नौका-यात्रा (तेलुगु कहानी) : पालगुम्मि पद्मराजू

Nauka-Yatra (Telugu Story) : Palagummi Padmaraju

सूर्यास्त हो गया है। नौका पानी पर धीरे-धीरे सरकती जा रही है। नौका के दोनों तरफ पानी कल-कल ध्वनि कर रहा है। जहां तक दृष्टि जाती है, सारी दुनिया सुनसान दिखायी दे रही है। कहीं किसी प्राणी की कोई हरकत नहीं, परन्तु एक प्रकार की ध्वनि जैसे देह से स्पर्श कर रही है, कानों को उसका अनुभव नहीं हो रहा है, मन के भीतर वह पूर्ण रूप से कम्पित होती दिखाई दे रही है। ऐसा लगता है कि जीवन के अन्तिम समय की उदासीनता, पूर्ण रूप से एक शांत, निराश मन में समा गयी है। दूर पर अस्पष्ट रूप से दिखायी देने वाले वृक्ष मायाजाल की भांति निश्चल नौका के आगे-आगे बढ़ रहे हैं और पास के पेड़ जैसे बाल बिखेरे भूतों की भांति पीछे-पीछे चल रहे हैं। नौका नहीं, जैसे नहर के तट ही हिल रहे हैं। मेरी दृष्टि मानों पानी की गहराई का पता लगा रही है। जिस पर प्रतिबिंबित अंधकार पर चीते हुए रात के नक्षत्र जैसे लहरों पर धीरे-धीरे झूला झूलते-झूलते आंखें खोले ही सो गये हैं।

अब हवा का संचार नहीं। नौका के पिछले भाग में, चूल्हे में आग जल रही है। कभी-कभी वह प्रज्जवलित हो उठती है, तो कभी बुझ-सी जाती है। एक जवान नाव में आये पानी को बाहर फेंक रहा है। नौका में कई प्रकार के बोरे हैं। धान, गुड़, नमक, इमली आदि। मैं नाव की छत पर चित लेटा हूं। नाव के भीतर से चुरुट का धुआं और वातावरण की ध्वनि धीरे-धीरे चतुर्दिक् फैल रही है। गुमाश्ते के कमरे में एक छोटा-सा दीपक टिमटिमा रहा है। नाव चली जा रही है।

किसी ने पुकारा, ‘ऐ नाव वाले, नाव को इस किनारे पर लाओ, इस किनारे पर।’
नाव के किनारे लगते ही दो व्यक्ति उस पर चढ़े। नौका उस तरफ जरा-सी झुक गयी।
‘छत पर बैठेंगे,’ एक युवती का स्वर था।
‘इतने दिन तक कहां रही, दिखायी नहीं पड़ी?’ पतवार संभालने वाले व्यक्ति ने पूछा।
‘मैं अपने आदमी के साथ विजयनगरम, विशाखापट्टनम घूमने गयी थी। अप्पन्न कोंडा भी गये थे।’
‘अब कहां का इरादा है?’
‘मण्डपाक जा रहे हैं। भाई, तुम तो अच्छे हो न? गुमाश्ता वही पुराना है क्या? ’
‘हां?’
मर्द छत पर अस्त-व्यस्त लेट गया। उसके मुंह से चुरुट नीचे गिर गया, तो उस स्त्री ने उसे उठाकर बुझा दिया।
‘ऐ, उठके बैठ जाओ न!’
‘चुप रहो, शैतान कहीं की, क्या तुम समझती हो मैंने पी रखी है? शैतानी करोगी तो तुम्हारी मरम्मत कर दूंगा।’

वह करवट बदलकर पड़ा रहा। उस युवती ने उस अधेड़ के शरीर पर एक कपड़ा ओढ़ा दिया और एक चुरुट निकालकर जलाया। सलाई की सींक के प्रकाश में मैंने उसका चेहरा देखा। श्याम वर्ण का मुख लाल दिखायी दिया।

उसके स्वर में मर्द का स्वर मिला हुआ है। उसके बोलते समय ऐसा मालूम होता है, वह परिचिता है और हमें मना रही है। मुख-मण्डल इतना सुंदर नहीं है। जूड़ा बिखरा हुआ है, तो भी उसके चेहरे पर एक भलमानसिकता झलकती है। उस अंधकार में भी उसके नेत्र जागृतावस्था की सूचना देते चमक रहे हैं। सींक की रोशनी में बगल में लेटे मुझे उसने देख लिया है।

