज़र पड़ी! चेहरा परेशान!
'शीला, मेरे माँ-बप्पा यहाँ से जा रहे हैं।'
'तुझे कैसे पता?'
'मृदुल'दा ने खत भेजा है।'
तुलसी ने अपने आँचल की खूट से बँधा ख़त निकाल कर मुझे दिखाया।
ख़त में लिखा हुआ था-
'तुलसी, तूने अपने सुख के लिए घर छोड़ा है। भगवान करे, तू सुखी हो। लेकिन, हम लोग जा रहे हैं। घर बेचने की तोड़-जोड़ चल रही है। बप्पा ने फ़ैसला दिया है कि हम कलकत्ता, चाचा लोगों के पास चले जाएँगे। शायद, अगले महीने ही चले जायें।-इति, मृदुल कान्ति चक्रवर्ती!'
तुलसी का चेहरा लटका हुआ। अगले महीने तक वह घर बिक जायेगा। इतना प्राचीन घर! तुलसी का तो जन्म ही वहाँ हुआ था। यादें, इन्सान की बहुत बड़ी सम्पत्ति होती हैं। इन्सान रुपये-पैसे, गाड़ी मकान, बेहिचक खो देने को तैयार हो जाता है, लेकिन यादें कभी भी खोना नहीं चाहता। तुलसी का दुख, मैं समझती हूँ। उसके माँ-बप्पा का दुख भी समझ में आता है। असल में, यहाँ, इस घर में, मैं एक ऐसी महत्वहीन इन्सान हूँ कि मेरे सलाह-मशविरे का कोई मोल नहीं है, वर्ना दो खानदानों में, इस विवाह नामक घटना से पहले जैसी पक्की दोस्ती थी, वैसी ही अटूट दोस्ती, हर शर्त पर कायम रखने की व्यवस्था की जाती। इसके लिए अगर कुछ त्याग भी करना पड़े, तो दोनों ख़ानदानों को करना चाहिए था। फ़िलहाल, यह सब मेरे सोचने का विषय नहीं है। कल मेरा निमन्त्रण है। मंसूर ने कल मुझे साड़ी पहनने को कहा है। लेकिन, मुझे तो साड़ी पहननी आती ही नहीं और मेरे पास कोई साड़ी भी नहीं है, माँ से नहीं, सोचती हूँ, भाभी से एक साड़ी माँग लूँ। तुलसी की इस विपदा के वक़्त, उनसे कुछ माँगना, हरगिज़ शोभन नहीं होगा।
वह शाम और रात खासी बेचैनी में गुज़री।
कल मेरा निमन्त्रण है।
अगर मैंने साड़ी पहनी, तो माँ झट सवाल करेगी-साड़ी क्यों पहन रही है? माँ को कुछ कह-सुन कर समझाना होगा। लेकिन उनसे क्या कहा जाये? यह कहा जा सकता है कि-'नवीन वरण उत्सव मनाया जा रहा है, आज सबको साड़ी पहनने को कहा गया है।' बस, बच जाऊँगी। लेकिन, अगर उन्हें पता चल गया कि 'नवीन वरण' उत्सव हुआ ही नहीं, तो कह दूंगी-'उत्सव होने वाला था, हुआ नहीं!' या यही कह दिया जाए कि 'नादिरा के यहाँ निमन्त्रण है।'
रात भर बिल्कुल भी नींद नहीं आयी। मेरे साथ ऐसा कभी नहीं हुआ। ऐसी निद्राविहीन रात, मेरी ज़िन्दगी में शायद ही कभी आयी हो। उस दिन मुँह-अँधेरे ही मैंने बिस्तर छोड़ दिया और आँगन में टहलती रही।
सेतु-सेवा को भी उपदेश दे डाला! 'सुबह-सवेरे उठ जाना अच्छा होता है, तुम दोनों भी भोर-भोर उठने की कोशिश किया करो।'
'फ़रहाद कैसा है, री, शीला?' सबेरे नींद खुलते ही अब्बू ने मुझसे सवाल किया।
मैं कोई जवाब नहीं दे पायी।
