नसीब जली (उर्दू कहानी हिंदी में) : रामलाल

Naseeb Jali (Urdu Story in Hindi) : Ram Lal

दरवाज़े के बाहर साईकिल की घंटी सुनते ही मोता सिंह के बच्चे दरवाज़ा खोलने के लिए दौड़ पड़े। तीनों बच्चों ने एक साथ कुंडी पर हाथ रखा। दरवाज़ा खोल कर तीनों एक साथ चिल्लाए,

दार जी आगए, दार जी आगए!

और फिर तीनों एक साथ ही अचानक मोता सिंह की साईकिल पर सवार हो गए। एक आगे बार पर, दूसरा गद्दी पर और तीसरा पीछे कैरियर पर, मोता सिंह हँसता हुआ दाख़िल हुआ, बीवी की तरफ़ देखा। वो धूप में सुखाने के लिए रखी हुई दाल समेट रही थी। धूप सेहन में से होती हुई ऊपर दीवार की तरफ़ जा पहुंची थी।

धूप रोज़ उसी वक़्त बुर्जी पर चली जाती थी। मोता सिंह भी रोज़ उसी वक़्त वर्कशॉप से घर लौटता था। तेल के बड़े बड़े धब्बों वाली ख़ाकी क़मीस, नेकर और मैल से स्याह चीकट बूट पहने हुए, उसके चेहरे पर हमेशा मुस्कुराहट खेलती हुई, स्याह व सफ़ेद बालों से भरी भरी दाढ़ी मूंछ के अंदर से उसकी मुस्कुराहट जैसे छनछन कर बाहर आती और देखने और मिलने वालों को निहाल कर देती।

जिस क़दर वो तंदुरुस्त, तवाना और शोख़ मिज़ाज था, उसकी बीवी उतनी ही कमज़ोर और कमगो थी। पाँच बच्चों को जन्म देने के बाद उसके जिस्म में तन कर खड़ा होने और चलने की ताक़त नहीं रही थी। उसके ख़ूबसूरत क़द और आज़ा की दिलकश मुनासबत से अंदाज़ा होता था कि उस की जवानी क़ियामत रही होगी। इन तीनों बच्चों के इलावा जो बाप की साईकिल पर सवार थे, दो लड़कियां बड़ी थीं। सबसे बड़ी का दो साल पहले ब्याह हो चुका था। उससे छोटी दसवीं जमात में पढ़ती थी। वो रसोई में बैठी अँगीठी फूंक रही थी। बाप की आवाज़ सुनते ही बाहर निकल आई और बोली,

दार जी, आज एक ख़त आया है पाकिस्तान से।

पाकिस्तान से? मोता सिंह ने हैरानी ज़ाहिर की। किस का ख़त है मनजीत? मनजीत कमरे के अंदर दीवार पर सजा कर रखे हुए गुरू ग्रंथ साहिब के पीछे से एक लिफ़ाफ़ा निकाल कर बाहर ले आई जिस पर पाकिस्तान गर्वनमेंट के टिकट लगे हुए थे। बाप के हाथ में देती हुई बोली,

पता नहीं किस का है? उर्दू में है, मैं तो उर्दू जानती नहीं। बच्चों ने बेक़ाबू हो कर साईकिल को गिरा देना चाहा। मोता सिंह के हाथ से ख़त गिर गया। उसने जल्दी से साईकिल मनजीत के हवाले की और ख़त उठाकर सेहन में पड़ी हुई एक खाट के किनारे पर बैठ गया। एक हाथ से पगड़ी उतार कर घुटनों पर रख ली, दूसरे हाथ से लिफ़ाफ़ा के अंदर झाँका और तह किया हुआ काग़ज़ खींचा। एक फ़ुल स्केप काग़ज़ था। दोनों तरफ़ लिखा हुआ।

उतरो उतरो, नहीं तो गिरा दूँगी। मनजीत ने भाईयों को साईकिल पर से उतारकर साईकिल बरामदे में खड़ी कर दी। बच्चे फिर बाप के गिर्द जमा हो गए। एक पीछे से गर्दन में बाँहें डाल कर झूलने लगा और दूसरा सट कर बैठ गया। तीसरे ने हाथ से लिफ़ाफ़ा लेकर हैरानी से पूछा,

ये टिकट किस क़िस्म का है दारजी?

