नारी (हिंदी उपन्यास) : सियारामशरण गुप्त

Nari (Hindi Novel) : Siyaramsharan Gupt

नारी (उपन्यास) : अध्याय-8

मदरसे से आने पर हल्ली को इस बात का बड़ा खेद हुआ कि घर में हो जाने वाले उस कौतुकपूर्ण काण्ड को वह स्वयं अपनी आँखों नहीं देख सका। साँप कितना बड़ा था, कहाँ से आया, उसमें कितना विष था, ऐसे अनेक प्रश्नों की उसने झड़ी लगा दी। उस साँप के कारण हो सकने वाली दुर्घटना के कल्पित भय से जमना अब भी घबरा रही थी। इसी से बार-बार वही चर्चा छेड़ने के लिए वह हल्ली पर बेतरह झुंझला उठी ।

हल्ली नीचे बैठकर उस ताक में ध्यान से देख रहा था कि साँप ने अपना बिल कहाँ बनाया होगा। कहीं कुछ न दिखाई देने पर उसने भीतर हाथ डाला ही था तब तक भीतर से जमना ने उसे देख लिया । एक हाथ से अपनी ओर घसीटकर उसने उसके एक थप्पड़ जमा दी। बोली- इसमें हाथ क्यों डालता है रे ! - उसे ऐसा भय लगा मानो अब भी इसमें वहीं साँप बैठा है।

हल्ली ने हँसकर कहा- इतना डरती क्यों हो माँ? महादेवीजी तो अपने गले में साँप का गुलूबन्द लपेटे रहते हैं।

उसकी बात अनसुनी करके जमना ने कहा खबरदार जो अब कभी ऐसी जगह हाथ डाला ।

हल्ली बोला- मैं यहाँ होता तो उसे दूध पिलाता । कटोरी में वह अपनी छोटी-सी जीभ से लप लप करता हुआ दूध पीता । उस समय कितना भला मालूम होता, वाह !

जमना अपना पिण्ड छुड़ाने के लिए वहाँ से हट गई।

थोड़ी देर बाद हल्ली अजीत का हाथ पकड़े हुए आकर बोला- काका कहीं जा रहे थे, मैं इन्हें पकड़ लाया हूँ। कहानी सुनूँगा ।

जमना को याद आया सबेरे जिस काम के लिए आये थे, उसी के लिए अब भी जा रहे होंगे। मैं तो भूल ही गई थी। झट से उठकर उसने चबूतरे पर बाँस की एक चटाई बैठने के लिए डाल दी ।

अजीत के नीचे लटके हुए पैरों से लिपटकर हल्ली बात करने लगा। उसने पूछा—उस साँप को मार डाला काका?

"जङ्गल में दूर छोड़ आया हूँ बेटा। मैं मारता नहीं।"

"तुम्हें काटता नहीं ? - मन्त्र से बस हो जाता है?"

"हाँ, मन्त्र से बस में हो जाता है । परन्तु कहीं ऐसा भी होता है कि किसी-किसी पर कोई भी मन्त्र काम नहीं करता।" - कहकर अजीत ने तिरछी दृष्टि से जमना की ओर देखा । वह दूसरी ओर मुँह करके देखने लगी ।

अजीत की पिछली बात पर ध्यान न देकर हल्ली बोला- तुम मुझे अपना मन्त्र - जन्त्र सिखा दो काका ।

"सिखा दूँगा जब बड़े हो जाओगे ।"

"कितना बड़ा, तुम्हारे जितना ?"

इस ओर से असफल होकर वह कहानी कहने के लिए अनुरोध करने लगा। उसके बार-बार हठ करने पर अजीत ने कहा -लो सुनो। एक गाँव में एक इस्त्री रहती थी।

हल्ली ने कहा – हूँ ।

"वह इस्त्री देखने में ऐसी थी जैसे किसी राजा की बेटी हो। परन्तु एक ऐब उसमें बहुत बड़ा था। जो हठ वह पकड़ लेती उसे छोड़ना न जानती थी।"

"मूरख होगी?"

"यह मुझे नहीं मालूम। तो हाँ, उसके था एक लड़का।”

"कितना बड़ा?"

"तुम्हारे जितना ही । वह बड़ा समझदार था । कभी किसी को सँग न करता कि कहानी कहो।"

विरक्त होकर हल्ली कुछ कहना ही चाहता था, तब तक अजीत ने आगे कहा- और लोग उसे हल्ली हल्ली कहा करते थे ।

मुँह फेरकर हल्ली ने कहा- जाओ मैं नहीं सुनता। कहानी न सुनाकर तुम तमासा करते हो। इस समय तुम्हारा मन नहीं है, परन्तु कल मैं तुम्हें छोडूंगा नहीं।

वह वहाँ से चला गया ।

थोड़ी देर चुप रहकर अजीत बोला- तुम बुरा मान रही होगी कि मैं किसी बुरे मतलब से तुम्हारे पास आता हूँ।

जमना चुप बनी रही।

अजीत ने फिर कहा-मेरा यहाँ आना तुम बुरा ही समझती हो, पर मैं नहीं समझता। ऐसा होता तो सबेरे का साँप मुझे डस लेता। फिर भी तुम कहो तो न आया करूँ।

कातर होकर जमना कह उठी-मैंने कब कहा है कि न आया करो ।

"तब ठीक है। मैंने सोचा था, तुम रोक दोगी तब भी न रुकूँगा। मेरे मन में कोई पाप नहीं है, तब डर काहे का। मैंने तुमसे फिर घर बसा लेने के लिए कहा था । उसमें कुछ बुराई नहीं है। अपने यहाँ बाप-दादों के यहाँ से होता आया है।"

सबेरे की घटना के कारण जमना का हृदय कृतज्ञता से भरा था ? बार-बार सोचकर वह काँप चुकी थी कि यदि आज उस समय ये न आते तो न जानें कैसा अनर्थ हो जाता। इसी से अजीत की बात का कोई कड़ा उत्तर वह न दे सकी वैसे ऐसी बात के विषय में वह असहिष्णु हो गई थी।

जमना ने कहा- सबेरे कोई जरूरी बात कहने आये थे?

"उसी के लिए इस समय भी आ रहा था। कोई भले भूल जाय, भूलने वाला मैं नहीं हूँ। ऐसी-ऐसी बातें मुझे याद रह जाती है"-

"बात क्या थी?"

"कौन बात ? – अच्छा वह वही तो कह रहा हूँ। मैं इस बीच में सदर गया हुआ था। थानेदार बहुत भले आदमी हैं, बहुत मेहरबान हैं। कोई पेचीदा मामला आता है तो मुझे छोड़ते नहीं हैं। फौरन कास्टिबिल को हुकुम करते हैं- जाओ माते को हमारा सलाम बोलो ! इसी से इस बार भी उने साथ जाना पड़ा था। वहाँ हलवाई की दूकान पर पूरियाँ खाकर, मिठाई अच्छी नहीं लगती, इससे पूरियाँ ही खाता हूँ । मैं कचहरी की ओर झपाटे से जा रहा था, तब तक बड़े बाजार के चौमुहाने पर मुझे जगराम मिल गया ।"

जमना चौंक पड़ी। जगराम उस व्यक्ति का नाम था जिसके साथ वृन्दावन परदेश भागा था। वह बोली- जगराम नयेगाँव वाले ?

"हाँ, वह नहीं तो और कौन ? अब वह बाबू हो गया है। जानती हो बाबू कैसा होता है? हाथ-पैर बेंत की छड़ी जैसे, मुँह चुसी आम की गुठली - सा खुली लाँग की बगलगी धोती पर कमर तक काले रंग का बण्डा कोट पहने। कोई कैसा ही स्वाँग भर ले, पर मैं ऐसा नहीं हूँ कि वह मेरी आँख में धूल डाल सके। देखते ही दूर से मैंने पहचान लिया - जगराम है। शिबू बोला, जगराम नहीं है। तब मैंने उसका नाम लेकर पुकारा । वह तुरन्त मेरे पास आ गया ।"

जमना ने पूछा- फिर कुछ बात हुई?

"बात नहीं हुई तो पुकारा किसलिए था । कहता था, वहाँ का हवा-पानी माफिक नहीं बैठा, इसलिए यहीं आ गया हूँ! बाबू लोग होते ही ऐसे हैं । तनिक सी हवा में उड़ जायँ और डूबने के लिए भी उन्हें कोई गहरा पानी न चाहिए; फिर वहाँ तो जहाँ देखो वहीं जलकल की मोटी धार टूटती रहती है।"- कहकर अजीत हँसने लगा ।

जमना को इस समय यह हँसी बहुत बुरी लगी । बोली- उनके बारे में बात नहीं हुई?

