नारी (हिंदी उपन्यास) : सियारामशरण गुप्त

Nari (Hindi Novel) : Siyaramsharan Gupt

चिरन्तन नारी युग-युग के अन्धकार में, उसे तुच्छ करके चिरकाल से आगे बढ़ती जा रही है, दुख और विपत्ति के अंधियारे पथ को पद दलित करती हुई। उसे कोई भय नहीं है, कोई चिन्ता नहीं है।

यही वह भाव है, यही वह मूल-मंत्र है, जिसके इर्द-गिर्द सशक्त उपन्यासकार सियारामशरण गुप्त जी ने इस उपन्यास का ताना-बाना बुना है, जो रोचक है, उत्कृष्ट मनोरंजन प्रदान करने वाला है और दिशाहीन होते समाज को सही दिशा दिखाने वाला भी है।

नारी सहित प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर की सृष्टि है। इसी कारण ईश्वर की तरह वह गहन भी है। ईश्वर की तरह कष्ट सहन करके ही उसे ईश्वरीय शक्ति उपलब्ध करना होगा। उचित यही है, करणीय यही है। यही वह मान्यता है, यही वह सिद्धान्त है, जिसे इस उपन्यास में निरूपित किया गया है, स्थापित किया गया है।

उपन्यास के पात्र जैसे सजीव हो कर इन सर्वोच्च मान्यताओं को अपने क्रिया-कलापों और संवादों से इस प्रकार पूर्णता से स्थापित करते चलते हैं कि पाठक के मन-मस्तिष्क पर उसका स्थाई प्रभाव पड़े।

बचपन से लेकर अभी-अभी दो महीने पहले तक जिनकी कहानियों से स्नेह और वात्सल्य से हृदय बराबर हरा होता आया है; जिनसे क्या जीवन में पाया है, इसका हिसाब नहीं; जो हृदय की सामान्य कृतज्ञता प्रकट कर सकने का प्रसंग आने पर आधी बात सुनकर ही सदा के लिए ओट हो गये हैं; उन्हीं श्रद्धेय मुंशीजी (राजकवि श्रीअजमेरी) की पवित्र स्मृति में यह रचना श्रद्धा के साथ अर्पित है।

गुरुपूर्णिमा 1994

श्री

नारी (उपन्यास) : अध्याय-1

डाकिये ने एक कच्चे घर के सामने रुककर पुकारा-जमना बाई हैं ?
उत्तर न पाकर भी किसी के भीतर होने का बोध उसे हुआ। नाक पर चश्मा ठीक से सँभालकर उसके डाक उलट पुलट तक देखी। ‘‘यही है’’- कहकर घर के भीतर एक पैकेट फेंकता हुआ वह आगे बढ़ गया।

भीतर एक कोठरी में जमना गोबर लीप रही थी। डाकिये की आवाज उसने सुनी। यही वह आवाज थी जिसे बरसों की प्रतीक्षा के बाद उसने भुला रक्खा था। फिर भी पहचानने में देर न लगी। एक साथ मन के किसी निगूढ़ आनन्द की बुझी बत्ती उसके रोम-रोम में जाग उठी। उसका एक हाथ पानी के घड़े पर और दूसरा गोबर के ऊपर जहाँ का तहाँ रुक गया। किसी विशिष्ट पाहुने के आगमन में उसके शरीर की समस्त क्रिया व्यापार जैसे क्षण भर के लिए अनध्याय मनाने बैठ गया हो।
जिस समय वह पौर में पहुँची डाकिया दूर निकल चुका था। गोबर लगे हाथ में केवल उँगलियों से पकड़कर उसने वह पैकेट देखा। यह इतनी बड़ी चिट्ठी उन्होंने लिखी है ? छोटी में बहुत बातें आ कैसे सकती थीं। यह उसने सोचा तो, परन्तु उसका मन कहीं भीतर से कह उठा- नहीं, यह वह नहीं है; वह यह नहीं है। बरसों से भी कभी एक कारण तक छोड़ा नहीं है, इतनी बड़ी चिट्ठी कैसे लिखेंगे ? लिखना चाहें तो क्या लिख नहीं सकते ? बिरादरी में आसपास उनके इतना पढ़ा-लिखा दूसरा कौन है ? एक बार हठ करके मुझे भी पढ़ाने बैठे थे। सोचते-सोचते जमना का गौर एकाएक लज्जा से लाल हो उठा। उहँ, उनका यह पढ़ाना मेरा काम छुड़ाकर मुझे पास बिठाने का एक बहाना भर था ! मैं मूरख भला पढ़ क्या सकती थी। उनकी सब बाते ऐसी ही हैं !

इसके भीतर क्या है, यह जानने के लिए उसने पैकेट धीरे से दबाया। अरे यह तो कोई पोथी है, छपी हुई ! इतनी बड़ी चिट्ठी उनकी हो नहीं सकती, यह उसके मन में पहले ही आ चुका था। फिर भी उसे बड़ी निराशा हुई। गीले हाथों से इसका बेठन बिगड़ न जाय, यह विचार अब उसने छोड़ दिया। रुखाई से उसे आले में फेंककर वह झट से भीतर चली गयी।
फिर लीपने के लिए बैठकर वह बहुत कुछ सोचने लगी। वे मुझे भूल गये हैं तो मैं उन्हें क्यों नहीं भूल जाती ? करूँ क्या, बीच बीच में कुछ ऐसा हो ही जाता है कि बरबस उनकी याद आने लगती है। आज न जाने किसने यह पोथी भेज दी। हल्ली मदर से लौटे तो उससे पूछूँ। इससे बड़ी पोथी उसने तो कहीं से मँगाई होगी नहीं। कहीं से मँगाता तो दाम मुझसे न लेता ? फिर यह है क्या ?

एकाएक एक नई बात उसके भीतर टकराई। सोचने लगी,- काली माई का कलकत्ता तो बहुत बड़ा शहर है। मुझे चौंकाने के लिए किसी छापाखाने में जाकर अपनी चिट्ठी छाप लाये हों तो ? शहर में जाकर सब शौकीन हो जाते हैं। पानी भी वहाँ आदमी दाम देकर बोतल का पीता है। यह चिट्ठी उनकी तो हो सकती है। हल्ली आवे तो उससे पढ़वाऊँ। पढ़ तो लेगा ? पढ़ क्यों न लेगा। झटपट नहीं तो धीरे ही धीरे सही। परन्तु चिट्ठी उन्हीं को हो तब तो।
उसकी देह में फुरती-सी आ गई। झटपट लिपाई पूरी की, मिट्टी की नाँद में गगरी का पानी उड़ेलकर झपाटे से नहा डाला और गीले केशों से पानी की बूँद चुवाती हुई चूल्हे के पास जा बैठी।

रसोई तो तैयार हुई, परन्तु खाने वाले को घर आने की छुट्टी मिले तब ना। अब तक चिट्ठी न पढ़ी जाने का गुस्सा अब उसने मदर से वालों पर उतारा। पढ़ाते-लिखाते खाक नहीं हैं, राई-राई से बच्चों को तीसरे पहर तक भूखे प्यासे घेरे रहते हैं। हैं कैसे निरदई ! इसी से आजकल के लड़के कुछ पढ़ लिख नहीं पाते।
‘‘माँ, कहाँ हो ?’’
जमना ने देखा, हल्ली आ गया है। स्याही के छिटकों से छींट बने हुए कपड़े का बस्ता बगल में दाबे है। दाँये हाथ में काँच की एक दवात है। मुँह पर प्रसन्नता ऐसी है, मानो अभी जेल से छूटकर आया हो।
जमना ने कोठरी के भीतर से कहा- आ गया भैया, बड़ी देर कर दी। आ, रोटी तैयार है।
एक आले में पुस्तकों का बस्ता पटकता हुआ हरलाल झट उस कोठरी में जा पहुँचा। हाँ, नाम उसका हरलाल ही था। यहाँ तक कि मदरसे के रजिस्टर में भी यही दर्ज था। परन्तु बच्चों और छोटों के सिर बड़े नाम का बोझ पसन्द नहीं किया जाता। इसी से हरलाल के स्थान पर वह ‘हल्ला’ हो गया। माँ के कान इसे सहन कैसे करते ? वह उसे हल्ली कहने लगी थी।

‘‘चला आऊँ वहाँ ?’’- हँसते हँसते हल्ली ने कहा।
पति का समाचार आना बन्द होने के बाद से जमना का आचार-विचार कुछ अतिरिक्त कड़ा हो गया था। इसी से, हल्ली ने वैसा कहा को, एक पैर भी आगे बढ़ने के लिए उठा लिया, परन्तु खड़ा रहा जहाँ का तहाँ ही। जमना हड़बड़ा कर बोल उठी- करता क्या है, बिना हाथ-पैर धोये, बिना नहाये।
‘‘अभी तुम कह रही थीं, आ रोटी खा ले।’’
‘‘तो क्या यह कहा था कि ऐसा ही चला आ चौके में,- नहा धोकर नहीं ?’’
‘‘नहीं माँ, सच बड़ी भूख लगी है। नहा कल लूँगा,- आज ऐसे ही खा लेने दे।’’
जमना ने बात अनसुनी करके कहा- अच्छा-अच्छा, उतार कपड़े; आज नहला दूँगी।
वह जानता था, माँ जल्द क्या नहला सकेंगी; जब भी नहलाने लगें, शरीर इस तरह से रगड़ डालती हैं, जैसे रसोई का काला तबा होऊँ। बोला- तुम रहने दो, मैं आप ही नहाये लेता हूँ। और आज बना क्या है ? भाजी-रोटी ! आलू क्यों नहीं बनाये ? नहीं, आज मैं कुछ नहीं खाऊँगा। रोटी के साथ निमक की डली भी नहीं। तब देखूँ तुम क्या करती हो।
जमना ने समझाकर कहा- कल हाट में जाकर आलू ले आऊँगी, बहुत ले आऊँगी, तब करूँगी। आज की भाजी बहुत बढ़िया बनी है।
‘‘तुमने यहीं बैठै-बैठे चख ली ?’’
जमना हँस पड़ी। बोली- आज मैं तुझे एक दूसरी अच्छी चीज दूँगी।
हल्ली अपनी रुचि की वस्तुओं के नाम मन-ही-मन सोचने लगा,- लडडू, पेड़ा, जलेबी। सहसा उसकी समझ में न आया कि और क्या अच्छी वस्तु उसके लिए हो सकती है। पहले सुलझाने के लिए चारों ओर इधर-उधर उसने दृष्टि डालकर देखा।