‘यहां पर कोई लेटा है?’ कहती हुई वह अपने पुरुष को जगाने लगी।
‘सो जाओ, चिल्लाओगी तो तुम्हारी पीठ फोड़ दूंगा।’ कर्कश स्वर में उसने उत्तर दिया और बहुत कोशिश करने पर जरा सरका।
इतने में गुमाशता दीया ऊपर उठाकर नाव के पार्श्व में खड़ा हो गया और बड़े जोर से चिल्लाकर पूछा ‘ऐ रंगी, यह कौन?’
‘बाबू जी, पड़ाल है, मेरा आदमी।’ रंगी ने उत्तर दिया।
‘पड़ाल? उतारो...वह चोर का बेटा है। तुम्हें कुछ भी अक्ल नहीं। फिर उस दृष्टि को नाव पर चढ़ा लिया। एक नंबर का पियक्कड़ है।’
‘मैंने जरा भी नहीं पी है। कौन कहता है कि मैंने पिया है?’ पड़ाल ने कहा।
‘अरे, इसको उतारो। इसे चढ़ने ही क्यों दिया, बड़ा पीता है यह?’
‘बहुत नहीं, जी थोड़ा-सी पीता हूं।’
‘अरे चुप रह, बाबू जी, हम मण्डपाक के पास उतर जायेंगे।’ रंगी ने कहा।
‘गुमाश्ता जी नमस्ते, आपकी दया है। मैंने आज नहीं पी है, बाबू जी!’ जोर से पड़ाल बोला।
‘शोर मचाया, तो नहर में फेंकवा दूंगा।’ कहकर वह कमरे में चला गया।
पड़ाल उठ बैठा। वास्तव में वह पिये हुए मालूम नहीं होता था।
‘नहर में फेंकवायेगा, सुअर का बच्चा।’ धीरे-से पड़ाल ने कहा।
‘रे, चुप भी रह।’ सुन लेगा।
‘कल सबेरे तक नाव की हालत देखेंगे। मेरे सामने बेटा रोब गांठने चला है।’
‘उंह, उस तरफ कोई लेटा हुआ है।’
‘कौन, सो रहा है वह?’ पड़ाल ने चुरुट जलाया।

पड़ाल की मूंछें अटपटी हैं। चेहरा लंबा और चौड़ी छाती है, जो सदा फूली रहती है। रीढ़ की हड्डी तो धनुष की भांति झुककर फिर खड़ी हो जाती है। संक्षेप में उसका परिचय दें तो, वह दुबला-पतला और बेहद लापरवाह मालूम होता है।

नाव सन्नाटे को चीरती चली जा रही है। अब नाव के पिछले भाग में आग नहीं सुलग रही है। मल्लाह थालियों को साफ करते हुए बातें कर रहे हैं।

हवा ठण्डी है, तो भी मैंने गमछा ओढ़ लिया है। उस अनन्त अंधकार की असहाय स्थिति में अपने शरीर को समर्पित करने में मुझे डर लग रहा है। हवा तेज है। कोमल नारी-स्पर्श की भांति नाव जल को कितनी मृदुलता से स्पर्श करती जा रही है, अवर्णनीय मृदुलता, जैसे विराट नारीत्व उस रात्रि में पूर्ण रूप से समाविष्ट है। उस आलिंगन में मुझे चिरकाल की गाथाएं याद आती हैं, अनादिकाल से, पुरुष का लालन-पालन करने वाली नारीत्व की कथाएं।

मुझसे थोड़ी ही दूर पर दो चुरुट लाल-लाल जल रहे हैं। मुझे ऐसा प्रतीत होता है, मानो जीवन भार रूप में वहां बैठा चिन्ता में निमग्न चुरुट पी रहा है।

‘आगे कौन-सा गांव आ रहा है?’ पड़ाल ने पूछा।
‘कालदारि।’ रंगी ने जवाब दिया।
‘ओह, अभी बहुत दूर है।’
‘आज सावधान रहो। नहीं-नहीं, सुविधा देखकर बाद को। क्यों, मेरी बात नहीं सुनोगे?’ रंगी ने अनुनय, विनय एवं याचना के स्वर में कहा।
‘रह रहकर मिनकती है, छिनाल!’ पड़ाल ने कहा और उसकी बगल में चिकोटी काट ली।

‘उई, जान गयी।’ रंगी धीमे से चीखी। फिर आकाश की ओर मुंह उठाकर एकटक अंधकार को देखने लगी। उस स्पर्श को शाश्वत रूप से बनाये रखने के लिए संभवतः उसने मुंह उठाया था।