अब्बू ने आँगन में टहलते हुए फिर कहा, 'सुना है, फरहाद नौकरी खोज रहा है। लेकिन, मैं पूछता हूँ, नौकरी-चाकरी करके, वह क्या करेगा? इससे बेहतर है, उसे मेरे ऑफ़िस में भेज देना।
उसे रुपये-पैसों की जो ज़रूरत लगे, मुझसे ले लिया करे। उसे नौकरी खोजने को मना कर दे। अगर उसने परीक्षा नहीं दी, तो मैं सचमुच उसे घर से निकाल बाहर करूँगा।'
अब्बू भी न! ख़ामख्वाह कठोर होने की कोशिश करते हैं। असल में वे काफ़ी नरम-दिल इन्सान हैं। अब्बू के प्यार का, किसी को यूँ ही...आसानी से अन्दाज़ा नहीं लगा सकता। लेकिन कान अगर खुले रखे, तो उसकी समझ में आ जायेगा, उनका प्यार चल-फिर रहा है; पैर दबा-दबा कर बिलैया की तरह, चुपचाप गतिशील है।
मैंने इस घर के सभी लोगों को चकमा दिया। किसी को भी अन्दाज़ा नहीं हो सका कि कल मैं कहाँ गयी थी, मैंने किससे बातें कीं। कोई नहीं जान पाया कि कल मैंने गुलशन के किसी मकान में, मंसूर नामक एक बेहद खूबसूरत नौजवान से बातें कीं। आज भी उस घर में मेरा निमन्त्रण है। दोपहर का खाना, वे लोग शायद बावर्ची बुला कर, तैयार करायेंगे या हो सकता है बाहर से पैकेट-लंच ले आयेंगे। वैसे मंसूर मुझे अपने घर भी ले जा सकता था, लेकिन शायद कोई परेशानी रही होगी। वह इश्क कर रहा है, यह बात अगर उसके घरवालों को पता चल गयी, तो वे लोग भी भला क्या सोचेंगे?
मंसूर से एक ग़लती तो हुई है। उसे याद ही नहीं है कि मुझसे उसकी पहली मुलाकात, मृदुल'दा के यहाँ हुई थी। वैसे, उस दिन उसने मुझे गौर से नहीं देखा था, यह भी सच है। आज मृदुल'दा का प्रसंग छेड़ कर, उसे बेतरह चौंका दूँगी। उसने मुझसे यह नहीं पूछा कि मैं कौन-सी पढ़ाई कर रही हूँ, कहाँ पढ़ती हूँ। बस, रुकैया-हॉल का पता देख कर, उसने ज़रूर यही सोच लिया कि मैं विश्वविद्यालय की छात्रा हूँ। वैसे भी, कल तो उससे बिल्कुल बातचीत ही नहीं हुई। मैंने सोच लिया है, आज मैं अनर्गल, खूब-खूब बातें करूँगी। एक-दूसरे की ज़िन्दगी के बारे में अगर दोनों जन न जानें, तो प्रेम कैसे होगा?
तुलसी काफ़ी देर से जागी।
अपने कमरे में बैठी-बैठी, मैं अस्थिर हो उठी। काफी देर तक, मैं बरामदे में चहलकदमी करती रही। माँ, ख़ाला के यहाँ चली गयी, अब्बू दफ़्तर!
भाई के कमरे में जा कर, मैंने तुलसी से पूछा, 'तुलसी, मुझे एक साड़ी दोगी, आज पहनने के लिए?'
'मेरे पास ज़्यादा साड़ियाँ तो नहीं हैं। तुम देख लो, कौन-सी पहनोगी।'
'साड़ी तुम्हें पहनानी भी होगी मुझे।'
'पहना दूंगी।'
तुलसी ने कई साड़ियाँ निकाल कर मेरे सामने रख दीं। मुझे उसकी नयी साड़ी पसन्द आयी।
'यह वाली पहनूँगी।' मैंने कहा।
तुलसी का ही नया ब्लाउज़ भी पहन लिया। वह ब्लाउज़ मुझे बिल्कुल फिट आया। हाँ, उसके निचले हिस्से में, बस, एक सेफ्टीपिन लगानी पड़ी।
भाई पूछ बैठे, 'बूढ़ियों की तरह, तू साड़ी क्यों पहन रही है?'