“किनके, वृन्दावन के बारे में? समय ही कहाँ था। साढ़े दस बज चुके थे और कचहरी खुल जाती है ठीक दस बजे ।"

जमना क्षुब्ध होकर बोली- तुम्हें दूसरे की क्या फिकिर मैं आप जाकर सब पता ले आऊँगी।

"मुझे किसी की फिकिर नहीं है? तो मैं उसे पास बुलाता ही क्यों? बिन्द्रावन के बारे में बात छिपी ही कौन-सी है, जो मैं उससे पूछता फिरता । तुम्हीं से एक सवाल करता हूँ। बताओ, वे अब तक जीते होते तो जगराम के साथ दिखाई क्यों न दिये ? बेईमान, दूसरे को अपने साथ मरने के लिए ले गया और आप अकेला लौट आया है। तुम सब जानती हो ! सपने में-

जमना बैठी थी, उठकर खड़ी हो गई। भौंह तानकर उसने कहा- फिर वैसी ही बात! तुम चाहते हो सब कोई मर जायँ तब मैं तुम्हारी बाँदी हो जाऊँगी। मैं इतनी नादान नहीं हूँ जो कुछ न समझूँ। परन्तु तुम भी समझ लो, इस तरह बुरा ताकने से किसी का सत्यानाश नहीं होता ।

तेजी में हाथ की चूड़ियाँ खनकाकर वह झट से भीतर चली गई ।

अजीत चुपचाप जहाँ का तहाँ बैठा रहा। थोड़ी देर बाद भीतर के दरवाजे के पास जाकर उसने कहा- तुम नाराज हो गई हो जमना, परन्तु इसमें नाराज होने की कोई बात न थी । मैं सोचता था, जगराम की कही हुई बातें तुम्हें क्यों अपने मुँह से सुनाऊँ? फिर भी तुम कहती हो, मुझे किसी की फिकिर नहीं है! जगराम को लिवा लाकर यहाँ खड़ा कर दूँगा, तब तो मानोगी ? – तो अब जाऊँ ? -

भीतर से जमना का कोई उत्तर नहीं मिला। वहाँ वह कपड़ों में मुँह छिपाकर सिसक सिसककर रो रही थी ।

नारी (उपन्यास) : अध्याय-9

जगराम को अपने पति के साथ जमना पहले भी कभी देख चुकी थी । परन्तु उस दिन अजीत के साथ उसको अपने घर के भीतर से देखकर उसे यह नहीं जान पड़ा कि यह उसका देखा हुआ आदमी है। जैसे गत जन्म का कोई प्राणी उसे नई योनि में दिखाई दिया। उसका रूप, उसका पहनावा, उसका बोलचाल, सब कुछ बदल चुका था ।

अजीत ने पौर के दरवाजे से भीतर झाँकते हुए कहा - लो, ये जगराम आ गये।

जमना को जगराम से बात करने की उत्कण्ठा बहुत थी सही, परन्तु इस समय उससे बचने के लिए वह स्वयं अत्यन्त अधीर हो उठी। उसे भय हुआ कि यह निर्दय अमीन न जानें उसके किस विश्वास को बेदखल करने आ गया है।

जगराम ने कौतुक के साथ घर देखकर कहा- भाई, हाथ तो बढ़िया माल पर फेरा ! इसी समय घूँघट से आधा मुँह ढँके हुए जमना वहाँ धीरे-धीरे आती दिखाई दी। जगराम चुप हो गया। किन्तु यह इसलिए नहीं कि जमना ने उसकी बात सुन ली, वरन् इसलिए कि ऐसे रूप की उसने कल्पना तक न की थी। उसके घूरने का ढंग अजीत को अत्यन्त लज्जाजनक जान पड़ा। यह देखकर उसने सन्तोष की एक हल्की-सी साँस ली कि जमना की दृष्टि किसी ओर नहीं ।

जमना के चुपचाप बैठ जाने पर अजीत ने काम की बात तुरन्त छेड़ दी। बोला- ये कहतीं हैं, मुझे किसी की फिकर नहीं है, तुमसे बिन्द्रावन की बात नहीं पूछी। अब तुम आ गये हो, तुम्हीं कहो तब इन्हें विसवास होगा ।

"क्या बेहूदगी की बात है!" कहकर जगराम ने कोने में थूक दिया।

अजीत को चुप देखकर उसने फिर कहा- क्या घुघ्घू की अजीब सूरत लेकर बैठे हो । किसी के घर कोई आता है तो पान - पत्ते से उसकी खातिर की जाती है। भलमनसाहत की बात तो यही है। अपने मुनाफे के लिए, हाँ गहरे मुनाफे के लिए, यहाँ तक घसीट तो लाये और टरका देना चाहते हो सूखे सूखे ही अच्छा देखा जायगा !

जगराम अपने परिहास से अपने आप हँसने लगा। अजीत कठिनाई में पड़ गया ! वह जानता था, पान- तमाखू का प्रबन्ध यहाँ सम्भव नहीं है ! उसने सोचा, किसी तरह वृन्दावन का समाचार जमना को सुनवाकर वह इसे टाल दे तो उसकी जान बचे।

परन्तु बहुत इधर-उधर की टाल-टूल करने के बाद जगराम मुख्य विषय पर आया। जमना को ही सम्बोधन करके उसने कहा- तुम जानती ही हो, बिन्दा ने एक गन्दे कुली से दोस्ती जोड़ी थी । कुली के एक जवान लड़की थी, - समझीं ? - वही सब फिसाद की जड़ हुई । दोस्ती होने के थोड़े दिन बाद ही कुली बीमार पड़ा; बीमार पड़ा या सब बहाना था, यह मैं नहीं जानता। बिन्दा उन दोनों को उनके घर पहुँचा आने के लिए अपनी गाँठ का पैसा लगाकर तैयार हो गया। बात क्या थी यह सब जानते हैं। रहने वाले वे लोग किसी देसी रियासत के थे ! वहाँ की पुलिस भी यहाँ की से कम सज्जन नहीं होती। बच्चाजी वहाँ दो दिन में ही फाँसकर बन्द कर दिये गये । बन्द कर देने के साथ ही बोल दी गई लम्बी चौड़ी सजा । लम्बी चौड़ी सजा वहाँ कानून की तामील करने को ही सुनाई जाती है, मगर वहाँ की जेलें इतनी भली हैं कि हट्टे-कट्टे आदमी को भी वहाँ एक महीने के भीतर-भीतर इस दुनियाँ से छुटकारा मिल जाता है। बस आगे की बात मुझे नहीं मालूम। उसके कहने में कुछ फायदा भी नहीं है।

यह प्रसङ्ग छिड़ने के पहले ही जमना का जी घबराने लगा था। पूरी बात सुने बिना ही बीच में, "जी न जानें कैसा करता है"- कहकर वह उठ गई ।

भीतर जाते समय जमना का मुँह देखकर अजीत के ऊपर चाबुक- सा पड़ा। दुःख इतने शीघ्र किसी का रक्त चूस सकता है, यह उसने पहली बार देखा ।

वहाँ से निकलकर उसने जगराम से कहा- तुमने यह कैसे गँवारपन की बातचीत की, कुछ अच्छी तरह नहीं बोल सकते थे?

"यही मुझमें ऐब है" - दाँत निकालकर जगराम ने कहा- "झूठ से नफरत करता हूँ। जो भीतर वही बाहर । बनाकर बात करना जालसाजी है । और देखा तुमने इसका ढोंग? कैसी बनी हुई निकली ! नाटक थेटर में अच्छा कमा सकती है। यह मेरी आँख में धूल झोंकेगी ? - अरे राम कहो । मैं औरत की रग पहचानता हूँ। अब तक न जानें किस किसके साथ क्या क्या खेल खेल चुकी होगी और दिखावा करती है ऐसा। दो दिन मुझे गाँव में रहने दो और देख लो कि मैं-

जगराम समझ रहा था, इन बातों से अजीत प्रसन्न होगा, परन्तु वह बीच में ही क्रुद्ध होकर बोल उठा - बकते क्या हो? भले घर की बहू- बेटी के लिए जजान सँभालकर खोलो। मैं नहीं जानता था, सहराती होकर तुम ऐसे हूस हो गये होगे। मेरा यह डंडा देखो, अब तुमने कोई ऐसी-वैसी बात मुँह से निकाली और मैंने तुम्हारे दाँत तोड़ दिये ।

जगराम सिटपिटा तो गया, परन्तु सँभलकर हँसने की चेष्टा करते हुए उसने कहा- वाह दोस्त मैं हँस रहा, तुम बिगड़ पड़े।

अजीत बोला- यह चालाकी किसी दूसरे के साथ करना, यहाँ ऐसे बुद्धू नहीं बसते । किराये के दाम तुम्हारे पास है; हटो, यहाँ से मुँह काला करो।

गँवार आदमी के सामने से हट जाने में ही जगराम ने भलाई समझी। वह पहले नहीं जान सका था कि यह इतना भयंकर आदमी है। नहीं तो सैर-सपाटे के लोभ से भी यह यहाँ न आता ।

अजीत की आँखों में आँसू आ गये। क्यों वह इस आदमी को बुला लाया? उसका विश्वास भी यही था कि वृन्दावन अब इस पृथ्वी पर नहीं है। यह बात जमना के गले के भीतर उतारने में उसने अब तक कोई कसर नहीं रख छोड़ी थी । परन्तु इस समय स्वयं वही अपनी उस धारणा को समूल नष्ट कर देने के लिए अनेक सम्भव और असम्भव बातें एक साथ सोचने लगा। उसके जी में आया कि जाकर वह जमना से कह दे कि मैं अपना स्वार्थ साधने के लिए सिखा-पढ़ाकर इसे तुम्हारे पास लाया था। परन्तु ऐसा वह कर नहीं सका। व्यथित चित्त लेकर सीधा घर लौट गया।

