नमक (बांग्ला कहानी) : महाश्वेता देवी
Namak (Bangla Story) : Mahasweta Devi
‘हाथ से नहीं, रोटी से नहीं, निमक से मारेगा’- उत्तमचन्द बनिये ने कहा था. वह बनिया है, महाजन है और कई पीढ़ियों से उसके वंश ने ही झुझार बेल्ट को अधिकार में रखा है. स्थानीय उरांव और कोल किसी दिन उसकी बात पर ‘न’ कहेंगे, यह उसने नहीं सोचा था.
वही अशोचनीय घटना हो गई इस सरकार के राज में. इसके पहले सरकारें आईं, सरकारें गईं, ऐसा कभी नहीं हुआ.
पलामू अभय वन के पास आदिवासी गांव झुझार है. गांव के निवासी जंगल में गाय, बकरी, भैंस चराते, गिरे हुए काठ से ईंधन जमा कर सकते थे. घर छाने के लिए पत्ते भी ले सकते थे, इसके सिवा वे बांस के अंकुर, कन्द और इमली के पत्ते भी चुराते थे. जंगल विभाग आंखें मूंदे रहता. साही, खरगोश और चिड़ियों को भी मारते. इन सारे जंगली प्राणियों और पक्षियों की मर्दुमशुमारी सही-सही और बिलकुल ठीक न थी. इसी से वन-विभाग इस मामले में भी आंखें बन्द किए रहता. पर शिकार करने से इनको मांस कम ही मिलता था, क्योंकि जंगल के प्राणी भी होशियार हो गए थे. वे आसानी से फंसते नहीं थे.
अभय वन के पास गांव था. कोइल नदी से लगती हुई साधारण-सी नदी थी. लेकिन जमीन उत्तमचन्द की थी. 1831 ई. के कोल विद्रोह के बाद इस अंचल में हिन्दू बनिये नए सिरे से आए. उत्तमचन्द के पुरखे उनमें से ही थे. जंगल में आबादी वाली आदिवासियों की जमीनों को उन्होंने खुले हाथों मोल लिया था. जमीन खरीदकर आदिवासियों को उखाड़ फेंकना उन दिनों बहुत सहज था, आजकल की ही तरह. उन दिनों के आदिवासी भी हिसाब- दस्तावेज-पट्टा-कानून- सबसे डरते थे. आजकल के ही आदिवासियों की तरह. उसके परिणामस्वरूप अब झुझार के आदिवासी जानते भी नहीं कि कभी उनकी अपनी जमीन थी. कभी वे मेहनत की फसल को अपने घरों में रखते थे.
इसी उत्तमचन्द के पास बेगारी की डंडाबेड़ी में सारा गांव बंधा था कई पीढ़ियों से. पुरखों का उलिखित ऋण चुकाने ये लोग हर बरस फसल के समय बारह मील पैदल चलकर उत्तमचन्द के गांव टाहाड़ जाते, खुराकी और मामूली-सी फसल के बदले में बेगारी दे आते. जो फसल मिलती वह भी कर्ज के खाते में जुड़ जाती. बेगारी गैरकानूनी है- इस बात को भी वे नहीं जानते थे. इसका पता चला था आदिवासी दफ्तर के इंस्पेक्टर के सौजन्य से. जानकर भी उन्होंने बेगारी बन्द नहीं की, क्योंकि बेगारी लेनेवाले उत्तमचन्द के विरुद्ध अदालत में नालिश करना उनसे हो नहीं सकता था, इसे वे जानते थे. इसके लिए क्या डाल्टनगंज जाना सम्भव था? वकील कहां है? उनको समझकर सलाह देनेवाले कहां थे? आदिवासी कल्याण दफ्तर भी उनकी पहुंच के बाहर था. दफ्तर शहर में था. वे गांव में थे. रेल या बस-मार्ग पर पड़नेवाला गांव नहीं था. केवल सत्रह परिवारों के छिहत्तर लोगों के आदमियों का गांव था. स्वतंत्रता के बाद तीसरे चुनाव तक तो उसके अस्तित्व का ही सरकार को पता न था. वे चौथे चुनाव से वोट दे रहे थे. चुनाव का समय अच्छा रहता. उत्तमचन्द कहता,
‘जंगल के लिए वह वोट दे आएगा. जाओ, एक-एक रुपया कर ले जाओ, सब बाप-मां लोगो. मैं ही वोट दे दूंगा.’