ये पाकिस्तान का है बेटे!

पाकिस्तान कहाँ है दारजी?

उधर है पाकिस्तान जिधर तेरे नाना रहते हैं, डेरा बाबा नानक वहां से बस थोड़ी दूर रह जाता है। ला, अब मुझे दे दे लिफ़ाफ़ा। इन सबको बाहर ले जा मनजीत। मैं ख़त पढ़ लूं।

पहले ये बताईए, ये किसका ख़त है?

ये देखता हूँ। ये ख़त के आख़िर में वो ग़ुलाम सरवर का नाम पढ़ कर चौंक गया। ग़ुलाम सरवर उसके मुँह से निकला और उसकी निगाह अपनी बीवी की तरफ़ उठ गई। वो भी ग़ुलाम सरवर का नाम सुन कर चौंक पड़ी थी और दाल समेटते समेटते सर घुमा कर देखने लगी थी।

कौन ग़ुलाम सरवर? मनजीत भाईयों को बाप के पास से हटा कर वहां ख़ुद बैठ गई और पूछा, उनका पहले कभी आपको ख़त नहीं आया?

हाँ पहले कभी नहीं आया। मोता सिंह जल्दी जल्दी ख़त पढ़ने लगा। वो दो-दो सतरें एक साथ पढ़ता जा रहा था। उसकी समझ में नहीं आरहा था कि ग़ुलाम सरवर ने उसे एक अर्से के बाद क्यों याद किया है। बारह साल के बाद पहली बार उसने अपने ज़िंदा होने का सबूत दिया था। पहली बार उसकी ख़ैरियत दर्याफ़्त कर रहा था, वो तो समझे थे कि सरवर ज़िंदा नहीं बचा होगा।

अगर बच भी गया तो आख़िर मुसलमान था। उसकी ख़ैरियत क्यों दर्याफ़्त करता। वो उसका कौन था? बस दो साल ही की तो दोस्ती थी उनके दरमियान! जब वो एक साथ वर्कशॉप में फिटर भर्ती हुए थे, एक ही वर्कशॉप में उन्हें जगह मिली थी। एक ही बैरक में एक दूसरे के पड़ोसी बने थे। सिर्फ़ दो साल के लिए और अब इस क़लील मुद्दत पर बारह बरस का बहुत गहरा बहुत ऊंचा मलबा पड़ चुका था। इस मलबे के नीचे उनके कितने मुशतर्का क़हक़हे सांझे मज़ाक़ और बहुत सारी यादें दफ़न हो कर ख़त्म हो चुकी थीं। वक़्त एक गहरा तेज़-ओ-तुंद और बार-बार रास्ता बदल लेने वाला दरिया भी है जो अपने तूफ़ानी बहाव के साथ सदियों की जमी हुई धरती के बड़े बड़े चट्टान से टुकड़े अलग कर के काट काट कर बहा ले जाता है और फिर ज़र्रा ज़र्रा कर के यहां-वहां फेंक कर इस धरती की हस्ती ख़त्म कर देता है। नामोनिशान तक मिटा डालता है। इस मिट्टी की अपनी ख़ुशबू नहीं रहती। अपना संगीत मर जाता है। किसी को याद नहीं रहता, यहां एक बड़ी इमारत थी, वहां एक बहुत बड़ा मैदान था। उधर एक पहुंचे हुए फ़क़ीर की क़ब्र थी। इस तरफ़ एक बहुत बड़ा मरघट था, एक आलीशान मवेशीगाह थी जहां मीलों दूर दूर से देहाती आकर यहां ढोर डंगरों की ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त करते थे। मेले में जमा हो कर नाचते और गाते थे। ज़ेर-ए-आब पड़ी हुई धरती के सीने पर मनों मिट्टी आ आकर पड़ती जाती है।

