नानी का चश्मा (अंग्रेज़ी कहानी) : रस्किन बॉन्ड

Nani Ka Chashma (English Story in Hindi) : Ruskin Bond

नानी को दूर बहने वाली नदी का शोर साफ सुनाई देता था। वह अपने पांवों तले दबी चीड़ की सींकों की महक सूंघ सकती थीं और अपने नाती मणि का पास आना वह महसूस कर सकती थीं। उन्हें पता चल जाता था; लेकिन वह नदी या पेड़ों को देख नहीं सकती थीं; और अपने नाती को सिर्फ उसके बेतरतीब बालों से पहचान पाती थीं और कभी-कभी जब वह बहुत करीब होता था, तो उसकी जामुन जैसी आंखों और मुस्कुराने पर उसके चमकते दांतों से।

नानी एक पुराना चश्मा पहनती थीं; जिसे वह दस साल से भी ज़्यादा समय से पहन रही थीं। लेकिन उनकी आंखें लगातार कमज़ोर होती जा रही थीं। चश्मा पुराना हो गया था। अब उसके शीशों पर खूब खरोंच और धब्बे पड़ चुके थे। उसे लगाने के बाद भी नानी को बहुत कम दिखाई देता था। फिर भी, वह न से तो कुछ बेहतर ही था। उसके बिना, सब कुछ सिर्फ धुंधला और उल्टा-पुल्टा था।

हां, यह तो जरूर है कि नानी घर और खेतों में आने-जाने के रास्ते ख़ूब जानती थीं। जिस दिन मौसम साफ हो, उस दिन उन्हें पहाड़ भी दिखाई देते थे- विशाल हिमालय की बर्फीली चोटियां- आसमान को छूती हुईं। लेकिन मणि और उसके पिता को लग रहा था कि अब समय आ गया है जब नानी को अपनी आंखों की जांच करवानी चाहिए और उनका नया चश्मा बनना चाहिए।

‘देखो, तुम्हें पता है कि गांव में सब कुछ नहीं आ सकता।’ नानी ने कहा।
‘आपको मसूरी वाले आंखों के अस्पताल चलना पड़ेगा। वही सबसे पास वाला शहर है।’ मणि ने कहा।
‘लेकिन वहां जाने में तो दो दिन लगते है।’ नानी ने जाने का विरोध किया। ‘पहले मुझे नैन बाज़ार तक चल कर जाना होगा। कम से कम बारह मील। वहां तुम्हारे मामा के घर रात बितानी होगी, और फिर आगे के सफर के लिए बस पकड़नी होगी। तुम जानते हो कि मुझे बसों से कितनी नफरत है। मुझे मसूरी गए हुए पूरे दस साल हो गए हैं। तभी मैंने ये चश्मा बनवाया था।’

मणि के पिता ने कहा, ‘ठीक है, वह अभी भी वहीं है।’
‘क्या अभी भी वहीं है?’
‘मसूरी।’
‘और आंखों का अस्पताल?’
‘वह भी।’
‘देखो, सच कहूं तो मेरी आंखें बहुत ज़्यादा खराब नहीं हैं।’ बहाना बनाने की कोशिश में नानी ने कहा।

उनका गांव से दूर जाने का मन नहीं था। खासतौर से, वह मणि से अलग नहीं होना चाहती थीं। वह ग्यारह साल का था और खुद का ध्यान रखने लायक था। लेकिन नानी ने उसे तब से पाला था जब उसकी मां चल बसी थी। तब वह सिर्फ़ एक साल का था। आखिर वह उसकी नानी जो थीं। उन्होंने इन तमाम बरस में पूरी ताकत और लगन के साथ बच्चे और उसके पिता, गायों, मुर्गियों और घर की देखभाल की थी।

‘मैं काफ़ी ठीक-ठाक तरीके से काम चला सकती हूं।’ उन्होंने कहा, ‘जब तक मुझे अपने ठीक सामने की चीज़ें साफ दिखाई देती हैं, तब तक कोई परेशानी नहीं है। मुझे पता है कि तुम्हारे हाथ में गेंद है, मणि! मेहरबानी करके उसे गाय पर मार कर लपकने की कोशिश मत करना।’

‘यह गेंद नहीं है, नानी। यह एक सेब है।’
‘ओह, ऐसा है?’ नानी ने अपनी गलती को झटपट सुधारते हुए कहा। ‘कोई बात नहीं, बस इसे गाय पर मार कर उछालना नहीं। और बहुत ज़्यादा सेब मत खा जाना!’