चौथे चुनाव से यही व्यवस्था चल रही थी. इस सतहत्तर में सब उलट गया. झुझार गांव में निकटतम प्राइमरी स्कूल का एक मास्टर बालकिशन सिंह आता रहा. उसी ने उन्हें समझा-बुझाकर गांव से तीन लड़कों को स्कूल में ले लिया. उसी ने समझाया कि छठा चुनाव बहुत महत्त्वपूर्ण है. वे खुद वोट दे आएं. हर एक का रुपया? उससे कहीं ज्यादा रुपयों का काम बालकिशन की मेहनत से हुआ. झुझार गांव में पंचायती कुआं बना. अच्छा-सा कुआं था, बहुत पानी था. अब तक नदी से पानी लेना पड़ता था, और गर्मियों में पानी लाने में जान निकल जाती थी.
उत्तमचन्द पहले वोट के मामले में बिगड़ा.
चुनाव के बाद नया मंत्रिमंडल बना. पुराने दफ्तर और पुराने अफसरों को नई भूमिका में आना पड़ा. झुझार गांव तक पैदल रास्ता छोड़कर कोई रास्ता ही न था. उसी राह से संगठित युवकों का दल आया, और झुझार का कौन-सा परिवार क्या ऋण चुकाने के लिए बेगार देता है, उसने यह लिख दिया. पूर्ति मुंडा गांव का सबसे अधिक बोलनेवाला व्यक्ति और व्यक्तित्व था. गांव-भर में वही एक आदमी था जिसने रांची और डाल्टनगंज देखा था और धनबाद में कुलीगीरी कर आया था. सब जगह उसकी आर्थिक अवस्था एक ही रही, इसलिए वह बाहरी दुनिया पर थूककर झुझार लौट आया.
वह बोला, ‘हमसे पूछने से क्या फायदा? उत्तमचन्द के खाते में सब लिखा है. तुम लोग उससे पूछो.’
‘बेगार गैरकानूनी है, यह मालूम है?’
‘हमारे मालूम होने से क्या फायदा? बेगार न करने से महाजन उधार न देगा.’
‘अबकी महाजन को पता चलेगा.’
‘तुम लोग देखो.’
‘तुम हमारे साथ चलो.’
‘चलो.’
पूर्ति मुंडा के सामने उत्तमचन्द से लड़कों ने कहा, ‘इस साल से इस अंचल में कोई आदिवासी बेगारी न देगा. अगर किसी को दबाया गया तो उसे कानून के मारफत कैसे छुटकारा मिले, वह हम देखेंगे.’
‘वही होगा.’
उत्तमचन्द बोला, और काम में भी यह अनुशासन मानने पर लाचार हुआ. उसकी जमीन जोतने से भी झुझारवासियों को रोका नहीं गया. युवकों का दल कह गया, ‘बारह बरस से ज्यादा समय से यह जमीन जोत रहे हैं. आधे हिस्से का उनका हक है.’
‘आधा भाग मेरा है.’
‘फसल खड़ी होने पर आपके सामने हमारी समिति फसल का भाग कर देगी.’
‘वही होगा.’
पूर्ति मुंडा लड़कों से कह बैठा, ‘दो रुपए दो. ताड़ी पीकर घर जाऊं. यह कैसा दिन रहा? किसका मुंह देखकर उठा था?’
युवक बोले, ‘नहीं. नशा करना छोड़ो. इस नशे से हम आदिवासियों का सर्वनाश हो गया है.’
पूर्ति मुंडा ने लौटने के वक्त टेंट में से आठ आने की ताड़ी पी और हंड़िया में हाथ डालकर बोला, ‘सर्वनाश! बाबू लोग क्या समझें? तुझसे हम पेट की आग भूले रहते हैं!’
उत्तमचन्द हार मानकर भी कमर कसकर तैयार हो गया. बोला, ‘उनको नोन से मारूंगा.’
उनकी ऐसी उद्धत घोषणा उसको ठीक ही थी, क्योंकि झुझार के लोग बाजार करने पलानी या मुरू आते. दोनों हाटों में परचून सौदे की दुकानें उत्तमचन्द की ही थीं.
