नीलकंठी ब्रज (असमिया उपन्यास) : इंदिरा गोस्वामी (अनुवादक : दिनेश द्विवेदी)

Neelkanthi Braj (Asmiya Novel): Indira Goswami

भाग 1

मथुरा छावनी स्टेशन पर ज्यादा यात्रीगण नहीं उतरे। शायद जंक्शन पर उतरते। इसके बावजूद साधु-संन्यासियों की भीड़-भाड़ और सामान के भार से लदे-फदे सैलानियों के कोलाहल से मथुरा छावनी के माहौल में चहल-पहल मच गयी। पंडे यात्रियों की गन्ध पाकर मँडराने लगे।

डॉक्टर रायचौधुरी भी सपरिवार मथुरा छावनी पर ही उतर पड़े। जिन्दगी के आखिरी दिनों में ब्रजवास करने की बहुत पुरानी साध थी। उनकी पत्नी अनुपमा देवी भी यही चाहती थीं। उन लोगों की इच्छा थी कि उम्र का चौथापन शान्तिपूर्वक व्यतीत हो। बची हुई आयु में उन्हें कोई भीषण आघात न सहना पड़े। उनकी इकलौती बेटी सौदामिनी असमय ही विधवा हो गयी थी। पर इतने से ही खैरियत नहीं हुई। कच्ची उम्र में विधवा होने के बाद भी एक ईसाई नौजवान से मेलजोल बढ़ा बैठी। कट्टर सनातनी धर्मभीरु रायचौधुरी-परिवार के लिए यह एक अकल्पनीय आघात था।

युवावस्था में अनुपमा देवी एक बार क्षयरोग की शिकार क्या हुईं, तब से उनकी सेहत लगातार गिरती चली गयी। फिर इस हादसे के बाद तो वह और भी टूट गयीं। वृन्दावन में डॉक्टर रायचौधुरी के दादा का एक चिकित्सालय था। बचे हुए जीवन के दिनों को काटने के लिए इस ढहते हुए चिकित्सालय का जीर्णोद्धार करने की उनकी इच्छा भी थी। इसके अलावा रायचौधुरी खानदान के सभी लोगों के मन में कहीं यह विश्वास भी था कि शायद ब्रजवास के प्रभाव से उनकी बेटी का मन बदल जाएगा और वह हकीकत का मुकाबला कर सकेगी।

तभी उनका पुराना पंडा गौतम आता दिखाई दिया। नमस्कार के उपरान्त उसने कहा, 'बाहर ताँगा खड़ा है, आप लोग जाकर बैठिए। मैं सामान की व्यवस्था करता हूँ।' सामान ताँगे पर चढ़ा दिया गया। सौदामिनी ने गौर किया, घोड़ा मजबूत है। सामान और सवारी दोनों के बोझ से जरा भी नहीं बिदका। सौदामिनी को चारों तरफ ताँगे ही ताँगे दिखाई दिये। यह झूलन का समय है। ताँगे और घोड़े को इस ढंग से सजाया गया है कि देखने से ही आँखें जुड़ा जाती हैं। घोड़े के गले में तुलसी और कौडिय़ों की माला और सिर पर मोरपंखी कलगी लगी हुई है।

गौतम पंडा ताँगे के पीछे-पीछे साइकिल पर चलने लगा। मुख्य सड़क पर बढ़े जा रहे दूसरे ताँगों के हुजूम में रायचौधुरी का ताँगा भी शामिल हो गया। मथुरा छोड़ वृन्दावन की तरफ बढ़ते घोड़े की टापों की ध्वनि एक संगीत रच रही थी। पीछे आ रहे ताँगे की बगल से साइकिल पर आते हुए एक आदमी का ऊँचा स्वर सौदामिनी को सुनाई पड़ा, 'हजार बरस पहले एक लाख घुड़सवारों की सेना ले महमूद गजनवी आया था यहाँ। घोड़ों की टापों से उड़ी हुई धूल से उस दिन भी मथुरा ढँक गयी थी। दो दिन तक चलती रही थी विनाश-लीला। मार्ग के दोनों तरफ के जंगल को देखिए।'

सौदामिनी ने भी दोनों तरफ देखा। धूल-धूसरित कँटीली झाड़ियों और बबूल के झाड़ों से भरा हुआ जंगल। बबूल के काँटे मछली के काँटे के समान एकदम तने हुए थे। बैंगनी रंग के खिले हुए फूल ऐसे लग रहे थे जैसे उन्हें ऊपर से खोंस दिया हो। बीच में एक-दो मोर भी पंख फैलाये दिखे।

फिर से एक और स्वर सुनाई पड़ा, 'जरा और अन्दर की ओर देखिए-कुन्द नीम और बबूल के झुंडों के बीचोबीच आपको एक और रहस्यमय जंगल दिखाई देगा। किसी समय संन्यासियों और भक्तों के खून से रक्तरंजित हो अपवित्र हो गया है मन्दिर का प्रांगण। पर यह सब उस समय की बात है, जब हिरण और चीतों के झुंड के झुंड भरी दोपहर में इस जंगल में घूमा करते थे। महमूद गजनवी के कोड़े से मार खाए ब्रजमंडल के भक्तों ने एक दिन इसी जंगल में शरण ली थी।'

यह व्यक्ति बात करने का ढंग जानता था। उसके बात करने के अन्दाज ने सभी को अपनी तरफ सम्मोहित-सा कर लिया था। सौदामिनी को भी। किन्तु इसी दौरान पीछे आ रहे ताँगे के घोड़े ने फुर्ती दिखाते हुए सौदामिनी के ताँगे को पीछे छोड़ दिया।

इस समय झूलन, राधा-अष्टमी आदि त्योहारों की भीड़-भाड़ थी। सड़क पर अजीब-सा संन्यासियों का एक झुंड दिखाई पड़ा। उनके चेहरे और शरीर पर राधा बाग के सफेद गोपीचन्दन की चित्रकारी थी। चेहरे पर उदासी का जरा भी नामोनिशान नहीं था। जंगल के दोनों बाजू बबूल की शाखा-प्रशाखाओं से मकड़ी के जाले की तरह लिपट टूटे हुए भवनों के खँडहर दिखाई दिए।

फिर से वही कंठ-स्वर सौदामिनी को सुनाई पड़ा, 'दस सौ अठारह ईस्वी की विनाश लीला का वर्णन मुख से नहीं किया जा सकता। बीस दिनों तक चलता रहा था यह विध्वंस। अभी भी अगर यहाँ खुदाई की जाए तो भग्न-मूर्तियों के अंग-प्रत्यंग मिल जाएँगे।

ताँगे अब पंक्तिबद्ध हो धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो पंडा के उच्च कंठ की मधुर मदिरा को पीकर इस सुन्दर सड़क पर आगे बढ़ रहे हों। यह एक भक्त का सहायक था। बातों की लंतरानियों के बल पर ही जनता-जनार्दन को वशीभूत करने में निपुण था। ब्रजवासी उसे चरण बिहारी कहकर बुलाते थे।

'सुनिए, यह सुनकर कि गजनी का महमूद मथुरा लूटने आ रहा है। बुलन्द शहर के राजा ने क्या किया, सुनिए।'

चरण बिहारी यहाँ थोड़ी देर के लिए रुक गया, क्योंकि ताँगे में बैठी एक औरत ने उसकी ओर पान बढ़ा दिये थे।

'लम्पट हरदत्त राज्य की सारी देव-प्रतिमाओं को यमुना के जल में डुबोकर बड़ी धूम-धाम सहित एक करोड़ रुपये के साथ तीस हाथी ले महमूद की शरण में पहुँच गया। दूसरी तरफ महावन के ओजस्वी राजा ने युद्ध किया और हार जाने पर अपनी रानी को...।'

ताँगे रुक गये। घोड़े पानी पिएँगे। किसी दानी भक्त ने रास्ते के किनारे घोड़ों के लिए पक्की हौजें बनवा रखी थीं। अंजीर के वृक्षों की छाँव में हौजों का साफ पानी ठंडा बना रहता है।

ताँगे कतार को तोडक़र यहाँ इकट्ठे हो गये। अच्छा मौका पाकर चरण बिहारी हर एक ताँगे के पास जा पहुँचा। प्रत्येक ताँगे में एक-एक पंडा बैठा हुआ था। वे सब भन्ना उठे, 'तुमने यजमान हथिया लिया है, अब यहाँ क्यों मँडरा रहे हो?'

मुँह में बीड़ी खोंसे हुए एक पंडा सबका ध्यान खींचते हुए बोला, 'जितने लोग ब्रज में रंगजी के बारे में जानते हैं, उससे कहीं अधिक तुम्हारे क्षीर-लालच के बारे में जानते हैं।'

अपनी लंतरानियों से सवारियों का मन मोहने वाले के बारे में सीधा कटाक्ष सुनकर दूसरे पंडों को मजा आ गया। थोड़ी देर तक हँसी-दिल्लगी चली, बाद में गाली-गलौज की नौबत आ गयी। हाथा-पाई हो जाना तो यहाँ बहुत ही सहज है, गनीमत है यहाँ तक नौबत नहीं आयी।

ताँगेवाला घोड़े को तैयार कर चिल्लाया, 'समय नहीं है। झूलन, रंगनाथ का मेला, राधा-अष्टमी की धूम-धाम है। अब और समय नहीं है।'

भक्तों की अनगिनत भीड़...रुपया और अठन्नी-चवन्नी फेंकने से धूल उड़ रही है। एक-एक क्षण नवयौवना के मोहक दुपट्टे-सा झिलमिला उठता है।

घोड़े जोत दिये गये। पानी पिये घोड़ों के नथुने फड़क रहे थे। कन्धे हिलाकर वे हिनहिना उठे। इस समय वे और अधिक चुस्त लग रहे थे। इस बार उन्नतकंठी चरण बिहारी ने साइकिल पर सवार होने से पहले उच्च स्वर से सभी को सुनाते हुए कहा, 'किसी भी तरह की असुविधा होने पर आप लोग मेरे पास आएँ। मेरा नाम चरण बिहारी गौतम है। आप जहाँ भी रहना चाहें-महेश्वरी कुंडा, भूतगली, रेतिया बाजार।'

ताँगे में बैठे हुए पंडे इस पर बौखला उठे। चुस्त घोड़ों ने जैसे लोहे की सड़क पर कदम रख दिये हों। उनके टापों की गूँज और मोरों की पुकार को छोड़कर वैसे शान्ति छायी हुई थी।

एकाएक सौदामिनी की नजर पड़ी। इस बार चरण बिहारी ठीक उसके पीछे साइकिल चलाता आ रहा था। सौदामिनी को देखते ही उसने सोचा, यही उसकी श्रेष्ठ श्रोता हो सकती है। वैसे भी इस चन्द्रमुखी के पीछे-पीछे चलना अधिक आनन्ददायी होगा। चरण बिहारी की नजरें टटोलने लगीं, सौदामिनी के सिर पर सिन्दूर है या नहीं। गले में मंगलसूत्र? नहीं। और भी एक निशानी- पैरों में बिछुवे? नहीं। सफेद साड़ी जरूर नहीं पहना है। वैसे भी आजकल कच्चे वयस की विधवाएँ सफेद साड़ी नहीं पहनती हैं।

उसे एक बहुत पुरानी बात का स्मरण हो आया। काफी पहले कोमिल्ला राजशास्त्री और पूर्वी दिनाजपुर से कम ऐसी ही उम्र की विधवाओं का एक दल आया था। वे बहुत दिनों की भूखी थीं। उनके बीच कई चरित्रहीन भी थीं।

उस समय चरण बिहारी बाँका नौजवान हुआ करता था। वह लम्पटों के साथ घूमा करता था। जिस तरह कसाई जानवर को काटने से पहले उसे टटोलकर देखता है, वैसे ही उस लम्पट-मंडली के लोग उन बेबस लाचार युवतियों के कपड़े फाड़कर उनके अंग-प्रत्यंग की जाँच-पड़ताल करते थे। उनके शरीर की बनावट में कहीं कोई कमी नहीं थी। उन कम उम्र विधवाओं की मुख्य समस्या थी दो जून की रोटी।

भगवान कृष्ण के लीला-स्थल वंशीवट के नीचे ब्रजबिहारी ने उन पन्द्रह वर्षीया कम-उम्र युवतियों के खुले हुए स्तन देखे थे-पानी से भीगी हुई फिसलन वाली मिट्टी की तरह पसीने से सराबोर अनावृत वक्ष। वैसी ही लम्पट मंडली काशी-द्वारका आदि तीर्थ स्थानों पर भी इसी तरह चीते के समान घात लगाये घूमा करती थी।

छि:-छि:

ताँगे में बैठी हुई एक बुढ़िया की फटे चीथड़े में सहेजी हुई रोटियाँ छिटककर सड़क पर जा गिरीं। वह उलाहने के स्वर में चीख उठी-छि:-छि:

चरण बिहारी फिर से अपने विचारों की टूटी हुई कड़ी को पुन: जोड़क़र सोच रहा था कि उन बालाओं को माँ बनने का सुख कभी नसीब नहीं हुआ। यदि मिला होता, तो उनकी खुली छातियों पर पानी के दानों की तरह शिशु के होठों की अस्पष्ट छाप अवश्य होती।

घोड़ों की टापों और पहियों की घरघराहट को छोड़ चारों ओर नीरवता थी। इस शान्ति के शुभ अवसर का फायदा उठाते हुए चरण बिहारी पंडा बोल पड़ा, 'इसके बाद सुनिए-' ताँगे में बैठी सवारियों का आग्रह और तरोताजा मुखाकृति को भाँप चरण बिहारी ने बोलना शुरू किया, 'फिर आया सिकन्दर लोदी। यह साढ़े चार सौ बरस पुरानी बात है। इस लोदी ने मथुरा के सारे मन्दिरों को तुड़वाकर उन स्थानों पर कसाई की दुकानें खुलवा दीं तथा टूटी हुई मूर्तियों के टुकड़ों को बटखरे बनाकर मांस तौलने का फरमान जारी कर दिया।'

यह सुनकर सभी मुसाफिर भौंचक्के, ठगे-से रह गये। तभी उसने सामने देखा। ताँगे के हिचकोले खाती सौदामिनी के शरीर से एकाएक हटे हुए वस्त्रों के कारण चरण बिहारी गौतम देख सका कि कहाँ कितना माँस है। पर सौदामिनी के नेत्रों को देखकर वह अवाक रह गया।

लबालब भरे हुए पोखर-से डबडबाये नेत्र। कहीं उसकी बात सुनकर तो नहीं... सिकन्दर लोदी की बटखरे वाली बात सुनकर? नहीं...नामुमकिन।

दर्द। हृदय में छिपे दर्द की छाया का प्रतिबिम्ब तरुणी के चेहरे को और भी मनमोहक बना देता है। परन्तु ठीक इसी समय चरण बिहारी के मन में एक अचरज भरा कांड घटित हुआ। सौदामिनी के चेहरे पर व्याप्त दु:ख की छाया ने मानो मूर्तरूप धारण कर लिया। चरण बिहारी ने भली-भाँति जाँच के बाद महसूस किया कि यह जीवन्त मूर्तरूप किसी और का नहीं, उसकी बेटी का है। उसे लगा, ऐसे ही उसकी बेटी अनेक बार उसकी विचारों की कडिय़ों को छिन्न-भिन्न कर उसकी आँखों के सामने आ खड़ी होती है। वह बेटी, जो मुरलीधर कृष्ण को पहनाने के लिए चमेली की माला गूँथा करती है।

ताँगे लीलाबाग पहुँच गये। लीलाबाग का जंगल कँटीले बबूल की झाडिय़ों से पटा पड़ा है। इन्हीं झाडिय़ों के कारण वातावरण में एक प्रकार की रूक्षता छायी रहती है।

सौदामिनी के ताँगे की बगल से साइकिल चलाते हुए गौतम पंडा कहने लगा, 'लीलाबाग के झूलन की शोभायात्रा अभी तक नहीं निकली है।' उस उत्सव के निशान अभी भी विद्यमान हैं।

यात्रियों ने जगह-जगह जली हुई आतिशबाजी के टुकड़े तथा प्रसाद के दोने फैले पड़े देखे। श्री माँ आनन्दमयी के आश्रम पहुँचने पर वृन्दावन का दूसरा ही रूप देखने को मिला।

गौतम पंडा ने बताया, 'इस बार बरसाना और हाथरस के व्यापारियों ने आना शुरू किया है। इन दोनों जंगलों पर सूखा पड़ा है। अभी एकाध गाड़ी ही यहाँ आयी है।'

रास्ते पर दो-एक भैंसागाड़ियाँ दिखाई दीं। ये गाड़ियाँ सौराष्ट्र की ऊँटगाड़ियों से मिलती-जुलती थीं। लदे हुए सामान के भार से भैंसों की गरदन जमीन की ओर झुकी जा रही थीं और नथुनों से फिचकुर झर रहा था।

ताँगे चुंगी नाका के पास पहुँचे। चुंगी नाके का गेट बन्द था। गेट के पास सिपाहियों का हुजूम दिखा। झूलनोत्सव के कारण बाहर से आने वाले माल पर चुंगी टैक्स लगाया जा रहा था। एक तगड़ा सिपाही लाठी से भीड़ को ठेलता हुआ रायचौधुरी के ताँगे के पास जा पहुँचा। ताँगे के चारों तरफ चक्कर काटकर सिपाही ने कडक़कर कहा, 'नमक है, जुर्माना देना पड़ेगा।'

गौतम ने रायचौधुरी के करीब जाकर फुसफुसाकर कहा, 'दस रुपये निकालिए, सिपाही का मुँह बन्द करने के लिए दस रुपये ही बहुत हैं।'

गौतम पंडा ने सही कहा था। दस का नोट सिपाही ने जेब के हवाले किया और गेट खुल गया। रायचौधुरी का ताँगा आगे बढ़ चला।

रंगनाथजी के मन्दिर का कलश दिखाई पड़ा। देखते ही सौदामिनी की आँखें सजल हो आयीं। उसके स्वर्गीय धर्मभीरु पति को यह मन्दिर बहुत ही पसन्द था। अपने पढ़ाई के दिनों में कई बार वे यहाँ आये थे। झूलन के कारण रंगनाथ में मेला-सा लगा हुआ था। यह मेला कई अजीब व्यापारियों का संगम था। सौदामिनी को सिंहद्वार पर एक दवा बेचने वाले की अजीब-सी दुकान दिखलाई पड़ी। बाघ का तेल, घड़ियाल की खाल, भाँति-भाँति की मछलियों के काँटे आदि सामग्री ने काफी जगह घेर रखी थी। पुराने-से लाउडस्पीकर पर वह धाराप्रवाह अपनी सामग्री का प्रचार कर रहा था। रंग-बिरंगे कपड़ों से सजा हुआ एक छोटा-सा चिड़ियाघर भी था। मेले में गाँव से आये हुए लोगों के लिए वह भी आकर्षण का केन्द्र बना हुआ था। मुख्य द्वार पर प्रेतों के समान दो कतारों में बैठे हुए भिखारी दिखाई पड़े। यह उत्सव का समय है। करोड़पति सेठ ब्रज दर्शन के लिए आएँगे। धोती, साड़ी, कम्बल आदि बाँटेंगे। अत: ब्रज में रहने वाली इन प्रेतात्माओं के लिए इससे बड़ा आकर्षण भला और क्या हो सकता है। अन्धकार से भरी हुई निर्जन गलियों में रहने वाले कोढ़ियों का भी समूह दिखाई दिया। ब्रजवासियों का कथन है कि लोगों की दया पाने के लिए ये कोढ़ी अपने अंग-प्रत्यंग को और भी अधिक वीभत्स बना लेते हैं।

भाग 2

सभी ताँगे चौरास्ते पर खड़े हुए और यहाँ से दो भागों में विभक्त हो गये। अनेक ताँगों को चरण बिहारी ने अपनी वाकपटुता के बूते बिहारीजी के मन्दिर का रुख करा दिया था।

डॉ. रायचौधुरी का ताँगा गोपीनाथ बाजार की ओर जाने वाले मार्ग पर बढ़ चला। सड़क के दोनों तरफ प्राय: टूटे-फूटे ऐसे मकान थे, जिनकी दशा देखभाल और रखरखाव के अभाव में पुराने भोजपत्र-जैसी हो गयी थी। छोटी-छोटी रहस्यमय गलियों की शुरुआत तो दिखाई दे रही थी, परन्तु कहाँ जाकर ये गुम हो गयी हैं, इसका पता नहीं चल रहा था।

दशरथ-अखाड़े के मग्न मन्दिर के पास आकर ताँगा रुक गया। मन्दिर के सभी कमरे अतिथियों के लिए खोल दिए गये थे। डॉ. रायचौधुरी ने अन्दर की तरफ का एक अलग कमरा सौदामिनी के लिए खुलवा दिया। परन्तु भीतर घुसने के साथ ही सौदामिनी ने महसूस किया कि उसका दम घुटने लगा है। अन्दर रोशनी आने का कोई जरिया नहीं था। उसे लगा, मानो वह किसी तहखाने में पहुँच गयी है। सौदामिनी ने क्षुब्ध हो चारों ओर देखा। उसे लकड़ी की छोटी-सी एक खिड़की दिखाई दी। खीझी हुई सौदामिनी ने ताकत लगा खिड़की खोल दी। झीना-सा प्रकाश कोठरी के अन्दर भर गया। खिड़की से लगा नीम का एक वृक्ष था। औरतों की आवाज सुनकर उसने झाँक कर देखा, थोड़े-से फासले पर कुछ वृद्धाएँ घुटनों पर सिर रखे एक लाश के सामने बैठी हुई थीं। परन्तु उनमें से कोई भी औरत रो नहीं रही थी। वे मजबूर-सी बैठी थीं। मरी हुई बुढ़िया के करीब ही उसके फटे-पुराने कपड़े, घड़ा और उपले रखे हुए थे।

एकाएक यमदूत के समान दैत्याकार एक दलाल आ खड़ा हुआ। वह दलाल वृन्दावनवासी नहीं था। वृद्धाएँ सहम कर एक-दूसरे से सट गयीं।

पंडे का दलाल मृत वृद्धा का सामान तितर-बितर कर देखने लगा, उसने लात मारकर घड़ा तोड़ दिया और उपले उठाकर फेंक दिये। डर कर वृद्धाएँ परे सरक गयीं।

दलाल ने मृत वृद्धा के अस्थि-पंजर को टटोला, क्या पता उसकी कमर या बाँह के किसी हिस्से में बँधा हुआ सोने या चाँदी का ताबीज मिल जाए। कुछ मिला। दलाल ने कमर के नीचे से कुछ खींच लिया। झटके के कारण वृद्धा का शरीर अधनंगा होकर एक ओर पलट गया। मनुष्यता और जीवन को हेय सिद्ध करने वाले इस अद्भुत अविश्वसनीय नंगे शरीर को देख सौदामिनी के नथुने फडक़ उठे।

दलाल ने उजाले में आकर उस चीज को जाँचा और मुँह बिचका कर उसे जोर से दूर फेंक दिया।

'अवश्य तुम लोगों में किसी के पास बुढ़िया कुछ रख गयी होगी, क्योंकि वह भजन आश्रम की राधेश्यामी थी।'

सारी वृद्धाएँ एक-दूसरे का मुँह देखने लगीं। एक ने हिम्मत बटोरकर काँपती आवाज में कहा, 'बुढ़िया तुम्हारे बासन माँजती थी और आटा पीस देती थी।'

दैत्य चीख पड़ा, 'चुप रह! चुप रह। मैं मुर्दा ढोने वाले चार आदमियों को बुलाता हूँ। वे इसे घसीटकर यमुना में फेंक देंगे।'

वृद्धाएँ फिर से एक-दूसरे का मुँह देखने लगीं। एकाएक उन्हें मुर्दे की बू पाकर मँडराने वाले उन चारों आदमियों की याद हो आयी। वे राधाष्टमी अथवा रंगनाथ की रथ-यात्रा के मेले की रेल-पेल में मरी-कुचली बुढ़ियों के पास मँडराते रहते हैं। कौन जाने, कंजूस बुढ़िया का कोई सोना-मढ़ा दाँत ही मिल जाए। इसलिए वे ब्रज की अस्सी कोस परिक्रमा, नन्द-उत्सव आदि समारोहों के चक्कर काटते रहते हैं।

सौदामिनी ने खिड़की बन्द कर दी। साथ ही उसने इस पहले दिन ही कसम खायी कि दोबारा फिर कभी यह खिड़की नहीं खोलेगी। आवश्यकता के अनुसार वह दिन में ही दीया जला लेगी। मथुरा से यहाँ तक तो उसे बुरा नहीं लगा, परन्तु इस कमरे में आकर सब कुछ तहस-नहस हो गया। निखन्नी खाट पर बैठकर उसने दोनों हाथों से सिर दाब लिया। नहीं, इस प्रकार से बहुत समय तक नहीं बैठा जा सकता। अभी उसकी बीमार माँ जाकर जाले साफ करने वाली है। कितने दिन रहेगी यहाँ वह? मन-शुद्ध होने तक? वह क्यों आयी है यहाँ? सचमुच वह लांछित है? क्या वह...। क्या वह यहाँ थोड़ी देर बैठकर रो ले? संवेदनाशून्य कसाई जैसे दुष्टों को याद करने की बजाय यहाँ थोड़ी देर बैठकर क्यों न रो ले?

दोपहर के भोजन के बाद उसने छत पर जाकर देखा, सूरज नीमों के झुंड के पीछे जा छिपा है। छत के इस हिस्से से रंगजी के मन्दिर का विशाल परिसर दिखाई पड़ रहा है। परिसर में भीड़ जुटने लगी है। आज मेला है। जमीन में गड़ी वह बल्ली स्पष्ट दिखाई पड़ रही है, जिसे पकड़कर मल्ल लोग अपनी शक्ति का परिचय देंगे। मचान पर चढ़े पुजारी ऊपर से बल्ली पर तेल-पानी डाल रहे हैं। बूढ़े सूरज की निस्तेज किरणों में बल्ली रात के चमकीले साँप-सी चमक रही है।

मचान के पास ही सजा-धजा हाथी खड़ा है। कोलाहल तीव्र हो रहा है। तभी रंगनाथ के बुर्ज से तोप दागने की आवाज सुनाई पड़ी।

उसी समय सौदामिनी को नीचे से माँ की पुकार सुनाई दी, 'आओ बेटी, नीचे आओ। चलो हम लोग भी मेला देखने चलें।' अनुपमा इससे पहले अनेक बार ब्रज-यात्रा कर चुकी थीं, अत: वह यहाँ के गली-कूचों से अच्छी तरह से परिचित थीं। दोनों नंगे पैरों चल पड़ीं। बाजार में अंगूरों के ढेर आईनों-से चमक रहे थे। तुलसी की माला, गोपीचन्दन और माखनमाटी की दुकानें आज निराली सज-धज के साथ उत्सव के लिए तैयार थीं। परन्तु यशोदा दुलाल, वंशीधर और सूर्यवंशी राजाओं की चमचमाती अष्टधातु की मूर्तियों वाली दुकानें बाजी मार ले गयीं। इन दुकानों के सामने ग्राहक कम और दर्शक अधिक थे।

भीड़ को ठेलकर सिंहद्वार में प्रवेश कर पाने का साहस ये लोग नहीं कर पा रही थीं। सौदामिनी का हाथ थामकर अनुपमा ने मन्दिर की दीवार पर चढ़ने की कोशिश की। बाहर बरामदे में भी बहुत भीड़ थी।

बुर्ज से तीसरी बार तोप दागे जाने की आवाज सुनाई पड़ी। ध्वनि सुनते ही लोग प्रसन्नता के आवेश में शोरशराबा करने लगे। नग्न मल्लों ने बल्ली पर चढ़ने की कठिन प्रतियोगिता शुरू की। तेल चुपड़ी बल्ली बहुत चिकनी थी। मचान पर खड़े पुजारी ऊपर से घड़े पर घड़े पानी उड़ेलने लगे। ऊपर चढ़ने वाले प्रतियोगी फिसल-फिसलकर नीचे आने लगे। उन्हें रपटता देख कर जनता ठहाके लगाने लगी।

'ग्रामीण वाद्य मंडली' के सदस्य वीररस से भरी हुई धुन बजा रहे थे। धुन सुनकर मल्लों के हृदय में एक अभिनव रस का संचार होता था। अपनी वीरता को प्रकट करने का भला इससे अच्छा मौका फिर और कहाँ मिलता। किन्तु एक हद तक चढ़ने के बाद वे फिसलकर नीचे आ जाते। फिर चढ़ते, फिर गिरते। फिर चढ़ते, फिर गिरते। दर्शकों के ठहाके बढ़ते जाते। लगता मानो महाप्रभु रंगनाथ स्वर्ण-सिंहासन पर विराजमान हो आनन्द का रसास्वादन कर रहे हों। जैसे आज ये मनुष्य रूप धर कर खेल देख रहे हों।

'चढ़ गया। चढ़ गया,' का कोलाहल हुआ और गर्जना करते समुद्र के समान अशान्त जन समूह एक पल के लिए शान्त हो गया। एक खिलाड़ी तेल-पानी की बौछार की परवाह किये बिना ऊपर तक चढ़ गया। उसने एक हाथ से मचान को छुआ। दर्शकों के कान-फाड़ शोरगुल, हाथी की चिंग्घाड़, अट्टहास और चीख-चिल्लाहट से क्षण-भर में एक अद्भुत माहौल निर्मित हो उठा। सिंहद्वार पर पुलिस और सेवा समिति के कार्यकर्ताओं की लाठियाँ नदी के प्रवाह में बहते हुए नरकुल-समूह-सी लग रही थीं।

रंगजी का उपहार और आशीष...यह सब नहीं देखा जा सकता। किसी ने जैसे अनुपमा और सौदामिनी के कानों के पास आकर कहा, 'भागो-भागो, भीड़ का रेला इधर ही आ रहा है- भागो।'

सौदामिनी ने अपने इस नये जीवन को स्वीकारने का प्रयास किया। स्वभाव से वह जिज्ञासा-प्रिय तरुणी थी। राधेश्यामी महिलाओं का जीवन, अर्वाचीन-प्राचीन मन्दिर, प्राचीन मन्दिरों के खँडहर, बिल्वमंगल-कुंज, शृंगार-वट, साक्षी गोपाल-कुछ भी तो नहीं छूटा था देखने से। वह उन ध्वंसावशेषों के करीब भी गयी, जिन्हें बबूल की कँटीली झाडिय़ों ने मकडज़ाल की तरह जकड़ रखा था। इन स्थानों पर अतीत के घुँघरुओं की झंकार सुनने के कौतूहल से वह कई दिनों तक अभिभूत रही। ब्रज के इन टूटे-फूटे स्तूपों और मन्दिरों के पास अपनी एक मर्मस्पर्शी भाषा है। जयपुर के राजभवन की पुरानी पाषाण-प्रतिमाओं में अब काई लग चुकी है। इसके बावजूद इनमें अब तक वही मर्मस्पर्शी संगीत की ध्वनि गूँजती-सी प्रतीत होती है। गोविन्दजी के प्राचीन मन्दिर की भित्तियों पर उत्कीर्ण दुर्लभ गोपी-चित्रों की हंस-धवल ग्रीवाओं के अग्र भाग को औरंगजेब द्वारा मिटवा दिये जाने के उपरान्त भी अब तक लाल-प्रस्तर के इस मग्न मन्दिर के भीतर बैठकर कान लगाकर सुनने पर एक हृदयस्पर्शी ध्वनि सुनाई पड़ती है।

इस बीच कई दिन बीत गये। डॉक्टर रायचौधुरी ने चिकित्सालय के काम की शुरुआत कर दी थी। अक्सर वे बाहर ही रहते थे। कुछ दिनों तक सौदामिनी दोपहर में अखाड़े के चारों तरफ घूमती रही। अखाड़े के ठीक सामने हाड़ाबाड़ी के तरफ की गली में रहस्यमय संसार था। इसी के पास कुंजबिहारी मोहन का मन्दिर था।

एक दिन कुंजबिहारी मोहन की छत लाँघकर जैसे ही सौदामिनी सीढ़ियाँ उतरकर रहस्यमय संसार की ओर बढऩे को हुई, मन्दिर के किसी निम्बार्क मतावलम्बी साधु ने टोक दिया, 'चूँकि तुम यहाँ के लिए अजनबी हो, इसलिए तुम्हारा उस तरफ न जाना ही बेहतर होगा।'

'छज्जे पर खाट डालकर पड़े रहने तथा खास अवसरों पर पखावज बजाने वाले उस साधु की बात सुन सौदामिनी का कुतूहल बढ़ गया। साधू को प्रणाम कर बोली, 'ब्रजधाम का कण-कण मेरे लिए कौतुक की चीज है।'

गन्दी और पुरानी सीढ़ियोंसे सौदामिनी नीचे उतर गयी। काई लगी लकड़ी से अधढँका अनुपयोगी कुँआ दिखलाई पड़ा। टूटी-फूटी कोठरियाँ दिखलाई पड़ीं। कई राधेश्यामी विधवाएँ इन कोठरियों में रहती थीं। उनकी कंकाल जैसी देहों पर मैली-कुचैली धोतियाँ लिपटी हुई थीं। इसके बाद भी उनके माथे पर गोपी चन्दन और भस्म की रेखाएँ दमक रही थीं।

सौदामिनी को देखकर वे कोठरियों से निकल आयीं। घोर आश्चर्य के साथ उन मरघिल्ली वृद्धाओं ने उसे चारों तरफ से घेर लिया।

'अम्माँ, आप लोग यहाँ किस तरह से जिन्दा हैं।'

वे एक-दूसरे का मुँह देखने लगीं। कोटरों में धँसी अजीब-सी चमक वाली एक ने कहा, 'आवश्यक होने पर काँचमन्दिर तथा रंगजी के फाटक के बाहर बैठकर हम लोग भीख माँगती हैं। कभी प्रसाद की उम्मीद में मन्दिर की सीढ़ियोंपर बैठे-बैठे रात गुजार देती हैं।'

'आप लोग तो राधेश्यामी हैं। भजन-आश्रम में बैठने से दो जून की रोटी तो मिल जाती होगी।'

उनमें से एक खोखली हँसी हँस पड़ी। दूसरी लय मिलाकर बोलने लगी, 'सेठ बाड़ी का भजनाश्रम, गोपीनाथ-बाजार का भजनाश्रम, बड़ाबाग का भजनाश्रम, घुड़साल का भजनाश्रम।

'और सुनो, राधेश्यामियों के भाग का पैसा खा-खाकर मिनीम बाबू मुनीम की तोंद इतनी बढ़ गयी है कि अब तो उठा नहीं जाता। तुम एकदम नयी हो, कुछ नहीं जानतीं। यह पेटू बाबू हमारे सरकंडे के समान हाथ-पाँव देखकर ही समझ जाता है कि कब कौन-सी बुढ़िया भवसागर पार होने वाली है। उसे सब मालूम है कि किसके पास कितना जमा-जथा है।'

एक बार फिर वे प्रेतात्माएँ हँस पड़ीं। उनकी हँसी इस तरह कर्कश थी, मानो अस्थियों का खड़ताल बज उठा हो।

'एक दिन इस पेटू की नजर ज्यों ही मेरे पैरों पर पड़ी, मैं जैसे-तैसे भागकर ही बची। वर्ना तो लात मार कर निकाल देता। मेरे पैर देखोगी?'

उसने अपने टखने पर से जैसे ही फटा हुआ कपड़ा हटाया, सौदामिनी सिहरकर पीछे हट गयी।

सभी औरतें श्वेत-कुष्ठ से ग्रस्त थीं।

'माँजी, जब हम बाँकेबिहारी की गली, शाहजी के मन्दिर के द्वार और मदनमोहन के मन्दिर की सीढ़ियोंपर बैठ भीख माँगती हैं, तब एकदम तुम्हारे समान लोगों के दर्शन हो जाते हैं।'

ऐसा कहकर एक बुढ़िया सौदामिनी के हाथों को सहलाने लगी। सौदामिनी की देह में झुरझुरी दौड़ गयी। रोंगटे खड़े हो गये। लगा जैसे इस प्रेतात्मा को सुख की अनुभूति हो रही है।

हिम्मत पाकर एक दूसरी बुढ़िया ने सौदामिनी की सोने की चूड़ियाँ देखने के बहाने हाथ पकड़ लिया।

एक दूसरी उसके मुँह के पास आकर बोली, 'हमारे खाने के लिए कुछ दान-पुण्य कर जाओ। तुम लोग तो खाने के लिए जीवित हो। परन्तु हमें जीवित रहने के लिए खाने को दो।'

इसी दौरान कई और औरतें भी कोठरियों से बाहर निकलकर सौदामिनी की कोमल देह को छू-छूकर देखने लगीं। आखिर उनकी यह लालसा आक्रामक उत्तेजना में बदल गयी। सौदामिनी का जूड़ा खुल जाने से उसके बाल पीठ पर बिखर गये। ब्लाउज फट गया। यदि इस दरम्यान निम्बार्क सम्प्रदाय का साधु न आ पहुँचता, तो इन प्रेतात्माओं का झुंड जंगली कुत्तों का रूप धारण कर लेता।

पखावजी साधु चिल्ला उठा, 'राक्षसियों, भागो, भागो यहाँ से, तुमने सोचा कि यहाँ कोई नहीं है। इस बार रंगजी के पहिये के नीचे सिर देकर मर क्यों नहीं जाती।

हड़काये गये कुत्ते की तरह काऊँ-काऊँ करती हुई वे अपनी सुरंग-जैसी कोठरियों में घुस गयीं।

साधु उससे बोला, 'बिटिया, पहले ही मैंने तुम्हें मना किया था। वे इतनी पतित हो गयी हैं कि कुछ भी कर सकती हैं। चलो, तुम्हें पहुँचा दूँ। एक बात और सुनो। ये बहुत ही अभागिनें हैं। बेचारी, भूखा क्या पाप नहीं करता। सुना है, तुम लोग ब्रजवास के लिए आये हो। दुर्भाग्य की सतायी इन अभागिनों के कल्याण की कामना करना।'

गोपीनाथ बाजार की सड़क पर आकर सौदामिनी ने नाक और गरदन पर आयी पसीने की बूँदों को पोंछ लिया। अभी भजनाश्रम की छुट्टी नहीं हुई थी। औरतों के बीच खड़ी एक बुढ़िया खँजड़ी बजाकर गा रही थी। दरवाजे के करीब बैठा हुआ हिसाब-किताब रखने वाला पहरेदार यूँ तो गोमुखी में हाथ डाल माला जप रहा था, परन्तु तिरछी नजरों से राधेश्यामिनों पर भी नजर रखे हुए था कि वे ठीक से गा तो रही हैं। भूखे पेट भी उन्हें गाना होगा। गला बैठने को हो, तब भी गला फाडक़र चिल्लाना होगा। राधा-माधव के प्रेम अनुराग के गीत गाने ही होंगे। वियोग में आँसू बहाते हुए उन्हें उद्धव के निकट जाकर कृष्ण का सन्देश सुनाना ही होगा। निधु-वन, निकुंज वन और धीर-समीर घाट पर कृष्ण के सन्धान में व्यग्र होना ही पड़ेगा। सौदामिनी ने देखा, बीच-बीच में गाते समय उनकी नजर साग-भाजी की दुकानों की ओर चली जाती थी। दुकानदार सड़ी-कुम्हलायी सब्जियाँ छाँटकर एक तरफ रख देते हैं। इनकी एकमात्र खरीददार ये राधेश्यामी औरतें ही तो हैं।

सौदामिनी फिर अपनी उस अँधेरी कोठरी में घुस गयी। अपने अकेलेपन को दूर करने की कोशिश की, पर यह सब इतना सहज नहीं था। बीच-बीच में वह अपनी देह का भी परीक्षण करती रहती। सुन्दर, माँसल है उसकी देह। विगत सात वर्षों का मानसिक अत्याचार भी उसके शरीर पर कोई स्थायी निशान नहीं छोड़ सका। न-न अपने आपके साथ कोई समझौता नहीं हो सकता। क्या कभी किसी और की भी ऐसी मानसिक दशा हुई है!

भाग 3

सौदामिनी के चेहरे पर ज्यों-ज्यों दु:ख और अवसाद की छाया गहराती गयी, त्यों-त्यों डॉक्टर रायचौधुरी और माँ अनुपमा देवी की चिन्ता भी बढ़ती गयी।

एक दिन तड़के ही अनुपमा ने सौदामिनी के मुख पर यही छाया देखी। फौरन वह सजग हो इसका निदान सोचने लगीं। अभी हाल में ही सुदूर मानसरोवर से देवधरी बाबा का पदार्पण हुआ है। यमुना के किनारे पानी के बीच मचान बाँधकर रहने वाले देवधरी बाबा की चमत्कारपूर्ण कथाएँ किंवदन्ती की तरह ब्रजवासियों के मुख से प्रसारित होती रहती हैं। यह एक अच्छा मौका है। क्या पता, शायद देवधरी बाबा के करीब रहने से सौदामिनी की अन्तरात्मा का कोई बन्द द्वार खुल जाए। क्या खानदान की जो गौरवशाली परम्परा रही है, उसकी आत्मा के बन्द दरवाजे खुल जाने पर कोई असर नहीं डाल सकेगी!

देवधरी बाबा के आगमन का समाचार अत्यन्त आग्रह के साथ अनुपमा देवी ने सौदामिनी को सुनाया। थोड़ी देर बाद ही माँ-बेटी यमुना की रेत पर चल पड़ीं।

दोनों मौन चली जा रही थीं।

सौदामिनी को एक विचित्र-सी उत्तेजना का अहसास हो रहा था। किसके लिए है यह उत्तेजना, क्या यह साधारण-सा कौतूहल है, या फिर उसके भीतर उस भक्ति का उन्मेष हो रहा है, जिसकी भक्ति रस में भीगकर सभी गौड़ीय वैष्णव एक न एक दिन पागल हो जाते हैं, जिस रस को शृंगार रस का ही एक भेद मान सम्प्रदाय विशेष के लोग आपस में जूझते रहे। क्या यह वही अनचखा रस नहीं है? न-न इन सबको साधारण मानकर वह दिल से नहीं फेंकेंगी। स्वामी हरिदास की बाँकेबिहारी की प्रतिमा पर दृष्टि पड़ते ही वह इसी तरह की उत्तेजना महसूस करती है। इसी रस के नशे में मस्त एक और भी प्राणी है, जिससे सौदामिनी रू-ब-रू हुई है। वह रंगनाथजी के मन्दिर की एक वृद्धा है।

जब महाप्रभु रंगनाथ की परिक्रमा या विलास-विनोद की शोभायात्रा आम्रकुंज के लिए निकलती है, तब पुरोहितों के घर के पास बनी टूटी-जीर्ण-शीर्ण कोठरी से यह बूढ़ी बावली-सी निकल पड़ती है। उसके दुबले-पतले हाथ-पैरों में खून के दौरे से इतना उन्माद सा छा जाता है कि लगता है, वह सम्पूर्ण शोभायात्रा को आलिंगनबद्ध कर लेगी।

उस समय नृत्य के उन्माद में उसका पुराना लहँगा पसीने से भीगा जाता, धवल केशों का जूड़ा खुल जाता और जूड़े में खोंसी हुई चमेली की माला खिसक पड़ती।

कैसा अनोखा अनन्य प्रेम है! यह दुर्भाग्य-सौभाग्य दोनों ही तुच्छ हैं इस प्रेम के सामने। जब भी इस वृद्धा से सौदामिनी का आमना-सामना होता, उसकी आँखों में आँसू उमड़ आते। आखिर ये आँसू किसलिए उमड़ते हैं?

क्या सिर्फ साधारण कुतूहल वश?

सूखे-चिकने बालू पर माँ-बेटी मौन चली जा रही थीं। दो-चार कछुए जल से निकल बालू पर आ गये थे। धीर-समीर घाट के पास लगे अर्जुन के पेड़ों पर मोरों का झुंड पंख पसारे बैठा था।

दोनों पीपे के पुल के करीब पहुँचीं। यमुना की धारा कुछ सूख-सी गयी है। पानीगाँव की तरफ तो यमुना की धारा के बीच जमीन निकल आयी है। पल्ले पार देवधरी बाबा का तम्बू दिखाई पड़ा। इस समय भीड़ कम थी। पानीगाँव, बरसाना आदि गाँवों से भक्तजन आये हुए थे। वल्लभगढ़ और हाथरस के लोग बाद में आने वाले थे। पीपे से बना हुआ पुल पार कर बाबा तक नहीं पहुँचा जा सकता था। यहाँ-वहाँ रुके हुए पानी के वह बच्चे कुंड-जैसे दिखाई पड़ रहे थे, जिनमें भैंसें लोट लगाती रहती हैं। बालू का ऊँचा सा टीला पार कर गहरी यमुना का नीला जल दिखाई पड़ा। लोगों को आर-पार ले जाने वाले मल्लाह नावें बाँधकर वापस आ रहे थे। जब ये दोनों पहुँची, तो उन मल्लाहों ने कुछ और सवारियों का इन्तजार करने को कहा और रेत के टीले पर चढ़ने लगे। उन्होंने पलटकर देखा, कुछ और लोग भी आ रहे थे। गोविन्द मन्दिर की अन्धी मालिन भी आ रही थी। टटोल-टटोलकर रेत के टीले पर चढ़ने के कारण वह लड़खड़ाती-सी नजर आ रही थी। लुई बाजार के अस्तबल का बूढ़ा चौकीदार भी आ रहा था।

पीली गरदन वाले दो गरुड़ पक्षी रेत पर उड़ रहे थे।

सौदामिनी ने ब्रज के ख्यातिलब्ध शिल्पकार चन्द्रभानु राकेश को भी आते हुए देखा। वह राधाबाग होते हुए आ रहा था।

राधाबाग में ताड़ के पत्तों से निर्मित छतरी के तले बैठकर वह अष्टधातु की मूर्तियाँ गढ़ा करता है। निकुंज-वन के बाग में रासलीला के जो अपूर्व तैलचित्र बने हैं, वे उसी के बनाये हुए हैं। उसके पूर्वज कलिंग के थे। ताड़पत्र की छतरी के नीचे बैठे हुए वह अपने पुरखों के किस्से सुनाया करता है। हिन्दूकुश पर्वत की घाटियों से आने वाले तुर्क-अफगानों के विध्वंसकारी दिनों के किस्से। किस्सागो शान्तिभद्र ने सही कहा है,'तब कलिंग में चक्रवर्ती गंग वंश के राजा नरसिंहदेव का शासन था। उड़ीसा का दूसरे देशों से व्यापार बन्द था। सभापति चित्रकार के घर की छत नहीं थी। पेट में अन्न नहीं था, निराश्रित दशा, चित्रांकन का रिवाज ठप्प हो गया था।'

ऐसे दुर्दिन में चन्द्रभानु के बाप-दादाओं ने कँटीली झाड़ियों से घिरे मथुरा के मन्दिर के खँडहरों में पनाह ली थी। उनके कानों में लगातार ये स्वर गूँजते रहते, 'मन्दिर ढहाओ, मस्जिद बनाओ।'

चन्द्रभानु के अनेक पूर्वजों को मन्दिर के प्रांगण में जिन्दा जला दिया गया। यह दु:ख भरा इतिहास अब किंवदन्ती बनकर रह गया है। ताड़पत्र की छतरी तले बैठकर अलीगढ़ी रेत-मसाले से अष्टधातु में प्राण फूँकने और राधा की अनुपम देह को रगड़-रगड़कर चमकाने वाला शिल्पी चन्द्रभानु बस इससे ज्यादा कुछ नहीं बताता।...परन्तु जैसे-जैसे राधा की देह-कान्ति उजलाती...वैसे-वैसे उसके मुख की कान्ति दु:ख के कारण फीकी पड़ती जाती। जैसे धूप में दमकते बालूखंड पर किसी ने मछली का जाल फैला दिया हो। मानो काजी-कोतवालों का अनचीन्हा दल फिर से आ रहा हो। जिस तरह रत्नजटित अक्रूर घाट और चीरहरण घाट डुबो दिये गये थे, उस तरह ही इन अष्टधातु की मूर्तियों को भी खंड-खंड कर यमुना में फेंक दिया जाएगा।

नष्ट हुए ये घाट अब यमुना की रेत पर लाल पत्थरों के रूप में बिखरे पड़े हैं। अगहन-पूस के महीनों में जब यमुना चीरहरण-घाट से दूर हट जाती है, तब यह रेत बुढ़िया के श्वेत-केशों की तरह फैली दिखती है। तब ये खँडहर हजार बरसों से सोये पड़े नरकंकालों की तरह जाग उठते हैं। यमुना पुलिन की रेत पर एक रुँधा हुआ-सा हाहाकार पसर जाता है। रेत में से सर निकाले हुए मरे हुए कछुओं के खोखल और किसी सुहागिन की अधजली चुनरी इस बेआवाज रुँधे हुए हाहाकार को और भी दोगुना कर देते हैं।

सब लोग आ गये क्या-जल्दी करो, पश्चिम में बादल उमड़ रहे हैं।

चप्पुओं से छप्-छप् पानी ठेलते मल्लाहों के लड़कों ने नाव किनारे लगा दी।

इकट्ठे जनों में से कोई आवाज आयी, 'क्या कोई और भी रह गया है?'