‘अब सुन लो,’ मणि के पिता ने सख़्ती से कहा, ‘मुझे पता है कि तुम कहीं नहीं जाना चाहतीं। लेकिन हम आपको अपने आप अकेले जाने को तो कह नहीं रहे हैं। मैं आपको मसूरी ले कर चलता हूं।’
‘और मणि को यहां अकेला छोड़ देंगे? तुम ऐसा करने के बारे में सोच भी कैसे सकते हो?’
‘फिर मैं तुम्हें मसूरी ले चलूंगा।’ मणि ने जोश के साथ कहा। ‘हम पिताजी को अकेले छोड़ सकते हैं, है न? मैं अपने स्कूल के दोस्तों के साथ पहले भी मसूरी जा चुका हूं। मुझे पता है कि हम कहां ठहर सकते हैं। लेकिन—’ वह एक पल को रुका और शक की निगाहें अपने पिता की ओर से अपनी नानी की ओर ले गया। ‘नानी, आप नैन तक पूरे रास्ते पैदल नहीं चल पाएंगी, है न?’

‘अजी, मैं चल सकती हूं।’ नानी ने कहा। ‘मुझे दिखाई देना भले ही बंद हो रहा हो, लेकिन मेरे पैरों में कोई गड़बड़ी नहीं है!’

यह बात काफी हद तक सही थी। सिर्फ एक दिन पहले ही तो नानी अखरोट के पेड़ पर मिली थीं, जमीन पर रखी एक बड़ी टोकरी में अखरोट तोड़ कर फेंक रही थीं, भले ही कई अखरोट टोकरी से बाहर गिर रहे थे।

‘लेकिन आप सत्तर साल की हैं, नानी।’
‘इसका जाने से क्या लेना-देना है? और इतना ही नहीं, नैन जाने के लिए ढलान पर जाना है।’
‘और वापसी में चढ़ाई होगी।’
‘चढ़ाई चढ़ना आसान है!’ नानी ने कहा।

अब जब उन्हें पता चल चुका था कि मणि उनके साथ जा सकता है, तो वह सफर करने के लिए तैयार हो गयी थीं।

मॉनसून की बारिश शुरू हो चुकी थी। पत्थर के छोटे से घर के सामने डहेलिया के बड़े-बड़े फूल दल बनाकर सिर उठाए खड़े थे। मणि ने उन्हें नैन में खिलते हुए देखा था और वहीं से कुछ बल्ब घर ले आया था। ‘ये बड़े फूल हैं, नानी।’ उसने कहा था, ‘तुम्हें इन्हें ठीक तरह से देख पाओगी।’

उन्हें सचमुच डहेलिया के फूल पुराने पत्थर के घर की दीवारों के आगे लाल और पीले रंग के धब्बे जैसे नज़र आते थे।

अब उन्हें देखते हुए नानी ने कहा, ‘जब हम मसूरी जाएंगे, तो कुछ बीज और बल्ब लेंगे। सफेद गाय के लिए एक नई घंटी और तुम्हारे पिता के लिए एक स्वेटर। और तुम्हारे लिए जूते। देखो, तुमने जो पहन रखे हैं उनमें कुछ भी तो नहीं बचा है।’

‘अब बस एक मिनट मेरी सुनो,’ मणि के पिता ने कहा। ‘आप वहां अपनी आंखों की जांच कराने जा रही हैं, या खरीदारी के लिए? मेरे पास सौ रुपये ही बचे हैं। आप लोगों को इससे ही काम चलाना पडे़गा।’
‘हम काम चला लेंगे,’ मणि ने कहा। ‘हम बस स्टैंड में सो जाएंगे।’
‘नहीं, हम ऐसा नहीं करेंगे।’ नानी ने कहा। ‘मेरे पास अपने पचास रुपये हैं। हम होटल में ही ठहरेंगे!’