मुझे धीरे-धीरे नींद आ रही है। नाव पानी पर खिसकती जा रही है। मुझसे थोड़ी दूर पर वे दोनों फुस-फुस कर रहे हैं। मुझे नींद तो आयी है, लेकिन पूरी तरह नहीं। मुझे ज्ञात है कि नाव चल रही है, पानी खिसकता जा रहा है और पेड़ पीछे चले आ रहे हैं। नाव को कोई खे नहीं रहा है। नाव में अभी सभी झपकियां ले रहे हैं। रंगी मेरी बगल से होकर पतवार के पास जाती है और वहीं बैठ जाती है।

‘भाई, कैसे हो?’ रंगी ने पूछा।
‘तुम कैसी हो?’ मांझी ने पूछा।

‘मेरे आदमी ने कितने ही सुंदर स्थान दिखाये। हम सिनेमा गये। जहाज देखा। जहाज माने साधारण नाव नहीं। वह हमारे गांव जैसा बड़ा होता है। पतवार उसका कहां होता है, और क्या बताऊं?’ इस तरह रंगी बहुत देर तक उससे विचित्र-विचित्र बातें बताती रही...और वे बातें लोरियों की तरह मुझे सुलाती रहीं!

‘ऐ लड़की, मुझे नींद आ रही है, रे!’ मांझी ने कहा।
‘लाओ, पतावार, तब तक मैं संभालती हूं। तुम वहां सो जाओ, भाई।’’ रंगी ने कहा।
नाव धीरे-धीरे सरकती जा रही है। चुपचाप उस निस्तब्धता को बनाये रखते हुए रंगी ने अपने ठण्डे स्वर में गाना शुरू किया।’

कहां है वह मेरा, कहां है?
खाना थाली में रखकर
बैठे देखते रहने से
संध्या की छाया की भांति
आंखें नहीं झपती।
आह बिछू की भांति
डंक मारने वाली यह सर्द हवा

रंगी के कण्ठ में मर्द जैसा संगीत है। उस गीत से वहां लेटे सभी प्राणी ऊंघने लगे। पिछले युग की व्यथा से भरी हुई प्रेम-गाथाएं जैसे विचित्र रूप से उस गीत में कंपित हो रही थीं। जैसे वह गीत पानी की बाढ़ हो और उसमें उफान आ जाए, तो सारा संसार उसमें एक छोटी-सी नौका की भांति तैरने लगे। मानव जीवन जैसे इस प्रणय और विषाद के नशे में चूर-सा हो रहा हो।

मुझसे थोड़ी ही दूर पर पड़ाल सिर पर तौलिया बांधे बैठा है। लेकिन मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि उसके और रंगी के बीच में जैसे एक युग का अंतर है। वह छत पर से उतरकर नाव के भीतर चला जाता है। मैं अकेले चित लेटे देखता रहता हूं। रंगी उसी तरह गाये जा रही है-

मंदिर के पीछे की गली में
एक औरत है।
बिना आवाज किये
तुम उसके पास चले गये।
वह युवती कौन थी
मेरे बालम,
जवानी से भरी मैं तो थी।

मुझे नींद आने लगी है। रंगी का गीत जैसे कई लोकों की यात्रा से लौटता है और पुनः धीरे-धीरे हृदय को स्पर्श करने लगता है और मुझे नींद आ जाती है। निद्रा में प्राकृतिक प्रणय मेरे सामने उफनने लगता है। ग्रामीण कृषक युवतियां अपने प्रियतमों से आंख-मिचौनी करती हुई गाने में निमग्न हैं। सर्वथा अनजान एक स्वप्निल जगत मेरे सामने खुल जाता है। उसमें रंगी और पड़ाल कई रूपों में घूम रहे हैं। धीरे-धीरे गाने के स्वर मेरे स्मृति-पटल से तिरोहित होते जाते हैं और निद्रा मेरे मन के द्वारों को धीरे-धीरे बंद कर देती है।

नाव में थोड़ी-सी हलचल होती है। मैं आंख मलते उठ बैठा हूं। नाव किनारे पर आ लगी है। लालटेन लिए दो मल्लाह घबराहट के साथ नाव पर चढ़-उतर रहे हैं। किनारे पर दो व्यक्ति रंगी को कसकर पकड़े हुए हैं। उनमें एक गुमाश्ता है, जिसके हाथ में कोड़े की तरह ऐंठी हुई मोटी रस्सी है। रंगी पर शायद खूब मार पड़ी है। मैं तुरन्त नाव से उतरकर किनारे पहुंचता हूं और दरियाफ्त करता हूं-हुआ क्या?