एक और दल चीरहरण घाट की तरफ से आ रहा है। किन्तु यहाँ तक पहुँचने में अभी देर लगेगी। इसलिए पहले इतने यात्रियों को पार पहुँचा दिया जाए।

एक-एक करके लोग नाव में बैठने लगे। यमुना जल इस समय कुनकुना था। मेघाच्छादित होने के कारण पानी काला दिखाई दे रहा था।

देवधरी बाबा का मचान स्पष्ट दिखाई पड़ने लगा। उनके मचान के नीचे छोटी-छोटी कुछ अस्थायी झोपड़ियाँ थीं। इनमें बाबा के भक्तगण ठहरे हुए थे। बीच-बीच में एक-दो भक्त उठकर यात्रियों की देखभाल कर रहे थे।

'जमना मैया की जै' बोलते हुए एक-एक कर सभी यात्री नाव से उतर गये। बैठने के लिए दरी-चटाई कुछ भी नहीं थी। सभी रेत पर बैठ गये। मचान के ऊपर बनी झुग्गी से बाबा अभी तक नहीं निकले थे। रसभरी गजक के टुकड़े चारों ओर बिखरे हुए थे।

बूढ़ा घटवार गुहार उठा, 'दर्शन दो प्रभु'। दूसरों ने भी दोहराया, 'दर्शन दो प्रभु'।

बाबा ने दर्शन दिये। वे झुग्गी से बाहर निकल आये। देह पर जरा-सा भी कपड़ा नहीं था। एकदम नग्न। उनकी जटाएँ फागुन महीने की राधाकुंज की मिट्टी की तरह थीं। वे जंगली जीव जैसे लग रहे थे।

घुटने टेक सभी ने अपना सर झुकाया। फिर क्रमवार सभी ने अपने दुखड़े सुनाने शुरू किये।

बाबा के चेले बाँस की टोकरी ले एक-एक के पास जाकर भेंट बटोरने लगे। भेंट में ज्यादातर रसभरी और तरबूज ही मिले। चेलों ने सीढ़ियाँ चढ़कर मचान पर जाकर भेंट को बाबा के सम्मुख रख दिया। उन्होंने आशीर्वाद देकर फलों को प्रसाद-स्वरूप भक्तों में वितरित कर दिया।

यात्रियों ने श्रद्धा सहित प्रसाद ग्रहण किया। इस समय लज्जा निवारण के लिए बाबा ने जो मृगछाला पहन रखी थी, बीच-बीच में वह नीचे खिसक जाती थी। वे अपनी झोपड़ी में लौटने ही वाले थे कि एक भयंकर आर्तनाद ने न केवल उन्हें, बल्कि वहाँ इकट्ठे सभी लोगों को चौंका दिया।

सबने देखा एक हड़ियल बूढ़ा मचान का खम्भा पकड़े खड़ा है।

वहाँ उपस्थित जनसमूह में हलचल हुई-अरे, यह तो रामगोपाल मन्दिर का दोना बनाने वाला बूढ़ा है! क्या हुआ है इसे? सायटिका-कर्कट रोग।

जन समूह में से किसी ने कहा, 'कैंसर रोग'। बूढ़ा फिर चिल्लाया, 'भगवान, अभी मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं। यदि कहीं मैं मर गया, तो उन्हें रंगजी के भिखारिनों के बीच बैठना पड़ेगा।' बूढ़ा रेत पर लोट-पोट हो बिलख-बिलख कर रोने लगा।

देवधरी बाबा मौन हो गये। बाबा के इस मौन से सभी हताश हो उठे। एकाएक बाबा ने कोने में बची पड़ी हुई रसभरियाँ बूढ़े की तरफ फेंक दीं।

यही काफी था। दोना बनाने वाले बूढ़े के लिए तो यही बहुत था। उसने बालू पर माथा टेक बाबा को साष्टांग दंडवत किया। देवधरी बाबा अपनी झुग्गी में प्रवेश करने ही वाले थे कि एक दूसरे आर्तनाद ने उन्हें पलटकर देखने के लिए विवश कर दिया।

सौदामिनी को घोर अचरज हुआ। यह अनुपमा थीं।

'सुनिए प्रभु, आप अभी ना जा सकेंगे। आज तो आपको मेरी बात सुननी ही पड़ेगी।'

भक्त मंडली के बीच से उठ उन्होंने एक दूसरा ही रूप धारण कर लिया। उनकी आँखें आरक्त हो उठीं। वे उत्तेजना वश थर-थर काँपने लगी और सौदामिनी की ओर इंगित कर चीख उठीं, 'प्रभु, मैं अपने लिए कुछ भी नहीं माँगती। पर आप इस लड़की की जिम्मेदारी तो लीजिए। इसका जीवन मेरे साथ बँध गया है। मुझे इस बात का भय है कि मैं इसका उचित मार्गदर्शन नहीं कर सकूँगी। मैं भय से स्तब्ध रह गयी हूँ।'

भीड़ में काना-फूसी होने लगी-क्या यह विधवा है? तब तो इस दुखियारी को अकेले ही यात्रा करनी पड़ेगी। ब्रज में तो कुत्तों-भेड़ियों की भरमार है।

चुप हो जाइए, देखो, बाबा आशीर्वाद दे रहे हैं। बाबा बोले, 'ठीक है कि यह लड़की कुत्तों-भेड़ियों के बीच है, किन्तु चिन्ता की कोई बात नहीं। सीता का स्मरण नहीं है क्या? वे भी तो ठीक इसी प्रकार कुत्तों-भेड़ियों के मध्य रहीं। पर क्या कोई भी उनका बाल बाँका कर पाया? मनुष्य खुद ही अपना मित्र, दुश्मन या स्नेहमयी माँ है। देखो, पश्चिम में मेघ घुमड़ रहे हैं। मल्लाहों की वापसी का समय हो गया है। जाओ, लौट जाओ।'

भक्तों ने साष्टांग दंडवत किया। उनके माथे और बाल धूल-धूसरित हो गये।

नाव पर सवार हो सौदामिनी ने मुडक़र देखा, सभी आ गये हैं। देवधरी बाबा भी अपने चेलों के संग मचान के ऊपर बनी झुग्गी में चले गये हैं।

सौदामिनी ने दोबारा पलटकर देखा। देवधरी बाबा की मचान का खम्भा थामे कोई खड़ा था।

यह तो वही अष्टधातु का बूढ़ा शिल्पी चन्द्रभानु राकेश है। हवा के झोंकों की वजह से उसके वस्त्र शरीर के चिपक गये हैं। इस कारण वह दुबला और बीमार दिखाई पड़ रहा है। 'राकेश लौट जाओ।' भीड़ में से किसी ने आवाज दी, किन्तु शिल्पी ने मुडक़र भी नहीं देखा।

'आ जाओ, नाव फिर नहीं मिलेगी।'

किसी ने फब्ती कसी, 'वह तैरना जानता है।'

किन्तु राकेश में जरा भी हलचल नहीं हुई। एक मुसाफिर बोला, 'काफी अर्से से यह शिल्पकार बहुत ही उदास दिखाई दे रहा है। आपको स्मरण होगा, जब मौनी बाबा की अर्थी यमुना तट के बालू पर रखी गयी थी और उनके शिष्यों ने भिखारियों पर ताँबे-चाँदी के सिक्के लुटाने शुरू किये थे। शायद आप लोगों को याद होगा, तब इसी शिल्पी ने शव पर लुटाये जा रहे सिक्कों के लिए भिखारियों के बीच हुए घमासान का हू-ब-हू चित्र उतार कर रख दिया था। जिस तरह कसाई द्वारा फेंके गये बकरे के मांस पर गिद्ध टूट पड़ते हैं, उसी तरह की चित्रण चित्र में प्रतीत हो रहा था। मैंने तो राकेश को सलाह दी थी कि इस चित्र को खत्म कर दो।'

'कितना वीभत्स था वह चित्र!'

अचानक कोई बोल पड़ा, 'आजकल उसकी दुकान पर कोई ग्राहक भी नहीं दिखाई देते, एक ही मूर्ति को घंटों घिसता बैठा रहता है।'

'अष्टधातु की नक्काशी का धन्धा इन दिनों मन्दा भी है। ज्यादातर शिल्पकारों के घरों पर छप्पर भी नहीं है। राकेश के लिए रुके रहना अब नामुमकिन है। चलो चलें। मौसम भी ठीक नहीं है।'

एक के बाद एक सभी नाव पर सवार हो गये। एक अनजाने दर्द से अनुपमा बेचैन हो उठीं।

देवधरी बाबा ने सिर्फ सीता का किस्सा सुनाया। न जाने कितनी सीताएँ इस पृथ्वी पर पैदा हुई हैं। अनेक सीताओं की दास्तानें इस ब्रजभूमि की माटी में दबी पड़ी हैं।

किसी ने भी नहीं सोचा होगा कि बारिश इतनी जल्दी होने लगेगी। हवा तेज हो गयी। दो-एक बोल उठे, 'केसी घाट तक जाने की जरूरत नहीं है, नाव वंशीवट पर बाँध दो।'

यमुना की रेत पर बारिश की बूँदें तड़ातड़ गिरने लगीं।

नाव वंशीवट घाट पर जा लगी। लोग नाव से उतरकर भागे। किसी को कोई भी परवाह नहीं थी। दोनों माँ-बेटी ने दौड़कर वंशीवट की टूटी दालान में शरण ली। देवधरी बाबा का मचान आँखों से ओझल हो चुका था। बारिश के सघन धुँधले पर्दे के पीछे सब कुछ एकरूप हो गया था। दालान की दूसरी तरफ बैठे हुए भक्तजनों के बीच बैठा बलभद्र अखाड़े का घटवार बोला, 'बहुत बेमौसम की बरखा है यह।'

एक और बोला, 'अच्छा ही हुआ न, देख नहीं रहे धरती कैसी सूखी पड़ी है।'

'अब की यमुना की रेत में तरबूजों की फसल अच्छी होगी।'

'इस बार राधेश्यामी औरतें तरबूज खाकर अपने पेट की आग बुझा सकेंगी।'

'तब तो वे और कुछ खाना बन्द कर देंगी। क्योंकि एक-एक पैसे के बीस-बीस तरबूज मिलेंगे।'

'बिल्कुल ठीक कहा। इनमें कोई तो तादाद से अधिक खाकर शाहजी के मन्दिर की सीढ़ियोंया फिर लालाजी के मन्दिर के सामने कै कर-कर के मौत की घडिय़ाँ गिनेगी। ...मरी हुई बुढ़िया ने अपने क्रिया कर्म के लिए जो पैसे जमा किये होंगे, उन्हें लेकर दलालों में जूतम पैजार होगी। मैंने खुद अपनी आँखों से देखा है। ऐसे मौके पर एक-दो ठोकरें मुर्दे को भी पड़ जाती है।' ऐसा कहते हुए बलभद्र अखाड़े के घटवार ने उसाँस भरकर कहा, 'ब्रज में यह सब क्यों हो रहा है। यह धाम तो संसार का सार है, जगत का मर्मस्थान है।'

मैदा की बोरियों की तरह गुड़ी-मुड़ी लोगों में से कई ठठाकर हँस पड़े।

बारिश रुक गयी। देवधरी बाबा का मचान अब स्पष्ट दिखाई दे रहा था। सतर्कता के साथ एक-एक कर लोग टूटी दालान से बाहर निकल आये।

भाग 4

गोपीनाथ बाजार के बीचो-बीच बिहारीमोहन कुंज है। यहाँ एक प्राचीन मन्दिर था। मन्दिर से लगा हुआ एक पुराना दालान। बिहारीमोहन कुंज के सामने थी रहस्यमयी हाड़ाबाड़ी। इसके दरवाजे मामूली लकड़ी के थे। परन्तु दरवाजा खोलकर अन्दर जाने पर एक दूसरी ही दुनिया नजर आती थी। यहाँ राई-दामोदर का मन्दिर है। इसके अलावा अनेक कोठरियाँ भी हैं। कबूतर के दड़बे के समान घास-फूस से बनी झोपडिय़ों में जीवित कंकाल जैसी वे बूढ़ी विधवाएँ रहती हैं, जो राधेश्यामी होकर अपना जीवन काट रही हैं। बिहारीमोहन कुंज में मन्दिर की पूजा-अर्चना आलमगढ़ का एक पुजारी करता था। लोगबाग उसे आलमगढ़ी कहकर पुकारते थे। मन्दिर के स्वामी ब्रज से बाहर रहते थे। आलमगढ़ी ने मन्दिर-संचालन में पूरी आजादी का फायदा उठाया था। यहाँ तक कि लोग कहते हैं कि आखिर में आलमगढ़ी ने प्रतिमा के चाँदी-सोने के जेवरों तक पर हाथ साफ कर दिये थे। किन्तु इस बीच वृन्दावन के कुछ निठल्ले युवक इसके पीछे पड़ गये। वे मन्दिर के सामने की चाय की दुकान पर शाम के समय अड्डा जमाते तथा ठंड के दिनों में मन्दिर की सीढ़ियोंपर बैठकर गजक खाया करते।

इसी दरम्यान इन निठल्ले युवकों ने ब्रजधाम में कुछ अनोखे कारनामे कर दिखाये। किसी मन्दिर के कोई कर्मचारी ने देवता का करधौना चुरा लिया। इन युवकों ने उसके गले में लोहे का करधौना पहनाकर, एक सजे-धजे गधे पर बैठकर भीड़-भरी गलियों से उसकी शोभायात्रा निकाल दी। वृन्दावन के बच्चे ही नहीं, बल्कि कुआँ पूजने जाती हुई स्त्रियों के साथ चलते हुए हिजड़े तक इस जुलूस में शोरगुल करते शरीक हो गये थे।

मन्दिर की सीढ़ियों पर खड़ा आलमगढ़ी बड़बड़ा उठा था, 'साले अब जहन्नुम में जाएँगे।'

परन्तु उस दिन से आलमगढ़ी डर जरूर गया था। सीढ़ियोंपर बैठकर गजक खाने वाले लड़कों को उसने खुश करना चाहा था।

शशिप्रभा नाम की एक कम उम्र विधवा मन्दिर के कामकाज में आलमगढ़ी की मदद किया करती थी। आखिर में वह आलमगढ़ी के संग एक ही कोठरी में रहने लगी। पर इसे लेकर आलमगढ़ी को सीढ़ी पर बैठकर गजक खाने वाले लड़कों से भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं थी। और भी लोग थे, कई ऐसी विधवाओं को रखे हुए थे। मरते वक्त सिर्फ दो विधवाएँ ही बेफिक्र होकर मरी थीं, क्योंकि पुजारियों ने अपनी इन रखैल विधवाओं का क्रिया-कर्म किया था।

आलमगढ़ी के दिन सुख-चैन से कट रहे थे। किन्तु अकस्मात एक ऐसी घटना घटी, जिससे उसका सुख-चैन भंग हो गया। दरअसल घटना इस तरह हुई। रात के समय मन्दिर और बाजार-हाट सभी के पट बन्द हो चुके थे। यहाँ तक कि गलियों में बाहर सोने वाले भी सो चुके थे। केवल मन्दिर के सामने वाली बड़ी दुकान में मद्धिम-मद्धिम प्रकाश हो रहा था। आलमगढ़ी जरूर जाग रहा था। उसके पास खटिया पर बेफिक्री से शशिप्रभा सोयी पड़ी थी।

ठीक तभी घोड़े की टापें और ताँगे की पहियों की घरघराहट सुनाई पड़ी। शोर उसके दरवाजे पर आकर रुक गया। आलमगढ़ी ने खिड़की खोलकर देखा, नीचे ताँगा खड़ा है। लालटेन की बत्ती तेज कर हड़बड़ाया-सा नीचे उतर आया। आगन्तुक के मुँह के सामने लालटेन ले जाने पर विस्मय-विमूढ़ रह गया। ये बिहारीकुंज के वर्तमान मालिक वृद्ध कृष्णकान्त ठाकुर थे। लोगों के बीच वे ठाकुर साहब के नाम से जाने जाते थे। उनके संग उनकी चालीस वर्षीया अविवाहित बेटी तथा दिमागी बीमारी से ग्रस्त पत्नी भी थी। उनके म्लान चेहरों को देखकर ऐसा आभास होता था, मानो प्रेतात्माओं की टोली आधी रात को धमक आयी हो।

आलमगढ़ी ने मृणालिनी से पूछा, 'बिटिया, बगैर कोई खबर दिये कैसे आना हुआ?'

'यह सब बाद में बताऊँगी। पहले पिताजी को सँभालो। गत दस वर्षों से खटिया पकड़े हैं। इन दिनों उन्हें बिल्कुल दिखाई भी नहीं देता है।'

दोनों ने कृष्णकान्त ठाकुर को सहारा देकर ताँगे से उतारा। ताँगे से उतारते हुए उनके घुटनों से चरमराहट सुनाई पड़ी। इसी दरम्यान शशिप्रभा भी आहट पाकर उठ आयी थी। वह खटिया उठाकर बरामदे में बिछा गयी। सारा असबाब भीतर उठाकर ताँगे को विदा करने के बाद मृणालिनी अन्दर आयी। आलमगढ़ी ने पूछा, 'आज क्या गाड़ी बहुत देर से आयीघ् खाने-पीने का इन्तजाम किया जाए?'

'नहीं, खाने-पीने की जरूरत नहीं है।'

'तो गर्म चाय पीकर गरमाहट का अनुभव कीजिए।' मृणालिनी मुँह-हाथ धोने कुँए की तरफ चली गयी। शशि ने गोरसी में कजलायी आग में नये कंडे डाल दिये।

मुँह-हाथ धोकर मृणालिनी शशिप्रभा के पास आ बैठी।

'शायद तुम्हारा ही नाम शशिप्रभा है नए मन्दिर में तुम्हारा बनाया हुआ भोग न लगाये जाने के लिए ही किसी ने पिताजी को गुमनाम पत्र लिखा था। पिताजी को तो कुछ दिखता नहीं, इसलिए मुझे ही सबकुछ करना पड़ता है। इन दोनों को लेकर बड़ी विपदा में पड़ गयी हूँ।'

शशिप्रभा अपलक देखती रही, परन्तु कुछ बोली नहीं। इसी बीच आलमगढ़ी भी गोरसी के पास आ बैठा।

'बिटिया, तो तुम लोग कुछ दिनों के लिए आये हो?'

'कुछ दिनों के लिए नहीं, हमेशा रहने के लिए आ गये हैं। घर का सारा माल-असबाब बेच आये हैं। लगता है हमारी दशा के बारे में तुमने सुना नहीं।'

'श्रीधाम आनेवालों के मुँह से थोड़ा-बहुत सुना है। तुम्हारे दो भाई भी तो हैं!'

'आप जानबूझकर अनजान बन रहे हैं। बड़े भाई की मौत मौलानापुर गोलीकांड में गाली लगने से हुई। क्या आपसे यह छिपा हैघ् उसकी पार्टी के लोग अँधेरे में छिपकर आये और बता गये कि यह पार्टी के नाम पर गुंडागर्दी कर रहा था। मौलानापुर में गोली से भून दिये जाने पर उसकी लाश की शिनाख्त के लिए जाना पड़ा था। इन बातों को मुझे याद न दिलाइए।'

'शशि, जाओ चाय ले आओ।'

मृणालिनी की बातें सुनकर शशि चाय बनाना छोड़ मारे अचरज के उसका मुँह देखती रह गयी।

'सुना था, तुम्हारा छोटा भाई भी ठीक रास्ते पर नहीं चल रहा है!'

'वह भी इसी पार्टी में है। कभी-कभार रात के अँधेरे में छुपकर आता है। राक्षस बनकर आता है। भूख की मार से विचित्र-सा दिखता है। उसे देख मेरे हाथ-पाँव तो मारे भय के सुन्न पड़ जाते हैं। तीन जनों के हिस्से का सारा भात उसकी थाली में डालकर मैं तो उसके पास सहमी-सिकुड़ी बैठी रहती हूँ। खाते-खाते बक-बक करता रहता है। अब बहुत दिन नहीं रह गये हैं। एक भयंकर इन्कलाब होगा। कई जन मरेंगे। दीदी, पर तू इस बात का गम न करना कि जिन्दगी में कुछ पाया नहीं। तेरी खुदकिस्मती होगी यह कि तू यह इन्कलाब देख सकेगी। मुझे पूरा भरोसा है। कि तू अवश्य ही यह क्रान्ति देखेगी। आलमगढ़ी जी, पूरे वक्त मैं डरी रहती हूँ कि न जाने कब किसको मारकर आ जाए।'

मृणालिनी का चेहरा पीला पड़ गया। नथुनों के करीब दोनों तरफ लकीरों के उभर आने से वह अजीब-सी दिखाई देने लगी। सबसे अधिक डर यदि इस धरती पर उसे था, तो वह यह कि एक न एक दिन उसका भाई नरहत्या अवश्य करेगा।

शशि उठी और ठाकुर साहब और उनकी पत्नी को चाय दे आयी। बाकी ये तीनों भी चाय पीने लगे। कुछ देर के लिए वार्तालाप बन्द हो गया।

चाय का गिलास मुँह से लगाकर चुस्की लेते हुए मृणालिनी गौर से शशि का चेहरा देख रही थी। कमसिन लड़की। प्यारा-प्यारा चेहरा। आलमगढ़ी पुजारी और इसमें जमीन-आसमान का फर्क है। पुजारी ने तीनों गिलास एक जगह रख कहा, 'अब सोने का इन्तजाम किया जाए। मैं ऊपर चला जाऊँगा। शशि को जमीन पर सोने की आदत है। हमारा कमरा साफ-सुथरा है। सबेरा होने में भी अब देर नहीं है।'

मेरी अब सोने की इच्छा नहीं है। डोकर-डोकरी ;बूढ़ा-बूढ़ीद्ध का ही प्रबन्ध कर दो। शृंगारवट के घंटे टनटनाने का समय हो गया है।'

शशि बोली मेंरी भी अब सोने की मंशा नहीं है। जमुना पार घटवारों के बैठने का समय हो गया है। उन्हें खाँसते-खँखारते जाते हुए मैंने अभी-अभी सुना है।

तुम्हारा भी तो जमुना जाने का समय हो गया है। अच्छा हुआ, मैं भी तुम्हारे साथ डुबकी लगा आऊँगी। जरा बत्ती देना, इतने दिनों में मन्दिर के बारे में भूल-भाल गयी हूँ।

बत्ती ले मृणालिनी बाहर आयी यह है पक्का कुआँ और ये रहीं ऊपर जाने के लिए टूटी-फूटी सीढ़ियाँ। थोड़ा लेटना अच्छा रहता। लेटने पर नींद आना सम्भव नहीं। काफी लम्बे अर्से से एक अज्ञात भय मृणालिनी के मन में समा गया है। इससे वह बहुत तकलीफ झेल रही है। अपने बाप को बोझा ढोने वाले गधे से ज्यादा कुछ नहीं समझती। ऐसा गधा, जो कि वजन के बोझ से अधबीच में ही मुँह के बल गिरकर रक्तवमन करता हुआ दम तोड़ देगा।

कुछ कोठरियाँ कुएँ की दाहिनी तरफ भी थीं। दो से लेकर पाँच रुपये तक किराया देकर राधेश्यामी वृद्धाएँ और भिक्षावृत्ति के सहारे रहने वाली कुछ वैष्णव स्त्रियाँ इनमें रहती थीं। मृणालिनी ने बत्ती उठाकर देखा, दरवाजे बन्द हैं। किसी बुढ़िया के खाँसने की आवाज आ रही थी। ये राधेश्यामी बुढिय़ाँ देर तक नहीं सो सकतीं। बत्ती उठा मृणालिनी ने आखिरी कोठरी की तरफ देखा। पिछली बार उसने एक अत्याधिक जरा-जर्जरित बुढ़िया को उसमें रहते देखा था। वह इतनी बूढ़ी थी कि जमुना स्नान के लिए उसे दो बुढिय़ाँ पकड़कर ले जा रही थीं। यह राधेश्यामी बुढ़िया खटिया पर बैठे-बैठे अभागी सती की कथा सुनाया करती, लखपति राजा के संग तीन सौ रानियों के सती हो जाने की कथा। वृन्दावन का उद्धार करने वाले गोस्वामियों की कथा। मीराबाई, वल्लभाचार्य, रूपगोस्वामी, सनातन गोस्वामी, मानसिंह, असंख्यों भक्तमना राजपूतानियों की कथाएँ।

आगे बूढ़ी की कोठरी थी। मृणालिनी चौंक उठी। घुन खाये सड़े हुए किवाड़ खुले पड़े थे। भीतर कोई नहीं था।

मृणालिनी को शशि का कंठ सुनाई पड़ा, दीदी अँधेरे में क्या कर रही हो चलो चलें जाने का समय हो गया है।

क्या डोकर-डोकरी के सोने का बन्दोबस्त हो गया है

पुजारी ने इन्तजाम कर दिया है चलो राधा-अष्टमी के कारण स्नान के लिए ठीक-ठाक जगह मिलना मुश्किल हो जाएगा।

अच्छा मेरे कपड़े भी अपने साथ धर लो। बत्ती भी ले लो। गली में अभी भी गहरा अँधेरा है।

दोनों गोपीनाथ मन्दिर तक पहुँचीं। अँधेरा तब भी था। झुट-पुटे में दोनों प्रेतात्माओं-सी लग रही थीं। इसी बीच जमुना-तट पर सिर मुड़ी विधवाओं का झुंड आ पहुँचा। वे सब भी प्रेतात्माओं-जैसी लग रही थीं।

रूको दीदी सावधानी से नीचे उतरना। यहाँ एक खतरनाक जगह है।

खतरनाक माने

लोगों का कहना है कि इस जगह के जल में किसी देवता का वास है। यहाँ बहुत लोग मरे हैं। अभी सिर्फ दो दिन पहले बरसाना मन्दिर की एक मालिन मरी है। कछुओं ने खाकर उसकी जो दुर्गति की, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।'

तो रहने दो, और थोड़ा आगे चलते हैं।'

नहीं दीदी घबराने की जरूरत नहीं। वह भयानक जगह तो पीछे रह गयी। आप इधर सँभलकर आइए।

दोनों जनीं रेत पर आ गयीं। बालू पर चलना बहुत सुखद लग रहा था। जमुना शान्त थी।

दीदी यहाँ ठीक रहेगा।

जवाब का इन्तजार किये बगैर शशि कपड़े उतारने लगी। आखिर में उसके शरीर पर एक पतली चादर के सिवाय कुछ भी नहीं रह गया।

दीदी पानी में उतरने में आपको डर लग रहा होगा। आइए, आपको सहारा देकर ले चलूँ।'

मृणालिनी के कुछ बोलने से पहले ही अर्धनग्न शशि ने उसे अंक में भरकर खींच लिया।

इस स्पर्श से मृणालिनी ऐसे चौंक पड़ीं, मानो भूत देख लिया हो।

हटो इस प्रकार मुझे मत छुओ, भिनसारा होने को है। अच्छी तरह कपड़े पहनकर पानी में उतरो।'

क्यों दीदी भिनसारा होने में अभी बहुत देर है। मैं तो हमेशा ऐसे ही नहाती हूँ। मेरे पास कपड़ों की बहुत तंगी है।'

यद्यपि अन्धकार था, फिर भी मृणालिनी उसका यौवन देखकर चकित रह गयी। उसे दो दशक पहले का अपना यौवन शशिप्रभा में दिखाई पड़ा। एक ठंडे से एहसास ने उसके शरीर को जकड़ सा लिया। काँपती आवाज में भर्राये कंठ से बोली, जरा ठीक से कपड़े पहनकर पानी में उतरो या दूर जाकर नहाओ। मुझे अकेला नहाने दो। देखती क्या हो जाओ मुझे अकेला छोड़ दो।

शशि दूर हटकर कुछ देर तक मृणालिनी को घूरती रही। इसके बाद सहज नहीं हो सकी। वह पानी में उतर गयी। इस समय यमुना-जल कुनकुना रहता है। और दिन होता तो शशि काफी देर तक तैरती- अठखेलियाँ करती रहती शृंगारवट का घंटा बजते-बजते वह पानी के बाहर आ जाती थी। आरती का घंटा अभी तक नहीं बजा था। लगता था भिनसारा होने में अभी भी विलम्ब है।

दोनों ने चुपचाप वस्त्र बदले और घर की तरफ लौट चलीं। शशि चुप थी। मृणालिनी ने बातचीत शुरू की, इस बार हम लोग सब कुछ गँवा कर यहाँ आये हैं। हमारी वापसी के सारे रास्ते बन्द हो गए।

मतलब

गुजरे पच्चीस बरसों से सिर्फ बैठकर खाया है। अब कुछ नहीं बचा, सब कुछ खत्म हो गया है।'

सुना है आपके पिताजी ने स्वतन्त्रता-आन्दोलन में हिस्सा लिया था

गलत सुना है। पिताजी ने तो अँग्रेजों की तारीफ की थी। अब तक करते हैं। आन्दोलन में भाग लेने की बात निरी झूठ है। वे इतने महान नहीं हैं।

दीदी यही वह सर्वनाशी जगह है, आप मेरा हाथ पकड़ लीजिए।'

नहीं-नहीं, मुझे डर नहीं लग रहा। ऐसा लग रहा है कि कोई पीछे से आवाज दे रहा है।'

घटवार दे रहा है। आज हल्दी-कुंकुम का टीका नहीं लगावाया न।

तुम क्या हमेशा टीका लगवाती हो।

बिना लगाये मानता ही नहीं वह, दो पैसे के लिए ही तो आधी रात से आ बैठता है।

खतरनाक जगह पारकर वे घाट की सीढ़ियाँ चढ़ने लगीं। रेत में धँसी सदियों पुरानी सीढ़ियाँ।

हम बिहारीमोहन कुंज को बेचने का निश्चय कर यहाँ आये हैं

शशि सुनकर अचकचा उठी फिर अपने को संयत कर पूछने लगी, 'मन्दिर बेचकर रहेंगी कहाँ ?'

राधेश्यामी बुढ़ियों की कोठरियों में एक खाली जान पड़ती है।

वह गन्दी कोठरी है बुढ़िया वाली। छिरू छिरू, आप नहीं जानतीं वह बुढ़िया उस कोठरी में कितनी खराब बीमारी से मरी है। कितनी खुशामदें कीं मैंने मेहतर की, फिर भी अन्दर जाने को तैयार नहीं हुआ।'ये सब फिजूल की बातें हैं। फिर हम एकदम मजबूर हैं। मन्दिर बेचने के बाद हमें ट्रस्ट में मिलने वाली आमदनी से गुजर-बसर करनी होगी। दूसरा कोई उपाय नहीं है, क्योंकि हम सब बेचखोचकर हिसाब चुकता करके ही आये हैं।'

शशि उसके आगे कुछ न कह सकी। उसे लगा, उसकी आँखों में दाह पड़ रही है। मन्दिर बिकने का मतलब है-सब कुछ खतम।

शशि घाट के मन्दिर के पट अभी-अभी खुले हैं। मैं मन्दिर में प्रणाम करके ही जाऊँगी।

दोनों के मन्दिर से लौटते वक्त भी अँधेरा कम नहीं हुआ था, परन्तु गोविन्द जी, राई-दामोदर और हनुमान मन्दिर की शंख और घंटों की ध्वनि से सारा वृन्दावन गूँज उठा। इससे पहले ऐसे सुप्रभात की बेला में हजार कष्टों के बीच भी शशि आनन्द का अनुभव करती थी, किन्तु आज उसे एकान्त की दरकार थी, जहाँ बैठकर वह कुछ सोच विचार सके।

भाग 5

देवधरी बाबा से मिलकर लौट आने के पश्चात अनुपमा टूट-सी गयीं। वह दुबली हो गयीं बहुत लम्बा आराम नहीं कर पायीं। ब्रज की चौरासी कोस परिक्रमा का समय आ गया। हनुमान टीला और बाँकेबिहारी के उद्यानों में पंडे परिक्रमा के आयोजन को लेकर बैठकें करने लगे। इस दरम्यान ऊँट की कूबड़-जैसे तम्बुओं को फैलाकर जाँच होने लगी। अलग-अलग मन्दिरों के अजीब-अजीब झंडे लिए हुए घुड़सवार सन्तरियों ने अभ्यास शुरू कर दिया। ब्रज के हर एक पावन स्थान का भ्रमण करना होगा। हजारों भक्तजनों के पैरों की धूल से मथुरा का मार्ग वह स्थान जहाँ कंस का वध करने के बाद भगवान ने माथे का पसीना पोंछा था त्रेता में जहाँ शत्रुघ्न ने लवबकासुर का वध किया था सतयुग में जहाँ भगवान ने हिरण्याक्ष को मारकर विश्राम किया था वह विश्रामघाट महाराजा सिन्धिया का मानस मन्दिर द्वारकाधीश सतयुगी भगवान बरहाका चतुर्भुजी मन्दिर गोकर्ण महादेव पंचमुखी हनुमान सोमतीर्थ भूतेश्वर दाऊजी नहीं-नहीं इस मौके को नजरअन्दाज नहीं कर सकतीं अनुपमा। आजकल अनुपमा सोचती रहती हैं कि उनके जीवन में यह सुयोग दुबारा नहीं आएगा। अनुपमा के यहाँ पानी भरनेवाली राधेश्यामी बुढ़िया ने कहा माँ तुम डोली में जाओ। मैंने पुरानी डोलियों पर रंग-रोगन करते हुए अष्टधातु-शिल्पी राकेश को देखा है।

अनुपमा खुश हो उठीं। सही है। इससे रास्ते में बीमार पड़ने का भी डर नहीं रहेगा। आज ही एक डोली का इन्तजाम करना होगा। वरना नन्दगाँव और बरसाने के अपंग भक्त अपने लिए बन्दोबस्त कर लेंगे।

खिड़की खोल अनुपमा ने देखा भीड़ भरती जा रही है। सजे-धजे ताँगों पर झंडियाँ लहरा रही थीं। राधारमण और गोविन्दजी के मन्दिर से भेंटस्वरूप मिले लाल-नीले कपड़े सिर पर कसे यात्रियों की भीड़ बढ़ रही थी। आज कृष्णाष्टमी है इसलिए शायद इतनी भीड़ है। अनुपमा सतर्क हो गयीं। सौदामिनी को बाँकेबिहारी के प्रांगण में ले जाना होगा। ऐसे उदात्त क्षणों में मनुष्य के आत्म-द्वार खुल जाते हैं पर वह तो कच्चे वय की छोकरी है। उसकी आत्मा का द्वार अनुपमा की नाक पर पसीना छलछला आया। इस मौके का फायदा तो हर हाल में उठाना ही पड़ेगा। पर वह ब्रज चौरासी की परिक्रमा डाकखाना अस्पताल नाटक मंडली इत्यादि के लिए घूमने वाली वह ब्रज चौरासी की परिक्रमा सौदामिनी क्या इन सबको सहन कर सकेगी तीन महीनों तक भैंसागाड़ी का सफर और तम्बू का रहना-यह सब बिता सकेगी वह?

कृष्णाष्टमी का नन्दोत्सव देखने माँ-बेटी दोनों चल पड़ीं। हरिद्वार, द्वारका, अयोध्या, लठावन आदि के तीर्थयात्रियों से श्रीधाम वृन्दावन का हर गली-कूचा भरा हुआ था। कृष्ण मन्दिरवाली गली में कतारबद्ध बैठे कोढ़ियों को तो भीड़ खूँदे चली जा रही थी। इसके बाद भी उनके भीख माँगने के कटोरे चिल्लर से भरे पड़े थे।

मन्दिर के परिसर में नन्दोत्सव शुरू हो चुका था। मुख्यद्वार से अन्दर घुस पाना असम्भव था। जूता-चप्पल धरने वाली कोठरी भी आज भीड़ से भरी हुई थी। सौदामिनी की दृष्टि अचानक एक ऐसे व्यक्ति पर पड़ी जो इन माँ-बेटी की असहाय दशा को भंडारेवाले बरामदे से तक रहा था। सौदामिनी ने महसूस किया ये दो आँखें पहले भी कहीं देखी हैं पर किधर उसे याद आया, मथुरा छावनी से आते वक्त देखी थीं।

भीड़ को धकियाता हुआ चरणबिहारी आगे आया। दोनों के सामने आकर उसने परम श्रद्धा दिखाते हुए कहा, राधे-राधे।

अनुपमा ने भी सिर नवाकर कहा, राधे-राधे।

ऐसे खड़े-खड़े तो आप लोग दर्शन नहीं कर पाएँगी। मेरे पीछे-पीछे बाहर आइए।

भीड़ को धकेलता हुआ चरणबिहारी एक गुप्त-मार्ग से दोनों को लेकर नट-प्रांगण के ऊपर बरामदे में जा पहुँचा। यहाँ से नीचे चल रहे उत्सव का तेज स्वर और बिहारीजी का अपूर्व बाँकपन यहाँ से भली-भाँति सुना-देखा जा सकता था।

यहाँ पर मन्दिर के खास पंडे के अलावा किन्हीं दूसरे पेशेवर पंडों को नहीं आने दिया जाता। मेरे परिवार के लिए यह जगह आरक्षित थी, वे लोग तो आ नहीं सके, अब आप लोग बिना किसी बाधा के दर्शन कीजिए।

अनुपमा बोलीं मैं कैसे आपका आभार प्रकट करूँ?

ऐसा मत कहिए। यात्रियों की मदद करना तो हमारा फर्ज है। लौटते समय भी आपको भीड़-भाड़ से होकर नहीं जाना है। आप लोग अष्टसखी के मन्दिर से होकर मदनमोहन मन्दिर के करीब से जा सकेंगी। इसी दरम्यान मन्दिर के आँगन में काफी तेल-पानी डाला जा चुका था। फिसलन इतनी ज्यादा हो गयी थी कि अगर कोई रपट जाता तो दूर जा गिरता। पानी से बाहर निकली धूप में दमकती भैंस की पीठ के समान मन्दिर का आँगन दिखाई दे रहा था।

उत्सव शुरू हुआ। चमचमाता जोधपुरी कोट पहने एक पंडे ने उच्च-स्वर से घोषणा-पत्र पढ़कर सुनाना प्रारम्भ किया इस बार कृष्णजी के आँगन में सोने की हँसुली फेंकने का सौभाग्य बरसाना के रामनिवास की सेठानी को प्राप्त हुआ है। शहंशाह अकबर महान द्वारा जारी किया गया राम-सीता के चित्र से युक्त सोने का सिक्का विजेता को भेंटस्वरूप प्रदान किया जाएगा।

भीड़ में खुसुर-फुसुर हुई। अनुपमा के पास खड़ी किसी ब्रजवासिनी ने पूछा सेठानी क्या ब्रजवासिनी है?

मालूम नहीं।

तब तक दूसरी स्त्री बोल पड़ी हाँ वे ब्रजवासी हैं। बड़ी भक्त हैं। वे मदनोत्सव पर राधेश्यामियों और भीख माँगकर गुजर-बसर करने वाली विधवाओं के बीच कम्बल बँटवाती हैं।

तभी तोप दागे जाने की भयंकर गर्जना सुनाई पड़ी। सभी फर्श की तरफ देखने लगे।

तभी कृष्ण को भक्ति-भाव से शीश झुकाकर प्रणाम कर सेठानी ने पूरे वेग के साथ हँसुली फर्श पर फेंक दी। कुछ अधनंगे ब्राह्मण-बालक चिकने फर्श पर आगे बढ़े। वे इस प्रकार चल रहे थे जैसे तैर रहे हों। लट्ठे के खेल के समान बच्चे बार-बार रपटने लगे। घुटनों के बल चलते हुए वे पूरे बन्दर लग रहे थे। हँसुली तक पहुँचना नामुमकिन लग रहा था।

हँसी चिल्लाहट और सीटियों के बीच किसी को किसी बात की सुनाई नहीं दे रही थी। आखिर में कई बच्चे हाँफने लगे।

अनुपमा के करीब बैठी हुई एक ब्रजवासी महिला ने सिर से चादर उतारते हुए कहा, 'पिछले तीन दिनों से फर्श पर तेल डालकर परत पर परत चढ़ाई जा रही थीय लगता है आज कोई भी हँसुली नहीं पा सकेगा।'

प्रतियोगी बालकों को कृष्ण चरणामृत मिली, लस्सी पीने को दी गयी। थोड़ा आराम करने के बाद फिर से खेल शुरू हुआ। इस बार बिल्कुल देर नहीं लगी। जब तक लोग सँभलें-सँभलें, तभी किसी पंडे का लड़का कमान से छूटे तीर की तरह आया और उसने झपटकर हँसुली उठा ली।

तालियों की गड़गड़ाहट और खुशी के शोरगुल से कान दी हुई बात का सुनना भी मुश्किल हो गया।

इसके बाद दर्शक तितर-बितर होने लगे। शोरगुल होने लगा।

अनुपमा बोलीं हम लोगों का यहाँ से निकल जाना ही अच्छा रहेगा। चरण ने बताया था कि अष्टसखी की तरफ से एक सरल मार्ग है।

भीड़ की धकापेल में दोनों के कपड़े फटते-फटते बचे। कतार से बैठे हुए कोढ़ियों को भी भीड़ की धक्का-मुक्की झेलनी पड़ी। इसके बाद भी वे डटे रहे।

अनुपमा बोलीं मदनमोहन मन्दिर के पट खुले हुए हैं।

तभी चरणबिहारी हाजिर हो गया चलिए आपको मदनमोहन के दर्शन करा दूँ। अभी कोई भी पंडा नहीं मिलेगा। किन्तु मेरे साथ पंडे जैसा सुलूक नहीं करना।

चरण बिहारी अपनी ही तरंग में खिलखिला पड़ा। तीनों सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। दो उपेक्षित छतरियाँ दिखाई पड़ीं। इस वक्त यहाँ पर चमगादड़ों का बसेरा है। कभी मन्दिर तक पहुँचने के अनेक रास्ते हुआ करते थे। अब ये सब बबूल और बेलों से रुँधे पड़े हैं। नीम के एक वृक्षतले पहुँचने पर चरणबिहारी बोला, इस नीम को देखिए। महाकवि तुलसीदास जी ने इसी के नीचे बैठकर मदनमोहन से अनुरोध किया था। तुम अपना यह श्याम रूप छोड़कर मेरे प्रिय धनुर्धारी दशरथ-पुत्र राम का रूप दिखलाओ।' लोगों का कहना है कि तब इस अनन्य भक्त की मनोवांछा की पूर्ति हेतु मदनमोहन ने एक अलग ही अद्भुत रूप धारण किया-वक्षस्थल पर भृगुपद चिह्न सिंह-स्कन्ध,कम्बु-ग्रीवा, वृन्दावनबिहारी का एक अलग ही रूप।

तीनों ने बाकी सीढ़ियों पर पहुँचकर दूर बहती यमुना की शोभा को देखा। यमुना के बीचो-बीचबबूल की कँटीली झाडिय़ों से भरे हुए बालू के दो टीले नजर आये। 'लगता है मन्दिर में भोग लगाया जा रहा है। इसलिए पट बन्द हैं। हमें यहाँ कुछ देर ठहरना होगा। चलिए, आदित्य टीले के पास बैठिए।'

इसी बीच आदित्य टीला के मन्दिर के पट खुल गये। प्रधान मन्दिर से शंख और घंटा ध्वनि आने लगी। इस पर अनुपमा बोलीं, 'जब तक मैं यहाँ बैठ माला जपती हूँ, तुम परिक्रमा कर आओ।'

माला प्रसाद लाने के लिए चरण बिहारी मन्दिर के अन्दर चला गया। यहाँ पर बाँकेबिहारी के मन्दिर की तरह भीड़-भाड़ नहीं थी। सौदामिनी फूलों से लदे हुए गुलमोहर के नीचे बैठ गयी। यहाँ शान्ति थी। टहनी-टहनी फूल खिले थे। ऊपर मेघाच्छादित आकाश था। सौदामिनी को यहाँ बैठना बहुत भा रहा था। वह देर तक एकांगी बैठना चाहती थी पर ऐसा न हो सका। चरण बिहारी परछाई की तरह उससे चिपका हुआ था। वह सामने से आता दिखाई पड़ा।

यहाँ से यमुना की छटा कितनी सुन्दर लग रही है, देखिए, कछुए कैसे ऊपर-ऊपर तैर रहे हैं। शायद आपको याद होगा। पहले दिन मैं मथुरा से वृन्दावन तक आपके पीछे-पीछे चुंगी नाका तक आया था। मैंने समझा, आप लोग तीर्थयात्री होंगे। मैं नहीं जानता था कि आप लोग यहाँ रहने के लिए आये हो। वाकई आप लोग रहने आये हैं आप जैसी कम उम्र लड़कियाँ ब्रज में असंख्य हैं। लोग-बाग कहते हैं कि उन्हें मिर्गी के दौरे पड़ा करते हैं।

सौदामिनी मौन रही। चोटी में गुँथी चमेली की सूखी माला को उसने खोल कर दूर फेंक दिया।

ठाकुर साहब का बिहारीमोहन कुंज अब तक नहीं बिका था। उनकी जमा-पूँजी समाप्त होने आ गयी थी। दैनिक अखबारों में इश्तहार पढ़कर तथा पंडों द्वारा खबर होने से कुछेक ग्राहक आये भी, परन्तु उनकी सौदेबाजी का ढंग देख ठाकुर साहब क्षुब्ध हो गये। रुपये-पैसों को लेकर प्रत्येक ग्राहक मरभुक्खा राक्षस दिखाई पड़ रहा था, बल्कि मन्दिर के बिकाऊ होने की खबर से कुछ पंडे तो दलाली खाने की फिराक में थे।

ठाकुर साहब छड़ी के सहारे शाम को जब आ बैठते, तो पंडों का झुंड उन्हें घेर लेता। सीढ़ियों पर बैठे-बैठे ठाकुर साहब अजीब दास्तानें सुना करते। एक दिन राधामाधव का एक नौजवान पंडा बोला, 'ये जो बिहारीमोहन कुंज है न, यह राधामाधव की जमीन पर खड़ा है इसलिए लाजिमी है कि मन्दिर के बिकने पर चार हिस्सों में से एक हिस्सा पंडे को भी मिलना चाहिए।'

ऐसे अजीब-अजीब किस्से ठाकुर साहब सीढ़ियों पर बैठे-बैठे सुना करते। मृणालिनी ने उन्हें याद दिलाया कि शेष पैसों से अधिक से अधिक एक महीना और गुजारा हो सकता है, इसके बाद कोठरी में रहना होगा और ट्रस्ट से मिलने वाले पैसों से गुजारा करना होगा। डट कर माछ-भात उड़ाने और छक कर दारू पीने का ही नतीजा है जिसकी सजा जिन्दा-जीते जी मिल रही है। बा-मुश्किल अन्नकूट तक पैसा चल जाए तो गनीमत समझो।

उत्सव-प्रियता ब्रज की विशेषता है। अन्नकूट भी जोरशोर से आ पहुँचा। आज एक भी बूढ़ी विधवा अपनी कोठरी में बैठी नहीं रह सकी। छप्पन भोग और छत्तीसों व्यंजनों के आज पहाड़ के पहाड़ देखने को मिलेंगे। मन्दिर में पकवानों के अम्बार के बीच विराजमान राधाकृष्ण के अपूर्व शृंगारयुक्त विग्रहों के सम्मुख प्रत्येक वृद्धा को मत्था टेकना होगा।

इस अभिराम दृश्य को निहारती सौदामिनी के कानों में एक अजीब-सी आवाज सुनाई पड़ी ठीक से आँखें खोलकर अन्नकूट के दर्शन कर लो। कहते हैं इससे साल भर अन्न की कमी नहीं होती।

मृणालिनी ने पीछे मुडक़र देखा, फटे चिथड़ों में एक राधेश्यामी बुढ़िया चलने-फिरने में असमर्थ दूसरी बुढ़िया को हाथों के सहारे उठाकर दर्शन करा रही थी।

बढ़ते हुए जन-सैलाब के बीच अधिकतर वे ही राधेश्यामियाँ थीं, जो अधपेट अपना जीवन बिता रही थीं। उनकी ललचायी आँखों को देखकर लगता था कि जैसे मौका मिलते ही वे अन्नकूट के भात के पर्वताकार ढेर पर टूट पड़ेंगी, परन्तु तुरन्त ही इस कभी न पूरी होने वाली इच्छा को सोचकर उनकी आँखों में निराशा उतर आती।

काफी लम्बे अर्से से अपनी कोठरियों में मौत का इन्तजार करती हुई पंगु वृद्धाओं को सक्षम औरतें हाथों पर उठाये चली आ रही थीं। पूरे ब्रज में फैली हुई लगभग तीन हजार दरिद्र विधवाएँ अन्नकूट के दर्शन का लोभ भला कैसे छोड़ देतीं। फाँका करने वाली इन गरीबनियों के मन में यह दृढ़ आस्था है कि अन्नकूट का दर्शन मात्र सालभर उन्हें भुखमरी से दूर रखेगा।

मृणालिनी गोविन्दजी के फर्श पर बैठ गयी। राधावल्लभ मन्दिर नहीं चलोगी दीदी शशि ने पूछा।

नहीं मैं यहीं गोष्ठी शुरू होने का इन्तजार करूँगी।

परन्तु भद्र जनों के घरों की स्त्रियाँ ऐसी गोष्ठियों में नहीं बैठतीं।

भद्र जन क्या मखौल है? बेघर राधेश्यामियों के समान कोठरियों में रहने के बाद भी हमें भद्रजन कहेंगे हम अब भिखमंगे हैं। खाते-पीते लोग जब भिखारी हो जाते हैं तब उनके दर्द की कोई सीमा नहीं होती।

तभी गोष्ठी का गजर बजा। पंक्तिबद्ध बैठी औरतों को छोड़ कर बाकी दूसरी औरतों को पुजारी ने बाहर खदेड़ दिया। सिंहद्वार बन्द कर दिया गया। मृणालिनी बेपरवाही से कतार में बैठी शशि के साथ आ बैठी।

वह पुजारी को अचरज में डालते हुए बोली थोड़ा और दीजिए।

मृणालिनी की शह पाकर भूखी राधेश्यामियाँ भी चिल्ला उठीं- दो और दो। गोविन्दजी के भंडार में कोई कमी नहीं है। इसकी फिकर मत करो।

पुजारी खीझ गया अरी बुढ़ियो यहाँ डटे रहने से कोई फायदा नहीं होने का। राधादामोदर मन्दिर में जाओ नहीं तो वहाँ का भंडारा खत्म हो जाएगा।

पुजारी की चेतावनी सुन वृद्धाएँ गप-गप प्रसाद निगलने लगीं। मृणालिनी के निकट बैठी हुई एक ने दूसरी से पूछा राधादामोदर मन्दिर में आज क्या भोग मिलेगा?

