नींद नहीं आती (कहानी) : सज्जाद ज़हीर
Neend Nahin Aati (Story in Hindi) : Sajjad Zaheer
घड़-घड़-घड़-घड़, टिख-टिख, चट, टिख-टिख-टिख, चट-चट-चट। गुजर गया है जमाना गले लगाए ए...ए...ए खामोशी और अँधेरा। अँधेरा-अँधेरा। आँख एक पल के बाद खुली। तकिया के गिलाफ की सफेदी। अँधेरा मगर बिल्कुल अँधेरा नहीं। फिर आँख बंद हो गई। मगर पूरा अँधेरा नहीं। आँख दबा कर बंद की, फिर भी रोशनी आ ही जाती है। अँधेरा पूरा अँधेरा क्यों नहीं होता? क्यों नहीं? क्यों नहीं?
बड़ा मेरा दोस्त बनता है, जब मुलाकात हुई, आइए अकबर भाई, आपको तो देखने को आखें तरस गईं। हें...हें...हें। कुछ ताजा कलाम सुनाइए। लीजिए सिगरेट का शौक फरमाइए। मगर समझता है, शेर खूब समझता है। वह दूसरा उल्लू का पट्ठा तो बिल्कुल मूढ़ है। आख्खाह - आज तो आप बिल्कुल नई अचकन पहने हैं। नई अचकन पहने हैं... तेरे बाप का क्या बिगड़ता है जो मैं नई अचकन पहने हूँ! तू चाहता है कि बस तेरे पास ही नई अचकन हो और शेर समझना तो दूर की बात, सही पढ़ भी नहीं सकता। नाक में दम कर देता है। बेहूदा - बदतमीज कहीं का। मगर बड़ा भारी दोस्त बनता है। ऐसों की दोस्ती क्या। मेरी बातों से उसका दिल बहल जाता है। बस यही दोस्ती है, मुफ्त का मुसाहिब मिला, चलो मजे हैं... खुदा सब कुछ करे गरीब न करे। दूसरों की खुशामद करते-करते जबान घिस जाती है और वह है कि चार पैसे जो जेब में हमसे ज्यादा हैं तो मिजाज ही नहीं मिलते। मैंने आखिर एक दिन कह दिया कि मैं नौकर हूँ, कोई आपका गुलाम नहीं हूँ। तो क्या आँखे निकाल कर लगा मुझे देखने। बस जी में आया कि कान पकड़ कर एक चाँटा रसीद करूँ, साले का दिमाग सही हो जाए।
टप-टप-खट, टप-टप-खट, टप-टप-खट, टप-टप-टप...ट
इस वक्त रात को आखिर यह कौन जा रहा है? मरन है उसकी और कहीं पानी बरसने लगे तो और मजा है। लखनऊ में जब मैं था। एक सभा में मूसलाधार बारिश। अमीनाबाद का पार्क तालाब मालूम होता था। मगर लोग हैं कि अपनी जगह से टस से मस नहीं होते। और क्या है - जो यों सब जान पर खेलने को तैयार हैं। महात्मा गाँधी के आने का इंतजार है। अब आएँ-तब आएँ। वह आए-आए-आए। वह मचान पर महात्मा जी पहुँचे... जै... जै... जै... खमोशी।
'मैं आप लोगों से ये केना चाता हूँ कि आप लोग विदेसी कपड़ा पहनना बिल्कुल छोड़ दें। ये सेतानी गौरमेंट...'
यहाँ पानी सर से हो कर पैरों से परनालों की तरह बहने लगा। कुदरत मूत रही थी। सेतानी गौवरमेंट, शैतानी गौवरमेंट की नानी। इस गाँधी से शैतानी गौवरमेंट की नानी मरती है। हा-हा शैतानी और नानी। अकबर साहब आप तो माशा अल्लाह शायर हैं। कोई राष्ट्रीय गीत रच डालिए। ये गुल और बुलबुल की कहानियाँ कब तक। कौम की ऐसी की तैसी, कौम ने मेरे साथ कौन-सा अच्छा सुलूक किया है जो मैं गुल और बुलबुल को छोड़ कर कौम के आगे दुम हिलाऊँ थिरकूँ।
मगर मैं यह कहता हूँ कि मैंने आखिर किसी के साथ कौन-सा बुरा सुलूक किया कि सारा जमाना हाथ धो कर पीछे पड़ा है। मेरे कपड़े मैले हैं...। उनसे बू आती है... बदबू सही। मेरी टोपी देख कर कहने लगा कि तेल का धब्बा पड़ गया, नई टोपी क्यों नहीं खरीदते? क्यों खरीदूँ नई टोपी... नई टोपी, नई टोपी, नई टोपी में क्या मोर के पंख लगे हैं? बहुत इतरा के चलते थे जो, वह जूतियाँ चटखारते फिरते हैं आज, हम औजे ताला-एलाल-ओ-गुहर को...