उत्तमचन्द बोला, ‘नोन बिना घाटो खाने में कैसा लगता है, देखो? इतने दिनों तक हमारा खा-पहिन कर ऐसी निमकहरामी!’
हाट में नमक न मिलने की बात को पहले तो पूर्ति ने महत्त्व नहीं दिया. जब दिया, तब वे डाल्टनगंज भागे. युवक दल के ऑफिस में. ऑफिस में बैठा एक युवक ट्रांजिस्टर सुन रहा था. उसने सब-कुछ सुनकर कहा, ‘यह हमारे अख्तियार में नहीं आता. जिसकी दुकान है वह न बेचे तो बताओ, हम क्या कर सकते हैं?’ अब चारों ओर भागना पड़ा. और भी बहुत बड़ी समस्या लेकर.
पूर्ति और बाबू लोगों के स्वभाव में कोई संवाद न था, हो भी नहीं सकता. पूर्ति किसी तरह समझा न सका कि नोन के बिना उनका जीवन बेकार है. नोन का सहारा लेकर ही वे घाटो खाते हैं.
जोश में उन्होंने बस का किराया बचाकर दस किलो नमक खरीदा. फिर अठारह मील पैदल चलकर गांव लौटे. गांव में घर-घर नमक बांट कर कहा, ‘बचा-बचा कर खाना.’
किन्तु दस किलो नमक अजर-अमर तो होता नहीं. अबकी पूर्ति ने वन विभाग के ठेकेदार को पकड़ा. ‘हमें काम दो. पैसा मत देना, नोन देना.’
‘नोन दूंगा?’
अब भी इतना दाम बढ़ने पर भी चूंकि नमक ही आज भी भारत में सबसे सस्ती चीज है, इसलिए नमक की मजूरी पर काम करने के प्रस्ताव पर ठेकेदार को चक्कर आ गया. तभी उसे लगा कि इन लोगों के बारे में जानना जरूरी है. उत्तमचन्द की जमीन जोतते हैं, इसलिए ठेकेदार उत्तमचन्द के पास ही गया. जाकर जो सुना उससे लगा कि ये लोग बिलकुल खचड़े हैं. शहर के झगड़ालू लड़कों के साथ होकर सदा के जाने हुए बनिये से झगड़े का फैसला कर बैठे हैं. इन्हें काम देने से ठेकेदार जरूर फंस जाएगा. इसलिए ठेकेदार ने पूर्ति आदि को भगा दिया और काले-काले आदमी सिर झुकाए सफेद बालू पार कर चले गए.
इसके बाद इन्होंने फसल के वक्त फसल से नमक खरीदने की कोशिश की. नतीजा हुआ कि फसल बीत गई, नमक मामूली सा ही मिला. अब पूर्ति को सभी ने दोषी बताया और कहा, ‘महाजन के पास उनके कहने से तुम गए. अब हमें नमक दिलाने की व्यवस्था करो. उस समय तो अपने को मरद मानकर बहुत भरोसा दिलाने गए थे! लीडर बनने चले थे!’
‘बिना गए बेगारी बन्द होती?’
‘नहीं होती तो देते.’
‘फसल में हक होता?’
‘नहीं होता तो उपवास करते.’
झुझार गांववालों को अब बेगार देने के फसल न मिलने के दिन बहुत सुख के दिन लगते थे. उन्होंने मन-ही-मन डंडी और पल्ले का हिसाब लगाया. काला-काला सा ढेला नमक ही वजन में भारी पड़ा. उनके लिए बेगार के बन्द होने और फसल में हिस्से का अधिकार हलका पड़ गया.
गांव के बूढ़े बोले, ‘नहीं, अलोना घाटो खाया. लेकिन कलेजे में हंफनी क्यों होती है? हाथ-पांव हिलना नहीं चाहते.’
सबको ही लगता कि इसका कारण नमक है, असल में देवी-देवता रूठे हैं. गांव के बुड्ढे सांस छोड़कर कहते, ‘सबका ही हो रहा है. अबकी हरम् देउ के धान पर पूजा देनी होगी. मेरी घर पली दो मुर्गियां हैं, फारेस गाड के पास बेचकर नोन ले आ, पूर्ति! किसी दिन हमें नोन का तो स्वाद मिले.’