'फंक्शन है! साड़ी पहनना ज़रूरी है।'
तुलसी ने चुन्नट डाल कर, साड़ी पहना दी।
'ख़ासी हसीन लग रही है! देखना, कहीं फुर्र मत हो जाना।'
'किसी-न-किसी दिन फुर्र हो ही जाऊँगी, भाभीजान!' मैंने रहस्यमय मुद्रा में, आँखें नचाकर जवाब दिया।
'मुझे बताकर फुर्र होना! मैं रोकूँगी नहीं! बल्कि तेरे दल में शामिल हो कर, तेरा पक्ष भारी कर दूंगी।'
चूँकि आज मैंने साड़ी पहनी थी, इसलिए तुलसी ने मेरे चेहरे की भी सजावट कर दी। माथे पर लाल विन्दी! होटों पर लिपस्टिक!
'माथे पर, कोने में नज़रबटू भी लगा दूँ?' उसने पूछा।
भाई बिस्तर पर लेटे-लेटे कोई पत्रिका पढ़ रहे थे।
'सुन, जल्दी लौट आना, शीला! आज शाम, तुम लोगों को साथ ले कर, रतन के घर जाऊँगा।'
'मुझे भी ले चलोगो?' मैं महाखुश!
भाई अब काफ़ी घरेलू...काफ़ी अपने हो आये हैं।
* * * * *
सज-धज कर, साड़ी लपेट कर, ठीक साढ़े बारह बजे मैं एक स्कूटर पर सवार हो गयी। स्कूटर से मैंने गुलशन, एक नम्बर चलने को कहा। मैं मकान पहचान लूँगी। वह मकान ऐसी गली-घुच्ची में नहीं है।
मैं ठीक-ठीक ठिकाने पर पहुँच गयी। मैंने दरवाजा खटखटाया। पर्स से आईना निकाल कर, मैंने चुपके-से एक बार चेहरे का मुआयना भी कर लिया। बाल-वाल ठीक-ठाक हैं न!
मंसूर ने दरवाज़ा खोल दिया। आज उसने कत्थई रंग की शर्ट, सफ़ेद पैंट पहन रखी थी। आज मैं उसके लिए कोई गिफ़्ट भी नहीं ला पायी। मेरे पास रुपये नहीं थे। सस्ते दाम की कोई चीज़ लाना, ठीक नहीं था।
घर के दो कमरे पार करके, मैं छोटे कमरे में दाखिल हुई। यह हमारे पहले-पहले प्यार का कमरा है। मुझे ऐसा लगा, यह कमरा और मंसूर, मानो बेहद लम्बे अर्से से मेरे नितान्त अपने हैं।
'तुम कब आये?' मैंने पूछा।
'सुबह, दस बजे।
'इतने पहले?'
'कल तुमने इन्तज़ार किया था न, आज मैंने उसका बदला चुका दिया। आज तुम बे-हद खूबसूरत लग रही हो, शीलू!'
मैंने चारों तरफ़ निगाहें दौड़ाते हुए अगला सवाल किया, 'मुफ़ख़्वर भाई कहाँ हैं?'
'घर में ही है। सो रहा है।'
'दिन-दोपहरी सो रहे हैं?'
'दोपहर की नींद ही तो मज़ा देती है।'
दरवाज़े पर किसी की खट-खट की आवाज़ आयी। मंसूर उठकर, कमरे से बाहर चला गया। लगभग पन्द्रह मिनट बाद लौट आया।
'इतनी देर क्या कर रहे थे? मुफख्वर भाई ने बुलाया था?'
'नहीं!'
'फिर?'
'चिश्ती-टिश्ती आ पहुँचे हैं। उन लोगों को भी निमन्त्रण दिया गया था न?'
'ठीक तो है! हम सब मिलकर खायेंगे।'
'हाँ!'
