नंगे लोग (कहानी) : सुरेंद्र मनन
Nange Log (Hindi Story) : Surendra Manan
मैं उन्हें काफी पीछे छोड़ आया हूँ। फिर भी सरपट भाग रहा हूँ। मैं नहीं, मेरा जिस्म ! मैं अब भी वहीं खड़ा हूँ, कई-एक मजबूत हाथों की गिरफ्त में जकड़ा हुआ। आंखें फाड़े कभी अपने जलते हुए घर को देखता हूं, कभी आग की लपटों में फड़फड़ाते बाप को, जो चीखता- चिल्लाता हुआ जमीन पर लोटनियां लगा रहा है। हर तरफ कुहराम मचा है, जिसमें गड्डमड होते उनके वहशी चेहरे हैं, लपालप बरसती सलाखें और आग उगलते हुए हाथ ! छाती पीटती औरतें और दहशत से गूंगे बने बच्चे हैं !।। रात का यह कौन-सा पहर है, पता नहीं चारों तरफ धू-धू करती आग के उजाले और सड़ांध में कौन किस तरफ भाग रहा है, यह भी नहीं मालूम !
जैसे एक यख ठंडे लबादे ने मुझे सिर से पैर तक ढांप लिया था। एकाएक, सारे शरीर की गर्मी सोख ली थी। मैं तीखी गंध में लिपटा - निचुड़ता हुआ शिथिल खड़ा था- अपनी समग्र चेतना सिर्फ आंखों में समेटे, जो डिबिया पर घिसती तीली पर जमी थीं। सांस जाने कहां अटक गयी थी। तीली से आग लपकते ही मेरा जिस्म आखिरी बार थरथराया और जाने कैसे उनकी गिरफ्त से छूटकर अंधाधुंध भाग लिया था।
लेकिन भाग कर जाना कहां है ? खाली नंगी सड़कें, गूंगे बने मकान, अंधी गलिया... और हर तरफ अंधेरा ! हर रास्ता जैसे मौत की गुफा । यह अचानक इस शहर को हो क्या गया है? इतना अपरिचित, इतना खूंखार! जैसे कि इस शहर में मैं पैदा नहीं हुआ, पल-बढ़ कर जवान नहीं हुआ, बस अभी-अभी किसी अज्ञात घाटी में उतरा हूं जहां किसी भी कोने से मौत लपक कर मुझे दबोच सकती है। लेकिन यह कुछ भी सोचने, तर्क या दुहाई देने का मौका नहीं, भागने का है, जहां तक भी भागा जा सके। कोई भी सुरक्षित कोना-कंदरा ढूंढा जा सके।
.... और मेरा जिस्म बेतहाशा भाग रहा है। गीले कपड़ों से पेट्रोल की गंध के भभके उठ रहे हैं। पगड़ी पता नहीं कहां गिरी थी। जूड़ा खुल कर बाल बिखर गये हैं। सांस संभल नहीं पा रही। फिर भी पैर उसी रफ्तार से अंधेरे की चादर को चीरते हुए लुड़कते चले जा रहे हैं, मानो बाकी शरीर से अलग हों!
हां, यही गली ठीक रहेगी। एक ही छलांग में मैं रेलिंग को फलांग जाता हूं। इससे पहले कि संभल पाऊं, मेरी आंखें फटी रह गयी हैं। हाथ-पैर ढीले पड़ गये हैं। उनके चेहरे दिखाई नहीं दे रहे। सिर्फ अपनी तरफ बढ़ते हुए उनके कदम ही देख पा रहा हूं। भागते हुए... और अब बिलकुल करीब निढाल होकर मैं दीवार थाम लेता हूं। आखिरकार मैं दबोच ही लिया गया ! इतनी लंबी दिशाहीन दौड़ के बाद मैं फिर से उनके बीच घिरा हूं।
अचानक सिर के बीचोंबीच मुझे तेज तीखी जलन का अहसास होता है- जैसे किसी जानवर ने वहां काट खाया हो। मेरे बिखरे- उलझे बालों की लटें भीगने लगी हैं। शरीर पर जहां-तहां दर्द की टीसें बरस रही हैं। मैं इधर-उधर लुड़क रहा हूं और एक गहरी ख़ामोशी में डूबता हुआ सिर्फ कुछ आवाजें सुन पा रहा हूं - तड़ाक ! तड़ाक ! तड़ाक !.... ...मैं चिहुंक कर उठता हूं। दरवाजा जोरों से पीटा जा रहा है। कमरे में घुप्प अंधेरा है और सिर्फ मेरी तेज सांसों की शां- शां। कुछ पल के लिए मैं समझ नहीं पाता कि आवाजें कहां से आ रही हैं? दरवाजा फिर जोर से भड़भड़... भड़भड़ करता है। बत्ती जलाये बिना, रास्ता टटोलता हुआ मैं चिटकनी खोल देता हूं।
"जल्दी बाहर आइये, वे फिर आ गये हैं!"