फॉरेस्ट गार्ड ऐसे आश्चर्यजनक प्रस्ताव से बहुत खुश हुआ. बोला, ‘स्टोर से नोन ला दूंगा, ठहरो.’
‘दो मुर्गी सस्ती भी खरीदने से आठ रुपए से कम में नहीं मिलेंगी.’
‘वह तो है.’
‘आठ रुपए का कितना नोन होता है?’
‘सोलह किलो.’
‘वही लाओ.’
बहुत ही काला समुद्री नमक था.
‘इतना काला?’
‘हाथी खाते हैं, हिरन खाते हैं, वे सफेद को काला समझते हैं?’
‘नोन खाते हैं? नोन?’
‘हां रे बेटा! उनके लिए नोनी माटी देनी होती है.’
‘नहीं तो क्या हो?’
‘सूख जाएंगे.’
‘कहां देते हो?’
‘जगह है.’
पूर्ति सोचते-सोचते नमक लेकर गांव लौटा. हाथी और हिरन साल्ट-लिक से नमक खाते हैं. इस खबर से वह बहुत परेशान होने से समझ नहीं पा रहा था, पीठ पर के बोरे के नमक का वजन किसी तरह भी सोलह किलो नहीं है. पूजा के दिन खसी काटकर खूब खाना-पीना हुआ. बाद में पूर्ति आकर नदी के किनारे बैठ गया. अकेले में वह शराब पीते-पीते जंगल की ओर ताकता है. बड़े सवेरे और शाम को हाथी खाते-फिरते नदी की बालू पर घूमते हैं. दिन में वे नहीं दिखाई देते. नोनमाटी वे कब खाते हैं और कहां? जंगल बहुत बड़ा है. पूर्ति जंगल को चीर-चीर कर देखेगा, नमक कहां मिलेगा?
हाट की दुकान उनको नमक नहीं बेचती. इस खबर को संगठित युवकदल ने एकदम छोड़ नहीं दिया. उनके मन में यह बात कहीं लगी रह गई और एक ने किसी मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव को पकड़कर पूछा, ‘मानव देह में लवण कितना आम्निपोटेंट है?’ मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव हाल ही में काम में लगा था और जो सारा इल्म सीखा था उसे उद्धरण का कोई मौका नहीं मिल रहा था. उसने जो कुछ कहा, उसे सुनकर युवक को चक्कर आ गया.
वक्तव्य इस प्रकार था: नमक और पानी शरीर के इनार्गेनिक या मिनरल उपादान हैं. जीने के लिए ये अनिवार्य हैं और शरीरकोष के फंक्शन में यह विशेष भूमिका का पालन करते रहते हैं. प्रमुख लवण हैं क्लोराइड, कार्बोनेट, बाइकार्बोनेट, सल्फेट और फास्फेट. यह सोडियम पोटाशियम, कैल्सियम, मैग्नेशियम, क्लोराइड के साथ लोहा, सीओ टू, सल्फर और फास्फोरस के यौगिक हैं. साधारण रूप से कहा जाता है कि लवण पूरे जीव-शरीर में ये सब काम करते हैं- (1) शरीर की आस्रवण अवस्था को देखभाल कर ठीक रखना. (2) देह में जल का सन्तुलन और रक्त का वॉल्यूम ठीक रखना. (3) शरीर का एसिड बेस-भार साम्य ठीक बनाए रखना. (4) शारीरिक चुस्ती के लिए आवश्यक सामग्रियों को जुटाना, विशेष रूप से अस्थि और दांतों को. मांसपेशी और नर्वसेल की प्रॉपर इरिटेबिलिटी के रखरखाव के लिए भी लवण आवश्यक है. आवश्यक है रक्त तंचन या कोआगुलेशन के क्षेत्र में. (5) लवण कई एंजाइम सिस्टम, श्वास-प्रश्वास के पिगमेंट और हार्मोन की आवश्यक सामग्री है. (6) लवण जीव-देह में सेल-मेम्ब्रेन और कैपिलरी पर्मियेबिलिटी नियंत्रण में रखता है और उनको चलाता है.
इतनी कठिन बातें जानकर युवक और भी चक्कर खा गया और बोला, ‘क्या यार, मैंने क्या इम्तहान के लिए पूछा था?’
‘तब क्यों पूछा?’