‘वह चोर भाग निकला है। बहुत-सा माल उड़ा ले गया है। इसी शैतान ने नाव को यहां किनारे लगा दिया था। यही दुष्ट पतवार संभाले हुए थी।’ गुमाश्ते ने क्रोध और निराशपूर्ण शब्दों में कहा।
‘क्या उठा के ले गया है?’ मैंने पूछा।

‘दो चावल के बोरे और तीन इमली के। मैं जानता था, इसीलिए कहा था कि उस लुटेरे को नाव पर मत चढ़ाओ। मालिक सारा नुकसान मेरे सिर मढ़ेगा। साला जाने कहां उतार ले गया?’

‘बाबू जी, कालदारी के पास।’
‘चुप शैतान की बच्ची, कालदारी के पास तो हम लगे हुए थे।’
‘तो निडदवोलू के पास उतारा होगा।’
‘यह अभी इस तरह नहीं बतायेगी। कल अत्तिलि में इसे पुलिस के हवाले पर देंगे। चढ़ो, नाव पर चढ़ो!’
‘बाबू जी, मुझे यहीं पर छोड़ दीजिए।’
‘नखरे मत दिखाओ, चलो चढ़ो।’ और गुमाश्ता ने उसे नाव की ओर ढकेल दिया।
दो मल्लाहों ने जोर लगाकर उसे नाव पर चढ़ाया।

‘सभी सोअक्कड़ जमा हो गये हैं, माल-मत्ता की रक्षा की किसी को चिंता नहीं। उसके हाथ में पतवार सौंपने को किसने कहा था? तुम लोगों की अक्ल मारी गयी है।’ गुमाश्ता सब पर अपना क्रोध उतारकर अपने कमरे में चला गया।

रंगी को छत पर चढ़ाया गया। एक मांझी को उसके पहरे पर तैनात कर दिया गया, ताकि वह भाग न सके। मैं भी छत पर चढ़ गया।
नाव फिर रवाना हो गयी। मैंने चुरुट जलाया।
‘बाबू जी, एक चुरुट देंगे?’ रंगी ने घनिष्ठता से कहा।
उसने चुरुट जलाया और मल्लाह से पूछा, ‘हे भाई, मुझे पुलिस के हवाले करने से क्या फायदा?’
मांझी ने जवाब दिया-‘गुमाशता नहीं छोड़ेंगे।’
मैंने पूछा, ‘पड़ाल तुम्हारा पति है क्या?’
‘हां, वह मेरा आदमी है।’ रंगी ने जवाब दिया।
‘इसे वह भगा ले गया थ, जी। इससे उसकी शादी नहीं हुई। उसके पास एक औरत और है। अब वह कहां है, रे?’ मल्लाह ने पूछा।
‘कोव्वूर में है। अब भी उसकी देह और जवानी कायम है। मेरी जैसी मार खायी होती, तो वह भी मेरी ही ऐसी हो गयी होती।’
‘तो तुम उसके साथ क्यों रहती हो?’ मैंने पूछा।
‘वह मेरा आदमी है, जी!’ रंगी ने कहा, मानों सारा गुर उसी शब्द में हो।
‘तो वह उस औरत के पास जाता है?’
‘मेरे बिना वह नहीं रह सकता। वह राजा आदमी है। मालिक, वैसा आदमी कहीं नहीं मिलेगा।’

बीच में मल्लाह बोल उठा, ‘बाबू जी, उसकी करतूत आपको मालूम नहीं। एक बार उसने इस रंगी को झोपड़ी में बंद करके आग लगा दी थी। यह बेचारी जलकर भी बच गयी, इसका भाग्य बहुत बलवान।’

‘बाबू जी, उस समय वह मिल जाता, तो मैं उसका गला ही घोंट देती। जलकर मैं एक खंभे पर बेहोश पड़ी थी, बाबू जी!’ और वह मुड़कर चोली उठाती हुई खड़ी हो गयी। एक बड़ा सफेद दाग उस अंधकार में साफ दिखायी दिया।
‘इतनी यातनाएं पाने पर भी उसने पीछे पागल की तरह तुम क्यों पड़ी रहती हो,’ मैंने पूछा।