"आखिर कौन हैं वे, जो इस तरह जमीन फाड़ कर निकल आये हैं?" मैं चिल्लाकर पूछना चाहता हूं लेकिन इससे पहले ही लड़के धमाधम छत पर जा चढ़े हैं।
बाहर लाठियां भांजने की आवाजें हैं। मोर्चे संभाल लिये गये हैं। कॉलोनी के बाहर, दरख्तों के पीछे आकाश भक भक जल रहा है। किसी गाड़ी की घुर्रघुर्रघुर... की आवाज मंडरा रही है। वहीं से चीख-पुकार और हो-हल्ला की उठती हुई आवाजें रात के इस तीसरे पहर के सन्नाटे में गूंज रही हैं।
ऐसी ही आवाजें अभी तक मेरे कानों में भी बज रही थीं। अनायास ही मैं अपने सिर मुंह पर हाथ फेरने लगा हूं। पगड़ी- दाड़ी सपने में उतर गयी। मैं फिर से बिना दाढ़ी-मूंछ के हूं। सिर सलामत है। कपड़ों से पेट्रोल की बदबू भी नहीं आ रही। अपने कमरे में हूं... फिर भी सपने की दहशत अभी तक सवार है।
सड़क के पार चीख-पुकार की आवाजें और तेज हो गयी हैं। आग की लपटें अब कई जगह से उठ रही हैं। इधर कॉलोनी के मुहाने पर लड़के मुस्तैदी से डटे हैं। विचलित होकर उनके पैर बार-बार जगह बदल रहे हैं। बाहें फड़क रही हैं। इस इलाके में कोई दंगाई घुसने न पायेगा। बुजुर्ग सन सैंतालिस को याद करते हुए अपने-अपने अनुभवों के आधार पर निर्देश नसीहतें दे रहे हैं।
वही आलम ! सोना, जागना एक बराबर ! आंखें बंद हों या खुली हुई- कोई अंतर नहीं। वह अंतर मिट चुका है। इस करवट या उस करवट, कमरे में बंद या बाहर खुले में कॉलोनी के बाहर या छत पर खड़े होकर दूर तक नजरें जमाए। आंखों में कड़वाहट है। पिछले दो दिन से सोते हुए जागने और जागते हुए दुःस्वप्न देखते रहने की पीड़ा भरी थकान सोने-जागने के बीच क्षत-विक्षत हो चुकी कल्पना ! ओछी पड़ती कल्पना! इंसान की जागती हुई इंद्रियां जिस पर भारी पड़ रही हैं। अपने जागते इरादों और दमित इच्छाओं के खुल खेलने का ध्वंस लिये, जो अब अपने खालिस रूप में प्रकट हुई हैं - कई-कई परतों को उघाड़ फेंक कर । जिनकी रुग्णता को इतिहास के मलवे में दफना कर बड़े यत्नों से उपचार किया गया था, पाला-पोसा-संवारा सुधारा गया था। लेकिन पलक झपकते ही वे उतने ही बर्बर और मारक रूप में जीवंत हो उठीं... दशकों से अपने ऊपर जमी धूल-मिट्टी की परतों को झाड़ पोंछ कर दिप दिप करने लगीं। शहर पर टूट पड़ीं। उनकी रुग्णता किसी महामारी की तरह हर तरफ फैलने लगी... और बाकी बचा मलवा, जली हुई इमारतों के अवशेष, खोपड़ियां, कंकाल, जले हुए मांस की दुर्गंध के बगले, बिलखती औरतें, बेहाल बच्चे, बौखलाये - बदहवास मर्द... जिनकी तादाद पिछले दो दिनों से लगातार बढ़ती जा रही है।
.... और मैं जगजीत को इस तादाद में शामिल होने से बचाना चाहता हूं। इस महामारी की लपलपाती हुई जीभ उस तक या उसके भाइयों तक पहुंच पाये, उन्हें बाहों की सुरक्षा में दबोच लेना चाहता हूं। लेकिन दो दिन से ही उनका कुछ अता-पता नहीं। जगजीत, दिल्ली घूमने आये अपने दो छोटे भाइयों को साथ लेकर निकला था। कहां होंगे वे इस समय, कैसे होंगे !