बूंदी के लड्डू और पूरी।

नहीं वहाँ बताशे मिलेंगे।

अब समय नहीं बचा, वृद्धाएँ बर्तन चाटने लगीं।

सोच रखा था सारे मन्दिरों के दर्शन करूँगी पर अब कहीं भी जाने का मन नहीं हो रहा। कहीं अच्छी जगह चलकर बैठने को मन कर रहा है। मृणालिनी ने कहा।

शशि खुश हो गयी। यूँ भी उसे बैठने में दिक्कत हो रही थी।

शशि तुम एक सच्चरित्र लड़की लगती हो।

भाग 6

यदि तुम आलमगढ़ी के साथ मन्दिर में नहीं रह रही होती, तो शायद एक अच्छी जिन्दगी बिता सकती थी।

शशि ने सर झुकाकर उत्तर दिया, मेरे पास इसके सिवाय कोई चारा नहीं था परन्तु आलमगढ़ी ने मेरा कोई अनिष्ट नहीं किया। युगल उपासना के नाम पर ब्रज में अनेक स्त्रियाँ पुरुषों के साथ रह रही हैं। इस पृथ्वी पर जिसका कोई धनी धौरी न हो अन्धकार में डूबे हुए भविष्य की आशंका ने जिसे किंकर्तव्यविमूढ़ कर दिया हो, उसके पास इसके सिवाय कोई दूसरा उपाय नहीं है। पर यह सब आप जैसों की समझ में नहीं आएगा। यह सब वही समझ सकेगा जिस पर बीत चुकी है।

मतलब आलमगढ़ी ने तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ा।

आपका मतलब मैं समझती हूँ। सुनिए एक दिन उसके कहने से मैं निर्वस्त्र हो गयी। दीपक के उजाले में उन्होंने मुझे चूमती नजर से देखा। इसके बाद दीपक बुझाकर अपने बिस्तर पर जाकर सो गये।

आलमगढ़ी ने तुम्हारा अनिष्ट नहीं किया।

वे कर नहीं सके। सौदामिनी ने समय बीतने के साथ जिस मानसिक बदलाव की बात सोच रखी थी, उसमें ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

पिता के अस्पताल में नर्स की जिम्मेदारी उसी ने सँभाल रखी थी। परिक्रमा की राह के रोगियों के घाव धोने का कार्य तथा गन्दगी से अलग करने में वह एकदम बेहिचक रहती।

एक दिन वह बालाजी के मन्दिर की सीढ़ियों पर मृत्यु का क्षण गिनने वाले एक मरीज को अपने पिता के साथ जाकर उठा लायी। वह आदमी चिल्ला.चिल्ला कर भीख माँगा करता था। एक दिन सौदामिनी ने जब उसके पैर के घाव धोये फिर उसे कुछ खाने को दिया, तो वह झल्लाकर बोला, मुझे बचाने की कोशिश मत करो। मैं बहुत दूर से आया ही हूँ कि ब्रजधाम की रज प्राप्त कर सकूँ।

फिर वह ज्यादा दिनों तक नहीं जी सका।

दूसरा मरीज लुई बाजार की घुड़साल में जमीन पर मौत का इन्तजार करते हुए पड़ा रहता था। रायचौधुरी ने उसका मुआयना करने पर पाया कि रोटी और उपचार के अभाव ने उसे मौत के मुँह में पहुँचा दिया है। पहली बार सौदामिनी ने किसी को भूख की यातना से दम तोड़ते देखा।

शुरुआती दौर में सौदामिनी ने उत्साह में आकर रायचौधुरी की काफी मदद की। कभी.कभी उसे लगने लगता कि जिन्दगी से उसने सुलह कर ली है।

दो माह तक लगातार अपने पिता के साथ सैयद बाजार लुई बाजार वनखंडी महादेव, अनाजमंडी यहाँ तक कि हरिजन मोहल्ले में उपजी हुई काँटों की झाड़ियों और सुनसान स्थानों में भी मरीजों को खोजती फिरती थी। उसने भूखे मरते हुए अनेक अधमरे भक्तों को ब्रज की माटी पाने के लिए मौत की घड़ियाँ गिनते हुए देखा। ये सभी फटेहाल भिखारी थे। कुछ ने अपने कफन.काज के लिए कमर की टेंट में पैसे खोंस रखे थे।

इसी व्यस्तता के बीच सौदामिनी एक दिन यमुना स्नान के लिए गयी। असहनीय धूप के कारण घटवार उठ चुके थे। तर्पणादि के लिए आये हुए कुछ लोग यहाँ वहाँ डटे हुए थे।

सौदामिनी को दिखाई पड़ा पीपे के पुल पर एक औरत खड़ी है। निकट जाने पर मालूम पड़ा कि यह तो शशि है।

मेरी बहुत दिनों से इच्छा थी कि आपसे अकेले में बात करूँ।

पीपे से बने पुल के एक कोने में दोनों जा बैठीं। पुल के करीब ही जनशून्य जगह पर किसी के क्रिया कर्म सम्बन्धी तुलसी फूल मालाएँ आदि पड़ी थीं। जल पर पड़ती हुई पुल की छाया में उनकी परछाइयाँ जुगनू सी चमक रही थीं।

इस समय नहाना ठीक होगा, क्योंकि भीड़ छँट चुकी है। इस पर सौदामिनी ने अपनी सहमति व्यक्त की। कपड़े बदलकर दोनों पानी में उतरीं। कछुओं से अपने आपको बचाते हुए कुछ देर दोनों नहाती रहीं।

किनारे आने पर हठात शशि ने सौदामिनी से पूछा, सच बतलाना क्या ब्रजधाम आकर आपको मानसिक शान्ति मिली कहने का मतलब यह कि बची हुई जिन्दगी यहाँ गुजारने का निश्चय लेकर आयी हैं.

अकस्मात किये गये प्रश्न का सौदामिनी तुरन्त कोई उत्तर नहीं दे पायी। तट पर आकर वह केशों से पानी निचोड़ने लगी।

मुझे मालूम था कि आप उत्तर नहीं दे सकतीं। काफी अर्से से मैं भी एक मानसिक यातना में हूँ। सुना है आपने भी बहुत दुरूख दर्द झेले हैं। बताइए न आप किस तरह रहने का विचार कर रही हैं.

सौदामिनी शशि के सवाल को अनसुना कर कपड़े बदलने में लगी रही। एक आकस्मिक सा सवाल था यह।

तभी तर्पण के लिए कुछ लोग जुड़ आये। थोड़ी सी दूरी पर एक बूढ़ा खजूर के पेड़ के नीचे जमीन खोद रहा था।

यह क्या ढूँढ़ रहा है?

साँप।

दोबारा हँसकर शशि ने कहा हाँ। हाँ वह साँप तलाश रहा है। वह साँप पकड़कर चुपके से किसी के घर में घुसेड़ देगा। इसके बाद अपने को होशियार सँपेरा बताकर घर के मालिक से साँप निकालने के पैसे ऐंठेगा।

उस बुड्ढे ने खोदना छोड़ दोनों को कुछ क्षण घूरा और फिर जुट गया।

तुमने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया।

क्या जवाब दूँ। तुम्हारे सवाल का कोई जवाब नहीं है।

क्या कभी तुम्हें ब्रजचन्द्र मिले?

सौदामिनी ने सिर झुका लिया। इस बार वह एकाएक गरम तेजस्वी ऊँचे स्वर से बोली, कान खोलकर सुनो, सच के पीछे पीछे अग्रसर होना तथा उसी की खातिर मिट जाना मेरे जीवन का ध्येय है। यह बात मैं केवल मुँह से नहीं दिल से कह रही हूँ।

घुटनों के बल रेत पर बैठी हुई शशि ने कहा कुछ दिनों से एक अनजान सी यन्त्रणा मेरे कलेजे को फाड़े खा रही है। शायद आप को भी मालूम है कि दो.एक दिन में मन्दिर बिक जाएगा। अब तक तो भगवान दामोदर की सेवा टहल करती रही हूँ मगर अब आलमगढ़ी के संग पति-पत्नी की तरह रहना होगा। शादी ब्याह हुआ नहीं और रहना पड़ेगा पति-पत्नी के रूप में कैसी विडम्बना है। जो राधेश्यामी नहीं हो पातीं उन्हें मृत्यु के उपरान्त दाहसंस्कार के डर से या लालच से इस तरह का जीवन बिताना होता है। परन्तु मैं ऐसी जिन्दगी क्यों बिताऊँ शायद आप ये बातें न समझ सकें।

तुम्हारी शादी तो अब भी हो सकती है सान्त्वना भरे स्वर में सौदामिनी ने कहा।

शशि चीख उठी, आलमगढ़ी नामर्द है। इसलिए इसकी मुझे कोई फिक्र नहीं है। असल बात तो यह है कि कुछ दिनों से मैं प्रेम में पड़ गयी हूँ। अचानक सौदामिनी का हाथ अपनी छाती पर भींचते हुए वह फूट-फूटकर रो पड़ी थोड़ी देर बाद भर्राये स्वर में बोली मैं कृष्ण के मन्दिर में रहने वाले एक बाल ब्रह्मचारी के प्रेम में पड़ गयी हूँ। मेरे इस प्रेम ने एक अद्भुत सा आकार ले लिया है। समझ नहीं आता कि अब क्या करूँ।

भाग 7

दोनों एक भजनाश्रम के निकट खड़ी थीं। सर्राफ सेठानी आज गरीबों को कपड़े बाँटने आयी हुई थीं। भजनाश्रम की राधेश्यामी बुढ़ियों की भीड़ मची हुई थी। जिनका आश्रम से ताल्लुक नहीं था, काँच मन्दिर के पास बैठी हुई वे वृद्धाएँ भी आ जुटी थीं। आश्रम की सीढ़ियों पर बैठी सर्राफ सेठानी का इन्तजार कर रही थीं। शशि भी उनके पास जा बैठी।

अचानक उसने मुनीम को सेठानी का कान भरते सुना।

'आप इन्हें जो कपड़े बाँट रही हैं, वे सस्ते दाम बाजार में बेचकर रात के समय पीपे के पुल के पास पैसे गिनती मिलेंगी। इन पैसों को वे अपने दाह संस्कार के लिए रख लेंगी। इन मरभुक्खियों को आप कहीं देख लो, तो ये साक्षात प्रेतनियाँ लगेंगी।'

सीढ़ियों पर बैठी हुई शशि दूर से ये बातें सुन रही थी। इस नरभक्षी बाघरूपी मुनीम की कथा को सारा ब्रज जानता है। कितनी ही कमसिन राधेश्यामी विधवाओं को इसने दुष्कृत्य के लिए उठवा लिया था। शशि का मन खट्टा हो गया। उसकी आगे बढऩे की इच्छा ही मर गयी। कहाँ तो सोच रखा था, सेठानी से अलग से भेंट हो जाती तो अच्छा था।

वह चौक में लौट आयी। पीड़ा से उसका हृदय छटपटा उठा। अपने आप से कहने लगी, 'इस उम्र में भगवान किसी की भी ऐसी दुर्दशा न करे और न ही किसी को इस बुरी तरह निस्सहाय ही करे।'

उसने सौदामिनी से कहा, 'देश विभाजन के समय पिता राजशाही की बलि चढ़ गये और माँ...। ब्रज में एक बार अकाल पड़ा, तो लोग तरबूज के बीज-पत्ते खाने लगे। इसी कुघड़ी में अक्रूर घाट पर खून की कै करती माँ भी खत्म हो गयी। फिर ब्रज की यही गलियाँ मेरा घर हो गयीं। यहीं मैं बड़ी हुई।' आगे वह कहती चली गयी।

'भले ही वनखंडी की गलियों में मैं भूखी पड़ी रही, परन्तु अपने सतीत्व और पतिव्रत को बचाये रखा। आज भी इस सबको याद करते हुए मैं गर्व और आनन्द का अनुभव करती हूँ। लोगों की बुराई की मैं जरा भी परवाह नहीं करती...पर अब लगता है समय बीतता जा रहा है। परन्तु एक अजीब-सी पीड़ा है, जो मेरी आत्मा को नोचकर खा रही है। मैं बहुत ही बेचैनी भरे दिन काट रही हूँ।' वह घुटनों के बीच मुँह छुपाने की कोशिश करने लगी।

'तुम्हारी बातों पर मुझे भरोसा हो रहा है, पर मन्दिर बिक जाने के बाद जाओगी कहाँ? आलमगढ़ी के साथ रहोगी क्या?'

'कोई चारा न होने पर रहना ही पड़ेगा। या फिर सर्राफ सेठानी राधेश्यामियों को जब फिर कम्बल बाँटने आएँगी, तो उनसे पूछकर देखूँगी। शायद उनके पास कोई रियायत निकल आये।'

दोनों के बीच चुप्पी फैल गयी। बाहर से आये हुए यात्रियों के ताँगों में जुते घोड़ों के गले में पड़े हुए घुँघरुओं और टापों ने सन्नाटे को भंग किया।

'चलो, घर चलें।'

दोनों उठ खड़ी हुईं। तालवन के महन्तजी का हाथी रंगजी की रथशाला के पास दिखाई पड़ा। उसकी पीठ पर सजा-धजा हौदा था और गले में चमेली की माला पड़ी थी। 'आज वनखंडी के महन्तजी परिक्रमा करेंगे।' शशि बोली।

दोनों आगे बढ़ीं। केवल रसभरी बेचने वाले के स्वर को छोड़कर सारा गोपीनाथ बाजार शान्त पड़ा था।

शशि ने हनुमान मन्दिर के आँगन में कुछ लोगों को बैठे देखा। वे जमुना पार के दूध विक्रेता थे। उनके हाथ में दूध के रीते हुए बरतन थे। शशि उनके करीब जा बैठी। एक उचटती-सी नजर डाल वे फिर से अपनी गपशप में खो गये।

एकाएक शशि की आँखें डबडबा आयीं। मन्दिर का सौदा लगभग तय ही था। इसी प्रकार आलमगढ़ी के साथ रहना भी निश्चित ही था। अलावा इसके यह भी तय था कि आलमगढ़ी उसका कोई अहित भी नहीं कर सकता। लोगों की फब्तियों का भी उसके मन में किसी तरह का कोई मलाल नहीं था। फिर भी बदनामी आखिर बदनामी होती है और वह भी खासकर औरत की। यह बदनामी एक ऐसे शिलालेख के समान है, जिसके जमींदोज होने पर भी लोग बारम्बार उखाडक़र पढ़ने की कोशिश करते हैं।

यदि एक-दो दिन में कुछ इन्तजाम नहीं हुआ, तो उसका सबकुछ बर्बाद हो जाएगा। शोहदे उसके पीछे लग जाएँगे।

मन्दिर से वापसी के वक्त वह यही सब सोचती रही। उसके हाथ में एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी। पहले फुर्सत में वह तुलसी की कंठ-माला बनाकर और गोपीचन्दन घिसकर टका-दो टका कमा लेती थी। किन्तु मन्दिर की बिकने की बात ने उसे उदासीन कर दिया था।...यद्यपि वह इस बात से आश्वस्त थी कि इस ब्रजधाम में वह कभी भी भूख से तो मरने वाली नहीं है। भिखारियों की पाँत में बैठ वह भंडारों से पेट भर सकती थी। आश्रम में भी पंक्तिबद्ध होकर बैठने से भोजन तो मिल ही जाएगा। दूसरी राधेश्यामियों के समान भजनाश्रम में एक समय भजन गाकर अठन्नी भी पा जाएगी।...मतलब यह कि भूख से तो नहीं मरेगी। पर इस तरह बेफिक्री से पेट भरने के लिए अभी कम से कम बीस साल और प्रतीक्षा करनी होगी। बीस बरस बाद जब इस शरीर की खाल-दीवाल धँसक जाएगी, और उसकी हालत कोढ़ा-खजही कुतिया के समान हो जाएगी, तब कहीं निश्चिन्त हो भंडारों की पंक्ति में बैठ सकेगी। आलमगढ़ी के साथ रहने से पहले अधिकांश समय उसने राधेश्यामियों की कोठरियों में रहकर गुजारा है। असहनीय दुर्गन्ध से गँधाती उन कोठरियों में उसने दो-तीन मरणासन्न स्त्रियों के मुँह में पानी भी डाला है। कई बुढ़ियों ने तो उसका हाथ थामे-थामे ही अन्तिम साँस ली थी। वे भयानक क्षण वह कभी नहीं भूल पाएगी।

इसके पश्चात उसने अपने आप में एक अद्भुत बदलाव का अनुभव किया। जिन गली-कूचों पर चलने वाले लोग उसे जिन्दा प्रेतात्मा समझकर कुतूहल से देखते थे, वे ही अब उसे एक अलग ही कुतूहल से निरखने लगे थे।

उसने खुद भी महसूस किया कि उसके प्रेतीले मुख पर एक खास तरह का बदलाव आ रहा है। एक-दो राधेश्यामियों ने कहा भी-वह ब्रज की चमेली-जैसी फूल रही है।

बाजार के पास पहुँच कर उसके कदम तेज-तेज उठने लगे। बिहारीकुंज में अब काफी भीड़ जमा हो गयी थी। बाजार की तरफ के बरांडे में खड़ा हुआ गोविन्दजी के पंडे का लड़का हो-हल्ला मचा रहा था। कुंजबिहारी के बिकने का आज अन्तिम दिन था। यहाँ हर वस्तु के लिए उसके मन में ममत्व था। अंजीर का वह वृक्ष, जिस पर बन्दर ऊधम मचाते रहते थे, सीढ़ियोंवाली मीठे पानी की बाबड़ी,...और वह लम्बा-चौड़ा फर्श, जिस पर वह मनमाफिक आराम किया करती।

शशि की आँखें सजल हो उठीं। भीड़ को ठेलते हुए वह भीतर घुस गयी।

भाग 8

अटलबिहारी भगवान का अटल वन, गोकुलचन्द्र ने जहाँ दावानल का पान किया वह बंजर वन, यशोदा ने जहाँ गौ-दान किया वह गोपाल वन, राधा ने जहाँ पर फूलों के पौधे अपनी सहेलियों के साथ लगाये थे, वह राधाबाग, स्वामी हरिदास का मानस वन, निधुवन और अतिरमणीय निकुंज वन। यहाँ पर ब्रज की माटी को अपने आलिंगनपाश में जकड़े हुए आत्मविभोर श्वेतपुष्पों की झाड़ियाँ हैं। इन पर राधा के नूपुरों की तरह फूल खिलते हैं। यदि कान लगाकर ध्यान से सुनो, तो राधा की पायलों की रुनझुन से दिशाओं के गुंजित होने का आभास मिलता है।

एक प्रचंड आनन्द, मानो सभी दु:ख-वेदनाओं को एक-एक फूल के रूप में रूपान्तरित करता-सा लगता है...सौदामिनी ने भी कई दिनों तक कोशिश की शायद वह भी यह ध्वनि सुन ले...वही अनन्य आध्यात्मिक आह्लाद का स्वर।

परन्तु धीरे-धीरे उसे लगा, वह यह शब्द नहीं सुन पाती। गली-चौरास्तों पर पड़े हुए बीमारों को खोजते फिरने का वह उत्साह भी मानो चूक गया है।...वह उकता गयी है। काफी चतुराई दिखाने के उपरान्त भी अनुपमा उसे चौरासी कोस की परिक्रमा पर ले जाने में असफल ही रही। हताश होने के बावजूद अनुपमा ने यह सुअवसर अपने लिए नहीं खोया और एक दिन इस कष्टपूर्ण यात्रा को निर्विघ्न समाप्त कर वह वापस भी आ गयीं। दूसरे यात्रीगण जब परिक्रमा की समाप्ति पर रमण-रेती में अपना डेरा जमाने लौट आये, तभी अनुपमा भी घर आ गयीं। अनुपमा ने इस बार सौदामिनी को अत्यन्त बुझा हुआ पाया। उसकी आँखों के नीचे उभरे हुए धब्बे अनुपमा की नजर से छुप न सके।

इस कष्टदायी परिक्रमा से थकी हुई माँ की सेवा सौदामिनी रोज की तरह करने लगी। स्नान के लिए पानी तपा दिया। माँ का लाया हुआ प्रसाद सँभाल कर रख दिया। पहले के समान ही बच्चों की तरह माँ के गाल से गाल सटाकर, माँ के पुराने बुखार ने कहीं परेशान तो नहीं किया, यह जानने की कौतूहलपूर्ण चेष्टा करने लगी।

दोनों जब साथ-साथ भात खाने बैठीं, तब अनुपमा ने अपनी यात्रा का विचित्र वृत्तान्त बताना शुरू किया। सौदामिनी ने पलकें उठाकर सीधे अपनी माँ की आँखों में देखा...अनुपमा एकदम चुप हो गयीं। सौदामिनी के चेहरे पर उसे अनकहे-से क्षोभ के निशान नजर आये। नीचे दवाखाने में अभी भी बीमारों की भीड़ थी। रायचौधुरी को अब तक भी ऊपर आने की फुर्सत नहीं मिली थी।

एकाएक न जाने क्या हुआ। सौदामिनी हवा की गति से छूटती हुई नीचे उतर गयी। वह नीचे फर्श पर बैठ बच्चे की तरह बिलख-बिलख कर रोने लगी। अनुपमा बाहर निकल आयीं। दवाखाने की भीड़ को ठेलते हुए रायचौधुरी भी आकर उसके निकट खड़े हो गये। कुछ देर खुलकर रोने के बाद जब वह शान्त हुई तब भर्राये गले से चीख-चीख कर कहने लगी, 'मैं दूसरे की दया पर आश्रित रहकर अपना सारा जीवन नहीं बिता सकती। मैं महान नारी नहीं हूँ कि तुम लोगों की तरह जनहितकारी काम करते हुए जीवन काट दूँ। मैं स्वाधीन हूँ। मैं किसी से नहीं डरती। तुम लोग यदि यह समझ रहे हो कि मैं बदल गयी हूँ तो यह तुम्हारी भूल है।' रायचौधुरी की ओर उँगली दिखाकर वह चीख उठी, 'तुम लोग पाखंडी हो। कसाई जैसे लगते हो तुम सब मुझे।'

घायल कबूतर की तरह वह कुछ देर तड़फड़ाती रही। इसी बीच अनुपमा का भिंचा स्वर सुनाई दिया, 'शायद वह ईसाई आने वाला है।'

इसके बाद अनुपमा के रुदन का स्वर सुनाई दिया। वह कपड़े फाड़कर देहरी पर सर पटक-पटक कर रोने लगी।

भाग 9

सूरज निकलने से पहले यदि कोई ज्ञान गुदड़ी से लेकर मौनी दास की टाटी तक प्रात: काल घूमने निकले, तो उसे लगेगा कि ब्रजधाम किसी नष्ट हो चुके साम्राज्य का मात्र ध्वंसावशेष है। लगता है चार सौ वर्ष पूर्व विद्रोहियों का दमन करने के लिए औरंगजेब ने जो रक्तरंजित होली खेली थी, उसकी कुछ बूँदें आज तक मौजूद हैं। प्राचीन गोपीनाथ, मदनमोहन, राधावल्लभ के टूटे हुए कलश अभी भी चुपके-चुपके कह उठते हैं। उस वीभत्स कांड को हुए अभी बहुत दिन नहीं हुए हैं। कान लगाकर सुनने पर मन्दिर के मलबे के नीचे दबे पड़े पुजारी का करुण अन्तर्नाद अभी भी सुनाई पड़ जाता है।

आज भिनसार से ही सौदामिनी खिन्नमना होकर यमुना तट पर घूम रही थी। रूखे बाल, अस्त-व्यस्त कपड़ों के ही वह पगलायी-सी भटक रही थी। पूरी रात आँखों में जागते कटी थी। एकाएक वह घुटनों के बल रेत पर बैठ गयी। केसीघाट के निकट ही उसे उस भयंकर भँवर का स्वर सुनाई दे रहा था। जनधारणा है कि वृन्दासारणी के रथ के पहिये की घरघराहट यहाँ सुनाई पड़ती है। मगर उसे तो आकाश-पाताल एक गूँजता हुआ वही महाकाल का प्रचंड स्वर सुनाई पड़ रहा था। इस स्वर के आगे सबेरे के सभी स्वर दब गये थे।

कुछ समय यहाँ-वहाँ भटककर सौदामिनी कृष्ण मन्दिर के सिंहद्वार पर जा खड़ी हुई। कार्यालय का दरवाजा खुला हुआ था। मन्दिर के कर्मचारी हुंडी और बहीखातों में जुटे हुए थे।

वह प्रधान कर्मचारी के सामने शीश नवाकर बोली, 'जै श्री राधेरानी की।'

समवेत स्वर में कर्मचारी बोल उठे, 'जै श्री राधेरानी की,' बूढ़ा मैनेजर उसकी ओर देखकर बोला, 'आगे आओ!'

'मैं मन्दिर के दर्शन करने नहीं, नौकरी की तलाश में आयी हूँ।'

'नौकरी!'

सारे कर्मचारी उसे अचरज से ताकने लगे।

बूढ़े मैनेजर ने पूछा, 'तुम कहाँ तक पढ़ी हो।'

शिक्षा की पूछताछ ने उसे पसोपेश में डाल दिया। बोली, 'मुझे कोई बड़ा काम नहीं चाहिए...भंडारी या रसोइये की सहायिका या फिर...' कोने में बैठा कोषाधिकारी ठठाकर हँसते हुए बोला, 'हम जवान औरतों को काम पर नहीं रखते। कभी-कभार एक दो राधेश्यामी बुढिय़ाँ यहाँ काम के लिए आती हैं। पर हम उन्हें भी दूर ही रखते हैं। आजकल सबकुछ बहुत कठिन हो गया है। अभी दो दिन पहले ही जमीन का किराया उगाहने वाले कर्मचारी के पद हेतु दो स्नातक आये थे। अभी थोड़े दिन पहले तक ब्रज में उँगलियों पर गिनने योग्य स्नातक ही थे।'

अचानक कोषाधिकारी विस्मित हो बोला, 'तुम, तुम कहीं डॉक्टर रायचौधुरी की बेटी तो नहीं हो? मैंने तुम्हें दवाखाने में काम करते देखा है। सुनो, तुम्हारे लिए तो इससे बढ़कर कोई काम नहीं हो सकता। जाओ, प्रभु तुम्हारा कल्याण करे।'

सिंहद्वार के पास खड़ी हुई ही उसने रथगृह से चरण बिहारी गौतम को निकलते देखा। उसे देख वह आग्रह के साथ बोला, 'राधा रानी की जय।'

सौदामिनी ने सिर झुकाये यही शब्द दोहरा दिये।

'सुना है आजकल दवाखाने में दिन व्यतीत हो रहे हैं?'

वृन्दावन के पाँच हजार मन्दिर देखने का उत्साह शायद अब नहीं रहा।

इस वक्त चरण बिहारी से मुलाकात सौदामिनी को बिल्कुल नहीं अखरी। वैसे भी वापस यही जाकर उसे अँधेरे कुँए में ही कैद होना था। कुछ दिनों से उसे महसूस हो रहा था कि कोठरी की चारदीवारी उसे घेरकर दबोच लेगी। एक दिन वह जिन्दा दफना दी जाएगी।

वह बोली, 'आपको इस वक्त कोई काम न हो तो क्या अभी मेरे साथ एक चक्कर लगा सकेंगे?'

'फिर आप थोड़ा रुकिए, रथ का पहिया साफ कर रहे मजदूरों को थोड़े-से निर्देश देकर आता हूँ।' केला, कपड़ा, घंटा, झंडा तथा लकड़ी के गन्धर्व-किन्नर आदि से विहीन रथ के पहिये की सफाई कर रहे मजदूर सिर उठाकर सौदामिनी को देखने लगे।'

'तो आज वृन्दावन के पाँच हजार मन्दिर देखने की आपकी इच्छा हुई है। परन्तु आज उत्साह कैसे?'

'मेरी वापसी का वक्त हो गया है।'

'लौट जाओगी?'

कातर कंठ से चरण बिहारी बोला, 'रंग जी की नौका लीला होने को है। क्वार में राम लीला, पौष में बैकुंठ-उत्सव, चैत्र के कृष्णापक्ष की दूज पर ब्रह्म-उत्सव होंगे। न-न ब्रज से इस तरह लौटना ठीक नहीं होगा। खासकर रंगजी की रथयात्रा नहीं देखोगी?'

गोविन्दजी के सामने से दोनों निकले। भयंकर गर्मी थी। गोविन्दजी के लाल पत्थरों से चिनगारियाँ-सी निकल रही थीं।

कुछ दूर तक दोनों चुपचाप चलते रहे। मन्दिरों को छोड़ दोनों यमुना की तरफ बढ़े। टूटी-फूटी दीवारों पर चिपके हुए सूखे भोजपत्र के समान बदरंग से पोस्टर दिखाई दे रहे थे।

'ये कैसे विज्ञापन हैं?'

'ये सब कृष्ण मन्दिर में खेली गयी खूनी होली के निशान हैं।'

सौदामिनी ने दीवार के सामने खड़े होकर पढ़ने की कोशिश की-भक्तों के चढ़ावे के धन की प्रबन्धन समिति की फिजूलखर्ची से रक्षा कीजिए। विभिन्न विभागों के अधिकारियों को अपने मतलब के लिए दावत देकर मुकदमा इत्यादि में मन्दिर की रकम पानी की तरह बहाने और मन्दिर में पुलिसिया राज स्थापित करने का हम विरोध करते हैं। भक्तों द्वारा चढ़ावे में आने वाले सोना-चाँदी, मोती-जवाहरात, कपड़ा-बर्तन का सही उपयोग नहीं होता है। बल्कि ये सब काला बाजारी से औने-पौने दाम में बेच दिये जाते हैं। राधाजी की जरीदार पोशाक ले जाकर बाहर अधिक मूल्य में बेच दी जाती है। बिहारीजी के प्रसाद को जलाना तो जघन्य अपराध है। उम्मीद है आप सब समझ गये होंगे।

चलते-चलते दोनों यमुना की रेत पर आ गये। विगत कुछ दिनों से जरामासी उग आयी थी। इस धीर-समीर घाट पर इस वक्त मांगलिक कार्य हेतु कोई भी मौजूद नहीं था। जरामासी लताओं की छाया में विशालकाय कछुए लेटे थे। परिक्रमा के रास्ते पर दोनों चलने लगे। चरणबिहारी बोला, 'इस वक्त ठीक यहीं पर एक रहस्यमय चीज देख सकेंगी यानी यमुना के जल से आती हुई एक अजीब-सी किरण अपनी आभा से चतुर्दिक छाया देगी। गौर से देखिए।'

'नहीं, आज मेरा मन इन सब बातों की तरफ बिल्कुल नहीं है।'

'क्या आपके मन पर निराशा छाने लगी है?' सौदामिनी खामोश रही। दीवारों पर मन्दिर की दुव्र्यवस्था सम्बन्धी भोजपत्र जैसे जर्जर इश्तहारों की चिन्दियाँ उड़कर बालू पर बिखर रही थीं। अंजीर के पेड़ तले साँप खोज रहे व्यक्ति के खुरपे से खोदने की आवाज सुनाई पड़ रही थी।

'आइए, इन सीढ़ियों पर कुछ देर बैठने से आपकी उद्विग्नता कम हो जाएगी। सामने आप जो टूटी सीढ़ियाँ देख रही हैं न, अभी कुछ दिन पूर्व यहीं से सीढ़ियों के नीचे दबी हुई भगवान दधीकर्ण की प्रतिमा खोदकर निकाली गयी है। इनके हाथों में दान पत्र और मस्तक पर सात फन वाले सर्प का मुकुट शोभित हो रहा था। यही वह धीर-समीर घाट है, जहाँ पर गोकुलचन्द्र कृष्ण ने मानिनी राधा के दोनों चरणों को माथे से लगाकर मनाते हुए कहा था-

स्मर-गलरखंडनं , मम शिरसिमंडनम्।

देहि पद पल्लवमुदारम्। '

अचानक सौदामिनी एक सवाल पूछ बैठी।

'आप तो इतने दिनों से वृन्दावन में हैं, क्या मुझ जैसी कोई स्त्री कभी वृन्दावन आयी है?'

'आप जैसी से क्या मतलब?'

सौदामिनी चुप रही। सहसा उसकी दोनों आँखें डबडबा आयीं।

'जो प्रसंग आपको दुख देता है, उसकी चर्चा आप मुझसे मत कीजिए। आप जैसी दो-एक स्त्रियाँ आयी थीं, जिनके लिए मेरे दिल में अब तक आहें हैं, और कुछ नहीं...सुनिए, शायद आयी थीं।'

'ओह, क्यों आपको मुझे प्यार करने की इच्छा नहीं होती? लोग कहते हैं अभी भी मैं बूढ़ी राधेश्यामी स्त्रियों जैसी नहीं लगती हूँ।'

हृदय से शुष्क, अनेक कल्पनाओं के साथ अनेक बार उत्तेजना से भरा हुआ समय उसने बिताया था...शराब के नशे जैसा। यह भी एक नशा ही है। परन्तु आश्चर्य, इस समय सामने बैठी इस स्त्री का चेहरा उसे अपनी बेटी जैसा लग रहा है। और वह इस समय चमेली की माला...।

'इस तरह मेरा चेहरा क्या ताक रहे हैं? सच बताइए, क्या मैं बूढ़ी लगने लगी हूँ? किसी समय लोग मेरे रूप-लावण्य की बहुत तारीफ किया करते थे। हमारी पहचान हुए भी एक लम्बा अर्सा बीत चुका है। क्या आपका मन मेरी ओर आकर्षित नहीं होता?...अभी थोड़ी देर पहले आपने कहा था कि यमुना जल से एक आध्यात्मिक किरण निकलती है। उसे सिर्फ आप ही देख पाते हैं।...कुछ दिनों से ठीक आपके समान मैं भी एक अँधेरा देख रही हूँ, जो मुझे घूरकर मेरे जीवन को ग्रस लेना चाहता है। कभी-कभी तो लगता है। यह अन्धकार उस प्रकाश से भी बढक़र है। आप भरोसा कीजिए।...'

सौदामिनी का गला रुँध गया।

'तो वह ईसाई, क्षमा कीजिए, मुझे उसका नाम नहीं मालूम, क्या आपको सान्त्वना दे सका था।'

सौदामिनी पुन: मौन हो गयी। दोनों घुटनों पर चेहरा टिकाये वह रेत पर हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई लिखने लगी। हिन्दू, मुसलमान, ईसाई।

'क्या तुम्हें पति की यादें जीने को प्रेरित नहीं करतीं?'

'नहीं करतीं-उनके चेहरे की स्मृति तक धूमिल पड़ चुकी है। अतीत पर धूल जम गयी है। फिर कभी-कभी लगता है, वही यादें ही सब कुछ हैं। उसके बाहर सब कुछ शून्य है।'

'जीने की प्रेरणा कौन देता है?'

'अभी आप जिस ईसाई की बात मुझसे कर रहे थे। उनसे अनोखी प्रेरणा मिली है। उनकी उपस्थिति ही मुझे अनोखी प्रेरणा देती है, जिसे मैं समझ नहीं सकती। आप भी ठीक से समझ नहीं पाएँगे। धरती का कोई भी इनसान नहीं समझ पाएगा। हालाँकि मैंने उनसे वैसा गहरा प्रेम नहीं किया है, फिर भी वे हैं वे मेरे लिए हैं। अब बोलिए, क्या मेरे जैसी पवित्र नारी इस ब्रज भूमि में इससे पहले नहीं आयीं?'

चरण बिहारी ने सिर झुका लिया। उसे अन्दर ही अन्दर एक ऐसी वेदना का एहसास हुआ, जिससे उसका परिचय पहले कभी नहीं हुआ था। उसे अपनी बेटी का कोमल चेहरा बार-बार याद आने लगा। वह चमेली की माला पहिने मन्दिर-मन्दिर डोलती रहती है।

भाग 10

आखिर एक दिन बिहारीमोहन कुंज बिक गया। पंडे और दलाल के हाथों से बचकर जो रकम ठाकुर साहब के हाथों में आयी, उसका भी एक हिस्सा आलमगढ़ी को देना पड़ा। अपने दादा द्वारा राधा-दामोदर को पहनाये गये सोने के गहने, सोने की वंशी आदि निकालकर ठाकुर साहब चाहते, तो अपने पास रख सकते थे। कृष्ण की आँखें और पोशाक का सौदा करने वाले एक परिचित व्यापारी ने उनसे कहा था, 'साहब छाती पर पत्थर रखिए, नहीं तो गुजारा करना कठिन हो जाएगा। यह पहले का ब्रज नहीं है। आजकल लोग मूर्ति के कपड़े उतारकर बाजार में बेचने लगे हैं।'

किन्तु ठाकुर साहब छाती पर पत्थर नहीं रख सके। सोने के गहने और वंशी वे किसी प्रकार भी उतारकर न ला सके। कुछ दिनों से उन्हें आत्मग्लानि हो रही थी। यह मन्दिर उनकी वंश-परम्परा का एकमात्र स्मृतिचिह्न था। दादा मरते समय कह गये थे, 'भीख माँगने की स्थिति आ जाने पर भी मन्दिर को हाथ न लगाना और ट्रस्ट के पैसों के प्रति कोई लोभ न रखना। अन्यथा तुम्हारा अशुभ होगा।'

ठाकुर साहब का परिवार राधेश्यामी बुढ़ियों वाली एक कोठरी में जा टिका। दादा के दिनों में इस कोठरी में ताँगे के घोड़े की रसद रखी जाती थी। बिना खिड़की वाली इस अँधेरी कोठरी में आ जाने के बाद ठाकुर परिवार को एक अन्य मानसिक दुश्चिन्ता लग गयी। मृणालिनी अब कोठरी के बाहर कच्चे फर्श पर पड़ी रहने लगी। राधेश्यामी बुढ़ियों की तरह बाजार के आस-पास चक्कर लगाती। आश्रम और चुंगी के आस-पास राधेश्यामी बुढ़ियों की तरह घूमकर वह टीन के डिब्बे और लकड़ी के टुकड़े इकट्ठे कर गृहस्थी जमाने की चेष्टा करती।...किन्तु आस-पास के लोग धीरे-धीरे कहने लगे कि इस कोठरी में आने के बाद से मृणालिनी का मानसिक सन्तुलन अपनी माँ की तरह बिगडऩे लगा है।

खाली टीन, बोतल, टीन के ढक्कन आदि से उसने इस अँधेरी कोठरी का एक हिस्सा पूरी तरह भर दिया।

मन्दिर में रहते समय ठाकुर साहब छड़ी के सहारे थोड़ा इधर-उधर घूम-फिर लेते थे। कभी-कभी बाजार की ओर की सीढ़ी पर भी जा बैठते थे। अब वे बाहर नहीं निकल पाते। क्योंकि अन्धे साहब की लाठी अब काम नहीं देती थी। टूटी ईंटों का फर्श, गड्ढों और कूड़े के बीच लाठी बेकार हो गयी।

वे इस अँधेरे कुएँ में पड़े दिन पर दिन बिताने लगे।...इस बीच गर्मी के भयंकर कड़े दिन आ गये। कोठरी के बीच इन तीनों का दम घुटने लगा। दिन की धूप और रात को दीवारों से निकलने वाली गर्मी उनको भूनने लगी।

ब्रज की चार हजार आश्रयहीना राधेश्यामी बुढ़ियों, विशेषत: पूर्वांचल से आयी हुई स्त्रियों को गर्मी सहने का अभ्यास हो गया था। वे नंगी देह रहकर भी भीषण गर्मी सह जाती थीं।

किन्तु ठाकुर साहब के परिवार के लिए यह स्थिति भयानक हो उठी। तीनों आक्रामक पशु जैसे हो गये। बीच-बीच में कोठरी से अश्लील गाली-गलौज भी बाहर सुनाई पड़ने लगी। ठाकुर साहब की मानसिक विकारग्रस्त पत्नी का स्वर सुनाई पड़ा, 'तुम्हारे कारण हमारी यह दुर्दशा है। मुझे सब मालूम है तुम किस समय किस रंडी के पास गये थे। मुझे सब याद है। मुझे और भी बहुत सी बातें याद हैं। 1966 ई. में वेश्यावृत्ति-विरोधी कानून के अनुसार कलकत्ता में पाँच लोगों पर केस हुआ था और 1967 में 19 लोगों पर। 1966 ई. में केन्द्रीय मन्त्री ने वेश्याओं के एक समारोह में उन्हें आश्वासन दिया था कि उनके ऊपर पुलिस के अत्याचार बन्द होंगे।'

एक विशेषज्ञ की तरह बातें करती हुई ठाकुर साहब की पत्नी खीं-खीं कर हँस उठीं। फिर वह ठाकुर साहब की ओर उँगली उठाकर चीख उठीं-'मैं और भी बातें जानती हूँ। 1962 ई. में मेरी जन्मभूमि के लोगों ने विलायती शराब पी थी। 276823 लीटर और 1964-65 ई. में 3420748 लीटर, यह संख्या ठीक है या नहीं, मुझे याद नहीं है। किन्तु तुम किस समय किस दुकान पर गये थे इसका भी हिसाब मैं रखती हूँ।'

ठाकुर साहब ने काफी स्निग्ध स्वर में कहा, 'जाओ बाहर हवा चल रही है। कुएँ के पास चटाई बिछा कर बैठो।'

'तुम नीम के पत्तों को देखकर समझ रहे हो कि हवा चल रही है। दरअसल यह बन्दर के कारण है। देख नहीं रहे, वह भारी मुँह और टेढ़ी गरदन वाला बन्दर कैसे छलाँग लगा रहा है। इसलिए तो नीम के पत्ते हिल रहे हैं।'

बन्दर की ओर देखकर ठकुराइन हँस पड़ीं। इसके बाद बन्दर देखने के लिए कुएँ के पास आकर खड़ी हो गयीं। यह सुयोग पाकर अन्धे ठाकुर साहब टटोलते-टटोलते बाहर का दरवाजा बन्द करने के लिए बढ़े। किन्तु हिंसक बाघिन की तरह ठकुराइन लौटीं।

'तुम दरवाजा बन्द नहीं कर सकते। सब सड़-सड़ कर मरेंगे। पूरा खानदान तबाह होगा। अब कंठी माला पहनने से क्या होगा? तुम तो पाप में गले-गले तक डूबे हुए हो।'

उन्होंने अन्धे ठाकुर साहब को लाकर फिर से टीन की कुर्सी पर बिठा दिया। चौकी पर बैठे-बैठे उन्हें पत्नी की बातें सुननी पड़ीं।

मर्मस्पर्शी कंठ से ठकुराइन ने कहा, 'मुझे मालूम था, भगवान मुझे यह सुअवसर देगा। बहुत दिन पहले जब तुम शराब और छिनाल औरतों के साथ मशगूल थे, तब मैंने भगवान से यही प्रार्थना की थी कि तुम इस तरह टीन की कुर्सी पर बैठकर मेरी हीरा-मोती जड़ी बातें सुनोगे। मेरी जवानी कभी की खत्म हो चुकी है। तुम भी अब बुढ़ा गये हो और हमारे बीच हैx ये रत्न जटित बातें। अब मुझे और कोई दुख नहीं है। केवल तब दुख होता है, जब तुम कहते हो कि किसी ने लाठी मारकर तुम्हें ब्रज भेजा है।'

ठकुराइन की होठों पर हँसी की रेखा फूटी। धीरे-धीरे उनकी हँसी क्रन्दन में बदल गयी। वह अँधेरी कोठरी की दीवारों पर सिर पटक-पटक कर रोने लगीं। इसके बाद मृणालिनी इकट्ठे किये हुए टीन के डिब्बे आदि ठाकुर साहब के ऊपर फेंकने लगी।

कोठरियों में घुसी हुई राधेश्यामी स्त्रियाँ बाहर निकल आयीं, 'यह तो बूढ़े को मार ही डालेगी। इसे पकड़ो कोई।'

किन्तु कोई भी पास जाने की हिम्मत न कर सकी। इस अद्भुत दृश्य के सामने राधेश्यामी बुढिय़ाँ एक दूसरे का हाथ थामे खड़ी रहीं।

ठकुराइन ने कपड़े खोल दिये और अपने सूखे स्तन स्वयं ही चबाने लगी, खून की कुछ बूँदें छलक उठीं, किन्तु कोई भी राधेश्यामी स्त्री उसके पास जाने का साहस न कर सकी।

भाग 11

ब्रज में त्योहार का रंग छा गया।

स्वामियों का त्योहार- इनमें से कई जैसे स्वामी रघुनाथ मन्दिर के जोगी वाहन स्वामी, परकाल स्वामी, बारामुनि स्वामी और काँचीपुर स्वामी। इन सब स्वामियों का त्योहार। गोदम्मा की मूर्ति की शोभा यात्रा के साथ सम्मिलित की गयी। कुछ दिन के बाद ही अश्विन मास में, तेरहवीं नक्षत्र के दिन नवरात्रि का त्योहार प्रारम्भ हुआ। स्वर्णिम स्तम्भों के आँगन में फिर से गोदम्मा की शोभायात्रा का निर्माण हुआ।

शशि और आलमगढ़ी नवरात्रि त्योहार की समाप्ति तक साथ रहे। फिर उसने वनखंडी की एक छोटी-सी झुग्गी में जाने का निर्णय लिया, जहाँ कुछ राधेश्यामी निवास करते हैं।

आलमगढ़ी ने भी बिहारीमोहन कुंज छोड़ दिया। उसने अपना निवास यमुना के किनारे स्थित एक टूटे-फूटे भवन में बदल दिया, जहाँ एक भविष्यवक्ता रहा करता था, जो ताँबे की कौडिय़ाँ फेंककर किसी का भी भविष्य बताया करता था। दोनों आदमी साथ-साथ रहने लगे। नौकरी के तौर पर उसने निर्णय किया कि नियमित नौकरी मिलने तक वह आनेवाले लोगों की सेवा में रहेगा। कुछ समय के लिए वह एक वक्त के भोजन पर ही गुजारा करने लगा।

शशि के लिए वनखंडी में रहना मुश्किल हो गया। क्योंकि कुछ मनचलों के झुंड उसकी झुग्गी के सामने नियमित रूप से जमने लगे और वे भद्दी फब्तियाँ कसने में मशगूल होते थे।

जब गोदम्मा की शोभायात्रा गरुड़ स्तम्भ के चारों ओर ले जायी गयी, शशि झुंड में श्रीमती सेठ का चेहरा उत्सुकता से देखने लगी। कौन जानता है, शायद वे अपने गोपाल की मूर्ति की सेवा हेतु उसे लगा लें। शायद यह उसका दुर्लभ भाग्य हो। प्रतिदिन नरसिंह स्वामी एवं शठकोप स्वामी के त्योहार के समय शशि स्वामी रघुनाथ मन्दिर के सिंहद्वार के पास खड़ी हुआ करती थी। पर हाय, वह महिला देखी न जा सकी। न तो उसकी सवारी या पालकी का कोई निशान मिला और न उसकी परिचारिकाओं के झुंड का अतापता ही लग पाया। वह हताश और निराश हो गयी।

नवरात्रि के उत्सव के समय भी वह पस्त रही। एक रात उत्सव से वह अपनी झुग्गी में जल्दी लौट आयी और बिस्तर पर लेट गयी। उस समय वह पूर्णत: चिन्ता ग्रस्त थी। उस समय केसीघाट के रामलीला के प्रदर्शन से नि:सृत रावण की ऊँची आवाज के उद्गार ब्रज के वातावरण को बोझिल कर रहे थे। कविता पाठ के स्वर उसके कानों तक पहुँच रहे थे।

उस समय पास के सायबानों में रहने वाले अधिकांश राधेश्यामी प्रदर्शन का आनन्द उठाने बाहर गये हुए थे। जो थोड़े बचे थे, वे गहरी नींद में सोये हुए थे। शशि उनके खर्राटों को सुन पा रही थी।

अचानक शशि ने ठहाके की भयंकर आवाज सुनी, जिसने उसे उसके बिस्तर के किनारे उठ बैठने पर मजबूर कर दिया। फिर दरवाजे पर खटखटाने की आवाज से वह सहम-सी गयी। फिर एक आवाज आयी।

'दरवाजा खोलो, मैं कहता हूँ, दरवाजा खोलो।'

'पर तुम कौन हो?'