‘करूं क्या, जब वह सामने आ जाता है, तो सब भूल-भालकर मेरा दिल पिघल जाता है। वह कितना दयनीय होकर उस वक्त बोलता है, आज संध्या को जब कोव्वूर से हम चले, तो रास्ते भर वह गिड़गिड़ाता रहा, रंगी चलो, इस नाव पर चढ़ें और माल उतार लें। तुम्हारे बिना यह काम संभव नहीं। पगडण्डियों से होकर हम मडुगु पहुंचे।’

‘माल कहां उतारा?’
‘मुझे इसका पता नहीं है, जी!’
हंसते हुए मल्लाह ने कहा, ‘चोर की नानी, हमारी आंखों में भी धूल झोंकना चाहती हो।’
रंगी का चेहरा देखने की मेरे मन में बड़ी उत्सुकता थी। लेकिन उस निविड़ अंधकार में वह जादूगरनी की भांति अदृश्य-सी ज्ञात होती थी।

नाव धीरे-धीरे सरकती जा रही है। अर्धरात्रि के बीत जाने पर हवा ठण्डी होती जा रही है। पेड़ों के पत्ते हिल रहे हैं। मल्लाह नाव को खेते जा रहे हैं। मुझे अब नींद नहीं आ रही है। पहरा देने वाला व्यक्ति थोड़ी देर में ही झपकी लेता-लेता सो गया है। रंगी ने शायद अब भाग निकलने का प्रयत्न बिलकुल छोड़ दिया है। मजे से बैठी-बैठी चुरुट पी रही है।

‘तुम्हारी शादी नहीं हुर्ह?’ मैंने पूछा।
‘नहीं, बचपन में ही पड़ाल मुझे भगा ले आया था।’
‘तुम्हारा घर कहां है?’

‘इंडूपालेम।’ उस समय मुझे मालूम नहीं था कि वह पियक्कड़ है। अब तो मैं भी पीती हूं। पीना कोई गुनाह तो नहीं, लेकिन पीकर मेरी चमड़ी उधेड़ देता है। इसी का मुझे दुःख है।

‘तो उसे छोड़कर चली क्यों नहीं जाती?’
-मार पड़ने पर यही सोचती हूं। लेकिन वैसा आदमी दूसरा नहीं। आप नहीं जानते! जब वह पिये नहीं रहता, एकदम मक्खन की तरह कोमल रहता है। मेरे बिना उसका दिल टूट जायेगा और वह मर जायेगा।
उसकी बातों का तत्व मुझे बड़ा विवित्र मालूम था। उन दोनों के बीच कैसा बंधन या संबंध है? मेरी समझ में नहीं आया।

रंगी ने फिर कहना शुरू किया-हम दोनों ने बहुत कोशिश की कि कोई भी काम ठीक से जमा लें। लेकिन कई धंधे करके भी हम असफल ही रहे। आखिर इस तरह चोरी करने पर मजबूर हुए। मेरी अम्मा, अभी परसों ही मरी है। वह मुझे बहुत गालियां देती थी। एक दिन पड़ाल मेरी झोंपड़ी में उस औरत को भी ले आया था।

‘किसको?’

‘मेरे साथ उसे भी झोंपड़ी में रखना चाहा। मैंने उस औरत को ऐसी मरम्मत की कि पड़ाल ने बिगड़कर मुझे भी इतना मारा कि मेरी भी हालत खराब हो गयी। फिर उसके साथ वह चला गया। फिर आया तो मैंने उसे खरी-खोटी सुनाई और घर में घुसने नहीं दिया। तब देहली के पास बैठकर बच्चे की तरह रोने लगा।

यह देखकर मेरा दिल पिघल गया। मैं उसके पास गयी, तो मुझे गोद में लेकर उसने मेरी माला मांगी। मेरे पूछने पर उसने बताया कि वह औरत इसे चाहती है। मैं मारे गुस्से के सुध-बुध खो बैठी। मन भर उसे कोस चुकी, तो वह रोने लगा।