सूने कमरे में मैं इधर-उधर घूमता हूं, जिसमें कई सालों से हम इकट्ठे रहते आये हैं। हर पल मुझे लगता है जैसे कोई मजबूत, अदृश्य हाथ जगजीत को खींच-खींच कर मुझसे अलग कर रहा है। वह अपने मकसद में कामयाब हो रहा है और मैं असहाय- सा हथेलियां मल रहा हूं। हम उस साजिश की गिरफ्त में आ चुके हैं। जगजीत का चेहरा मुझसे दूर होता जा रहा है। क्या अब कभी भी मैं उससे मिल नहीं पाऊंगा?
बैचैनी में मैं एक कोने से दूसरे तक घूमता हूं। कमरे में पड़ी उसकी चीजों को बार-बार देखता हूं... यह उसकी पगड़ी, जिसकी हर सुबह मैं पूनी' करवाता हूं, यह पटका, वह केस बिठाने की सलाई, मेज पर पड़े दो कड़े... और फिर दीवार पर टंगी गुरु नानक की तस्वीर के आगे खड़ा हो जाता हूं, चुपचाप, एकटक तस्वीर को देखता हुआ।
हमलावर जा चुके हैं। सड़क पर फरटि से दौड़ती जीपें हैं। सायरन और हवाई फायर शोरगुल मंद पड़ गया है। लड़के मुहाने से लौट रहे हैं। खिड़कियों से औरतें झांकने लगी हैं। किसी स्त्री के बिलखने का स्वर अभी भी अंधकार में बल खाता हुआ लहरा रहा है।
...दुस्वप्नों का अंत नहीं। कर्फ्यूग्रस्त इलाकों की हर गली, चौराहे पर मैं जगजीत को ढूंढता हूं। ढूंढते ढूंढते खुद उसका रूप अख्तियार कर लेता हूं। ऐसा अपने-आप हो जाता है। हर जगह वही कोलाहल और मारकाट है... जगजीत की शक्ल में मैं फिर उसी अंधी गली में हूं, जहां खुद को पिटता, कराहता हुआ छोड़ आया था। गली में कान फाड़ शोर और बरसती सलाखें हैं। उनके चेहरे पहचान में नहीं आते। टप्पे खाती गेंद की तरह आंख की पकड़ से छूट-छूट जाते हैं।
अब वे धीरे-धीरे दूर हटने लगे हैं। शायद मुझे पूरी तरह बेजान समझ कर लौट रहे हैं। अचानक मेरा डर खत्म हो गया है। मैं जान गया हूं कि कुछ ही देर और जिंदा बचूंगा। किसी तरह जान बचा लेने की उस उत्कट इच्छा से मैं मुक्त हो चुका हूं जो इतनी देर तक मुझे इधर-उधर दौड़ाती रही थी। इन आखिरी क्षणों में सिर्फ एक जिज्ञासा मुझ पर सवार हो गयी है। मेरी मौत के बाद वे कौन हैं जो जिंदा रहेंगे? जो हर हत्या के बाद किलकारियां भर रहे हैं ! जवाब लिए बिना मैं उन्हें जाने नहीं दूंगा। मैं उन्हें पहचान कर ही मरना चाहता हूं।
"कौन हो तुम, मुझे सिर्फ इतना बता दो!" उस हालत में भी मैं एक की टांगों से लिपट जाता हूं, " सचमुच इंसान ही हो ? क्या मुझे सिर्फ इसलिए खत्म करना चाहते हो कि मेरे सिर पर पगड़ी है... मैं दाड़ी-मूंछ नहीं कटवाता ? तुम मानवीयता, सभ्यता, सद्भावना... सब कुछ क्या सिर्फ इसलिए भूल गये हो? अलग- अलग धर्म, जाति, सम्प्रदाय होने पर...."।
मैं किसी जूनून में बोलता ही जा रहा हूं। बहुत से शब्द अपने- आप होठों से फूट रहे हैं। जोश में आकर मैं जैसे चुनौतियां फेंक रहा हूं। मरते-मरते भी मैं इन शब्दों को दांव पर लगा रहा हूं। फिर खुद ही अपनी यह हालत मुझे हास्यास्पद लगती है। लगता है मैं सिर्फ ठंडे और कोरे शब्द उगलता हुआ उनके सामने जैसे गिड़गिड़ा रहा हूं। मुझे साफ़-साफ़ महसूस होता है कि शब्दों के ये लोंदे खुद लाशों की तरह बेजान और भारी हैं !
