नज़र का धोखा (कहानी) : मुहम्मद मंशा याद
Nazar Ka Dhokha (Story in Hindi) : Muhammad Mansha Yaad
लड़की घर की थी, कठिनाई तो लोमड़ी ढूँढ़ने में हो रही थी। ख़ैरदीन कोशिश में था कि किराये पर मिल जाये। मगर अब तक उन्हें कामयाबी न हुई थी। ना उम्मीद होकर उसने यह कह दिया कि लोमड़ी न मिल सकी तो इस बार मेले नहीं जायेंगे।
"क्यों अब्बा?" फीके ने पूछा।
"बेटे, बकरी में अब लोग दिलचस्पी नहीं लेते। फिर कमबख़्त मिमियाने लगती है।"
"कोई साँप सँपनी, कोई नाग नागिनी अब्बा?" फीका मेले में जाने के लिए बैचेन हो रहा था।
"वह खेल पुराना हो चुका है।" ख़ैरदीन ने जवाब दिया।
लोमड़ी न मिलने की ख़बर सुनकर वह ख़ुश हो रही थी। दिल ही में दुआएँ माँगती - अल्लाह करे अब्बा को लोमड़ी न मिल सके। किन्तु उसकी दुआ क़ुबूल न हुई। जब मेला शुरू होने में तीन-चार दिन रह गये तो अब्बा मुँहमाँगी क़ीमत पर लोमड़ी ख़रीद लाया और इस तरह बोला मानो लाउडस्पीकर से ज़ोर से चिल्ला रहा हो।
"चलो, चलो तैयार हो जाओ, जल्दी करो।"
अब्बा की ऊँची आवाज़ सुनकर उसका सिर घूमने लगा। मेले का सारा शोर कानों में गूँजने लगा। वह मोटर साइकिल पर सवार मौत के कुएँ में नीचे ही नीचे गिरती चली जा रही है।
वह कई सालों से तमाशा बन रही थी। उसके चेहरे के साथ कई तरह के धड़ लगते रहे थे। कभी नागिन का, कभी बकरी का और कभी लोमड़ी का। एक ही पोज में पहरों बैठे उसकी कमर दुखने लगती। टाँगें शल पड़ जातीं। अक्सर उसे लगता कि जैसे उसका बदन बकरी या लोमड़ी में तो नहीं बल्कि पत्थर में ज़रूर तब्दील हो गया है। अपने चेहरे पर उसे बड़ा नाज़ था। पर अब उसी से उसे नफ़रत-सी होती जा रही थी। इसी वजह से उसका बाक़ी धड़ बेकार हो गया था। उसका जी चाहता कि वह चेहरे समेत अपनी गरदन उतारकर रख जाये और ख़ुद कहीं दूर भाग जाये।
तमाशाइयों में हर तरह के और हर उम्र के लोग शामिल होते मगर बच्चे ही सिर्फ़ हैरत तजस्सुस और दिलचस्पी का इज़हार करते। बड़ी उम्र के लोग उसे भूखी और ललचाई नज़रां से देखते। लड़के फ़िकरे कसते, कोई आँख मारता, कोई सीटी बजाता, कोई फहश इशारे करता। सारा वक़्त नज़रों और फ़िकरों के कंकर उसे लहूलुहान करते रहते फिर भी जैसा उसे सिखाया गया था, मुस्कुराती रहती और ख़ुश दिखायी देने की कोशिश करती। उसे बुत बने बेकार बैठना बिल्कुल अच्छा न लगता। उसे थियेटरों और सरकसों की लड़कियों पर तरस आता जो हर वक़्त कुछ न कुछ करती रहती थीं - गाती, नाचती या करतब दिखाती। हर मेले में हर जगह पर लोग कुछ न कुछ करते रहते। केवल वही पत्थर बनी बैठी रहती थी। और उकताई होने पर भी उसे ख़ुश दिखायी देने का स्वांग रचना पड़ता। बेहूदा बातों को बड़ी ख़ुशी से सहना पड़ता। भद्दे चेहरों का एक हल्की मुस्कान के साथ इस्तकबाल करना पड़ता और यह सिलसिला रात देर तक चलता रहता और वह इतनी थक और उकता जाती कि कभी-कभी उसका जी चाहता कि ज़ोर-ज़ोर से रोने और चीख़ने लगे। जहनी तकलीफ़ से बचने के लिए वह कभी-कभी अपने आस-पास से नाता तोड़ लेती और कहीं दूर पहुँच जाती। फिर आस-पास बजते फ़िल्मी गीतों में खो जाती। जागते मीठे-मीठे सपने देखती। लोगों की भीड़ से अलग जाकर अपनी पसन्द का चेहरा खोजती। ऐसी हालत में उसे पता नहीं चलता कि कितना समय बीत गया। कितने और कैसे लोग आये और क्या कुछ कहकर चले गये। यदि समय बिताने का यह अवसर उसके हाथ न आता तो वह अब तक ज़रूर घबराकर कहीं भाग गयी होती या पागल हो चुकी होती।
"शैदा अब नहीं जायेगी।" उसकी माँ ने अपना फ़ैसला सुनाया।
"क्यों नहीं जायेगी?" ख़ैरदीन ने बिगड़कर पूछा।
"अब वह बड़ी हो गयी है।"
"एक साल में?"