वाह वाह क्या बेतुकापन है। जार्ज पंजुम के ताज में हमारा हिंदुस्तानी हीरा है। ले गए चुरा के अंग्रेज, रह गए न मुँह देखते। उड़ गई सोने की चिड़िया, रह गई दुम हाथ में। अब चाहते हैं कि दुम भी हाथ से निकल जाए। न दुम छूटने पाए। शाबाश है मेरे पहलवान, लगाए जा जोर। दुम छूटी तो इज्जत गई। क्या कहा? इज्जत? इज्जत लेके चाटना है। सूखी रोटी और नमक खा कर क्या बाँका जिस्म निकल आया है। फाका हो तो फिर क्या कहना, और अच्छा है फिर तो बस इज्जत है और इज्जत के ऊपर पाक खुदा... खुदा बंदे पाक, अल्लाह बारीताला, रब्बुल इज्जत, परमेश्वर परमात्मा लाख नाम लिए जाओ। जल्दी-जल्दी और जल्दी क्या हुआ? रूहानी सुकून? बस तुम्हारे लिए यही काफी है। मगर मेरे पेट में दोजख है। दुआ करने से पेट नहीं भरता, पेट से हवा निकल जाती है। भूख और ज्यादा मालूम होने लगती है, भों-भों-भो...
अब उनका भौंकना शुरू हुआ तो रात भर जारी रहेगा। मच्छर अलग सता रहे हैं। तौबा है तौबा! एक जाली का पर्दा गर्मियों में बहुत आराम देता है। मच्छरों से निजात मिलती है। मगर क्या निजात क्या? दिन भर की मेहनत, चीख-पुकार, कड़ी धूप में घंटों एक जगह से दूसरी जगह घूमते-घूमते जान निकल जाती है। अम्मा कहा करती थीं, अकबर धूप में मत दौड़, आ मेरे पास आके लेट बच्चे। लू लग जाएगी तुझे बच्चे। एक मुद्दत हो गई उसे भी। अब तो ये बातें सपना मालूम होती हैं और मौलवी साहब हमेशा तारीफ करते थे। देखो, नालायकों, अकबर को देखो, उसे शौक है पढ़ने का। सपना, वो सारी बातें सपना मालूम होती हैं। मैं बस्ता-तख्ती लिए दौड़ता हुआ वापस आता था। अम्मा गोद में चिपटा लेती थीं। मगर क्या आराम था। उस वक्त भी क्या आराम था। ये सब चीजें मेरी किस्मत ही में नहीं। मगर जो मुसीबत मैं बर्दाश्त कर चुका, शायद ही किसी को उठानी पड़ी हों। उसे याद करने से फायदा? खैराती अस्पताल, नर्सें, डॉक्टर सब नाक-भों चढ़ाए और अम्मा का यह हाल कि करवट लेना मुहाल और उनके उगालदान में खून के डले के डले। मालूम होता था कि गोश्त के लोथड़े हैं... और मैं सबको खत पे खत लिखता था। यही सब जो रिश्तेदार बनते हैं। आइए अकबर भाई, आइए, आपसे तो बरसों से मुलाकात नहीं हुई। यही उन्हीं के माँ-बाप। क्या हो जाता अगर जरा और मदद कर देते। दुनिया भर के पाखंड पर पानी की तरह दौलत बहाते हैं। किसी रिश्तेदार की मदद करते वक्त मल-मल कर पैसा देते हैं और फिर अहसान जताना इतना कि खुदा की पनाह। एक दिन मैं कहीं बाहर गया हुआ था, उन्हीं महाशय की अम्मीजान, अम्मा को देखने आईं। मैं पहुँचा तो उन्हें आए चंद मिनट हुए थे। चेहरे से टपक रहा था कि उन्हें डर है कि जीवाणु उनके सीने के अंदर न घुस जाएँ। मगर बीमार को देखने आना फर्ज है। सवाब का काम है। यह सब तो अपनी जगह। उल्टे मुझे डाँटना शुरू कर दिया। कहाँ गए थे तुम अपनी अम्मा को छोड़ कर। इनकी हालत ऐसी नहीं कि इन्हें इस तरह छोड़ा जाए।