मेरी लफ्फाजी के जवाब में अंधी गली ठहाकों से गूंज उठती है। दूर जाते हुए चेहरे अट्टहास करते हुए फिर लौट आते हैं। मेरी तरफ इशारे करते हुए वे लोटपोट हो रहे हैं। मानवीयता - ही-ही- ही सद्भावना- हा हा हा! सभ्यता हो हो हो !....
यकायक वे पागलों की तरह अपने कपड़े नोच-नोच कर फेंकने लगे हैं। अब वे अलफ नंगे हैं और भूतों की तरह मेरे आसपास नाच रहे हैं। "नेताओं की भाषा मत बोलो... देखो हम सब नंगे हैं ! आंखें खोल कर गौर से देखो सिर से पैर तक नंगे ! अपनी दाड़ी-मूंछ की दुहाई मत दो हमारी कोई जात-पात नहीं, कोई अलग दाल-भात नहीं, कोई कबीला नहीं। सच तो यह कि इसके अलावा कोई वसीला नहीं। इन चिंदियों से बहुत देर तक ढंके हम हवा में झूल रहे थे। अपनी नफरत, अपनी छटपटाहट अपने गुस्से को भूल रहे थे। देह को जंग लगा रहे थे या यूं समझो कि अपनी औकात भुला रहे थे... पर यकीन मानो, हमारा कोई धर्म नहीं, कोई सम्प्रदाय नहीं देखो, गौर से देखो यह है हमारा असली रूप - हम नंगे हैं ! हमारे अंदर सिर्फ आग धधकती है। सिर्फ घृणा उमड़ती है। हम तो हमेशा कगार पर रहते हैं। अपने अंदर भूख से कसमसाते, चिंघाड़ते पशु से कहते हैं - लो कूद पड़ो शिकार पर !"