"हाँ... पिछले साल वह छोटी ही थी। लड़कियाँ खम्बिया होती हैं। उन्हें बढ़ते कुछ देर नहीं लगती।"
"अच्छा ज़्यादा बातें न बना और उसकी तैयारी कर।"
"अब उसका जाना ठीक नहीं, कुछ तो ख़याल करो।"
"कुछ नहीं होता। तू अपनी बक-बक बन्द कर।"
"मैं उसे अकेली न जाने दूँगी। साथ चलूँगी।"
"तू वहाँ क्या करेगी?"
"उसका ख़याल रखूँगी।"
ख़ैरदीन को हँसी आ गयी।
"सुन रहे हो फीके, यह उसकी रखवाली करेगी। क्यों हम इसके कुछ नहीं लगते। बाप और भाई से ज़्यादा लड़की की देखभाल कौन कर सकता है बेवक़ूफ़।"
"जवान बेटी का ख़याल सिर्फ़ उसकी माँ रख सकती है ख़ैरदीन।"
"क्यों पहले हम देखभाल नहीं करते रहे," फीका बोला। "किसी ने उसका कुछ उतार लिया है क्या?"
"तू चुप रह फीके।" माँ गुर्रायी।
"ठीक ही तो कहता है फीके। पहले क्या तुम साथ जाती थीं?"
"तब और बात थी, अब वह जवान हो गयी है।"
"तो क्या हम उससे...?"
"बस बस।" माँ को ग़ुस्सा आ गया। "जो मुँह में आता है बक देते हो।"
"अच्छा तू भी अपनी बकवास बन्द कर।"
"बेटी की कमाई खाते हो। कुछ तो शरम करो।"
"शरम किस बात की? मेहनत करते हैं तमाशा दिखाते हैं।"
"इस धोखे में न रहना ख़ैरदीना कि लोग तमाशा देखने आते हैं। वह तुम्हारी बकरी या लोमड़ी को देखने नहीं, तुम्हारी बेटी का चाँद-सा मुखड़ा मैला करने आते हैं।"
"अगर देखने से मैला होता है तो होने दो।"
"हाँ अम्माँ," फीका बोला। "लोग आते हैं देखकर चले जाते हैं। क्या लेते हैं?"
"शर्म कर फीके।"
"तुम फ़िकर न करो माँ।" खै़रदीन बोला। "जैसी भेजोगी वैसे ही वापस लायेंगे।"
"हाँ अम्माँ बेशक तौल लेना।" फीके ने मसखरी की।
"शरम भी कोई चीज़ है बेशरम।"
"इसमें बेशरमी की क्या बात है अम्माँ लड़की का चेहरा लोमड़ी का बदन, नज़र का धोखा।"
फीके ने अपनी माँ को बताया कि "ग़रीब आदमी को पेट पालने के लिए सौ तरह के जतन करने पड़ते हैं।"
"हाँ अम्माँ बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं।"
"तुम लोग अब दूसरा धन्धा क्यों नहीं शुरू कर देते?"