'खाना घर पर ही पकाया जायेगा।'
'हाँ!'
'नीचे, तुम्हारी गाड़ी नज़र नहीं आयी?'
'आज मैं गाड़ी नहीं लाया। रोज़-रोज़ गाड़ी चढ़ना, मुझे अच्छा नहीं लगता।'
मैं बिस्तर पर बैठी हुई थी। मंसूर मेरी बग़ल में आ कर बैठ गया। उसके बाल अस्त-व्यस्त, बिखरे-बिखरे! वह और ज़्यादा मोहक लग रहा था।
मैंने तो सोच ही लिया है, आज उससे खूब-खूब बातें करूँगी।
शैशव से शुरू करके, अपनी उन्नीससाला ज़िन्दगी की हर बात, हर कहानी, हर घटना, मैं उसे बताऊँगी। उसकी भी सारी बातें सुनूँगी। मैं तो उसके बारे में कुछ भी नहीं जानती-वह कितने भाई-बहन हैं; वह अपना वक़्त कैसे गज़ारता है? फ़र्सत के पलों में उसे क्या-क्या करना अच्छा लगता है।
अच्छा, मैं क्या दुल्हन-दुल्हन-सी लग रही हूँ? शायद, दुल्हन ही लग रही हूँ। जिस दिन हमारी शादी होगी, मंसूर शायद समूचे ढाका शहर को रोशनी से सजा देगा। वह ठहरा प्राणवन्त लड़का! बेहद जोशीला! उसके ढेरों यार दोस्त हैं। जब वह अपना विवाह करेगा, समूची दुनिया में इसका डंका पीट-पीट कर करेगा। पूरी दुनिया में ऐलान करेगा, वह शादी कर रहा है।
मंसूर ने अचानक मुझे क़रीब खींच लिया और पट से चूम लिया। उसके मुँह से तीखी, झाँझ भरी गंध आ रही थी। उसने अपनी बाँहों में इतनी जोर से कस लिया कि उसके दबाव में, मुझे लगा कि मेरी हड्डी-पसली टूट कर चकनाचूर हो जायेगी। काफ़ी देर तक अपने होंटों में मेरे होंट दबा कर, लम्बे चुम्बन के बाद, उसने अपना चेहरा हटाया। मैं भी उसे धकेल कर परे करना चाहती थी। बिना कुछ कहे-सुने, उसका यूँ चुम्बन लेना मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। इसके अलावा, कुल्लमकुल दो-तीन दिन की मुलाक़ात में, यूँ चुम्बन लेते हैं भला? चुम्बन तो छः-सात महीने बाद, जब प्यार खूब गहरा हो जाता है, तब लिया-दिया जाता है। लेकिन मैंने गौर किया, मंसूर को देरी सहन नहीं हो रही है। अभी उसे बरज देना होगा। मैं छिटककर अलग हट गयी।
'यह तुम क्या कर रहे हो, मंसूर? मुझे यह सब बिल्कुल नहीं सुहाता।'
मुझे यह भी एहसास हुआ कि मेरे होंट फूल उठे हैं। बैग से आईना निकाल कर मैंने देखा, मेरे होट, वाकई सूजकर ढोल हो आये हैं। मुझे बेतरह रुलायी छूटने लगी।
'यह सब तुम क्या कर रहे हो, मंसूर?' मैंने रुआंसी आवाज़ में कहा, 'और तुम्हारे मुँह से यह गन्ध कैसी आ रही है?'