'पहले दरवाजा खोलो, फिर तुम जान जाओगी कि मैं कौन हूँ।'

'अपना नाम बताओ, अन्यथा इतनी रात गये मैं किसी अजनबी के लिए दरवाजा नहीं खोलती,' शशि ने कहा।

'शेखी का कोई फायदा नहीं, यदि मैं चाहूँ तो लात मारकर दरवाजा खोल सकता हूँ। आलमगढ़ी का दोस्त समझो। मैं जानता हूँ तुम कितनी दुर्दशा में हो। मैं थोड़ी-सी मदद करने आया हूँ। मैं इस रास्ते से रामलीला देखने आया, किन्तु सोचा यहीं उतर जाऊँ।'

फिर उसकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा किये बिना उस आदमी ने दरवाजे पर लात जमाना शुरू कर दिया। शशि पसोपेश में थी। किसी भी समय खर्राटे भरने वाले राधेश्यामी जाग जाएँगे। फिर वे उसे झुग्गी को छोडऩे के लिए मजबूर कर देंगे। वाकई यह तो कोई फायदे की चीज नहीं होगी।

अत: खतरा लेते हुए उसने दरवाजा खोल दिया और देखा कन्धे पर साफ-सुथरा गमछा डाले हुए उस अजनबी को। उस आदमी ने कहा, 'सच मानो, आलमगढ़ी ने तुम्हारे पास मेरा आना स्वीकार कर लिया है। यह पूर्णत: तुम पर है कि तुमने अपने को उससे अलग कर लिया या नहीं, किन्तु मैं यहाँ एक प्रस्ताव के साथ आया हूँ। मेरा भी एक मन्दिर है और मुझे मदद के लिए एक औरत चाहिए। तुम मुझे भी मदद दे सकती हो जिस तरह आलमगढ़ी को तुमने दी। यदि जरूरत पड़ी, तो तुम मेरे साथ सो सकती हो। सच मानो, आसपास के सब लोग तुम्हारी भयावह स्थिति जानते हैं। वे तुम्हारी कठिनाइयों का फायदा उठा सकते हैं और मैं स्वयं ऐसा व्यक्ति नहीं हूँ कि तुम्हारा रूखा जवाब बर्दाश्त कर सकूँ। मैं अपनी पूरी शक्ति लगा दूँगा।'

जैसे ही उस आदमी ने बोलना शुरू किया, उसके मुँह से बदबू निकलने लगी। शशि ने जान लिया कि उस आदमी ने काफी मात्रा में देशी शराब का नशीले पदार्थों के साथ सेवन कर रखा है। उस अजनबी ने शशि की ओर उँगली उठाकर कहा, 'मेरे प्रस्ताव को ठुकराओगी तो पछताओगी। तुम निराश्रित मर जाओगी। तुम्हें भिखारी या उससे भी बुरी स्थिति के लिए मजबूर कर दिया जाएगा। इससे पहले कि वो लालची भेड़िए तुम पर काबू पा लें-मैं शान्त पुरुष हूँ। मैं लोभी नहीं हूँ। क्या तुम नहीं जानती कि एक लोभी भेड़िया अपने शिकार की हड्डी-चमड़ी कैसे गटक लेता है!'

उस गुंडे ने अपने माथे की पसीने की बूँदों को पोंछा, फिर कहने लगा, 'अब तो सुबह होने ही वाली है, शायद रघुनाथ मन्दिर का सुप्रभात खत्म ही हो गया हो। हो सकता है वहाँ वे विश्वरूप दर्शन (भगवान का अपने मुखगह्वïर में सम्पूर्ण विश्व का अर्जुन के लिए प्रदर्शन) कर रहे हों। यह बड़ी शर्म की बात होगी कि सबेरे-सबेरे बूढ़े राधेश्यामियों की झुग्गी-झोपडिय़ों के पास मटरगस्ती करें। अत: अब मैं जाऊँगा। किन्तु मुझे जो कहना था कह दिया। अब इसके बारे में तुम सोच लो।'

वह आदमी बहुत पी गया था। शशि ने जैसे ही उस आदमी ने जगह छोड़ी यह देख लिया था। उसके असन्तुलित कदम उसकी दशा को जाहिर कर रहे थे।

इसी समय सिंहद्वार के स्वामी वृन्दावननाथ का जुलूस बाहर आ निकला। मूर्ति के सामने प्रार्थना के स्वर, साथ में शंखनाद, घंटी के स्वर वंशीगोपाल एवं राधादामोदर के मन्दिरों से तिरते आ रहे थे। शशि ने उस युवा स्वामी को रथ के ठीक पीछे नंगे पाँव अभिभूत जुलूस में चलते देखा। उसे स्मरण आया, पिछले साल रथयात्रा के समय वह इस युवा स्वामी के पास खड़ी थी, जब वह रस्सी खींच रहा था।

उसने कई बार कई मौकों पर इस युवा स्वामी को देखा। गजेन्द्र मोक्ष उत्सव में गजग्राही लीला के समय, झूलन उत्सव में, राधा एवं भगवान की लीला के समय, गरुड़ उत्सव के समय, गजेन्द्र मोक्ष कुंड में नाव-दौड़ के समय, स्वर्णस्तम्भ की प्रदक्षिणा के लिए गोदम्मा को ले जाते समय, इसके अतिरिक्त अन्य अनेक मौकों पर अन्य अनेक स्थानों पर भी। प्रत्येक मौके पर उसने उसको देखा, एक अजनबी आनन्द के सिहरन ने उस बीस ग्रीष्मों के नरम युवा आकार को सिहराया है। उसने जितना अपनी आत्मा को दबाया उतना ही अधिक उसे देखने की प्रबल, बगावती लालसा जाग उठी।

अब जुलूस चीरहरण की सीढ़ियों की यात्रा करके यमुना पहुँचा। पास ही की टूटी सीढ़ी पर शशि ने अड्डा जमाया और पूजा के लिए पवित्र जल लेते हुए उस युवक स्वामी को उद्देश्यपूर्ण ढंग से घूरा। मन्त्रोच्चारण एवं शहनाई के सुरों ने किनारों को भर दिया। पानी के किनारे से स्वामी लौट आया और विशाल झाँप के चंदोवे के नीचे बैठ गया।

कुछ समय के बाद वह अपनी बसेरे में लौटी। उसने अपने दरवाजे पर दो राधाश्यामियों को खड़े देखा। जैसे ही उनके पास वह पहुँची, वे कहने लगीं, 'दो आदमी तुमसे मिलने आये थे। उनके कंठ में तुलसी की मालाएँ नहीं थीं। उनका कोई गूढ़ प्रयोजन होगा।'

उन्होंने उसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं देखी। उन्होंने उससे कहा, 'ऐसा लगता है तुमने आलमगढ़ी के पास लौटने का निर्णय ले लिया है।'

'नहीं, मैं नहीं जाऊँगी,' उसने अशिष्टता से कहा।

दोनों राधेश्यामियों ने बड़ी निराशा अनुभव की। क्योंकि शशि का वहाँ रहने का अर्थ होगा, उन्हें भी उसके युवा शरीर के लोलुप ब्रज के लोभी भेड़ियों का सामना करना है। दोनों गाते हुए और चिल्लाते हुए निकल गयीं।

उनके जाने के बाद झुग्गियाँ वीरान हो गयीं। पीछे छूटी शशि ने अपनी माँद में विक्षुब्ध आत्मा-सी प्रवेश किया।

भाग 12

ब्रज में शरद काल था, चमेली के फूलने का समय। सुबह-सुबह ब्रज एक रहस्य के परदे में छुपा हुआ था। अपनी माँद से निकलकर गायन के समय दूसरों के हाथों को पकड़े रहना-यह प्रचलन राधेश्यामियों के बीच कम ही देखने को मिलता था। अन्यथा वे सड़क पर डगमगा जाते थे। अब कुछ समय से सौदामिनी ने अपने पिता के अस्पताल में काम करना बन्द कर दिया था। उसने यमुना में स्नान करना ही करीबन बन्द कर दिया था। भगवान रघुनाथ के उत्सव में भी उसे मुश्किल से ही देखा जा सकता था।

बहुत कम समय में ही डॉक्टर के रूप में रायचौधुरी का नाम प्रसिद्ध हो चुका था। लोग जहाँ कहीं उन्हें देखते, आदर से सिर नवाते थे। उनसे इलाज के लिए आने वाले रोगियों की संख्या बढ़ने लगी। गली-गली से वे आने लगे, अमीर-गरीब समान रूप से। इतनी भीड़ रोगियों की बढ़ गयी कि मन्दिर के सूने कमरों का उपयोग करना पड़ा। किन्तु वे ब्राह्मणों एवं अछूतों के लिए पीने के पानी का केवल एक घड़ा चलाने में पूर्णत: असमर्थ रहे। अत: उन्हें आवश्यकतानुसार पीने के पानी के दो घड़े अस्पताल के अहाते में रखवाने पड़े।

सौदामिनी के व्यवहार में परिवर्तन लाने की पिता की तीव्र चाह पूर्णत: झुठला गयी। उसका अस्पताल के प्रति प्रारम्भिक उत्साह अब नहीं रहा। फिर भी वे जानते थे कि अपमानित एवं घायल एवं गरीब और दोनों के लिए उसके मन में तीव्र सहानुभूति का अन्त:प्रवाह बहता रहता है। डॉक्टर रायचौधुरी ने अपने पूरे व्यावसायिक जीवन में ऐसा दूसरा उदाहरण नहीं देखा था, जैसा उनकी पुत्री ने एक महिला कुष्ठ रोगी की सेवा में असाधारण प्यार एवं सावधानी दर्शायी, जिसे उन्होंने एक अँधेरी सँकरी गली से निकाला था।

नहीं, अब कुछ भी नहीं बचा। सारी आशा, लगता है, अब समाप्त हो गयी। इन सात रातों ने इस अजनबी जगह की धरती पर उसे एक बूढ़ी औरत बनाकर उतार दिया। अब तो वह स्वयं अपने लिए अजनबी बन गयी। अक्सर वह अपने दिमाग में किसी दीप्ति को प्रकाशित होते देख पाती। ऐसा लगता है क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ा हुआ वंशीवट ज्ञानगुदरी और बिल्वमंगल के परे गोवर्धन की ओर इसका रास्ता है। यह दीप्ति एक नाम है, जो कम द्वेष एवं प्रार्थना का ध्रुवीकरण करता है। यमुना के चमकते वक्षस्थल पर भीड़ के समय इस दीप्ति को तिरते हुए खोजा है। कोई और उसके समान इस अमूल्य दीप्ति से रूबरू शायद ही हो पाये।

एक रहस्यपूर्ण प्रकाश 'लखपति राज' की समाधि पर व्याप्त है। मथुरा के वे स्थान, जहाँ कभी बौद्ध स्मारक एवं उज्जैन के चित्रकारों की चित्र प्रदर्शनी के स्थान हुआ करते थे, आज वे कँटीले आलूबुखारे के पौधों की दुर्गम वृद्धि के कारण पटे पड़े हैं। वहाँ भावुक कानों में दु:ख से भरपूर अर्जी की आवाज प्रतिध्वनित होती रहती है। सौदामिनी को यह भान हो गया है कि देर-सबेर उसकी आत्मा भी इसी सर्वव्यापक एकान्त का अभिभाज्य अंग बन गयी है।

यह बात नहीं है कि यह एकान्त उसके लिए पहले अनभिज्ञ था। किन्तु जब वह सुब्रत से मिली, उससे उसका विवाह हुआ, तो यह भावना जाती रही। सचमुच में एक पहेली है। उसे कैसे समझाएँ, क्या तुम उसे प्यार कहोगे? वह प्यार जो अस्तित्व के उस कारागार से मुक्ति दिला दे, जहाँ आत्मा स्वयं अजनबी हो अपने लिए। इसे तुम मुक्ति कहोगे? या कुछ और शक्ति?

नहीं, उस स्वतन्त्रता का कुछ नहीं छूटा। उस दैवी आभा के क्षण का कोई संकेत नहीं छूटा। हर एक चीज मौन एवं धीमे समय के साथ लुप्त हो चुकी थी।

और वह ईसाई युवक, उसके बारे में क्या? अक्सर वह यह अनुभव करती थी कि उसका दिमाग एक अँधेरी गुफा से गुजर रहा है। और कभी-कभी वह अपने आप से कहती कि उस उज्ज्वल प्रकाश से वह अँधेरा ही भला।

और किसी और ने ऐसे आध्यात्मिक धर्मसंकट से कब सामना किया होगा? ऐसी किसी महिला ने पहले ब्रज का दर्शन किया था?

एक दिन सौदामिनी अपनी नींद से सूखे पत्तों की सरसराहट की आवाज से चौंककर उठ बैठी। या खुरदरे पोस्टर के टुकड़े से, कौन-से पोस्टर? उन कलंक के कागजों का बाँकेबिहारी के मन्दिर की दीवारों पर उसने सिर उठाया और टूटे शहतीर की अँधेरी सँकरी दरार से सरकते एक नाग के दृश्य से वह भयभीत हो गयी। उसकी दुबली-पतली पीली आकृति चमक रही था। प्रकाश के एक टुकड़े के समान, किन्तु उस साँप ने मनुष्य की उपस्थिति की गन्ध सूँघ ली थी। शायद उसने लगातार अपने आपको छत की दरार में छुपाया और उसकी नजर से ओझल हो गया।

क्या दिवस की पहली वस्तु के रूप में उसे देखना सम्भावित दुर्भाग्य की पूर्व सूचना हो सकती है? उसे क्या करना चाहिए? उसने धीर-समीर, या निकुंज वन या लाला जी के मन्दिर घूमने जाने का सोचा। किन्तु उसकी माँ उसे सबेरे-सबेरे अकेली बाहर न जाने की चेतावनी देती रही है। क्योंकि ब्रज पहले जैसा था, अब न रहा। युवतियों के लिए ब्रज में सुरक्षा की कोई गारंटी न रही। वास्तव में परिस्थितियाँ इतनी गम्भीर हो गयी थीं कि सौदामिनी की माँ ने तो राई का पहाड़ ही बना दिया था। अभी पिछले दिन ही एक राधेश्यामी महिला ने उसे बताया कि एक ईसाई युवक चीरहरण घाट की सीढ़ियों पर बैठा देखा गया।

तब से वह इतनी आतंकित हो गयी कि उसने यमुना में स्नान का आनन्द छोड़ दिया। इतना ही नहीं, पूजा के रूप में बेलपत्रों को चढ़ाने के लिए गोपेश्वर जाना भी त्याग दिया।

सौदामिनी ने दरवाजा खोला और बाहर निकल आयी। वह अपने विचारों की तन्द्रा में अभी भी खोयी हुई थी। आजकल ब्रज में प्रत्येक व्यक्ति संकटपूर्ण बना हुआ है। अब यह पुरातन स्वर्ग-सा सुरक्षित न रहा। वह ब्रज के पुराने समय की रेत में खो गया। आज प्राचीन स्थान की गली-गली में मानव लोथड़े के लालची भेड़िए थे। कोई महिला सुरक्षा के बिना घर से बाहर जाना सुरक्षित नहीं समझती थी। कितना अपमानजनक!

अपने दुपट्टे से उसने सिर एवं मुँह को ढक लिया। अकेले इस समय बैठे रहना वास्तव में एक कठिन कार्य था। प्रत्येक गुजरते दिन के साथ ही उसके अकेलेपन की भावना, जो उसकी आत्मा को घेरे हुए थी, तीक्ष्ण रूप से बढ़ती जा रही थी।

उसने ब्रह्मकुंड के पास से छोटा रास्ता लेने का निर्णय लिया। पूर्व में क्षितिज प्रकाशित हो चुका था और वह धीरे धीरे बढ़ रही थी। कुछ दूरी पार करने के बाद ब्रह्मा के मन्दिर के पास अचानक वह स्तम्भित एवं हकबकी खड़ी हो गयी। अपने घूँघट को चेहरा छुपाने के लिए और थोड़ा खींच लिया, क्योंकि मन्दिर के पास के लैम्पपोस्ट के नीचे खड़े उस व्यक्ति के दृश्य ने उसे आन्दोलित कर दिया था।

और उसी के सामने एक और सड़क पर लेटा हुआ, जो जीवित की अपेक्षा मृत दिखाई दे रहा था। वह पूर्ण नग्न सुबह के धुँधलके में वास्तविक भूत-सा दिखाई दे रहा था।

किन्तु सौदामिनी वापस नहीं जाएगी। वह मन्दिर की टूटी दीवार के साथ-साथ सरकती गयी और नजदीकी जगह से उस आदमी को देखा और जैसे ही उसने उस आदमी को पहचाना, उसके मुँह से चीख निकल गयी। उसने उसके हृदय को दो भागों में चीर दिया। लैम्प के खम्भे के नीचे का वह और कोई नहीं, उसके पिता श्री रायचौधुरी स्वयं थे।

सौदामिनी ने अपने पिता को उस आदमी का नखशिख परीक्षण करते देखा। दूसरे ही क्षण उन्होंने कुछ असामान्य-सी हरकत की। ब्लैंकट, जो वे ओढ़े हुए थे, उससे उस आदमी को ढक दिया और उसे अपने हाथों में उठाकर तेज-तेज इस तरह चलने लगे मानो वे साठ वसन्तों को पार करने वाले वृद्ध नहीं बल्कि कोई युवक हों।

सचमुच यह सब अजीब, बड़ी अजीब बात थी। सौदामिनी, जो अपने पिता की करुणा से पूर्णत: घिरी थी, क्या वह उन्हें इस युग की महान आत्मा कहकर बुलाये। शायद वह ब्रज के गोस्वामी और शम्भूराम अवस्थी के आखिरी प्रतिनिधि थे!

सौदामिनी मन्दिर की टूटी दीवारों के पीछे के अपनी छुपने वाली जगह से खुले में आ गयी। उस समय हवा खूब तेज बह रही थी।

सौदामिनी ने धीरे-धीरे चलना जारी रखा। मन्दिर के सिंहद्वार पर भूखे-प्यासे भिखारियों ने खड़ा होना शुरू कर दिया था। उनकी लाइन जूते रखे जाने वाले शेड तक बढ़ चुकी थी। आज शुक्रवार होने से मन्दिर वेंकटेश्वर तिरुभंजन उत्सव मनाता है। सौदामिनी ने उसके खत्म होने तक मन्दिर के किसी कोने में बैठ जाने का सोचा। अपने शून्य घर में लौटने से यह अधिक अच्छा होगा। यदि कर सकती, तो वह उस उजाले के विस्तार के चहल-पहल वाले दिन में चारों ओर निरुद्देश्य घूम सकती थी। उसने अपने को मुक्त पाया-हर प्रतिबन्ध से मुक्त, अपने अस्तित्व की वह स्वामिनी थी।

अपने से थोड़ी दूरी पर सौदामिनी ने किशोरों का एक झुंड देखा, जो ब्रह्मचर्य पालन की पहल कर रहे थे। उनके कन्धों से भिक्षुक की झोली लटक रही थी। सूर्य के सामने नतमस्तक उसी की प्रशंसा के मन्त्रोच्चारण कर रहे थे। सौदामिनी ने उन्हें आसानी से पहचान लिया। वे सब उत्तर काशी के स्वामी ब्रह्मानन्द की नयी संस्कृत पाठशाला के छात्र थे। अभी कल की ही बात है, जब मथुरा के धार्मिक सम्मेलन में इन सबको, जिन्होंने संस्कृत को मातृभाषा कहने का साहस किया, प्रत्यक्ष रूप से लोगों के सामने लथाड़ा था। उन्हें विश्वास है कि ब्रज में अभी भी संस्कृत एक जीवित भाषा है।

ब्रह्मानन्द स्वामी के छात्रों के कन्धों से भिक्षा झोली लटक रही है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी, क्योंकि यह प्रचलन था। ब्रज के धर्मतन्त्र कालेज के विद्यार्थी भी अपनी आजीविका भिक्षा माँगने के द्वारा ही कमाते थे। कुछ सिक्के कमाने के लिए रामचरितमानस एवं केशवदास की रामचन्द्रिका के दो पदों वाले दोहों का पाठ करते थे। उनमें से कुछ वासुदेव के ब्रह्म सन्देश, रामतत्त्व, भास्करमाधुर्य और केलीकन्दविनी के भी पदों का पाठ करते थे। नवागत यात्रियों के लिए यह अनुभव सर्वथा नवीन था। वे वाचकों की थैलियाँ फूलों और सिक्कों से भर देते थे।

सौदामिनी ने यह महसूस किया कि उसके कपड़ों में यहाँ-वहाँ टाँके लगे हुए हैं। अब और अधिक समय तक वह उन्हें नहीं पहन पाएगी। रायचौधुरी जी, कई रोजों से अनुपमा-उसकी माँ उसे यह बता रही है कि शाहजी की लड़कियों की शाला में कोई जगह खाली है। कोशिश करो। ज्ञानगुदरी के लक्ष्मीबाई गर्ल्स कालेज में तुम्हारे लिए कुछ पाने की उम्मीद है। तुम कोशिश क्यों नहीं करती? क्या तुम समझती हो कि अपने पास न समाप्त होने वाला खजाने का भंडार है। तुम्हारे पिता तुम्हें इस अस्पताल की फालतू चीजों के सिवाय कुछ जायदाद देकर नहीं जा सकेंगे।

हाँ, उसने महसूस कर लिया है कि उसकी माँ सही है। किसी ने भी धन का भंडार उसे नहीं दिया है। विश्वविद्यालय की डिग्री का खर्रा किसी ट्रंक में कहीं मुड़ा-तुड़ा पड़ा होगा। अब उस डिग्री का उपयोग ही क्या है। उसने आखिर पढ़ाई की ही क्यों? क्या ज्ञान की इच्छा में या सुरक्षित भविष्य के साधन के रूप में? अपने आपसे अनेक बार यह प्रश्न पूछा।

किन्तु विश्वसनीय उत्तर उससे सदा कतराता है। कई अन्य भी इस प्रश्न का उत्तर पाने में असफल रहे हैं।

और फिर तेजी से गुजरते समय के भय ने उसे उद्वेलित कर दिया। पिछले कई दिनों से वह अनुभव कर रही है कि कोई उसके कान में फुसफुसा रहा है। पंख वाले तीर के समान समय तीव्र गति से भाग रहा है। उसे आगे बढऩे देना यानी एक कँटीले चक्करदार रास्ते में प्रवेश करना, जिसके बाद कोई निर्गम नहीं है।

क्या उसे तिरुभंजन उत्सव के निपटने की प्रतीक्षा करनी चाहिए? ऐसा उत्सव जिसमें ढाई मन दूध भगवान वेंकटेश्वर की मूर्ति पर उँड़ेला जाता है। ऐसे समय उस मोहल्ले के बच्चे और आस-पास कुली-कबाड़ी उन कुंडों के अन्त में, जहाँ से जल्दी ही दूध बहना शुरू करेगा, पंक्तिबद्ध खड़े हो गये। भिखारी भी आपस में एक बढिय़ा- सा स्थान पाने की के लिए धक्कामुक्की कर रहे थे।

उसे छोड़ देना चाहिए, सौदामिनी ने निर्णय ले लिया। वह यमुना के किनारों की ओर बढऩे लगी। रेत में परमार पक्षियों का अपना झुंड बनाना देखा जा सकता था। फिर उसके मन में अचानक चन्द्रभानु राकेश एवं उसके वर्कशाप का खयाल आ गया। उसने तुरन्त गाली-गलौज करने वाली राधेश्यामियों की अपेक्षा उसके साथ समय बिताना अच्छा समझा। राकेश के स्थान पर उसकी मुलाकात कुछ विदेशी यात्रियों से हो गयी, जो वहाँ पहले से ही थे। वे जमीन पर पालथी मारकर बैठे हुए थे। उनमें से एक दस्तकार, जो चन्द्रभानु से अष्टधातु के डिजाइन की कला में शिक्षण ले रहा था, एक कोने में गम्भीरता से कार्य कर रहा था। भेंटकर्ताओं के चेहरों पर बहुत अधिक उत्सुकता देखी जा सकती थी। वे अनेक प्रश्न पूछने लगे।

भक्तिमार्ग में ब्रज का स्थान क्या है? भक्तिमार्ग का साहित्य, राम, ब्रज और औरंगजेब से सम्बन्धित सवाल। ब्रज में तुलसी और मीरा और आश्चर्यजनक साहित्य। वेणीमाधव का गोसाईं चरित। इन सब पर उनके पास पूछने के लिए प्रश्न थे।

किन्तु बीसवीं सदी के गोसाईं चरित का मूल्यांकन है कि वह एक रहस्यात्मक भ्रम का बेतुका मिश्रण और धर्मपरायण मिट्टी का छलछलाना मात्र है। आज के चिन्तक उसे इस रूप में सोचते हैं। आपका मत क्या है?

मीरा बाई ने तुलसी से एक बार पूछा, क्या मैं अपराधी नहीं, मैंने अपने विवाहित पति को अलग (त्याग) दिया।

इस प्रकार के उदाहरण हैं। और कई। मुक्ति के लिए प्रहलाद ने अपने पिता को त्यागा, विभीषण ने अपने भाई को, भरत ने अपनी माता को, बली ने अनुदेशक को, ब्रज की नारियों ने अपने पति को। उनके क्रियाकलापों ने उन्हें महान सुधारक सिद्ध किया है।

ऐसा तुलसी ने जवाब दिया। यह उत्तर अब जगजाहिर है, किन्तु आधुनिक विचारक मीरा के तुलसी के साथ बने पवित्र सम्बन्धों पर कलंक लगाते हैं।

किन्तु ये विचारक चाहे जितना सुनिश्चित हों, सौ वर्षीया बूढ़ी महिला रामायणी, जो यमुना के दक्षिण में स्थित तुलसी मठ में निवास करने वाली पवित्र आत्मा है, इसका विश्वास नहीं करती। चित्रकूट एवं काशी के अग्नि घाट की प्रौढ़ पीढ़ी- वह भी आज के शिक्षाविदों के मत को नहीं स्वीकार करती, इस पर एक मुलाकाती ने पूछा, 'फिर किसका विश्वास किया जाए?' शायद वह ब्रज का एक गहरा अनुसन्धान करने पर उतारू है।

अन्य प्रश्न भी उठे-अन्य काव्य जैसे-कृष्ण गीतावली, बरवै रामायण एवं जानकी मंगल ने कैसे प्रभावित किया ब्रज को? और कैसे गायत्री की कविता?

उन्हें आसानी से विश्वास नहीं दिलाया जा सकता था। वे स्पष्ट रूप से स्वीकार नहीं कर रहे थे। वे विविधता को देख रहे थे। और प्रश्न पूछे गये-ईस्ट इंडिया कम्पनी के दिनों में ब्रज पर कैसा गुजारा था? और इसके पहले अकबर के दिनों में? और राजाओं, करौली, अयोध्या, धुर, टिहरी और इसी के समान अन्य के जमींदारों का क्या योगदान रहा है। और कासिम बाजार, अहल्याबाई सीकरी, बोनोबाबरी, शाह जी और आश्रम, जो दाग्बी दासी कहलाती थी, के बारे में इतिहास क्या कहता है?

वे और प्रश्न पूछते हैं। उनकी उत्सुकता को सन्तुष्ट करना करीब-करीब मुश्किल था। उन्हें ब्रज के भूत, वर्तमान, उसके इतिहास, उसकी संस्कृति के बारे में विस्तृत रूप से बताना ही पड़ेगा।

'और,' उन्होंने फिर से पूछा, 'उन धार्मिक प्रवृत्ति वाली वेश्याओं, दो सौ साल पहले जिन्होंने मन्दिर और मठ ब्रज में बनवाये थे, के बारे में कौन-से विवरण हैं?' वे उन्हें भूत की विस्मृति से सुरक्षित रखना चाहते हैं?

अत: खत्म न होने वाले प्रश्न लगातार वे पूछते रहे, पूछते रहे। फिर उन्होंने राकेश से जोरदार विदाई की और पीपा पुल की दिशा में चल पड़े। उनमें से अधिकांश नंगे पाँव थे। लम्बे अव्यवस्थित बाल, उनका रंग पीला था। कुकुरमुत्ते के समान कन्धों पर पुस्तकों एवं कपड़ों की झोली लटकाये हुए थे। वे भूखे दिखाई दे रहे थे।

जैसे ही वे गये, सौदामिनी पास गयी और राकेश के पास खड़ी हो गयी। उसने कहा, 'प्रिय, स्वागत है। मैंने तुम्हें दूर से कदम्ब वृक्ष के नीचे बैठे देख लिया था। तुम्हारे यहाँ आने के पहले एक सुन्दर-सा मोर अपने पंख फैलाये था।' फिर थोड़ा रुक कर राकेश ने कहा, 'जब अपने कंठ में चमेली का हार पहने भिन्न-भिन्न मन्दिर और देवालय देखने जाती हो, तो बहुत अधिक पवित्र युवती-सी, जैसी कि तुम वास्तव में हो, दिखाई देती हो।' सौदामिनी शरमाती हुई बोली, 'धन्यवाद, किसी कलाकार के द्वारा इस तरह प्रशंसित होना भी बहुत मुश्किल ही है।'

राकेश ने अपने बालों की लम्बी लटों को व्यवस्थित किया। फिर राकेश ने एक राधेश्यामी सहायक से दो कप चाय परोसने को कहा।

एक बूढ़े राधेश्यामी ने ऊपरी मंजिल से नीचे देखा। इसके पहले की भेंट के समय भी सौदामिनी ने उसी महिला को उस कलाकार की देखभाल करते देखा था।

सौदामिनी ने चाय का स्वागत किया, क्योंकि उसने सबेरे से कुछ भी नहीं लिया था।

राकेश ने अपने आपको एक नये चित्र बनाने के लिए वस्तुओं को व्यवस्थित करने में मग्न कर दिया। जब वह यह कर रहा था, उसने सौदामिनी से पूछा, 'तुम ब्रज में कितने दिन तक रहने की सोच रही हो?'

सौदामिनी के पास कोई उत्तर नहीं था। वह क्या कह सकती थी! उसके सामने कोई लक्ष्य नहीं था। वह केवल डोल रही थी। कोई उत्तर मुश्किल से ही सम्भव था।

उस कलाकार ने बड़ी आलोचनात्मक ढंग से उसके चेहरे की प्रतिक्रियाओं को पढ़ने की कोशिश की। फिर कुछ मिनट चुप रहा। ऐसा लगता था कि उसकी सच्चाई छुपाने की चुप्पी के तले दोनों ही एक दूसरे को खोजने और समझने की चेष्टा कर रहे थे।

'तुम एक पढ़ी-लिखी लड़की हो। यदि तुम चाहती हो तो शाहजी के स्कूल में शिक्षिका पद के लिए खोज कर सकती हो। निश्चित रूप से यह ब्रज में तुम्हारे स्थायी रूप से निवास पर निर्भर करता है।'

इस बार भी सौदामिनी ने कुछ नहीं कहा। राधेश्यामी ने उसके लिए चाय ला दी। वह अष्टधातु प्रशिक्षणार्थी कारीगर भी उसके साथ हो लिया। उसने राधिका की मूर्ति तराशने का अपना काम उस समय छोड़ दिया।

'आखिरकार इन दिनों प्रतिदिन तुमने दो जून का खाना पा लिया है।' सौदामिनी ने चन्द्रभानु से अचानक पूछा।

राकेश मुस्कराया और कहा, 'तुम जानती हो, दु:ख हर युग में कलाकार के लिए पर्याप्त है। दसवीं शताब्दी में कलाकारों ने अत्यधिक दरिद्रता झेली थी। अधिकांश भिखारी तक बन गये। आज भी औसत कलाकार ठीक उसी प्रकार दशा भोग चुका है। तुम इन दिनों मेहमूद वगैरा जैसे आश्रयदाता को नहीं पा सकती। तुम्हें मालूम है वह आश्रयदाता था। राजपूती चित्रकला शाला का, जो चित्रकला की अपभ्रंश शैली का एक नवीन तरीका है आज कोई भी नहीं है जिसकी आत्मा में प्रतिध्वनित हो उस कला का प्रेम, जिसने सम्राट हुमायूँ की बेचारी आत्मा को युद्ध स्थल पर भी उन कार्यों को ले जाने के लिए प्रेरित किया, जिनमें चित्रमय उदाहरण थे। कभी-कभी, बहुत कम ही यात्री उस स्थान पर आते हैं। किन्तु वे हमेशा इतनी कम संख्या में आते हैं, मानो महासमुद्र में एक बूँद। उदाहरण के लिए, अभी उस दिन एक भद्र महिला, जिसने अपना परिचय महाराष्ट्र के राव परिवार से सम्बन्धित के रूप में दिया। जिस वंशानुक्रम में वहाँ के सेनाधिकारी हुआ करते थे। उन्होंने उस स्थान को देखने के लिए वाहन किराये पर लिया। मैं उनके पूर्वजों को जानता हूँ। ब्रज में कदम्बखड़ी नामक उनका बगीचा था। अब तो उसका निशान भी नहीं है। उस महिला ने मोगल शैली के चित्र बहुत बड़ी रकम के एवज में चाहे थे। केवल दो मुगल शैली के चित्र।

यह कहकर उस कलाकार ने ठहाका लगाया। उसके प्रशिक्षणरत सहायक ने चुटकी ली, 'तुम, दिखता है, अत्यन्त भावुकता के मूड में हो आज!'

'ओह हाँ, सचमुच में मैं हूँ, मैं पूरे रूप से प्रशंसात्मक भाव से भरा हूँ।' आज उस महिला ने जो कहा, याद करने से मुझे खुशी होती है। उसने कहा, मुझे और मेरी कला के बारे में वह सब कुछ जानती है। और ऐसे उद्गार भी व्यक्त किये कि मैं मुगल शैली की चित्रकला का अन्तिम जीवित चित्रकार हूँ। किन्तु वे ईश्वरी प्रसाद के बारे में कुछ नहीं जानती थीं। बड़े खेद की बात है। और फिर एक कलाकार कुछ दिन पहले यहाँ आया और ब्रज के मध्य में घोषणा की-यदि आप मुगल शैली की चित्रकारी के अन्तिम प्रतिनिधि को देखना चाहते हो तो काशी की अँधेरी गली में जाओ, जहाँ आप एक क्षीणकाय बूढ़े व्यक्ति के केवल हड्डी एवं चमड़ी के ढाँचों को पाओगे। यह एक बूढ़ा आदमी है, जो अपने रास्ते दोनों ओर की परवाह किये बिना जाता रहता है। उसकी उलझे बालों की फसल एवं दाढ़ी है, वह मुश्किल से ही अपनी आँखों एवं मुँह को साफ रखता है। जुकाम टपकता रहता है। कमर पर केवल एक मैला-सा टुकड़ा, धोती का। कभी-कभी कैनवास के जूते पहनता है। पर नंगे पाँव ही चलता है। अकसर। किन्तु वह अविलम्ब पहचाना जाता है। और तुम भी पहचान सकते हो। उसके सिर पर गांधी टोपी की निशानी पहचान की सबसे अच्छी निशानी है। अपने कन्धों पर साफ शाल का टुकड़ा डाले रहता है।

'अत: मुगली शैली के अन्तिम जीवित चित्रकार को पहचानने में किसी को कठिनाई नहीं होती। उमर खय्याम का चित्र, जिसे उसने बनाया, यूरोप के कलाकारों को भी अभिभूत कर दिया। और आज इस महान कौशल का कलाकार अपने दिन इस प्रकार की ऐसी गहन दरिद्रता में काट रहा है, जो भिखारियों की-सी है।'

'यहाँ एक क्रान्ति की नितान्त आवश्यकता है।' उन विदेशी यात्रियों ने कहा। 'हम परिवर्तन चाहते हैं। तुम विरोध क्यों नहीं करते, विद्रोह क्यों नहीं?' उन्होंने पूछा द्वारकाधीश मन्दिर में जमा हुए उन भूखे लोगों से। भूखे और बीमार, जो विभिन्न मन्दिरों जैसे बाँकेबिहारी, भगवान गोविन्द, भगवान रंगनाथ, और शाहजी और अन्य जगहों के आसपास एकत्र होते रहते हैं। खासकर अष्टधातु के कारीगर और चित्रकार चन्द्रभानु से-उनके ओठों पर केवल एक मात्र प्रश्न था। 'तुम यह सब ऐसे छोड़ क्यों देते हो-यह दुख और यह वंचना - इतना घृणित। तुम विद्रोह में खड़े क्यों नहीं होते?'

'अठारहवीं शताब्दी के मध्य में भी ऐसी ही परिस्थिति का निर्माण हुआ था। कलाकार, जो कभी बादशाहों के द्वारा दयालुता से संरक्षित थे, दरबारों के दोस्तानों कोनों को छोड़ कर अपनी आजीविका के लिए भीख माँगने पर मजबूर कर दिए गये। और वह भी दू- दराज के ऐसे स्थानों में, जैसे कांगड़ा, चम्बा, नूरपुर, ग्वालियर, और यहाँ ब्रज के गुप्त एकान्त कोनों में।

'विदेशियों ने चेतावनी दी कि विद्रोह अनिवार्य है। क्या आपने एक बात महसूस की? क्या आपने उन लड़कों और लड़कियों की इन दिनों की पीढ़ी को देखा, जो इन जगहों, जैसे-मथुरा, उत्तर काशी, कटक, भुवनेश्वर, और तो और आगरा में पैदा हुए और जिनका पालन-पोषण हुआ। वे सब जड़ दिखाई देते हैं। उनके चेहरे इतने भावहीन हैं जैसे उनमें भावनाओं को क्षय हो गया हो। कहना पड़ता है वे क्रोधित नहीं है। कुछ भी उन्हें नहीं उकसाता। फिर आप कैसे सोच सकते हैं कि विद्रोह होगा। मैं सचमुच इन यात्रियों की, इन विदेशियों की प्रशंसा करता हूँ, क्योंकि ये चारों दिन वे रातें मन्दिरों के खुले आहतों में बिताते रहे; पंक्तिबद्ध बैठे रहे। भिखारियों और फकीरों के साथ प्रसाद के लिए। वे नंगे पाँव चलते रहे। उनके कपड़े फटकर चिथड़ों में रह गये। वे सदा भूखे रहे। पर क्या तुम लोगों ने उनकी आँखों की ओर देखा? ऐसी उत्सुक और जिज्ञासु दृष्टि हमारे छात्रों में मुश्किल से ही तुम पाओगे। यदि आपको विश्वास नहीं हो रहा है, तो मथुरा के द्वारकाधीश के मन्दिर के सामने कुछ समय के लिए अड्डा जमाओ और गलियों से गुजरने वाले लड़कों और लड़कियों की निगरानी करो। तुम्हें अनिवार्यत: निराश होना पड़ेगा। ऐसी सुस्त और खाली दृष्टि और उनका रंग भी कोई अच्छा नहीं है। उनकी त्वचा का रंग भी उतना ही बुझा हुआ है, जितना खजूर के सूखे पत्तों का। और ये लोग क्रान्ति शुरू करेंगे? इनके साथ मुझे कतई धैर्य नहीं है। पिछले साल, अपनी आजीविका की खोज में तंजौर से भुवनेश्वर आ रहे सैकड़ों लड़के-लड़कियों से मैं मिला। मैंने उनकी आँखों में झाँका और खालीपन के अलावा कुछ नहीं देखा। एक नीरस दृष्टि उन सबने मेरी ओर फेंकी। ऐसा लगा, वे सब किसी रचना, कोई विचार या कोई चीज के लिए सर्वथा अनुपयुक्त हैं। केवल एक अपवाद है। वह कटक में है। वहाँ मैं दो आदमियों से मिला। उनकी आँखों में अपवादात्मक दृष्टि विद्यमान थी। किन्तु दोनों बेकार युवक मात्र थे। हताशा से भरे किसी नौकरी की तलाश में लापरवाही से चक्कर काटते रहते थे और दिन में निरुद्देश्य घूमा करते थे। भूख मानो उनकी अँतड़ियों को फोड़े दे रही थी। फिर ऐसे युवकों में उत्सुकता की दृष्टि किस काम की। यह तो मात्र बेकार का आभूषण मात्र है। जैसे बन्दर के गले में सोने का हार।'

जैसे ही इन विचारों को चन्द्रभानु ने व्यक्त किया, लगने लगा वह मानो भावना से ओत-प्रोत हो गया। अन्त में उसने जोरदार ठहाका लगाया, लगा इस राधा की पीटकर बनायी गयी वह मूर्ति, जिसे उस अष्टधातु कला सीखने वाले ने उकेरा था, पास ही के कोने में हिलकर रह गयी।

पीपे के पुल के खम्भे सुबह के चमकीले सूर्य के प्रकाश में चमक रहे थे। जैसे यमुना की रेत में बड़ा-सा तोप पड़ा हुआ हो। वह अष्टधातु कारीगर अपने मालिक का चेहरा देखने लगा और शर्माते हुए कहने लगा, 'लम्बे समय के बाद जाकर आज आप तरो-ताजा दिखाई दे रहे हो। किन्तु वह महिला शायद आपसे कुछ पूछना चाहती थीं। आपने उन्हें जरा-सा भी मौका नहीं दिया। आप तो अपने ही विचार में खो गये।

चन्द्रभानु ने सौदामिनी से कहा, 'हाँ, सुबह आज मैंने तुम्हें कदम्ब के नीचे बैठे देखा, तो समझ गया कि निश्चित रूप से तुम्हें मुझसे कुछ पूछना है।'

उस कारीगर ने इस बीच अपना सामान एवं औजार एकत्रित कर लिया। एक थैली में उन्हें रख दिया और चला गया। बूढ़ा राधेश्यामी भी आया और उनके चाय के बरतनों को हटाने लगा।

चन्द्रभानु ने आगे कहा, 'वे कहते हैं कि तुम्हारे पिता ने पूरे ब्रज के दिल और दिमाग को जीत लिया है। एक दिन तुम चाहती तो उनका स्थान ले सकती हो। क्या तुमने इस पर कभी विचार किया है? इस संक्रमण के समय ब्रज में आपके पिता के समान व्यक्तियों की बड़ी आवश्यकता है। उदार बनो। छोटी-छोटी सोच को त्याग दो और अपने पिता के अस्पताल को लेने को तैयार हो जाओ।'

सौदामिनी के लिए चन्द्रभानु की यह सलाह सर्वथा अनपेक्षित थी। घायल-सा उसके चेहरे ने अपना पूरा रंग खो दिया। वह अपने को बुरी तरह निराश महसूस करने लगी। उसने कहा, 'यदि ऐसी महानता मैंने अर्जित की होती, तो मैं अपने को भाग्यशाली समझती, क्योंकि ऐसी परिस्थिति में सारी यातनाएँ और अपमान एवं मानसिक बेचैनी मेरे हृदय की गहराइयों में बेहद यन्त्रणा देती हैं। विश्वास करो मैं अभी भी हाड़-माँस की मात्र औरत ही हूँ। सांसारिक आवेशों और इच्छाओं से धूसरित हो गयी हूँ। इसके बाद भी मैं किसी प्रकार व्यवहार परिवर्तन दूर-दूर तक नहीं देख रही हूँ। मुझमें महान कार्य करने का आत्मविश्वास है ही नहीं। बचपन से ही एक खास किस्म की खिन्नता मेरा पीछा कर रही है। मेरे अस्तित्व का एक भाग बन कर, मानो मेरे अस्तित्व का अभिन्न श्वास हो, मेरी आशाओं और भयों में, मेरे सुखों और दुखों में। केवल एक साल के छोटे से अर्से में मैं इससे राहत ले पायी हूँ। और वह एक साल मेरे मन के अन्तरंग भाग में आज भी झकाझक चमकता है। केवल उस वर्ष के दरम्यान मेरी आत्मा स्वयं उसकी मालिक रही और आज मैं मन्दिर-मन्दिर भटक रही हूँ। केवल अपने उस भाग्यवान जीवन के अमूल्य कुछ दिन वापस पाने के लिए। दिन गुजरते जा रहे हैं और मेरा शरीर और आत्मा शुष्क एवं बदरंग होती जा रही हैं, जैसे मेरे पुराने वस्त्र।'

सौदामिनी बोलती रही, 'एक समय था जब मैं एक जगह से दूसरी जगह भटकते रहना पसन्द करती थी। मुझे ऐसा लगता है, मानो मैं कई युगों को पार कर चुकी हूँ और वहाँ आ पहुँची हूँ, जो पूर्णत: मेरा जाना-पहचाना नहीं है। हर चीज बदल गयी है अब। यहाँ अब ऐसा कोई भावुकता से भरा तार मेरे हृदय में नहीं है। समय था जब मैं अपने सिर के ऊपर आसमान को देखने का साहस नहीं करती थी। किसी और को ऐसा अनुभव कहाँ हुआ है कि जो उसे इतना डरा दे कि वह आसमान को भी देखने का साहस न जुटा सके। आप एक कलाकार हैं। महाशय, आप भावना को समझने के काबिल हैं। आप मेरी स्थिति की प्रशंसा करेंगे। उत्साह की लहरें और लालसा आज भी मेरे दिमाग को अस्त-व्यस्त कर देती हैं। वे लेश मात्र भी कम नहीं हुईं। कुछ दिन पहले मैंने एक युवा जोड़े को देखा, स्वास्थ्य एवं शक्ति से भरे हुए। घुमावदार रास्ते के किनारे वाले पेड़ के नीचे लेटे हुए। मेरे लिए उन्होंने युवावस्था की सुगन्ध फैला दी, इच्छा एवं जीवन की भी। यमुना के पानी से भी दुर्लभ सुगन्ध रिसने लगी। कसाई की दुकान के ताजा मांस की गन्ध नहीं-नहीं ऐसा नहीं था, कुछ अपनी साँस से अपने आपको बचा जाने की स्थिति की वह मधुर इन्द्रियगत सुख की खुशबू भरी-सी नदी पास में बह रही है और आनन्दित जोड़ी एक बड़े पेड़ की छाया में पिघलती जा रही है। इस दृश्य ने मुझे पूर्णत: सुलगा दिया। मैंने अपने पर नियन्त्रण पूर्णत: खो दिया। रेत पर पागल की तरह मैं लोटने लगी। मेरे वस्त्र अव्यवस्थित हो गये। मैंने रेत के कणों की अपने मांस में चुभने की अनुभूति की। मुझे पूरा विश्वास है कि मेरी दशा की आप प्रशंसा करोगे। इन उद्धत घंटों में भी मेरे दिमाग में ढेर सारे शब्द तारों-से झिलमिलाते मेरे पास थे-फ्रेम में मढ़ लेने योग्य।'

अपने विचारों को व्यक्त करती सौदामिनी चुकी-सी लग रही थी। उसने कलाकार की आँखों में देखा। होठों के वक्र बता रहे थे कि वह आँसुओं में खो जाएगी।

राकेश ने कहा, 'सोचता हूँ वह ईसाई युवक तुम्हें कुछ सान्त्वना दे सकता है।' इस प्रश्न ने सौदामिनी को और अधिक दुखी बना दिया। पर उसने अपने पर काबू पा लिया और कहा, 'हाँ, सचमुच-अपने अनुभवों में आप सही हैं। वह अकेला ही मुझे आराम और आशा का आश्वासन दे सकता है। इस संसार में कोई और नहीं। मैं, जो मन्दिर-मन्दिर घूम कर राहत खोज रही हूँ। मुझे लगता है, एक बार मैं उसके बाजू में खड़ी हो जाऊँ। नहीं, शायद मैं गलती कर रही हूँ। बात इतनी सरल नहीं है। कम गम्भीरता जो उसने मुझमें ला दी, शायद एक रहस्य है। कभी तो लगता है कि उसने तो मेरे पथ को प्रकाशित एवं संजीदा बनाने की अपेक्षा अधिक अन्धकारमय बना दिया। आप तो कलाकार हो। कृपया बताओ, मेरे जैसी किसी अन्य आत्मा ने इतना भोगा है? क्या कभी किसी औरत ने ब्रज की इस पवित्र मिट्टी पर पैर रखा है?'