माँ को वह पैकेट उठाते देखकर उसने सोचा, खाने की क्या वस्तु इसमें हो सकती है और क्षण भर ही खिलकर बोल उठा- आ गया यह ! मैं आज ही सोच रहा था कि अब तक आया क्यों नहीं है।
जमना ने क्षीण आशातन्तु को एक झटका-सा लगा। शंकित होकर उसने पूछा, तू कैसे जानता था कि यह चिट्ठी आयगी ?
‘‘चिट्ठी,- चिट्ठी किसकी आने वाली थी ? यह तो पंचांग है, तारीखनामा समेत। मैंने तुम्हारे नाम की बैरंग चिट्ठी भेजने के लिए डाल दी थी। सोचा था आ जायगा तो आ जायगा, मनहीं आया तो अपना हरज क्या।’’- कहकर माँ की ओर देखे बिना वह उस पैकेट को लेकर उलटने-पुलटने लगा। उसकी समझ में नहीं आ रहा था, इसे खोले कहाँ से।
जमना ने धमकाकर कहा- ‘‘देखता समझता है नहीं और कहता है, यह नहीं है।’’ अबकी बार चिट्ठी का नाम वह स्वयं मुँह पर नहीं ला सकी।
बेठन फाड़कर हल्ली ने देखा, वह चीज है जिसे वह चाहता था। उसके लिए तारीखनामा और पंचांग से अधिक लुभावनी थीं उसकी तसवीरें। आहा ! ये महादेवी पार्वती के साथ बैठे हैं। देखों तो माँ, इनके गले में यह साँप कैसा भला लगता है।
हल्ली की समझ में नहीं आया कि माँ प्रसन्न क्यों नहीं हो रही हैं। इतने बढ़िया चीज उसने इतनी दूर से मँगा ली और पैसा एक भी नहीं खरचना पड़ा, यह कम प्रशंसा की बात न थी। फिर भी माँ इसके लिए एक शब्द भी मुँह से नहीं कर रही हैं, सचमुच यह उसके सोचने की बात थी। परन्तु इसके लिए उसके पास अवसर न था, वह सोच रहा था, खाने-पीने की आफत से छूटकर कब वह मदरसे पहुँचे। सहपाठियों में जितने जल्द से यह नये वैभव का प्रदर्शन हो जाय उतना ही अच्छा है। वहाँ किसी बेचारे के पास ऐसी भी सूचीपत्र की पुस्तक नहीं !

नहाने के लिए बैठकर हल्ली यह शिकायत करना भूल गया कि पानी बहुत ठंडा है। भोजन के लिए बैठकर यह भी वह भूल गया कि आज उसकी रुचि किसी दूसरी वस्तु पर थी। और एक सबसे बड़ी बात की सुधि भी उसे नहीं हुई कि प्रतिदिन की भाँति माँ को साथ बैठने के लिए वह हठ करे।

हल्ली तैयार होकर दूसरी बेला की पढ़ाई के लिए मदरसे चला गया। जमना उस दिन निराहार रह गई।
मन में जब दु:ख देवता का आगमन हो, उस समय उसका सबसे बड़ा आदर यही हो सकता है कि उसे पाकर मनुष्य अपना खान-पान तक भूल जाय। दु:ख के बीच में ऐसा आनन्द न हो तो उसे ग्रहण की कौन करे ? जमना का यह दु:ख नया न था। किसी बन्द पिटारी में रक्खे हुए पुराने खिलौने की तरह फिर से उसके हाथ पड़कर वह इस समय उसके लिये नये के जैसा हो गया था। पिछली अनेक स्मृतियों की उधेड़बुन में कब सन्ध्या हो गई, इसका पता तक उसे न चला।
‘‘माँ, माँ, अब तक दिया क्यों नहीं उजाला ?’’
वह इतनी तन्मय थी कि हल्ली की आवाज ने उसे चौंका दिया। ‘‘उजालती हूँ’’ कहकर उठ खड़ी हुई।

हल्ली ने उजाले में देखा कि जिस थाली में वह दोपहर के समय भोजन कर गया था, वह जहाँ की तहाँ वैसी ही पड़ी है। शङ्कित होकर पूछा- आज तुमने खाया पिया नहीं है ?

"हाँ आज जी अच्छा न था। अब तेरे साथ बैठकर खाऊँगी।"— कहते-कहते जमना की आँखें छलछला उठीं। बीच की इस दीर्घ वेला में कई बार उसके मन में आया था कि बहुत पहले किसी कारण से जब वह खाना छोड़कर अलग कोठरी में पड़ रहती थी तब उसका पति उसके ससुर की आँख बचाकर उसे मनाने के लिए किस तरह चक्कर काटता था। आज तो उसे अपने आप ही मान जाना पड़ेगा। अब वह कोई छोटी बच्ची थोड़े है, जो दूसरा कोई आकर उसकी मनुहार करे !

भोजन के बाद माँ को प्रसन्न करने के लिए हल्ली वह पञ्चाङ्ग लेकर उसे दिखाने बैठ गया । उसे कुछ ऐसा लगा कि माँ का जी सचमुच अचछा नहीं है। उसे बहलाने के लिए, बाहर जाकर खेलने का लोभ इस समय उसको छोड़ना होगा । वह अभी बालक ही है, परन्तु उसके भीतर भविष्य के पिता का बीज ही क्यों न? यह बात जमना से छिपी न रह सकी कि मेरा ही लड़का मेरा दुःख समझकर बड़ों की भाँति मुझे बहलाना चाहता है ।

"पहले यह देखकर बताओ कि क्या है" - कहकर हल्ली ने पन्ने उलटकर एक खिलौने की तसवीर जमना के आगे कर दी ।

देखकर जमना को इतना कौतुक हुआ कि अबोध बनकर न समझने का बहाना करने की बात भी उसे न सूझी। यह वस्तु उसका पति एक बार किसी तीर्थ से लाया था। उसमें राम और सीता का अङ्कन था, इसलिए उस घर में नित्य पूजा की वस्तुओं में उसे स्थान मिल गया था। वह बोली- यह तो अपनी पूजा वाली मूरत हैं ! सामने दसानन है, इसी सीता मैया ने उस ओर मुँह फेर लिया है। दूसरी ओर भगवान हैं उन्हें इधर कर दो तो ये उनकी ओर घूमकर देखने लगेंगी।

"इसमें कैसे मोड़ दूँ, यह तो तसवीर है? अपने लिए मैं अलग से एक ऐसी मूरत चाहता हूँ । नहाकर नित्त चन्दन फूल चढ़ाया करूँगा । परन्तु इसमें और बहुत अच्छी चीजें हैं। तुम एक रुपया मुझे दो तो यहीं बैठे-बैठे मैं बहुत-सी चीजें मँगा दूँ। देखो, देने की बात आई तो चुप्पी साध गई?"

"इस पोथी के लिए तूने मुझसे कुछ माँगा न था, फिर यह कैसे आ गई?"

"पोथी नहीं, यह सूचीपत्र है। इसके दाम नहीं देने पड़ते । लिख देने से ऐसे ही आ जाता है।"

"सेत में किसी की चीज ले लेगा तू? दाम भेज देना" - कहकर जमना उठ खड़ी हुई। उसे गाय-भैंस का उसार करना था ।

नारी (उपन्यास) : अध्याय-2

छः-सात बरस पहले की बात है, जमना के पति वृन्दावन को शहर जाने की धुन लगी। घर की आर्थिक स्थिति बुरी न थी । गाय भैंसें, मौरूसी जमीन और खेत पर पक्का कुआँ, यह सब एक साथ किसके पास होता है? उसके बूढ़े बाप को एक किसान के लिये इससे अधिक की तृष्णा बहुत खटकी। उसने कहा- दस-बीस के महीने के लिए परदेश कुली कहलाना क्या भले आदमी का काम है? घर की गऊमाता की सेवा तो करेंगे नहीं, बाहर जाकर दूसरे की जूती के चाकर बनेंगे। धिक्कार है अब के इन लड़कों की समझ को !

परन्तु पुराने जमाने के बाप की वह बात लड़के की समझ में नहीं आई । जमना के रोने-गाने से अवश्य एक बार वह कुछ सोचने चला । जमना रूपसी थी । उसकी गोद में एक छोटा बच्चा भी था। यह सब छोड़कर कहीं जाने की बात वृन्दावन को भी उस समय खटकी। परन्तु जिस साथी के सङ्ग जाने की पक्की कर चुका था, वह उससे क्या कहता ? मर्द होकर औरत के गुलाम बनना नामोसी की बात होती । अतएव अचानक एक दिन सबसे छिपकर रात में वह चला ही गया।

प्रारम्भ में दो-चार चिट्ठियाँ उसकी आईं। कलकत्ते में एक कारखाने में उसे जगह मिल गई थी। बाप ने इस बात से मन को कुछ धीरज देना चाहा कि उसका लड़का इतनी दूर जाकर ऐसी जगह रहता है। दूर कितनी, यह वह भी नहीं जानता था । शायद वहाँ के लिए रेल - किराये के दस-पचास रुपये लगते हों। वहाँ इस गाँव का कोई आदमी सपने में भी नहीं गया। कोई गया भी हो तो वहाँ जाना एक बात है और जाकर वहीं रुका रहना बिलकुल दूसरी ! स्वयं बाप के मन में परदेश जाने के स्वप्न उठ चुके थे। वह बाहर की यात्रा कभी नहीं कर सका, परन्तु उसका बिन्दा यह गौरव पा रहा है, इसमें भी उसे ऐसा सन्तोष था, मानो पड़ोस में कहीं बरसा होने पर उसके ग्रीष्माकुल शरीर को ठंडी हवा का एक झोंका मिला हो। कुछ दिन के लिए उसे दूसरे सब काम भूल गये । उसे नित्य ऐसे आदमियों की खोज रहने लगी, जिन्हें अपने बिन्दा की लिखी हुई शहर की अद्भुत बातें वह सुना सके ।

बात चाहे जितनी अद्भुत हो, कुछ दिन में साधारण हो जाती है। वृन्दावन की दो-चार चिट्ठियाँ बहुत समय तक काम न चला सकीं। उसके बाप का पहले मन टूटा, फिर एक साथ बुढ़ापे का शरीर । वह खाट पर पड़ रहा ।

जमना ने ससुर की सेवा में दिन और रात की सीमा एक कर दी ।

पीड़ा हठीले बच्चे की तरह है। समझा-बुझाकर किसी तरह थोड़ी देर के लिए वह वश में कर ली जा सकती है, परन्तु मौत इतनी भोली नहीं। बातों में आकर कहीं बीच में वह कैसे रुकेगी? एक दिन वृन्दावन के बाप का अन्त समय निकट आ पहुँचा।

ऊर्ध्वश्वास लेते हुए उसने जमना से कहा- बेटा, मेरे माथे पर तो तनिक अपनी हथेली रख।... आह ! कितना अच्छा लगा। तेरे हाथ से उतनी ही ठंडक पहुँची, जितनी बिन्दा के हाथ से पहुँचती । वह नहीं आया, नहीं आया, तो न आने दो उसको । मेरा सच्चा बेटा तू ही निकली। तू उससे जुदी नहीं है। नहीं है— नहीं है ! बेटा, घबरा मत, मैं सुर्त में हूँ। अब मेरा दुख-दर्द सब दूर हो रहा है। अब बहुत देर नहीं है। रो मत। रोकर ऐसे समय क्या मुझे दुखी करेगी? मेरा तो बुलावा आ गया, लड़के को देखना । तेरा पुण्य तुझे सुखी रक्खे!

