नास्तिक (बांग्ला कहानी) : उपेन्द्रनाथ गंगोपाध्याय

Nastik (Bangla Story) : Upendranath Gangopadhyay

पुत्र का नामकरण करते वक्त उमाशंकर के पिता ने यह स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा कि जिस पुत्र के नाम वे जो एक-दो देवताओं का नाम जोड़ रहे हैं, वह बाद में सभी देवताओं की आस्था से छुटकारा पाकर बिल्कुल नास्तिक ही बन जाएगा। वे यदि आज जीवित होते तो बहुत ही दुखी होते। लेकिन, माता सारदेश्वरी को तो लम्बा जीवन भोगने के अपराध में आखिर यह सजा भोगनी ही पड़ी।

उमाशंकर उस समय एम. ए. में पढ़ रहा था और अपने कुछ सहपाठियों और मित्रों को लेकर 'निरीश्वर संघ' नामक एक संस्था चला रहा था और प्राच्य तथा पाश्चात्य दर्शनशास्त्र में निमग्न रहकर ईश्वर के बारे में अनुसंधान कार्य कर रहा था। ईश्वर नहीं है, अन्ततः ईश्वर के अस्तित्व के बारे में संतोषजनक कोई प्रमाण न रहने के कारण उसकी यह धारणा दृढ़तर होती गई कि ईश्वरवाद की इमारत मनुष्य के दुर्बल चित्त के संशय अथवा कल्पना पर ही आधारित है। ऐसे ही समय में उसने अपने परिवार को भी 'निरीश्वर संघ' के अन्तदैनिक नारायण-पूजा करके कुल-पुरोहित जा चुके थे और सारदेश्वरी देवी ने अभी-अभी पूजा-जप आदि से निवृत्त होकर जल-पान किया ही था कि इसी समय उमाशंकर ने आकर कहा, 'माँ, हमारे घर में अब तक मिथ्या के पीछे बहुत धन और वक्त बर्बाद हो चुका है। मैं चाहता हूँ कि यह अब बन्द हो जाए।'
विस्मित होकर सारदेश्वरी ने पूछा, 'तेरी बात मैं समझ नहीं पायी उमा! कैसी फिजूलखर्ची हो रही है घर में?

उमाशंकर ने कहा, 'तुम्हारे नारायण की पूजा आदि में...जब नारायण के अस्तित्व का ही पता नहीं, तब उनके इस पत्थर-प्रतिनिधि पर यह फिजूलखर्च क्यों कर रही हो?'

सारदेश्वरी देवी पुत्र के चाल-ढाल से ही समझ गई थी कि वह अधार्मिक हो गया है, लेकिन बात यहाँ तक बढ़ गई है इसे वे समझी नहीं थीं। उन्होंने मन में भगवान से अपने पुत्र के लिए क्षमा माँगी और आहत स्वर में कहा, 'यह तुम क्या कह रहे हो, उमा? तुम ईश्वर को नहीं मानते हो? धर्म को नहीं मानते हो?'

मृदु हास्य के साथ उमाशंकर ने कहा, 'मानता क्यों नहीं, माँ! लेकिन मेरा ईश्वर और धर्म तुम लोगों से अलग है। मेरा ईश्वर है 'न्याय' और 'नीति' है मेरा धर्म। मेरे ईश्वर का आसन है मेरी बुद्धि, और धर्म का आश्रय है मेरा जीवन।'

पुत्र का तर्क सुनकर सारदेश्वरी ने भ्रू कुंचित करके कहा, 'तू कहना क्या चाहता है? न्याय और नीति सिर्फ तेरे ही लिए हैं, हमारे लिए वे नहीं हैं?'
उमाशंकर ने कहा, 'क्यों नहीं रहेंगी माँ! तुम लोगों में भी हैं। लेकिन उनका अधिकांश तुम लोगों के तैतीस कोटि देवताओं के प्रस्तर कारागार में कैद है। खैर, जाने दो इस बात को। यदि कहो तो तुम्हारे इस नारायण को तुम लोगों की गंगा माता के गर्भ में विसर्जित कर आऊँ?'