ख़त पढ़ते पढ़ते मोता सिंह की आँखों में आँसू आगए। ग़ुलाम सरवर ने उसे कभी भुलाया नहीं था। इसका पता कई ज़राए से दर्याफ़्त करता रहा था। बीसों दोस्तों से पूछा था। किसी ने जवाब दिया था तो पता नहीं बता सका था। किसी ने जवाब नहीं दिया था। मोता सिंह कई साल हुए अमृतसर की वर्कशॉप से तब्दील हो कर दिल्ली में आगया था। किसी को उसका पता आसानी से थोड़ी मिल सकता था। ग़ुलाम सरवर ने उसके पते की खोज अपने मुल्क में मुक़ीम हिन्दुस्तानी हाई कमिशनर की मदद से लगाई थी, और उसे वो दिन याद दिलाया था जब फ़सादात की मारकाट में ग़ुलाम सरवर अपनी बैरक में तन्हा रह गया था। उसके बचने की कोई सूरत नहीं रही थी। रात को वो दीवारें और छतें फलांगता हुआ मोता सिंह के घर में आ कूदा था। उसके चेहरे पर मौत की ज़र्दी छाई हुई थी कोई दम में उसका ख़ात्मा हो जाने वाला था। उसे मारने के लिए उसके कई पड़ोसी उसकी तलाश में घूम रहे थे। मोता सिंह के पास वो किसी उम्मीद पर नहीं आया था। उम्मीदें तो ख़त्म हो चुकी थीं। आँखों में मुरव्वत रही थी न दिलों की मुहब्बत। सरहद के दोनों तरफ़ एक अजीब सी दीवानगी और वहशत का दौर दौरा था। ब्रहना तलवारें, नेज़े, गंडासे चारों तरफ़ मसरूफ़-ए-रक़्स थे। बिजली की सी चमक के साथ कोंदते और आँख झपकने की देर सर तन से जुदा कर देते थे। वो मोता सिंह से कुछ भी नहीं कहना चाहताथा। मोता सिंह भी उसे क़त्ल कर सकता था। अपने भाईयों और बहनों के कत्ल और अग़वा का इंतिक़ाम उसकी बोटी-बोटी अलग करके ले सकता था।

जिस वक़्त वो दीवार पर से लटक कर धम से ज़मीन पर गिरा तो उस वक़्त मोता सिंह अपनी रोती हुई छोटी बच्ची को सीने से लगाए उसे चुप कराने की कोशिश कर रहा था। यही मन जीत थी वो बची। उसकी बीवी बरामदे में चारपाई पर लेटी हुई थी। सेहन में धप की आवाज़ सुनकर दोनों चौंक पड़े थे। वो समझते थे शायद मुसलसल बारिशों की वजह से दीवार का एक हिस्सा गिर गया है। मोता सिंह ने क़रीब जा कर देखा तो वो ग़ुलाम सरवर था। ज़मीन पर घुटनों के बल गिरा, उसे घूर घूर कर देख रहा था। फटी फटी आँखों से जो मौत की तरह ख़ौफ़नाक थीं, नाउम्मीद थीं। दोनों में से कोई भी नहीं बोला। ख़ामोश दोनों एक दूसरे को देखते रहे। एक दूसरे को पहचानने में कोई ग़लती नहीं कर रहे थे, ऐसी कोई वजह भी नहीं थी। बस सिर्फ़ ज़बान बंद थी। दिल-ओ-दिमाग़ पर बहुत से बोझ पड़े हुए थे। किसी से कुछ कहने की ज़रूरत नहीं थी। दोनों समझते थे, दोनों जानते थे। कुछ देर तक मोता सिंह ख़ामोश खड़ा रहा जब ग़ुलाम सरवर की तलाश में निकला हुआ हुजूम दरवाज़े पर पहुंच कर दस्तक देने लगा तो ग़ुलाम सरवर ने एक सिसकी लेकर सर नेहवड़ा लिया। मोता सिंह उसे बचाना भी चाहता तो अब ये उसके बस में नहीं था। फ़सादी उसका दरवाज़ा तोड़ कर अंदर आ जाना चाहते थे। उन्हें मालूम हो चुका था कि ग़ुलाम सरवर इसी क्वार्टर में कूदा था।