नारी (उपन्यास) : अध्याय-10

हल्ली ने माँ में कुछ विचित्र परिवर्तन देखा । वह एकदम गुमसुम हो गई थी। उसने कारण पूछा तो झिड़क दिया गया। पड़ोस की कुछ स्त्रियाँ भारी मुँह किये उसके यहाँ आई थीं। माँ ने उनके साथ रूखा व्यवहार किया, यह भी वह देख चुका था । वे स्त्रियाँ उसकी माँ की कुछ बुराई- सी करती हुई लौटीं। वह चक्कर में था कि बात क्या है। इस सबका कारण उसे बाहर से मालूम हुआ ! वहाँ यह समाचार फैलते विलम्ब न लगा था कि जमना के यहाँ शहर का एक आदमी आकर वृन्दवन के मर जाने की पक्की बात कह गया है।

हल्ली ने अपने होश से बाप को कभी देखा नहीं है। फिर भी वह अत्यन्त कातर हो उठा। उसकी इच्छा हुई कि आँगन में लोट लोटकर वह अपने दुःख से उस भूमि के कण-कण को हिला दे। परन्तु इस दुःख में उसकी माँ ही जैसे उसे अपने विरुद्ध दिखाई दी। उन्होंने उसके बाप के मरने का कोई शोक नहीं किया। गुमसुम रहने से क्या होता है। ऐसे में तो खूब जोर-जोर से रोया जाता है। ऐसा न करने के लिए मुहल्ले में अपनी माँ की बुराई वह अपने कानों सुन आया है। उसने माँ के पास जाकर - " अप्पा' – इतना ही कह पाया कि जमना ने डाटकर टोक दिया) जा, हट यहाँ से। ऐसी बातों पर ध्यान क्यों देता है? – जमना को यह मालूम न था कि हल्ली ने अपने बाप के मरने की खबर सुनी है ।

हल्ली को भय हुआ, माँ पागल तो नहीं हो गई। कल रात से ही कुछ ऐसी बात है। आज सबेरे जब थाली में सबका सब कलेवा वैसा ही छोड़कर वह उठ खड़ा हुआ तब भी माँ ने कुछ नहीं कहा और दोपहर को पानी का लोटा भरते समय उससे मिट्टी का घड़ा फूट गया तब भी उनके लिए जैसे कोई बात नहीं हुई। ऐसे कुसमय में माँ का पागल हो जाना भी उसे उनका एक अपराध - सा ही दिखाई दिया।

उदास मन से वह वहाँ जा पहुँचा जहाँ लड़के खेल रहे थे। एक लड़के ने कहा- हमें छूना मत, नहीं तो नहाना पड़ेगा।

हल्ली ने कुपित होकर उत्तर दिया- यहाँ सड़क पर खड़े हैं। देखें कौन मना करता है। सड़क किसी के बाप की नहीं है।

राधे उसका मित्र था, वह पास आ गया। मित्रता के अधिकार से उसने कहा- तुम्हारी माँ बहुत खराब हैं।

"उन्होंने किसी की क्या चोरी की है?"

"तुम्हारे बप्पा के मर जाने पर वे रोई नहीं हैं। मेरे बाप के मरने पर मेरी माँ तीन दिन रात लगातार रोई थीं। रोटी तक नहीं खाई थी। जो देखता था वही धन्य-धन्य करके बड़ाई करता था। दो दिन पहले ही आठ आने की रंगीन चूड़ियाँ पहनी थीं, रंज के मारे उन्हें तक फोड़ डाला। "

हल्ली को ध्यान आया, यह ठीक कह रहा है। चूड़ियों के रंगीन टुकड़े उसने भी उठाकर देखे थे। पास की स्त्रियों के मना करने पर उन्हें वहीं फेंककर उसे भाग आना पड़ा था।

उसे चुप देखकर राधे ने फिर कहा- तुम अपनी माँ को सूतक मनाने के लिए समझा दो। उन्होंने बहुत बदनामी का काम किया है।

हल्ली को क्रोध आ गया। "माँ की निन्दा करता है"- कहकर उसने उसके गाल पर तड़ाक से एक चाँटा जड़ दिया और वहाँ से भाग आया ।

घर पहुँचने पर एक ओर चुपचाप बैठकर वह रोने लगा। जमना किसी काम से उधर जा रही थी, उसने कठोर पड़कर पूछा- रोता क्यों है ?

अब तक वह दबा दबा रो रहा था, अब जोर से रो पड़ा। उसने कुछ कहना भी चाहा, परन्तु 'बप्पा- बप्पा' शब्द को छोड़कर और कुछ स्पष्ट न हुआ ।

"मैं क्या करूँ, बैठ कर रो !” – कहती हुई जमना वहाँ से चली गई। इस बार उसका स्वर पहले सा कठोर न था ।

थोड़ी देर बाद अजीत पहुँचा, तब भी हल्ली वहीं बैठा था। वह चुप हो गया था, परन्तु रोने के चिह्न उसके मुँह पर से मिटे न थे।

अजीत ने प्यार से पूछा - रोता क्यों है बेटा ?

वह चुपचाप जहाँ का तहाँ बैठा रहा। धीरे-धीरे उसके सिर पर हाथ फेरकर अजीत बोला- तुम किस बात का रंज करते हो? लड़के हो, सुचित्ते होकर खेलो और पढ़ो।

हल्ली ने कहा- दिबिया की काकी कहती थी-बुरी बात कहती थी। लड़के कहते हैं, तुम हमें छुओ मत, तुम्हारा बाप मर गया है ! माँ को सूतक मनाना चाहिए।

अजीत ने कहा- दुत् रे पगले !

हल्ली बोला - बप्पा दूर परदेश में अकेले मर गये, न जाने कैसी तकलीफ उन्हें उठानी पड़ी। उनके लिए न माँ ने आँसू गिराये और न मैं रोया, उनका जीव क्या कहता होगा।

उसके रुके हुए आँसू फिर उसकी आँखों में दिखाई देने लगे ।

अजीत को वृन्दावन के लिए कोई दुःख न था, परन्तु हल्ली के आँसुओं ने उसे हिला दिया। इस छोटे बालक का छोटा हृदय न जाने कितनी दूरी पार करके अपने बाप से मिल गया है, - अजीत को यह इसकी निरी मूर्खता ही नहीं जान पड़ी। उसके आँसू पोंछकर उसने पूछा- तुझसे कहा किसने है कि वे मर गये, जमना ने ?

सिर हिलाकर हल्ली ने कहा- उनसे पूछने गया तो उन्होंने बीच में ही दुतकार दिया।

"फिर झूठमूठ के लिए तू क्यों रोता है? तेरे बप्पा मरे नहीं है। उस दिन तू सुना रहा था कि तेरी माँ कहती हैं- वे एक दिन यहाँ आयँगे जरूर, देर चाहे जितनी हो जाय, उनकी बात झूठ नहीं हो सकती। कहा था? तब तू झूठी फिकिर क्यों करता है? रो मत बेटा ।"

"एक आदमी आकर खबर दे गया है, वह झूठ क्यों कहेगा?"

जगराम को दो-चार गालियाँ सुनाकर अजीत ने हल्ली को विश्वास दिला दिया कि उसकी बात झूठ है। लड़के को प्रसन्न करने के लिए अपनी धारणा के विरुद्ध बोलकर भी उसे सन्तोष ही हुआ ।

हल्ली को बाप के न मरने के समाचार से भी अधिक प्रसन्नता यह हुई कि माँ की वह बदनामी झूठी थी। उसकी माँ अच्छाई में किससे कम है? जब उसका बाप मरेगा, उसने कल्पना करके सोचा, तब वे दिखा देंगी कि रंज करने में राधे की माँ भी उनके सामने कुछ नहीं !

"माँ से कह आऊँ"- कहकर वह झट से भीतर दौड़ गया।

नारी (उपन्यास) : अध्याय-11

अजीत इधर कई दिन से जमना से मिल नहीं सका है। उसे जान पड़ता है कि जैसे जान बूझकर ही वह उससे दूर-दूर रह रही है। फिर भी वह आता है और हल्ली से बातचीत करके उसे हँसा-खिलाकर लौट जाता है।

आज दोनों की बैठक घर के बाहर वाले नीम के पेड़ के नीचे जमी। सन्ध्या हो गई थी, परन्तु अँधेरा अभी नहीं था। हल्ली बोला- अभी कहानी कहने का समय नहीं आया काका? तुम कहते थे, दिन में कहानी कहने से रास्ता भूल जाता है। कोई कलकत्ते का रास्ता भूल जाय तब तो आफत हो !

अजीत ने पूछा- कलकत्ते का रास्ता किसलिए?

कलकत्ते के साथ उसके मन का क्या सम्बन्ध है, इसे वह प्रकट नहीं करना चाहता। कई दिन से माँ का रुखा रुखा चेहरा और उदास- उदास मन देखकर आज उसके मन में आया था कि कहीं से उसे कुछ रुपये मिल जायँ तो वह तुरन्त कलकत्ते चल दे। माँ को विश्वास नहीं हो रहा है कि बप्पा मरे नहीं हैं। नहीं तो इस तरह उनके दुखी होने का और कारण हो क्या सकता है ? इस विषय में वे उससे बात तक नहीं करना चाहतीं। बात करें तो वह उन्हें समझावे । अब वह किसी प्रकार कलकत्ते पहुँच जाय तो फिर अपने बाप को खोजकर लाये बिना न लौटेगा। परन्तु यह भी वह जानता है, उसकी यह बात सुनकर लोग हँसेंगे। इसलिए बात उड़ाकर ऊपर की ओर देखते हुए उसने कहा- देखो काका वह एक तरैया निकल आई है- एक तरैया राजा देखे-

अजीत ने कहा - तब तुम राजा होगे।

हल्ली बोला - माँ मुझे राजा बेटा कहती हैं, परन्तु मैं वैसा राजा नहीं बन सकता । हाँ कहानी के उस लकड़हारे की तरह किसी शहर के फाटक पर पहुँच जाऊँ और... तब सबसे पहले रेल पर सवार होकर कलकत्ते चला जाऊँगा ।

यह कहकर उसने ऊपर की ओर देखते हुए फिर तुरन्त बात बदल दी। बोला- अब बहुत सी तरैयाँ निकल आई। लड़के कहते हैं ये राम की गउएँ हैं। रात में चरने के लिए ढील दी जाती हैं।

"गउएँ कहीं रात को चरने के लिए ढीली जाती हैं?"