उसी रात जमना छोटे बच्चे के साथ घर में अकेली रह गई ।

उसे चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा दिखाई दिया। कैसे वह इस घर में निराश्रय होकर रह सकेगी? उसे जान पड़ा, मानो उसकी समस्त बुद्धि का लोप हो गया है। यह उसके ऊपर अत्यन्त घातक प्रहार था । फिर भी लड़के को देखकर उसने अपने को सँभाला। जो प्रहार पहले अत्यन्त भयङ्कर जान पड़ता है, वही अपनी चोट कर चुकने पर वैसा नहीं प्रतीत होता । उस समय वह एक छोटे से स्थान में मरहम पट्टी से छिपाकर रख लिया जा सकता है। जमना को भी ऐसा ही करना पड़ा।

कुछ प्रकृतिस्थ होते ही उसे मालूम हुआ कि जितना उसके घर में है, सब उसी का नहीं है। उसके ऊपर ऋण का एक बड़ा बोझ है। उस घर में इस ऋण का आगमन पहले पहल नवागत शिशु की ही तरह विशेष आनन्दोत्सव के साथ हुआ था। बच्चे निर्दिष्ट सीमा तक बढ़कर रुक जाते हैं, परन्तु ऋण को किसी सीमा का बन्धन कहाँ । वह बढ़ता जाता है, बढ़ता ही जाता है। यहाँ तक कि घर का छप्पर और दीवार भी उसका बढ़ना नहीं रोक सकती। जमना को अपने ऋण का रूप तो ऐसा नहीं जान पड़ा, फिर भी वह उसके लिए बड़ा था। रहन रक्खे हुए कुएँ और खेत का छुटकारा उस समय वह नहीं करा सकी, परन्तु ढोर - डंगर देकर कुछ दूसरी रकमों पर उसने उसी समय कलम फिरवा दी।

अब उस बात को भी बहुत दिन हो गये हैं । हल्ली बड़ा होकर अब मदरसे जाने लगा है। उसके बस्ते में किताबों की गड्डी देखकर जमना भी अनुमान कर लेती है कि लड़के ने कुछ विद्या सीख ली। फिर भी इसका ठीक विश्वास तो उसे उस दिन होगा, जब उसके पति का पत्र आवे और हल्ली उसे पढ़कर सुना दे ।

इस बीच में जमना के सामने अनेक प्रलोभन आ चुके हैं। वह चाहती तो अपनी उजड़ी हुई गिरिस्ती फिर से कभी की बसा लेती । उसके समाज की ओर से इस सम्बन्ध में निषेध नहीं है। इसके लिए एक जाति-भोज कर देना ही काफी होता । इसमें उसे कोई कठिनता न थी । फिर भी इस ओर उसने दृष्टि तक नहीं डाली । मनुष्य-स्वभाव बड़ा विचित्र है । जहाँ कठिनता न हो, वहाँ उसकी सृष्टि करके वह उसी को सरल कर लेना चाहता है। ऐसी उसकी प्रकृति है, इसी से अन्धकार का उपयोग कर सका है वह निज की आनन्द - निन्द्रा के लिए ।

जमना अपने पति की स्मृति भुला देना चाहती है। उसे उसमें बहुत वेदना होती है। उस समय सोचने लगती है वह अपने ससुर की बात । पति से मान करने का अधिकार उसे है, ससुर की बात वह क्यों न सोचे ? उनकी बात वह सोचती है और अकेले में बैठकर घन्टों सोचती रहती है। वे मुझे बेटा कहकर पुकारते थे। मरते समय भी उन्होंने मुझसे यह नहीं कहा कि मैं इसी घर में बैठी रहूँ। वे मुझे असीस गये हैं;- मेरा पुण्य मुझे सुखी रक्खे! मेरा तो कोई पुण्य है नहीं । होता तो यह सब भुगतना क्यों पड़ता। उन्हीं का पुण्य मेरा सुहाग बनाये रहेगा। वे देवता के सुभाव के थे। उनकी बात झूठ नहीं पड़ सकती।

ऊपर से देखने में यह नहीं जान पड़ता कि जमना को कुछ अभाव है। वह घर का काम करती है, खाती है, पीती है और सम्भवतः भली- भाँति सोती भी है। शरीर से भी वह क्षीण नहीं । हल्ली को लेकर सब ओर से अपने मन को भर लेना चाहती है। जान पड़ता है, फिर भी, रीता रीता-सा कुछ उसके मन में है। उसके इस रीतेपन को जड़ पकड़ लेने वाला कोई हठीला रोग कह सकते हैं। ऐसे रोग में कभी-कभी रोगी भी समझ बैठता है कि वह नीरोग है । परन्तु किसी दिन स्वच्छ आकाश में न जानें कहाँ से कौन हवा बह पड़ती है कि दबी हुई बीमारी का दौरा फिर नहीं रुकता। ऐसा ही उस दिन जमना के विषय में भी हुआ । डाकिया उसके घर तक आया, आकर कुछ दे भी गया, फिर भी वह उसके पति की चिट्ठी न निकली। मानो भाग्य ने उस भूखी-प्यासी के सामने एक सुन्दर और स्वादिष्ट फल बढ़ा दिया था, उसे लेने के लिए वह आगे बढ़ी भी थी, तब तक निदर्य ने वह फल उसे न देकर जैसे स्वयं ही खा लिया हो ।

रात को माँ की खाट से लगी हुई अपनी खटिया पर लेटे-लेटे हल्ली ने फिर वही प्रसंग छेड़ दिया। बोला- मेरा पञ्चाङ्ग वाला सुन्दर वस्तुओं का सूचीपत्र देखकर मदरसे के लड़के वैसे ही रह गये। कैसी बढ़िया तसवीरें हैं। लड़के अपना बस्ता बड़ा बनाने के लिए गलियारे से कागज बटोर लाते हैं। कैसे गन्दे हैं, फिर भी मुझसे कहते हैं, मेरा बस्ता तुमसे बड़ा है। अब किसी के पास ऐसी पोथी नहीं निकलेगी। सब मुझसे बुरा मान गये हैं । परन्तु मैं किसी से डरता थोड़े हूँ । हूँ? ऐसे बुरे लड़के हैं, किसी की अच्छी चीज देख नहीं सकते !

जमना को लड़के की ऐसी आलोचना- प्रत्यालोचना में नित्य भाग लेना पड़ता था । हल्ली ने देखा वह ध्यान नहीं दे रही है, फिर भी वह कहता गया - और सुनती हो माँ, हीरा मेरा गुइयाँ छूट गया।

जमना ने कहा- किसी से लड़ना-झगड़ना अच्छा नहीं होता । हीरालाल तो बड़ा अच्छा लड़का है।

हीरालाल जमना के महाजन मोतीलाल का लड़का है। कभी-कभी हल्ली की उससे खटक जाती है। उसने कहा-अच्छा लड़का है चूल्हे का! वह अच्छा है तो झूठ क्यों बोलता है? कहता है, ऐसे सूचीपत्र M हमारे घर ढेरों रक्खे हैं। ढेरों रक्खे हैं, फिर बस्ते में लाकर क्यों नहीं रखता? मेरे पास यह एक अच्छा सा आ गया है सो बार-बार कहता है, मुझे दिखाओ, मुझे दिखाओ। मैंने कहा, तुम फाड़-फूड़कर आज ही पुराना कर डालोगे, मैं नहीं दिखाता। बस इसी पर गुइयाँ छूट गया है, - छूट गया है छूट जाय। मेरे दूसरे बहुत हैं ।

हल्ली ने देखा, माँ अब भी चुप हैं। वह फिर बोला - अब की बार मैं कलकत्ते का दूसरा सूचीपत्र मँगाऊँगा । वह और भी बढ़िया होगा ।

वह जानता था, कलकत्ते की चर्चा से माँ प्रसन्न होंगी । उसका अनुमान ठीक निकला। बदले हुए स्वर में जमना ने पूछा- तू मँगा सकेगा?

हल्ली उत्साहित होकर कहने लगा- हाँ हाँ, क्यों नहीं। हमारे मदरसे के नक्शे में भी कलकत्ता लिखा है। कलकत्ते में धान बहुत होती है। अच्छा, मेरा एक सवाल तुम बता सको तो जानूँ। पंजाब में क्या होता है ? - बताओ ।

जमना ने हँसकर कहा- मैं क्या जानूँ ।

"हाँ तुम बता नहीं सकतीं। बहुत कठिन सवाल है। हीरा नहीं बता सका था। तब मैंने बताया था। बड़े आदमी का बेटा बना फिरता है, लिखता - पढ़ता कुछ नहीं। इसी बात पर आज पण्डितजी ने उसे पीट दिया था । "

"तूने पहले ही उसे क्यों न बता दिया हल्ली ? तू बता देता तो वह पिटता नहीं। और ये पण्डितजी भी हैं कैसे, जो ऐसी बड़ी बात पूछकर लड़कों को पीटते हैं।"

"नहीं माँ, तुम जानती नहीं हो। बिना पिटे भला किसी को विद्या आती है । पण्डितजी गुरू हैं, माँ-बाप से भी बड़े हैं। वे पीटते हैं तभी लड़के पढ़ते हैं।"

"मुझसे तो किसी दूसरे के राई- भरे बच्चे पर हाथ न उठाया जाय। "

"तुम बहुत सीधी हो, क्या बप्पा का सुभाव भी ऐसा ही था माँ ? मैंने उन्हें देखा नहीं है। बड़ा होकर उन्हें देखने कलकत्ते जाऊँगा।" 'मुझे साथ ले चलना । कहीं तू भी मुझे यहीं तो न छोड़ जायगा ?" हल्ली ने गम्भीर होकर कहा- मैं तुम्हें वहाँ ले तो चलूँ, परन्तु औरतों का काम वहाँ नहीं है। बड़ी भीड़ होती है वहाँ तुम न जाने कहाँ कुचल जाओ। मैं बप्पा को देखते ही अपने आप पहचान लूँगा कि ये हैं ।

जमना ने पूछा- कैसे पहचान लेगा?

"पहचान क्यों न लूँगा, सीधी सी बात है। सभी तो कहते हैं, मेरी उनहार ठीक-ठीक उनसे मिलती है। यह अच्छा होता, मेरी उनहार तुमसे मिलती। मुझे तुम बहुत सुन्दर लगती हो।"

जमना ने धमकाते हुए कहा - अच्छा-अच्छा, अब सोयेगा नहीं? सो जा बहुत देर हो गई है। न आप सोता है, न मुझे ही सोने देता है।

हल्ली मुँह ढाँपकर चुपके से पड़ रहा। थोड़ी देर चुप रहकर एकाएक बोल उठा - माँ तुमने हीरा की एक बात सुनी ?