अगली सुबह, जब नानी और मणि नैन के लिए घर से निकले तब हल्की बूंदाबांदी हो रही थी। मणि ने अपने कंधे पर एक छोटा बिस्तरबंद रखा। नानी के पास कपड़े का एक बड़ा-सा थैला और एक छाता था। रास्ता खेतों और पहाड़ी के सबसे ऊंचाई वाले रास्ते से होकर जाता था और फिर जहां-तहां, इधर-उधर, और ऊपर-नीचे घूमता हुआ आगे बढ़ता जाता था। जैसे पूरी तरह से अपनी मर्जी का मालिक हो और जैसे उसका सीधे किसी ख़ास जगह जाने का इरादा न हो। उस इलाके में पहली बार सफर कर रहे मुसाफिर अक्सर इस रास्ते को बीच में छोड़कर इधर-उधर मुड़ जाते थे, क्योंकि जल्दबाज़ी और बेसब्री के मारे वे यह सोचने लगते थे कि जहां उन्हें जाना है वहां पहुंचने के लिए दूसरे रास्ते छोटे और बेहतर होंगे। लेकिन अक्सर बहुत जल्दी वे जान जाते थे कि वे भटक गये हैं। अच्छा और सही रास्ता सिर्फ वही था, और उससे जाने में ही समझदारी थी। क्योंकि सदियों की गलतियों को सुधारने के बाद वह उन पहाड़ों को पार करने के लिए सही रास्ता बन पाया था।

‘जब तुम थक जाओगी, तब हम आराम कर लेंगे।’ मणि ने कहा।
‘हमने अभी-अभी तो चलना शुरू किया है।’ नानी ने कहा, ‘जब तुम्हें भूख लगेगी तब हम ठहर जाएंगे!’

वे बिना ज़्यादा बात किए एक जैसी चाल से चलते रहे। तोतों का एक झुंड उनके ठीक ऊपर मंडरा रहा था- फीके से आकाश में हरे और लाल रंग की झलकियां! एक स्प्रूस यानी सरल के पेड़ में काफी ऊंचाई पर बैठे बसंते ने एक सुर में रटन लगा रखी थी। उसकी नीरस पुकार और बारिश की धीमी-धीमी टिप-टिप के अलावा और कोई आवाज नहीं आ रही थी।

मणि झाड़ी से किलमोड़े के फल चुनने के लिए रुक गया। नानी को किलमोड़े पसंद नहीं थे और वह अपनी चाल से आगे बढ़ती रहीं। मणि को फिर उनके पास पहुंचने के लिए दौड़ लगानी पड़ी। उसके होंठ किलमोड़े के रस से बैंगनी हो चुके थे।

इस बीच बारिश रुक गयी थी और सूरज निकल आया था। नीचे जमीन पर, हल्के हरे खेत जंगल के गहरे हरे रंग के आगे अलग दिखाई दे रहे थे, और पहाड़ियां सुनहरी धूप में नहायी हुई थीं।
मणि आगे-आगे दौड़ गया।
‘क्या आपको ठीक से दिखाई दे रहा है, नानी?’ उसने पुकारा।
‘मैं रास्ता देख सकती हूं और मैं तुम्हारी सफेद कमीज देख सकती हूं। फिलहाल इतना ही काफी है।’
‘ठीक है, ध्यान रखना, सड़क पर सामने से कुछ खच्चर आ रहे हैं।’