उमाशंकर के इस प्रस्ताव को सुनकर सारदेश्वरी का मुँह गंभीर वेदना से पीला पड़ गया। क्षण भर स्तब्ध रह कर उन्होंने कहा, 'मुझे कोई आपत्ति नहीं है, उमा-यदि तू नारायण के साथ मुझे भी गंगा में विसर्जित कर दे। लेकिन तू 'तुम लोगों की गंगा-माता', क्यों कहता है? क्या वह तेरी माता नहीं है?

धीरे से सिर हिलाता हुआ उमाशंकर बोला, 'नहीं। न तो गंगा ही मेरी माता है और न गाय ही। मेरी तो माँ हैं, एकमात्र मेरी माँ-जननी जिसके स्नेह-सरोवर में डूब-डूब मैं बारम्बार पवित्र होता हूँ। गाय मेरे लिए एक चौपाया जन्तु है और गंगा एक विशाल नदी। यह कह कर उमाशंकर हँसने लगा।

जैसे भी हो, माँ के अभिमान के कारण और स्त्री मंदाकिनी की वकालत के कारण ही नारायण उस दिन गंगा-यात्रा से छुटकारा पा गए।
गुरु से उपदेश पाकर शायद उमाशंकर के मन में ईश्वर पर विश्वास आए, इसी आशा से कुछ दिनों बाद सारदेश्वरी ने कुलगुरु अमरनाथ विद्याभूषण को स्मरण किया।
अमरनाथ ने आकर सब सुन कर कहा, 'यह सब अंग्रेजी पढ़ने के कु-फल हैं। मैं सब ठीक कर दूंगा।'
अमरनाथ ने उमाशंकर से मिल कर कहा, 'अब तुम्हारा समय आ गया है। तुम दीक्षा ले लो उमाशंकर।'
अमरनाथ की ओर कठोर दृष्टिपात करके उमाशंकर ने पूछा, 'कैसी दीक्षा?'
अमरनाथ ने कहा, 'गुरुमन्त्र की।'
उमाशंकर ने कहा, 'अच्छा। लेकिन गुरुमन्त्र देगा कौन?'
प्रश्न करने का तरीका देखते हुए अमरनाथ 'मैं दूंगा ' कहने का साहस नहीं कर सके।

क्षण भर चुप रह कर उमाशंकर ने ही कहा, 'ठीक है। यदि वे सचमुच गुरु होवें-अर्थात् यदि उनकी तुलना में मैं लघु विवेचित होऊँ तो दीक्षा ले सकता हूँ ।"
यह सुनकर अमरनाथ ने मृदु हँसकर कहा, 'तुम क्या स्वयं को इतना ही गुरु समझते हो, उमाशंकर?'
उमाशंकर ने कहा, 'जी नहीं,-मैं अपने को इतना लघु नहीं सोचता हूँ कि बिना परीक्षा लिए किसी को गुरु मान लूँ।'
-'तुम क्या प्रमाण चाहते हो?'
-'ईश्वर के बारे में प्रमाण चाहता हूँ। आप सम्भवतः जानते होंगे कि मैं ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता। जो मेरे निकट ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित कर देंगे उन्हें मैं गुरु मान लूंगा।'
-'तुम क्या यूरोपीय निरीश्वरवाद की सहायता से तर्क करना चाहते हो?'
-'जी नहीं। मैं भारतीय दर्शन-शास्त्र के अनुसार ही विचार कामना करता हूँ ।'

तब प्रश्न के बाद उत्तर और उत्तर के बाद प्रत्युत्तर शुरू हो गए। करीब घंटे भर बाद उमाशंकर की युक्तियों के सामने फिसलते हुए अमरनाथ ने कहा, 'तुम कूट तार्किक हो। तुम्हें पराजित करना कठिन है। लेकिन मैं तुम्हारा कुलगुरु हूँ। मेरे निकट दीक्षा ग्रहण करो-तुम्हारा मंगल होगा।'

हाथ जोड़कर उमाशंकर ने कहा, 'क्षमा कीजिएगा। बिना प्रमाण के जिसने भगवान के अस्तित्व तक को स्वीकार नहीं किया है, वह गुरु को भला ऐसे कैसे ग्रहण कर सकता है?'