जमना ने कोई उत्तर नहीं दिया। हल्ली थोड़ी देर में ही सो गया ।

नारी (उपन्यास) : अध्याय-3

जमना की नींद उचटी हुई थी। उसके मन में न जाने कितनी बातें आ- जा रही थीं। जितना वह उन्हें हटाने का प्रयत्न करती, वे उतने ही वेग से और आतीं।

कोठरी का दिया नित्य के अनुसार ठंडा कर दिया गया था। कोई वस्तु वहाँ सूझती न थी । जान पड़ता था, जैसे कोठरी के बन्द साँचे में ढलकर वहाँ अँधेरे का एक बड़ा-सा थक्का जम गया है।

पास में पड़े हल्ली के खुर्राटे की आवाज सुनाई पड़ती थी और बस चारों ओर सुनसान ही सुनसान । बीच-बीच में कहीं से किसी कुत्ते का भूकना सुनाई सुनाई पड़ता था । उस समय ऐसा लगता था कि यह जैसे उस निस्तब्धता की ही कोई बोली हो ।

जमना के जागने के लिए यह समय बहुत सुभीते का था । इस समय दूसरा कोई आकर विचारों की लड़ी नहीं तोड़ सकता। वह बरसों से अकेली पड़ गई थी, इस बात का अनुभव पूर्ण रूप से वह ऐसे ही में कर सकती है।

इधर-उधर करवट बदलते-बदलते वह कब सो गई, यह उसे मालूम न हुआ। वह सो गई तब भी उसने अपने को चलते-फिरते और देखते हुए पाया।

देखने लगी कि किसी अनजान स्थान में वह पहुँच गई है। चारों ओर धान के हरे खेत लहरा रहे हैं । हल्ली कहता था, कलकत्ते में धान बहुत होता है। धान के खेत तो हैं, परन्तु यहाँ कहीं कोई आदमी नहीं है । जहाँ तक दिखाई देता है, बस हरियाली ही हरियाली है। ऐसे में वह अकेली जाय कहाँ? कोसों तक किसी के होने का चिह्न तक दिखाई नहीं देता ।

सहसा थोड़ी दूर उसे एक भेड़ा दिखाई दिया। कुछ स्त्रियाँ ऐसी सुनी गई हैं जो आदमी को भेड़ा बनाकर रखती हैं। वह घबरा गईं। भेड़ा गर्दन मोड़कर जमना की ओर देखता है और झट से आगे बढ़ जाता है । उसके पीछे चलने से वह अपने को रोक न सकी। उस प्राणी में ऐसा ही कुछ आकर्षण था ।

जमना चली जा रही है, बराबर चली ही जा रही है। उसके पैर दुखने लगे हैं, फिर भी बीच में वह रुक नहीं सकती। गाड़ी के पीछे रस्सी से बँधी किसी की डाल की कटी हुई शाखा की तरह वह अपने आप आगे घिसटती चली जा रही है। इधर-उधर की झाड़ी में उलझकर कब उसका वस्त्र फटता है, कब शरीर में खरोंच लगती है इसका विचार करने की शक्ति उसमें नहीं ।

एक बार उसकी दृष्टि भेड़े पर से उचटी और उसी समय वह दृष्टि से ओझल हो गया। अब चारों ओर फिर वही सुनसान इस सुनसान से अपने को वह कैसे बाहर निकाले ? अब यहाँ धान के हरे-हरे खेत भी नहीं रहे। यह कोई भयङ्कर वन है। कहानी में सुना हुआ कदलीवन । इसका तो कहीं ओर छोर ही नहीं मिलता। अपने को निस्सहाय पाकर एक जगह बैठकर वह आँसू बहाने लगी। हाय ! यह भेड़ा भी अपने घर के आदमी जैसा ही निरदई निकला ।

थोड़ी देर रोते-रोते उसने सिर उठाया कि सामने बहुत दूर दो आदमी छाया - से दिखाई दिये। नहीं, ये दोनों पुरुष नहीं है। एक पुरुष है, दूसरी स्त्री । उठकर वह फिर चलने लगी ।

अब उसने स्पष्ट देखा, – अरे यह तो उसका पति है। मन ही मन प्रश्न किया- साथ की वह स्त्री कौन है ?

उधर उस स्त्री ने जमना की ओर उँगली करके पूछा - इसी को ला रहे थे ? कौन है यह?

जमना सन्न रह गई । जैसे उसकी छाती पर किसी ने मानो बोझ रख दिया हो। वह चिल्ला पड़ना चाहती है, पर उसकी जीभ काम नहीं देती ।

वृन्दावन ने उधर उस स्त्री से कहा- गाँव की एक औरत; वही जिसके बारे में बात हुई थी।

हाय राम ! गाँव की एक औरत - वही, जिसके बारे में बात हुई थी ! जमना जोर से सिर पीटने लगी।

देखकर वह स्त्री ताली पीटकर हँसी । बोली- बड़े मजे की औरत है यह तुम्हारे गाँव की !

वृन्दावन भी साथ-साथ मुँह फेरकर हँसने लगा ।

जमना के सारे शरीर में आग सी लग गई। इसी के फेर में पड़े हैं! इसके साथ कैसे घुल मिलकर हँसते हैं, मुझसे बात तक नहीं पूछते । छिः छि: कैसी ओछी औरत है ! न रूप रंग में अच्छी, न बातचीत में। अच्छे रङ्गीन कपड़े पहन लिये और समझती है, हम हैं सो कोई नहीं ।

जमना झपटकर पास पहुँची कि उस स्त्री ने रूप बदल लिया। ओ मेरी मैया, इसके तो बड़े-बड़े दाँत निकल आये। यह आदमी खाने वाली डायन है।

वह एक साथ जोर से चिल्ला पड़ी और उसकी आँख खुल गई।

"माँ क्या हुआ, क्या हुआ ?" - कहकर हल्ली भी अपनी खटिया पर उठकर बैठ गया ।

चिड़ियाँ चहकने लगी थीं, परन्तु अन्धकार कुछ-कुछ अब भी था । जान पड़ता था कि प्रभात के स्वागत में किसी अलौकिक धूपदानी ने यह सुगन्धित धूप ही सब ओर एक-सा फैला दिया है।

लड़के को जागा देखकर जमना लजा गई । बोली- डर मत हल्ली, मैं सपना देख रही थी ।

हल्ली ने विस्मित होकर पूछा-सपना देख रही थीं तो इस तरह जोर से चिल्ला क्यों उठीं?

"ऐसा ही सपना था । "

"सबेरे का सपना सच्चा होता है। सच्चा नहीं होता हैं क्यों माँ? मुझे ऐसा सपना कभी नहीं आता।" अपने स्वप्न न आने के सोच में वह माँ से सपने का ब्यौरा पूछना भूल गया। जमना म्लान मन से कपड़े लपेटकर खाट उठाने लगी।

नारी (उपन्यास) : अध्याय-4

दिन भर जमना की छाती में बरछी-सी चुभती रही कि सबेरे के पहर का सपना सच्चा होता है। कैसा दुर्भाग्य है कि उसके लिए सपना भी सपना नहीं रहना चाहता! चारों ओर उसके पति के सम्बन्ध में जैसी बातें सुन पड़ती हैं, उससे यह अच्छी तरह मेल खा जाता है। स्वयं जमना के मन में भी इस तरह की बातें कहीं छिपी नहीं हैं, यह भी वह कैसे कहे। उसने निरन्तर संघर्ष किया है; बाहर वालों से और अपने आप से भी कि निन्दा की बातों पर वह ध्यान न दे। पर आज के स्वप्न का वह क्या करे? उसने अपनी आँखों से वह स्त्री देख ली है, उसकी बातें सुन ली हैं। वह मन ही मन पुकार कर कहने लगी- हे जगदीश स्वामी, मेरा पहला ही दुःख क्या कम था जो यह सब सामने लाकर इस तरह दिखा दिया? वह सब दिखाने के पहले ही मुझे अन्धी और बहरी कर देते तो कितनी अच्छी बात होती !

उसके मन में धिक्कार उठा कि इस समय तो ऐसी बातें सोच रही हूँ और उस समय उसका भयंकर रूप देखकर ही इस तरह चिल्ला उठी कि हल्ली भी जाग पड़ा। मुझे खा ही लेती तो क्या बुरा होता । मैं उससे दो बातें तो करती । स्त्री की जाति, – कहाँ तक कठोर होती । परन्तु मेरा उतना पुण्य नहीं, इसी से इस तरह घबरा गई थी। जिनका पुण्य होता है वे यमराज के हाथ से भी अपना धन लौटा लाती हैं।

दोपहर को जब हल्ली मदरसे से लौटा तब जमना ने उससे कहा - आज संझा को रामायण सुनाना बेटा ।

उसने निश्चय किया था, खूब ध्यान लगाकर वह कथा सुनेगी। मतलब समझ में न आवे तब भी हर्ज की बात नहीं है।

रामायण पढ़कर माँ को अपनी विद्या दिखाने का उत्साह हल्ली के लिए पुराना पड़ गया था ! उसने बहाना निकाला- अपनी पोथी अच्छी नहीं है। उसका पुट्ठा खिंच आया है, एक-एक पन्ना अलग है। उसे उसे पढ़ने में मन नहीं लगता ।

"कितनी अच्छी पोथी है, और तू कहता है पढ़ने में मन नहीं लगता ! ऐसे मोटे अच्छरों की पोथी और कहीं नहीं मिल सकती । पाँच रुपये निछावर में लगे थे।"

“पाँच रुपये ! मैं दो रुपये में सुनहरी जिल्द की ला सकता हूँ। बहुत बढ़िया छेपक समेत, नीचे अर्थ लिखा हुआ । रामू बिसाती के यहाँ आज ही आई हैं ऐसी नई कि तुम देखते ही रह जाओ। दोगी माँ, रुपये?"

"तू बाँचकर सुनाना कहे तो "-

हल्ली को विश्वास न था कि माँ रुपये दे देंगी। प्रसन्न होकर उसने कहा- हाँ-हाँ सुनाऊँगा, लाओ, दो ।

जमना ने रुपये दे दिये। उसने सोचा, रामायणजी की पोथी के लिए दो रुपये क्या है । बोली- देख, गिरा न देना । देख लेना, पन्ने कटे न हों।

मोल तोल करने की बात उसने नहीं सुझाई। रामायण का मोल- भाव नहीं किया जाता है ।

हल्ली प्रसन्नता में उछलता-कूदता चला गया।

हल्ली की प्रसन्नता देखकर जमना की आँखों में आँसू आ गये । मन ही मन उसने कहा- यह रामायणजी की पोथी के लिए कैसा प्रसन्न हो रहा है। हे महावीर स्वामी अच्छे काम में इसे ऐसा ही प्रसन्न बनाये रखियो !