खच्चरों को रास्ता देने के लिए नानी एक ओर हट गई। खच्चर वाला एक रूमानी गीत गाकर उन्हें आगे बढ़ा रहा था, और खच्चर खुरों की टाप के साथ आगे चले गए। लेकिन आख़िरी खच्चर पीछे को मुड़ा और सीधे नानी की ओर बढ़ता हुआ दिखाई दिया। नानी ने उसे सही समय पर देख लिया। वह जानती थीं कि खच्चर और टट्टू हमेशा किसी चीज़ के चारों तरफ घूमना पसंद करते हैं, बशर्ते उन्हें दिखाई देता रहे कि उनके आगे क्या है। इसलिए उन्होंने अपनी खुली छतरी को आगे कर दिया और खच्चर उन्हें छुए बिना छतरी के पीछे घूमते हुए उनके चक्कर लगा।

नानी और मणि ने चीड़ के साये में सड़क के किनारे हल्का-फुल्का खाना खाया, और थोड़ा आगे चलने के बाद एक झरने से पानी पिया।
दिन के तीसरे प्रहर वे नैन के बिल्कुल पास पहुंच गए थे।

‘हम करीब-करीब पहुंच ही गए हैं।’ मणि ने कहा। ‘मामा के घर के पास वाला मंदिर दिखाई दे रहा है।’
‘मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा है।’ नानी ने कहा।
‘धुंध की वजह से। घनी धुंध घाटी से ऊपर उठ रही है।’

नदी के किनारे बसा वह छोटा-सा पहाड़ी शहर अपने बाजार के लिए जाना जाता था। वे अभी शहर में घुसे ही थे कि तेज बारिश होने लगी। नानी की छतरी से बुरी तरह पानी चू रहा था। लेकिन जल्द ही वे मामा के घर पहुंच गये, और वहां मीठी और दूधवाली गर्म चाय की चुस्कियां लेते हुए उन्होंने खुद को सुखाया।

अगली सुबह मणि जल्दी उठा और संकरी गली में दौड़ते हुए नीचे नदी में नहाने गया। तेज लेकिन उथली पहाड़ी नदी पवित्र गंगा की एक सहायक नदी थी। इसके जल को भी पवित्र माना जाता था। सूरज उगने के साथ ही, लोग स्नान करने या पूजा करने के लिए नदी पर बने घाट की सीढ़ियों की ओर उमड़ पड़ते थे।

जैसे ही मणि ने कपड़े पहने, उसने बस के हॉर्न की आवाज सुनी। मसूरी के लिए एक ही बस थी। यह सोचते हुए वह झटपट ढलान पर चढ़ा कि कहीं उनकी बस न छूट जाए। लेकिन नानी बस स्टॉप पर उसका इंतजार कर रही थीं। उन्होंने पहले ही दोनों के टिकट खरीद लिए थे।

गाड़ी नदी के साथ-साथ चल रही सड़क पर चली जा रही थी। नदी सड़क से करीब सौ फीट नीचे शोर मचाती बह रही थी। बस पुरानी और खटारा-सी थी, और इतनी ज़्यादा खड़खड़ा रही थी कि सवारियों के लिए ख़ुद का बोला हुआ सुनना भी मुश्किल था।

सवारियों में से एक ने नीचे एक जगह की ओर इशारा किया, जहां कुछ हफ़्ते पहले एक दूसरी बस गिर गई थी, जिस हादसे में कई लोग हताहत हुए थे।

शायद बस के ड्राइवर को हादसे का पता नहीं था। वह काफी तेजी से गाड़ी चलाता रहा था। जब भी मोड़ आता, बस में सवार लोगों का अपनी जगह टिके रहना मुश्किल हो जाता। इतने शोर-शराबे के बावजूद नानी की आंख लग गईं। उनका सिर मणि के कंधे पर टिका हुआ था।

चलते-चलते बस अचानक रुक गई। जोरदार झटके से लोग आगे वाली सीटों से टकराये। नानी का चश्मा निकल कर गिरा और किसी की बंद छतरी की तह में मिला।

‘क्या हुआ?’ नानी ने पूछा। ‘क्या हम पहुंच गये?’
मणि ने कहा, ‘नहीं, आगे रास्ता बंद है।’
‘पहाड़ गिरा है! भूस्खलन हुआ है!’ किसी ने कहा, और सारी सवारियां खिड़कियों से सिर निकालकर बाहर देखने लगीं।