कलाकार ने अपना सिर झुका लिया। क्षण गुजरते गये। दोनों ही शान्त थे। फिर कलाकार ने उस युवती को बताया, 'तुम अपने आपकी दोस्त भी हो और दुश्मन भी हो। इस जीवन की यात्रा में साथी भी। मैं आशा करता हूँ कि तुम मेरे मतलब को समझ रही हो।'

कलाकार ने एक बार फिर अपना सर झुका लिया और शान्त हो गया। इसी बीच सूर्य प्रखर होता गया। पीपा के पुल के खम्भे सूर्यप्रकाश में जंगली भैंसों की चमकती त्वचा से चमकने लगे। सौदामिनी को लगने लगा कि वह कलाकार का काफी समय ले रही थी। अत: वह उठ खड़ी हुई। फिर अन्त में वह उसे बताने लगी, 'यदि ब्रज में आने वाली मेरे जैसी कोई औरत मिली, तो मुझे बताने में जलोगे नहीं। मैं उससे कुछ प्रश्न पूछूँगी। विश्वास कीजिए मुझ पर, मुझे कुछ गम्भीर बातें उस औरत से पूछनी हैं।' इसके बाद वह वहाँ से चल दी-नदी की रेत में अपने पद-चिह्नों को छोड़ते हुए।

बढ़ते दिन के साथ-साथ नदी का किनारा आवाजों से भरने लगा। लहरों के ऊपरी सिरों पर तब फेन (झाग) और चमेली की फूल मालाएँ तैरती देखी जा सकती थीं।

राकेश की झोपड़ी के सामने एक कदम्ब का वृक्ष था, जिसके चारों ओर एक ऊँचा चबूतरा बना हुआ था। एक युवा लड़की बहुत पहले से प्रतिदिन उस स्थान को झाडऩे-पोंछने के लिए लगायी गयी थी। वह यह मुफ्त में ही करती थी। उसका लक्ष्य था यह देखना कि कोई भी मैली-कुचैली संन्यासिनी उस पलस्तर किये बढ़िया स्थान पर या उस देव या देवी की बदसूरत मूर्ति के साथ अतिक्रमण न करे। उस स्थान पर वह हमेशा सजग नजर रखती थी। क्योंकि मुश्किल से ही कोई जगह बची थी, जिसे संन्यासिनियों के झुंड ने दूषित न किया हो। उन्होंने घुड़साल के जलाशयों की दीवारों तक को नहीं छोड़ा था, जिन्हें वे बसने को सुविधाजनक पाती थीं।

आज, जैसा कि राकेश ने पाया, बड़े आश्चर्य के साथ कि उस जगह को रगड़-रगड़ साफ करने की जगह वह उस वृक्ष के नीचे नाच रही थी। राकेश उस घटना का गवाह है, जिसे गुजरे ज्यादा समय नहीं हुआ। यही लड़की, जो उसके सामने नाच रही थी रघुनाथ जी के मन्दिर में प्रवेश कर मूर्ति पर हार चढ़ाना चाहती थी। किन्तु द्वार पर लाठी से लैस सिपाही ने भारी-भरकम हाथों से उसे भगा दिया। कोई अस्पृश्य भला पवित्र आरक्षित क्षेत्र में प्रवेश करने का एवं उसकी पवित्रता को भंग करने का साहस कैसे कर सकता है। निश्चित रूप से वह अच्छी पिटाई के उपयुक्त है। खूब शोरशराबा मचा (उठा) और वहाँ भीड़ जमा हो गयी और बेचारी उस लड़की का धक्का-मुक्की के साथ पीछा किया गया और अभियोग लगाया गया। पीछा करने वालों में से एक ने उसके पेट पर ऐसी जोरदार लात मारी कि वह प्रवेश द्वार से रथ रखने के स्थान तक लुढक़ती चली गयी। युगों पहले नीची जाति के लोग ताम्रपानी नदी के किनारे से आकर ब्रज में बसे थे।

यह वह समय था, जब अर्जुन के सारथी कृष्ण का आविर्भाव वृन्दावन के कृष्ण मुरलीधर के रूप में हो चुका था, जो अपनी प्रेमिका राधा और गोपियों के झुंड के द्वारा घिरे रहते थे और ब्रज में पवित्रता से छेड़छाड़ करते हुए उस स्थान की मिट्टी को पवित्र कर रहे थे। और यह उस समय की बात है, जब इस लड़की की वह नीची जाति इस स्थान पर आ बसी थी। युगों पहले।

वे अलग-थलग बसे थे। अस्पृश्य काँटों भरी झाडिय़ों से घिरे जंगल के फैलाव में वे कई गुना बढ़ते गये। और समय गुजरने के साथ उन्होंने कई वर्गों में अपने को बाँटा।

उस लड़की के नृत्य की गति बढ़ती ही गयी। उसका जूड़ा लटक गया। उसके कपड़े अस्त-व्यस्त हो गये। उसका पल्ला नीचे सरक गया फिर भी बिना रुके वह नाचती चली जा रही थी। विविध भंगिमाओं में, और अब नितम्बों के बल बैठकर सिर को नीचे झुकाकर वृत्त में घूमते हुए और बीच-बीच में अपनी कमर को झुकाते हुए और उसने पूरी-पूरी एक सौ आठ मुद्राओं का प्रदर्शन किया। शायद उसने अपने पूर्वजों से परम्परागत रूप से उन्हें ग्रहण किया था।

सम्भवत: वे सब ब्रज के कात्यायनी के पुजारी रहे होंगे। फिर अत्यधिक भावातिरेक के कारण उसने राकेश के घरेलू राधेश्यामी से एक गिलास पानी की प्रार्थना की। उसने लड़की के प्रति दया का लेशमात्र प्रदर्शन करने की बजाय कटुता से दुत्कारा या झल्लाया।

'तुम तो वेश्या के समान व्यवहार कर रही हो। पहले पल्लू को सही तरीके से ओढ़ो। समय बीत गया, जब अकबर महान सम्राट था, तब तुम जैसी कामुक औरतों को बेलगाम सिपाहियों के बीच फेंक दिया जाता था।'

कलाकार राकेश औरत का अपमान और अधिक देर तक बर्दाश्त नहीं कर सकता था। उसने कहा, 'बस बहुत हो गया। अब अपनी जुबान काबू में रखो। लड़की को पीने के लिए थोड़ा पानी दो और शान्ति से उसे यहाँ से जाने दो।'

असहाय लड़की ने, जो स्वयं पछतावे में थी, अपने कपड़ों को व्यवस्थित किया और अपने आपको अपने पल्लू में ढकने की कोशिश की। अब तक उसने अपने आप पर पूर्ण नियंत्रण पा लिया था। उसे खुद अचरज हो रहा था कि कुछ पल पहले उसे क्या हो गया था। वह कहाँ थी। वह क्या कर रही थी। क्या उस पर मीरा के समान सादगी भरे प्रयास की बेहोशी का दौरा था? ब्रज में प्रत्येक है प्रकृति और पुरुष है केवल कृष्ण।

'तुम्हारे लिए पानी है, पी लो,' चन्द्रभानु राकेश ने उस अचरज से भरी लड़की से कहा।

'मेरा विश्वास करो, मैं अपने होश में नहीं थी कि मैं तुम्हारी उपस्थिति में अर्धनग्न नाच रही थी। मुझ पर धिक्कार है। उसका मुझे ज्ञान भी नहीं था। मैं चाहती हूँ कि तुम मुझे मेरी विवेकहीनता के लिए माफ कर दो।'

'क्या तुम विवाहित हो?'

'मैं विधवा हूँ।'

'क्या तुम फिर से विवाह करने की नहीं सोचती? ऋग्वेद में ऐसा कहा गया है कि तुम्हारी परिस्थिति में रहने वाली स्त्री एक देवता, जिसका नाम विश्वबसु था, के कब्जे में थी। इस देवता की प्रशंसा में एक ऋचा कहती है।-वे लड़कियाँ, जो अपनी स्त्रीत्व तक नहीं पहुँचीं और वे औरतें जो अपने माता-पिता के साये में रहती हैं, उनकी इच्छा करो हे प्रभु-उन्हें अपनाओ। उनमें तुम अपनी महानता और अपना सौभाग्य पावोगी।'

'मैं कहता हूँ तुम जग लो और पानी पियो?' राकेश ने दोहराया।

'अनुग्रही, क्या आप पानी ढाल कर नहीं दे सकते? छू नहीं सकती। मैंने आपको बता ही दिया था कि मैं अछूत हूँ।'

'मैं जाति और नस्ल की परम्परा में विश्वास नहीं करता। यह बात पूरा ब्रज जानता है कि कलाकार की कोई जाति नहीं होती।'

'तुम मुझे माफ करो पर मैं तुम्हारे जग को छू नहीं सकती।' यह कहकर वह लड़की जमीन से, जहाँ वह बैठी थी उठी और सीधे तालाब की ओर बढ़ी। राकेश ने उसे रोका और कहा, 'अपनी दोनों हथेलियाँ जोड़ो और जल पाओ।' लोग आजतक छूत- छात के रोग से ग्रस्त हैं। इसी से तो रामानन्द, जायसी और कबीर जैसी महान आत्माओं को कभी भी शान्ति नसीब नहीं हुई। उसका हृदय उस लड़की के प्रति सहानुभूति एवं दु:ख से धक-धक करने लगा।

अपने कंठ को भिगोकर उसने अपने मुँह को पल्लू से पोंछा और एक झटके से कहा, 'मैं आपसे बहुत प्रभावित हूँ। आप सचमुच में विशालहृदय हैं। ब्रज में आप जैसे ज्यादा नहीं हैं।'

राकेश ने कहा, 'लगता है, तुमने वही रास्ता अपने लिए चुन लिया है, जो रघुनाथजी के मन्दिर में नृत्य करती पुरानी युवतियों का हुआ करता था। क्या सही-सही तुम तलवार एवं ईश्वर को गले लगाना चाहती हो?'

प्रश्न ने, लगता है उस लड़की को खुश कर दिया। क्योंकि उसके ओठों पर मुस्कुराहट झलकने लगी और उसने कहा, 'मैं मूढ़ि नृत्य में कुशल हूँ, जो मुख्यत: देवीजी को प्रसन्न करता है। मैंने उन सारी मुद्राओं जैसे भागा, फटाका, गोमुख, और असिबोल्लिका और शेष एक सौ आठ मुद्राओं पर अधिकार पाया है। मैंने अपने आप नृत्य किया, क्योंकि मुझे मन्दिर में प्रवेश करने और देवीजी को हार चढ़ाने का अधिकार नहीं है। गोपी के समान कात्यायनी देवी की पूजा में साष्टांग पड़ गयी ताकि ब्रज के प्रभु को पा सकूँ। मैं स्वयं भी अपने पति की अच्छाई के लिए समर्पित हो गयी और जब से मेरे पति को मृत्यु हो गयी तब से ब्रज के प्रभु को अपने मालिक के रूप में पा लिया। देवीजी की दया को धन्यवाद, वे यहाँ ब्रज में रहते हैं और उन्होंने मुझे भी अपना लिया है। क्या तुम मेरे होंठों पर उनके होंठों के चिह्न नहीं देख सकते?'

'अपना लिया, प्रभु ने तुम्हें अपना लिया, तुम्हारा मतलब क्या है।'

'कुछ समय ही पहले तुमने एक भक्त, जो विश्ववसु कहलाता था का उल्लेख किया-एक दिन मैंने एक भक्त को झुग्गी में कहते सुना, जहाँ हरिजन रहते हैं। अठिल्ला पहाड़ियों के शिखर पर, जहाँ उनका स्थान है, इस गरीब व्यक्ति ने, जो अपनी जीविका कमाने के लिए पुराणों की कहानियों का पाठ करता था, उद्गार व्यक्त किये कि प्रेम विचार एवं भावना की चीज है। ऐसी चीज, जो केवल आनन्द से भी अधिक है। उन्होंने जताया कि उनके वेदों और उपनिषदों के पाठ ने उनके विचारों को पक्का कर दिया। मैं गोकुल के प्रभु के द्वार ठीक उसी तरह अपना ली गयी हूँ जैसे अपने पति के द्वारा अपना ली गयी थी। यह वह प्रभु हैं, जिन्होंने मेरे थके हुए अस्तित्व में एक अर्थ भर दिया। यदि ऐसा नहीं होता तो मेरे जीवन और मृत्यु के बीच क्या अन्तर रह जाता, मालिक?'

जैसे उसने अपने विचार व्यक्त किये, सौदामिनी की आँखें नम हो गयीं। ठीक उसी समय उसके होंठों के कोनों पर मुस्कान उभर आयी, फिर अचानक वह कलाकार उससे क्या कहना चाहता है, इसकी परवाह किये बिना उसने अपनी थोड़ी-बहुत वस्तुओं को उठाया और शाहजी मन्दिर से सटी अँधेरी गली की ओर भागी।

दिन गर्म हो चुका था। पानी के चिह्न के ऊपर रेतीले किनारों पर बड़े-बड़े कछुओं को रेंगते देखा जा सकता था। दूसरे किनारे पर विदेशी पर्यटक टहलते देखे जा सकते हैं। कोई उसके कानों में फुसफुसाया, 'अब समय आ गया। मानव का यह जीवन बहुत अमूल्य है। अभी और समय है, आगे बढ़ो और तेज चलो। आगे शाश्वत बनो, पुत्र।'

राकेश भावुक हो उठा। कुछ देर पहले उसने रेत में अनेक पदचिह्नों को देखा था, किन्तु क्षण भर में हवा के एक झोंके ने उन सबको मिटा दिया। उस लड़की के, विदेशी पर्यटकों के, राधेश्यामियों के और भक्तों के झुंड के पदचिह्न रेत के नीचे दब गये। घनी चमकीली रेत की परत के नीचे सफेद हवाई चादर-सी दिखाई देती है। राकेश स्थिर खड़ा रह गया। इतना स्थिर, मानो कोई घायल प्राणी हो। उसकी दृष्टि उन पद चिह्नों की ओर घूम गयी, जो ऊँचे और नीचे लोगों के; ब्राह्मण और अस्पृश्यों के हैं। सब मुलायम, सूखी रेत की फैलाव के नीचे ढँकी रह गयीं। शून्यता के विचार ने भावुक आत्मा को आश्चर्य में डुबो दिया।

भाग 13

अपनी श्रीमती सेरफी सेठ की निराशाभरी खोज में शशि ने पागल महिला-सा व्यवहार करना शुरू कर दिया। राधेश्यामियों ने तो उसके विरुद्ध कटु वचन कहना शुरू कर दिया था। उन्होंने उसे मानवों के रूप में गिद्धों की बेकाबू उत्तेजना को आकर्षित करने वाली माँस का लोथड़ा तक कह दिया। उन्होंने उसे चेतावनी दी कि वे बहुत अधिक समय तक उसकी रक्षा करने में वे असमर्थ हैं। उसने जो कपड़े पहन रखे थे, वे भी अपर्याप्त आकार के थे। बल्कि वे तो चिन्दियों से अधिक नहीं थे। उस दिन एकादशी थी यानी पक्षिका का ग्यारहवाँ दिन। इसके अलावा रविवार भी था। स्वभावत: लोगों की भारी भीड़ गलियों में भरी थी। अत्यधिक कठिन कार्य था बाजार के मन्दिर के खास स्थान तक ताँगा ले जाना। भक्तगण बड़े प्यार से ब्रज की रानी राधा की प्रशंसा के गीत गा रहे थे। पूरा वातावरण उमंग से भर उठा था। शशि को मोड़ी से हाड़ाबाड़ी पहुँचने में आधा घंटा लगा। चारों ओर साफ और सफाई थी। आज यह एक अपवाद था, क्योंकि जो नालियाँ हमेशा ठुँसी बन्द पड़ी रहती थीं आज साफ कर दी गयीं और वे अब बदबू नहीं दे रही थीं, उल्टे चमेली और गुलाब की खुशबू हवाओं में तिर रही थी, जिन्हें आप सूँघ सकते थे।

पंडों के झुंड इधर-उधर चहल कदमी कर रहे थे। वे भी अपने कन्धों पर साफ गमछे और गले में चमेली की मालाएँ लटकाये हुए थे। शशि समाधि, जो अट्टालिका कहलाता था, के निकट पहुँच चुकी थी। उसने देखा कि वहाँ इकट्ठे हुए लोग फटी हुई धोतियाँ और पुरानी बंडियाँ पहने हुए थे। और तो और, उनके गमछे भी पुराने और गन्दे हैं। ये पंडे आने वालों को न कभी अतिशय शब्दों और न पवित्रता के दिखावे से जीतना चाहते थे। सामान्यत: उनकी उत्सुकता दो जून की रोटी कमाने में लगातार रहती थी। इन गरीब और धर्मपरायण पंडों के मध्य गोपा जी उपाध्याय एवं सेठ विसनसिंह सिन्धु जैसे शिक्षार्थी भी थे। ये वे लोग थे, जिन्होंने पूजा की एक विद्या के रूप में अपनी खोज चालू रखी थी, ये वे लोग थे, जो उसी व्यवसाय के अपने अनेक मित्रों से अलग समझे जाते थे। कि किसी यात्री के पैसे को अनुचित रूप से खींचना पाप है। किन्तु उनके समान व्यक्ति आज ज्यादा नहीं हैं और न ही अट्टालिका के आस-पास उन जैसे व्यक्ति देखे जा सकते हैं, बल्कि आप उन्हें झूलनवार, गव्हरवन के छोटे बाजारों के कोनों में या मौनी बाबा के छायादार पथ के निकट देख सकते हैं। आश्चर्य कि आज शशि ने अट्टालिका में उन्हें देखा, वे नंगे पाँव चल रहे थे। ईस्ट इंडिया कम्पनी के दीवान लाला जी के दिनों में वे सैंडिल या जूते पहना करते थे। उन दिनों वे अपने पवित्र धागों में पुखराज से जड़े कीमती सोने के छल्ले डाल फिरते थे। किन्तु आज वे भूखे लोग हैं। अपने प्रति समाज के क्रूर अन्याय को लेकर उनके युवकों और युवतियों में सुलगना असन्तोष मौजूद था। कौन इसकी गारंटी दे सकता है कि यह असन्तोष एक दिन भीषण लपटों में नहीं भड़केगा। वह दिन शायद ज्यादा दूर नहीं। शशि ने श्रीमती सेठ को ब्रज में कहीं नहीं पाया। उनको उनकी दानशीलता के लिए जानने वालों ने यह अफवाह फैलाना शुरू कर दिया कि अपनी मनोकामना पूर्ति के लिए उस बिना बच्चों वाली औरत ने पूजा शुरू की थी। फलवती होने के लिए उसने कपूरथला में संन्यासियों के साथ एक माह तक के लिए रहना शुरू कर दिया है।

ये बातें वाकई बड़ी अजीब थीं। उस संन्यासी ने अनेक बिना बच्चे वाली माओं को बच्चा दिया, ऐसा सबको विदित है।

शशि असुविधा महसूस कर रही थी। क्योंकि उसका सिर चक्कर खा रहा था। फिर भी वह काँटों भरी झाड़ियों एवं अंजीर वृक्षों से घिरी रामनरेती की सड़क पर चलने लगी। वहाँ की धर्मशाला में आज लोगों की भारी भीड़ थी। उनमें विभिन्न शाखा से सम्बन्धित साधु थे और सभी गेरुवे वस्त्र, जो आत्मसमर्पण एवं अहिंसा के संकेत हैं, पहने हुए थे। विविध शाखाओं में लाला दासियाँ, जो प्रभु रामचन्द्र की पूजा करती हैं; सतनामी, जो अमूर्त ईश्वर की पूजा करते हैं; शिव नारायणी, जो निराकार ब्रह्म की पूजा करते हैं, और गीरबदासी, जो कृष्ण भगवान की पूजा करते हैं। सब शाखाओं से सम्बन्धित साधुओं ने इस बात पर एकाता दर्शायी कि उनके जीवन का सबसे आनन्दपूर्ण भाग वही है, जो उसने ब्रज में बिताया था। सावधानी एवं हृदय की पीड़ा के अतिरेक के बावजूद उसका दिमाग एवं आत्मा मानो इस जगह से पतली रेशमी डोर से बँधी पड़ी है। जैसे वह एक मुलायम-सा एवं जिद्दी आकर्षण है। अचानक शशि ने महसूस किया कि उसने काफी दूरी तय कर ली है। शायद उसे आगे नहीं बढऩा चाहिए। उसे वृन्दावन-नाथ के मन्दिर के खास क्षेत्र को लौट जाना चाहिए। सुबह के सूर्य की किरणें दूर-दूर तक फैल गयीं थीं। वे स्निग्ध सूर्य किरणें, जो सुनहरी दिखाई दे रही थीं, उस मोरनी के परों को स्पर्श कर रही थीं, जो अपने छोटे बच्चों के साथ कदम्ब की डालियों पर थी। उस युवा ब्रह्मचारी स्वामी के प्रति उसके उदीयमान प्यार ने उसे एक भिन्न व्यक्ति में बदल दिया था। वह काफी साहसी बन गयी थी और जीवन को जानने की उसकी प्रवृत्ति और गहरी हो गयी थी। हमेशा की तरह उसने मन्दिर के प्रवेश द्वार के पास लोगों के झुंड को देखा। दरवाजे पर चश्मेवाली राधेश्यामी खड़ी थी। वह शशि की ओर बढ़ी और कहा-'संस्कृत टोलों के शिक्षक महादेव पंडित की आज सुनवाई है।' 'महादेव पंडित की सुनवाई! वे कहते हैं कि पूर्णत: सही हैं और फिर किस पाप के लिए वे उनका न्याय करेंगे?'

'कोई ऐसा पाप नहीं है। कुछ दिनों से वे एक प्रकार के मानसिक असन्तुलन से पीड़ित हैं। शास्त्री का बेटा, क्या शास्त्रीजी को तुम नहीं जानती हो? वह भी वहाँ शिक्षक हैं। गुरुकुल से उन्हें डिग्री मिली है। किन्तु वर्तमान में बेकार हैं। शास्त्रीजी होशियार जो ठहरे, महादेव पंडित के असन्तुलन का लाभ उठाना चाहते हैं। तुम्हें मालूम है, शास्त्रीजी कौवे के समान चालाक-चुस्त एवं सारस के समान धैर्यवान हैं। ये वे ही हैं, जो यह अफवाह फैला रहे हैं कि महादेव पागल हो गया है। वे प्रतिकूल हैं कि आज उन्होंने देखा कि वह आदमी घोड़े की लीद को अनाज के लिए छानबीन कर रहा है और अनाज को निगल रहा है जैसा कि लालाजी ने किया। लालाजी, जो अपने जीवन के अधिकांश भाग में जमींदार रहे, बाद में संसार को त्याग कर फकीर बन गये। महादेव के लिए आजकल और भी अफवाहें हैं। वह लीला बाबा के मन्दिर के समूह गान में जाकर खड़ा होता है। पखावज बजाने वाले बूढ़े आदमी से पूछता है, 'क्या आज तुम्हें पेट भर भोजन मिला? यह साधन तुम्हें जीवन भर धोखा देता रहा। जाओ और मुरलीधर के सिर पर मारकर इसे तोड़ दो। वह उस बूढ़े आदमी से भी मिलता है और उन्हें चेतावनी देता है, जो सारा दिन केवल एक कौर भोजन के लिए झाँझ बजाता है, तुम सब, तुम सारे के सारे, मुझे निश्चित रूप से मालूम है, जल्दी ही किसी अँधेरी गली में खून की उल्टियाँ करोगे और अपने प्राण त्याग दोगे। क्या तुमने जाना कि तुम्हारे पैरों की कमजोर पिंडलियों पर ये ट्यूमर कैसे बढ़ रहे हैं? यह सब लम्बे समय तक खड़े रहने से खून के जमने की मेहरबानी है। तुम सब इतने हिचकते क्यों हो? जाओ और मारो। अपने अधिकारों को पक्का करो। तुम शाश्वत के वंशज हो-यह क्यों भूल जाते हो? फाटक खोलो, मुरलीधर के चढ़ावे से अपने पेट भरो। तुम सब बेवकूफ हो। तुम क्यों नहीं महसूस करते कि तुम्हारे मुरलीधर ने इन सारे सालों में तुम्हारा खून चूसा है और अब तुम्हें हँसना चाहिए।'

उसने यह सब जब बताया, वह राधेश्यामी (वह एक शिक्षित महिला थी) अश्रुपूरित हो गयी। उसके द्वारा निर्देशित हो, शशि गजेन्द्र मोक्षकुंड की ओर अग्रसर हो गयी, जो कचहरी के कमरे के सामने है। असमिया धर्मशाला के प्रवेशद्वारों के समान आकार वाले यह कचहरी का कमरा काफी जगह एवं प्रभावित करने वाला था। मन्दिर के श्रद्धेय स्वामीजी यहीं बैठते हैं, और रामायण, पुराण, रामानुज एवं रामानन्द पर अक्सर धार्मिक प्रवचन देते हैं। एक दीवार चन्द्रभानु राकेश द्वारा चित्रित एक विशाल तैल चित्र के द्वारा सजायी गयी थी। यह रामायण के उस मार्मिक दृश्य को व्यक्त करता था, जिसमें भरत अयोध्या के सारे नागरिकों के साथ राम से अयोध्या लौटने की प्रार्थना कर रहे हैं। यह चित्र विभिन्न व्यापारों से सम्बन्धित विविध लोगों के जमघट, जैसे कुशल कुम्हार; मोर के पंखों के बने विविध वाद्ययंत्रों के व्यापारी; बुनकर, जो बहुत मुलायम वस्त्र बुन सकते हैं; दलाल; सुगन्धित धूप के व्यापारी; नौकर जो अपने मालिकों का पद प्रक्षालन कर रहे हैं; तैयार करने वाले और सुसज्जित दरबारी और अन्य का प्रदर्शन कर रहा था। इन सबके मध्य में भरत खड़े हैं, पर भव्यता के बिना। उनके सिर पर मुकुट नहीं है और सारे अंग आभूषणों से रहित हैं। नंगे चलते हुए घिसे कदमों पर बने कुछ फोड़े कमल की कलियों पर के ओस बूँदों की याद दिलाते हैं। समर्पित प्रेम एवं वफादारी की घटना को दर्शाने वाला ऐसा चित्र केवल चन्द्रभानु राकेश ही बना सकता था। कोई और ऐसा कर ही नहीं सकता था, यह तो पक्का है।

शशि ने राधेश्यामी का अनुसरण किया और कचहरी के कमरे में प्रवेश किया। सुनवाई अभी शुरू नहीं हुई थी। तख्त पर बड़े-बड़े अक्षर भोग के प्रारम्भ की घोषणा कर रहे थे और मन्दिर के भीतर प्रवेश की मनाही की भी। पहले से ही काफी लोग जमा हो चुके थे। महादेव की सुनवाई शुरू हो चुकी थी। रघुनाथजी के मन्दिर के स्वामी न्यायधीश का कार्य कर रहे थे।

राधेश्यामी ने शशि से कहा, 'क्या उस ओर की सीढ़ी पर बैठी उस औरत को तुम देख रही हो? वह महादेव की पत्नी है। उस दम्पति के पाँच बच्चे हैं। यदि उनके पिता नौकरी खोते हैं तो उनके लिए क्या होगा?' उस परिवार के लिए दया से परिपूर्ण उस महिला ने कहा।

शशि के पास जवाब देने के लिए कुछ नहीं था। अत: राधेश्यामी ने उसकी ओर पलटकर आमने-सामने होकर कहा, 'ऐसा लगता है कि तुम अवचनबद्ध हो।'

'यह मुझे बहुत पीड़ा पहुँचा रही है कि कैसे पाँच बच्चों का पिता अपनी नौकरी खोने जा रहा है।'

'केवल न्याय देना बाकी है, स्वीकृति एवं विचार-विमर्श पहले से पूरे हो चुके थे।'

शशि ने अपनी धड़कन को तेज होते महसूस किया। उसका प्रिय अब इस क्षण एक दुर्भाग्यपूर्ण आत्मा के भाग्य का निर्णय करने को है।

वह स्वामी यानी न्यायाधीश, उस जगह से जहाँ शशि खड़ी है, अच्छी तरह देखा जा सकता है। वह एक दृढ़ व्यक्तित्व का आदमी है। उसका दर्शन ही स्वयं काफी गहराई एवं आकर्षण को दिखलाने वाला था। पर वह क्या कहने जा रहा है? निर्णय क्या होगा?

मन्दिर के पट खुलने एवं जुलूस निकलने, जो रघुनाथजी के सम्मान में गरुड़ की मूर्ति के चारों ओर घूमता है, के पहले ही सुनवाई पूरी हो जाएगी। समय गुजरता जा रहा था। हर व्यक्ति उस युवा स्वामी की ओर उत्सुकता से देख रहा था।

जज ने अपनी निर्भीक भौंहों को उठाया और दूर तक देखा। माथे पर चन्दन का तिलक बहुत भव्य दिखाई दे रहा था। चिन्ता भरी अपेक्षा से लोगों की भीड़, युवा एवं बूढ़े एक समान उसकी ओर देखने लगे।

जज ने गूँजने वाली आवाज में कहना शुरू किया 'पिछले बीस सालों से महादेव पंडित ने जिस दुर्लभ ईमानदारी और समर्पण से शाला की सेवा की, वह अन्य के लिए अनुकरणीय है। किन्तु वर्तमान में उनके लिए यह सम्भव नहीं है कि वे ऐसा कर सकें। उनकी समर्पित सेवाओं को देखते हुए मन्दिर के अधिकारी उनके इलाज की पूरी जिम्मेदारी लेते हैं और वे उनके पाँचों बच्चों की परवरिश का भार भी। गरुड़ की मूर्ति के आस-पास की जगह की सफाई का सम्मानीय कार्य महादेव की पत्नी को दे दिया जाता है, जिसके लिए उन्हें दो वक्त के भोजन की सामग्री दी जाएगी। नये शिक्षक को नौकरी देने की बात अभी स्थगन में रखी गयी, क्योंकि बहु- से शिक्षित एवं बेकार युवकों ने, जिन्होंने मथुरा की शालाओं में प्रशिक्षण पाया है, वृन्दावननाथ के मन्दिर की शाला में शामिल होने की लालसा व्यक्त की है। सही निर्णय के लिए समय लगेगा। अत: वर्तमान में उसे स्थगित किया गया है।'

जब तक स्वामी निर्णय सुना रहे थे, चारों ओर नितान्त शान्ति थी। पर उन्होंने जब बोलना खत्म किया पहले समर्थन की फुसफुसाहट शुरू हुई, जो तेज हो गयी। लोगों ने जज की उनकी विद्वत्ता के लिए प्रशंसा की। गजेन्द्र कुंड के टपरे के नीचे खड़े वन महाराज के विद्यार्थी उनकी प्रशंसा में नारे लगाने लगे। अन्य ने भी उनका साथ दिया। सब युवा स्वामी के निर्णय की पवित्रता से प्रसन्न थे।

इसी बीच मन्दिर के पट खुल गये। शहनाई की धुन ने घोषणा कर दी कि रंगनाथ प्रभु का वस्त्रालंकरण का विधान पूर्ण हो चुका है। स्वामी भीड़ में से मन्दिर में प्रवेश के लिए अपना रास्ता बनाने लगे।

शशि कचहरी के कमरे में एक खम्भे की बाजू में सुनवाई होने तक खड़ी रही। कार्य कार्यवाही में खासकर अपने प्रिय स्वामी में खोये हुए। उसे इस बात की भी जानकारी नहीं रही कि पूर्ण जानकारी देने वाली वह राधेश्यामी उस स्थान को छोड़कर चली गयी। वह युवा स्वामी उसके हृदय का प्रिय है। वह चुपचाप ही उसके बुद्धिमत्तापूर्ण न्याय पर खुशी से भर गयी। वह उसे सही सिद्ध करने की तीव्र चाह रखती थी। उसकी आँखें नम हो गयीं। वह अपने आपसे फुसफुसायी-तुम्हें यही सहानुभूति की शक्ति हो ताकि करोड़ों लोगों के हृदय में प्रवेश कर सको जो भोगते हैं।

जल्दी ही स्वामी वृन्दावननाथ के भक्त एवं साईस मन्दिर के बाहर उमड़ने लगे थे। अब वे बगीचे के चारों ओर घूमने निकलेंगे। अब देखने वालों की भारी भीड़ जमा होने वाली थी। वह वहाँ सुरक्षित खड़ी नहीं हो सकती थी। शान्ति से वह स्थान छोड़ने में ही भलाई थी। फाटक पर खड़ा होने वाला सिपाही इस ओर आता देखा जा सकता था।

अत: वह गरुड़ कुंड की सीढ़ियों की ओर आगे बढ़ी। फिर वहाँ काफी देर तक अकेली खड़ी रही, पर नहीं मालूम, क्यों उसे अपना बर्ताव अजीब लगा। उसे वहाँ करने को कुछ नहीं था। क्या यह मोर को पंख फैलाते देखने के लिए था, पर ऐसा कहना मुश्किल ही है। क्योंकि ब्रज के दृश्यों और ध्वनियों के प्रति उसका आकर्षण कम ही था। वे उसके अब जाने-पहचाने थे। केवल एक झलक उस युवा स्वामी की पाने के लिए वह वहाँ प्रतीक्षा कर रही थी। वहाँ होने में आत्मप्रशंसा की भावना व्याप्त थी। वह गर्व और खुशी का अनुभव करने लगी। और फिर असहाय भावना कि उससे हट नहीं सकी।

रात को उसके भविष्य के बारे में एक बार और वह राधेश्यामी सचेत कर गया। वे बुरे दिन थे। कैसा शशि को बताया गया। शशि को सुरक्षित बनाने के लिए कुछ करना चाहिए।

उस रात को वह उनींदी-सी सो रही थी। उसने कुछ अजीब-से सपने देखे। अक्रूर घाट, जहाँ पंचमुखी हनुमानजी की प्राचीन मूर्ति के पास किसी जगह पर उसने कोई भयंकर आकृति देखी। और चैन्नरथ, जो कृष्ण और बलदेव के जमाने में उन्हें प्रिय था, के अनेक टुकड़े बिखरे देखे। ये अपशकुन का भूत श्यामजी दिगम्बरी के छायादार पथ और माधवाचारियों के प्रिय बलदेव मठ के आसपास घूम रहे थे। फिर उनका स्थान अन्त में बुद्ध के टूटे-फूटे देवालय के निकट स्थिर हो गया।

शशि भूत को उसके चेहरे से देखकर चौंक गयी। वह श्रीमती सराफी सेठ स्वयं थी। वह उसे दुत्कारती हुई चिल्ला उठी। जैसी वह थी, उसने घोषणा की, 'बीस दिन तक स्वामी के साथ सोने के बाद बच्चे के साथ मैं बड़ी हो गयी। किन्तु मैं ऐसा भटक क्यों रही हूँ? ऐसा क्या है कि मुझे शान्ति नहीं मिलती?' फिर उस आकृति ने शशि की ओर उँगली उठायी, जो एक डरी हुई लड़की थी और चिल्लायी, 'अब समय है, अपने को यहाँ से हटाओ और अपने हृदय की गहराई में एक मन्दिर बनाओ। आह, यह बहुत भयंकर है, पर कौन इसे महसूस कर सकता है।' ऐसा कहते हुए वह आत्मा कँटीली झाड़ी के पीछे गायब हो गयी।

शशि एक चीख के साथ जाग गयी। उसे भ्रम हुआ कि उसने किसी को अपने दरवाजे पर दस्तक देते सुना। इसने उसे चौकन्ना कर दिया। पर नहीं, कोई नहीं था वहाँ। वह केवल उसकी कल्पना का ही केवल अंश था।

शशि ने उत्तर काशी के एक विद्यार्थी से जो कुछ सुना था, उसे याद करने लगी। अर्जुन वृक्ष, जो ब्रज के चौंसठ सावन्तों की सम्पत्ति थी, की छाया में बैठकर उसने ऋग्वेद का उदाहरण दिया, जिसमें कहा गया है, एक स्त्री के लिए बच्चा पाने के लिए अपने पति के अतिरिक्त अन्य किसी पुरुष के साथ सहवास करना पापपूर्ण कार्य नहीं है। यह केवल आर्यन मात्र नहीं हैं। झूठ भर पाप है। इस सन्दर्भ में उसने महान ऋषि व्यास, पाराशर एवं शंकराचार्य, जो प्रख्यात दर्शनशास्त्र के खोजी हैं, की जीवनियों का उल्लेख किया। उनके जन्म से सम्बन्धित ये आलेख बड़े अजीब भी हैं।

मनु, पाराशर और याज्ञवल्क्य जैसे धार्मिक न्यायनिर्माता के द्वारा स्त्री की वेदनाओं को दूर करने के लिए गहरी सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार से बनाये गये सारे नियमों का उपयोग किया।

किन्तु सत्य वैसा ही रहा जैसा वह हमेशा हुआ करता है। इसे न तो ऋग्वेद, न ही मनु और न ही पाराशर विकृत कर सके। इसलिए शशि ने श्रीमती सराफी सेठ की छाया को बुद्ध के टूटे-फूटे खँडहरों में भटकते हुए खोजा।

मध्य रात्रि का समय था। नीरवता छायी हुई थी। एक ध्वनि भी सुनी नहीं जा सकती थी। और, तो और आज राधेश्यामी के खर्राटे भी शान्त थे। पर शशि को अब नींद नहीं आयी। उसके अनेक अनुभव उसके दिमाग में स्थान पा गये। उसने मृणालिनी को याद किया, जो एक रोटी के टुकड़े के लिए एक भिक्षाघर से दूसरे भिक्षाघर भटकने के लिए मजबूर कर दी गयी। वह एक मिट्टी के पात्र को हाथ में लिये रंगनाथजी के मन्दिर के तिरुम-नियम विधान के बाद थोड़ा-सा दूध पाने के लिए अन्य भिखारियों-सा ही जीवन जीती है।

ब्रज में जो परिवर्तन उसकी आँखों के सामने हुए थे, उसके दिमाग में याद आ गये। अन्य बहुत से विचार उसे मग्न कर गये। उन सबको दबाते हुए वह आगे आयी। वह गम्भीर घोषणा, जो उसने एक बार सुनी, रघुनाथ मन्दिर के स्वामी के द्वारा की गयी। कचहरी वाले घर की सीढ़ियोंपर बैठकर उन्होंने कहा-वह कौन है, जो ब्रज की मधुर छेड़-छाड़ में प्रवृत्त है। ब्रह्म-पुराण ने उसे मानव शरीरधारी ब्रह्मा बताया है। किन्तु वसुदेव ने स्वयं कहा कि कृष्ण सर्वोच्च हैं। आदिकालीन सभी शक्तियाँ संसार को बनाती हैं और चलाती हैं। गीता, जो कुरुक्षेत्र के रण क्षेत्र में निर्मित की गयी है, वह सर्वशक्तिमान एवं अनन्त की घोषणा करती है जो विश्व में सर्वव्यापक है।

ये पूर्ण बुद्धिमत्ता के शब्द हैं। पर क्या ये भी व्यक्त नहीं करते? सारा कुछ मानव के जीवन के प्रति धारणा पर निर्भर करता है। उसका भी। बस उसे यही चुनना है। सब कुछ सही निर्णय पर निर्भर करता है। पर वह बनाना इतना आसान नहीं है।

जागृत एवं विचारों में खोयी शशि ने किसी को दरवाजे पर दस्तक देते सुना। वह आपे में आ गयी। वह इस बीच कहाँ थी। इस समय की दस्तक उसके भ्रम का अंश नहीं थी। उसने सुना और यह सच था। क्या वह भयभीत नहीं है? उसने अपने से थोड़ी दूरी पर गहरी निद्रा में सोयी राधेश्यामी की ओर देखा।

दरवाजे पर फिर से दस्तक हुई। शशि ने झाँका और अपने दरवाजे पर दो राधेश्यामियों को खड़ी देखा। प्रत्येक ने अपना सिर एवं चेहरा ओढ़नी से ढँक रखा था। जैसे ही उसने दरवाजा खोला दोनों भीतर तेजी से घुस आयीं।

'शशि, हमें माफ करो। हम तुम्हारे लिए एक बुरी खबर लाये हैं। आलमगढ़ी मर गया है।'

'आलमगढ़ी मर गया, कैसे? कब?' शशि दु:ख और असहायता से चीख उठी।

'वह हैजे से मर गया। उसने सोचा था कि वह बच जाएगा। अत: उसने नहीं चाहा कि तुम्हें बताया जाए। अब हमारे साथ आओ, हम उसी जगह पर चलें।'

आलमगढ़ी ब्रज में लम्बे समय से रहता था। अत: उसके काफी दोस्त एवं पहचान वाले थे। उनमें से बहुत सारे घाट पर उसके निवासस्थान के पास जमा हो गये। जैसे ही शशि ने उस बरसाती में, जहाँ वह पड़ा था, प्रवेश किया, प्रत्येक की नजर उसकी ओर ही उठ गयी। यह जताते हुए, मानो सब उसी की प्रतीक्षा कर रहे हैं। उसकी शैया के निकट एक बूढ़ी महिला रो रही थी। शशि ने सोचा कि वह शायद उसकी बहन थी, जो राधाकुंड में रहती थी।

अन्य एक राधेश्यामी मृतक के कपड़े बदलने में लगा हुआ था। लम्बे समय से आलमगढ़ी तार-तार धोती पहना करता था। आज उसे एक नयी धोती मिली। अब उसे एक माला भी पहना दी गयी। अतर एवं गोपी चन्दन (सफेद मिट्टी) भी लगाई गयी।

आलमगढ़ी की बहन ने, जो राधाकुंड से थी, अचानक सिर उठाया और शशि पर तीखी नजर डाली। दूसरे ही क्षण वह भड़क उठी। अपने चारों ओर के लोगों को सम्बोधित करते हुए उसने कहा, 'मेरी लड़कियो, तुम काफी समय से यहाँ रह रही हो। तुम जानती हो कि मेरे भाई ने अपनी देखभाल के लिए एक लड़की रखी थी। लगता है, वह उसकी जमीन-जायदाद पाने का हक जताने आयी है।'

और वह आलमगढ़ी के शव पर कफन ओढ़ाते हुए कहने लगी, 'मैं ब्रज में दस और बीस सालों से ज्यादा समय से रह रही हूँ। मैं अन्याय का मूक दर्शक मात्र नहीं रह सकती। वह अपनी अन्तिम साँस ले रहा था और मैंने स्वयं उसे कहते हुए सुना कि वह उस दूर बसी लड़की को पुराने सिक्कों से भरी थैली वसीयत में दे रहा है।'

इस उद्घोषणा के साथ ही राधाकुंड से आयी आलमगढ़ी की बहन की जोर-जोर से रोने की आवाज धीमी हो गयी। मैं जानती हूँ, उसने कहा कि मुझे ऐसा धोखा दिया गया है, वह अयोग्य था। कोई नपुंसक अपना वारिस कैसे निर्धारित कर सकता है?