रोते-रोते ही बोला, ‘उसके बिना मैं नहीं सकूंगा।’ मेरे गुस्से का पारा और चढ़ गया। देहरी पर से उसे ढकेलकर मैंने दरवाजा बंद कर लिया। दरवाजा खटखटाकर वह आखिर थक गया और चला गया। मुझे बहुत देर तक उसे दिन नींद नहीं आयी। मैं झपकियां ले रही थी कि इतने में झोंपड़ी में आग लग गयी। बाहर कुंडा लगाकर उसने झोंपड़ी में आग लगा दी थी। कोई भी मदद के लिए नहीं आया। आधी रात का समय था। मेरा सारा शरीर झुलस गया। दरवाजा ढकेलते-ढकेलते मेरा होश जाता रहा। इतने में बाहर से किसी ने दरवाजा खोला। दूसरे दिन पुलिस उसे पकड़ ले गयी...मुझसे पूछा, ‘किस पर सुदेह है?’ मैंने साफ कह दिया, ‘पड़ाल पर नहीं है।’ छूटकर, संध्या के समय मेरे पास आया और फूट-फूटकर रोने लगा। जब भी पीता है, जरूर रोता है। बाकी समय उसे रोना नहीं आता। हमेशा हंसता रहता है। एक बूंद शराब गले में उतारा नहीं कि बस, बच्चे से भी ज्यादा रोता है। मैंने अपनी माला उसे दे दी।’

‘तुम उसके साथ चोरी करने में भाग क्यों लेती हो।’
‘क्या कहूं बताइए? वह गिड़गिड़ाने लगता है।’
‘तुमने कहा था कि वह तुम्हें विजयनगरम आदि शहरों में ले गया था।’
‘वह सब सरासर झूठ है। मेरे ऊपर मल्लाहों का पूरा विश्वास है। इसके पहले भी इस नाव पर दो बार और चोरी हो चुकी है।’
‘तुम्हें पुलिस पकड़ेगी, तो क्या करोगी?’

‘कुछ भी नहीं करूंगी। मुझे पकड़कर वह क्या करेंगे? मेरे पास चोरी का माल नहीं है, क्या मालूम कौन ले गया? एक दिन पीटेंगे, दूसरे दिन छोड़ देंगे।’
‘पड़ाल को भी तो आखिर पकड़ेंगे? वह चोरी के माल-सहित पकड़ा जायेगा तब?’
‘वह नहीं मिलेगा। इस समय तक माल बिक भी गया होगा। उसे बचाने के लिए ही मैं नाव पर रह जाती हूं।’

उसने गहरी सांस ली। फिर धीमे स्वर में कहने लगी, ‘यह सब माल उसी औरत को प्राप्त होगा। उस पर जब तक उसका मन लगा रहेगा, तब तक उसे छोड़ेगा नहीं। मुझे ये सब तकलीफें उसी के कारण सहनी पड़ रही हैं। मेरा खून पी रही है चुड़ैल!’

उन बातों में वास्तव में उत्तेजना नहीं थी। उसने पड़ाल को यथार्थरूप में स्वीकार किया है। पड़ाल के वास्ते सब कुछ करने को तैयार है। वह कोई आदर्श नारी नहीं, आदर्श पतिव्रता भी नहीं, प्रेमिका भी नहीं। कई विचित्र, संकुचित भावनाओं, ईर्ष्या, अनुरागों और भी अनेक तत्वों से परिपूर्ण नारी का एक हृदय, वह भी इन सबका परिणाम बनकर एक पर लगा हुआ है। अपने पुरुष के लिए वह निरन्तर तप रही है। उसका कोई निश्चित अभिप्राय नहीं है कि उसका पुरुष सज्जन बनकर नीति-मार्ग पर चले। उसने पड़ाल को उसके सभी गुणों तथा अवगुणों के साथ स्वीकार किया है।

हवा तेज चलने लगी है। नाव तेजी के साथ आगे बढ़ी जा रही है। आलस को छोड़कर दुनिया जागने जा रही है। कहीं-कहीं खेतों पर पहरा देने वाले किसान मेड़ों पर चलते दिखायी दे रहे हैं। भोर के तारों का अभी उदय नहीं हुआ हैं। रंगी घुटने मोड़कर अव्यक्त भावना में विभोर हो रही है।

‘वह मेरा है, जहां कहीं भी क्यों न घूमे-फिरे, मेरे पास आने से वह नहीं रह सकता।’ रंगी अपने मन को समझाती है। उसमें एक आशा, विश्वास तथा धीरज झलक रहा है। वह उसके समूचे जीवन का निचोड़ प्रतीत होता है।’

मैं भक्ति, भय तथा दया से उसकी बातों को सुनकर चुप रह जाता हूं। सबेरे तक हम दोनों उसी तरह बैठे रहते हैं।

नाव पर से उतरने के पहले जेब से एक रुपया निकालकर मैं उसके हाथ पर रख देता हूं और जल्दी-जल्दी अपने कदम बढ़ा देता हूं, उसके उत्तर की प्रतीक्षा में नहीं रहता।

उसके बाद उसकी हालत क्या होगी, मुझे नहीं मालूम?