‘नमक न खाने से क्या-क्या नुकसान हो सकते हैं?’
‘नुकसान क्या होगा? हाई कैलोरी मिला खाना मत खाओ, मामूली नमक से ही काम बन जाएगा.’
‘अरे, ऐसे लोग भी तो हैं, जो किसी भी कैलोरी के पास नहीं फटकते!’
‘हां-हां, भारतीय लोगों की फूड हैबिट ठीक नहीं है.’
‘अरे, मैं जिनकी बात कह रहा हूं....’
युवक समझ गया कि वह छाया के साथ कुश्ती लड़कर मन के शरीर में दर्द पैदा कर रहा है. डाल्टनगंज की चाय की दुकान, झुझार गांव से कोई लाखों योजन की दूरी पर नहीं है. लेकिन ये दो जगहें महान विश्व या नक्षत्रों पर स्थापित हैं, और किसे नहीं मालूम, आकाश के तारों पर तमाम कविताएं और गीत क्यों न लिखे गए हों, यह करोड़ों सूर्यों से भी विशिष्ट ताप हैं और उनका मध्यवर्ती काला आकाश वास्तव में करोड़ों मील के व्यवधान पर उक्त क्रुद्ध और घूमते हुए नक्षत्रों में अन्तर रखा है. डाल्टनगंज गरम है, लकड़ी के रोजगार की गर्मी से. झुझार गरम है, अभागे और आधुनिक भारत से निर्वासित कुछ आदिवासियों की वंचना के उत्ताप से. पूर्ति मुंडा की समस्या इस टेरीक्लॉथ और पाउडर से शोभित चटक-मटक वाले लड़के को समझाना छायाचित्रों की-सी एक बेकार कोशिश है.
‘किसकी बात कर रहे हो?’
‘वे लोग खाते हैं केवल घाटो या मडु़वा या उबाले भुट्टे. तरकारी या फल या मछली या मांस....’
‘वे नमक नहीं खाते? क्यों?’
‘मिलता नहीं.’
‘गप है. नमक सबसे सस्ती चीज है.’
‘उन्हें नमक नहीं बेचते....’
‘झूठ.’
‘जो लोग लो कैलोरी के सिरियल खाते हैं, उनको नमक न मिले तो क्या होगा?’
‘किन्हें? नई फिल्म देखी थी?’
‘नहीं. बताओ न.’
‘अरे, अनाड़ी को समझाऊं कैसे?’
‘नहीं तो तुम पंडित क्यों हुए?’
‘लवण शरीर के फ्लुइड को कंट्रोल करता है, रक्त को भी. लवण न मिलने से खून का कोआगुलेशन- खून का जमना- बहुत गाढ़ा हो जाएगा. हार्ट को गाढ़ा रक्त पम्प करने में कष्ट होगा, सांस में दबाव आएगा. मसिल में- स्नायुओं में- क्रैम्प यानी ऐंठन होगी. शरीर चलाने में भी बहुत स्ट्रेन पड़ेगा. शरीर के हाड़ और दांतों का क्षय तो होगा ही. बॉडी में जनरल डिके- सब तरह का क्षय- होगा. छोड़ो फिजूल बात. चलो फिल्म देख आएं.’
फिल्म में दुर्धर्ष गनमैन, बन्दूकबाजी, उत्तुंग यौवना टांगेवाली और अमिताभ बच्चन थे. किन्तु अमजद खां के कानून के हाथों सजा पाकर बनारसी पान खाकर घर लौटने के बाद भी युवक झुझार की समस्या को उसके दिमाग से अलग न कर सका. दूसरे दिन वह टाहाड़ में उत्तमचन्द के घर गया.
उसकी शिकायत सुनकर उत्तमचन्द बोला, ‘आदिवासी पहले झूठी बातें नहीं कहते थे. अब बहुत खचड़े हो गए हैं.’
‘क्यों?’
‘मैं गन्दे लोगों को नमक नहीं बेचता.’
‘नहीं.’
‘अरे मैं किसी को नमक नहीं बेचता. नमक में कुछ भी मुनाफा नहीं है. मैं पिछली हाट से हाट में नमक नहीं ले जाता. इसके पहले उन्हें नमक नहीं बेचा? कैसी अजीब बात है! थोड़ा नमक नहीं बेचा? क्या अजीब बात है! थोड़ा नमक, शायद दुकान से उठ गया.’