"ओफ्फ, इतनी खून्खारता!" मेरे होठों से अस्फुट निकलता है। वे इस शब्द को ऐसे झपट लेते हैं जैसे मैंने उन्हें कोई गाली दे दी हो।
"खूंखारता नहीं प्रतिहिंसा ! प्रताड़ना, दमन, उत्पीड़न की पगलाई प्रतिहिंसा, जिसका निशाना कोई भी बन सकता है बेवकूफ ! असमी, बंगाली, सिख, हिंदू, मुस्लिम.... या फिर शिया, सुन्नी वगैरह वगैरह ! हम हर ऐसे मौके की राह देखेंगे, जब हमारी लगामें खुली छोड़ी जायें। हर बार उसे कौन से नये ढंग का नाम देना है- वह तुम्हारे नफे-नुकसान की राजनीति है, कलाबाजी है। तुम्हारी नहीं, तुम्हारे सरपरस्तों की तुम तो हर बार चारे की तरह हमारे आगे फेंके जाओगे- हिंदू, मुसलमान, सिख, इसाई ... कुछ भी बना कर।"
"लेकिन प्रतिहिंसा का निशाना तुम मुझे बना रहे हो, जबकि तुम्हारा दुश्मन मैं नहीं कोई और है" में चीख कर कहता हूं लेकिन आवाज़ उनके अट्टहासों में खो जाती है। मुझ पर बेहोशी छाने लगती है। वे गली से बाहर निकल गये हैं और मैं आंखें मूंदे चित्त पड़ा हूं।
अचानक उस सन्नाटे में जगह-जगह से शोर उठने लगा है। या शायद मुझे ही महसूस हो रहा है। आंखें खोलने पर लगता है, हंगामा बहुत करीब हो रहा है। अपने शरीर को घसीटते हुए मैं मुहाने तक आ जाता हूं। जो दृश्य सामने है उसे देखकर हतबुद्धि रह जाता हूं।
मुख्य सड़क पर नंगे लोगों की भीड़ है। चिल्लाती, अर्राती हुई वह आगे बढ़ी चली आ रही है। दनदनाते, फूत्कारते हुए नंगे लोगों से सड़क आखिर तक भरी पड़ी है, फिर भी नये से नये लोग जाने कहां-कहां से उतर कर उस भीड़ में शामिल होते जा रहे हैं। सड़क के दोनों किनारों पर भव्य, आलीशान इमारतें हैं। देखते ही देखते उनके शटर खुल जाते हैं। दुकानें सारा सामान अब धड़ाधड़ बाहर उगलने लगी हैं। अंदर करीने से सजी रखी एक-एक चीज मलवे की शक्ल में सड़क पर बिखर रही है।
.... अब इधर-उधर लपकते हुए हाथ हैं। चीखें और नंगे लोगों की किलकारियां हैं। जूतों के डिब्बे उछल रहे हैं और हर कोई अपने नाप के जूते छांट रहा है। पैंटों, कमीजों का माप लिया जा रहा है। हाथापाई में सिर फूट रहे हैं। एक नंगे के माथे से खून बह बह कर उसके कपड़ों पर गिर रहा है। दोनों हाथों में साड़ियों के बंडल लिए वह भीड़ की गिरफ्त से छूट पाने में कामयाब हो गया है। विजय के उल्लास में वह सरपट भागता है कि सिर पर टी।वी। सेट उठाकर ले जा रहे एक दूसरे नंगे से टकरा जाता है। दोनों उछल कर वहीं गिर पड़े हैं। हाथ में पकड़ी दूध की बोतल से घूंट भरता हुआ एक नंगा उन्हें देख कर हंसे जा रहा है। नीचे पड़े क्रेट में से उसने एक बोतल और खींच ली है और उसमें से दूध गटकता हुआ उस तरफ लपकता है जहां काजू, बादाम की बोरियां बिखरी हुई हैं। गिरते-पड़ते कुछ नंगे इन दुर्लभ चीजों से अपनी जेबें भर रहे हैं, मुट्ठियां भर-भर कर मुंह में ठूंस रहे हैं ....
अब हर जगह आग की लपटें हैं। भीड़ आगे बढ़ चली है। उस भीड़ के आगे एक दैत्य नाच रहा है। बेतहाशा पैर पटकता, मुंह से आग फुंकारता हुआ। उसके काले मोटे होंठों से बराबर चिंघाड़ निकल रही है। दैत्य नाच रहा है और फटे स्वर में गा रहा है। जहां- जहां उसके पैर पड़ते हैं, जमीन नीचे धसक धसक जाती है। उसकी आवाज़ चारों दिशाओं से प्रतिध्वनित हो रही है... मैं सदियों से भूखा हूं, सालों से प्यासा हूं। तुम्हारी नकली सभ्यता मेरी बर्बरता को नहीं ढांप सकती, तुम्हारी झूठी विकास योजनाएं मेरी भूख को नहीं छिपा सकतीं। मैं आदमी को जिंदा जला सकता हूं। खून गटागट पचा सकता हूं। मैं जिधर से गुजरूंगा, लाशें गिरेंगी। जिधर उंगली उठाऊंगा, आग फुंकारेगी। मेरी एक सांस हवा में जहर घोल देती है और मेरे रक्तबीज पनपने लगते हैं। देखते-देखते इंसान मेरी शक्ल में बदलने लगते हैं... देखो और सुनो मुझे ! मैं जिंदा हूं और जिंदा रहूंगा क्योंकि अपनी जिंदगी के लिये तुम्हारे शासकों को बार-बार मेरी जरूरत पड़ती है। कि मैं आऊं और अपना तांडव दिखाऊं। हाहाकार मचा कर उन्हें हर खतरे से बचाऊं और तुम्हारे हाथ में एकता और अखंडता का परचम थमाऊं। उनकी ओर बढ़ती हुई हर भीड़ से टकरा कर ऐसा आतंक फैलाऊं कि वे आतंक कायम कर सकें। ऐसी मारकाट मचाऊं कि वे मारकाट कर सकें। ऐसा जहर बिछाऊं जिसमें वे फल-फूल सकें... इसीलिए मैं अब तक जिंदा हूं। इसीलिए मुझे जिंदा रखा जायेगा....