कहकर उसने अपने दोनों हाथ जोड़कर माथे से लगा लिये।

घर में अकेली पड़कर उसका जी फिर बेचैन होने लगा । काम- काज किसी तरह निबटाकर वह खेत के लिए निकल पड़ी। गाँव के बाहर वह बड़ी सुन्दर जगह है। चारों ओर गेहूँ चने के हरे-हरे खेत हैं । अलसी और सरसों के नीले-पीले फूलों ने स्थान-स्थान पर उस हरियाली में बेल बूटे का काम किया है। जिस समय हवा झोंके के साथ चलती है उस समय जान पड़ता है कि यह हरियाली भी कुछ दूर तक उसके पीछे चलेगी। इस शान्त वातावरण में जमना का जी और उदास हो गया। वह उस बँधी हरियाली की तरह ही किसी दूरगामी, अत्यन्त दूरगामी का पीछा करना चाहती है। जहाँ की तहाँ रहती है, किन्तु पीछा करना नहीं छोड़ती।

खेती दूसरे की साझेदारी में हो रही थी, वहाँ काम-काज विशेष कुछ न था । जितना था, उसमें भी वह मन लगा न सकी ।

सन्ध्या हो आई । ढोर बछेरुओं और नंग-धड़ंग लड़के बच्चों को आगे करके, खेतों की स्त्रियाँ काँदी - भूसे के बोझ के साथ अपने-अपने घर लौट गईं। चारों ओर का सूनापन अब और भी बढ़ गया है। जमना फिर भी, अपने पक्के कुएँ के घाट पर अकेली चुपचाप बैठी है।

कुएँ के पास ही आम का एक गुल्ला है। अब तक इसने फल नहीं दिये हैं। पारसाल मौरकर ही रह गया था । बहुत सुन्दर है, हरे हरे पत्तों से छाया हुआ, कलश के से सुडौल आकार वाला। उसके पीछे से छनकर तीज चौथ की चाँदनी के छीटें जब जमना के मुँह पर आकर पड़े तब एकाएक जैसे उसे कुछ चेत हुआ।

वह पेड़ के नीचे जाकर खड़ी हो गई। इस पेड़ के साथ उसकी एक बहुत सुखद स्मृति है। उसकी याद से उसकी आँखों के आँसू गालों पर आकर नीचे टपाटप गिरने लगे। इन्हें वह देर से रोके हुए थी। आँसू भी समय-असमय की बात जानते हैं, इसी से अब तक रुके थे। इस एकान्त में अब ये रुकते कैसे? अब यहाँ किसी की शंका नहीं है, लज्जा नहीं है। अब तो ये बहेंगे ही बहेंगे।

उसने सोचा, – आज बुधवार है ? - हाँ, आज का ही दिन वह था । यही समय था, ऐसी ही चाँदनी थी। चारों ओर सुनसान भी ऐसा ही था, जगह भी यहाँ की यही थी। अधिक और जो था वह आज नहीं है। उस समय उसके सास-ससुर दोनों जीवित थे। उसके पति ने न जाने कैसा मेल मिलाया कि दोनों पति-पत्नी यहाँ अकेले पड़ गये थे ।

वृन्दावन ने कहा- चलो, इस समय वह आम की गुठली बो दें।

पास वाले डेरे से जमना को वह जबर्दस्ती खींच लाया । वह झिड़कती ही रह गई; -करते क्या हो कोई देख लेगा !

चारों ओर सुनसान देखकर थोड़ी देर में उसकी झिझक दूर हो गई। वृन्दावन खुरपी से गड्ढा खोदने लगा और गगरी लेकर वह सींचने के लिए कुएँ से पानी खींचने लगी।

उस एकान्त में अकेली वह है और अकेला उसका पति। तीसरा कोई उन दोनों के बीच में नहीं है। बीच का संसार अपने आप सामने से खिसक गया है। ऐसे में वह दबी दबी नहीं रह सकती। विवाह के बाद अब तक घर की बन्द कोठरों में ही वह पति से मिल सकी थी। यह पहला अवसर था जब इस असीम के आनन्द का अनुभव उसे हुआ । निस्संकोच भाव से वह पति के बगल में जाकर बैठ गई ।

उसके पास आकर बैठ जाने से वृन्दावन को गड्ढे खोदने के काम में कुछ सहायता पहुँची हो यह नहीं दिखाई देता । उसका हाथ धीमा पड़ गया है। एक बार खोदी हुई मिट्टी नीचे न डालकर उसने जमना के ऊपर डाल दी। जमना ने भी अपने आँचल का छोर इस तरह फटकारा कि मिट्टी वृन्दावन के ही ऊपर पड़ी। फिर भी रोष दिखाकर वही उसे दोष देने लगी- इस तरह अनाड़ीपन से काम किया जाता है कहीं ? लाओ, दो मुझे खुरपी, मैं खोदूँगी।

गड्ढा खोदकर फिर जहाँ का तहाँ भर दिया गया है, अब गुठली बोने की बारी आई।

वृन्दावन ने कहा- गुठली तुम बोओ।

जमना ने उत्तर दिया- मैं नहीं, तुम ।

बोने की समस्या साधारण न थी । वृन्दावन ने कहा- यह गुठली बहुत बढ़िया आम की है। इसके फल हम तुम बहुत दिनों तक खायँगे । तुम्हीं इसे बो दो । स्त्री के हाथ में रसायन होती है।

जमना ने कहा- राम राम ! कोई कहीं लुगाई के हाथ के लगाये पेड़ का फल खाता है ?

वृन्दावन ने भी उसी तरह उत्तर दिया- राम राम ! कोई कहीं लुगाई के हाथ की बनी रोटी खाता है।

जमना हँसकर बोली- नहीं, सच मेरे हाथ में कुलच्छन है । मेरे हाथ का बोया पेड़ उगेगा नहीं ।

वृन्दावन ने ठोढ़ी पकड़कर उसका मुँह ऊँचा उठा दिया। पूरे मुख पर धुँधली चाँदनी पकड़कर खिल उठी । ठोढ़ी पकड़े - पकड़े उसी को उसका मुँह दिखाता हुआ-सा वह कहने लगा- कुलच्छनी का रूप ऐसा होता है मेरी रानी ?

अन्त में निश्चय हुआ, गुठली दोनों एक साथ बो दें। और इस तरह वह काम उस दिन सम्पन्न हुआ।

जमना ने उस गुठली में जिस दिन पहले पहल अंकुर देखा उसके आनन्द का ठिकाना नहीं रहा था। तब से हृदय के सम्पूर्ण स्नेह के साथ उसने इस बिरवे का पोषण किया है। इस बीच में कितने ही उलट फेर घर में हो चुके हैं। परन्तु घोर दुःख में भी इस आम की खबर लेना वह नहीं भूली । वृन्दावन ने कई बार उससे कहा था कि इस आम के पहले फल को ठाकुरजी का भोग लगाकर तुझे दूँगा। अब इस साल इसमें पहली बार फल आने को हैं । परन्तु मुझे अपने हाथों इसका पहला फल खिलाने वाले वे हैं आज कहाँ ? मुझे भूल गये हैं, भूल जावें, अपने वचन की सुतो लें। हा, वे क्या करें, किसी के फन्दे में पड़ गये हैं। नहीं तो क्या जान बूझकर मुझे भूल जाते ?

गुठली बोने की वह घटना इतने दिन बाद आज भी जमना ने उस पहले दिन ही की तरह आँखों के आगे प्रत्यक्ष देखी । सबके जीवन में कोई न कोई स्मृति ऐसी रहती है जो कभी पुरानी नहीं पड़ती। किसी चिरन्तन कवि की वाणी की तरह वह बार-बार दुहराई जा सकती है। भाषा बदल जाती है, बदल जाय, समय वह नहीं रहता, न रहे: वह जैसी की तैसी रहती है, उसमें अन्तर नहीं आता। जमना की यह स्मृति उसके लिए ऐसी ही थी। उसमें वह ऐसी तल्लीन हुई कि उसे बाहर की कोई खबर न रही।

"यहाँ इस पेड़ के नीचे कौन है? अरे जमना – इस समय तुम यहाँ कैसे?"

जमना ने सँभल कर देखा, सामने पगडंडी पर अजीत खड़ा है। वह लजा गई । बोली-घर लौट रही हूँ। तुम कहाँ से आ रहे हो पाते ?

"धनू कोरी के डेरे से लौट रहा हूँ ।" - अजीत ने कहा--" जब और कहीं काम पूरा नहीं पड़ता तब अजीत माते की पुकार होती है। उसकी घरवाली पर प्रेत की छाया थी, ऐसी कठिन जिसका ठिकाना नहीं । जितने गुनी थे सब हार गये, तब झख मारकर मेरे पास दौड़ा आया । किसी को तकलीफ हो तब काम छोड़कर जाना पड़ता है। बेचारी की जिन्दगी थी, यही कहना चाहिए। एक दिन की देर और हो जाती तो बात मेरे काबू की भी न रहती । "

जमना धीरे-धीरे उसके साथ चलने लगी। वह जानती है, गाँव में इसकी मंत्रविद्या का बहुत मान है। स्वयं उसे इन बातों में रुचि नहीं, इसलिए सजातीय होने पर भी इसके प्रति अब तक वह उदासीन थी । परन्तु आज की दुर्भावना और दुश्चिन्ता में पड़कर उसने इसका सहारा लेना चाहा । बोली- क्यों माते, सबेरे के पहर जो सपना हो वह सब सच्चा ही होता है ?

"होता भी है और नहीं भी होता है"- अजीत ने कहा- "पहले यह जानना होता है, सपना हुआ है किसको; और हुआ है तो कैसा हुआ। बात क्या है?"

जमना चुप रह गई । सोच न सकी, क्या उत्तर दे। अजीत ने पूछा- वृन्दावन भैया का कोई सपना तुम्हें हुआ है ?

चन्द्रमा उतरकर वृक्षों की ओट में पड़ गया था, फिर भी दृष्टि नीचे करके ही उसने कहा- " हूँ।" जिस तिसके आगे पति की चर्चा करते हुए उसे संकोच होता है ।

अजीत ने प्रसन्न होकर कहा- मैं पहले ही जान गया था। सूरत देखकर ही मन की न जान जाऊँ तो कोई कहे। मेरी एक सलाह सुनो। अब उन बीती बातों को छोड़ो। नई गिरस्ती बसाओ, तभी सुख मिलेगा । तुमने बहुत दिन तक वृन्दावन का झूठा आसरा ताका, इतना भी इस जमाने में कौन करता है।

जमना को बुरा मालूम हुआ। बोली- जीजी को मरे इतने दिन हो गये, फिर तुम्हीं ने अपनी गिरस्ती दुबारा क्यों बसाई ?

अजीत ने फीकी-सी हंसो हँसकर कहा- मेरी बात दूसरी है। भुझे जन्तर-मन्तर जगाने पड़ते हैं। इसमें जान तक जाने का अंदेशा रहता है। और भी-

"वह क्या ?"