"ढीली तो नहीं जाती!" - कहकर हल्ली कुछ सोचने लगा ।

"तो फिर यह समझा, "अजीत ने कहा- "ये गउएँ दिन में और कहीं चरने जाती होंगी, रात होने पर अपनी थन्ना पर लौट आती हैं। है न यही बात? बीच में जो जगह खाली है, वहाँ ये अँधेरे के पूले रख दिये हैं। रात भर चरती रहेंगी।"

हल्ली का हृदय कवित्व के किसी अचिन्तित लोक में पहुँचकर पुलकित हो उठा। बोला- आहा कितनी अच्छी हैं ये ! मैं इनका बरेदिया बना दिया जाऊँ तो इन्हें चराता चराता कलकत्ते तक, कलकत्ते तक क्या, सारी दुनियाँ घूम आऊँ ।

अजीत ने विस्मय प्रकट करते हुए कहा- यह तो बड़ी अच्छी बात सोची हल्ली!

हल्ली निस्संकोच भाव से कहने लगा-काका, मेरी इच्छा तो कलकत्ता घूमने की ही है। कोई मुझे रोके नहीं तो मैं अभी चल खड़ा होऊँ । एक लकड़ी कन्धे पर रख लूँगा और उसके सिरे पर झूलती होगी कलेवे की पोटली। बस और जरूरत ही क्या है! मैं अकेला पैदल ही चला जाऊँगा। बीच में बड़ी-बड़ी नदियाँ मिलेंगी; बड़े-बड़े बियावन जङ्गल पड़ेंगे; नगर-गाँव-खेड़े, पहाड़ पर्वत क्या क्या न मिलेगा? मैं आगे बढ़ता ही जाऊँगा, रुकूँगा नहीं। मुझे डर है किसका? एक दिन ठिकाने पर पहुँच ही जाऊँगा ।

अजीत ने ताली पीटकर प्रसन्नता प्रकट की- यह तो बड़ी सपूती का काम है! मैं भी तेरे साथ चलूँगा हल्ली।

उसे याद आया, उसकी माँ ने एक बार इसी तरह उसके साथ चलने की इच्छा प्रकट की थी। उसकी यशोलिप्सा में सभी उसके भागी बनना चाहते हैं ! उसने जमना से तो कह दिया था कि वहाँ स्त्रियाँ नहीं जा सकतीं, परन्तु इस काका को क्या कहकर मना करे, यह उसकी समझ में नहीं आया। कुछ सोचकर उसने कहा- मैं रास्ता भूल जाऊँगा इसी से साथ चलने की कहते हो । नहीं, मैं भूलूँगा नहीं। नक्शे में सब रास्ता. ठीक-ठीक लिखा हुआ है।

अजीत ने उसकी बात तुरन्त मान ली। बोला- मैं इतना पढ़ा-लिखा नहीं हूँ बेटा। गँवार आदमी के साथ चलने से तुम्हें कुछ सुभीता न होगा ।

हल्ली ने संकुचित होकर कहा- तुम्हें मंत्र - जंत्र तो बहुत मालूम हैं। मैं तुम्हारे मंत्रमंत्र सीख लूँ तो बहुत अच्छा हो। कहीं किसी समय बप्पा को साँप -

"राम-राम ! ऐसा नहीं सोचना चाहिए। तुम्हारी माँ सुनेंगी तो उन्हें बुरा लगेगा।"

नहीं, मैं उनके सामने न कहूँगा उन्हें दुःख होता है। उनके बारे में वे मुझसे बात तक नहीं करती। मैं कुछ कहता हूँ तो झिड़क देती हैं कभी-कभी मुझे बप्पा के ऊपर बड़ा गुस्सा आता है। उन्होंने माँ को छोड़ क्यों रक्खा है? अब तो माँ भी उन पर वैसी प्रसन्न नहीं जान पड़तीं।"

"तुमने कैसे जाना?"

"मैं इतना भी नहीं जानता? – तुम किसी आदमी को हमारे यहाँ लिवा लाये थे?"

"तुम्हारी माँ ने कहा है?"

"नहीं। वह कहता था कि बप्पा मर गये। माँ को तुम धीरज न बँधाते तो वे पागल होकर मर जातीं।"

"परन्तु वे तो मुझ पर बहुत नाराज हैं।"

"नहीं नाराज नहीं हैं। वे तुम्हें बहुत चाहती हैं। तुम्हारी बहुत बड़ाई करती थीं।"

अजीत के मुँह पर लाली दौड़ गई। उसने पूछा- क्या कहती थीं?

हल्ली कठिनाई में पड़ गया। उसे याद न था कि माँ ने कहा क्या था ! फिर भी उसने उत्तर दिया- वही साँप पकड़ लेने की बात । वाह, उस दिन कैसी सफाई से उसे पकड़ लिया था !

यह तो वही पुरानी बात निकली। इस प्रशंसा से अजीत को कुछ विशेष हर्ष हुआ हो, यह दिखाई नहीं दिया। नशे की सह्य मात्रा की तरह यह बात उसके हृदय का रक्त नई तेजी से संचालित नहीं कर सकी।

हल्ली ने तुरन्त फिर कहा- हाँ काका, तुम राजा होने वाले हो ।

"राजा?"

"हाँ राजा । दिबिया की काकी माँ से कह रही थी- आज कल अजीत माते तुम्हारे मिन्तरी हैं, अब राजा कब बनेंगे? मैं बाहर जा रहा था, मैंने सुना, माँ कह रही हैं राजा बनें कि बादसा, तुम क्यों किसी की बात में पड़ती हो? कहकर, माँ तेजी से घर के भीतर चली गई थीं। "

अजीत ने दोनों हाथ उठाकर अँगड़ाई लेते हुए कहा- मुझे तुम्हारी माँ से मोतीलाल चौधरी के बाबत कुछ बात करनी थी। न जानें वे कब तक खेत से लौटेंगी।

अजीत की ओर देखकर हल्ली ने अनुभव किया कि जो बात अभी उसने कह डाली है, उसमें न जानें ऐसा क्या है कि उसे वह कहनी न चाहिए थी। फिर भी कारण उसकी समझ में नहीं आया।

नारी (उपन्यास) : अध्याय-12

जमना सन्नाटे में आ गई कि मोतीलाल चौधरी चार सौ से अधिक रुपये उस पर निकाल रहे हैं। उसने कहा- इतने रुपये हो कैसे गये ? मैं तो हर साल बराबर चुकाती रही हूँ ।

अजीत ने पूछा- रसीद ले लेती थीं?

"हाँ।"

"किसी से पढ़ा लेती थीं?"

जमना चुप रह गई। किसी से रुपये की रसीद लेने का अर्थ है उसका अविश्वास करना । रसीद लेकर उसे औरों से पढ़वाते फिरना जना के लिए ऐसा काम है जैसा किसी को मार चुकने पर भी बराबर उसके ऊपर खाँड़ा चलाते रहना। परन्तु इस समय वह यह सब प्रकट भी नहीं कर सकी। इसी बात को लेकर एक बार उसे जो अपमान सहना पड़ा था, उसकी लज्जा उसके मर्म में आज तक व्याप्त थी। उस दिन वह मोतीलाल के यहाँ पहले पहल अपने हाथ से रुपये देने गई थी। रुपये की रसीद ज्यों ही उसे मिली, त्यों ही पास बैठे हुए एक आदमी ने पढ़ने के लिए उसे उसके हाथ से ले लिया। कदाचित् वह व्यक्ति दिखाना चाहता था कि मैं मूर्ख नहीं हूँ, पढ़ना मुझे आता है। देखकर मोतीलाल कहने लगा—“हाँ, अच्छी तरह पढ़वा लो मातौन, हमने झूठी रसीद तो नहीं लिख दी। कलजुग है न, महाजन बेईमान होते हैं ! जरूरत पड़ने पर आसामी को भूखों मरने से बचावें तो हम बचावें, परवरिस करें, तो हम करें, परन्तु नतीजा निकलता है-क्या निकलता है, – तुम चुप क्यों हो धन्नी ?" पास बैठे हुए उस आदमी ने उत्तर दिया- "यही कि महाजन और साहूकार परले सिरे के बेईमान है !” लज्जित होकर पहला आदमी जमना का कागज उसके हाथ में लौटाने लगा, परन्तु मोतीलाल ने जोर देकर उससे वह अच्छी तरह पढ़वा ही दिया। वह पढ़ चुका तब उपस्थित अन्य व्यक्तियों को भी बारी-बारी से उसे फिर पढ़ना पड़ा। बाहर सड़क पर कोई जा रहा था उसे बुलाकर उससे भी यह बेगार ली गई। आसामियों के अविश्वास को लेकर जब सभी अपना भिन्न-भिन्न मत छिपी और खुली हँसी के साथ प्रकट कर चुके तब मोतीलाल ने फिर कहा - " अब भी मातौन को अविश्वास हो तो और भी चाहे जिससे पढ़वा लें। तुम सब भी तो बेईमानी कर सकते हो। जमाना आजकल विश्वास करने का नहीं है।" उस दिन जमना को किसी तरह वहाँ से भागना कठिन हो गया था। तब से आज यह पहली ही बार रसीद पढ़वाने की बात उसके सामने आई थी।

जमना को चुप देखकर अजीत ने कहा- रसीद कभी किसी से पढ़वाकर नहीं देखी तब उसका लेना न लेना बराबर है। औरतें ऐसी ही मूरख होती हैं। चालाक आदमी तभी तो उन्हें अपने फन्दे में फाँसकर उनका सत्यानाश कर डालते हैं। कोई मुझसे करे चालाकी ! मैं जेलखाने की हवा खिलाये बिना न मानूँ ।

जमना ने खीझकर कहा- चौधरी ने कब किसे झूठी रसीद लिख दी जो तुम उनके लिए ऐसा कह रहे हो ?