'निरी बच्ची हो तुम, यह सब तुम नहीं समझोगी?' इतना कह कर, उसने एक झटके में मेरी साड़ी खींची।
उसने साड़ी इतनी ज़ोर से खींची कि साड़ी को ब्लाउज से टाँकनेवाली सेफ्टीपिन भी खट से खुल गयी। झटके से पूरी साड़ी उतार कर, मंसूर ने मुझे धकेल कर, बिस्तर पर ला पटका। मंसूर के इस बर्ताव से मैं हक्कीबक्की रह गयी।
मैंने तुलसी का पेटीकोट पहना था, तुलसी का ही ब्लाउज़। मैंने दोनों बाँहें अपनी छाती पर आड़े-तिरछे कस लीं। मंसूर ने अपनी शर्ट खोल डाली। मारे दहशत के मैंने आँखें मूंद लीं। उसने दरवाज़ा अन्दर से 'लॉक' कर लिया। वह उछल कर बिस्तर पर आया और मुझ पर टूट पड़ा। डर के मारे मेरी छाती थर-थर काँपती रही। मुझे सूझ नहीं पड़ा कि मैं क्या करूँ। उसने मेरी छाती पर हत्थड मारा। और तेज़-तेज़ हाथों से मेरे ब्लाउज के हुक खोल डाले। मैं उसे रोकती रही, लेकिन मंसूर की ताक़त के सामने, मेरी सारी कोशिशें हार गयीं। मंसूर ने मेरा ब्लाउज़ चीर-फाड़ कर फेंक दिया। मैं चीख़ उठी।
मैं मंसूर से बार-बार गुहार लगाती रही, 'नहीं मंसूर, नहीं! प्लीज, मंसूर, तुम्हारे पैर पड़ती हूँ, मंसूर, प्लीज़ यह सब मत करो। नहीं, नहीं, यह सब मुझे अच्छा नहीं लगता।' मंसूर ने मेरी ब्रा के हुक भी खोल डाले और मेरे स्तनों में अपना चेहरा रगड़ने लगा।
'तुम्हें अच्छा लगेगा, देखना! मैं तुम्हें प्यार कर रहा हूँ, शीलू सोना! प्यार कर रहा हूँ तुम्हें, शीलू! रानी लड़की! बात सुनो! चीखों मत!'
मैं हाथ-पाँव फेंकती रही।
मंसूर ने मेरा पेटीकोट भी उतार डाला। अपनी पैंट भी खोल डाली। मैंने आँखें मूंद लीं। मेरा समूचा तन-बदन थरथर काँपता रहा। मैं बिस्तर से उठ खड़ी हुई। मंसूर ने मुझे खींच कर, दुबारा बिस्तर पर ला पटका। इस बार मैं ज़ोर से चीख पड़ी।
'बचाइये मुझे, मुफ़ख्खर भाई! प्लीज़, दरवाज़ा खोलिये।' मैं चीखती रही।
मेरी चीखें, कमरे की दीवारों से टकरा कर, कमरे में ही गुम हो गयीं। मेरे तमाम सपनों, साध-उम्मीदें नोच-खसोट कर रक्ताक़त करते हुए, मंसूर मुझ पर चढ़ बैठा। डर और यन्त्रणा से मैं छटपटाती रही। मैं अपनी आँखों के सामने यह क्या देख रही हूँ? मैं पूरी तरह नंगी! मंसूर भी नंग-धडंग! वह मुझ पर लेट गया और कुचलता-पीसता रहा। उस वक़्त मैं चीख-चीख कर रोये जा रही थी। मंसूर ने कसकर मेरा मुँह दबोच लिया। मेरे गले से गोंगियाने की आवाज़ निकलती रही। मैं थर-थर काँपती रही। मेरे भयार्त, लज्जित, कम्पित देह के अन्दर, मंसूर अपनी समूची ताक़त से, दोनों ओर से, दोनों जाँघों में दबाये, मेरे अन्दर अपनी देह का उन्मुक्त, सन, निष्ठुर कोई अंग घुसेड़ने की कोशिश में जुटा था। चीत्कार करते हुए मेरे मुँह में उसने अपनी उतारी हुई शर्ट घुसेड़ दी। मेरी काली देह पर मंसूर की गोरी-सुन्दर देह, जाने क्या-क्या सब काण्ड करती रही, मैं भीषण यन्त्रणा से गौंगियाने लगी। मेरी दर्दभरी चीख-पुकार, मेरे मुँह में मंसूर की दूंसी हुई शर्ट की वजह से बाहर नहीं निकल पायी। मेरी पलकों की दोनों कोरों से धार-धार आँसू बह निकले। मंसूर को मुझ पर ज़रा भी दया नहीं आयी। मेरे दोनों हाथ, मंसूर ने अपने दोनों हाथों में कसे रखे। मेज़ पर, पिछले कल के गुलाब, सूखे-मुरझाये पड़े हुए थे। मंसूर मेरे अंग-अंग में तीखी पीड़ा भर कर, मेरी देह पर से उतर पड़ा।
दरवाजे पर खट-खट की आवाज़ हुई।
मंसूर ने जल्दी-जल्दी अपने कपड़े पहने लिये।
मैं दर्द से छटपटाती रही।
'शीलू' हिलो मत-मंसूर ने कहा, 'सोना मेरी, हिलो मत!'