मरीज के मुँह पर इस तरह की बातें - मैं गुस्से से खौलने लगा। मगर मरता क्या न करता। अस्पताल का खर्च इन्हीं लोगों से लेना था। मेरी बीवी-बच्चे का ठिकाना इन्हीं लोगों के यहाँ था... मेरी शादी का जिसने सुना विरोध किया। मगर अम्मा बेचारी का सबसे बड़ा अरमान मेरी शादी थी। अकबर की दुल्हन ब्याह के लाऊँ, बस मेरी यह आखिरी तमन्ना है। लोग कहते थे घर में खाने को नहीं। शादी किस बूते पर करोगी? अम्मा कहती थीं, खुदा रोजी देने वाला है। जब मेरा रिश्ता तय हो गया, शादी की तारीख निश्चित हो गई, शादी का दिन आ गया, तो वही लोग जो विरोध करते थे, सब बारात में जाने को तैयार होकर आ गए। अम्मा की सारी बची-बचाई पूँजी मेहमानदारी और शादी की रस्मों में खर्च हो गई। गैस की रोशनी, रेशमी अचकने, पुलाव, बाजा, मसनद, हँसी-मजाक, भीड़। खाने में कमी पड़ गई। बावर्ची ने चोरी की। बादशाह अली साहब का जूता चोरी गया। जमीन-आसमान एक कर दिया। अबे उल्लू के पट्ठे तूने जूता सँभाल कर क्यों नहीं रखा? जी हुजूर, कुसूर मेरा नहीं - मेहर का झगड़ा शुरू हुआ। मोज्जिल (मेहर, निकाह टूटने पर अदा की जाने वाली रकम) और मोअज्जल (निकाह के समय अदा की जाने वाली रकम) की बहस। मुँह दिखाई की रस्म। सलाम कराई की रस्म। मजाक, फूल, गाली-गलौज, शादी हो गई। अम्मा का अरमान पूरा हो गया... मोहर्रम अली बेचारा चालीस साल का हो गया, उसकी शादी नहीं हुई। अकबर मियाँ शादी करवा दीजिए शैतान रात को बहुत सताता है। शादी खुशी। कोई हमदर्द बात करने वाला जिसे अपने दिल की सारी बातें अकेले सुना दें। कोई औरत जिससे मोहब्बत कर सकें। दो घड़ी हँसे, बोलें, छाती से लगाएँ, प्यार करें - अरे मान भी जाव मेरी जान। मेरी प्यारी, मेरी सब कुछ। जुबान बेकार है। हाथ, पैर, सारा जिस्म, जिस्म का एक एक रोंगटा... क्यों आज मुझसे नाराज हो, बोलो। अरे, तुमने तो रोना शुरू कर दिया। खुदा के वास्ते बताओ, आखिर क्या बात है। देखो, मेरी तरफ देखो तो सही। वह आई हँसी, वह आई होंठो पर। बस अब हँस तो दो। क्या दो दिन की जिंदगी में बेकार का रोना-धोना। ओ... ओ... हो... यों नहीं यों - और... और जोर से मेरे सीने से लिपट जाओ... लखनऊ के कोठों की सैर मैंने भी की है। ऐसा गरीब नहीं हूँ कि दूर ही दूर से रंडियों को देख कर सिसकियाँ लिया करूँ। आइए हुजूर अकबर साहब, यह क्या है जो मुद्दतो से जो हमारी तरफ रुख ही नहीं करते। इधर कोई नई चलती हुई गजल कही हो तो इनायत फरमाइए। गा कर सुनाऊँ? लीजिए पान नौश फरमाइए ऐ, लो और लो, जरा दम तो लीजिए। नहीं आज तो माफ फरमाइए, फिर कभी। मैं तो आपकी खादिम हूँ, रुपए की गुलाम