काफी बड़ा भूस्खलन था। रात को किसी समय भारी बारिश के दौरान, पहाड़ का एक हिस्सा अपनी जगह टिका नहीं रह पाया और पेड़ और झाड़ियों समेत धड़धड़ाते हुए सड़क पर आ गिरा जिससे रास्ता पूरी तरह बंद हो गया। मलबे का गिरना अभी थमा नहीं था। वह अब भी जारी था। मणि ने चट्टानों को पहाड़ी से लुढ़कते हुए नीचे नदी में गिरते देखा।

‘बस स्टॉप तो नहीं लगता,’ नानी ने कहा, जिन्हें कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था।

उनके बोलते समय भी मिट्टी-पत्थरों की झड़ी के साथ छोटी-छोटी चट्टानें बस की छत पर आन पड़ीं। सवारियां शोर मचाने लगीं। चट्टानें नीचे गिरने पर ड्राइवर ने बस को पीछे करना शुरू किया।

‘मैं तो मोटरगाड़ी वाली सड़क पर भरोसा ही नहीं करती।’ नानी ने कहा।

भूस्खलन से काफी दूर होने तक ड्राइवर बस को पीछे ले जाता रहा। इसके बाद सभी बस से नीचे उतर गए। नानी और मणि सबसे बाद में उतरे।

उन्हें बताया गया कि सड़क को साफ करने में कई दिन लगेंगे। ज़्यादातर सवारियों ने बस के साथ नैन लौटने का फैसला किया। लेकिन कुछ हिम्मती लोग पहाड़ के एक छोटे रास्ते से पैदल मसूरी जाने के लिए तैयार हो गए, जो भूस्खलन वाली जगह से पहले ही अलग कट जाता था।

‘इस पगडंडी के रास्ते मसूरी सिर्फ दस मील दूर है।’ उनमें से एक ने कहा, ‘चढ़ाई कठिन है, लेकिन हम शाम तक पहुंच सकते हैं।’

मणि ने दादी की ओर देखा। ‘क्या हम वापस चलें?’
‘दस मील होता ही कितना है?’ दादी ने कहा, ‘इतना तो हम कल भी चले थे।’

सो वे एक संकरे रास्ते पर चढ़ने लगे, जो बकरियों वाले रास्ते से कुछ ही चौड़ा था, जिसके एक और खाई और दूसरी ओर खड़ी चढ़ाई थी। लेकिन इस रास्ते पर सब थक और हांफ जाते थे और जगह-जगह दम लेने के लिए ठहर जाते थे। जब वे पहाड़ के ऊपर पहुंचे तो नानी और मणि के सिवा वहां कोई नहीं था। कुछ लोग नीचे, काफी पीछे रह गए थे और बाकी नैन वापस लौट गए थे।

दादी और मणि पहाड़ की चोटी पर खड़े थे। वहां जो कुछ था उसमें किसी और की कोई हिस्सेदारी नहीं थी। उनका गांव उत्तर की ओर वाले पहाड़ों के पीछे छिपा हुआ था। काफी नीचे नदी बह रही थी। बहुत ऊपर एक सुनहरा बाज चक्कर काट रहा था। दूर सामने वाले पहाड़ के पीछे वाले गहरे हरे पहाड़ पर मसूरी के घर सफेद चित्तियों जैसे नज़र आ रहे थे।