अजीत कृत्रिम विस्मय के साथ कहने लगा-ना-ना, ऐसा कहने से पाप लगेगा। चौधरी बड़े रिसी-मुनी जो हैं !

जमना संकटापन्न स्थिति में है। इधर और उधर के अविश्वास के बीच में उसके विश्वास का जो टापू है, वह बहुत छोटा है। उस पर वह खड़ी है, परन्तु ऐसा नहीं जान पड़ता कि वहाँ वह डेरा डालकर रुक भी सकेगी।

जमना का मौन अजीत के लिए असह्य हो उठा। उसे जान पड़ा कि इसने मेरा व्यंग न समझकर मोतीलाल को सचमुच ऋषि-मुनि का अवतार मान लिया है। बोला- तो अब बैठी क्यों हो? उठो, लोहे की सन्दूक खोलकर तोड़ा निकाल लाओ। मोतीलाल झूठ तो लिख नहीं सकते, उन्हें उनका पावना देना ही चाहिए ।

जमना ने कहा- क्या मेरे घर में लोहे की सन्दूक रक्खी हैं? जाकर तुम आप सब देख आओ जो कहीं कुछ हो ।

अजीत हँस पड़ा। सरस होकर उसने कहा- देखो, जमना, तुम सतजुग की रहने वाली हो, परन्तु समय तो सतजुग का नहीं है। कलजुग के लिए कलजुग की ही बनना पड़ता है।

जमना की आकृति कठोर हो गई। परन्तु इस पर ध्यान न देकर अजीत ने आगे कहा- तुम बहुत विसवास करोगी तो दुनियाँ तुम्हें ठग लेगी।

"मेरे पास ऐसी ही रोकड़ तो है जो कोई ठग लेगा। कुछ होता तो चौधरी को चार-पाँच सौ दे ही न देती ।"

"तब फिर चौधरी जितना निकाल रहे हैं वह तुम्हें उनका देना है? नहीं? – नहीं, कैसे, तुम अभी कह रही थीं, रुपये होते तो चार-पाँच सौ उन्हें दे न देती । यही तो चौधरी चाहते हैं। मैं समझ गया, तुम फँसोगी। मैं तुम्हें बचा नहीं सकता, कोई वकील - वालिस्टर भी कैसे बचा सकेगा? मैं जो कहने के लिए कहूँ, वही तुम कहो तो कुछ हो सकता है।"

"तुम जो कहोगे वह न करूँगी तो क्या करूँगी। चौधरी मुझे लूट लेना चाहते हैं, परन्तु ऊपर भगवान हैं।"

"ऊपर भगवान हैं तो, परन्तु चौधरी का इस समय वे कुछ कर नहीं सकेंगे? व्रम्मभोज और दान-पुन्न चौधरी क्या सेंत ही करते हैं? उनके खाते में यह सब भगवान के ही नाम लिखा है। सबके ऊपर ब्याज - त्याज फैलाकर चौधरी कहीं डिगरी करा लें तो भगवान को भी आफत पड़ जायगी। अच्छा जाने दो, हँसी तुम्हें नहीं रुचती । असल मुद्दा की बात यह है कि चौधरी के यहाँ का आदमी आये तो उससे साफ कह दो - हमें रुपये नहीं देने, जाकर नालिस करो। "

जमना ने दृढ़ता से कहा- नहीं, मैं ऐसा नहीं कहूँगी।

"तो फिर अभी क्यों कहती थीं, - तुम जो कहोगे कहूँगी।"

"नहीं मैं यह न कहूँगी" - जमना ने फिर कहा ।

"नहीं कहोगी, न कहो, देखो अपना काम । मुझे किसी की बात में पड़ने की क्या पड़ी है।" कहकर अजीत चुप हो गया।

"अच्छी बात है, तुम भी मुझे मँझधार में छोड़ दो। घर के आदमी ही साथ नहीं देते, तुम क्या करोगे?"

"मैं क्या करूँगा?" - अजीत बोला - " मैं तो चौधरी को नाकों चने चबवा दूँ, तुम भी तो मेरी सुनो। मैं यह न कहूँगी, मैं वह न कहूँगी, इस तरह भी कहीं चलता है। मोतीलाल चाहते हैं कि तुम्हारा खेत और कुआँ हड़प जायँ । गाँव में वह ऐसी ही सिरे की जमीन है।"

"देखूँ कोई कैसे लेता है। मैं मर जाऊँगी परन्तु उसे छोडूंगी नहीं।”

"तुम न छोड़ोगी तो सरकारी प्यादा आकर छुड़ा जायगा। तुम अभी हमारी बात नहीं सुनती, परन्तु पीछे पछताओगी। अच्छा, मेरी एक बात का जवाब दो। तुम्हें चौधरी के इतने रुपये देने हैं?"

जमना ने सिर हिलाकर नाही कर दी।

"तो बस इतनी ही बात है, उनसे कह दो, हमें रुपये नहीं देने । नालिस कर दो।"

जमना ने कहा- मैं नया कागद लिख दूँगी।

"नया कागद लिख दोगी ! जानती हो, कागद लिख देने से क्या होता है ? इसका मतलब होगा, हल्ली के गले में सदा के लिए फाँसी डाल देना । हल्ली के गले की डोर रहेगी चौधरी के हाथ में वह बेचारा मार खा खाकर दूसरे के खेतों में चर आया करेगा और अपना दूध दुहायगा मोतीलाल के घर जाकर । बछड़े के भी दूध दुह लेने की विद्या महाजन को आती है ! चाहे जितना बड़ा पिरीत हो, मैं चुटकी बजाकर भगा सकता हूँ, चाहे जैसा काला कीड़ा हो, मेरे आगे किसी पर दाँत नहीं चला सकता; परन्तु जानते हो, – महाजन के काटे का इलाज मेरे हाथ में नहीं है।"

जमना घबरा उठी। आँखों में आँसू भरकर उसने कहा- मैं क्या करूँ, तुम बताते क्यों नहीं हो?

मैं कह तो रहा हूँ, कोई कागद-बागद न लिखना । उन्हें करना हो करें नालिस ।"

अजीत घेर घारकर जमना को इसी बात पर सहमत करना चाहता है । छूटी हुई गाय की तरह घेरी जाकर किसी भाँति कुछ दूर तक वह साथ चली भी आती है । परन्तु जहाँ थान के दरवाजे पर वह पहुँची नहीं, वहीं विचककर फिर भाग खड़ी होती है। वह कह उठी- मैं ऐसी बात न कहूँगी।

अजीत अपना करम ठोककर कहने लगा-वही बात कितने बार समझाई परन्तु तुम्हारी समझ में नहीं आती। कागद लिखकर तुम वृन्दावन भैया की जमीन भी न बचा सकोगी।

जमना बोली- मैं कागद-बागद लिखने में क्या समझूँ ?

"हाँ, यह समझदारी की बात है। चौधरी नालिस तो करें फिर हम सब देख लेंगे। अदालत में मैं ऐसे-ऐसे सवाल करूँगा कि अपने मरे बाप को रोयँगे। आजकल जो मुन्सिफ साब हैं वे बड़े भले आदमी हैं। किसान आदमी का बहुत ख्याल रखते हैं। इस मामले में लाट साब तक का डर उन्हें नहीं है। जब मैं तुम्हारा सब हाल सुनाऊँगा तब वे तुम्हारी पूजा न करने लगें तो कहना। उनके यहाँ पूजा, धरम- पुत्र सब कुछ होता है। क्रस्तान नहीं हैं। अँगरेज को छूकर नहाये बिना पानी नहीं छूते । मुझे बहुत मानते हैं। उस दिन अदालत में पूछने लगे- 'अजीत, तुम मन्त्र-जन्त्र जानते हो?' मैंने कहा - 'हाँ हजूर, जानता हूँ।' सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ । हाकिम हैं, सब तरफ की खबर न रक्खें तो काम कैसे चले। तुम बेफिकिर रहो, मैं सब ठीक कर लूँगा । मोतीलाल हमसे एक कौड़ी बाँध ले तो कहना।"

जमना उठ खड़ी हुई। अजीत ने भी उठकर कहा- अच्छी बात है, मैं फिर आकर बात करूँगा ।

नारी (उपन्यास) : अध्याय-13

जमना खेत पर जाने के लिए भीतर के घर की साँकल लगा रही थी, इतने में हल्ली आकर उससे लिपट गया। बोला- कहाँ जाती हो माँ? - परन्तु तुम और कहाँ जाओगी खेत पर ही जाती होगी।

जमना ने स्नेह से कहा - इस समय छोड़ दे, नहीं तो देर हो जायगी।

"ऐसी बहुत दूर तो जाना है जो देर हो जायगी। दूर मैं जाऊँगा । वहाँ से चिट्ठी लिखूँगा तो तुम पढ़ भी न सकोगी कि मैंने क्या लिखा।"

"यह कैसी मूरखपने की बात करता है ! छोड़, इस समय जाने दे।"

"जाती हो तो चार पैसे मुझे दे जाओ।"

जमना ने विस्मय के साथ पूछा- चार पैसे किसलिए?