"किसी के आगे दुखड़ा रोने में फायदा नहीं है" - कहकर अजीत रुक गया। जमना को चुप देखकर थोड़ी देर बाद स्वयं फिर कहने लगा - मेरे भाग का होता तो गाँठ का धन ही क्यों खोता । अब तो जो चली गई है वह चली गई । उसकी याद में ही भला लगता है। लोग ऊपर-ऊपर देखते हैं, इसी से कहते हैं कि इसे दुख है। किसी को दुख ही दुख हो तो वह जिन्दा कैसे रहे? किसी के यहाँ झाँड़ने-फूँकने जाता हूँ तो उसके यहाँ का पानी क्या तमाखू की फूँक तक लेना पाप है । दोपहर को चूल्हा सुलगा रहा था, तभी वह पकड़ ले गया । अब घर जाकर चूल्हा क्या फिर सुलगाऊँगा? आज तो पूरा उपास करने की सोच ली है। आनन्द इसमें भी है। सौ बात की बात एक यह है-जाही विध राखे राम ताही विध रहिए !

जमना का हृदय सहानुभूति से भर गया । उसके मन में भी कोई ऐसी बात थी। उसे प्रकट करने के लिए उसको शब्द नहीं मिलते थे । उसका हृदय उतावला होकर बार-बार दुहराने लगा-आनन्द इसमें भी है, आनन्द इसमें भी है !

उसके मन में आया, अपने घर व्यालू करने के लिए अजीत से आग्रह करूँ। फिर भी संकोचवश वह ऐसा नहीं कर सकी।

उस स्थान पर वे आ पहुँचे, जहाँ से दोनों का रास्ता जुदा था। वह बोला- तुम्हें और आगे पहुँचाने चलूँ? उधर से ही निकल जाऊँगा । तुम्हें देर हो गई है । गाँव के बाहर इतने समय तक अकेली नहीं रहना चाहिए। आदमी सब तरह के मिल सकते हैं।

"चली जाऊँगी। आज अनोखी नहीं जा रही हूँ ।"

"हाँ, उस सपने की बात रह गई। कोई बुरा सपना था? बुरे सपने का फल भी दान-पुत्र से सुधर सकता है। लो, अब मैं जाता हूँ।"

अजीत चला गया। जमना को याद आया, हल्ली बड़ी देर से अकेला है और वह रामायण की पोथी ले आया होगा ।

वह भी तेजी से आगे बढ़ गई।

नारी (उपन्यास) : अध्याय-5

उस पञ्चाङ्ग नामक सूचीपत्र को लेकर हल्ली और हीरालाल में विरोध बढ़ गया है।

मदरसे की बात है । लड़के इधर-उधर अव्यवस्थित रूप में थे । कोई काँच के टुकड़े से काठ की पट्टी घोंट रहा था, कोई बोरका या दवात में पानी डालकर लौट रहा था, और कोई अपनी दवात कलम की खोज में था। कहीं-कहीं दस-दस पाँच-पाँच के झुण्ड लड़ झगड़कर शोर कर रहे थे। इतने में एक लड़के ने आकर खबर दी, बड़े पंडितजी आ रहे हैं | समाचार बिजली की तरह सब लड़कों में दौड़ गया। जब तक पंडितजी मदरसे के भीतर आकर उपस्थित हों तब तक अपने-अपने स्थान पर पहुँचकर सब लड़के जोर-जोर से अपना पाठ पढ़ने लगे थे।

पंडितजी ने कुरसी पर बैठकर आगे की मेज में हाथ के बेंत से खटखटाहट की नहीं कि एक साथ सन्नाटा खिंच गया। अब नित्य के अनुसार पढ़ाई शुरू होने वाली थी, तब तक हीरालाल ने उठकर कहा - पंडितजी, यह हल्ली मुझसे बुरी-बुरी बात कहता है ।

हल्ली अपनी जगह पर बैठे-बैठे बोल उठा - नहीं पंडितजी, यही मुझसे कह रहा था, - हल्ला, गल्ला, निठल्ला ।

हीरालाल ने कहा- यह सरासर झूठ बोल रहा है। यही कह रहा था, - हिरवा, चिरवा-

पंडितजी ने हाथ का बेंत मेज पर बजाते हुए दोनों को एक साथ बोलने के लिए रोका। हीरालाल आगे था, इसलिए उसी को पहले बोलने का मौका मिला। उसने कहा - पंडितजी, आपने जैसी दवाइयों का सूचीपत्र उस दिन फाड़कर फिकवा दिया था, वैसा ही यह अपने साथ लाया है।

हल्ली उस सूचीपत्र के साथ तलब किया गया। डरते-डरते पंडितजी के पास पहुँचकर उसने कहा- यह वैसा नहीं है पंडितजी ।

हल्ली के हाथ से सूचीपत्र छीनकर पंडितजी ने उसे नीचे फेंका और उसके गाल में दो तमाचे जड़ दिए। बोले- दियासलाई लगाकर सूचीपत्र अभी जला दो ।

कई लड़के दियासलाई लाने के लिए एक साथ इस तरह उठ खड़े हुए, मानो अभी किसी बहुत बड़ी प्रतियोगिता के खेल में भाग लेना है।

हल्ली रुआँसे मुँह से कातर होकर कहने लगा- पंडितजी, इसमें महादेवजी की रंगीन तसवीर है।

उसमें महादेवजी की तस्वीरे होने के दोष पर हल्ली को एक चपत और जड़कर पंडितजी ने कहा- अब कभी ऐसी चीज देखी तो मार मारकर ठीक कर दूँगा ।

हीरालाल से समझा जीत उसकी हुई और हल्ली ने सोचा, वह हार कर भी हारा नहीं है। फिर भी उसका जी न जाने कैसा हो गया कि उस दिन वह पढ़ने में मन बिलकुल न लगा सका । सब हिसाब गलत निकलने के कारण उसे फिर मार खानी पड़ी।

छुट्टी होने पर हल्ली ने हीरालाल से कहा- आज तुम हमारी ओर खेलने आये तो तुम्हारी हड्डी तोड़ दूँगा ।

"अभी शिकायत करता हूँ" - कहकर पंडितजी के पास जाने के लिए हीरालाल आगे बढ़ा। परन्तु हल्ली पहले ही देख चुका था कि वे चले गये हैं। मुड़कर हीरालाल ने कहा- मैं आऊँगा, देखें कौन रोकता है। गड़बड़ करोगे तो वारंट कटाकर थाने में बंद कर दूँगा ।

घर जाकर हल्ली ने एक आले में बस्ता पटका और घर के किवाड़ बंद करके खेल के मैदान में पहुँच गया। उसने सोचा, देखूं हीरा कैसे आज मेरे खेल में आता है। मन की उत्तेजना में उसे इस बात की सुर्त न रही कि रामू की दूकान पर उस समय उसे रामयण की पोथी लेने जाना है। दोपहर को दूकानदार उसे मिला नहीं था, तब सन्ध्या की छुट्टी के बाद उसने फिर वहाँ जाने का निश्चय किया था।

मैदान में कई लड़के पहले ही मौजूद थे। एक लड़का कपड़े की सिली गेंद और चीड़ के पटिये का बल्ला साथ लाया था। उसने कहा- गेंद की एक बाजी खेली जाय ।

दूसरी ओर कुछ लड़के मिलकर कौड़ियों का कोई खेल खेल रहे थे। उनमें जो हार रहा था, उसने पैर से कौड़ियों को ठुकराया और कहा- गेंद खेलने से कसरत होती है।

जीतने वाला प्रतिवाद करना चाहता था, तब तक तीसरे ने कहा -- धरम की दाई मुण्डा देगा |

जिस लड़के को यह पुण्य कार्य सौंपा जा रहा था, उसका मुण्डन हाल में ही हुआ था। उसकी घुटी हुई खोपड़ी देखकर सब खिल- खिलाकर एक साथ हँस पड़े।

एक ओर लड़के ने सुझाया, ऐसी खोपड़ी पर चील झपट्टा बहुत अच्छा रहेगा।

हल्ली ने आगे बढ़कर कहा - यह सब कुछ नहीं, आओ रेल- रेल खेलें। यह मुण्डा मुण्डे डिब्बे का काम देगा।

सब लड़के उत्साह से इस नये प्रस्ताव पर एक साथ सहमत हो गये ।

"सात डिब्बे की गाड़ी बनेगी, " - हल्ली ने कहा - " परन्तु बनेगा कौन कौन ?"

डिब्बे बनने के लिए सब तैयार दिखाई दिये। जाय, अब यह समस्या सामने आई। एक लड़के ने इनमें से किसे चुना "सवारी का डिब्बा मैं हूँ- यह कहकर अपने साफे की ओर इंगित किया । वह थी उसकी सवारी !

तुरन्त चार डिब्बे सवारी के छाँट लिए गये; क्रम से पहला, ड्योढ़ा, दूसरा और तीसरा । साफ कपड़े पहने एक लड़के को - पहला दर्जा बना दिया गया, बाकी के लिए कुछ गड़बड़ पड़ी। दो डिब्बे बनाये गये माल के, जो नंगे सिर थे। और इसमें तो कुछ झंझट ही न थी कि मुण्डा डिब्बा सबके अन्त में रहेगा ।

"सात तो ये अभी हो गये और इंजन अभी बना नहीं। बिना इंजन के गाड़ी चलेगी कैसे?" - हल्ली ने कहा - " अच्छा, टेसन मास्टर मैं न बनूँगा। आठवाँ मैं हुआ इंजन।"

कतार बाँधकर सब सीध में खड़े हो गये। इंजन ने मुँह से सीटी बजाई और कहा- फक्- फक्- फक्! !

इंजन चालू हो गया और गाड़ी हिली तक नहीं। इंजन को ही डपटकर बोलना पड़ा-गाड़ी चलती क्यों नहीं; क्या खराबी है?