मन ही मन उमाशंकर को धिक्कारते हुए अमरनाथ सारदेश्वरी देवी के पास गए और बोले, 'तुम्हारे लड़के का रोग कठिन है। आज मैं थोड़ी दवा दे गया हूँ। थोड़े दिन बाद फिर आऊँगा।'

ओट में रहकर सारदेश्वरी ने सब कुछ सुना था और किसी की दवा किसको पीनी पड़ी, यह भी वे समझ गई थीं। इसलिए मृदु स्वर में कहा, 'अच्छा, आइएगा। लेकिन गुरु के आने के पहले ही सारदेश्वरी को परलोक के देवता ने बुलावा भेज दिया। मृत्यु के थोड़ी देर पूर्व अपनी पुत्र-वधू के कान में उन्होंने कहा, 'मैं तो चली, बहू! किन्तु अनेक दुःख और कष्ट भोग कर तुम्हारे घर-संसार में जो क्षीण कल्याण-प्रदीप रखे जा रही हूँ, उसमें यथा-शक्ति तेल-बत्ती देती रहना।'
बहू रानी मन्दाकिनी का कंठ-स्वर उस वक्त अश्रु से अवरुद्ध हो गया था। इसलिए वह कोई उत्तर नहीं दे पायी।

छः साल बाद की बात है। उमाशंकर एम.ए. और वकालत पास करके कलकत्ता हाईकोर्ट में एडवोकेट हैं। 'निरीश्वर संघ' का कोई अस्तित्व अब नहीं रहा है और उमाशंकर को छोड़कर शेष सभी ने ईश्वर से संधि कर ली है। किन्तु उमाशंकर ने अपने मतवाद को नहीं छोड़ा है। धर्म, ईश्वर, पूजापाठ का वह जितना विरोध करता था, उसकी पत्नी मंदाकिनी इन सबको उतना ही अपने से आबद्ध किए हुए थी। एक दिन मंदाकिनी की दीदी आमोदिनी आई। उमाशंकर के प्रसंग में मन्दाकिनी ने कहा, 'दीदी, तू बहनोई साहब के लिए बिलकुल चिन्ता मत कर। उनका ईश्वर के प्रति अविश्वास असाधारण है। भगवान उनके युक्ति तर्क से जितने प्रसन्न होते हैं, उतना फूल-चंदन से भी नहीं होते। तभी इतने बड़े नास्तिक के गृह में भी कोई पर्व-पार्वण या पूजा-पाठ खाली नहीं जाता।'

यह सुनकर आमोदिनी ने हंसते हुए कहा, 'तब मेरी शंका निर्मूल कहाँ है रे? उमाशंकर के मत पर तेरी जो श्रद्धा देख रही हूँ उससे तो लगता है कि तू बहुत शीघ्र उसके दल में भर्ती हो जाएगी।'

मंदाकिनी ने कहा, 'पागल हुई हो! मैं चलती हूँ अपने विश्वास के रास्ते पर और वे चलते हैं ज्ञान के कठिन पथ पर।-मेरी उनके दल में जाने की शक्ति कहाँ?'

आमोदिनी ने कहा, 'तुम लोगों की बातें तुम जानो। लेकिन हम लोगों को बहनोई साहब के आचार-व्यवहार से बड़ी लज्जा होती है। देखो न, उस दिन दुर्गा-पूजा में हमारे यहाँ गए और वहाँ मन्दिर में दस मिनट तक खड़े होकर महिषासुर की मूर्ति का सौन्दर्य वर्णन किया। लेकिन एक बार भी झुककर देवी की मूर्ति को प्रणाम नहीं किया।

मंदाकिनी ने कहा, 'तुम लोगों को यदि उनके व्यवहार पर लज्जा होती है तो किसी धार्मिक अनुष्ठान में उन्हें बुलाओ ही नहीं। लेकिन तुम्हारे ससुर ने उन्हें चार्वाक कहा है, यह सुनकर वे बहुत खुश होंगे; वे चार्वाक के बहुत बड़े भक्त हैं।'

हाईकोर्ट की लम्बी छुट्टियाँ चल रही हैं। आफिस में बैठकर उमाशंकर एक फर्स्ट अपील का 'ब्रीफ' देख रहा था। इसी समय मंदाकिनी ने आकर कहा, 'लो, मुँह खोलो।'