"बन्दर वाले आये हैं माँ । उनके साथ रीछ भी हैं। दो पैसे बन्दर के खेल के लिए, दो पैसे रीछ के खेल के लिए। मैं अभी बुलाये लाता हूँ, तुम भी खेल देखकर जाना। बढ़ा बढ़िया खेल है! हीरा ने दो आने दिये थे, मैं एक आने में करा लूँगा।"

“खेल के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैं" - कहकर जमना आगे बढ़ने को हुई ।

धोती का छोर पकड़कर माँ के साथ-साथ आगे बढ़ते हुए हल्ली ने कहा - सुनो तो माँ, बहुत बढ़िया खेल है। देखकर तुम हँसी के मारे लोट-पोट हो जाओगी। एक बन्दर सिर पर लाल टोपी पहनकर हाथ में लाठी लिये हुए दुलहिन को लिवाने जाता है । दुलहिन रिसा जाती है, आना नहीं चाहती। तब बन्दर लाठी से धमकाकर उसे घसीटता हुआ ले आता है। कैसा खेल है, देखो तो तुम! पैसा देकर खेल कराने से बन्दर वाले से मेरी दोस्ती हो जायगी। वह बहुत देस परदेस घूमता रहता है।

हल्ली बराबर कहीं जाने की चर्चा छेड़ता रहता हैं, इस समय फिर वैसी ही बात उससे सुनकर जमना चिन्तित हो उठी। बोली- खबरदार जो उन लोगों से मिला-जुला । ये लोग अच्छे नहीं होते। एक बार खेल देख चुका है, और देखने की जरूरत नहीं ।

"हीरा भी तो देख चुका था"-

"वह बड़े आदमी का लड़का है, तू हर बात में उसकी बराबरी नहीं कर सकता।" कहकर जमना चली गई।

मुँह बिगाड़ कर हल्ली वहीं खड़ा रहा। हीरालाल बड़े आदमी का लड़का है, परन्तु बड़ापन उसमें क्या है, यह उसकी समझ में नहीं आता। वह जानता है कि पढ़ने-लिखने और दौड़-धूप में मैं उससे सब तरह श्रेष्ठ हूँ। उसने दो आने में खेल कराया, मैं एक आने में ही करा सकता हूँ। फिर भी माँ प्रत्येक बात में उसका पक्ष क्यों लेती हैं, उसका जी एकदम बुझ-सा गया। पास की दूसरी गली से बन्दर वालों की गिड़गिड़ी की आवाज वहाँ तक आ रही थी । वह उसे और भी दुःखित करने लगी। उसने निश्चय किया, आज वह अच्छी तरह खाना-पीना न करेगा। कह देगा - हीरा को बुलाकर उसी को खिलाओ-पिलाओ, मैं नहीं खाऊँगा ! एक बार उसने यह भी सोचा कि इन बन्दर वालों के साथ ही वह कहीं भाग जाय, तब माँ रो रोकर पछतायेंगीं । परन्तु माँ ने उन लोगों से हेल-मेल करने के लिए मना कर दिया था, इसलिए वह बात उसके मन में अधिक देर तक न रह सकी।

चार-पाँच दिन बाद दोपहर को मदरसे से दौड़ा-दौड़ा आकर हल्ली रसोईघर में घुस गया। चूल्हे के पास से व्यस्त होकर जमना ने कहा- अरे, पैर धोकर आ !

हल्ली इस समय एक बहुत अच्छा समाचार लाया था। उसे शीघ्र सुनाने के लिए वह जहाँ तक आ गया था, वहीं खड़ा हो गया, पीछे नहीं लौटा। हाँफते - हाँफते बोला- मेरे रुपये मिल गये हैं।

जमना ने उत्सुक होकर पूछा-मिल गये? कहाँ मिले?

"अभी मुझे नहीं मिले, हीरा ने चुरा लिये थे।"

जमना का समस्त उत्साह शान्त हो गया, वह हल्ली से भी छिपा नहीं रहा। उसने कहा- माँ, घबराओ नहीं, रुपये मिल जायँगे । पण्डितजी ने कहा है ।

जमना ने बात अनसुनी करके कहा- जल्द नहाकर आ जा, देर हो गई है। नहीं, – तू ठहर; हाथ धोकर धूप में मैं तुझे अच्छी तरह नहलाये देती हूँ।

माँ का यह ढङ्ग हल्ली समझ न सका। मैं इतनी बड़ी जासूसी करके आ रहा हूँ, परन्तु जैसे मेरी बात माँ के कान ही न पड़ी हो। बराबर बप्पा की बात सोच सोचकर यह इनका स्वभाव कैसा हो गया है ! उसने फिर कहा- पण्डितजी ने आज हीरा की अच्छी मरम्मत कर दी है। उन्होंने उससे कहा है, – रुपये घर से लाकर दे, नहीं तो मदरसे से निकाल देंगे।

जमना ने कहा- नहीं, उसने रुपये नहीं चुराये। अपनी चीज तो अच्छी तरह रखता नहीं है और चोरी लगाता है दूसरे को । पण्डितजी से कह देना, उसे तँग न करें। - खड़ा क्यों है, उतार झट से कपड़े; मैं नहला दूँ।

इतनी देर में हल्ली की समझ में आया कि हीरालाल बड़े आदमी का लड़का है, इसलिए माँ की समझ में वह चोरी नहीं कर सकता । उसको स्वयं रुपये मिल जाने की इतनी खुशी न थी, जितनी इस बात की कि हीरालाल को माँ अब अच्छी तरह समझ लेंगी। इस आनन्द में वह ठंडी, जगह बैठकर दो घण्टे तक मिट्टी के घड़े के वासी पानी से चुपचाप नहा सकता था । परन्तु इनकी समझ में कुछ आता ही नहीं है । पण्डितजी तक को विश्वास हो गया है और ये कहती है हीरा ने चोरी नहीं की। क्रुद्ध होकर बोला- हीरा ने चोरी नहीं की तो क्या तुम्हारे रुपये मैंने चुरा लिये?

"तू मेरे रुपये चुरायगा किसलिए ? " - हँसकर स्नेह से जमना ने कहा, परन्तु तुरन्त ही एक अद्भुत कठोरता उसके मुख पर दिखाई पड़ी - " जिस दिन मैं देखूँगी कि तू चोरी करता है, उस दिन मैं समझ लूँगी, मेरे लड़का था ही नहीं।"

हल्ली चुपचाप माँ का मुँह ताकने लगा। माँ की यह बात उसे बहुत अच्छी मालूम हुई ! क्या इसलिए कि इसे लेकर वह हीरालाल को अत्यन्त घृणा की दृष्टि से देख सकता है? अथवा क्या इसलिए कि इसमें भी उसे अपने प्रति माँ का अत्यन्त स्नेह दिखाई दिया? ठीक नहीं कहा जा सकता कि बात क्या है। हो सकता है, घृणा और प्रेम के दोनों विरोधी भाव अनजान में उसके हृदय में हों,- पूर्व और पश्चिम में चन्द्रमा और सूर्य की तरह एक साथ ।

परन्तु इस समय हल्ली के हृदय में क्रोध का भाव ही प्रबल दिखाई दिया। एक क्षण बाद ही बोल उठा - तुम चोर की कोद ले रही हो। मैं अपने रुपये लिये बिना न मानूँगा।

जमना ने कहा- तू यही समझ, तेरे रुपये खो गये। जो खो जाय उसके लिए समझना चाहिए, वह मेरा नहीं था ।

मुँह से बात निकली नहीं कि उसके मन में आया, उसका भी तो कुछ खो गया है। उसका खोया धन फिर मिल जाय तो क्या वह उसे लेना न चाहेगी?