"अच्छा अच्छा वह भी कर देंगे, चलो फीके तुम तैयारी करो।" और तैयारी शुरू हो गयी।
शैदा ने अपनी ज़रूरत की छोटी-मोटी चीज़ें कपड़े और बरतन सूटकेस में रखना शुरू कर दिया। गर्मी और उमस के दिन थे। उसे पहरों परदे के पीछे जहाँ हवा नहीं पहुँच पाती बैठना पड़ेगा। इस ख़याल से माँ ने सारे काम छोड़कर उसे कपड़ों का नया जोड़ा सी दिया।
फीके ने कनात, शामियाना, मेज़, स्टूल, पर्दे और दूसरा सामान बाँध दिया। वह चारों - खै़रदीन, फीका, लड़की और लोमड़ी भोर में मेले के लिए चल पड़े।
मेले का पहला दिन औरतों और बच्चों के लिए ख़ास था। हालाँकि इसमें भी मर्दों की तादाद ज़्यादा थी। बातें करने वाली लोमड़ी में बच्चे ज़्यादा दिलचस्पी लेते थे। इसलिए ख़ूब बिक्री हुई। सारा दिन टिकट बिकते रहे। खै़रदीन बहुत ख़ुश था। उसने दोनों वक़्त बहुत अच्छा खाना मँगवाया। उसे आइसक्रीम भी खिलायी और चूड़ियाँ और सुरमे के लिए भी पैसे दिये। लेकिन अगले दिन बारिश होने लगी। दिन भर थोड़े-थोड़े वक़्त पर बूँदा-बाँदी का ही सिलसिला जारी रहा, धन्धा ठप रहा। किन्तु उसे कुछ आराम का मौक़ा मिल गया। मेले का आज तीसरा दिन था।
अगरचे गर्मी बहुत थी और हवा बिल्कुल बन्द थी। इसके बावजूद भोर ही से लोग छोटी-बड़ी टोलियों में मेले में उमड़ना शुरू हो गये थे, दोपहर तक मेला भर गया और काफ़ी चहल-पहल हो गयी। कन्धा से कन्धा छिलने लगा। दुकानों और खाने-पीने के ढाबों पर भीड़ हो गयी। मदारियों और सपेरों, जादू के खेल दिखाने वालों, रीछ से कुश्ती लड़ने वालों जिनकी ताक़त की दवाइयाँ बेचने और उँगली से छूकर बिना दर्द के दाँत निकालने वालों के आस-पास तमाशाइयों ने घेरे बना लिये थे। थियेटर खचाखच भरे हुए थे। गीतों और मकालमों का शोर बाहर भी सुनायी दे रहा था। एक तरफ़ हीर सय्याल भत्ता लेकर मेले की तरफ़ जा रही थी। रास्ते में किसी ने ट्विस्ट नाच की फ़रमाइश कर दी। दूसरी तरफ़ मियाँ मजनूं बन के लैला-लैला पुकारते हुए एकाएक जागती गाने लगा। सर्कस में तमाशाइयों के लिए करतबों के अलावा भी दिलचस्पी की चीज़ें थीं। गोरी टाँगें, कसे बदन और गुलाबी चेहरे। टिकट न ख़रीद सकने अथवा ख़रीदने का फ़ैसला न कर सकने वाले लोगों के लिए थियेटरों और सर्कसों के बाहर भी दिलचस्पी का सामान मौजूद था। ऊँचे मचानों पर जोकर और औरतों के लिबास में हिजड़े फ़िल्मी गीतों की धुनों पर नाचते और कूल्हे मटकाते। मौत के कुएँ में चलने वाली मोटर साइकिल का शोर दूर-दूर तक सुनने वालों में जोश पैदा करता। मरदों से भरे मेले में बंजारिनों और भिखारियों के अलावा औरतें सिर्फ़ सरकसां और थियेटरों के अन्दर थीं। इसलिए सभी लोगों का ध्यान उसी तरफ़ था। घरों और खेतों में काम करने वाली मामूली और मैली-कुचैली औरतों के मुक़ाबले में वह उन्हें किसी और ही दुनिया की वासी दिखायी देतीं। ख़ैरदीन ने सोचा आज ख़ूब टिकट बिकेंगे। लेकिन अब वह परेशान था। सिर्फ़ इक्का-दुक्का लोग ही इधर का रुख़ करते थे। लोमड़ी और औरत के बीच की थोड़ी-सी जगह छोड़कर भीड़ के सारे बादल मेले पर बरस रहे थे। लाउडस्पीकर पर बोल-बोलकर और लोगों को पुकार-पुकारकर उसका गला बैठ चुका था।
"लोग इधर क्यों नहीं आते?" फीके से सवाल किया।
"लगता है लोगों को लोमड़ी में कोई दिलचस्पी नहीं रही अब्बा।" फीके ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा।
"क्यों फीके।"
"अब हर आदमी अन्दर से लोमड़ी बन गया है अब्बा।"
"वह कैसे फीके।"
"वह बकरी और लोमड़ी की कहानी तुम्हें याद है अब्बा। लोग बड़े चालाक और ख़ुदगर्ज हो गये हैं। दूसरों को गड्ढे में गिराकर और उनके कन्धों पर सवार होकर ख़ुद बाहर आ जाते हैं।"
"मगर परसों तो बड़ी चहल-पहल थी फीके।"
"परसों बच्चों और औरतों का दिन था अब्बा।"
"फिर क्या करें?"