हूँ। समझती है मेरे पास टके नहीं। रुपए देख कर राजी हो गई। क्या सुनाऊँ हुजूर... तबला की थाप, सारंगी की आवाज, गाना-बजाना। फिर तो मैं था और वह थी और सारी रात थी। नींद जिसे आई हो वह काफिर। यह रातों का जागना, दूसरे दिन सरदर्द, थकावट, चिडचिड़ापन। अम्मा की बीमारी के जमाने उनकी पलँग की पट्टी से लगा घंटों बैठा रहता था और उनकी खाँसी। कभी-कभी तो मुझे खुद मालूम होने लगता, मालूम होता था कि हर खाँसी के साथ उसके सीने में एक गहरा जख्म और पड़ गया। हर साँस के साथ जैसे जख्मों पर से किसी ने तेज छुरी की बाढ़ चला दी। और वह घड़घड़ाहट, जैसे किसी पुराने खंडहर में लू चलने की आवाज होती है। डरावनी। मुझे अपनी माँ से डर मालूम होने लगता। इस हड्डी-चमड़े के ढाँचे में मेरी माँ कहाँ। मैं उनके हाथ पर हाथ रखता, धीरे से दबाता, उनकी आधी खुली, आधी बंद आँखें मेरी तरफ मुड़तीं, उनकी नजर मुझ पर होती। उस वक्त इस जर्जर, हारे हुए मुर्दा जिस्म भर में सिर्फ आँखें जिंदा होतीं। उनके होंठ हिलते। अम्मा-अम्मा आप क्या कहना चाहती हैं। जी... मैं अपना कान उनके होंठों के पास ले जाता। वह अपना हाथ उठा कर मेरे सिर पर रखतीं। मेरे बालों में उनकी उँगलियाँ मालूम होता था फँसी जाती हैं। और वह छुड़ाना नहीं चाहतीं। बहुत देर कर दी, जाओ तुम सो रहो... अम्मा यों ही पलँग पर लेटी हैं। एक महीना, दो महीना, तीन महीना, एक साल, दो साल, सौ साल, हजार साल। मौत का फरिश्ता आया। बदतमीज, बेहूदा कहीं का। चल निकल यहाँ से भाग। अभी भाग, वरना तेरी दुम काट लूँगा। डाँट पड़ेगी फिर बड़े मियाँ की। हँसता है। क्यों खड़ा है सामने दाँत निकाले। तेरे फरिश्ते की ऐसी-तैसी। तेरे फरिश्ते की...। सारी दुनिया की ऐसी-तैसी, मियाँ अकबर तुम्हारी ऐसी-तैसी। जरा अपनी काया पर गौर फरमाइए। फूँक दूँ तो उड़ जाए, मुशायरों में पढ़ेंगे तो चीख कर चिल्ला कर, बड़े बने हैं गुर्राने वाले। मुशायरों में तारीफ क्या हो जाती है कि समझते हैँ... क्या समझते हैं बेचारे, समझेंगे क्या, बीबी जान कुछ समझने भी दें। सुबह से शाम तक शिकायत, रोना-धोना। कपड़ा फटा है। बच्चे की टोपी खो गई, नई खरीद के ले आओ, जैसे मेरी अपनी नई टोपी है। कहाँ खो गई टोपी। मैं क्या जानूँ कहाँ खो गई। उसके साथ कोने-कोने में थोड़ी भागती फिरती हूँ। मुझे काम करना होता है, बर्तन धोना कपड़े सीना। सारे घर का काम मेरे जिम्मे है। मुझे किसी की तरह शेर कहने की फुर्सत नहीं। सुन लो खूब अच्छी तरह से मुझे काम करना होता है। मगर छत्ता छेड़ दिया, अब जान बचानी मुश्किल हुई। क्या कैंची की तरह जुबान चलाती है। माशा अल्लाह, खुदा बुरी नजर से बचाए। अच्छी तरह जानते हो मेरे पास पहनने को एक ठिकाने का कपड़ा नहीं है। लड़का तुम्हारा अलग नंगा