बिना प्रतिवाद किए उमा ने मुँह खोल दिया और मंदाकिनी का हस्तविच्युत प्रसाद हजम करते हुए कहा, 'यह कौन से देवता का प्रसाद है?'
मंदाकिनी ने कहा, 'इतू देवता हैं।'
उमाशंकर ने हँसते हुए पूछा, 'यह तुम्हारे तैंतीस करोड़ देवताओं में से हैं या नई वृद्धि हुई है।'
आँखों में डाँटने का भाव लाकर मंदाकिनी ने कहा, 'देखो, हर बात पर मजाक अच्छी नहीं होती।'

उमाशंकर ने सहास्य कहा, 'तुम्हारे इन तैंतीस करोड़ देवताओं के पुण्य से कहीं मैं स्वर्ग में चला गया तो वहाँ तुम्हारे भगवान् से भेंट होने का डर है।'
मंदाकिनी ने कहा, 'घबराओ मत। तुम्हें इसी दुनिया में भगवान के दर्शन हो जाएँगे। फिर सहसा आमोदिनी की बात याद आते ही बोली, 'जानते हो,
कल दीदी ने क्या कहा था? कह रही थी, कि तुम इतने प्रबल नास्तिक होते जा रहे हो कि, एक दिन स्वयं भगवान को तुम्हारे पास आना पड़ेगा।
उमाशंकर ने कहा, 'तुम्हारी दीदी के यहाँ तो सर्वदा भगवान का यातायात लगा रहता है। एक दिन हमारे यहाँ भी आने के लिए कह देना। उनके दर्शन हो जाएँगे।'

दो दिन बाद उमाशंकर फिर उस फर्स्ट अपील के 'ब्रीफ' को आफिस में बैठकर देख रहा था। कोर्ट के खुलते ही मुकदमा चलने की संभावना है।
निम्न अदालत की राय की सुविधाएँ और असुविधाएँ जो-जो थीं वहाँ लाल-नीले पेंसिल से दाग लगा रहा था। इसी समय गौरवर्ण एक वृद्ध ने आकर कहा, 'जय हो, तुम्हारी।'
उमा ने ब्राह्मण की ओर दृष्टिपात करके पूछा, 'आप कौन हैं?'
'मैं हूँ, भगवान!'
'भगवान? भगवान क्या?'
'भगवान का क्या अर्थ? विस्मित नेत्रों से ब्राह्मण ने पूछा।
'यही, भगवान भट्ट जी, घोष, बोस, मुकर्जी...'
'कुछ नहीं, केवल भगवान हूँ।
-'निवास-स्थान?'
- 'गो-लोक।
-'जिला?'
-'अमरावती?
- 'अच्छा' लेकिन हाईकोर्ट की अधिकार सीमा में तो अमरावती की अदालत नहीं आती है....खैर, आपका मुकदमा क्या है? दीवानी का या फौजदारी का?'

उमाशंकर की बात सुनकर वृद्ध ने हँसकर कहा, 'मैं तुम्हारा मुवक्किल नहीं हूँ, उमाशंकर; मैं भगवान, ईश्वर, आदिनाथ, प्रणव हूँ।'
अब उमाशंकर ने भी मुस्करा कर कहा, 'आप विश्व-ब्रह्माण्ड के सृष्टिकर्ता हैं ?' -'हाँ, विश्व-ब्रह्माण्ड का सृष्टिकर्ता हूँ।'

यह और कुछ नहीं, साली आमोदिनी का परिहास है, और उसीने इस वृद्ध को भगवान सजाकर वहाँ भेजा है, यह समझ कर मन ही मन उमाशंकर खूब हँसा। एक कुर्सी की ओर इशारा करके उमाशंकर ने कहा, 'आसन ग्रहण करें। ब्राह्मण के बैठ जाने पर उमा ने कहा, 'आप जब विश्व-ब्रह्माण्ड के सृष्टिकर्ता, आदिनाथ इत्यादि हैं जो सर्वत्र भी होंगे। फिर ढूँढ-ढूँढ के एक नास्तिक को दर्शन देने की कैसे कृपा की, प्रभो?'
भगवान ने कहा, "मैं तुम्हें ईश्वर-मंत्र से दीक्षित करने आया हूँ।'
-'ईश्वर-मंत्र से? आपने कपिल का दर्शन-शास्त्र पढ़ा है?'
-'हाँ। --'कपिल ने तो प्रमाण के अभाव में ईश्वर को अ-सिद्ध कर दिया है।'
-और इसी अपराध में मैंने कपिल को उबलते हुए पानी में सिद्ध किया (पकाप दिया) है।'