मैंने उठने की कोशिश की। लेकिन मैं हिल भी नहीं पायी।
दीर्घ आधा घण्टे तक शारीरिक यंत्रणा झेलने के बाद मुझे कस कर प्यास लग आयी। ऐसा लगा, मेरी जान निकल जायेगी। मैंने खाली-खाली निगाहों से देखा। सामने सफ़ेद दीवार के अलावा कुछ भी नहीं। मेरा सिर बेतरह चकरा रहा था। देह की हर मांसपेशी में असहनीय पीड़ा।
अब, कमरे में, कल वाला धुंघराले बाल, काला-कलूटा, मरगिल्ला छोकरा, जिसका नाम चिश्ती था।
मंसूर कमरे से बाहर निकल गया।
कमरे में क़दम रखते ही, चिश्ती ने दरवाजा अन्दर से बन्द कर लिया। फटाफट अपनी शर्ट-पैंट खोल डाली। मैंने करुणा पाने की उम्मीद में, अपनी आँसू भरी आँखें, चिश्मी के चेहरे पर टिका दीं।
चिश्ती भी बिस्तर पर चढ़ आया। वह भी मंसूर जैसी हरक़तें दोहराने लगा। 'मंसूर! मंसूर! मुझे बचाओ-!' मैं चीखने लगी।
पता नहीं, क्यों तो मैंने चीख़ मारी! मंसूर भला मुझे बचाने आता?
चिश्ती नामक नौजवान, काफ़ी देर तक लगा रहा और मुझे दर्द के सागर में और ज़्यादा डुबो कर, मुझे और ज़्यादा निस्तेज करते हुए, उठ गया। उसके मुँह से भी तीखी गन्ध आ रही थी।
चिश्ती कै जाते ही, मुफ़ख्खर नामक, वह मोटा-मुटल्ला कमरे में दाखिल हुआ। उस वक़्त तक मुझमें छटपटाने की ताक़त भी नहीं बची थी। मेरी देह का निचला हिस्सा यन्त्रणा से फटा जा रहा था।
'क्यों री, हरामजादी, कैसा लग रहा है?' उसने छूटते ही सवाल दागा।
'भइया, यह तो आपका ही घर है न! आप मुझे बचा लीजिये। आप मेरे भाई हैं-'मैंने क्षीण आवाज़ में विनती की।
मुफ़ख्खर के बदन पर सिर्फ एक जाँघिया! कमरे में घुसते ही, उसने वह जाँघिया भी उतार कर फेंक दिया।
'हरामज़ादी, खूब तो चीख़-चिल्ला रही है...!' उसने ज़ोर का ठहाका लगाया।
मेरी आँखों से टप-टप आँसू झरते रहे।
ना, अब, चीखने-चिल्लाने से कोई फायदा नहीं।
मुफ़ख्खर की स्थूल देह ने मेरी देह पर अपना सारा वज़न डाल दिया। मेरी देह अपने आप ही कराह उठी। उस आदमी ने मेरे दोनों उभारों को अपने हाथों में ले कर खूब-खूब मसला, जाने क्या-क्या काण्ड करता रहा। उसके बाद, वही पहले जैसी घोर यन्त्रणा देने का दौर! उसने मेरे कुचारों को इस क़दर नोचा-काटा कि खून बह निकला। शरीर के निचले हिस्से में जैसे कोई चेतना ही नहीं रही। मेरे यौनांग, जाँघे, पाँव अवश हो आये।
मैंने तो सोचा था, ये सब शारीरिक घटनाएँ, विवाह के बाद घटेंगी। मंसूर मुझे हौले-हौले स्पर्श करेगा।
मेरी समूची देह, वह उँगलियों से सहलाते हुए बड़े प्यार से कहेगा, 'बीवी, तू न, बेहद भली है। बेहद खूबसूरत!'