घूमता है। मगर तुम हो मालूम होता है कोई वास्ता ही नहीं। जैसे किसी गैर के बीवी-बच्चे हैं। हाय अल्लाह, मेरी किस्मत फूट गई। अब रोना शुरू होने वाला है। मियाँ अकबर बेहतर यही है कि तुम चुपके से खिसक जाओ। इसमें शर्माने की क्या बात है, तुम्हारी मर्दानगी में कोई फर्क नहीं आता, खैरियत बस इसी में है कि खामोशी के साथ खिसक जाओ। हिजरत करने से एक रसूल की जान बची। मालूम नहीं ऐसे मौकों पर रसूल बेचारे क्या करते थे, औरतों ने उनकी नाक में भी दम कर रखा था। ऐ खुदा, आखिर तूने औरत क्यों पैदा की। मुझ जैसा गरीब कमजोर आदमी तेरी इस अमानत का भार अपने कंधों पर नहीं उठा सकता और कयामत के दिन मैं जानता हूँ क्या होगा। यही औरतें वहाँ भी ऐसी चीख-पुकार मचाएँगी, ऐसी-ऐसी अदाएँ दिखाएँगी, वह आँखें मारेंगी कि... वह आँखें मारेंगी कि अल्लाह मियाँ बेचारे खुद अपनी दाढ़ी खुजाने लगे। कयामत का दिन आखिर कैसा होगा। सूरज आसमान के बीचोबीच आग उगलता हुआ, मई, जून की गर्मी उसके सामने क्या होगी... गर्मी की तकलीफ तौबा-तौबा अरे तौबा। यह मच्छरों के मारे नाक में दम, नींद हराम हो गई। पिन-पिन, चठ। वह मारा। आखिर यह कमबख्त ठीक कान के पास आके क्यों भुनभुनाते हैं। खुदा करे कयामत के दिन मच्छर न हों, मगर क्या ठीक। कुछ ठीक नहीं। आखिर मच्छर और खटमल इस दुनिया में खुदा ने ही किसी वजह से पैदा किए? पता नहीं... पैगंबरों को मच्छर खटमल काटते हैं या नहीं। कुछ ठीक नहीं, कुछ ठीक नहीं। आपका नाम क्या है? मेरा क्या नाम है। कुछ ठीक नहीं। वाह-वाह-वाह, खुदा की इच्छा। इच्छा और रंडी और भिंडी। गलत, भिंडी है। मियाँ अकबर इतना भी अपनी हद से बाहर न निकलिए। और क्या है? नदी में डाल कर समुंदर चले? वाह। वह बच्चा क्या करेगा जो घुटनों के बल चले। अंगूर खट्टे, आपको खटास पसंद है? पसंद। पसंद से क्या होता है? चीज हाथ भी तो लगे। मुझे घोड़ा-गाड़ी पसंद है। मगर करीब पहुँचा नहीं कि वह दुलत्ती पड़ती है कि सर पर पाँव रखकर भागना पड़ता है। और मुझे क्या पसंद है? मेरी जान। मगर तुम तो मेरी जान से ज्यादा प्यारी हो... चलो हटो, बस रहने भी दो, तुम्हारी मीठी-मीठी बातों का मजा मैं खुब चख चुकी हूँ। क्यों क्या हुआ... हुआ क्या... मुझसे यह बेगैरती नहीं सही जाती। तुम जानते हो कि दिन भर लौंडी की तरह काम करती हूँ, बल्कि लौंडी से भी जबदतर। जब से मैं इस घर में आई, हूँ किसी खिदमतगारिन को एक महीने से ज्यादा टिकते नहीं देखा। मुझे साल भर से ज्यादा हो गए, मगर कभी जो जरा दम मारने की फुर्सत मिली हो। अकबर की दुल्हन यह करो, अकबर की दुल्हन वह करो... अरे-अरे क्या, हुआ क्या, तुमने तो फिर रोना शुरू किया। मैं तुम्हारे सामने हाथ जोड़ती हूँ... मुझे यहाँ से कहीं और ले जा के रखो। मैं