'तो मैं भी आपको उबलते हुए पानी में डाल कर देखूँगा। यदि सिद्ध हो गए (जल गए) तो समझूँगा आप बनावटी भगवान हैं और यदि असिद्ध हुए (नहीं जले) तो मान लूँगा कि आप देवाधिदेव महादेव हैं। लेकिन पानी गरम होने में तो वक्त लगेगा। इसके पहले एक सामान्य प्रमाण लूंगा। जानते ही हैं न कि बिना सबूत में आपको ईश्वर नहीं मान सकता!'
'क्या प्रमाण चाहिए, बोलो?'

जेब से दियासलाई निकाल कर और जलाकर उमाशंकर ने कहा, 'इसकी शिखा में अपनी अंगुली दीजिए, फिर आपको पता चलेगा कि कैसा प्रमाण चाहता हूँ ।'

भगवान के मुँह पर फिर हँसी की रेखाएँ फूट पड़ी। बोले,-'बस! इतने से तुम संतुष्ट हो जाओगे, उमाशंकर? तुम्हारी उस अग्निशिखा में मैं ज्यों ही उंगली स्पर्श करूँगा वैसे ही वह शिखा पानी होकर झर जाएगी।'

भगवान के वाक्य और कार्य में कोई प्रभेद नहीं रहा। अग्नि-शिखा में उंगली का स्पर्श लगते ही वह शतगुण बढ़ गई और फिर पानी के रूप में झरने लगी।
विस्मित, चकित और वाक्शक्ति-हीन उमाशंकर की ओर देखकर भगवान ने कहा, 'इससे भी पुष्ट प्रमाण देखोगे, उमाशंकर?'
हतप्रभ उमाशंकर ने कहा, 'कहिए!'
'गीता पढ़ी है?'
'हाँ'
'ग्याहरवाँ अध्याय याद है?'
क्षणभर सोच कर उमाशंकर ने कहा, 'है: विश्वरूप-दर्शन।'
'तुम मेरा विश्वरूप देखना चाहते हो?'
भीत, त्रस्त और बिहल कंठ से उमाशंकर ने कहा, 'हाँ, देखूँगा ।'

'तो, देखो।' कह कर भगवान ने बहुत से हाथ, बहुत से उदर और बहुत से मुख से विराट-रूप धारण किया। इस विराट-रूप का न आदि दिखता था और न अन्त! दोनों आँखों के बीच सूर्य और चन्द्र जल रहे थे; भीषण दन्तावली, मुख-मंडल जैसे सर्वग्रासी अग्नि का रूप धारण कर रहा है।

बिछौने से उठकर मन्दाकिनी बाहर जा रही थी, जल्दी से आकर उसने पति के देह को झकझोरा । आँख खोल उमाशंकर विह्वल भाव से चारों ओर देखने लगा।

मन्दाकिनी ने पूछा, 'स्वप्न देख रहे थे, क्या?'
मन्दाकिनी के चेहरे पर दृष्टि रखकर त्रस्त भाव से उसने कहा, 'हाँ, भीषण दुःस्वप्न।'

स्वप्न की सारी घटना सुनकर मन्दाकिनी ने हाथ जोड़कर कपाल स्पर्श करते हुए कहा, 'इसे तुम दुःस्वप्न कहते हो? यह तो महा सुस्वप्न है। तुम भगवान हो, इसीलिए स्वप्न में तुम्हें भगवान ने दर्शन दिए हैं। अब जाग्रत अवस्था में भी तुम्हें उनके दर्शन मिलेंगे।'
यह कह कर मंदाकिनी ने स्वामी को प्रणाम किया और कमरे से चली गई।
कुछ देर निश्चेष्ट बैठे रहने के बाद उमाशंकर उठे, हाथ-मुँह धोकर चाय पी और फिर सांख्यदर्शन लेकर बैठ गए।

पाठ आरम्भ करने के पहले उन्होंने मन ही मन कहा, 'हे भगवान! सचमुच ही यदि तुम हो तो मेरे मन में परिपूर्ण विश्वास उत्पन्न करने के पहले मेरे मन को दुर्बल मत बनाओ।'

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