मेरा सपना था, हम सुख के समन्दर में अपनी नौका बहा देंगे... लेकिन, आज यह क्या हुआ? दरवाज़ा धकिया कर शायद फिर कोई कमरे में दाखिल हुआ।
उस वक़्त मुझमें बोलने की भी ताक़त नहीं थी, न आँखें खोल कर देखने की।
जब मेरे शरीर पर किसी के दाँतों का दबाव पड़ा, उस पर मैं, न हिली, न रोयी। बस, स्थिर पड़ी रही! अवश! बेजान!
वह नंगम था, मंसूर का दोस्त!
उसके बाद...शायद महमूद आया।
मुझे बग़ल के कमरे से ठहाकों की आवाज़ सुनायी दी, कुछ टूटने की झनझनाहट भी।
बाहर से जाने किसने तो पूछा, 'महमूद, तेरा हो गया?'
कल वाला अंग्रेज़ी संगीत ज़ोर-जोर से बजता रहा।
इस वक़्त अगर मैं चीख-चीख कर शोर भी मचाऊँ, तो भी मेरी आवाज़ कहीं नहीं पहुंचेगी। सारी चीख-पुकार संगीत में गुम हो कर रह जायेगी।
उसके बाद, लाबू आया, वही काला-सा शख्स !
किसने, कौन-कौन-सी हरक़त की, पता नहीं!
मेरा समूचा तन-बदन भारी हो आया, बिल्कुल पत्थर जैसा! लेकिन बीच-बीच में रुई जैसा हल्का भी!
काफ़ी वक़्त गुज़र गया, और कोई नहीं आया।
मंसूर को आवाज़ दूं? वह क्या मेहरबानी करके, मुझे घर पहुँचा देगा? मेरे सपनों का पुरुष, क्या मेरी इतनी-सी भी मदद नहीं करेगा? मुझसे हिला तक नहीं जा रहा है। मंसूर को भी आवाज़ नहीं दे पायी। बिस्तर की चादर खून से तर-ब-तर! मेरे यौनांग से कलकला कर, खून की धार बहती रही। पीठ के नीचे भी शायद खून जम गया है। खून बह-बह कर एड़ियों तक बहता हुआ।
मेरी आँखों को कुछ दिखायी नहीं दे रहा है। सारा कुछ धुंधला होता जा रहा है। रिवॉल्विंग कुर्सी, मेज़, मेज़ पर रखे हुए फूल-सारा कुछ धुंधलाता जा रहा है। धीरे-धीरे, मेरी आँखों में थोड़ा-थोड़ा करके स्वच्छ दृष्टि वापस लौटी, मैंने देखा, समूचे कमरे में घोर अँधेरा है, रात उतर आयी है। इस कमरे में दुबारा क्या कोई नहीं आया? मंसूर भी नहीं? मंसूर ने भी क्या एक बार, तरस खा कर ही सही, मेरे क्लांत, छिन्न-भिन्न, खून में नहाई हुई रिक्त देह पर अपना हाथ नहीं रखा?