शरीफजादी हूँ। सब कुछ तो सह लिया, अब मुझसे गाली बर्दाश्त न होगी। गाली-गाली, मालूम नहीं क्या गाली दी। मेरी बीवी पर गालियाँ पड़ने लगीं, या अल्लाह, या अल्लाह। इस बेगम कमबख्त का गला और मेरा हाथ। उसकी आँखे निकली पड़ीं, जुबान बाहर लटकने लगी। हो जा अब इस दुनिया से रुख्सत। खुदा के लिए मुझे छोड़ दो। कुसूर हुआ माफ करो, अकबर मैंने तुम्हारे साथ एहसान भी किए हैं। ...अहसान तो जरूर किए हैं। अहसानों का शुक्रिया अदा करता हूँ मगर अब तुम्हारा वक्त आ गया। क्या समझ कर मेरी बीवी को गालियाँ दी थीं। बस खत्म, आखिरी दुआ माँग लो। गला घोंटने से सर काटना बेहतर है। बालों को पकड़ कर सर को उठाया, जबान एक तरफ निकली पड़ रही है। खून टपक रहा है। आँखें घूर रही हैं... या अल्लाह आखिर, मुझे क्या हो गया। खून का समंदर। मैं खून के समंदर में डूबा जा रहा हूँ। चारों तरफ से लाल-लाल गोले मेरी तरफ बढ़ते चले आ रहे हैं। वह आया, वह आया। एक, दो, तीन सब मेरे सर पर आ कर फटेंगे। कहीं यह दोजख तो नहीं। मगर ये तो गोले हैं, आग के शोले नहीं। मेरे तन-बदन में आग लग गई। मेरे रोंगटे जल रहे हैं। दौड़ो, अरे दौड़ो, खुदा के लिए दौड़ो। मेरी मदद करो, मैं जला जा रहा हूँ। मेरे सर के बाल जलने लगे। पानी, पानी कोई सुनता क्यों नहीं? खुदा के वास्ते मेरे सर पर पानी डालो। क्या इन जलते हुए अंगारों पर से मुझे नंगे पैर चलना पड़ेगा? क्या मेरी आँखों में दहकते हुए लोहे की सलाखें डाली जाएँगी? क्या मुझे खौलता हुआ पानी पीने को मिलेगा? क्या मुझे पीब खानी पड़ेगी? ये शोले मेरी तरफ क्यों बढ़ते चले आ रहे हैं? ये शोले हैं या भाले? आग के त्रिशूल। जख्म की भी तकलीफ और जलने की भी...
यह किसके चीखने की आवाज आई? मैं तो सुन चुका हूँ इस आवाज को। अं, अ, अ, ...ओ, ओ, ओ... आवाज दूर होती जाती है। मेरे लड़के ने आखिर क्या कसूर किया है? मेरे लड़के को किस जुर्म की सजा मिल रही है? मेरा लड़का तो अभी चार बरस का है। उसे माफ कर देना चाहिए। मैं गुनहगार हूँ, मैं खतावार हूँ। यह कौन आ रहा है मेरे सामने से? अरे मआजअल्लाह साँप चिमटे हुए हैं उसकी गर्दन से। उसके पिस्तान (उरोज) को काट रहे हैं... ऐ हुजूर। आदाब अर्ज है। ऐ हुजूर भूल गए हम गरीबों को। मैं हूँ, मुन्नी जान। कोई ठुमरी, कोई दादरा, कोई गजल। ऐ हैं आप तो जैसे डर जाते हैं हुजूर, ये साँप आपसे कुछ नहीं बोलेंगे। उनका भी अजब लतीफा है। मैं जब यहाँ दाखिल हुई तो दरोगा साहब ने कहा, बी मुन्नी जान, सरकार का हुक्म है कि पाँच बिच्छू तुम्हारी खिदमत के लिए हाजिर किए जाएँ। मैं हुजूर सहम गई। बचपन से मुझे बिच्छुओं से नफरत थी। मैंने हुजूर बहुत हाथ-पैर जोड़े, मगर दरोगा साहब ने कहा कि सरकार के हुक्म पर अमल करना उनका फर्ज है। तब मैंने