गाड़ी चलने लगी। थोड़ा आगे बढ़कर इंजन रुक गया। उसने कहा- गाड़ी पीछे को लौटेगी। लाइन क्लिअर नहीं हुआ है और माल के डिब्बे में माल भी नहीं लादा गया। अरजुना, अपनी गेंद लखू को दे, वह है पैटमैन । गारड साब को गेंद दी जायगी तब गाड़ी चलेगी।

उलटी लौटकर गाड़ी फिर उसी जगह आई। वहाँ दूसरे लड़कों ने जमीन पर से जैसे कुछ उठाकर माल के डिब्बों में माल भरने का सा काम किया, गेंद पहले दरजे वाले डिब्बे ने गार्ड बनकर ली, दोनों ओर कुछ लड़के थोड़े फासले से तार के खम्भे बनकर खड़े हुए, तब कहीं दुबारा गाड़ी रवाना हो सकी।

थोड़ी दूर चलकर फक्-फक् करना छोड़ इंजिन फिर खड़ा हो गया। पीछे गर्दन मोड़कर उसने कहा-इंजन के अलावा दूसरा कौन फक् - फक् करता है ? राधे, सीध में रहो, गाड़ी रेल की पटरी से उतरे नहीं ।

सब ठीक ठाक होकर गाड़ी फिर चली और अबकी बार चलकर दौड़ने लगी। गाड़ी के दोनों ओर तार के खम्भे वाले लड़के भी हो- हल्ला करके साथ-साथ दौड़ रहे थे।

"टेसन जबलपुर ! गाड़ी पाँच मिनट ठहरेगी।" बगल के एक लड़के ने कहा। गाड़ी रुकी और आध मिनट में ही पाँच मिनट पूरे करके फिर दौड़ने लगी। जबलपुर के बाद आया लखनऊ, फिर लाहौर । लाहौर से बढ़कर एकदम दिल्ली जाकर गाड़ी रुकी। यहाँ उसे पूरे चौबीस घण्टे रुकना पड़ेगा। अब तक उसने बहुत बड़ा चक्कर काट लिया था।

सहसा हल्ली ने कहा- दिल्ली नहीं, यह टेसन कलकत्ते का है।

"हाँ हाँ कलकत्ते का है। गरमागरम दाल-रोटी-बिसकुट! बनारस के अमरूद !" आदि की आवाज आने लगीं।

हल्ली ने इंजिन वाले की हैसियत से हुक्म दिया- बाजार जाकर जिसे जो कुछ खरीदना हो, खरीद लावे। गाड़ी यहाँ बहुत रुकेगी।

गाड़ी तितर-बितर हो गई। कोई कहीं, कोई कहीं जाकर इच्छानुसार घूमने लगा। हल्ली ने अकेले पड़कर वेदना के साथ मन में कहा- मुझे तो कुछ लेना-देना है नहीं, मैं बप्पा को ढूंढ़ेगा। बाप का पता लगाने में माँ की करुण मूर्ति ही बार-बार उसकी आँखों के आगे आने लगी।

थोड़ी देर में फिर सब लड़के इकट्ठे हुए तब हल्ली ने देखा, हीरालाल भी वहाँ मौजूद है। उसका जी बुझा-बुझा हो रहा था, अब उसने फिर गरमी पकड़ ली। बोला- खबरदार, जो तुम मेरी रेल के पास आये !

उसने कहा - आता कौन है ! छिः छिः, रेल रेल कहीं ऐसे खेला जाता है? पुरखों ने सात जनम में कभी देखी हो तब तो-

हल्ली उसे मारने के लिए लपका। कई लड़के मुश्किल से बीच- बचाव कर सके।

गाड़ी फिर रवाना होकर किसी स्टेशन पर ठहरी तब एक लड़के ने आवाज लगाई - चाय गरमागरम ! गरम चाय खरीदने के लिए हल्ली ने जेब में हाथ डाला कि जड़ मूर्ति की तरह वह जहाँ का तहाँ खड़ा रह गया। थोड़ी देर बाद उसके मुँह से निकला - अरे मेरे दोनों रुपये कहाँ गये !

रेलगाड़ी का समस्त संगठन भंग करके लड़कों ने आसपास भीड़ लगा दी। एक साथ अनेक प्रश्नों का उत्तर देना उसके लिए असम्भव हो गया। हीरालाल भी उस भीड़ में घुस आया था, उसने पूछा- कैसे रुपये, कहाँ से आये थे ।

हल्ली बिगड़ पड़ा - रुपये और कैसे होते हैं - क्या तुम्हारे बाप के थे, जो पूछने आ गये?

उसने शान्ति से उत्तर दिया- नाराज क्यों होते हो? मैं तो इसलिए कुछ पूछ रहा था कि तुम जैसे गरीब लड़के के पास रुपये आ कहाँ से सकते हैं। जमना काकी या और किसी के चुराये होंगे। बुरे की सजा भगवान हाथों हाथ देते हैं। जाकर मैं अभी काकी से कहता हूँ ।

वह झंझट दूर होने पर लड़कों ने इधर-उधर खोज शुरू की। हल्ली ने बताया—जब मदरसे पहुँचा तब तो रुपये जेब में थे, बाद की खबर मुझे नहीं है।

"मदरसे में ही तो किसी ने नहीं उड़ा दिये ? तुम्हारी जेब वहाँ एक बार खनकती मैंने सुनी थी। यह हीरा बड़ा बदमाश है देखो कैसा हँस रहा था । " - एक लड़के ने कहा ।

हल्ली बोला- यहाँ तो अच्छी तरह देख लो ।

उसकी रेलगाड़ी दिल्ली, लाहौर, न जानें कहाँ-कहाँ घूम फिरी थी । इन स्थानों में रुपयों का खोज निकालना सम्भव न था । भरसक प्रयत्न करके सब लड़के म्लान मन से अपने-अपने घर लौटे। एक लड़के ने कहा- सरकार के यहाँ दो रुपये रेलगाड़ी के टिकट में गये ।

हल्ली सिर नीचा किये चुपचाप अपने घर की पौर में जाकर खड़ा हो गया। आँगन में माँ के पास एकाएक जाने की हिम्मत उसकी नहीं हुई ।

जमना खेत पर से अभी-अभी लौटी थी। अपने मुहल्ले में पहुँचते ही हल्ली के रुपये खोने का समाचार उसे मिल गया था। आँगन के आले में मिट्टी का दिया रखकर वह उसकार रही थी कि पौर में उसे हल्ली के पैर की हलकी आहट सुनाई दी। यह स्वर उसका चिरपरिचित है, किसी हालत में इसे पहचानने में वह भूल नहीं कर सकती। वहीं से हल्ली के विषाद भरे चेहरे की कल्पना करके उसका हृदय व्यथित हो उठा। मृदु कण्ठ से उसने कहा- कौन है, हल्ली ?

वह जहाँ का तहाँ खड़ा खड़ा रहा, कोई उत्तर उसने न दिया। तब जमना ने वहीं पहुँच कर पूछा- हल्ली, रुपये खो गये क्या ?

यह स्वर तो नाराजी का नहीं है। हल्ली ने अभी कुछ देर पहले सोचा था कि यदि माँ नाराज होंगी तो मैं बिगड़कर कहूँगा- क्या मैंने जान-बूझकर गिराये हैं? इतना नाखुश होती हो तो तुमने मुझे दिये ही क्यों ? परन्तु माँ का स्वर तो यह वैसा नहीं है। वह बोला- "माँ" और आगे कुछ न कह सका ।

जमना ने कहा- गिर गये सो गिर गये, परन्तु बेटा, रुपया-पैसा सँभालकर रक्खा जाता है।

हल्ली दीन नहीं पड़ना चाहता था। वह हीरालाल को दिखा देना चाहता था कि मुझे किसी की परवा नहीं है । परन्तु माँ के इस प्यार के सामने तो झुके बिना नहीं रहा जाता। वह सिसक-सिसक कर रोने लगा।

जमना ने दोनों हाथों से खींचकर उसे गोद में चिपका लिया । बोली- रो मत बेटा, कल तेरे साथ पोथी लेने मैं आप चलूँगी !

मन ही मन वह कह रही थी- दो रुपये खो गये तो खो गये। जिन्दगी में न जानें कितना क्या खो जाता है। आनन्द इसमें भी है, आनन्द इसमें भी है।

नारी (उपन्यास) : अध्याय-6

सबेरे मदरसे जाने के समय हल्ली ने कहा- आज पढ़ने न जाऊँगा। कारण पूछे जाने पर उसने कहा- पंडितजी मारेंगे।

"पंडितजी मारेंगे, क्यों, जब अपना पाठ अच्छी तरह सीखेगा।"

"कल मुझसे रुपये खो गये, कहेंगे, क्यों खोये ?"

"चल, साथ चलकर मैं कह आऊँ कि मारें नहीं।"

"आज मैं नहीं जाता माँ। तुम्हारे साथ चलने से पंडितजी और चिढ़ जायँगे।"

"तो फिर आज यहीं बैठकर पढ़।"

घर बैठकर पढ़ने में हल्ली को कोई आपत्ति न थी। वह जानता था, माँ पढ़ने के लिए कहेंगी, पढ़ाने की विद्या उनके पास नहीं है। विद्या से उसका मतलब था पंडितजी के हाथ की छड़ी का । लड़कों ने यही इसका नाम रख छोड़ा था ।

मदरसे जाने से छुट्टी पाकर हल्ली को जान पड़ा कि दो रुपये देकर उसने आज का दिन खरीदा है ! परन्तु थोड़ी देर बाद ही वह उसे खटकने लगा। मदरसे जाये बिना वह अपने साथियों को खबर कैसे दे सकेगा कि रात में उसे मार नहीं खानी पड़ी। सबके सब कहते थे, माँ बहुत मारेंगी? मारेंगी कैसे, क्या मैंने जान-बूझकर नुकसान किया है ?

साथियों तक सत्य का यह प्रकाश पहुँचाने के लिए उसने झट से कुछ आत्मत्याग करने का संकल्प कर डाला। बोला- पहले मुझे कलेवा कराओ, तब दूसरा कुछ करो। मदरसे के लिए देर हो रही है।

जमना ने कहा- अभी तो कहता था, आज न जाऊँगा। हल्ली ने गम्भीर होकर उत्तर दिया- बिना जाये कैसे चलेगा? अच्छे लड़के मदरसे जाने से जी नहीं चुराते। डिप्टी साहब इम्तिहान के लिए चाहे जब आ सकते हैं।

जमना को अपने लड़के के अच्छे होने में कोई सन्देह न था। ढोरों में चरने के लिए छोड़ने को गाय की रस्सी वह खोल ही रही थी, उसे जहाँ की तहाँ लपेटकर पहले वह लड़के को कलेवा कराने चली ।

बच्चों की खोपड़ी किसी तरल पदार्थ की बनी होती है, इसी से पानी पर मारे गये थपेड़े की तरह चोट का असर प्रायः उस पर नहीं होता। बच्चों के मन की दशा भी बहुत कुछ वैसी ही है। कोई कष्टकर बात वहाँ बहुत देर तक नहीं टिक पाती। कलेवा करते समय हल्ली को देखने से यह नहीं जान पड़ता था कि कल उसका कुछ खो चुका है। उसने पूछा- हीरा तुम्हारे पास आया था माँ?

"कब?"