अचानक मोता सिंह ने उसके सर को छुवा। उसका कंधा हिलाया। फिर हाथ से पकड़ कर एक तरफ़ ले जाने लगा। उसमें अंदर चलने की अब सकत कहाँ थी? घुटना ज़ख़्मी हो चुका था। उसे लड़खड़ाता देखकर मोता सिंह को ग़ुस्सा आगया। माँ की एक गाली देकर उसे घसीटता हुआ चारपाई के पास ले गया और इस पर ग़ुलाम सरवर को पटख़ कर बोला,

मर यहां।

जल्दी से एक रज़ाई कमरे में से ला कर उसके ऊपर डाल दी, उसी चारपाई पर इसकी बीवी लेटी हुई थी, वो तड़प कर उठ बैठी और चिल्लाई,

क्या कर रहे हो?

तू बकवास बंद कर, नहीं तो किरपान सीने में घोंप दूँगा।

मोता सिंह सचमुच किरपान लेकर उसके सर पर खड़ा हो गया था। बच्ची को फ़र्श पर गिरा दिया था जो ज़ार-ओ-क़तार रो रही थी।

दोनों लेटे रहो सीधे एक दूसरे के साथ बिल्कुल लग कर, किसी को शक न हो कि दो सोए हुए हैं।

ये सुनकर ग़ुलाम सरवर और मोता सिंह की बीवी की रगों का ख़ून मुंजमिद हो कर रह गया । दोनों के जिस्म बिल्कुल सुन्न हो कर रह गए। बे-हिस-ओ-हरकत रज़ाई के बाहर सिर्फ़ मोता सिंह की बीवी का चेहरा था। वो फटी फटी आँखों से उसकी तरफ़ देख रही थी, समझ गई थी पागल हो गया है।

उसी वक़्त बहुत से लोग दीवार फाँद कर अंदर आगए थे, दरवाज़ा खोल कर उन्होंने और भी बहुत से लोगों को अंदर बुलाया था। सेहन में तिल धरने की जगह नहीं रही थी। हर एक के हाथ में कोई न कोई हथियार था। हर शख़्स ग़ुलाम सरवर की जान लेना चाहता था। लेकिन ग़ुलाम सरवर वहां कहाँ था उन्होंने घर का कोना कोना छान मारा था, फिर हैरान-ओ-मायूस हो कर वहां से चले गए थे। ग़ुलाम सरवर ने लिखा था,

मुझे आज भी उन लम्हों की याद आती है तो मेरा ख़ून उसी तरह रगों के अंदर जमने लगता है। ख़ुदा की क़सम तुमने वो काम किया था जो ऐसे हालात में मैं कभी न कर सकता, कभी न कर सकता। मेरा सर तुम दोनों के आगे ताज़िंदगी झुका रहेगा। मैं अजमेर शरीफ़ में चिशती वाले ख़्वाजा के उर्स में शरीक होने के लिए आ रहा हूँ, इस महीने की पंद्रह तारीख़ को फ्रंटियर मेल से दिल्ली पहुँचूँगा। एक दिन क़ियाम तुम्हारे घर पर करूँगा। तुम मुझे स्टेशन पर ज़रूर मिलना। ख़ुदा जानता है तुमसे कहने के लिए मेरे दिल में अनगिनत बातें हैं। मिलोगे तो सब कह सुनाऊंगा। अब तो तुम्हारी दोनों लड़कियां सियानी हो गई होंगी, शायद शादी भी कर चुके होगे उनकी, और भी बाल बच्चे होंगे तुम्हारे। उन सबसे मेरा अलग अलग प्यार कहना। भाबी साहिबा की ख़िदमत में सलाम अर्ज़ है। मेरे भी चार बच्चे हैं। ख़ैर से बड़े बड़े हैं। मिलने पर सबकी कैफ़ियत सुनाऊंगा, मिलना ज़रूर। वर्ना तुम्हारा घर ढ़ूढ़ने में मुझे बहुत दिक़्क़त होगी।