खिड़की पर धूप चमक रही है। मैं आंखे खोले पड़ा हूं। उठना चाहता हूं लेकिन उस दैत्य का चित्र आंखों के आगे से हट नहीं पा रहा। वह जैसे मेरी छाती पर सवार होकर उसी तरह नाच रहा है। उसके मोटे-काले होंठ अभी तक मेरे कानों में चिल्ला रहे हैं। वे शब्द मैं हू-ब-हू सुन पा रहा हूं।
बाहर लड़के धूप सेंक रहे हैं। रतजगा काट कर अलसा रहे हैं। पार्क में बैठे कुछ अधेड़ आपस में सलाह-मशविरा कर रहे हैं। दूध के डिपो पर औरतों- आदमियों का जमघट है। सड़क पार की कॉलोनी में शांति है।
तभी मैं चौंकता हूं। अपना चेहरा खिड़की की सलाखों से सटा देता हूं। सुस्त चाल से चलता हुआ एक युवक सामने से चला आ रहा है... अब वह मेरी नजर की पकड़ में है। वह जगजीत जैसा लगता है। मैं बाहर भागने को होता हूं कि हठात फिर गौर से उसे देखने लगता हूं। हां, जगजीत ही तो है !
दरवाज़ा खोल कर मैं भागता हूं और उससे लिपट जाता हूं। हमारी आंखें पल भर को ही मिलती हैं। कोई कुछ नहीं बोलता। दोनों चुपचाप कमरे में आ जाते हैं। जगजीत सीधा दीवार पर टंगे शीशे के सामने जाकर खड़ा हो जाता है। मैं वहीं खड़ा उसका सफाचट हुआ चेहरा घूरता रहता हूं बिना दाड़ी-मूंछ का सिर के छोटे-छोटे बाल, नंगे माथे पर पगड़ी का निशान दोनों कानों तक खिंचा हुआ। उसकी पैंट घुटनों से फटी है और कुहनियों पर सूख चुके खून के चकत्ते हैं।
एकाएक जगजीत मेरी तरफ घूमता है। उसके जर्द पड़े हुए चेहरे में हल्की-सी हरकत होती है। पपड़ाये हुए सूखे होंठ जरा-सा हिलते हैं।
"अब ठीक है न ?" वह अपने सिर के छोटे-छोटे बालों की तरफ इशारा करके बेहद ठंडी आवाज में यूं कहता है जैसे मुझसे अपने जीने की शर्त पूछ रहा हो। मैं चुपचाप उसे देखता रहता हूं। उसकी सूखी आंखों से धुआं-सा उठ रहा है।
"मैं तो बच गया... उन दोनों का कुछ पता नहीं, कहां हैं कैसे हैं!" वह फिर कहता है।
मैं सन्न-सा खड़ा हूं। कुछ भी सूझ नहीं रहा। अचानक मेरी आंखों के आगे वही दैत्य नाचने लगा है। बेतहाशा हाथ-पैर पटकता हुआ मेरे कानों में चीखने लगा है।
"तुमने उस दैत्य को देखा ... और सुना ?" मैं जगजीत से पूछता हूं।
(सारिका: दिसंबर, 1985)