खिड़की पूरी तरह खुली हुई थी। बाहर की सर्द-सर्द हवा कमरे में हहराकर दाखिल होती हुई! यह शुद्ध-पवित्र हवा मानो मेरी अनावृत्त-उन्मुक्त देह को धो रही हो। मैंने जी भर कर भरपूर साँस लिया और सिर उठाने की कोशिश की। लेकिन, मेरी पीठ बिल्कुल जड़-पत्थर, हिली तक नहीं। मैंने दुबारा कोशिश की...फिर कोशिश की! लगता है, मुझे लुढ़क कर उतरना होगा।
कोहनी पर सारा वजन टिकाये, मैं लुढ़कते-लुढ़कते, पलंग के किनारे आयी। सिर बचा कर, मैंने अपनी देह को नीचे गिराया। फर्श पर क़ालीन बिछी हुई थी। खून थक्के-थक्के हो कर जम गया था। खून अब नये सिरे से नहीं झर रहा था। आख़िर, कितना झरता! झरने का भी तो कोई अन्त होता है? शरीर का नुकसान होता है, लेकिन नुकसान का भी तो कोई अन्त होता है? उसी तरह सरकते-खिसकते, मैंने हाथ बढ़ा कर कपड़े समेटे, कमज़ोर हाथों से उन्हें बदन पर लपेट लिया।
मैं क्या कमरे से निकल पाऊँगी? मेरे बदन में क्या बूँद भर भी ताक़त बच रही है? पलंग का पाया थाम कर, मैं बमुश्किल उठ खड़ी हुई। खड़े होने में ही मैं बेतरह हाँफ उठी। पलंग, दीवार, दरवाज़ा पकड़-पकड़ कर, मैं बाहर निकल आयी। एक दरवाज़ा दूसरे कमरे की तरफ़! एक और दरवाज़ा बाहर की तरफ़! बाहर जाने वाला दरवाज़ा खोल कर, ज़मीन पर गिरते-पड़ते, उठ-उठ कर खड़े होते-होते, मैं वह बड़ा-सा दरवाज़ा पार करके, खुली सड़क पर निकल आयी। बदन पर साड़ी लिपटी हुई! सड़क पर स्थित लैम्प पोस्ट पर अपनी देह का वजन टिका कर, मैंने खड़े होने की कोशिश की, लेकिन नाकाम हो कर, वहीं बैठ गयी।
सड़क पर रिक्शे, साईकिल, मोटर साईकिल, बेबी टैक्सी, गाड़ियों का रेला दौड़ता हुआ। शायद अभी ज़्यादा रात नहीं हुई थी।
मैंने हाथ के इशारे से एक बेबी टैक्सी बुलायी और बुदबुदा कर कहा-'शान्तिनगर चलो।'
मैंने पीछे मुड़ कर देखा। वह मकान अँधेरे में डूबा हुआ था। मकान में कोई मौजूद है या नहीं, समझ में नहीं आया।
आज भाई के साथ, उनके दोस्त, रतन के यहाँ जाना तय हुआ था। भाई और तुलसी, शायद मेरी राह देखने के बाद, अब मेरे बिना ही चले गये होंगे या यह भी हो सकता है कि वे दोनों मुझे खोज रहे हों। माँ नमाज़ पढ़ कर दुआ माँग रही होगी कि कहीं कोई दुर्घटना न हुई हो, मैं जल्द-से-जल्द घर लौट आऊँ। अब्बू शायद चहलकदमी करते हुए, घर-बाहर एक कर रहे होंगे। मुमकिन है, उन्होंने मेरा पता करने के लिए, ख़ाला के यहाँ भी किसी को भेजा हो। शायद नादिरा, बकुल, रोज़ी के यहाँ जा कर भी खोज-खबर ली गयी होगी। इस वक़्त सेतु और सेवा ज़रूर आपस में शरारतभरी छेड़छाड़ कर रही होंगी या फिर पढ़ने बैठ गयी होंगी या फिर ऐसा भी हो सकता है कि तुलसी ने उन दोनों को अपने पास बुला लिया हो और कहानी-क़िस्से सुना रही हो। लेकिन, तुलसी भला गपशप कैसे कर रही होगी? उसे तो भाई के साथ बाहर जाना है।
मैंने अपनी देह का पूरा वजन, बेबी टैक्सी की सीट पर टिका दिया। बेबी टैक्सी वाला मुझे, मेरे घर ले जा रहा है।
घर में क़दम रखते ही, अगर अब्बू मुझसे सवाल करें, 'कहाँ गयी थी?' तो मैं सच-सच बता दूंगी।
आज से मैं कभी झूठ नहीं बोलूँगी।
मैं बता दूंगी- 'आज, मेरा निमन्त्रण था।'...
* * * * *