वहाँ जमा हुए राधेश्यामी इसी बात को लेकर दो भागों में बँट गये। कुछ समय तक वे आपस में ही जोर-जोर से वाद-विवाद करने लगे, फिर धक्का-मुक्की पर आ गये। मार-धाड़ में सारी चीजें, जैसे धूप और चन्दन एवं सफेद मिट्टी और चमेली की मालाएँ जो मृतक को पहिनाने के लिए लायी गयी थीं, तितर-बितर हो गयी थीं। उस अव्यवस्था के मध्य एक राधेश्यामी बाहर आया और उसने केसीघाट के पंडे को बीच-बचाव करने को कहा। दूसरा, जो शवयात्रा के लिए फूलों की रस्सियाँ बनाने में व्यस्त था, अपने काम को रोक कर वहाँ आया, जहाँ शव रखा हुआ था।

दृढ़ एवं गम्भीर व्यक्तित्व वाले पुजारी के अचानक आगमन ने राधेश्यामियों की चकचक को रोक दिया। वे सब मौन और शान्त हो गये। वे अपनी पगड़ियों को बाँधकर व्यवस्थित होने की कोशिश करने लगे थे, जो उनके घुटे सिरों से सरक रही थीं।

केसीघाट के पुजारी ने चारों ओर देखा। उसकी गहरी निगाह राधेश्यामियों के भिखारियों जैसे चेहरों पर, कुछ समय के लिए झोपड़ियों की टूटी-फूटी दीवारों पर, नम धरती पर, चमेली की मालाओं पर टिकी रही और अन्त में आलमगढ़ी की लाश पर टिक गयी। कुछ देर की चुप्पी के बाद उसने गर्दन उठायी और कहा, 'मेरी बच्चियो! यह समय है तुम अपने-अपने काँच की ओर देखो, तुमने उन डालियों को खींचना शुरू कर दिया, जिससे वृक्ष ही जड़ से उखड़ जाएगा। यह समय है, तुम दर्पण की ओर देखो। तुम यह बात महसूस नहीं करतीं कि जीवन उतना ही नश्वर है, जितना कमल के पत्तों पर पानी की बूँद। मुझे तुम पर हँसी आ रही है। अच्छी तरह देखो। अपने भीतर झाँको। तुममें से प्रत्येक अपने उस नाश को देख सकती हो और भय से पूर्ण भीषण हाहाकार को सुन सकती हो। मेरी बच्चियो, क्या तुम नहीं देख सकतीं कि आलमगढ़ी के शरीर के लिए ये कपड़े एवं गहने, फूलों की मालाएँ एवं चन्दन का लेप; तुलसी की मालाएँ और विभूति अब केवल भार बन गये हैं। और तुम शापित आत्माओ, कुछ सिक्कों के लिए तुम आपस में निर्दय की तरह लड़ रही हो! मैं कहता हूँ, अपने को इन सबसे मुक्त करो। मुक्त करो, क्योंकि यदि गाँव की कचहरी जमा होगी, तो निश्चय है कि तुममें से कोई एक दमड़ी भी नहीं पा सकोगी।'

पुजारी की इस घोषणा पर आलमगढ़ी की बूढ़ी बहन ने शोर-शराबा शुरू कर दिया। वह जमा हुई औरतों को सम्बोधित कर कहने लगी, 'कृपया मेरी बातों पर कान दो, क्योंकि मैं अपने दुखों के बारे में तुम्हें बताऊँगी। काफी लम्बे समय तक मैंने गाड़ी खींचने वाले घोड़े के लिए काम आने वाले आलू खरीदे और उनको खाकर मैं जिन्दा रही। इस प्रकार मैंने अपने अन्तिम संस्कारों के लिए पैसे बचाये। यह कोई नीचतापूर्ण बचाव नहीं था। पर मुझ पर तरस खाओ। दूसरे ही दिन वह सब चोरी चला गया। जाओ, मेरी वस्तुओं में तलाश करो। तुम उसे वहाँ नहीं पाओगे। एक दिन मेरी झोपड़ी की छत मेरे सिर पर गिर गयी। श्रीमती सेठ ने अपने कुत्तों को मेरे पीछे लगा दिया, जब उसे मालूम हुआ कि मेरे अन्तिम संस्कार के लिए मेरे पास पैसा नहीं है। हाय, मेरे गरीब भाई ने मुझे बताया, तुम उम्र में मुझसे काफी बड़ी हो। तुम मुझसे पहले मरोगी। मैं तुम्हें फूल की अरथी में ले जाने की व्यवस्था करूँगा।'

ऐसा कहते हुए उस बूढ़ी औरत ने अपना सिर आलमगढ़ी की शैया के सिरहाने पटकना शुरू किया और रोना-पीटना शुरू कर दिया।

शशि ने, जो थोड़ी दूरी पर खड़ी थी, सब कुछ सुना, जो उस औरत ने कहा। वह सन्तुष्ट थी कि जो उस औरत ने कहा वह सब वास्तविक है। समय नष्ट किये बिना वह उस औरत की ओर बढ़ी-उसकी आँखें अब सूखी थीं। उसके बाल बिखरे थे। वह दुख और निर्णय की मूर्ति बनी हुई थी। उसने उस औरत से कहा, 'मुझसे ले लो। मैं आलमगढ़ी का पैसा नहीं चाहती। न ही उसकी बचत को हथियाने के लिए मैं यहाँ आयी हूँ। मैं उसके अन्तिम दर्शन के लिए यहाँ आयी हूँ।'

ऐसा कहते हुए वह बाहर भागी। निरुद्देश्य वह कुछ देर रेत पर बैठ गयी। यह तो अजीब बात है। सचमुच बहुत अजीब, एक दिन में सबकुछ समाप्त हो गया। आज इस क्षण उसके सामने यह ज्ञान उसके अचेतन मन में प्रकट हुआ कि आलमगढ़ी एक शक्ति था। केवल अब इस क्षण उसने महसूस किया कि वह कितना शक्तिशाली था।

समय धीरे-धीरे सरक रहा था। किन्तु शशि को मुश्किल से ही इसका भान हुआ कि वह रेत पर बैठे-बैठे अपनी स्वयं की स्थिति पर कितनी देर से गहराई से सोच रही थी। कुछ देर पहले ही उसने पीली गर्दन वाले गरुड़ पक्षी को अपने पास थिरकता याद किया था। किन्तु अब उस स्थान पर उसने अपनी ही छाया देखी। कुछ राधेश्यामी उसके पास दुख व्यक्त करने आ पहुँचीं। उन्होंने उसे सलाह दी कि जोर से दहाड़ मार कर रोओ। उनमें से एक ने उसके गले की चेन खींचने की कोशिश की, क्योंकि उसकी अब आवश्यकता नहीं थी, किन्तु शशि ने प्रतिरोध किया।

उसने कुछ दूरी पर अपनी ओर किसी को आते हुए देखा। कौन हो सकता है? वह डॉक्टर रायचौधुरी थे, जो उसकी ओर आ रहे थे। सर्किट रोड पर अपने कुछ मरीजों को देखने वह निकले थे। उसके पास पहुँचकर उन्होंने कहा, 'तुम अभी भी बैठी हो। मैंने कुछ घंटों से तुम्हें यहाँ बैठे देखा, जब मैं यहाँ से जा रहा था। उठो, मैं कहता हूँ और साहस बटोरो। मैं जानता हूँ तुम एक बहादुर लड़की हो। एक छोटे-मोटे गहने के लिए पूरे खजाने को गवाँ देने वाली केवल तुम अकेली नहीं हो।'

शशि ने उन पर एक जड़वत्-सी नजर डाली। दुख एवं पीड़ा की एक जोर की चीख निकली, वह उनके कदमों पर झुक गयी और उनके कदमों को जोर से पकड़ लिया।

उसने कहा, 'मुझे पक्का मालूम था कि आप ही एक मात्र हो, जो मुझे सही रास्ता दिखाओगे।

'आजकल मैं बहुत परेशान हूँ। मैं ऐसे रास्ते पर चलना चाहती हूँ, जो सुरक्षित एवं निश्चित हो।' उसकी आवाज भावना से दब-सी गयी। उसने अपना सिर उनके दोनों घुटनों के बीच रख दिया और रोने लगी। उसके रोने के बीच भी रायचौधुरी जी ने सुना, 'नहीं, मैं उनमें से नहीं हूँ, जो खजाने के बदले नगण्य-सी चीज चुनती हैं।'

इसी बीच यमुना की रेत पर आलमगढ़ी के अन्तिम संस्कार की व्यवस्था की गयी। केसीघाट के पुजारी ने शव पर पवित्र जल छिडक़ना एवं मन्त्रोच्चारण शुरू कर दिया।

शशि को कुछ ज्यादा करने को नहीं था। चिता के पूरी तरह जल चुकने के बाद जली हड्डियों के टुकड़े, जो पालमिरा के पत्तों के रंग के थे, आलमगढ़ी की बहन के द्वारा चुन लिये गये और शवयात्रा में शामिल राधेश्यामी नदी में डुबकी लगाकर चली गयीं। शशि अकेली रेत पर बैठी हुई थी। केसीघाट के पुजारी उसके पास पहुँचे और उससे कहने लगे, 'अब घर लौट जाओ और अपनी देखभाल करो।' और उन्होंने कहा, 'ध्यान रखो, तुम्हारे जैसी लड़की को एक रोटी के टुकड़े के लिए एक भिक्षाघर से दूसरे भिक्षाघर जाना और उन बूढ़ी-बदसूरत औरतों से, मेरा मतलब राधेश्यामियों के साथ अपने दिन बिताना शर्मनाक और अपमानजनक है। साफ नजर रखने का प्रयत्न करो, क्योंकि सामने लम्बा भविष्य पड़ा है। रायचौधुरी तुम्हें धायी बनाना चाहते हैं और मैं कहता हूँ सचमुच यह विचार बहुत नेक है।'

शशि ने तीखी प्रतिक्रिया की, 'मैं एक धायी? यह बिल्कुल नहीं होने का।' उसने अपने आप से कहा। किन्तु पुजारीजी के सामने अपने विचार व्यक्त नहीं कर सकी। वह मूक बनी रही।

'राधा की जय हो!' कुछ लोगों ने उद्ïघोष किया और यमुनातट गुंजित हो उठा। पुजारी जी जली चिता के निकट गये और उस स्थान को अन्त में छोड़ते हुए उन्होंने शशि को बताया, 'आज तुम जीवन के नग्न सत्य से आमने-सामने हो रही हो। यह क्षण निर्णय लेने का है और इसी तरह तीनों तरह के पापों (घातक पाप, सजा पाने योग्य पाप एवं क्षम्य पाप) के विरुद्ध चेतावनी देने का। अत: अब...'

आलमगढ़ी की जली राख यमुना में बहने लगी। पहले वह एक ढेले की तरह जमी और फिर बहना शुरू कर दी।

'अजीब, सचमुच कितना अजीब, क्षण में वह मजबूत शरीर गायब हो गया।' शशि ने सोचा, 'और हवा के एक झोंके से उस आदमी की शवयात्रा के चिह्न विस्तार के पक्ष में खो जाएँगे।

शव-दाह के बाद नदी में रीति के अनुसार उसने डुबकी लगायी। उसके कपड़े गीले थे, जिनसे पानी चू रहा था। फिर भी वह धीर समीर की ओर रवाना हो गयी। उसकी पहचान की झुंड में से एक बूढ़ी महिला ने उसे सचेत किया, 'राधेश्यामी अब तुम्हें अपने साथ शायद न रहने दें। आलमगढ़ी की मृत्यु की खबर दूर-दूर तक फैल गयी है। पहलवान शारीरिक प्रदर्शन के लिए जमा हो गये हैं। उन्होंने दिन में ही भाँग की अपनी खुराक ले ली है। मैंने गोपीनाथ बाजार को केले के पत्तों एवं एक विशाल छत्र से सजा देखा है। आज वे अपनी संगीतमय सन्ध्या गोष्ठी मना रहे हैं। तुम्हारे लिए बुरे दिन आये हैं। मथुरा के गुंडे यहाँ आस-पास मँडरा रहे हैं।'

वह बूढ़ी औरत सही थी। शशि अपनी झोपड़ी के दरवाजे पर मुश्किल से पहुँची कि राधेश्यामी झुंड में चिल्लाने लगीं, 'तुम यहाँ फिर क्यों, तुम निर्लज्ज वेश्या, क्या तुम्हारा इरादा हमारा खून चूसने का है! हम तुम जैसी युवती की जिम्मेदारी नहीं ले सकते। अपने अन्तिम संस्कार के लिए अपना पैसा कमर में बाँध रखा है? जाओ, आठ-खम्भा में शरण लो। वे उसे मानव सेवाश्रम कहते हैं। या तुम रायचौधुरी के अस्पताल के बरामदे में जाकर सो सकती हो, पर किसी हालत में यहाँ नहीं। वे गुंडे अपने होश में नहीं थे। शराब की भारी मात्रा के सेवन के बाद वे नशे में धुत थे। वे तुम्हारे पीछे पड़े हैं और काफी पूछ-ताछ भी कर चुके हैं। अत: यहाँ से चली जाओ और जल्दी जाओ। हम कोई खतरा लेने को नहीं हैं। उन्हें मालूम है कि हमारी कमर में पैसा बँधा पड़ा है। जिस तरह से उन्होंने हम पर त्योरी चढ़ायी एवं हमारी कमर पर नजर डाली...लम्पट हैं।'

फिर उन्होंने उसे बाहर कर दरवाजा बन्द कर लिया। शशि थोड़ी देर वहाँ किंकर्तव्यविमूढ़ हो रुकी रही। शेड के भीतर वह रोटी के टुकड़ों को तोड़ती हुई औरतों की विशिष्ट गन्ध सूँघ सकती थी। पूरा प्रसंग विश्वास के परे और भ्रामक था। बचाकर रखे गये धन को बूढ़ी-बदसूरत औरतें दिन के प्रत्येक घंटे में अत्यधिक सावधानी से सहेज कर रखती थीं। यह एक मात्र सावधानी, साथ की भावना एवं प्यार की मानवीय सोच को कुचलना था।

कितना अजीब है, शशि ने सोचा और फिर धीरे से उस स्थान को छोड़ दिया। गीले कपड़ों एवं कन्धों पर लटकते अव्यवस्थित बालों के साथ वह औरत से ज्यादा प्रेत लग रही थी। गोपीचन्द बाजार से थकी हुई शशि पैर घसीट कर, जोर लगाकर धीरे-धीरे चल रही थी।

क्या किसी अन्य ने इस प्रकार परिस्थिति का सामना किया होगा? क्या कोई अन्य अपने सहारे के शवदाह के तुरन्त बाद उसके समान नितान्त बेसहारा हुई होगी? क्या उसके समान अन्य किसी को सड़क पर ढकेल दिया गया होगा?

उसने सोचा, उसे आगे जाना नहीं है, क्योंकि वह पूरी थकी अनुभव कर रही थी। उसने किसी चीज पर कदम रखा, जो सीढ़ियों-सी दिख रही थी, पर वह सीढ़ी नहीं थी। वह जानवरों के लिए बनाया गया जलाशय था। थोड़ी देर उसने उसकी जगत पर बैठना चाहा। पर नहीं, उसे नहीं बैठना चाहिए। उसके लिए समय गुजरता जा रहा था। गीले कपड़ों में वह काँप रही थी, क्योंकि हवा, जो पानी के ऊपर से बह रही थी, उस पर चोट कर रही थी। वे गीले कपड़े उसके बदन पर चिपक गये थे। उसने सिर को चकराता महसूस किया। किसी भी क्षण, उसने सोचा सड़क पर लम्बी पड़ जाएगी, पर पूरी ताकत के साथ उसने आगे देखा और भजनाश्रम की संगमरमरी सीढ़ियों पर आ पहुँची, जो अँधेरे में भी चमक रही थीं। वहाँ से पास स्थित एक दुकान की टोह ली। दुकान शान्त पड़ी थी। वह जैसे-तैसे उसके फर्श पर रेंगने में सफल हो गयी। वहाँ आस-पास कोई नहीं था। बुरे मौसम ने दुकानदारों को समय से पूर्व दुकानें बन्द कर अपनी झोपड़ियों में भागने के लिए मजबूर कर दिया था। क्या उसे निर्जन गलियों का फायदा उठाकर आगे चल देना चाहिए, उसने सोचा किन्तु तुरन्त कुछ भी निर्णय न ले सकी।

क्या उसे हाड़ाबारी में शरण पाने की कोशिश करना चाहिए? नहीं, क्योंकि उसे मालूम था कि कोई कमरा खाली नहीं मिल सकता। इसके अलावा वहाँ की राधेश्यामी जानती थीं कि आलमगढ़ी मर गया है। अत: वे एक रात के लिए भी उसे स्वीकार करना नहीं चाहतीं। पूरा बाजार आज बन्द था, क्योंकि दुकानदारों के साथ-साथ प्रत्येक, और तो और राहगीर भी संगीत मनोरंजन में शामिल हो गये थे। उस स्थान पर जमा हुई चुप्पी ब्रज के लिए अनहोनी बात है। उसने सोचा, वह पुराने खजूर के पत्ते और फूलों की मालाएँ बेचते हुए रात आसानी से बिता सकती है। किन्तु जमघट जब टूटेगा, लोग अपने हाथों में मशाल लिये रास्ते पर गुजरेंगे और उनका सामना करना काफी खतरनाक हो सकता है।

शशि ने देखा कि मोहल्ले की बन्द पड़ी स्ट्रीट लाइट रास्ते की शुरुआत पर अचानक जल उठी, जो ज्ञानगुदरी ओर जाता है। उसी के नीचे अपनी कुछ वस्तुओं के साथ एक आदमी बैठा हुआ था। जैसे ही लाइट जली, वह आदमी उठा, अपनी वस्तुओं को बाँधा और उस ओर रवाना हुआ, जहाँ शशि खड़ी थी। हाँ, निश्चित है कि वह उसी की ओर बढ़ रहा था। उसके कदम ठीक नहीं पड़ रहे थे। उसकी काँख में बिस्तर दबा था। उसने हाथ में शराब की बोतल ले रखी थी। शशि ने उस चेतावनी को, याद नहीं पड़ रहा था किसने कहा था, स्मरण किया कि उस आदमी से, जो अकेला पीता है, दूर रहो। शशि जानती थी कि वह एक कमरा जरूर रखे हुए है। अत: वह जल्दी उस जगह से आगे बढ़ने लगी। पर वह यह कर भी नहीं पायी, तभी वह आदमी बोतल और बिस्तर के साथ वहाँ आ पहुँचा और एक दुकान की सीढ़ी पर बैठ गया। फिर वह चिल्लाया, 'वहाँ कौन खड़ा है, क्या तुम्हें नहीं मालूम यह मेरा फर्श है। ओह मैं देख रहा हूँ, तुम वही राधेश्यामी हो। बैठ जाओ, तुम्हें खड़े नहीं रहना चाहिए। बूढ़ी, मैं तुम्हारा पुराना बूढ़ा बेटा हूँ। यदि फर्श पर तुमने अधिकार किया, तो मैं खुशी-खुशी आज कोने में पड़ा रहूँगा, जहाँ घोड़े पानी पीते हैं। जाओ और सोओ और आराम से सोओ। मैं तुम्हारा रखवाला हूँ। मैं जासूस हूँ। जाओ और सोओ, चिन्ता मत करो।'

फिर उस आदमी ने अपना बंडल खोला और तुरन्त ही बदबूदार गन्ध, जैसे किसी बच्चे की पत्थर पर सूख आयी उल्टी की गन्ध हो, फैल गयी। शशि ने उस आदमी पर एक नजर डाली-वह कौन है, यह पता लगाने की कोशिश की। पर यह असम्भव था। उसे याद नहीं आ रहा था कि उसने अजीब से दाढ़ी वाले चेहरे को कहाँ देखा है। उस आदमी ने स्वयं गिलास भरा और गटका। फिर बोतल को आकाश की ओर उठाकर कहने लगा, 'दादी, यह केवल रात को ही मैं ब्रज में जाने का मौका पाता हूँ। तुम मुझसे पूछती हो, क्यों, फिर सुनो। तुम्हारे और मेरे बीच में मैं जासूस हूँ। अन्य जासूसों की जासूसी करते हुए क्या तुम यह देखती हो! मैं जासूसों पर जासूस। इस समय मैं फूल टोली बाबा के पीछे हूँ। फसल वाली बाबा का जुलूस जरूर देखा होगा। होली के दरम्यान जब उन्होंने वृन्दावन एवं मथुरा में जुलूस का आयोजन किया, उन्होंने बीस लॉरी और आठ गधों को अबीर और रंग ढोने के लिए लगाया।

'चारों ओर रंग ही भरा था। स्त्री और पुरुषों के पैरों के नीचे, दीवारों पर, मन्दिरों की मूर्तियों के ऊपर, हौरेंगा की पहलवान स्त्रियों के कपड़ों पर भी। यह हर जगह पर था। रंगीली धूल और कहा जाये तो यमुना की गहरी रेत इसे ढक सके। और दस हजार लोगों का मिठाइयों द्वारा उदार मनोरंजन और व्यापारियों का जमघट और उनकी कारों की आवाज। और उनकी सम्पत्ति की जगमगाहट। और मैं-मैं केवल जासूस, जासूसों पर जासूस। व्यापारी और आयकर से उनका बचाव। आयकर की रहस्यपूर्ण गुफा। और मैं मन्दिर में मुख्य द्वार से प्रवेश नहीं कर सकता था। कितनी शर्म की बात। फाटक पर के उस बन्दूकधारी सन्तरी ने घोषणा की कि इस बार रथोत्सव के समय सारे लोग, अमीर हो या गरीब, एक-एक कम्बल पाएँगे। मुझे सन्तरी, मैं कहता हूँ, वह कभी फौज में काम करता था।'

फिर उस आदमी ने जोरदार ठहाका लगाया, 'आराम से सो जाओ दादी, जलाशय के बाजू में मैं सोया हूँ। तुम फिकर नहीं करना।' फिर उस पियक्कड़ जासूस ने पूछा और फुसफुसाकर कहा, 'दादी, शायद तुमने प्रेमचन्द की कहानी नमक का दरोगा पढ़ी है। बहुत मजेदार है। उस दरोगा ने अपनी नली व्यापारी रूपी गन्दे कुत्ते की ओर तानी और वह आदमी दरोगा को गालियाँ देता है, जो उसकी स्थिति के लिए शायद ही उपयुक्त हो। तुम्हें वह कहानी जरूर पढऩी चाहिए। तुमने नहीं पढ़ी। नहीं। बड़े दुख की बात है।'

जैसे ही उसने बोतल की आखिरी तलछट पी, वह और भी उत्साहित हो गया। उसने स्वयं नियन्त्रण पूरी तरह खो दिया और रोगी के समान अचानक गड्ढे में गिर पड़ा। फिर वह बुरी तरह उल्टी करने लगा, मानो वह अपनी आँतों को भी उल्टी कर बाहर फेंकेगा।

शशि ने स्थिति का फायदा उठाया और उस जगह से दौड़ना शुरू कर दिया। दौड़ते हुए वह हाड़ाबारी की ओर जाने वाली सड़क के सिरे पर स्थित चाय की दुकान पर पहुँची। वह दुकान गुप्त लेनदेन के केन्द्र के रूप में जानी जाती थी। शशि भी यह जानती थी। पर इस समय वहाँ कोई मिलेगा इसकी उम्मीद वह नहीं कर सकती थी। किन्तु यह उसकी गलती थी। उसने देखा कि कुछ लोग अँधेरे में नीचे बरामदे में बैठे हुए हैं।

अत: वह कुछ दूर और आगे स्थित बिहारीमोहन कुंज पहुँची। सौभाग्य से दरवाजा खुला था। अपने खोये बच्चे की खोज में खूँखार निराश शेरनी-सी शशि भागी और पिछवाड़े नीम के वृक्ष एवं सीमेंट से बनाये गये कुएँ के परे पहुँचकर वह मृणालिनी के दरवाजे पर दस्तक देने लगी। इसका रुखे स्वर में किसी ने उत्तर दिया, 'दरवाजा पुराना और टूटा है, ठोंकना बन्द करो।'

शशि इतनी थकी थी कि सीधी खड़ी नहीं हो पा रही थी। अत: दरवाजे पर वह पसर गयी। उसके कपड़े अभी भी गीले थे। ठंडी रात की हवा उसके दुबले-पतले शरीर पर पड़ी, तो वह काँपने लगी।

बस उसी समय दरवाजे की कमजोर तख्तियाँ चरमरा कर खुल गयीं। मृणालिनी बाहर निकल आयी और अँधेरे में झाँकने लगी कि उसके दरवाजे पर कौन पड़ा है। यह देख कर कि दरवाजे पर कोई और नहीं स्वयं शशि है, वह चौंक पड़ी।

'शशि, तुम यहाँ हो। वह भी ऐसी प्रतिकूल घड़ी में शरण खोजते हुए। क्या मैंने तुम्हें पहले ही नहीं बता दिया था कि तुम्हारा यहाँ रहना सम्भव नहीं है। ऊपर के दोनों कमरों में, भले उन्हें कबूतरखाने कहो, पहले से ही दो राधेश्यामी कुछ समय से रह रही हैं। वे दोनों उन्हें दो रुपये प्रतिमाह किराये पर दिये गये हैं। किन्तु उन्होंने मुझे एक दमड़ी भी नहीं दी है। किन्तु मैं देख रही हूँ कि तुम प्रेतग्रस्त की तरह काँप रही हो, क्या तुम बीमार हो?'

'मैंने आलमगढ़ी के शवदाह के बाद कपड़े भी नहीं बदले। अब मेरे पास कोई जगह जाने की नहीं है। मुझ पर दया करो, मुझे रात भर के लिए यहाँ सोने दो।'

'लगता है तुम इतनी बीमार हो कि चल भी नहीं सकती। तुम भीतर आओ। रात भर के लिए विश्राम लो। हाँ, आलमगढ़ी की मृत्यु की खबर सब जानते हैं। मुझे पूरा पक्का यकीन था कि राधेश्यामी तुम्हें अपने साथ नहीं रखेंगी। दिनों दिन आदमी अधिक स्वार्थी और क्रूर होता जा रहा है। अब अपने कपड़े बदलो। मेरे बिस्तर के किनारे एक सूखी चादर है। किन्तु सावधानी बरतो। जोर की आवाज मत करो। अन्यथा मेरी माँ जाग उठेगी। उसकी दशा गिरती जा रही है। जब मैं एक भिक्षागृह से दूसरे भिक्षागृह रोटी के चन्द टुकड़े माँगने जाती हूँ, मुझे उनके हाथ-पैर बाँधने पड़ते हैं। तुम देख सकती हो, यह सब करना मेरे लिए कितना भद्दा और पीड़ादायक है। पर कोई और चारा नहीं है। फिलहाल मैंने एक राधेश्यामी को कुछ सोचकर उनकी देख-रेख के लिए रखा है। पर अब वह एक ऊँची रकम की माँग कर रही है। वह कहती है कि मन्दिर के सामने या सामने की गली में कटोरी लेकर माँगने बैठ जाए, तो इससे ज्यादा कमा सकती है। तुम देखती हो शशि, मैंने तुम्हें ऊपर की मंजिल में एक माँद दे दी होती, पर तीन क्रूर प्राणी-वे निश्चित रूप से राधेश्यामी हैं, वहाँ रह रही हैं। वह भी इन कई सालों से। अब मन्दिर ट्रस्ट से हम भूख से बचाने की अपेक्षा रखते हैं। किन्तु, जैसा कि तुम देख रही हो हड्डियों के ढाँचे में बदल गयी हैं।'

कोने में जलती मिट्टी के तेल के दीपक की हल्की रोशनी में शशि मृणालिनी की ओर बढ़ी और उसके पास धरती पर बैठ गयी। मृणालिनी ने उससे कहा, 'मौसम की परवाह किये बिना उसने तुम्हें मदद की या नुकसान पहुँचाया, दूर से ही सही, आलमगढ़ी तुम्हें एक प्रकार से सुरक्षा देता रहा। अब वह नहीं रहा। ये ब्रज के मानव- लोमड़ युवा विधवाओं को सूँघते रहते हैं और गुंडे सोचेंगे कि वे तुम्हारे साथ मनमाना बर्ताव कर लेंगे। उन्हें मालूम है कि तुम्हारे पास देखभाल के लिए कोई नहीं है। तुम्हें अपने को उन भिखारी स्वामियों से भी अपना बचाव करना चाहिए। मुझे पक्का मालूम है कि उनमें से कुछ तुम्हारे सामने यह प्रस्ताव लेकर आएँगे कि तुम उनके साथ पूजा-पाठ में साथ मिलकर रहो, पर शादी करके नहीं। तुम्हें अब दूसरी बार वही गलती किसी भी हालत में नहीं करनी चाहिए। गली में भूख से मर जाना ज्यादा अच्छा है, क्योंकि एक ईमानदार व्यक्ति के रूप में मरने में यश है।'

शशि ने एक भी शब्द नहीं कहा। दोनों ही फर्श पर पसर गयीं। मधुर संगीत और मौज मस्ती की तरंगें गोपीनाथ बाजार से उनके कानों तक पहुँच रही थीं। उनसे शान्त ब्रज प्रतिध्वनित होने लगा। अन्य से हटकर फूटे गले से गाने वाले के गीत शशि को अच्छे लगने लगे। कुछ दिनों से यह स्थान यह गुनगुनाहट सुनता आ रहा था। उसने कहा, 'उन दिनों को, चाहे वे कितने ही कम क्यों न हों, ऐसे जियो, जिससे लगे कि सारी पृथ्वी तुम्हारी है।'

मृणालिनी ने महसूस किया कि गीत का सार उल्लेखनीय रूप से अच्छा है। वह भ्रमणकारी संगीत ब्रज के लोगों के लिए कई दिनों से बन रहा था। तुम्हें मालूम है कि उस बाजार में मेरी माँ भी यही गाना गा रही थी। किन्तु पंडों के लड़के आगे आये और घर तक घसीट दिया। यहाँ अब बहुत से लोग मेरी माँ को जानते हैं।'

शशि ने उन बातों की ओर, कम रुचि दर्शायी, जो उसकी साथी बता रही थी। वह अपने ही विचारों में खो गयी। फिर उसी समय मृणालिनी ने देखा कि वह सुबक रही है।

'तुम्हें रोना नहीं चाहिए, शशि, तुम एक साहसी लड़की के रूप में जानी जाती हो। मुझे मालूम है कि तुम ईमानदार हो। मैंने उन्हें कहते सुना कि डॉक्टर रायचौधुरी तुम्हारी मदद करेंगे। मैं सोचती हूँ कि तुम जानती हो। उनकी अपनी बेटी के प्रति की गयी सारी योजनाएँ धूसरित हो गयी हैं। उनकी पत्नी भी अब बिस्तर पर है। वह ईसाई यहाँ आ पहुँचा है। वह ब्रज में कइयों द्वारा देखा गया है। रोना छोड़ो प्रिय शशि, दोनों हाथों से साहस बटोरो और दुनिया का सामना करो। मुझे मालूम है कि तुम एक छोटी-मोटी चीज के लिए खजाना लुटाने वालों में से नहीं हो। तुम्हें कौन-सी बात परेशान कर रही है? प्यार, वृन्दावननाथ मन्दिर के युवा स्वामी का प्यार? समय तेजी से उड़ा जाता है। यदि यह तुम्हारा प्यार क्षणिक आसक्ति नहीं है, तो समय की कसौटी पर इसका परीक्षण हो जाएगा और सोने-सा महान एवं खरा सिद्ध होगा। उसकी उपेक्षा उस मूर्ति को जरा भी नष्ट करने की क्षमता नहीं रख पाएगी। विश्वास करो मुझ पर मेरी प्रिय, मैं जो कुछ कहती हूँ, वह जीवन के अनुभव की गहराई से खोद कर निकाला गया है। उठो और साहसी बनो। आगे के लम्बे साल क्षणों में तेजी से बीत जाएँगे। तुम फिर तुम बन जाओगी। मुझे पक्का यकीन है। मालूम है कि तुम तिनके के बदले में खजाने का विनिमय नहीं करोगी।'

कोने की धीमी जलती लैम्प बुझ गयी। कब, उन्हें पता भी नहीं चला। गहराते अँधेरे में, जो उन्हें घेरे था, दो शिशुओं के समान वे दोनों भोली आत्माएँ, जो जीवन में बुरी तरह नष्ट कर दी गयी थीं, गीली धरती पर सुरक्षा के लिए एक दूसरे से लिपटी पड़ी थीं। दोनों ही निर्दयी और सुनिश्चित भविष्य के परिणाम से भयभीत अनुभव कर रही थीं।

भाग 14

वह अन्धे ठाकुर साहब इन दिनों अपना अधिकांश समय भूतकाल पर चिन्तन करते हुए बिताते हैं। वर्तमान की दशा भुलाने के लिए वे अतीत में डूब जाते हैं। जब वे अपने चिन्तन से जागते हैं तब अनुभव करते हैं कि मानो उनकी आत्मा ने शरीर के नश्वर रूप में पीछा करने से छुट्टी ले रखी है। ऐसे क्षणों में वे अपने को केवल शव ही सोचते हैं। सुस्त एवं भारी, किन्तु अभी भी सक्रिय। अपनी ही उम्र के अन्य लोगों से भी वे जानना चाहते हैं कि क्या ये ही विचार उनका भी पीछा करते हैं। किन्तु उन्हें राहत पहुँचाने वाले उत्तर नहीं मिल पाते। यदि यह सम्भव होता कि किसी रहस्यमय तरीके से वह अपनी दृष्टि फिर से पा लेते, तो वे ब्रज के प्रत्येक वृद्ध के पास पहुँचते और पूछते कि उनकी आत्माएँ अभी भी उनके शरीर के निवास से अलग कैसे नहीं हुईं। जब-तब वह बूढ़ा आदमी इतनी कल्पना करता रहता था।

एक दिन शाम को काफी देर तक वे मन्दिर की सीढ़ियों पर बैठे रहे। वे गप्पबाज, जो उनके पास आकर बैठे थे, एक-एक कर चलते बने। भजन गीतकारों का एक दल गाते और रंगरेलियाँ करते हुए उस ओर से गुजरा। उन्होंने उन आदमियों से आती हुई अतर की सुगन्ध महसूस की, जिसने उन्हें अचानक बीते दिनों में पहुँचा दिया।

उस सुगन्ध का क्या नाम है। यह इतनी मीठी है। यह इतनी जानी-पहचानी लगती है। मगर वह उसका नाम याद न कर सके। किन्तु पुराने सम्बन्धों को पुनर्जाग्रत करना है। उस क्षण ठाकुर साहब एक जोड़ी पैरों की सुगठित पिंडलियों को देखते हैं, जो मधुरता में सने हैं। पर दूसरे क्षण अपने दिमाग से उस मूर्ति को झटक देने का प्रयत्न करते हैं। सचमुच मन्दिर की पवित्र सीढ़ियों पर बैठकर रखैल के बारे में सोचना पाप है और वह भी उस जुलूस के द्वारा, जो रास लीला उत्सव में पवित्र नृत्य करने वाले व्यक्तियों का है। इस स्वयं पछतावे की भावना ने उन्हें हल्के से मुस्कुराने को बाध्य किया।

एक समय था, जब ठाकुर साहब ने अपने परिवार की पूर्ण उपेक्षा की और अपने आपको बिसार बैठे। उनके युवा पुत्र ने उनके विरुद्ध क्रोध किया और उन्हें स्वार्थी और बेहूदा घोषित किया। किन्तु उन सबकी ओर उन्होंने बहुत कम ध्यान दिया। परिवार दुखी बना दिया गया। बच्चे चिन्दियों पर रखे गये और पत्नी ने एक के बाद एक गहने बेचने शुरू किये। सचमुच वे बड़े भीषण दिन थे। शहर की कुछ औरतों पर उसके जीवन की बहुमूल्य बचत बर्बाद कर दी गयी। इसके अलावा...। नहीं, वे अब आगे याद नहीं कर सकते। अब वह दुखी विचार उनके होठों पर आ विराजा। पियक्कड़ पहलवान को मन्दिर में क्यों जाना चाहिए... और क्यों रास-नृत्यकार वही मधुर गन्ध वाली इत्र की सुगन्ध फैलाते हैं, जो उनकी पुरानी स्मृतियों को जगाता और उन्हें आन्दोलित कर देता है।

ठाकुर साहब देश के विभाजन की भयंकर घटनाओं की स्मृति से विचलित हो गये। ये स्वप्निल पिछली यादें मिलती-सी दिखती थीं। उस ध्वनि जैसी, जो घोड़े द्वारा खींचे जाने वाले ताँगे से आती है, जब उसका चक्र डामर बिछी सड़क से रगड़ खायी आवाज की वह कल्पना वह करते हैं। ठाकुर साहब का सिर नीचे झुक जाता है और उनके दोनों घुटनों के बीच आकर टिक जाता है। यह मुश्किल से ही होता है कि एक अकेली ध्वनि किसी आदमी के दिमाग में उसके अतीत को इस कदर स्पष्ट रूप जाग्रत कर दे।

देश के विभाजन के समय ठाकुर साहब एक सीमेंट कम्पनी में काम करते थे। अजीब तरीके से वे कल्पना करते हैं। वे धूल भरे सीमेंट के कण साफ सफेद कपड़े पर जम जाते हैं और उनका पीछा करते हैं। सीमेंट की धूल जमा वह कपड़ा कफन जैसा लगता है। तत्क्षण उनका सिर उनके घुटनों के बीच निश्चित रूप से झुक जाता है। वे अकेले ही इस महान संकटपूर्ण घड़ी के शिकार नहीं हैं। उच्च एवं शक्तिशाली भी गिरते हैं और इनमें केवल कुछ नहीं हैं और न ही यह कोई अकेली कहानी है। महान अधिपतियों की ऊँचाइयों से पतन की कहानी।

युवा युवराज दामोदर का मामला भी ठाकुर साहब के दिमाग में आया। दामोदर झाँसी की गद्दी का सच्चा वारिस था। दामोदर, जो लक्ष्मीबाई का दत्तक पुत्र था। बेचारी आत्मा। अपने बचपन में कैसे वह प्रभु राम का नाम लिखे हुए कागज के छोटे-छोटे टुकड़ों वाले कैपसूल तलैया में पाली गयी मछलियों को खिलाया करता था। उन्हें अनुकूल बनाने के लिए वह आटे की गाढ़ी लुगदी लगाया करता था। किन्तु केवल एक साल के लिए वह लाल झंडा, जो यक्ष की पूँछ के गुच्छे का चिह्न धारण किये हुए था झाँसी के किले पर फहराया। केवल एक वर्ष के लिए। फिर आक्रमणकारी अँग्रेजों के द्वारा फाड़ दिया गया। फिर दामोदर कहाँ खो गया? दामोदर देश का राजा हो सकता था। लक्ष्मण राव, दामोदर का पुत्र अभी भी इन्दौर के इमली बाजार में नंगे पाँव चलते हुए और तार-तार हुई बंडी पहने हुए देखा जा सकता है। लक्ष्मण राव की कल्पना ठाकुर साहब को हँसाने लगती है। उसी समय वे महसूस करते हैं कि आँखों के नीचे की झुर्रीदार चमड़ी नम हो गयी है।

लगता है उस धूल भरी सीमेंट का जमाव एक सफेद कपड़े के टुकड़े में परिवर्तित होकर दिन-रात ठाकुर साहब का पीछा करता है। क्या दामोदर का भी ऐसा ही अनुभव है?-ठाकुर साहब ने अपने आप से पूछा।

फिर एक बार उस बूढ़े आदमी का सिर झुक गया और उसके दोनों घुटनों के बीच जा टिका। उसने दोनों हाथों से अपनी लाठी कसकर पकड़ी। उसे नहीं मालूम था कि कितने समय तक वह अर्धचेतन स्थिति में था। फिर अचानक एक जोरदार शोर ने उन्हें जगा दिया। उन्होंने महसूस किया कि लोगों का एक पागल झुंड उनकी ओर आ रहा है। अपने कानों में शोर को घुसते हुए उन्होंने सुना-तुम्हारी पत्नी घर से गायब हो गयी हैं। क्या तुम उन्हें नहीं खोजोगे? ठाकुर साहब ने अपनी लाठी को और अधिक कसकर पकड़ लिया। फिर यत्न के साथ अपने नीचे झुके सिर को ऊपर उठाया और खतरे की चीख निकली-क्या हुआ, कहाँ हुआ, क्या कहते हो तुम?

कुछ बूढ़े राधेश्यामियों ने उन्हें देखा और झिड़कियाँ दीं। उन्होंने कहा, 'लम्बे समय तक यहाँ आलस में गुजारने की जगह तुम्हें अपनी पत्नी पर नजर रखनी थी। तुम्हारी आँखें चली गयीं, पर तुम्हारे हाथ-पैर तो सही-सलामत हैं। तुम उसे बाहर जाने से रोक सकते थे। वह बेचारी तुम्हारी बेटी अपनी माँ के लिए कितनी निराश-सी दिखाई दे रही है!'

भीड़ से कोई चिल्लाया, 'अन्धे बूढ़े व्यक्ति के पास खड़े होने से कोई लाभ नहीं। मैं सोचता हूँ, वह बूढ़ी महिला मौनी बाबा के देवालय की ओर गयी है। किसी बदमाश ने महन्त के हाथी को भाँग के गोले खिला दिये हैं और जानवर नशे में हो गया है। कल रात महन्त मुश्किल से ही मुरलीधर के सम्मान में निकले जुलूस में उसे नियंत्रित कर पाया।' ऐसा कहते हुए उस आदमी ने अपनी लाठी को कठोर धरती पर पटका और खोज में लगे लोगों से जा मिला।

ठाकुर साहब ने महसूस किया कि उनका गला पूरा सूख गया है। एक बार फिर उनका सिर झुक गया, घुटनों से जा लगा।

बातें उनके सामने बिल्कुल साफ हो गयीं। मन्दिर में थोड़ी-बहुत बिक्री होती है। मृणालिनी उसे चालाक दावेदार से बचा रखती है। जगप्रसिद्ध दानव के समान आने वाले समय में हम तीनों के लिए सांसारिक क्रियाकर्म के लिए। मन्दिर न्यास से प्रति माह मिलने वाले बीस रुपये, थोड़ी-सी भिक्षा और भिक्षाघर से एकत्रित किये गये रूखी-सूखी रोटी के टुकड़ों पर वे जीवित रह रहे हैं। स्वाभाविक है कि भूख की मार को बर्दाश्त करने में असमर्थ वह बेचारी औरत भोजन की तलाश में बाहर गयी होगी। उस बूढ़े आदमी ने यह नौबत क्यों आने दी?

एक बार उस बूढ़े आदमी ने फिर वही शोरगुल सुना-लाठियों का पटकना, जूतों का जोर से पटकना, और शोर-शराबा। खोजी दल लौट आया। वह बुरी तरह काँप उठे और अपने पास की सारी ताकत के साथ अपनी लाठी से अपने वक्षस्थल को दबा लिया।

फिर उन्होंने मृणालिनी को पूरी ताकत के साथ चिल्लाते सुना-वहाँ जमा लोगों को सम्बोधित करते हुए उसने कहा, 'वह अन्धा बूढ़ा ही इस पूरी यातना की जड़ है। उसने हम सबको बर्बाद कर दिया है। अपने जीवन भर उसने हमें आधापेट खिलाया और अपनी कमाई का अधिकांश भाँग पीने में लगा दिया, फिर उसे इस जगह पर पहुँचा दिया गया।'

मृणालिनी ने अपने पिता के विरुद्ध भर्त्सना के शब्द उगलना बन्द कर दिया। अपने ब्लाउज का एक भाग फाड़ दिया और हिम से भी बहुत अधिक श्वेत वक्षस्थल को राधेश्यामी के सामने उघाड़ कर चिल्लायी, 'तुम बताओ, क्या मैं माँ नहीं बन सकती थी? क्या मैं एक शिशु को जन्म नहीं दे सकती थी? मुझे क्यों मजबूर कर दिया गया कि मैं सारा जीवन और कुछ न करके इन दो प्रेतों की रक्षा करती रहूँ? क्या तुममें से किसी ने मेरे जैसा सुख भोगा है? तुम, जो झोपड़ों में गरीबी और भुखमरी में अपना सारा जीवन जी रही हो, मेरी जैसी परिस्थिति का तुमने सामना किया है? तुममें से कोई?

एक राधेश्यामी ने, जिसने अपने साथियों से अन्तिम संस्कारों के लिए भी कुछ पैसा मार लिया था, मृणालिनी के पास आयी और नरमी से उसे बताया, 'अपने कपड़ों को व्यवस्थित करो, तुमने बहुत बड़ा बलिदान किया है। तुमने बड़ी प्रशंसा पायी है। वे अब लम्बा नहीं जिएँगे। उनका अन्तिम संस्कार करो और तुम स्वतन्त्र हो जाओगी।'

दूसरे राधेश्यामी ने कहा, 'मूढ़ के लिए अधिक बचाने का क्या फायदा है। मैंने सुना कि तुमने सारा जीवन उनकी देखभाल की। अब तुम अपने हाथ झाड़ अपने आप आनन्द करो। यही क्षण है।'

मुरलीधर के मन्दिर की घंटियाँ बजने लगीं। फिर एक बार आगे बढ़ती हुई एवं जमीन पर लाठियाँ पटकती हुई भीड़ की आवाज आने लगी। एक राक्षस-से पंडे ने उस वृद्धा को बालों से पकड़ कर करीब-करीब घसीट डाला और मृणालिनी के सामने धक्का दिया। वह उसकी माँ थी।

उस आदमी ने घोषणा की, 'वह गौशाला के पास उस हौज पर पानी की एक बूँद के लिए देखते हुए पायी गयी। शायद लम्बे समय से वह प्यासी है।'

ऐसा कहते हुए उस पंडे ने बुरी तरह ठहाका लगाया। राधेश्यामी भी उसमें शामिल हो गयी। वह हँसने से ज्यादा टरटराती सुनाई दे रही थी। मृणालिनी ने अपनी माँ का हाथ पकड़ा और ऊपर की घेरी माँद की सीढ़ियों की ओर ले गयी।

अँधेरे में भी मृणालिनी को सीढ़ियों का पता लगाने में कोई कठिनाई नहीं हुई। क्योंकि वह अँधेरे में आसपास की जगह से बखूबी परिचित थी। उस परिवार के लिए प्रकाश और अन्धकार के बीच किसी अन्तर की उपस्थिति व्यावहारिक रूप में नहीं रह गयी थी।

अत: हाथ पकड़ कर मृणालिनी अपनी माँ को ले गयी। वह उन अँधेरी सीढ़ियों को पार कर रही थी।

मन्दिर के फाटक पर अब सब कुछ शान्त था। राधेश्यामी के छोटी-छोटी बातों पर के झगड़े खत्म हो चुके थे। मरघट-सी नीरवता उस जगह पर उतर आयी थी। वह बदनसीब बूढ़ा पहले-सा शान्त बैठा रहा। उपेक्षित, नितान्त अकेला। जब-तब यमुना को पार कर आने वाली हवा का झोंका उसके दुबले-पतले शरीर से टकराता था। उसने पतली-सी बंडी मात्र पहन रखी थी।

बहुत बार वह काँप रहा था। किसी ने उसे ऊपरी मंजिल पर ले जाने का नहीं सोचा। बिना सहायता के वह हिल नहीं सकता था। अँधेरा बढ़ता गया और रात आ पहुँची। निस्सहाय, अपने हाथों में लाठी रख उसने सीढ़ियों पर पैर रखा। उसने सोचा, और वहीं लेट गया, ठीक सड़क के उस पार के दोनों छोटे अनाथों जैसा।

अपनी स्थिति के लिए उसने अपना हाथ उस स्थान का पता लगाने के लिए फैलाया। उसने महसूस किया कि सीढ़ी सँकरी और खुरदरी है। फैलने की छोड़ो, वह वहाँ बैठ भी नहीं सकता था। उसने बहुत अधिक परेशानी महसूस की। लगा, तीखी ठंडी हवा उसके मांस को चीर देगी। और अब रात में काफी देर हो गयी थी।

वह वहाँ बैठे-बैठे कुछ आश्चर्य के घटने और दुर्दशा से अपनी रक्षा होती सोच कर ऊँघने लगा। फिर चौंककर वह जाग उठा, क्योंकि उसने महसूस किया मानो उसके बाजू में कोई खड़ा हुआ है। चिन्तित हो उसने प्रश्न किया, 'वहाँ कौन है? तुम कौन हो?' उस अजनबी ने कहा, 'मुझे तुम्हारे झोपड़े तक ले चलने दो। उस सड़क पर शाम को मैं तीन बार गुजर चुका हूँ। और तीनों बार मैंने तुम्हें यहाँ बैठे देखा है। मुझे मालूम है कि आज तुम्हें मदद करने के लिए कोई नहीं है।'

'पर बेटे, तुम हो कौन, जो देवदूत-से इस अँधेरी रात में मेरे बाजू में खड़े हो?'