तुम्हारा ग़ुलाम सरवर

मिस्त्री (फिटर) ग्रेड अव्वल, मशीन शाप, लोको मुग़लपुरा

एन.डब्लू.आर. मग़रिबी पाकिस्तान।

ख़त ख़त्म हो चुका था। ख़त को तह कर के वो लिफ़ाफ़े में रख रहा था उसके चेहरे पर गहरी फ़िक्र पैदा हो चली थी और एक क़िस्म की सख़्ती भी, जैसे उसके चेहरे की ढीली ढाली जिल्द अचानक तन गई हो।

उसकी बीवी दोनों हाथों में एक छाज में दाल बटोर कर लाती हुई उसके पास खड़ी हो गई। शलवार-क़मीज़ और दुपट्टा में दुबला-पुतला जिस्म, हल्के हल्के स्याह बाल जो अपनी चमक खो कर अब मुरझाए हुए नज़र आरहे थे, चेहरे पर ज़र्दी सी खूंडी हुई थी, उस से बोली,

ये वही ग़ुलाम सरवर है जो अमृतसर में हमारी बारक में रहता था? मोता सिंह ने बीवी को घूरा उसकी आँखों में एक अजीब सा ख़ौफ़ उभर आया। फिर उस ख़ौफ़ पर दुरुश्ती और नफ़रत छा गई। उसने जवाब दिया,

हाँ।

क्या लिखा है उसने? इस की बीवी ने फिर पूछा।

वो अजमेर के उर्स में आरहा है। कहता है तुम्हारे घर भी आऊंगा मिलने के लिए। लेकिन मैं उसे यहां नहीं लाऊँगा।

क्यों? यकायक उसकी बीवी ने छाज फेंक दी। दुपट्टे को मरोड़ कर दोनों हाथों के गिर्द इस तरह सख़्ती से लपेटने लगी जैसे किसी की गर्दन मरोड़ रही हो। कड़क कर पूछा,

बोलो, उसे यहां क्यों नहीं लाओगे?

मामां तुम्हें क्या हो गया है? मनजीत घबरा कर परे हट गई। मोता सिंह भी घबरा कर चारपाई से खड़ा हो गया, जैसे वो कहीं पागल तो नहीं हो गई थी। बोला,

मनजीत की माँ! मैं उससे मिलूँगा भी नहीं। उसके सामने जाते हुए शर्म सी महसूस होती है।

बिफर कर उसने ख़ावंद का गिरेबान भी पकड़ लिया।

तुम्हें शर्म महसूस होती है? आज शर्म महसूस होती है, जब मैं बूढ़ी हो गई हूँ! बारह बरस पहले शर्म नहीं महसूस हुई थी जब मैं जवान थी। तब तो तुमने मेरी छाती पर किरपान रखकर मुझे ख़ामोश करा दिया था। मैं अपनी छाती के अंदर पड़े हुए इतने बड़े फट को आज तक नहीं भूल सकी। तुम्हें भी वो फ़ट नज़र नहीं आया कभी, कैसे नज़र आ सकता था। ये नसीब जली मैं ही हूँ जो आज तक चुपके चुपके रो-रो कर सिसक-सिसक कर उस घाव की परवरिश करती रही हूँ। मैं उसी दिन मर जाती, उसी वक़्त जान दे देती। लेकिन तुमने मरने नहीं दिया। तुमने मुझे दिलासा दिया था, तुमने मुझे यक़ीन दिलाया था, उस बात को कभी याद नहीं करोगे। कभी नफ़रत नहीं करोगे। कभी ताना नहीं दोगे। आज तुम्हें उससे मिलते हुए शर्म क्यों आरही है? तुम्हें ये सोच उस वक़्त क्यों नहीं आई? मेरी भी कोई शर्म है! मेरी भी कोई इज़्ज़त है! मेरा ज़ख़्म आज फिर फट गया है। मेरी इज़्ज़त मिट्टी में आज फिर मिली है। ये कहते कहते वो ज़ार-ज़ार रोती हुई सीना कोबी करने लगी और धम से बैठ कर अपना सर फ़र्श के साथ टकराने लगी।

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