‘मामा के घर से खाना लायी हो क्या?’ मणि ने पूछा।
‘बिल्कुल,’ नानी ने कहा, ‘मुझे पता था कि तुम्हें जल्द ही भूख लगने लगेगी। पकौड़े और पाव हैं, और मामा के बगीचे के आड़ू भी हैं।’
‘अच्छा!’ मणि ने कहा, और अपनी थकान भूल गया। ‘हम चलते-चलते खाते रहेंगे। रुकने की कोई जरूरत नहीं है।’
‘खाते रहेंगे या चलते रहेंगे?’
‘खाते रहेंगे। हम सिर्फ तब ही रुकेंगे, नानी, जब आप थक जाएंगी।’
‘ओ रे, मैं तो बिना रुके चलती चली जाऊं, चलती चली जाऊं!’ नानी ने हंसते हुए कहा। ‘मैंने तो हमेशा ऐसा ही किया है। और एक दिन मैं ऐसे ही पहाड़ों पर चढ़ते-चढ़ते आगे आसमान में चली जाऊंगी। लेकिन तब जब बारिश नहीं हो रही होगी। यह छतरी बुरी तरह चूती है।’

वे फिर नीचे उतरे, फिर अगले पहाड़ पर चढ़े, फिर ऐसी पथरीली पहाड़ियों पर से गुजरे जहां तेज हवाएं चल रही थीं, और देवदार के ऐसे घने जंगल से होते हुए ऊपर चढ़े जहां धूप ज़मीन तक नहीं पहुंचती थी। फिर, जैसे ही अंधेरा होने लगा, उन्हें सामने मसूरी की बत्तियां टिमटिमाती दिखाई दे गईं।

जैसे-जैसे वे करीब आते गए, रोशनी बढ़ती गई। अब वे रोशनी से जगमगाते बाज़ार में थे, जहां दुकानदारों, घुमक्कड़ों, सैलानियों और मौज-मस्ती करने वालों का रेला था। जिन लोगों के पास खर्च करने के लिए पैसे थे, उनके लिए मसूरी एक मस्त जगह लगती थी। भीड़ से परेशान नानी ने एक हाथ मणि के कंधे पर जमा कर रखा था ताकि वह उनसे बिछड़ न जाए।

उन्होंने आस-पास सबसे सस्ते होटल के बारे में पता किया। लेकिन वहां कोई सस्ते होटल नहीं थे। इसलिए उन्होंने मंदिर के बगल वाली धर्मशाला में रात बितायी, जहां दूसरे तीर्थयात्री भी ठहरे हुए थे।

अगली सुबह, आंखों के अस्पताल में वे सब्र के साथ अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे मरीजों की लंबी कतार में शामिल हो गए। गोल-मटोल से नेत्ररोग विशेषज्ञ सूट और टाई में थे, जिन्होंने ख़ुद चश्मा पहन रखा था। वह मरीज़ों के साथ सख़्ती से लेकिन सलीके से पेश आ रहे थे। एक घंटे के इंतज़ार के बाद नानी की बारी आई।

डॉक्टर ने नानी के चश्मे पर एक नजर डालते ही चौंक कर उन्हें कूड़ेदान में डाल दिया। फिर उसने उन्हें बाहर निकाला और अपनी मेज़ पर रख दिया, और कहा, ‘अब मुझे लगता है कि मैं इसे किसी अजायबघर में भेज दूंगा। आपको अपना चश्मा बरसों पहले बदलवा लेना चाहिए था। इन्होंने शायद फ़ायदे से ज़्यादा नुकसान किया है।’

उसने तेज रोशनी में नानी की आंखों का मुआयना किया, और कहा, ‘आपकी आंखें बहुत कमज़ोर हैं, लेकिन इनसे पूरी तरह दिखाई देना बंद नहीं होगा। हम आपके लिए आपकी आंखों के हिसाब से एक नया चश्मा बनवा देंगे।’ फिर उसने नानी को एक बोर्ड के सामने बैठाया जिस पर अंग्रेजी और हिंदी के बड़े और छोटे अक्षर छपे हुए थे- और नानी से पूछा कि क्या वह उन्हें पढ़ सकती हैं।

‘मुझे तो बोर्ड भी नहीं दिखाई दे रहा है,’ दादी ने कहा।
‘तो क्या आप मुझे देख सकती हैं?’ डॉक्टर ने पूछा।
‘थोड़ा-थोड़ा,’ नानी ने कहा।