उस अजनबी, छोटे लड़के ने कोई जवाब नहीं दिया।

'दीपक के प्रकाश-सा तुम्हारा दिमाग प्रकाशित है। किन्तु तुम अँधेरे में काम करते हो। अजीब बात है,' ठाकुर साहब ने कहा और अचानक अपने पैरों पर खड़े हो गये। उनके घुटनों के जोड़ चटक उठे। उन्होंने अपने हाथ फैलाये ताकि वे उस लड़के के कन्धों तक आधार के लिए पहुँचें, ताकि कन्धों की जगह उसके गालों को छू सकें और तत्क्षण वह बूढ़ा आदमी यह पाकर चौंका कि लड़का रो रहा है।

'मेरे बेटे, तुम रो रहे हो! मेरी उँगलियाँ तुम्हारे आँसू से गीली हो गयी हैं। किन्तु तुम्हें रोना क्यों पड़ा? तुम्हारा दु:ख क्या है? बेटे, तुम सब कुछ मुझे बताओ!'

'मैं सब कुछ नहीं बता सकता।'

'क्यों?'

लड़के ने कहा, 'बूढ़ा आदमी देर रात तक अकेला बैठा हुआ था, इसने मुझे बहुत पीड़ा पहुँचायी।'

उस लड़के के उत्तर ने ठाकुर साहब को विचलित कर दिया। काँपते हाथों से उन्होंने लड़के के चेहरे और कन्धों को टटोलना शुरू कर दिया। और कहा, 'मेरे छोटे दोस्त, सुनो, अब मैं ऐसी स्थिति पर पहुँच गया हूँ कि कभी भी मैं अपने को छोटा बालक समझने लगता हूँ, जो अपने दादा के मन्दिर के पुजारी की गोद में उछल-कूद कर रहा है। मेरा शरीर अब समय के द्वारा बनाया गया टूटा-फूटा घर है। ये दुख वास्तविकताएँ हैं मेरे बच्चे, पर ये बड़ी कीमती हैं। प्रत्येक के पास वे आती हैं। किन्तु जीवन में देर से आती हैं। वे हमारे दुखों को हल्का-भारी बनाती हैं। पर वे बहुत उपयोगी हैं।'

लड़के ने मौन रहकर, जो कुछ बूढ़े आदमी ने बड़बड़ाया, सुना। वह काफी छोटा था, उसमें इतनी दृष्टि नहीं थी कि वह जीवन के गूढ़ बिन्दुओं की व्याख्या कर सके। किन्तु उसकी संवेदनशील आत्मा थी। उसने बूढ़े आदमी के लिए दया का अनुभव किया और कहा, 'अब समय बर्बाद न करें। देर हो रही है। मेरे साथ आओ।'

दोनों सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। लम्बे कदम सावधानी से रखते हुए। जैसे ही वे ऊपर की पतली सीढ़ी पर पहुँचे, बूढ़े आदमी ने कहा, 'मेरे प्रिय, तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ। तुम्हारे पास हमेशा ऐसा हृदय हो, जो दूसरों के लिए रो सके। मैं एक जर्जर बूढ़ा आदमी हूँ। पर मैं तुम्हें जो बता रहा हूँ, वह झूठ नहीं है। हो सकता है यदि तुम जीवन में उस राह पर चलो, जिसे मैंने दिखाया है, तो बाद में तुम्हें कभी पछताना नहीं पड़ेगा। तुम फिर महसूस करोगे कि तुम ब्रज के प्रभु के साथ ही हो। उन दो हजार राधेश्यामियों-सा उस परम पवित्र की उपस्थिति के आनन्द में मग्न हो जाओगे। अत: आगे बढ़ो, मेरे पुत्र। सावधानी बरतो। सीढ़ियाँ सँकरी फिसलन भरी हैं और काई से पटी। अत: राधेश्यामी मुझे नीचे ले जाने की इच्छुक नहीं होती थीं। मकान का बूढ़ा मालिक शायद यह देख नहीं पाया कि उसके बाद आने वाले किसी के लिए ये सीढ़ियाँ बहुत अधिक आवश्यक हो सकती हैं।'

सुरक्षित उन्होंने सीढ़ियाँ चढ़ लीं। आखिरी सीढ़ी पर खड़े होकर ठाकुर साहब ने अपना हाथ बालक के सिर पर रखा और बिल्कुल फुसफुसाते हुए कहा, 'जो भी दुखी है, उन सबके साथ तुम्हारी सहानुभूति हो।'

पर अचानक ठाकुर साहब को एक असाधारण अनुभव हुआ। उन्होंने अनुभव किया कि एक पवित्र प्रकाश उनकी आँखों के सामने कौंधा-एक रहस्यपूर्ण प्रकाश।

फिर उस बूढ़े आदमी ने लड़के से कहा, 'मुझे एक इच्छा पूरी करनी है। मुझे पक्का मालूम है कि जो देवदूत-सा इस अँधेरी रात में आया है, वह उस अनुभव को प्राप्त करने में मेरी मदद करने में सक्षम है। बताओ तुम मदद करोगे?'

'निश्चित, यदि मेरी शक्ति के भीतर हो।'

'रघुनाथ प्रभु का रथ उत्सव होने को है। तुम मुझे उसकी एक झलक पाने में सहायता करोगे।'

'खुशी से, मैं पूरे समय तुम्हारे साथ रहूँगा।' अँधेरे में भी उस लड़के ने उस बूढ़े आदमी के होंठों पर आयी मुस्कुराहट को देखा। उसे यह भान भी नहीं था कि किसी आदमी की मुस्कुराहट इतनी हृदय जीतने वाली हो सकती थी। ठाकुर साहब अन्धे थे। वे उस उत्सव के शोर और कोलाहल के सिवाय और किसका आनन्द उठा सकते थे। पर यह सब कुछ, उस लड़के के पास इतना हृदय नहीं था कि उस बूढ़े के सामने रख सके।

'सचमुच तुम्हें बहुत धन्यवाद, अब मैं अपने आपकी मदद कर सकता हूँ। केवल मेरी प्रार्थना को मन में रखना।'

फिर अपनी लाठी से रास्ता खोजते हुए ठाकुर साहब ने कमरे के अपने कबूतर खाने में प्रवेश किया। मानो कोई जीवित प्रेत अपने ताबूत से उठा हो और कुछ समय तक बाहर घूमने-फिरने के बाद फिर अपनी कब्र में प्रवेश कर गया हो।

भाग 15

एक दिन अलस्सुबह सौदामिनी ने अपने कमरे से बाहर जाते हुए मलाई के रंग के साँप को देखा, जो आसपास के विद्यमान लोगों की उपेक्षा करते हुए, कुएँ तक पहुँचा और कमरे के किसी टूटे कोने के छेद में लौट गया। दो घूमते हुए संन्यासी, जिन्होंने उस प्राणी के क्रियाकलापों को देखा, कहने लगे, 'यह एक बुरा सगुन है। आज का दिन अच्छा बीतने वाला नहीं है।'

हाँ, वे सही थे। अस्पताल के सामने उसी सुबह एक मृत शरीर पड़ा हुआ पाया गया। पहली रात पानी की असामयिक झड़ी लगी थी। शायद वह आदमी इलाज के लिए आया होगा। वह पूर्णरूप से तर-बतर था।

एक संन्यासी और कुछ राधेश्यामियों ने उस शव का परीक्षण किया। उनमें से एक उत्तेजना से चिल्लाया, 'उस पवित्र आत्मा का एक सोने का दाँत है।'

'सोने का दाँत!' झुंड के बाकी राधेश्यामियों ने एक साथ पूछा, मानो अविश्वास में हों। वे और करीब आयीं और उस शरीर की जाँच करने लगीं। संन्यासी ने कहा, 'अपने बचपन में हरिद्वार में, मैंने जली हड्डियों के बीच सोने के दाँत और सोने के सिक्के इकट्ठे किये थे। एक खास साल, क्या तुम विश्वास कर सकते हो, मैंने सोने के पूरे बीस दाँत इकट्ठेकिये। वह भी एक चौड़े छेदों वाली जाली से। किन्तु आजकल जो लड़के नदी की तली से तारों की पतली जाली से जली हड्डियाँ इकट्ठा करते हैं वे आधे भी भाग्यशाली नहीं होते।'

शव के सोने के दाँत ने ब्रज के लोगों के दिमाग में काफी सनसनी जगा दी। अस्पताल के सामने भीड़ बढ़ती गयी। सौदामिनी ने दो औरतों को कहते सुना, 'कैसे कह सकते हो कि ब्रज पवित्र शक्ति से वंचित है। झाड़नेवालों के द्वारा शव नदी में बहा दिया गया होता, पर अब उसे एक सम्माननीय दहन मिलेगा। उसको शवपेटी उठाने वालों के द्वारा उठाया जाएगा। कितना भाग्यशाली है!'

एक अन्य स्त्री ने ताना कसा, 'मैंने सुना कि सरकार निर्धन राधेश्यामियों के अन्तिम संस्कार का इन्तजाम करेगी।'

एक पतले ओठों वाली राधेश्यामी ने गलगंठ के साथ फब्ती कसी, 'यह सब बेकार की बातें हैं। पिछले साल और उसके भी पिछले साल रक्षा के काम पर लगे सिपाही से यही बात करते सुना, पर कुछ भी नहीं हुआ।' फिर भी एक औरत ने कहा, 'डॉक्टर की बीवी बहुत जल्द मर जाएगी। मैंने उसी दिन देखा, वह हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गयी है।'

'उसकी विधवा बेटी और उसके ईसाई प्रेमी ने उसे मृत्यु की ओर बढ़ा दिया। इसमें कोई शक नहीं है।'

'अपने पूर्व जन्म में किसी के भोजन में जहर घोला होगा। इसी से उस जैसी लड़की को उसने अपने गर्भ में धारण किया। क्या तुमने नहीं देखा, वह वेश्या अकेली ही कैसी भटकती रहती है।' दूसरी ने कहा।

फिर तीनों औरतों ने पास के अस्पताल के लोगों की उपस्थिति की परवाह किये बिना अपने कपड़े उतारे और बिना वस्त्र पहने हुए कुएँ के पास नहाना शुरू कर दिया।

अब उनमें स्त्री और पुरुष के बीच कोई अन्तर नहीं रह गया। उस बाधा को उन्होंने बहुत पहले पार कर लिया था।

सौदामिनी ने बहुतों को अपनी बुराई करते सुना। पर वह मुश्किल से ही कोई प्रतिक्रिया करती थी, क्योंकि वह बेतुकी बातों के प्रति मूक बन गयी थी। अब पीठ-पीछे होने वाली बुराई उसे आसानी से परेशान नहीं करती। 'राधा, पवित्र रानी राधा की जय हो' तेज चिल्लाती उस अजनबी की शवयात्रा किसी अन्य हरीड़ा स्वामी की शवयात्रा से जा जुड़ी, जिसने उसी सुबह अपनी अन्तिम साँस ली। दोनों की यात्राएँ मिल गयीं और उस शाश्वत नदी के रेतीले किनारे की ओर बढ़ीं।

कुछ राधेश्यामियों ने, जो अभी तक अपने अन्तिम संस्कारों के लिए पर्याप्त नहीं बचा पायी थीं, बिना शर्म के उन बिछड़ी आत्माओं के भाग्य पर ईर्ष्या व्यक्त की।

सौदामिनी भीतर चली गयी। फिर एक बार बारीकी से कमरे के प्रत्येक कोने की जाँच कर ली। साँप अपने आपको सम्भवत: कहाँ छुपा सकता है! दीवार की लकड़ी की चौखटों में छेद है। पर उसके वहाँ प्रवेश करने का कोई चिह्न नहीं है। कुछ छिपकलियाँ वहाँ अक्सर देखी जाती हैं। जैसे ही उसने खिड़की खोली, कुछ चिरैया कमरे के भीतर कीड़ों की खोज में टूटे प्लास्टर में चोंच मारने आ जुटीं।

महन्त के हाथी पर बँधी घंटियों की आवाज सुनाई दी। हरीड़ा स्वामी की शवयात्रा प्रभु रघुनाथ के रंगमहल के पास पहुँची। जैसा कि माँगने वाले संन्यासियों ने कहा, सबेरे-सबेरे साँप का दर्शन बुरा सगुन होता है, यह कथन उसके लिए एक प्रकार की मनोग्रन्थि बन गयी।

दोपहर को उस दिन अस्पताल में असाधारण भीड़ आ गयी। उस स्थान के आधे लोगों को अभी शवयात्रा से लौटना था। सौदामिनी के लिए मृत्यु फुतीर्ली दिखाई देने लगी। कुछ जाने-पहचाने चेहरे बहुत कम समय में अदृश्य हो गये। ब्रज में ऐसा लगने लगा, जीवन और मृत्यु हाथ में हाथ डाले घूमा करते हैं।

सौदामिनी देख सकती थी कि उसकी प्रिय माँ की जीवन-बाती धीरे-धीरे मन्द, और अधिक मन्द होती जा रही है। जैसा अब है क्या वह आगे खींच पाएगी? लगता है कोई रहस्यपूर्ण प्रतिनिधि प्रत्येक गुजरते दिन उसके कान में फुसफुसाता है। समय तेजी से उड़ा जा रहा है। वह किसी के लिए प्रतीक्षा नहीं करता।

उस दिन बुरे-बुरे विचारों ने सौदामिनी पर चारों ओर से हमला बोला। उसने सोचा, राधेश्यामियों के समान उसे भी शवयात्रा का साथ देना चाहिए था। वह नहीं जानती थी कि सारे क्षण वह अपने आपको व्यस्त कैसे रखे। क्या उसे उस नौकरानी की मदद करनी चाहिए, जिसे उसकी माँ की सेवा के लिए रखा गया है? पर लम्बे समय तक उसके पास रहना! नहीं नहीं, यह तो पूर्णत: असम्भव है!

खोयी हुई-सी वह धीर समीर घाट की ओर चल पड़ी। सीढ़ियों पर उसने यह देखने के लिए कि आस-पास कोई है तो नहीं, गर्दन घुमायी। यह पाकर वह आश्वस्त हुई कि शवयात्रा उस रास्ते नहीं जा रही है। फिर उसने अचानक अपने से थोड़ी दूरी पर एक झाड़ के नीचे एक सँपेरे को देखा। फिर एक बार उसने उस संन्यासी के कथन को याद किया कि सबेरे-सबेरे साँप का दिखना अपशकुन होता है। उसके लिए वह साँप एक पहचाना दृश्य है, क्योंकि वह लम्बे समय से उसके अपने कमरे के किसी अँधेरे छेद में रह रहा है। पहली बार जब उसने एक प्रकार की सरसराहट सुनी थी जैसे कि लम्बी रस्सी के टुकड़े को फर्श पर खींचा गया हो, तब उसने जाना कि वह साँप है और निशाचरी के लिए बाहर निकला है। किन्तु वह किसी तरह भी चीख न सकी थी। उसने अपने आपको किसी सम्मोहन के अन्तर्गत पाया।

सफेद साफे का ऊपर-नीचे होना इसका संकेत है कि सँपेरा अभी वहीं पेड़ के नीचे साँपों के लिए जमीन खोदते हुए क्रियाशील है।

दूसरे ही क्षण उसने अपने आपको उसके पास पाया। वह आदमी किसी साँप की चमड़ी उतार रहा था। बिना चमड़ी का उसका शरीर किसी मछली के समान डाली से लटक रहा था। उसके दर्शन मात्र से सौदामिनी अवाक रह गयी। क्योंकि वह साँप उसका जाना-पहचाना था। वह पीड़ा का अनुभव करने लगी। उसने उस आदमी से पूछा कि उसने साँप कहाँ से पाया।

आदमी ने केवल आँख उठायी पर उत्तर कुछ नहीं दिया। 'क्या यह दशरथ अखाड़े का बूढ़ा साँप नहीं है?' उसने फिर पूछा, 'क्या यह जहरीला साँप था?'

इस बार उस आदमी ने स्वीकृति में सिर हिलाया। अचानक वह आशा से भर उठा और कहा, 'ब्रज में ऐसी ऊँची सर्प की चमड़ी मुश्किल की चीज है। स्वर्ण की पृष्ठ भूमि पर चाँदी-सी ये बिन्दु देखा।'

उस समय तक दिन काफी चढ़ चुका था। सूर्य के प्रकाश में नदी का रेतीला विस्तार चमकने लगा था। सौदामिनी भिक्षागृह की ओर जाने वाली सड़क पर धीरे-धीरे चल रही थी। यमुना की रेत पर उसने दोगुना अकेलापन महसूस किया। पास के लेंट हाउस, जिसका ऊँट के चमड़े का रंग था, से गहरे प्रभावित करने वाले एक गीत की आवाज तैरती आ रही थी, जिसने उसके हृदय की गहराइयों को छू लिया।

'उद्धव, तुम मृदु बोलने वाले सन्देश वाहक हो। तुमने हमें पलकें खोलने-बन्द करने को कहा और हमने किया। हमने अपनी आँखों को खोला और बन्द किया, जहाँ कभी श्री हरि की मूर्ति रहा करती थी। तुमने हमें अपने कानों को छेदने को कहा और उलझे बाल धारण करने को कहा, चन्दन के लेप की जगह शरीर पर राख लगाने को कहा, पर तुम्हारे सारे उपदेशों का हमारे लिए क्या उपयोग है? हमारे लिए, जो अपने प्रियतम के बिछोह की आग में प्रतिदिन समर्पित हैं। वे योगी, जो एक जगह से दूसरी जगह शाश्वत की खोज में भटकते हैं, हमारे काफी निकट हैं। एक क्षण के लिए भी हम उनसे अलग नहीं हो सकते। जैसे कोई वृक्ष एवं उसकी छाया।'

वह गीत और उसके विषय ने उसे गहराई से छू लिया। उसकी आँखें नम हो गयीं। एक बार फिर उसके कानों में कोई फुसफुसाया, 'समय भागा जा रहा है मेरे दोस्त, समय ठहर नहीं सकता।'

वह अपने स्वर्गीय पति सुब्रत का चेहरा याद करने लगी। वह उसकी स्मृति में फीका पड़ गया था। वह उसके चेहरे को याद न कर पायी। किन्तु उसके मन की आँखों के सामने एक और चेहरा इन दिनों लगातार फुदकता था। वह उज्ज्वल एवं आकर्षक है। सारे विचार उस एक चेहरे के आस-पास केन्द्रित हो जाते हैं। यमुना की पवित्र रेत पर बैठी वह सोच रही थी, उसके समान और कौन सोच सकता था। नैतिक आदर्शवाद के प्रति उसका खयाल अब कहाँ खो गया और यह सब...?

उन्होंने यद्यपि, ब्रज में रहना शुरू कर दिया था, उसे विश्वास था कि एक दिन वह आएगा। कि अपने आपको किसी दिन दिखाएगा।

दोपहर में वह उसी स्थान पर लौटी। एक राधेश्यामी भी थोड़ी देर के लिए उसके पास आ बैठी। उसने सौदामिनी के साथ नैवेद्य (फल और चना का पवित्र भोग), जो प्रभु मुरलीधर को समर्पित किया गया था, जिसे वह ताड़ के पत्ते के दोनों में लायी थी, बाँटकर खाया। उसके बाद वह चली गयी। सौदामिनी फिर एक बार अपने पीड़ादायक विचारों में खो गयी। वह नितान्त अकेली महसूस करने लगी। पर वह वहीं बैठी रही। बहुत देर तक उसे पता नहीं लगा। फिर अपने विचारों से चौंककर वह जागी, क्योंकि उसने पास में ही शोर सुना। उसने देखा, कई लोग उसी की ओर भूतोगली कहलाने वाली जगह (भूतों की गली) से बढ़ रहे हैं। वह परेशान हो गयी और समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे। अत: जहाँ वह थी, वहीं वह स्थिर खड़ी रही।

उसने उनकी ढँकी-मुँदी आवाजें सुनीं। वे उस स्थान के अनिष्ठ व्यक्ति थे।

'उड़ चलो, जितना तुम भाग सकती हो, भागो। क्योंकि उन लोगों ने राधेश्यामी पर आक्रमण कर दिया है,' ऐसा कोई चेतावनी में चिल्लाया। उन्होंने बूढ़ी राधेश्यामियों को ऐसे घसीटा, मानो वे अभी जवान लड़कियाँ हों, क्योंकि आसपास कोई युवा लड़की नहीं थी।

'तुम गुंडे, तुम गुंडे, तुम भूखे पशु से भी गये-बीते हो।' कुछ उन्हें गाली देते हुए चिल्ला रहे थे। 'तुम्हें शाप लगे, नाली के मलबे, तुम्हारे मुँह में कीड़े पड़ें।' ऐसा अन्य ने कोसा।

सौदामिनी ने अपना चेहरा अपनी साड़ी में छुपा लिया और चलना शुरू कर दिया। भूतोगली के पास उसने एक बूढ़ी राधेश्यामी को सड़क पर लेटे देखा।

गली की बत्ती की भद्दी रोशनी में उसने देखा, वह पूर्णत: नग्न थी। उसका एक हाथ अपने वक्षस्थल पर और दूसरा हाथ उसके गुप्तांग पर रखा हुआ था। अपने सम्मान को बचाने के प्रयास के रूप में उसने ऐसा किया- सौदामिनी ने अपने आप से बताया।

वह डर गयी थी। भेडिय़ों का वह झुंड शायद उस ओर आ जाए। अत: वह अँधेरे में भी पागल-सी भागने लगी।

उसने टूटी दीवार की दूसरी ओर से किसी को कहते सुना, 'आज सबेरे से उन्होंने नशीला पदार्थ तम्बाकू के पत्तों को भिगोकर पीसकर बारीक लुगदी बनाकर तैयार कर लिया था।...ऐसा लगता है उनका आक्रोश मुख्यत: उन विधवाओं के विरुद्ध है जो किसी आदमी के साथ विवाह बन्धन में बँधे बिना सम्मिलित प्रार्थना के नाम पर रह रही हैं।'

'क्या तुम्हें याद नहीं कि नरनारी रीति के अवसर पर पुराने जमाने में क्या होता था। विधवाएँ अपने चेहरों को अच्छी तरह ढँक लेती थीं।'

'तो भी लम्पट लोग उनमें से युवतियों को उनके पैरों को नंगा करके खोज लिया करते थे।' ऐसा दूसरे ने कहा।

दूसरे आदमी ने धर्म के नाम पर काम और हिंसा की प्रचंडता की निन्दा की।

सौदामिनी हताश थी। उसने महसूस किया कि समय भागा जा रहा है। किसी समय वे बदमाश उस पर काबू पा सकते हैं। अत: भागी और अधिक तेज भागी। अँधेरे में प्रत्येक कदम पर तेजी पाते हुए उसे यह सब विश्वास के परे दिखाई दे रहा था।

भाग 16

रंगनाथ प्रभु के रथोत्सव का समय निकट था। पवित्र कदम्ब, जिसके नीचे कृष्ण भगवान ने अपनी पवित्र लीला की थी, उससे ओस की बूँदें टपकने लगीं। भगवान के बगीचे में चमेली अत्यधिक चमक-दमक के साथ फूल उठी थी।

रथ वाले हॉल का दरवाजा कई दिन पहले खोल दिया गया था। बढ़ई उसे ठीक करने में जुटे हुए थे। तब जाकर रथ तैयार हो पाये। सहायक भी-प्रवेशक, ब्राह्मण, रसोइये, छत्र धारक, और मामूली-सा कर एकत्रित करने वाले और बाकी सब। पंडे ने नये तीर्थयात्री की खोज में उस स्थान पर बराबर आना-जाना शुरू कर दिया था। वे सब जगहों से आते थे। लाठूरिया हनुमान, अटिला चौकी, और मथुरा जंक्शन स्टेशन से भी।

मेला भी शुरू हो गया था। एक के बाद एक छोटी और बड़ी दुकानों का खुलना भी शुरू हो गया था मन्दिर के प्रांगण में फिर आदमी और टाँगों की इतनी भीड़ बढ़ गयी थी कि सडक़ों पर चलना भी करीब-करीब मुश्किल हो रहा था। खासकर गोपीनाथ बाजार में भीड़ ज्यादा घनी थी। मोरों के झुंड, जो कभी मन्दिर के प्रांगण में अपने पंखों की महानता को पर्याप्त मात्रा में फैलाया करते थे, अब बुद्धिमत्ता से राधाबाग को लौट गये और अर्जुन वृक्ष की छाया में अपनी अठखेली शुरू कर दी।

एक बहुत बड़ा रथ, चन्दन की लकड़ी से बना, अस्सी मन वजन का और उसके विशाल चक्र। उसको देखना भर कल्पना है। मानो वह कुबेर का लोकप्रसिद्ध चैत्र-रथ हो। तुम सोच सकते हो कि सड़क उसके भार से दब जाएगी पर वह प्रभु रंगनाथ का रथ है। वह रथों का रथ है। सबके द्वारा परम श्रद्धा से माना जाने वाला। अत: असंख्य लोग उसके समने जमा हो गये थे। वे सब जगहों से आये थे। दूर के और पास के। नन्दीग्राम, बरसाना, उत्तरकाशी और दूर के अयोध्या से भी बड़े झुंडों में तीर्थयात्री आ पहुँचे। मन्दिर प्रांगण ठसाठस भर गया था। गलियाँ और उपगलियाँ भी लोगों से पटी पड़ी थीं। लोग भगवान रघुनाथ के रथ की रस्सियों को खींचने की जीवन भर की अभिलाषा को पूरी करने में उत्साह से भरे थे।

फिर बारीक गणना के बाद मांगलिक खगोलीय क्षण की घोषणा की गयी, समय के उस बिन्दु पर 'भगवान रघुनाथ की जय हो' के जयघोष के साथ वह रथों का रथ बाहर लाया गया।

नगवली की रीति (जिसमें एक सेर चावल चक्र के नीचे अन्तहीन रेखा में रखा जाता है) शुरू हो चुकी थी। रथ सरका और उसकी असंख्य घंटियाँ पवित्र नदी की हिलोरें लेती लहरों की याद दिलाती बज उठीं। परियों और गन्धर्वों की लकड़ी की मूर्तियाँ हाड़मांस की लग रही थीं। हालाँकि पिछले दिन तक ये लकड़ी की आकृतियाँ अलग-थलग ऐसे पड़ी थीं, मानो जलोदर के सूजन से पीडि़त कोई बूढ़ी औरत हो। अब वे चमेली के फूलों की माला, नथ, कुंडल, चन्दन का लेप और रंगे गये माथे पर सिन्दूर के टीके से सजी चमक रही थीं।

तोप गरजने लगीं। विशाल रथ ने भगवान रंग की पवित्र विशाल मूर्ति के साथ धीरे-धीरे सरकना शुरू कर दिया। अर्जुन वृक्ष की मौसमी डालियों के समान घनी एवं खुरदरी रस्सियों को खींचने की इच्छा में लोग आगे लहरों की तरह बढऩे लगे। वहाँ लगभग भगदड़ मच गयी थी। सिपाही एक पंक्ति में खड़े थे और भीड़ को पीछे धकेल रहे थे। अन्यथा लोग पहियों के नीचे कुचल जाते।

रथ एक-एक इंच करके आगे बढऩे लगा। बीच-बीच में वह पहियों के आगे लकड़ी के बड़े-बड़े ठूँठ लगाकर खड़ा कर लिया जाता था। इससे खींचने वालों को साँस लेने का मौका मिल जाता था। पर वहाँ सैकड़ों-हजारों लोग जमा और एक दूसरे से स्पर्धा करने लगे थे रस्सियाँ खींचने के लिए। अत: किसी खास व्यक्ति के थके होने की वहाँ खोज नहीं हो सकती थी। लगता था कि प्रत्येक में रस्सी खींचने की अद्भुत शक्ति है। और तो और वे राधेश्यामी, बेचारी कमजोर लगती हैं, आज शक्ति से भर गयी थीं। सिपाही अब फालतू समझे जाते रहे। कुछ राधेश्यामी चमेली के फूल और पवित्र जल सिपाहियों के मुँह पर छिडक़ने लगीं। वह केवल हर्षोल्लास का प्रतीक था।

आगे पूरे हफ्ते भर भगवान रंगनाथ के घर तीर्थयात्रियों की भीड़ रही। अन्य अवसरों पर भी लोगों की ऐसी भीड़ देखी जा सकती है। उदाहरण के लिए, भगवान गरुड़ पर या चाँदी के शेषनाग पर सवार कराकर जुलूस में लाये जाते हैं, या जब वे पवित्र कदम्ब, जो भगवान की पवित्र लीला के जगजाहिर गवाह हैं, की पवित्र लकड़ी के बने आसन पर पूरे ब्रज में घुमाये जाते हैं। प्रस्तुत अवसर पर आश्चर्य की बात यह है कि रस्सी खींचने में लगीं आधा पेट खाने वाली इन राधेश्यामियों का बल और शक्ति का स्रोत क्या है यह पता नहीं चलता। धार्मिक समर्पण की भावना मात्र ही यह शक्ति प्रदान कर सकती है। फिर इसे शायद धर्म को आगे बढ़ाने वाली शक्ति कहा जा सकता है।

गोपीनाथ बाजार का क्षेत्र आज श्मशान-सा निर्जन था। क्योंकि आदमी और औरतें अपने घरों को बन्द कर रथयात्रा के महान दृश्य में शामिल होने या देखने चले गये थे। और तो और, बिहारी कुंज के पास कोने में तुलसी माला बेचने वाले आदमी ने भी आज अपनी दुकान बन्द कर दी थी और त्योहार में भाग लेने चला आया था।

लम्बे घंटों तक ठाकुर साहब सीढ़ी पर बैठे रहे। दो राधेश्यामी उन्हें अपने झोंपड़े के नीचे लायीं। आज पवित्र दिन उस बूढ़े आदमी की प्रार्थना को ठुकराने का दिल उनके पास नहीं था। उस बूढ़े अन्धे आदमी ने अपनी जंग खायी पेटी में हाथ डाले और एक जोड़ी जोधपुरी बाहर निकाली। एक समय यह उसका प्रिय पहनावा था। इस शुभ दिन पर राधेश्यामी ने उन्हें उसे पहनाने में मदद करने में हिचकिचाहट नहीं दिखायी।

'यह कोट तुम्हारे लिए ढीला है' साहब के पास से गुजरने वालों में से एक ने उनसे कहा, 'यह तुम पर भार-सा लग रहा है।'

'हाँ, पहले मेरी छाती पैंतालीस इंच की थी।' ठाकुर साहब ने उतने ही गर्व और उतनी ही पीड़ा में कहा-किन्तु फिर वे एक ठहाका लगा बैठे। जो उन्हें जानते थे, उन्होंने उन्हें इस तरह अपने हृदय को व्यक्त करते हुए हँसते कभी नहीं देखा था।

'साहब, आप जुलूस देखने निकले। पर आपको ले कौन जाएगा? आज हर एक रस्सी खींचने को उत्सुक है। और प्रत्येक आदमी, औरत इसके लिए चले गये हैं। वे एक दूसरे से होड़ कर रहे थे। तुम्हारे पास खड़े होने को कौन हैं?' एक पुराने परिचित ने पूछा।

बूढ़े आदमी ने जवाब नहीं दिया। पर उन्होंने संस्कृत के एक पद का पाठ किया। उसका सार था-चाहे जितनी बुढ़ापे की लकीरें दिखने लगीं, बाल सफेद हो जाएँ, और हाथ-पाँव (अंग) ढीले पड़ जाएँ फिर भी इच्छाएँ उतनी ही युवा रही आती हैं।

कुछ राधेश्यामी, जो पास ही खड़ी थीं, प्रस्तावित-सी दिखाई देने लगीं। ठाकुर साहब थोड़ा उत्साहित हुए। क्योंकि उन्होंने दूसरे पद को गुनगुनाया जिसका अर्थ है-जब एक ज्ञानी, जिसने अपना जीवन अच्छे तरीके से बिताया, गरीबी से दूर, भीख माँगने के लिए मजबूर कर दिया जाता है तब उसके जीवन और वाणी के बीच एक संघर्ष उठ खड़ा होता है कि पहले कौन बाहर निकले।

एक बूढ़ी राधेश्यामी को उन पर दया आयी और वह उनके प्रति सहानुभूति से भर उठी, 'आज तुम्हारी आँखें ठीक हो गयी होतीं, तो हृदय की सन्तुष्टि होने तक भगवान के सुबह के महान दृश्य का आनन्द उठाया होता!'

'कोई खेद नहीं...' ठाकुर साहब ने कहा, 'मेरे आँखों की कमी-पूर्ति कानों की शक्ति द्वारा हो गयी है। मैं चक्रों का मधुर सरसराना सुन सकता हूँ। भगवान मुरलीधर के पवित्र खिलखिलाने की लहरों का आनन्द ले सकता हूँ।'

फिर अचानक उन्होंने राधेश्यामी की ओर उँगली उठाकर गर्जना की, 'मैंने आज मथुरा के स्वामी के पद शब्द सुने थे। तुम विश्वास करने के सिवा कुछ नहीं कर सकतीं। मैंने निश्चित रूप से उन्हें सुने। अचानक ही वह उदास आदमी आनन्द और उत्साह के पागलपन के अतिरेक में आ गया।

राधेश्यामी बूढ़े व्यक्ति से अब और नहीं बतियाना चाहती थीं। वे उत्सव के साथ बढ़ना चाहती थीं।

अब वह सीमा-चौकी तक पहुँच गया होगा। एक ने कहा, 'निश्चित है वह वहाँ पहुँच गया होगा। चलो हम वहाँ चलें।' दूसरी ने कहा। फिर बूढ़े आदमी से कहा, 'बूढ़े महाशय, यदि भीड़ के द्वारा तुम कुचला जाना नहीं चाहते हो, तो अच्छा है कि तुम इस जगह को छोड़ दो। हम तुम्हें ले जाएँगे और वहाँ के कदम्ब के वृक्ष के नीचे बैठा देंगे। पर हम यहाँ तुम्हारी रक्षा करते हुए नहीं रहेंगे। वहाँ तुम ठूँठों की तड़ाक से मारने की आवाज सुन नहीं सकते। मतलब है जुलूस थोड़ी देर के लिए रुक गया है और हम शहनाई का मधुर प्रेम संगीत भी सुन रहे हैं।'

'नहीं मेरी बेटियो, मुझे कहीं भी ले जाने की आवश्यकता नहीं है। मुझे यहीं छोड़ दो। और तुम जहाँ जाना चाहती हो जाओ। मेरा अपना आदमी मुझे मदद करने को है।'

'कौन तुम्हें मदद करने आ रहा है? क्या भगवान मुरलीधर स्वयं?' ऐसा कहते हुए वे सब कर्कश हँसी में फूट पड़ीं।

समय गुजरता जा रहा था। राधेश्यामी ने सोचा और गोपीनाथ बाजार को पार करते हुए तेज भागीं। घोड़ों के हौज में सब्जी व्यापारी आधा बोरी सड़े आलू फेंक आया। यदि कोई दूसरा दिन होता, तो राधेश्यामी का झुंड एक दूसरे से गुत्थमगुत्था होकर उस पर टूट पड़ता। आज ऐसा नहीं था। हर एक के लिए समय बढ़ता-सा लग रहा था।

बहुत-से पोस्टर, मन्दिर के कदाचार को जैसा कि पहले बाँकेबिहारी के मन्दिर में भ्रष्टाचार के बारे में था, दर्शाते हुए बाँटे जा रहे थे। पर लगता था शायद ही कोई उसमें रुचि ले रहा हो। किसी के पास उसकी एक झलक देखने तक का समय नहीं था। समय की कीमत थी और समय कम था।

बूढ़े आदमी ने अपनी लाठी को कसकर पकड़ा और उत्सुकता से शाम के उस युवा मित्र की प्रतीक्षा करने लगा। उसने प्रतीक्षा की और प्रतीक्षा की, किन्तु वह युवा लड़का नहीं आया। इसी बीच वह शोर शराबा, हल्ला-गुल्ला दूर चला गया, और तो और महान चक्रों का सरसराना करीब-करीब अश्रव्य हो गया।

ठाकुर साहब परेशान हो गये। उनके आस-पास का स्थान नीरव हो गया। निधुवन के ब्राह्मण के लड़के ने, जिसका काम पद और प्रार्थना का पाठ करते हुए, झाँझ बजाते हुए सारी जगहों पर जाना जाता है, अपना चक्कर पूरा कर लिया और बूढ़े आदमी के रास्ते को काटा।

'शायद वह भूल गया हो। सबसे परे वह एक छोटा लड़का है। मुझे अचरज नहीं करना चाहिए।' ठाकुर साहब ने अपने आप से कहा, 'शायद वह अपने वचन को याद नहीं रख पाता है।'

फिर उनका दिमाग भूतकाल की अँधेरी में सताने लगा। कोई इस बात को इनकार नहीं कर सकता कि जब-तब समय भी कठोर होता है। षड्यन्त्र रचना सिद्ध होता है। आदमी का परिवेश उसे क्रूर एवं तटस्थ बना देता है। क्या ऐसा नहीं है। मृणालिनी राधेश्यामियों-सी कठोर नहीं बन गयी होती, वह भी जीवन में इतनी जल्दी अन्तिम संस्कारों के प्रति। उसे अपने आपको इतना कंजूस नहीं दिखाना चाहिए था। पर सही रूप से इसे तुम क्रूरता कहोगे। फिर वह जितनी जल्दी भूत में धँसता है, उतनी ही जल्दी तल पर वापस तैरने लगता है। वह अपनी स्थिति से वाकिफ है। दूरी में रथ की बजती घंटियाँ उसके कानों तक पहुँचीं। उस मधुर झनझनाहट ने, लगता है उसके कानों में कुछ कहा, 'यदि दूसरों की भलाई करने का कोई मौका तुम तक आये उसके आखिरी क्षण तक का उपयोग कर लो।' इसके लिए किसी आवाज ने, कहीं से तैरती आयी कोई सुगन्ध ने उसके कानों में बहुमूल्य शब्द फुसफुसाये हैं। आजकल वे शब्दों के रत्न सुनहरी फ्रेम में मढ़ने योग्य हैं।

एक बार और रथ की नाकेबन्दी सुनी जा सकती थी। सारी घंटियाँ साथ-साथ धीरे-धीरे बजीं। बूढ़ा आदमी और अधिक अधीर हो गया। किन्तु ठीक उसी समय उन्होंने अपने पास किसी के कदम की आवाज सुनी, फिर उन्होंने अपनी लाठी कसकर दोनों हाथों से पकड़ ली, उत्सुकता भरी अपेक्षा में। लड़का आ पहुँचा, 'कृपया खड़े हो जाइए और मेरे साथ आइए।' लड़के ने बूढ़े आदमी की राहत के लिए कहा।

'तब तुम यहाँ हो। मुझे पक्का मालूम था कि तुम आओगे।' उसने लड़के को लाठी का दूसरा सिरा पकडऩे को कहा, एक को स्वयं ने पकड़ा और उसके पीछे चलने लगा।

वे गोपीनाथ बाजार में चलने लगे, अब बिल्कुल चुपचाप। सचमुच वह बड़ा ही प्यारा दृश्य था। बूढ़ा और युवा साथ-साथ एक दूसरे को रास्ता बताते हुए।

वह महान रथ तब पुलिस की सीमा-चौकी तक पहुँच चुका था। उसके बड़े चक्र, लगता था लोगों के समुद्र में डुबकी लगा गये।

'तुम काँप रहे हो, महाशय। मुझे कसकर पकड़ लो। क्या तुम रथ के किनारे तक जाओगे या यहाँ पर खड़े रहोगे? इस टीले पर?'

ठाकुर साहब ने चिल्लपों मचायी और कहा, 'मुझे उसके बहुत करीब ले जाओ ताकि मैं रथ के चन्दन की लकड़ी की बनावट स्पर्श से अनुभव कर सकूँ।'

लड़का कुछ देर के लिए बिल्कुल शान्त था। उसकी दुविधा को सूँघकर बूढ़े आदमी ने कहा, 'लगता है, मानवता के विशाल समुद्र में मुझे ले जाने में हिचक रहे हो। पर अब प्रतीक्षा मत करो, मेरे बेटे। जब सीमा चौकी के पास मोड़ पर रथ घूमेगा और आगे बढ़ेगा बगीचे की ओर, वे कहते हैं तब और बड़ा जमाव हो जाएगा।'

वह बूढ़ा आदमी और उसका युवा मार्गदर्शक आगे बढ़े। फिर अचानक पहले से लगता है उन्होंने अपने शरीर में अत्यधिक शक्ति पा ली, जैसे राधेश्यामी रहस्यपूर्ण ढंग से अपनी हड्डियों के ढाँचे में एक प्रकार की शक्ति प्राप्त कर लेती हैं। ठाकुर साहब भी लड़के की असहाय मिन्नतों की ओर ध्यान दिये बिना धक्कम-धक्का करने वाली भीड़ में से अपना रास्ता बनाने लगे। साथ ही लड़के को हाथ से खींचते हुए कई बार वे उस रेला-पेली में गिर-गिर पड़े, क्योंकि उनके पास उमड़ती भीड़ को झेलने की शक्ति नहीं थी। वह पुरानी जोधपुरी भी चिथड़ों में गिरने लगी। किन्तु उन्होंने उसे कसकर पकड़ लिया, जैसे कोई माँ अपनी छाती पर अपने बच्चे को पकड़ रखती है। उन्होंने चलना और चलना चालू रखा और रथ के बहुत करीब चले गये। वह जलती धूप को और उस जगह पर फैली चमेली की सुगन्ध को सूँघने लगे।

पवित्र रथ को छूना, उसके सामने सिर रखना और उसकी एक झलक प्राप्त कर लेना महान योग्यता की बात मानी जाती थी। ऐसा केवल कुछेक भाग्यशाली मात्र ही कर सकते थे, क्योंकि झुंड में कई थे। यह तो अनुपम अवसर था। अत: वे आगे धँस चले और जितना सम्भव हो उतना करीब उस पवित्र रथ के पास पहुँच गये।

ठाकुर साहब ने भी दृष्टि के अभाव एवं कमजोर शरीर के साथ न रह कर वही किया।

फिर एक बार रथ के चक्र ने घूमना शुरू कर दिया। एक शोर उठा। लोगों का समुद्र आगे धँसा। वह बूढ़ा आदमी और उसका युवा मार्गदर्शक डरने लगे कि दूसरे ही क्षण वह उत्तेजित भीड़ उन्हें कुचल न दे।

वह लड़का ठाकुर साहब को और आगे न बढ़ने के लिए और लौट चलने के लिए मना रहा था, क्योंकि एक और बहुत बड़ी उत्तेजित भीड़ की लहर उसकी ओर दौडऩे को थी।

किन्तु उस लड़के को यह मुश्किल से ही मालूम हुआ कि यह कैसे हुआ। वह बूढ़ा आदमी तीर के समान रथ की ओर भागा और देखने वाले उसके इशारे को समझकर उसे पकड़ सकें, इससे पहले ही वह पूरा का पूरा उस चक्के के नीचे कूद गया और दब गया।

जब उसका शरीर बाहर खींचा गया, तब भी वह साँस ले रहा था। पर एक क्षण के लिए, कुछ पल के लिए, फिर सब खत्म हो गया। उसका शरीर रथ से फेंकी गयी चमेली की मालाओं से ढँक गया। क्षण में उस मरते व्यक्ति ने उन्हें अपने सिर पर रखने की कमजोर-सी कोशिश की। इस पवित्र दृश्य ने हजारों हृदयों को दुख में डुबो दिया। उस सामान्य शोर में भी कुछ लोगों को उस पर दुख प्रकट करते सुना जा सकता था। ऐसा भी देखा गया, कुछ लोगों ने उसके होठों पर, जैसी कि रीति है, पानी की कुछ बूँदें डाल दीं।

वे प्रशंसा करने लगे कि वह पवित्र आत्मा है, क्योंकि वह रंगनाथ के रथ के चक्र से लिपट गयी। फिर उन्होंने शरीर को एक तरफ हटा दिया और वे बड़े चक्र आगे की ओर घूमने लगे।

रथ अपनी यात्रा पर बढ़ता रहा, क्योंकि बर्बाद करने का समय नहीं था। समय गुजरता जा रहा था। रथ को अपना रास्ता पूरा करना ही था। एक क्षण को बर्बाद करना भी देश और प्रजा के लिए आफत (संकट), कंगाली, बीमारी और मृत्यु को बुलाना था।

अत: ठाकुर साहब के रक्त के धब्बों को लेकर विशाल चक्के घूमते चले गये।

भाग 17

अनुपमा की दशा भी गिरती जा रही थी। रायचौधुरी को लें, तो वे बहुत ही दुखी थे। उनकी सारी जमा पूँजी खर्च हो गयी, किन्तु अपने को भूलने वाले इस व्यक्ति को इसका ध्यान शायद ही रहा हो। उनकी पत्नी थीं, जो यह सब देख चुकी थीं। किन्तु जब से वह बीमार पड़ीं इनका हिसाब रखा ही नहीं गया।

वे अब पहले के समान अपने मरीजों की मदद करने को तैयार नहीं थे। एक दिन जब वे अपने अस्पताल में बैठे थे, किसी ने उन्हें बताया कि अयोध्या गली के पीछे वाली गली में एक व्यक्ति अपनी अन्तिम साँस ले रहा है, वह गले में एक चमेली की माला के अतिरिक्त पूर्ण रूप से नग्न है। पर डॉक्टर ने कोई उत्सुकता नहीं दिखायी। यदि ऐसा पहले होता, तो वे उस मरीज के पास दौड़े चले जाते और उसे अपने अस्पताल में अपनी देखभाल में ले आते।

फिर भी किसी दूसरे ने बताया कि वह रोगी वनखंडी के भगवान महादेवजी के मन्दिर के फाटक पर पड़ा हुआ है। रोगी की देखभाल करने वाला कोई नहीं है। कई दिनों से पानी की एक बूँद भी उसे नहीं दी गयी है। सबसे बुरी बात यह कि जिस पेड़ के नीचे वह आदमी पड़ा हुआ है, उसी पर एक कुरूप गिद्ध अपने अभिसार के लिए पंख तोडक़र जम गया है। यह मात्र दुख और डरावनी ही नहीं, बल्कि शर्म की बात है। सम्पूर्ण मानवता के लिए शर्म की बात है। रायचौधुरी जानते थे कि ऐसा ही है, तो भी उन्होंने कुछ नहीं किया।

राधेश्यामी ने, जो अनुपमा की सेवा में नियत थी, सौदामिनी का अपनी माँ के प्रति उपेक्षा के लिए विरोध किया। उसने कहा, 'तुम अपनी माँ के पास क्यों नहीं जाती? तुम उनके लिए स्नेहभरी विकलता क्यों नहीं दिखाती? वह निश्चित रूप से कुछ और दिन उन्हें जिलाये रख सकता है। यह तुम्हारी शक्ति में है कि जीवन की कुछ मोहलत उन्हें तुम दो। तुम्हें बस इतना ही करना है कि जैसा वह चाहती हैं वैसा तुम उनके साथ रहकर व्यवहार करो। सचमुच यह बहुत अच्छा काम करना होगा। मेरी बात को तुम समझ रही हो न?'