"यही, जब मेरे रुपये गिर गये थे। नहीं आया ? — कहता था, मैं अभी जाकर काकी से कहता हूँ ।"

जमना ने उकताकर कहा- मुझे नहीं मिला। जल्दी से खाले, मुझे गाय छोड़ने जाना है।

माँ की इस बात पर ध्यान न देकर वह हीरालाल का ही किस्सा सुनाने लगा। बोला- इस हीरा की बातें सुनो, तब जानोगी यह कैसा है। जब तुम्हारे पास आता है तब बेटा बेटा कहकर प्यार से पास बिठाती हो। उसकी तो अच्छी तरह खबर लेनी चाहिए। कल उसने पंडितजी को मुझ पर नाराज करा दिया। अब मैं भी उसकी शिकायत करूँगा । छोडूंगा नहीं।

जमना ने कहा- वह मोतीलाल चौधरी का लड़का है, तू उससे लड़ता क्यों है । बहुत रुपये उनके हमें देने हैं।

हल्ली ने विस्मय से कहा- कौन लड़ता है, - मैं? कब्भी नहीं । अरजुना से पूछ देखो। उनके रुपये देने हैं तो दे देंगे। वह ऐंठ दिखाएगा तो ठीक कर दूँगा। तुम उसे प्यार करने लगती हो तो डर कर थोड़े करती हो। तुम्हारा सुभाव ही ऐसा खराब है।

जमना हँस दी। हल्ली कहता गया - उस दिन जब सूचीपत्र की पोथी आई, तब तुमने कहा था- इसके पैसे मुझसे लेकर भेज देना। यह मैं अरजुना को सुना रहा था, हीरा बीच में आकर कहने लगा- तुम मूरख हो, मैं होता तो माँ से पैसे लेकर मिठाई उड़ाता और कह देता भेज दिये दाम । यह ऐसी सिखापन देता है हमें सच मानो माँ, किसी दिन यह अपने सगे बाप को धोखा देकर थाने में बन्द होगा ।

जमना ने कहा- तू बैठकर कलेवा कर, मैं गाय ढील आऊँ ।

वह बोला- मैं कर चुका, अब भूख नहीं है।

जमना उठने को हो रही थी, फिर बैठ गई । बोली- भूख कैसे लगे, तेरी बातें तो रुकें। ले मैं बैठी हूँ, अच्छी तरह खा ले। मदरसे से तीसरे पहर छूट पाता है, तब तक तो मुझसे भी नहीं रहा जाता ।

आत्मविश्वास से प्रसन्न होकर हल्ली कहने लगा- मैं बिना कलेवा किये तीसरे पहर तक रह सकता हूँ। न मानो तो होड़ बदकर देख लो। मेरा मन करता है, तुम्हारी तरह मैं भी बिना नहाये कभी कुछ न खाऊँ ।

जमना ने इसका प्रतिवाद अनावश्यक समझकर उसकी थाली में बिना पूछे और परोस दिया।

हल्ली ने हँसकर कहा- अभी मैं सेर भर और खा सकता हूँ। इस समय वह यह भूल गया कि अभी-अभी वह भूख न होने की बात भी कह चुका है।

थोड़ी देर चुपचाप खाते-खाते वह बोल उठा - माँ, तुम्हें मालूम मेरे रुपये क्यों खोये? यह भगवान ने ही मुझे सजा दी है। मैंने बप्पा के पाठ की पोथी की निन्दा की थी। अब मैं नई पोथी न लूँगा। पाठ के लिए घर की पोथी ही ठीक है।

इसके बाद ही उसने कल वाले खेल का प्रसंग छेड़ दिया । बोला—कल मैं रेल-रेल खेल रहा था। दूसरे लड़कों ने कहा—यह टेसन दिल्ली का है; मैंने कहा- नहीं, कलकत्ते का। और सब तो शौकीनी की चीजें खरीदने लगे, मैं अकेला पड़ा तो मुझे बप्पा की याद आ गई। मेरा मन न जानें कैसा क्या करने लगा। बप्पा भी न मिले और रुपये भी खोये, कल ऐसा हुआ।

जमना मुँह फेर कर एकदम वहाँ से उठकर चली गई। यह लड़का ऐसी बातें करता है कि रोये बिना नहीं रहा जाता। इस बार और बैठने के लिए उससे हल्ली ने भी नहीं कहा।

नारी (उपन्यास) : अध्याय-7

दो-तीन दिन बाद जमना अपनी पौर में दरवाजे की ओर पीठ किये कुछ काम कर रही थी। किसी की आहट से चौंककर उसने देखा - अजीत है। माथे पर धोती का किनारा कुछ आगे खींचती हुई वह सँभलकर खड़ी हो गई।

अजीत ने पूछा- क्या हो रहा है? जमना ने कुछ उत्तर नहीं दिया। अजीत को भी उसकी कुछ बहुत आवश्यकता दिखाई न दी।

पौर में दरवाजे तक आधे हिस्से में एक चबूतरा है, जिसकी एक भुजा पताका की डंडी की तरह दरवाजे के सामने तक फैली है। दरवाजे से भीतर जाते हुए दाँयें ओर चबूतरे में एक आला है, इसमें किसी समय तमाखू का सामान और उसके नीचे ही आग की अँगीठी रहा करती होगी। इस स्थान ने निरन्तर लिप-पुत कर पहले की इस स्मृति का चिह्न तक अपनी छाती पर से दूर कर दिया है। उस आले के पास ही नीचे पैर लटकाकर अजीत चबूतरे पर बैठ गया ।

वह बोला- मैं बाहर गया हुआ था, आज ही लौटा हूँ । सुना हल्ली ने कुछ रुपये खो दिये, यह तो बहुत बुरी बात है। कैसे खोये, क्या बात हुई?

जिस तिसको कैफियत देते-देते जमना सँग आ गई थी। फिर भी शान्तिपूर्वक उसने कहा-लड़का है, जानें क्या हुआ ?

"वह लड़का है, पर लड़कपन इसमें तुम्हारा है। ऐसे बच्चों के हाथ में रुपये कहीं दिये जाते हैं?" - अजीत ने कहा ।

जमना हँस दी। मीठी झिड़की देकर अजीत फिर कहने लगा- तुम हँसती हो, यह और बुरी बात है। यह लड़कपन नहीं है तो क्या है, तुम्हीं बताओ। भूल तुमने की और मार खाई हल्ली ने। कहीं ऐसा होता है! मैं होता तो लड़के को न पीटकर तुम्हारी खबर लेता। हम लोग कहीं के राजा - नब्बाब नहीं हैं, जो इस तरह लड़कों के हाथ रुपये बरबाद कराते फिरें ।

जमना गंभीर हो गई। यह जिस अधिकार के स्वर में बात कर रहा है वह उसे अप्रिय जान पड़ा। पर इन बातों में उसे कुछ ऐसा पकड़ाई न दिया जिसे लेकर वह अपनी अप्रसन्नता कर सके। जैसे किसी पहाड़ी सरोवर को दूर से देखकर पहले उसे उसके मलिन और दूषित होने का भान हुआ, किन्तु अञ्जलि भरकर देखने पर फिर उसने सन्तोष कर लिया हो। वह चुप रह गई ।

अजीत ने प्रसङ्ग बदलकर कहा- कैसा साफ-सुथरा घर है ! इतनी सफाई तो बाम्हन ठाकुरों के यहाँ भी नहीं देखी। आदमी जब निठल्ला होता है, तब करे क्या । गोबर से घर लीप-पोतकर ही समय काटे । यहाँ आकर ऐसा लगता है, जैसे दिवाली आने वाली हो। पर कुछ हो, इतना बड़ा घर अकेले भूतखाने जैसा लगता होगा। लगता है ना?

जिस घर में हल्ली रहता है उसे यह भूतखाना सोचता है! जमना ने बहुत चाहा फिर भी अपने को रोक न सकी। बोल उठी- यही भूतखाने की सराप देने आये थे ?

जमना का मुख क्रोध से तमतमा उठा; किसी ने जैसे सोने को आग से तरल कर दिया हो ।

सोना गरम हो या ठंडा रहता सोना ही है। अथवा यह भी कह सकते हैं कि तरल होकर सोने की विशुद्धता ही बढ़ती है। इसी से जमना के क्रोध का अजीत पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ा। शान्त भाव से उसने कहा—जमना, सराप की बात नहीं है। मुझे अपने भूतखाने की याद आ गई थी।

अहेरी निशाना मार चुकने के बाद ही बहुधा जान जाता है कि उसकी गोली बहक गई या ठीक ठिकाने जाकर लगी। जमना ने अजीत की ओर देखा नहीं, फिर भी उसने जान लिया कि अजीत पर उसके क्रोध ने चोट नहीं की। कहीं के किसी निर्दोष प्राणी को बाल-बाल बचाती हुई गोली के निकल जाने से जो अनुताप मिश्रित हर्ष गोली चलाने वाले को होता है, वही जमना को हुआ ।

अजीत के लिए जमना के मन में उस दिन खेत से लौटते हुए आदर - भाव आ गया था। कितनी ही बार वह उसकी एक बात - "आनन्द इसमें भी है !" - मन्त्र की तरह जप चुकी थी। उसमें और कुछ अच्छा है या नहीं; यह देखना अब वह नहीं चाहती। खान की मिट्टी में से सोना निकलता है, इसलिए सोने को मिट्टी कहकर वह कैसे फेंक दे ? अजीत स्वयं खरा न हो, पर उसका दिया मन्त्र खरा है। इसी से क्रोध में वैसी बात उसके लिए निकल जाने से जमना तुरन्त अपने आप लज्जित हो उठी थी। उसकी यह लज्जा उस समय और बढ़ गई जब स्वयं अपने घर के लिए अजीत ने भूतखाना कह दिया।

कुछ ठहरकर अजीत ने पूछा- उस दिन जैसा बुरा सपना फिर तो नहीं दिखाई दिया?

जमना ने जो सपना देखा था, उसे अपने मन में ही रखना चाहती थी। परन्तु इस समय उसकी चर्चा छिड़ जाने से भी उसे अच्छा लगा । वह बोली- नहीं दिखाई दिया।

अजीत ने गम्भीर होकर दुःखित के से भाव से कहा- यह अच्छाई का लच्छन नहीं है। सपना झूठा होता है तो उसी से मिलते-जुलते तीन सपने एक महीने के भीतर और दिखाई पड़ते हैं। दिखाई न पड़ें तो पहले वाला सच होता है। जो झूठा हो वही अपनी बात बार-बार दुहराता है। सच की एक को छोड़ दूसरी बात नहीं होती।

उस स्वप्न की सचाई के बारे में जमना को भी कुछ-कुछ विश्वास- सा था । उसे चिन्तित देखकर अजीत ने कहा- जमना, इसके लिए तुम डरो मत। गुरूजी की कृपा से सपने का बुरा फल बदला जा सकता है। वह मैं सब ठीक कर दूँगा। पर इस समय मैं एक दूसरे बहुत जरूरी काम से आया था।

सुनने के लिए उत्सुक होकर जमना चुपचाप खड़ी रही। अजीत भी चुपचाप कुछ सोचने लगा। इसी बीच में नीचे के ताक से कुछ आवाज सुनकर वह चौंक पड़ा। उतर कर दोनों हाथ धरती पर टेकते हुए ध्यान से उसने ताक के भीतर कुछ देखा और तुरन्त बोल उठा - अरे इसमें नाग है !

जमना एकाकए घबरा गई। कहने लगी- अरी मैया री, यह कहाँ से आ गया ! इस ताक में हल्ली के खेलने का काठ कवाड़ रहता है। ऐसे में कहीं इसमें वह हाथ डाल देता तो क्या होता?

थोड़ी देर बाद मुहल्ले के तमाम लोगों के सामने अजीत ने उस काले साँप को मारे बिना जिस होशयारी से पकड़कर मिट्टी के घड़े में बन्द कर लिया, उसे देखकर जमना वैसी ही रह गई। इस गड़बड़ी में वह यह भूल गई कि अजीत इस समय किसी दूसरे आवश्यक कार्य से आया था।

  • नारी (उपन्यास) : अध्याय (8- )
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