‘मैं चाहता हूं कि आप मुझे पूरा-पूरा देखें,’ डॉक्टर ने कहा। उसने नानी की नाक पर एक तार का फ्रेम टिकाया और एक-एक करके कई लेंस लगा कर देखें।

अचानक नानी को और अच्छी तरह दिखाई देने लगा। उन्हें बोर्ड और उस पर छपे सबसे बड़े अक्षर दिखाई देने लगे।
‘क्या अब आप मुझे देख सकती हैं?’ डॉक्टर ने पूछा।
‘काफी हद तक,’ नानी ने कहा, और फिर उनकी मदद करने के इरादे से बोलीं- ‘आपमें देखने के लिए काफी कुछ है।’
‘शुक्रिया,’ डॉक्टर ने कहा, ‘और अब घूम कर मुझे यह बताएं कि आपको अपना नाती दिखाई दे रहा है?’
नानी पीछे घूमीं और कई सालों में पहली बार मणि को साफ-साफ देखा।

‘मणि!’ उन्होंने खुशी से ताली बजाते हुए पुकारा, ‘तुम कितने अच्छे दिखते हो! कितने अच्छे बच्चे को मैंने पाला-पोसा है! लेकिन तुम्हें थोड़े से बाल कटवाने की ज़रूरत है और नहाने की भी। तुम्हारी कमीज पर बटन भी लगने हैं। एक जोड़ी नये जूते। चलो, बाज़ार चलते हैं!’

‘पहले अपना नया चश्मा तो बनवाओ,’ मणि ने हंसते हुए कहा, ‘तब हम खरीदारी करने जाएंगे!’

एक दिन बाद वे फिर एक बस में सवार थे, हालांकि किसी को नहीं मालूम था कि वह कितनी दूर जा सकेगी। देर-सबेर उन्हें पैदल ही चलना होगा।

नानी के पास खिड़की वाली सीट थीं और मणि उनके बगल में बैठा था। उसके पास नये जूते थे और नानी के पास एक नया छाता था। उन्होंने मणि के पिता के लिए एक मोटा ऊनी तिब्बती स्वेटर भी खरीदा था। बीज, बल्ब और गाय की एक घंटी भी।

जैसे ही बस आगे बढ़ी, नानी ने खिड़की से बाहर देखा। सड़क के हरेक मोड़ पर नये-नये नज़ारे उनका इंतजार कर रहे थे। अब वह कई चीज़ें देख सकती थीं जो उन्होंने लंबे समय से नहीं देखी थीं- दूर के गांव, खेतों में काम करते लोग, सड़क पर आते-जाते दूधवाले, बस के बगल में दौड़ते दो कुत्ते, पेड़ों पर चढ़े बंदर, और सबसे अलग- आकाश में इंद्रधनुष।

भले ही वह बहुत अच्छी तरह से नहीं देख सकती थीं, लेकिन अब जितना दिखाई देने लगा था उससे वह बहुत ख़ुश थीं।
‘कितनी बड़ी गाय है!’ उन्होंने पहाड़ी पर चर रहे एक जानवर की ओर इशारा करते हुए कहा।
‘यह गाय नहीं है, नानी,’ मणि ने कहा, ‘यह भैंस है।’
नानी का हौसला बुलंद था। ‘जो भी हो, मैंने उसे देख लिया,’ उन्होंने ज़ोर देकर कहा।

अब जब बस में ज़्यादातर लोग थके और ऊबे हुए लग रहे थे, नानी खिड़की से बाहर देखती रहीं। नये-नये नज़ारों का मज़ा लेती रहीं।

कुछ देर मणि भी देखता रहा और ख़ुशी और जोश में वह जो कुछ कहती जा रही थीं, वह सब सुनता रहा। फिर वह ऊंघने लगा। उसका सिर नानी के कंधे पर टिक गया, और आराम से वहीं टिका रहा। पहाड़ की घुमावदार सड़क पर बस लहराती और झटके खाती रही, लेकिन मणि गहरी नींद सोता रहा।

(अनुवाद : ऋषि माथुर)

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