"अब कोई और धन्धा सोच अब्बा।"
"हाँ तुम्हारी अम्माँ भी यही कहती रहती हैं।"
खै़रदीन को लोमड़ी पर र्ख़च होने वाली रक़म बरबाद होते हुए दिखायी देने लगी। वह कोई दूसरा धन्धा शुरू करने के लिए पहली बार सोच रहा था कि फिर एक अजीब बात हुई। दोपहर के बाद उमस बहुत बढ़ गयी थी और सूरज अपने पूरे आबोताब से चमक रहा था। टिकट तेज़ी से बिकने लगे और उसमें बराबर इजाफ़ा होता गया। पहले तो वह ख़ुश हुआ फिर यह देखकर चौंका कि अन्दर जाने वाले बाहर आने का नाम ही नहीं लेते और जिनको भीड़ की वजह से फीका बाहर निकालने के लिए मजबूर कर देता है वह नया टिकट ख़रीदकर दोबारा अन्दर आ जाते हैं। उसने फीके से लोगों की इस एकाएक ग़ैर मामूली दिलचस्पी की वजह जाननी चाही तो उसने हँसकर जवाब दिया - "बस भेड़ चाल है अब्बा। लोग जिस ओर ज़्यादा भीड़ देखते हैं। देखा-देखी उसी तरफ़ चल पड़ते हैं।"
ऐसा कभी-कभी पहले भी हो जाता था। अचानक तमाशाइयों का रेला आ जाता है। फिर मौत और ग्राहक का क्या पता। कब आ जाये। इस ख़याल से वह मुतमईन हुआ और ख़ुशी से टिकट बेचने में लग गया।
तमाशाइयों का जोश-ख़रोश हर लम्हा बढ़ता गया। टिकट ख़रीदने वालों की पहली बार लम्बी क़तार लग गयी। उसका माथा ठनका। फिर फीके को अपने पास बुलाया और धीमे से पूछा।
"खै़र तो है आखि़र आज क्या बात हो गयी है।"
"सब ठीक है अब्बा।"
"कोई बात तो है?"
"बस अब्बा गरमी बहुत है"... फीका हँसने लगा।
"यहाँ कौन-सी बर्फ़ पड़ रही है फीके।"
"तुम टिकट बेचो अब्बा।"
"मगर फीके यह अचानक।"
"कुछ नहीं अब्बा... बस नज़र का धोखा है।" फीका हँसता हुआ चला गया। उसकी समझ में कुछ नहीं आया लेकिन फिर उसे फीके की हँसी बड़ी अर्थपूर्ण लगी। उसने थोड़ी देर के लिए टिकट बेचना बन्द कर दिये। ख़ुद ऊँची मचान से उतरकर तमाशाइयों के क़रीब आया और यह देखकर ठिठक गया कि पर्दा खिसक जाने के कारण लोमड़ी के साथ लड़की का ऊपर का धड़ भी दिखायी दे रहा है। पहले तो उसे शक हुआ कि वह तमाशाइयों से ही नहीं कुरते से लापरवाह होकर बैठी है। लेकिन फिर अन्दाज़ा हो गया कि कुरता भीगकर उसके बदन से चिपक गया है। और खाल के रंग में तब्दील हो गया है। उसने सोचा शायद गर्मी की वजह से यह सोचकर कि उसका चेहरा ही दिखायी देता है, कुरते के नीचे कुछ पहनना ज़रूरी न समझा था। उसे फीके पर बड़ा ग़ुस्सा आया। वह जल्दी से वापस ख़ुद अपनी जगह पर लौट आया कि फीके को डाँटकर पर्दा ठीक करने को कहे और वह ख़ुद शो ख़त्म करने का ऐलान करे। लेकिन उसकी नज़र तमाशाइयों की लम्बी लाइन पर पड़ी और वह जल्दी-जल्दी टिकट बेचने लग गया।