कहा, अच्छा आप मुझे सरकार के दरबार में पहुँचा दें। मैं खुद उनसे निवेदन करूँगी। दरोगा साहब बेचारे भले आदमी थे, मुझे अपने पास बुला के बिठाया। मेरे गालों पर हाथ फेरे, आखिरकार राजी हो गए पहले तो मुझे कई घंटे इंतजार करना पड़ा। दरोगा साहब ने कहा इस वक्त सरकार दूतों की कौंसिल कर रहे हैं। जब उससे फुर्सत होगी, तब मेरी पेशी होगी। मैंने जो यह सुना तो कोशिश की कि झाँक कर अपने दूत महोदय का जलवा देख लूँ। मगर दरवाजे के दरबान मुए मुस्टंडे देव ने मुझे धक्का दे कर अलग कर दिया। खैर हुजूर आखिरकार मेरी बारी आई, मेरा दिल धड़-धड़ कर रहा था कि देखूँ क्या होता है। सरकार के दरबार में दाखिल होते ही मैं घुटनों के बल गिर पड़ी। मेरी अपनी जबान से तो कुछ बोला न जाता था। दरोगा साहब ने मेरा मुद्दा बयान किया। इतने में हुक्म हुआ, खड़ी हो। मैं हुजूर खड़ी हो गई। तो सरकार खुद उठ कर मेरे पास तशरीफ लाए। बड़ी-सी सफेद दाढ़ी, गोरा चिट्टा रंग और मेरी तरफ मुस्करा के देखा... फिर मेरा हाथ पकड़ कर बगल के कमरे में ले गए। मेरी हुजूर समझ में नहीं आता था कि आखिर माजरा क्या है...मगर हुजूर देखने ही में बुड्ढे मालूम होते हैं... ऐसे मर्द मैंने दुनिया में तो देखे नहीं। और आपकी दुआ से हुजूर मेरे यहाँ बड़े-बड़े रईस आते थे...
खैर, तो हुजूर बाद में सरकार ने फरमाया कि सजा तो मुझे जरूर मिलेगी क्योंकि उनका इंसाफ तो सबके साथ बराबर है। मगर बजाय बिच्छू के मुझे दो साँप मिले जो बस मेरे पिस्तान चाटा करते हैं। सच पूछिए हुजूर तो इसमें तकलीफ कुछ नहीं और मजा ही है... मगर आप तो मुझसे डर जाते हैं। अकबर साहब, ऐ, हुजूर अकबर साहब... कोई ठुमरी, कोई दादरा, कोई गजल...
या अल्लाह मुझे जहन्नुम की आग से बचा। तू रहम करने वाला है। मैं तेरा एक नाचीज, गुनहगार बंदा, तेरे हुजूर में हाथ बाँधे खड़ा हूँ... मगर कुछ भी हो जिल्लत मुझसे बर्दाश्त न होगी। मेरी बीवी पर गालियाँ पड़ने लगीं। मगर मैं क्या करूँ। भूखा मरूँ? हड्डियों का एक ढाँचा, उस पर एक खोपड़ी, खट-खट करती सड़क पर चली जा रही है। अकबर साहब, आपके जिस्म का गोश्त क्या हुआ? आपका चमड़ा किधर गया? जी मैं भूखा मर रहा हूँ, गोश्त अपना मैंने गिद्धों को खिला दिया, चमड़े के तबले बनवाकर बी मुन्नी जान को तोहफे में दे दिए। कहिए क्या खूब समझी। आपको ईर्ष्या होती हो तो अल्लाह का नाम ले कर मेरी पैरवी कीजिए। मैं किसी की पैरवी नहीं करता। मैं आजाद हूँ, हवा की तरह से। आजादी की आजकल अच्छी हवा चली है। पेट में आँतें कुलहो अल्लाह पढ़ रही हैं और आप हैं कि आजादी के चक्कर में हैं। मौत या आजादी। न मुझे मौत पसंद है न आजादी।
कोई मेरा पेट-भर दे।
पिन, पिन, पिन, चट, हट तेरे मच्छर की... टन, टन, टन... टुन, टुन, टुन...