जब वह कह रही थी, उस बूढ़ी औरत का चेहरा घृणा के कारण विकृत हो गया जो उसने सौदामिनी के प्रति व्यक्त किया, और सौदामिनी थी कि बिना एक शब्द कहे सुन रही थी। यद्यपि उसकी कड़ी फटकार को झेलना असम्भव-सा प्रतीत होने लगा, किन्तु उसने अपने पर काबू रखा और कुछ नहीं कहा।

उस औरत ने जोर दिया, 'कुछ दिन और... फिर पृथ्वी पर कोई शक्ति नहीं है जो तुम्हारी माँ को पकड़ कर रख सके। फिर जहाँ चाहो जाओ। फिर शादी करो ईसाई से, मुसलमान से, सिख से, पंजाबी से, जिसे तुम चुनो। पर अभी उसे थोड़ी राहत दो। उसे शान्ति से मरने दो।'

डॉक्टर रायचौधुरी, लगता था, बुरी तरह दुखी थे। पिछले कई दिनों से वे घिसटती-सी चाल के साथ चल रहे थे। आँखें चारों ओर की वस्तुओं पर नहीं, बल्कि अपने पैरों के पंजों पर टिका रखी थीं। हमेशा से ही कम बोलने वाले, वे अब किसी को सामने से देखने में भी हिचकिचाते दिखाई दे रहे थे।

सौदामिनी को लगा, वह स्थिति और अधिक बर्दाश्त नहीं कर सकती है। समय पंख वाले तीर-सा उड़ा जा रहा था। यह वही समय था, जब उसके पति का जिगरी दोस्त ब्रज में आ रहा था। उन्हें मिले बिना कई दिन गुजर गये। सम्भवत: वह आया और निराश लौट गया। उसे देखे बिना। अब वह और अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकती थी। उन्हें मिलना ही पड़ेगा। समय गुजरता जा रहा है। ठीक पंखदार तीर के समान उसकी गति बढ़ती ही जा रही थी।

सबेरे से ही आकाश स्याह था। अब उसने एक भूरे घोसले-सा रंग धारण कर लिया था। दोपहर को भारी वर्षा हुई, यद्यपि असामयिक थी। मोरनी, जो अपने बच्चे के साथ छत पर खेल रही थी शरण के लिए, उसी के कमरे में छुप गयी थी। मादा पक्षी के थोड़े गीले पंख, थोड़े पीले पंख दिखाई दे रहे थे। वह छोटा बच्चा भूरा-सा बत्तख के बच्चे-सा दिखाई दे रहा था।

वर्षा और पीले पड़े आकाश ने सौदामिनी के दिमाग के भयंकर एकान्त को और अधिक बढ़ा दिया। उसने दो हजार राधेश्यामियों में से प्रत्येक से पूछते पाया कि उस जैसी स्थिति का उन्होंने कभी अनुभव किया है?

वर्षा के थमने के बाद भी आकाश बादलों से ढँक गया था। क्या उसे एक और प्रयत्न करना चाहिए?-उसने अपने आपसे पूछा। बहुतों ने पहले भी परिणाम पाये हैं। उसे प्रेरित करने उसके सामने कुछ और उदाहरण थे। शक्तिशाली निर्णयों के आधार पर बड़ी-बड़ी कठिनाइयों पर विजय पाने वाले कुछ उदाहरण हैं। ये कहानियाँ सोने के फ्रेम में मढऩे योग्य हैं। कई आत्मत्याग की कहानियाँ भी हैं, जो ब्रज के लोगों के लिए शाश्वत कथाएँ बन कर आ गयी हैं।

मोर का वह छोटा बच्चा चहका। उसी क्षण वह मोरनी भीगी-सी दिखाई दे रही थी।

साधारणत: ऐसा विश्वास किया जाता है कि समय और ईमानदारी से किया गया प्रयत्न अनेक परिवर्तन ला सकता है। एक व्यक्ति की अहमियत अक्सर उसकी दशा बदल देती है। एक बात जब कभी चिन्तन-मनन में भिन्न प्रकाश में दृष्टिगोचर होती है। क्या वह पापी है?- सौदामिनी अचरज करने लगी। क्या तुम उसे पाप कहतीं हो जिसने इन चिन्ताओं को बेकार दृष्टिकोण मानकर झाड़ दिया? कभी भी पाप का कुतर्कपूर्ण प्रश्न और ईश्वरीय अनुकम्पा उसके दिमाग को कष्ट नहीं पहुँचा सके। वह पतित औरतों में समझी जाती थी। जीवन में सब कुछ खोने के बाद भी वह सब कुछ नष्ट कर देने वाले प्यार में अपने आपको समर्पित कर देना चाहती थी। उसका प्यार संघर्ष का जीता-जागता उदाहरण था। महान आत्मबोध का प्रतीक था और यह प्रेम जीवन और मृत्यु के साथ उलझ गया था। क्या उसके सिवा किसी अन्य ने ब्रज की इस पवित्र भूमि पर रहते हुए अपने स्वर्गीय पति की प्रतिमूर्ति को अपने ही दिमाग में काला करने की कोशिश की? एक बार वह एक प्रौढ़ राधेश्यामी से मिली थी, जिसने गोपेश्वर की पत्थर की मूर्ति पर दूध उँड़ेलने और बेल के वृक्ष के चारों ओर घूमने का अपना दैनिक नियम पूरा किया था। वह अन्य कई अवसरों पर भी उसे मिली थी भजनाश्रम में, भिक्षागृह पर और यमुना में स्नान करते समय। एक दिन उसने विश्वास के साथ उससे पूछा, 'ऐसा आसानी से देखा जा सकता है कि तुम्हारे दिमाग में तुम्हारे पति की याद पूर्णत: मिट नहीं पायी। पर स्पष्टत: बताओ तुमने कभी यह प्रयत्न नहीं किया उसे इतने सालों के बाद भी भुलाने का?'

वह औरत अपने सामने इस प्रकार का प्रश्न और वह भी सौदामिनी के द्वारा पूछे जाने से विस्मित-सा अनुभव करने लगी।

'जब कभी वह याद धीमी पड़ने का डर हुआ, मैंने फिर से उसे ताजी नयी बना दी।'

'फिर तुम्हारी इच्छाओं का क्या...'

उस औरत ने सीधे सौदामिनी के चेहरे को देखा और उसकी आँखें नम हो गयीं। सौदामिनी ने उसके दोनों हाथ अपने हाथों में लिये और कहा, 'सच बताओ, क्या तुम उस पुराने प्यार को विस्मृति के गर्त से खोदकर बाहर निकालने-सा अनुभव करती हो?'

टकटकी लगाये आश्चर्य में डूबकर उस औरत ने सौदामिनी की ओर देखा और दूसरे ही क्षण सौदामिनी के कन्धों पर, असहायता से नदी के किनारे की मुलायम मिट्टी में सरकती-सी, लुढक़ गयी।

सौदामिनी भी बहुत अधिक दुख का अनुभव कर रही थी। उसकी आँखें आँसुओं से भर आयीं। पर उसने अपनी भावनाओं को दबा लिया और उस औरत से पूछा, 'उस अधिक खालीपन से अपने को बचाने के लिए तुम क्या करोगी?' इस पर उस औरत ने उत्तर दिया, 'बड़े निष्कपट भाव से, कुछ दिन तक चमेली के फूलों से भरे बगीचे में मैं घूमती रही। यह काफी लम्बे समय के पहले की बात है जैसा कि तुम जानती हो। तब मेरे बालों के गुच्छे लम्बे और चमकीले थे। चमेली के बगीचे में खुद की परीक्षा के लिए घूमती रही। अपने आपके साथ आमना-सामना करते हुए खड़ा होना काफी कठिन और क्रूर है। फिर भी मैं बगीचे में घूमा करती थी। मोरनियों को रसभरी खिलाने में आनन्द पाती थी। एक बार एक विद्यार्थी ने मुझे मुट्ठी भर रसभरी देने की दृढ़ता दिखायी। मेरे माथे पर आये लम्बे बालों को अपनी अँगुलियों से झटकते हुए उसने लम्बे समय तक मेरे पैरों को घूरा। किन्तु मैंने उसे हतोत्साहित किया। क्योंकि मैं अपने आपका परीक्षण कराना चाहती थी। अत: बगीचे में एक सिरे से दूसरे और दूसरे से पहले तक घूमती रही। फिर एक बार एक दूसरे विद्यार्थी ने भी कुछ रसभरी मुझे पेश कीं और पहले के समान मेरे पैरों पर ध्यान केन्द्रित किया और मेरे बालों के गुच्छों पर भी। फिर भी उसी तरह मैं बगीचे में घूमती रही। तब से काफी लम्बा समय बीत गया और मेरे सुन्दर पैर भी अब दरकने लगे और खुरदरे हो गये। भजनाश्रम में मेरा नाम है और धाक भी। मेरी दोस्त, मेरा विश्वास करो।' कहते हुए वह सौदामिनी के करीब आ गयी और कानों में फुसफुसायी, 'प्रार्थना के समय जब मैं इस थैली में माला जपती हूँ, मैं चमेली की पंखुड़ियों की नरमी महसूस करती हूँ। बचपन में वे 'अच्छी लड़की है' कहकर मेरी प्रशंसा करते थे। अब भी वे मुझे सम्मान देते हैं, किन्तु यहाँ देखो। यह मेरी जपमाला की थैली है। तो भी जब मैं माला जपते अपना इसमें हाथ डालती हूँ लगता है, मैं चमेली के फूलों की नरमी का आनन्द उठाती हूँ।'

सौदामिनी और अधिक प्रश्न उस औरत पर थोपना नहीं चाहती थी। वह बढ़ गयी। वह काफी डरी-सी हुई थी।

वहाँ की गर्जना के बावजूद सौदामिनी ऊपर के अपने कमरे में अपनी माँ को बुरी तरह खाँसते हुए सुन सकती थी। उसने उसे काफी पीड़ा पहुँचायी।

क्या उसे अपनी माँ के पास जाना चाहिए और बेटी के प्यार एवं वफादारी से उसके सिर पर अपना हाथ रखना चाहिए? यह महिला उसकी माँ है? अपनी प्रिय पुत्री के आराम के लिए उसने जीवन भर ऐसे त्याग किये हैं और अब अपने अन्तिम क्षणों में है। क्या यही प्रतिफल है?

फिर तभी सौदामिनी ने किसी को दरवाजे पर दस्तक देते सुना। वह उठी और दरवाजा खोल दिया, और अपने पिता को अपने कमरे के सामने खड़ा पाकर वह आश्चर्य से भर गयी। वे तुरन्त उसके कमरे में आये और उसका आकलन करना शुरू किया। उन्होंने कहा, 'तुम्हारा कमरा, पूरी तरह लम्बे समय से यूँ ही पड़ा है। मैं मुश्किल से ही तुम्हारे आराम की देखभाल कर पाया हूँ। दीवार के ये छेद स्पष्टत: क्या तुमने देखा नहीं?'

कम शब्द बोलने वाला वह व्यक्ति, उसके पिता अचानक बहुत अधिक भावुक हो गये। बेटी आश्चर्यचकित हो गयी। 'एक मोटा पर्दा यहाँ एकान्त के लिए आवश्यक है...' पिता ने कहा, 'इस जगह के लोग अपने ही कुएँ से पानी भरते हैं।' फिर वे खिड़की से, जहाँ वे कुछ समय से खड़े थे हटे और एक बेंच को अपनी ओर खींचा और बेटी के बाजू में बैठ गये।

सौदामिनी की परख रखने वाली आँखों से यह बात बच नहीं पायी कि बहुत कम समय में ही उसके पिता बहुत कमजोर हो गये हैं। उनकी पीठ धनुष-सी झुक गयी है। उनका मुरझाया-सा चेहरा और झुर्रीदार त्वचा दिखाई दे रहे थे। सौदामिनी ने अपने आपको कई दिनों से अपने पिता की देखभाल न करने के लिए दोषी माना।

उसे अब अधिक देर तक अपने पिता को देखना बर्दाश्त नहीं हुआ। उसकी आँखें नम हो गयीं।

'मैंने तुम्हारी सलाह के बिना एक चीज की,' उसके पिता ने कहा।

सौदामिनी को लगा कि यह विश्वास करना कि जो कुछ उसने सुना वह सच है मुश्किल है।

'तुम सचमुच आश्चर्यचकित होगी। क्या तुम देखती नहीं हो कि समय पंख वाले तीर के समान कैसे भाग रहा है। क्या तुमने उनकी गिनती की, जो बहुत कम समय में दृश्य से गायब हो गये? किसे मालूम कि हमारे लिए भी अन्तिम घड़ी ज्यादा दूर न हो! और जब यह समय आता है चोरी से...अच्छा, अब हम इन चीजों को यहीं छोड़ें।' पिता कुछ समय के लिए मौन रह गये।

अच्छा यह व्यक्ति उसके पिता हैं। सौदामिनी अपने विचारों में पीड़ा से भर गयी। उसके महान पिता, जिनकी सहिष्णुता, बुद्धिमत्ता और आत्मविश्वास उदाहरण के योग्य थे। ऐसा आदमी, जिसने उल्लेखनीय जीवन जिया, अपनी इमानदारी और पवित्रता के साथ। फिर उन्होंने कहा, 'मेरे इस हाथ की ओर देखो। कुछ समय से मुझे लगता है कि वह सुन्न और असंवेदनशील हो गया है। मुझे भय है कि बहुत जल्द ही मुझे उस गाय के समान, जो चलने और अपना पोषण करने में असमर्थ हो जाती है, असहाय जीवन जीना पड़ेगा।'

सौदामिनी ने अपना सिर उठाया। उसने अपने पिता की आँखों की कोरों के नीचे एक काला धब्बा देखा। उसे चन्द्रभानु राकेश के उसी प्रकार के धब्बे का भी इसके पहले से ध्यान था। यह विफलता से जन्य निशान मोहभंग, दुखद वियोग का संकेत है।

फिर पिता ने बोलना शुरू किया, 'मैंने तुम्हारे उस दोस्त को पत्र लिख दिया है, इस खास समय पर उसका यहाँ आना जरूरी है।'

फिर वे सौदामिनी के करीब सरके और अपनी खुरदुरी हथेली से उसके बालों को बड़ी मृदुता से सहलाना शुरू किया। वे चालू रहे,' अब वास्तविकता से सामना करने का समय है। क्या तुम नहीं सोचती, समय ने यहाँ जरूरी रूप से बुलाया है। वह स्वयं आ गया है। अत: उठो और तैयार हो जाओ।'

क्या वह सचमुच में अपने माता-पिता के प्रति अकृतज्ञ रही थी? क्या उसने कोई ऐसा काम किया जो उसके माता-पिता नापसन्द करते थे? वह अपने बचपन के बीते हुए दिनों को याद करने लगी। उसने हमेशा अन्य को पीड़ा पहुँचाने और क्रूरता भरे इरादों से अपना बचाव किया। उसकी माँ ने उसे एक बार बताया कि वह उनकी आँखों का तारा है। मालूम है उन्होंने क्या कहा था?

अपनी माँ की आँखों के तारे के रूप में ही सौदामिनी ने बचपन और युवावस्था के लम्बे वर्ष बिताये थे। सुब्रतो, उसके पति, जिनका अब निधन हो चुका है, से मिलने के पहले उसके कई प्रेमी थे। किन्तु उसने किसी के सामने अपने बर्फ-से गोरे वक्षस्थल को अपने ब्लाउज के बटन खोलकर नहीं दिखाया था।

तब यदि वह सद्गुणी है, तो क्यों कर ऐसा हुआ। क्योंकि वह अपनी माँ की आँखों का तारा थी। नहीं, निश्चित रूप से ऐसा नहीं है। वह पेसोपेश में पड़ गयी।

आकाश बादलों से घिर आया था। मोरनी अपने बच्चों के साथ बाहर उड़ गयी। सौदामिनी अत्यधिक एकान्तता में स्तब्ध बैठी थी।

समय उड़ा जा रहा था और तेज उड़ा जा रहा था-सौदामिनी ने अपने आपको याद दिलाया।

ठंड आ गयी। शामें काफी ठंडी हो गयीं। राधेश्यामियों ने सूजे पैरों के साथ रायचौधुरी के अस्पताल में जमा होना शुरू कर दिया।

सौदामिनी कड़ुवाहट से भरी थी कि बातें वैसी नहीं होतीं जैसी उन्हें होनी चाहिए। उसके प्रेमी के आ पहुँचने का समय था। प्रत्येक नाव, जो मथुरा से आती थी और केसीघाट में रुकती थी, सौदामिनी उन्हें पास से देख रही थी। नाव की लाइटों की चमक और चप्पू की धम-धम की आवाज उसे अपेक्षा से अधिक आतुर बना रही थी। अपनी उत्तेजना के लिए वह स्वयं अपने आपको दोष दे रही थी। उसे विश्वास हो गया कि उसकी कोमल भावनाएँ बहुत पहले सूख गयी हैं। अब उसने महसूस किया कि उसका यह विचार गलत है।

उसका ईसाई प्रेमी, जिसने उसे जीवन के नये मोड़ देने का पक्का विश्वास दिलाया था, लगता है उसके पिता के पत्र की प्रतीक्षा कर रहा था। उसी दिन जब विदेशी ईसाई यात्री समूह को किसी व्यस्त मन्दिर में प्रवेश की अनुमति से इनकार करने पर एक संक्षिप्त शोरगुल की घटना घटी, उसी दिन केसीघाट पर एक नाव आ खड़ी हुई। यह मथुरा के अकू्रर घाट से रवाना हुई थी। सौदामिनी का ईसाई प्रेमी उसी नाव से आ पहुँचा।

वह कृष्ण पक्ष का आखिरी दिन था। रात काफी गहरी और भारी थी। फिर भी काफी रात तक वह डॉक्टर अपने मरीजों को, जिनमें से अधिकांश सूजे पाँव झेल रहे थे, देख रहा था। फिर उन्होंने अपने हाथ-पैर धोये और कुएँ से पानी खींचा, ड्यूटी पर नियुक्त चौकीदार को प्रांगण की चाभी सौंपी, फिर सेवा निवृत्त हुए। सौदामिनी उनसे काफी पहले निवृत्त हो चुकी थी और अन्य दिनों से बिल्कुल अलग गहरी नींद में जल्दी से सो गयी।

फिर अचानक दरवाजे पर दस्तक पड़ी। वह चौंककर जाग उठी। उसका पहला विचार था कि और अधिक मरीज अस्पताल में आ रहे हैं-सूजे पाँवों के साथ राधेश्यामियाँ। वे डॉक्टर को आधी रात को भी कैसे तंग करती हैं। फिर भी उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता, क्योंकि दर्द इतना है कि बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। और तो और, वे औरतें आपस में पशुशाला में पड़े हुए सड़े आलू के लिए रात बीतते ही लड़ पड़ती हैं और गीली ठंडी सुबह अपनी-अपनी माँदों में दुबक जाती हैं। कितना भद्दा-सा दृश्य!

सौदामिनी ने दरवाजा खोला और अपने पिता को हाथ में लैम्प लिये नंगे पाँव बरामदे में खड़े पाकर वह आश्चर्यचकित रह गयी। पिता एक शब्द बोलें, इससे पहले उसने कहा, 'मुझे मालूम है कि राधेश्यामियों के लिए तुम्हें यह कमरा चाहिए। अच्छी बात है। मैं अभी इसे खाली किये देती हूँ। मुझे अपने बिस्तर को ऊपर ले जाने दो।

पिता ने लैम्प की चाभी (बत्ती) घुमायी ताकि वह अच्छी तरह जल सके।

'नहीं, तुम गलत समझ रही हो। मैं तुम्हारा कमरा नहीं चाहता। कोई और बात है। तुम्हारा दोस्त आ चुका है। इस समय वह घाट के पास वैष्णव पट्टी पर प्रतीक्षा कर रहा है। यह अजीब समय है। पर कोई चारा नहीं। अनुपमा सो रही है। वह सबेरे ही उठेगी। अब तैयार हो जाओ। अपने को अच्छी तरह ओढ़नी से सुरक्षित कर लो, क्योंकि बाहर काफी सर्दी है।'

किन्तु वह हिचकिचायी, 'मुझे मालूम है कि मुझे उससे मिलना है, किन्तु...।'

'अपने सिर को पल्लू से अच्छी तरह ढँक लो और मेरे पीछे चलो।' पिता ने कहा।

जैसे ही उसने अपने आपको अच्छी तरह ढाँका, उसने अपने आपसे ही फुसफुसाकर कहा, 'तुमने मुझे अच्छी तरह समझा है। यह वह तरीका है जब कोई व्यक्ति अपने आपको परख सकता है।'

फिर दोनों बाहर आ गये। आकाश बादलों से ढँका था। असामयिक शीत की रिमझिम फिर से शुरू होने को थी।

उन्होंने कुछ राधेश्यामियों को रास्ते के किनारे बैठी हुई, अपने सिरों को स्कार्फ से ढँके हुए देखा। वे शहनाई के मधुर सुरों को सुन रही थीं, जो रंगनाथ स्वामी के मन्दिर से तैरते आ रहे थे। लालटेन की रोशनी में उन्होंने दो छायादार आकृतियों को उनके रास्ते को काटते देखा, पर कोई भी यह जानने को उत्सुक नहीं था कि वे कौन हैं। उन्होंने अपने सिर तक नहीं उठाये। वे सब आध्यात्मिक आनन्द, जो मृदु और तैरते सुरों ने प्रेषित किया, में खो गये।

सौदामिनी और उसके पिता किनारे पर पहुँचे और किनारे पर लंगर लगी नाव को ढूँढ़ निकाला। वह हवा में झूम रही थी। नाव की लाइट हल्के-से चमक रही थी। कभी-कभी लगता था कि वह बुझ गयी।

पिता वहाँ खड़े हो गये और बेटी को आगे बढऩे को कहा। हवा तेज बह रही थी। ब्रज में रेत उछालते और उस स्थान में देखना मुश्किल बताते हुए सौदामिनी चलती गयी। फिर उसने पीछे देखा और सुदूर हल्के से झुकी हुई अपने पिता की आकृति को, जो अपने हाथ में लालटेन ली हुई थी, पहचान सकी। अचानक उसने किसी मुलायम एवं गद्देदार वस्तु, जो उसके पैरों के नीचे आ पड़ी थी, पर कदम रख दिया। वह किसी औरत का रंगीन दुपट्टा था जो अपने पति के जीवित रहते मर गयी थी। उसने कपड़े की गाँठ से अपने पैर को अलग किया और दूर फेंक दिया। उसका उपयोग उसके पति के द्वारा उसके अन्तिम संस्कारों के समय किया गया होगा। वह कितनी भाग्यशाली होगी, चाहे जो हो, सौदामिनी ने सोचा और किनारे पर लंगर लगी नाव की ओर फिर से बढ़ चली। उसने फिर पीछे देखा, किन्तु उसके पिता की वह धुँधली आकृति अब दिखाई नहीं दे रही थी। वह नाव के पास आ गयी और वहाँ वह था-उसका प्रेमी, वह रेत पर चहलकदमी कर रहा था।

वह आगे आया और उसकी ओर हाथ बढ़ाया। उसने उसे अपने हाथ में लिया, फिर उसके पीछे उस बोट की शरण में चली गयी। यह एक बड़ी इकाई थी, जिस पर सुरक्षात्मक छज्जा भी था। जैसे ही उसके भीतरी भाग में दोनों चढ़े, वह हिल उठी।

आखिरकार इस प्रकार अन्त हुआ। ठीक ऐसा ही हुआ, जैसा वह बातों को आकार देना चाहती थी। वह पूर्णत: अपने विश्वास में सही थी कि उसने अपने जीवन का अर्थ उस व्यक्ति में खोज लिया है, जो उसके पास बैठा है और उसके नथुनों की साँस उसके शरीर को गर्म कर रही है। क्यों, और कोई औरत है, जिसके लिए ब्रज की पवित्र मिट्टी महत्त्वहीन साबित हुई!

सौदामिनी अपने दिमाग का पीछा करने वाले चिन्तापूर्ण विचारों के कारण पीड़ित एवं उदास थी। ठंडी हवादार रात में भी उसके माथे पर स्वेदकण चमकने लगे। उसने अपनी उँगली से उन्हें पोंछ लिया।

अब उसने अपने पास बैठे उस आदमी पर खोजपूर्ण दृष्टि डाली और कहा, 'इस पवित्र मिट्टी पर तुम ही मेरे एक मात्र सहारा हो। मेरी सारी पुरानी यादें अब धुँधली हो गयी हैं। मैं इन दिनों अपने मृत पति को अपने शत्रु के रूप में देखती हूँ। मैंने उसमें दोषों की कल्पना करना शुरू कर दिया है। वैसे मेरे लिए वह निर्दोष है। जैसा कि तुम जानते हो, किन्तु अब मैं भी कितनी अजीब चरित्र हूँ।...यह उचित नहीं है। यह बहुत अधिक अनुचित है। यह उस आदमी के प्रति, जो मर गया ,है क्रूरता है और मुश्किल से ही न्यायपूर्ण है। परन्तु मेरी विकट स्थिति देखो। आह, दुर्भाग्य, उसके प्रति कठोर और अनुचित होकर, जैसे कभी मैंने उसे प्यार और आदर दिया है, सान्त्वना पाने की कोशिश कर रही हूँ।'

हवा पहले से अधिक तेज बहने लगी थी। वह और अधिक तेज हो गयी। वह रेत के बड़े गुबार उठाने लगी और ऐसी संरचनाएँ बनायीं, जिससे हर कहीं गहरे कटोरेनुमा गड्ढे दिखाई देने लगे। चारों ओर असमंजस की स्थिति थी। अभी तक शहनाई का जो सुर तेज स्पष्ट तैरता आ रहा था, अब सुनाई नहीं दे रहा था।

'मुझे कसकर पकड़ लो, अपने आगोश में और जकड़ लो। तुम क्यों रो रहे हो? वे कहते हैं कि तुम ईसाई हो, हाँ, ईसाई हो तुम, पर इससे क्या अन्तर पड़ता है मुझे या किसी और को। तुम्हारे शरीर की मेरे हृदय पर पड़ने वाली गर्मी वही है, जो मेरे मृत पति की हुआ करती थी। जरा भी अन्तर नहीं है।'

उसके शान्त संयम और शान्त सम्मान ने उसे छोड़ दिया और उसने आवेश में आकर रोना शुरू कर दिया। उसने उससे कहा, 'मुझे चूमो। मुझे पहले के समान उसी हार्दिकता से चूमो। मुझे जल्दी से चूमो, क्योंकि मैंने अपने मृत पति से इसका स्वाद लिया था। यह वही पुराना स्पर्श है।'

ऐसा कहते हुए सौदामिनी नदी के तल में रेत के बड़े टीले के धँसने के समान अपने प्रेमी की छाती पर पसर गयी।

फिर उसने उससे कहा, 'इस समय मैं तुम्हारे संयम की ठंडक रख नहीं सकती। बिल्कुल नहीं। पर स्पष्टता से मुझे बताने दो कि मैं बड़ी उत्सुकता से इस क्षण के लिए देख रही थी। कितने तहेदिल से मैं प्रतीक्षा करती थी। इसकी प्रशंसा केवल अब कर सकती हूँ।'

हवा और तेज बह रही थी। नाव डोलने लगी। आकाश में बिजली कौंध रही थी। अब नाव में बैठा रहना सुरक्षित नहीं था।

'चलो, किनारे के उस एकान्त बरसाती में चला जाए। यहाँ तो तूफान आ रहा है।'

दोनों नाव से बाहर आ गये और किनारे पर घाट के पास की झोपड़ी की ओर दौड़ पड़े। तुरन्त ही रेत का तूफान शुरू हो गया। नदी ने संकट का रूप धारण कर लिया, जिसे उसने पहले कभी नहीं देखा था।

नदी राक्षसी रूप धारण कर चुकी थी।

धूल और रेत का बड़ा गुबार बनने लगा और प्रेमियों के क्रियाकलापों में विघ्न डालते हुए बड़े खम्भे-सा बढऩे लगा। फिर भी दोनों दौड़ते रहे। वर्षा और तूफान की ओर ध्यान दिये बिना अपने लक्ष्य पर पहुँचने तक वे दौड़ते रहे।

तब तक अर्धरात्रि का समय गुजर चुका था। तूफान अभी भी बढ़ रहा था।

एक बार फिर सौदामिनी के दिमाग में दुराग्रही शंकाओं ने प्रहार किया। सब बातों के परे वह क्या चाहती थी? क्या यही सब अधिकारों एवं विचारों की उपेक्षा कर उसने पाया है? अपने प्रेमी से उसने कहा, 'तुमने भी उस भयंकर एकान्त को अनुभव किया होगा। तुम भी बूढ़े होते जा रहे हो, क्योंकि अँधेरे में भी तुम्हारे सिर पर सफेद लकीरों को मैंने देखा है।' किन्तु उसने एक भी शब्द नहीं कहा। केवल अपना सिर उसने घुटनों पर टिका लिया।

'नहीं प्रिय, कोई कारण नहीं है। हम आज अपने हृदय के बाहर आ जाएँ। सब दिनों का आज यह वह क्षण है, जो मायने रखता है। अन्य कुछ नहीं। बाकी सब सोच-विचार बेकार है। इसका सबसे अधिक फायदा उठाओ। यह हमारे जीवन की महानता का क्षण है। इस क्षण को शाश्वत हो जाने दो। पास से मुझे चूमो या आलिंगन में मुझे जकड़ लो। ठीक पागल प्रेमी-सा। बाकी सबका महत्त्व मेरे लिए खो चुका है। यह वही दिन है, जिसकी प्रतीक्षा मैं कर रही थी।

'तुम रो रहे हो, प्रिय! यह मुझे दुखी बना देता है।' लड़की ने कहा, फिर कुछ देर रुककर उसने कहना चालू रखा, 'इस दिन के लिए मैं देख रही थी, क्योंकि मैंने सोचा कि जीवन में मेरे लिए यह नया अध्याय खोलेगा और नयी दिशा का विचार देगा। मैंने सोचा मेरे सारे भय और हिचक पर यह पूर्ण विराम लगा देगा। आओ, मेरे प्रिय, मेरे पास आओ! बाहर के तूफान-सा ही मेरे दिमाग में भी तूफान उठ खड़ा हुआ है। मैं निराश हो चुकी हूँ। मैं भूखे भेड़िये के समान आतुर हूँ। मेरी इस गर्मी के पीछे है शरीर और दिमाग का उत्ताप। एक ईसाई और एक हिन्दू, जो हर्षोन्मादी आलिंगन में बद्ध हैं, इसका रहस्यपूर्ण उत्ताप। वह उत्ताप, जिसमें मैं अपने जीवन और अस्तित्व का अर्थ पाती हूँ।

'मैं चाहती हूँ कि दूसरे भी हमारे उष्ण हृदयों की लक्ष्यपूर्ण धडक़नों को सुनें।'

तभी उस झोपड़ी की टूटी दीवार में दरार आ गयी और वह गिर पड़ी।

'वे, जो धर्म के कारण तुम्हें जाति के बाहर समझते हैं कसाइयों से अधिक अच्छे नहीं हैं। मैं उन्हें कसाई ही कहूँगी।' सौदामिनी विद्रोह के साथ कहने लगी।

फिर अपने घुटनों के बीच अपने सिर को रख वह सिसकने लगी, जैसे कोई छोटी लड़की हो।

तूफान बढ़ने लगा। पीपा के पुल के खम्भों से तैयार ठूँठों के टकराने की आवाज सुनी जा सकती थी। सौदामिनी ने अनुभव किया कि उसने किसी असहाय आत्मा के पास के भँवर में खो जाते समय की तेज चीख सुनी है। नदी के उस स्थान के बारे में कहा जाता था, प्रत्येक वर्ष कुछ राधेश्यामियाँ वहाँ जलसमाधि पाती हैं। आज पानी के तालाब ने, लगता है, पागलपन की उत्तेजना में एकाएक डरावना व्यक्तित्व धारण कर लिया है।

टूटी दीवार के पास किसी चीज के लुढक़ने की आवाज सुनाई दी। सौदामिनी अपनी जगह से उठ खड़ी हुई। फिर उसे पता चला कि वह लुढक़ने वाली वस्तु कुछ और नहीं, बल्कि लालटेन है, जिसे उसके पिता अपने साथ लाये थे। इसका मतलब है कि अभी भी उसके पिता घाट की सीढ़ियों पर बैठे हुए हैं। अत: अपेक्षा से उसने बाहर झाँक कर देखा। पर वह बढ़ते तूफान एवं अँधेरी रात के कारण किसी आकृति की छाया तक का पता नहीं लगा सकी।

हवा ने कमरे में खुली खिड़की के माध्यम से कुछ सूती ऊन के गुच्छों को उड़ा दिया। वे एक राधेश्यामी के कम्बल से फाड़े गये थे। कुछ दिन पहले किसी चोर ने उस कम्बल को फाड़ डाला और उसके अन्तिम संस्कार के लिए रखे पैसे चुरा लिये।

पूरे समय वह प्रेमी चुपचाप मासूम बच्चा-सा अपने प्रिया की अधीरता-भरी चुहल देख रहा था। वह अब उसके पास आयी और घुटने के पास घुटनों के बल बैठ गयी। फिर उसने कहा, 'चलो उस लकड़ी के तख्ते को जमीन पर बिछा दें और उस पर बैठ जाएँ। ब्रज के कुछ युवा गुंडों ने माधव-नारायण के पंडों की बेईमानी उजागर करने के लिए यह बोर्ड बनाया था। हम कुछ देर यहाँ आराम कर सकते हैं। तूफान के थमने तक। ओह, क्या भयंकर तूफान है, बाहर सब कुछ गुड़-मुड़ है। देखो, लहरें कैसे उठ रही हैं। क्या वे यहाँ तक पहुँच जाएँगी और हमें डुबो देंगी? बहुत दिनों पहले तुम्हें मालूम है, मैंने ठीक ऐसा ही दृश्य सपने में देखा था। क्या लहरों के सिरे कसाइयों के सिरों-से दिखाई नहीं दे रहे हैं! कितने अजीब दिखाई देते हैं वे!-वे लहरें, और कितनी डरावनी।' फिर कुछ देर रुककर उसने ग्लानि से कहा, 'मेरी माँ अब और अधिक नहीं जी पाएँगी। और यह मैं हूँ, जिसे उनके असामयिक मृत्यु के लिए दोषी माना जा सकता है। जैसे ही मैं अपनी माँ के बारे में सोचती हूँ, मैं पीड़ा से भर जाती हूँ, क्योंकि हिलोरों वाली लहरें लगता है, मुझ पर आक्रमण करने को हैं। घोड़े के टापू जैसी उनकी आवाजें मुझ पर चढ़ाई करने को बाहर आयी हैं, मैं ऐसा अनुभव करती हूँ। मेरे पास आओ, मेरी आत्मा, मेरे और अधिक पास आओ। मुझे चूमो और मेरे अन्तरतम की गर्मी को महसूस करो। मुझे इसकी आवश्यकता है, अत्यधिक आवश्यकता है। मेरे लिए यह ओछापन नहीं है। यह वह है, जिससे मैं अपना परीक्षण करती हूँ। शायद तुम मेरी विचारधाराओं की प्रशंसा नहीं कर सकते। किन्तु मेरे पास आओ। मेरे प्रिय, हम यहाँ बैठें, इस तख्त पर, एक दूसरे के बिल्कुल करीब।'

अत: वे उस तख्त पर जाकर बैठ गये, जो माधवनारायण के मन्दिर के अनैतिक कार्यों का गवाह था। उस क्षण वे दोनों वहाँ बैठे हुए दो पवित्र पुष्पों से दिखाई दे रहे थे।

तूफान सुबह के पहले घंटों में बिना खत्म हुए बढ़ता जा रहा था। जब सौदामिनी झोपड़ी से बाहर आयी कुछ देर के लिए लगा, वह थम गया। पर वह थमा नहीं था। अब लगने लगा मानो पहले जैसा ही भीषण तूफान था। नदी का स्तर बढ़ता जा रहा था। तेजी से। पानी किनारों को करीब-करीब छू रहा था। वह उसकी ओर बढ़ी। वहाँ और आकाश की गर्जना के बीच उसने अपने अस्तित्व को, दर्द और अकेलेपन के मृदु सुर का पीछा करते हुए अनुभव किया। अनाम दुख ने उसकी आत्मा को दयार्द्र कर दिया। 'क्या मैंने यह सब इस प्रकार घटे, ऐसा चाहा था?' उसने अपने आपसे बारबार पूछा-'क्या ठीक ऐसा ही मैंने चाहा था?'

एक बार और लगा, उसने बिल्कुल अलग तरीके से उन भीषण टापों को सुना। वह चिन्तातुर अनिश्चित-सी घायल, बिना शस्त्र के सिपाही-सी प्रतीक्षा करने लगी। लेकिन किसकी प्रतीक्षा, यह निश्चित नहीं था।

समय गुजरता गया। क्या उसे वापस लौटना चाहिए। किसके पास लौटे, अपने मृत पति की, हठी यादगारों की दर्दभरी शरण में।

सौदामिनी ने पीछे तूफानी रात में मौसम से पीडि़त आश्रय की ओर देखा। समय निराशाजनक ढंग से गुजर रहा था-ऐसा उसने महसूस किया। उसकी माँ की मृत्यु का समय तेजी से निकट आता जा रहा था। यह सब इस तरह क्यों हो गया? क्यों, ओह, क्यों, अन्य अधिकांश निस्सहाय आत्माओं ने उसी के सामने जीवन के सच्चे आश्रय को एकत्रित किया। बुद्धिमत्ता एवं सन्तुलन के शब्द। शब्द, जिन्हें सुनहरे फ्रेम में मढ़ा जा सके। यहाँ, इसी स्थान पर पिछले दिनों देवधरी बाबा ने, जीवन और जगत से सम्बन्धित अमूल्य परामर्श दिया था। वहाँ एकत्र राधेश्यामियाँ उससे अभिभूत थीं। वे आनन्द एवं अत्यधिक विवशता के आँसू बहाने लगी थीं। बाबा के पैरों की धूल सिर पर लगाकर उन्होंने कामना की थी, 'मेरा जीवन और अंग, जहाँ मैं बैठी, झड़ जाएँ। मेरा मांस और मेरी हड्डियाँ अपने तत्त्वों में समा जाएँ, तो भी मैं डगमगा न सकूँ, जब तक कि आत्मबोध का सच्चा प्रकाश मुझमें उदित न हो।' आत्मज्ञान, जो सच्चा है और दुर्लभ है, मुश्किल से ही पाया जाता है। कई युगों के आडम्बरहीन ध्यान के बाद ही।

'अपने आवेशों और लौकिक बन्धनों पर नियन्त्रण पाओ।' उपदेशक ने कहा। क्या भगवान अर्धनारीश्वर ने कभी अपने प्रिय का चेहरा देखा भी है?'

'सत्य सोने के कण के नीचे दबा रहता है। उस कण को हटाओ। ओ सूर्य, ताकि हम वह सत्य, जो शाश्वत हो, देख सकें और जो सदा जीवित रहें।'

शब्द बुद्धिमत्ता एवं सच्चे न्याय की पवित्रता को प्रतिबिम्बित करते हैं। अमूल्य हैं, बहुत अधिक अमूल्य कि सोने के फ्रेम में जड़ा जा सके। कितने दुख की बात है कि वह उस उपदेश के एक भी शब्द से प्रेरित होने में असफल रही।

नदी की ऊँची लहरें सरकती जा रही थीं। ठंउी हवा हड्डिïयों को कँपा रही थी। एक नया दिन उगने को था।

अनुपमा, उसकी माँ, मर जाएगी, बहुत जल्दी मर जाएगी। सफलता की घोषणा करेगी और फिर वह स्वर्ग की याद करने लगी और तुरन्त ही उसकी आत्मा के सारे बन्द दरवाजे खुल गये एक क्षण के लिए पीछे से बाहर आया, जिसके आलोक में उसने उस भीषण आशंका का दर्शन किया। नहीं, अनुपमा को उस पर विजय नहीं पाने देना है। पर क्यों नहीं? उसे अपनी बात सिद्ध करने देना चाहिए।

फिर वह अपने हृदय के मित्र, अपने प्रेमी से कहने लगी, नरमी से, 'मुझे क्षमा करो और लौट जाओ। क्षमा करो।'

ठीक उसी समय फिर भारी वर्षा शुरू हो गयी। लगा बादलों के बड़े-बड़े टुकड़ों ने टकराना शुरू किया। काफी जोरदार हवा चली। वह उसके दुबले-पतले शरीर के चिथड़ों में घुस गयी। पीपा पुल के दूसरी ओर किसी जगह पर बादल गरजे और बिजली गिरी, किन्तु इस स्पष्ट तैयारी का उपयोग क्या है! पर उन तत्त्वों को किसी छोटी कम उम्र की लड़की को, जो बुरी तरह हमले से घायल हो गयी हो, जीवन का स्वागत करने के लिए इतना क्रियाशील क्यों होना चाहिए?

वह आगे बढ़ी। उसे मालूम था कि यह एक सुनहरा अवसर है। वह जानती थी कि वह लौटकर नहीं आएगा।

लहरें नृत्य और गर्जना कर रही थीं और किनारे तक उठ रही थीं। वह और आगे बढऩे लगी। उसने चेतावनी की एक चीख पीपा पुल की एक ओर से आती सुनी। 'हमारी पवित्र माता राधा के नाम पर मैं तुम पर आरोप लगाती हूँ। कदम आगे मत बढ़ाओ और आगे नहीं जाओ। नदी में बाढ़ आ गयी है।'

उसने पहचान लिया कि वह आवाज उस सँपेरे की थी। वह उस बुरे मौसम का फायदा उठा रहा था।

वह पवित्र शब्द, 'राधा की जय', लगता है, सारी धरती पर और आकाश में निश्चित आपदा के क्षण व्याप गया।

समय तेज भाग रहा था और समाप्त होता जा रहा था। आगे के सोच-विचार से क्या फायदा! मात्र सोच-विचार। किन्तु एक खास प्रश्न उसका पीछा कर परेशान कर रहा था। वह उन भीषण किनारों के सिरों तक पहुँची। किन्तु ऐसा क्यों था? इसे ऐसा ही होना चाहिए था। किन्तु क्यों?

फिर अन्तिम छलाँग। दिन निकला। वे खोज सकते थे। उस तूफान झेली नदी के किनारे पर उसका दुपट्टा एक रंगीन दुपट्टे के साथ गुँथा हुआ था, जो किसी ऐसी औरत का था, जो भाग्यशाली रही कि जिसने अपने पति के जीवित रहते ही अन्तिम साँस ली।

नदी के किनारे अफवाहें फैल गयीं। उन्होंने राधेश्यामियों की बड़ी संख्या शामिल कर ली। पहला झटका खत्म हुआ। उन्होंने विदा हो गयी आत्मा के बारे में जैसे चाहे वैसी कल्पनाएँ कीं। उनमें से उसके लिए कोई आदरणीय या प्रिय नहीं था। उनमें से एक भी सहानुभूतिपूर्ण नहीं था। उसका दुपट्टा, जो रेत में से खोद कर बाहर निकाला गया, उसे उन्होंने उसके अव्यक्त चरित्र को उकेरने में लगा दिया, जिसका वे अपने-अपने तरीके से अर्थ लगा सकते थे।

भाग 18

सौदामिनी की स्मृतियाँ जल्दी ही विस्मृति के गर्त में खो गयीं। देवधरी बाबा, जो पानी के ऊपर बने बाँस के मंच पर रहा करते थे, एक बार फिर भक्तों और प्रशंसकों को आकर्षित करने लगे, जो सैकड़ों में उनके सोने के फ्रेम में जड़ने योग्य शब्द सुनने के लिए रेतीले किनारे पर जमा हो जाते थे।

सौदामिनी की मृत्यु के बाद कलाकार राकेश को कई दिनों तक रेत पर भटकते देखा गया। फिर अष्टसखी की सीढ़ियोंपर बैठकर उसने एक चित्र बनाना शुरू किया।

पंडों के झुंड नये तीर्थयात्रियों की खोज में ही भद्दी फब्तियाँ कसते थे। 'महाशय...' वे कहते थे, 'तुम केवल पदचिह्नों को चित्रित कर रहे हो। किन्तु उन्हें कौन खरीदने जा रहा है!'

कलाकार उत्तेजित हो जाता था और रोषपूर्ण प्रतिक्रिया करते हुए और कहता था, 'मैं जो बना रहा हूँ निश्चित ही पदचिह्न हैं। मैंने यमुना की रेत ताजा ही उठायी है। किन्तु मैं चुनौती देता हूँ तुममें से प्रत्येक को यह बताने के लिए कि इसमें कौन-सा हिन्दू है और कौन-सा ईसाई और कौन-सा मुसलमान का। यदि कर सकते हो तो अभी करो।'

वे बेवकूफ निर्वाक् रह जाते थे। उन्होंने सुना कि वह कलाकार इन दिनों एक से दूसरे भिक्षागृह तक रोटी के एक टुकड़े के लिए भटकता रहता है। दिमाग से चल गये व्यक्ति-सा वह राधेश्यामियों के झोंपड़ों के पास भी घूमते हुए इन दिनों देखा जा सकता है। एक ही चादर, जो उसके पास थी, उसने एक सोती हुई बूढ़ी राधेश्यामी पर डाल दी।

इसके कुछ दिन बाद उस बूढ़े कलाकार को एक दिन मथुरा जंक्शन रेलवे स्टेशन के पास देखा गया। पंडे, जो नये तीर्थयात्रियों को ब्रज की पवित्र भूमि तक ले जाने की जुगाड़ में थे, उन्होंने उससे कहा, 'हम तुम्हें कैसे पहचानेंगे, यदि कभी हम तुमसे फिर मिले। तुमने कहाँ रहने का सोचा?'

कलाकार मुस्कराया और उसने उत्तर में कहा, 'मुगल शैली के चित्रकारों में आखिरी चित्रकार रामप्रसाद के बारे में कलाकार रायकृष्ण दास ने जो कुछ देखा-लिखा, आपको याद नहीं है क्या! उसके बारे में कहा जाता है, उसका स्वभाव ईमानदार दृष्टिकोणवाला, दार्शनिक और सौन्दर्य की पहचान करने वाला था। कहने का मतलब है, सामान्य व्यक्तियों के स्वभाव-सा। यह इसलिए क्योंकि किसी वस्तु का सच्चा आकलन उसमें विद्यमान सौन्दर्य की प्रशंसा में निहित है। अत: एक दार्शनिक और एक कलाकार के बीच पहुँच की मूलत: एकता है। रामप्रसाद की परख बहुत गम्भीर एवं भीतर तक धँसने वाली थी। वह चित्रकार एवं गायक के रूप में समान योग्यता वाला था। किन्तु विडम्बना है कि ऐसे महान व्यक्ति को अपने दिन अभाव एवं गरीबी में गुजारने पड़े। अब तुम रायकृष्ण के इन शब्दों को याद कर सकते हो। उनको पता था कि कैसे काशी की एक भद्दी गली में मुगल शैली की चित्रकारी के महान प्रतिनिधि को पाया जा सकता है। तुम उस मास्टर को जानते हो, उन्होंने कहा, 'उसकी भद्दी अव्यवस्थित दाढ़ी, उसकी गन्दी धोती और कन्धों पर पड़ी उसकी बहुत साफ शाल से। अक्सर वह नंगे पाँव चलता है। फिर भी तुम उन्हें पहचानते ही हो। अब तुमने पूछा, मुझे तुम कैसे पहचानोगे! किन्तु मैं किसी कला का कोई अन्तिम प्रतिनिधि नहीं हूँ। मैं ब्रज के अष्टधातु कलाकारों का अयोग्य वारिस हूँ। रामप्रसादजी को उनकी साफ शाल से पहचाना जा सकता है। किन्तु मैं ऐसा कुछ नहीं पहनता। तुम मुझे जैसा अब हूँ, बिना चादर के देखोगे। वे कहते हैं, रामप्रसादजी गांधी टोपी भी लगाया करते थे। तुम मेरे सिर पर एक गांधी टोपी देख सकते हो। एक साफ गांधी टोपी - चमकीली और साफ।'

'गांधी टोपी?' पंडों के जमघट ने अविश्वास से पूछा।

'हाँ, एक गांधी टोपी, मेरा मतलब इसी से है। मैं अक्सर नंगे पाँव चलता हूँ। किन्तु एक साफ गांधी टोपी फिर भी मेरे सिर की शोभा बढ़ाएगी।'

उन्हें विश्वास दिलाने के लिए अन्त में उसने कहा, 'पक्का होने के लिए यह मेरा हमेशा का चिह्न रहेगा। एक गांधी टोपी - साफ और चमकीली।'

(अनुवादक : दिनेश द्विवेदी)

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