हल्ली बोला- मैंने सोच लिया था, जिसने मेरे रुपये चुराये हैं वे उसके मरघट पर गये। पर अब मैं किसी की न सुनूँगा-

मुँह पर दिये तमाचे तीन,
डर किसका, अपनी ली छीन ।

जमना अभी-अभी पति की बात मन में ला चुकी थी, उसके बाद तत्काल मरघट का नाम उसके कान में पहुँचा। उसने डपटकर कहा- बुरे लड़कों की कैसी बुरी बातें सीखता है! आई मैं, देखती हूँ।

माँ का यह सच्चा क्रोध देखकर भी हल्ली पीछे नहीं हटा। इस समय हीरालाल के प्रति उसके मन में ऐसा ही विद्वेष था। उसके पण्डितजी तक ने कह दिया था कि उसके रुपये उसे दे दिये जायँ । जब हीरा नहीं देगा तो वह मार-पीटकर वसूल कर लेगा। जमींदार के आदमी जोर- करके किसान से लगान लेते हैं। यह वह बराबर देखता है। वह क्यों किसी पर दया करे? माँ का दिमाग तो न जानें कैसा हो गया है।

किसी तरह नहा धोकर हल्ली जब थाली पर बैठा, तब भी रह रहकर इसी सम्बन्ध में बात करता रहा। उसने बताया, किस तरह इस चोरी की बात फूटी है। एक दूसरे लड़के से मिलकर हीरा ने यह चोरी की थी। किसी बात पर दोनों में खटपट हो गई, तब भेद खुल गया। जो चोरी करेगा, वह एक न एक दिन जेल जायगा ही! पण्डितजी के पूछने पर उस दूसरे लड़के ने चोरी का सब हाल बताया है। उस दिन हल्ली अपनी जेब से पैन्सिल या और कुछ निकालने के लिए उसका अगड़म-बगड़म सामान निकाल निकालकर नीचे एक किताब पर रख रहा था, उसी के साथ उसने रुपये भी रख दिये थे। इसी समय उसे किसी काम के लिए पण्डितजी ने बुलाया और वह उठकर वहाँ से चला गया। मौका देखकर उस लड़के ने हीरा से मिलकर वे रुपये उठा लिये। दोनों ने मिलकर हलवाई के यहाँ खूब मीठा उड़ाया, बाजार से पैन्सिल बनाने का गोल चाकू और रबर लगा होल्डर खरीदा और इधर-उधर खेल में पैसे लुटाये। अब सब दाम अकेले हीरा को देने पड़ेंगे, यह पण्डितजी ने कहा है। बड़े आदमी के बेटाजी को सजा भी तो बड़ी मिलनी चाहिए। बच्चू मदरसे में तो पिटे ही हैं, घर में भी जब उनकी चमड़ी उधेड़ी जायगी, तब जानेंगे, बुरे काम का नतीजा ऐसा होता है !

सब बातें सुनकर जमना को भी क्रोध आ गया। फिर भी उसने उसे प्रकट होने नहीं दिया। हल्ली को माँ की यह चुप्पी बहुत अखरी ।

नारी (उपन्यास) : अध्याय-14

रविवार की छुट्टी का दिन था यही वह दिन है, जब निरन्तर छः दिन तक लड़कों को अपने पीछे दौड़ाकर समय थोड़ी देर के लिए उनके पास बैठ जाता है। रद्दी के बहुत बड़े ढेर में जैसे यही एक उनके काम की चीज हो ।

परन्तु हल्ली को लगा आज रविवार न होता तो अच्छा था । जैसे इस रविवार ने षड्यन्त्र करके उसकी चोरी के रुपये एक दिन और अधिक रखने के लिए हीरालाल को अवसर दे दिया है। ऐसे बुरे काम में असहयोग करने के लिए ही आज के दिन मदरसा खुला रहना चाहिए था !

तथापि, बिना भूख के भी जब कोई मधु फल महक फैलाता हुआ हाथ में आ जाय, तब उसका सदुपयोग किये बिना नहीं रहा जा सकता । हल्ली ने आज का दिन बाहर खेत पर लड़कों के साथ बिताने का निश्चय किया। अपने खेत वाले आम में मौर आ जाने की बात अभी उसने सुनी है, इसलिए उसे देखने के लिए आज उसका वहाँ जाना और आवश्यक है।

उसने हँसकर जमना से कहा- माँ, तुम हमारे पण्डितजी से भी कड़ी हो। मदरसे की तो छुट्टी है, पर तुम आज भी मुझे नहलाये बिना न मानोगी। मैं नहाकर आया, तुम मेरे लिए पहले से थाली परोस रखो। नहीं तो देर हो जायगी, मुझे जल्दी जाना है ।

जल्दी कहाँ जाना है? जमना ने पूछा।

"खेलने जाना है, नहीं तो और क्या बम्बई - कलकत्ते ? तुम कभी घर के बाहर नहीं होने देती, मेरी तो बड़ी इच्छा होती है। एक बार तुम मुझे दस ही रुपये दो, फिर देखो कि बप्पा की तरह मैं भी देस परदेस घूम सकता हूँ कि नहीं।"

रात तक खाने-पीने से निश्चिन्त होकर हल्ली अपने दल के साथ खेत के उसी आम के नीचे जाकर ठहरा। वृक्ष नई-नई कोंपलों से लदकर और भी सुन्दर हो उठा था। परन्तु उन सबको इस समय इस ऊपरी सौन्दर्य की अपेक्षा न थी । वृक्ष ने हरे-हरे पत्तों के भीतर कहाँ- कहाँ मनोरम मौर, काव्य के मर्म की तरह छिपा रक्खा है, वही उनके देखने का विषय था । एक लड़का सहसा कह उठा - वह है वह !

दूसरे लड़के ने नीचे से एक ढेला उठाकर फेंकते हुए कहा- और यह देखो यहाँ ?

हल्ली ने ऊपर न देखकर उस लड़के को डाँटकर कहा- क्या करते हो यह? मौर में आम फलते हैं, ढेला लगने से खराब हो जायँगे।

तब एक और लड़के ने प्रस्ताव किया कि वह पेड़ पर चढ़ जायगा और ऊपर से ही बता देगा कि मौर कहाँ-कहाँ आया है। विचार के बाद यह बात स्वीकार करने योग्य निकली। इसलिए नहीं कि ऊपर चढ़कर गिरने का डर है, वरन् इसलिए कि वृक्ष की डालें पतली हैं, कोई टूट जायगी तो नुकसान होगा। परन्तु थोड़ा और देखने पर इसके बिना ही उनका काम निकल गया। वे जो देखना चाहते थे वह नीचे से ही यथेष्ट संख्या में उन्हें दिखाई देने लगा।

हल्ली ने हाथ से ताली पीटते हुए कहा- इतना मौर आया है- सबमें आम ही आम हो जायँ तो आहा ! बड़ा मजा हो ।

"इतने आम होंगे कि गाँव भर के आदमी खाने बैठें तो भी न चुकें ।"

हल्ली के लिए यह बड़ी प्रसन्नता की बात है कि उसके पेड़ के आम गाँव भर के आदमी खावें । पर उसने कहा- मैं गाँव भर के आदमियों को आम न खाने दूँगा। गाँव भर में हीरा भी आ जायगा ।

"हीरा चोर है" - पास खड़े हुए लड़के ने कहा- साथ ही दूसरे लड़कों ने भी "चोर है, चोर है" की धूम मचा दी, जैसे सचमुच किसी चोर को चोरी करते हुए उन्होंने पकड़ लिया हो।

"और उसकी यह बात सुनी तुमने हल्ली ? वह कहता है, तुम्हारी माँ पर हमारे हजारों रुपये आते हैं। दो रुपये ले ही लिये तो इसमें दूसरे किसी का क्या लिया। सब रुपये वे दे न सकेंगी, इसके लिए राम के यहाँ उनका विचार होगा।"

एक और लड़का बोल उठा - हल्ली की माँ ने रुपये नहीं लिये। बताओ गवाह कौन-कौन है?

हल्ली थोड़ी देर के लिए अनमना हो गया। हीरा वह बात झूठ तो नहीं कहता है। उसने अपनी माँ से भी सुना है कि चौधरी के कुछ रुपये देने हैं। तो क्या इसी से चोरी की बात सुनकर भी माँ उस पर नाराज नहीं हुई? उसने कहा- हीरा के बाप के रुपये हमें देने हैं, पर उसने चोरी क्यों की? इसके लिए उसे राम के यहाँ नरक मिलेगा।

इस निर्णय ने सब लड़कों को एक साथ प्रसन्न कर दिया। वह प्रसन्नता देखकर विरोधी भी यह नहीं कह सकता कि विधाता ने नरक की सृष्टि करके कुछ बुरा किया है।

"और हीरा यह भी कहता था कि अपने रुपयों में हम हल्ली का यह खेत, यह कुआँ और आम का यह पेड़ छीन लेंगे। उसके बाप के पास यह खेत चला गया तो फिर वह किसी दूसरे को इसका एक फल सूँघने के लिए भी न देगा।"

"वह न देगा तो उसके सब आम सड़ जायँगे। इतने फल सबके सब कोई एक एक आदमी खा सकता है— क्यों हल्ली ?"

हल्ली ने जैसे यह बात सुनी ही नहीं। उसका यह पेड़ हीरालाल छीन लेगा, यह सोचकर ही उसका मुँह सूख गया। वह जानता है, उसकी माँ इस बिरवे को कितना प्यार करती हैं। कोई इसका एक पत्ता भी तोड़ता है तो उन्हें दुख हुए बिना नहीं रहता । इसके नीचे सफाई ऐसी रखती हैं, जैसे यहाँ रसोई का चौका हो। उसे याद है, पिछली बार इन्हीं दिनों अपने हाथ से घड़े पर घड़े पानी खींचकर वे इसका थाला भर रही थीं। किसी ने कहा- जब आम का पौधा फूलने पर हो, तब उसे पानी नहीं दिया जाता। इससे मौर झड़ जाता है और फल नहीं आते। इसके उत्तर में जमना ने कहा था, - गरमी पड़ने लगी है और मेरा बिरवा अभी बच्चा है। वह प्यासा नहीं रह सकता, फल न आवें तो भले ही न आवें । उसे और भी याद आया, एक दिन माँ ने कहा था- हल्ली, यह बिरवा तेरा बड़ा भाई है। देख, यह कितना सीधा है और इसी के नीचे तू कितना ऊधम मचाता है? वृक्ष को अपना बड़ा भाई समझकर उसे बड़ी प्रसन्नता हुई थी। उसका जी करने लगा था, इससे चिपट जाय। कवि ने बहुत पहले किसी ऐसे ही बिरवे को देखकर कहा होगा- “घटस्तनप्रस्रवणैर्व्यवर्धयत् । " हल्ली को यह मालूम न था, फिर भी इसमें माँ का " पुत्र - वात्सल्य" उसे हृदय से स्वीकार था । उसका बाप घर नहीं आता और उसका यह बड़ा भाई भी उसका न रहेगा, यह सोचकर उसकी आँखों में पानी आने लगा ।

उतरता फागुन था । चारों ओर के खेत कट चुके थे। जहाँ तहाँ कटे हुए खेतों की लाँक जमा थी। लोग कहीं बैलों के मुँह में जाली पहनाकर फसल की दलनी कर रहे थे और कहीं दली हुई लाँक में से भूसी उड़ा रहे थे। जगह-जगह खेतों पर वृक्षों की छाया में किसानों के लड़के- बच्चे खेलों में व्यस्त थे । फिर भी हल्ली को जान पड़ा, मानो कहीं कोई नहीं है; दूर दूर तक किसी ने खेतों का धन लूटकर मानो उन्हें नंगा कर दिया है !

एक लड़के ने कहा-हल्ली, तुम तो ऐसे सुस्त पड़ गये जैसे हीरा ने सचमुच तुम्हारा कुछ छीन लिया हो। वह यहाँ आयगा तो हम सब मार मारकर उसे भगा देंगे। चलो अब वही चोर-चोर का खेल खेलें । हल्ली उत्साहित हो उठा। बोला- हाँ यही होने दो।

अब खेल के सम्बन्ध में विचार होने लगा । हल्ली कोतवाल बनकर कुएँ की जगत पर बैठेगा। सूखे हुए डंठल के पत्ते अलग करके एक कलम-सी उसने अपने लिए बना ली। और कुछ न हो कोतवाल के हाथ में यह चाहिए। वह इस तरह तनकर बैठेगा जैसे उसके सामने मेज रक्खी हो। कोतवाल बनने में अब और कसर नहीं है, चौकीदार बनने के लिए भी दो-तीन लड़के खुशी से तैयार हैं। बस कमी है एक चोर की। खेल में भी चोर का पा लेना सरल नहीं दिखाई दिया। अधिक मूर्ख समझे जाने वाले एक लड़के से अनुरोध किया गया तो उसने इनकार करके कहा- चौकीदार बुरी तरह मारेगा।

हल्ली ने कहा- जो चोरी करेगा वह पिटेगा नहीं तो क्या होगा ? - पर एक बात है, चोरी के लिए धन चाहिए ।

दूसरे लड़के ने कहा - चोर आम के पत्ते चुरायगा, चौकीदार पीछे- पीछे छिपे रहेंगे, वे आकर कहेंगे- हुजूर-

हल्ली बीच में ही बोल उठा-नहीं, आम के पत्ते हरगिज नहीं तोड़े जा सकते। आम मौर रहा है।

न चोर, न चोरी का धन – ऐसे में कोतवाल और चौकीदार का काम कैसे चले ? इसी समय एक लड़का बोल उठा-वह देखो, हीरा आ रहा है।

क्षण भर में हीरालाल निकट आ गया। हल्ली कोतवाल बना बैठा था, इस समय उसे चोर की ही आवश्यकता थी। इसी से वह उसे अपने खेत पर आने से रोक नहीं सका।

हीरालाल ने झट आगे आकर कहा- क्या चोर-चोर खेल रहे हो? खेलो मैं बनता हूँ चोर ।

सब एक साथ विस्मित हो उठे । हल्ली से इसकी इतनी लड़ाई है, फिर भी इसे यहाँ आकर खेलने में लज्जा नहीं ! सच तो यह है, इस समय उसके इस व्यवहार से हल्ली को भी प्रसन्नता हुई। दुर्गुण में भी मिरच के स्वाद जैसा कुछ है, जो हमारी रसनावृत्ति को मुग्ध किये बिना नहीं रहता।

एक लड़के ने कहा- यह बिज्जू कह रहा था, मैं चोर नहीं बनता, चौकीदार बुरी तरह पीटेंगे।

हीरालाल बोला- यह तो पूरा बिज्जू ही है, चोरी करना क्या जाने । चौकीदार हों, कुतवाल साहब हों, वकील साहब हों, सबकी आँखों में धूल डालकर न भाग गये तो फिर बहादुरी ही क्या।

हल्ली ने उत्तर दिया - चोरी करने में क्या बहादुरी है ? तुमने चोरी की, फिर एक दिन पकड़ ही तो लिये गये। अब कल आकर रुपये न दोगे तो पण्डितजी-

"अरे देख लिया पण्डितजी को! - तुम बहुत सीधे हो इसी से तुम्हें सबक देने के लिए मैंने वह काम किया था। नहीं तो मुझे कमी क्या है ? मेरे घर ढेरों रुपये आते हैं! तुम दो रुपट्टी के लिए इस तरह जान देने लगोगे, यह मैं नहीं जानता था। मेरे घर इतने रुपये नाली में बह जाते हैं, जब कहो तभी तुम्हें दस बीस-पचास रुपये लाकर दे दूँ। तुम्हारी माँ के ऊपर भी हमारे पंसेरियों रुपये निकलते हैं। मेरे यहाँ कमी किस बात की है ।"

हल्ली को लज्जा मालूम हुई। सचमुच यह तो बहुत ओछेपन की बात है कि मैं दो रुपये के लिए इतना अधीर हो उठा हूँ। माँ ने इसी से इन रुपयों के लिए बुरा नहीं माना। सबसे अधिक लज्जा की बात तो यह है कि उसकी माँ पर इसका इतना करजा हो। उसने वह प्रसङ्ग बदलकर कहा- तुम हमें सबक क्या दोगे, दरजे में सबसे पिटते रहते हो ।

खिलाड़ियों को भी बातचीत रुच नहीं रही थी। चोर आ जाय और काम रुका रहे ? झट से खेल शुरू हो गया ।

खेल खेलना था झूठ-मूठ की चोरी का, परन्तु हीरालाल करने लगा सचमुच की चोरी। एक ओर आम के पत्ते बहुत ऊँचाई पर न थे । एक हाथ में लकड़ी लिए हुए चोर उचक उचक कर पत्तों का एक गुच्छा नीचे गिराने लगा। जब तक हल्ली ऐसा करने के लिए दूर से उसे रोके - रोके, तब तक वृक्ष की एक टहनी उसके हाथ में टूटकर आ गई।

हल्ली गरम होकर चिल्ला उठा- पकड़ो-पकड़ो, चोर बेईमान को । डाका डालकर भाग रहा है !

हल्ली एकाएक भूल गया कि उसका पद कोतवाल का है, उसका काम साधारण चौकीदार की तरह चोर के पीछे भागते फिरने का नहीं । वह दौड़ा, चौकीदार दौड़े और साधारण नागरिक की हैसियत के दूसरे लड़कों ने भी पुलिस के इस काम में सहायता देने से जी नहीं चुराया । चोर और पुलिस में प्रबल कौन है, यह बताना आसान नहीं । परन्तु कहना पड़ेगा, इस समय इन निकट सम्बन्धियों में चोर ही प्रबल था । वह तेजी से भागता हुआ चोरी के माल के साथ बहुत आगे दिखाई दिया ।

यदि सचमुच के कोतवाल की बात इस समय हल्ली के मन से उतर न गई होती तो बहुत सम्भव है, इस बनावटी पुलिस के हाथ भी यह चोर न आ सकता। परन्तु हल्ली खेल-खेल भूलकर हीरालाल के पीछे इस तरह दौड़ पड़ा था कि थोड़ी दूर पर ही उसने चोर का एक हाथ पकड़कर उसकी पीठ पर एक धमाका जड़ दिया ।

हीरालाल ने चोर के माल वाला हाथ ऊपर उठाकर हल्ली को उस ओर ढकेला जहाँ एक कटीला झाड़ पड़ा था। इधर इसने काँटों से बचने का प्रयत्न किया, उधर उसे गाली देता हुआ वह आगे बढ़ गया।

हल्ली ने पास पड़ा हुआ पत्थर उठाकर कहा-भाग मत, नहीं तो मैं मार डालूँगा ।

उत्तर में दूसरी ओर से फिर दूसरी गाली उसके कान में पहुँची कि उसने हाथ का पत्थर उसकी ओर चला ही तो दिया।

इधर-उधर के लड़कों ने देखा कि हीरालाल नीचे जमीन पर है। सब चिल्ला उठे - हल्ली, यह क्या किया ?

हल्ली नहीं चाहता था कि वह ऐसा कुछ भयंकर कर बैठे। पर अब क्या हो सकता था। वह हीरालाल की ओर देखे बिना ही दूसरी ओर भागा। दूसरे लड़के भी भागते दिखाई दिये। थोड़ी देर बाद ही वहाँ फिर पहले का-सा सन्नाटा छा गया।

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