‘नमक नहीं बेचते? क्यों?’
‘नफा नहीं है.’
‘यह क्या ठीक हो रहा है?’
‘मैं जब उत्तमचन्द हूं, बनिया, जब पहले कांग्रेस को मदद दी थी, तब तो मेरी सब बात ही खराब है, सब काम ही गलत है.’
‘उलटा समझ रहे हो.’
‘नहीं बाबू साहब! कांग्रेस को मदद दी, जब जो सरकार चलाए, उसे मदद न देने से हमारी तरह गरीब गांव का बनिया जिन्दा नहीं रह सकता. आप लोगों ने कहा, मैंने बेगार बन्द कर दी, फसल में हक भी छोड़ दिया. कांग्रेस के लड़कों ने ये सब बातें नहीं कही थीं. कहते तो तब भी देता. पर अब जो कह रहे हैं, सो कैसे करूं? जिस चीज में नफा नहीं, उसे बेचने को कहना तो जबर्दस्ती है.’
‘वे उधार लेने आते हैं?’
‘न, न, उधार वे क्यों लेंगे? फसल मिल रही है. और हमें तो झाड़-पोंछकर जरा-सा दिया.’
‘उस जमीन में क्या होता है, बताइए?’
‘न होता हो तो क्या करूं? जमीन कम पैदावार की हो तो वह भी क्या मेरा दोष है? और जानते हैं? वह उधार चाहें भी तो मैं उधार न दूंगा.’
‘क्यों?’
‘यही देखिए! उधार देने पर उधार चुकाया जाता है, और वह आपकी सरकार में गैरकानूनी है. देखिए, ज्यादा नाचने से गणेश पूजा नहीं होती. यह आईन- कानून- पहले भी था. कांग्रेसी सरकार आंखें बन्द किए रहती थी, क्योंकि कांग्रेसी सरकार आदमी का दुख समझती थी. वे लोग जानते थे कि महाजन उधार न दे तो आदिवासी जंगली लोग भूखे मर जाएंगे. आप लोग तो समझते नहीं. अच्छा है! जो कर रहे हैं वह अच्छे के लिए ही कर रहे हैं. अन्त भला तो सब भला. उन्हें उधार नहीं दूंगा.’
युवक हार मानकर लौट आया और शुभ संकल्प किया कि पहला मौका मिलने पर झुझार बेल्ट में जनता-दुकान खुलवाने की व्यवस्था करेगा. संकल्प कुछ दिनों मन में रहा. उसके बाद शराब की गैरकानूनी दुकान के लिए गड़बड़ दूर करने वह दूसरी जगह चला गया और झुझार की बात भूल गया.
युवकों की सारी शुभेच्छा रहने पर भी पूर्ति आदि अलोने अंधियारे में पड़े रहे. पूर्ति अवश्य ही नहीं रहता था. रोजाना वह चुपचाप जंगल छानता था. हिरनों का साल्टलिक जंगल ऑफिस के आसपास था. इसके बाद उसने एक दिन खरगोश का पीछा करने जाकर हाथियों का साल्टलिक खोज लिया. दृश्य बहुत ही व्यंजक था. प्राणों के भय से पूर्ति पेड़ की डाल पर था. थोड़ी ही दूर पर हाथियों का गोल नोनहरी मिट्टी चाट रहा था. पथरीला नमक. पत्थर के ऊपर मामूली-सा मिट्टी मिलाकर फैलाया हुआ था.
‘नमक का खेत बना दिया है.’
पूर्ति ने मन-ही-मन कहा. उसके बाद अंधेरा घना होने पर हाथी वह जगह छोड़ देते. बेतला के हाथी ‘शो बिजनेस’ समझते हैं. शाम के वक्त जीप पर चढ़कर टूरिस्ट जीव-जन्तु देखने निकलते. वे बांस के पेड़ों को कुतरने में लगे हाथियों के झुंड को देखने के अभ्यस्त थे. हाथी उस ओर जाते.
सारे हाथियों के चले जाने पर एक दांत वाला बुड्ढा हाथी आता. उसके चलने-फिरने से गिरस्त ढंग नहीं लगता था, यद्यपि हाथी बहुत ही घरेलू जानवर है. ‘अकेला!’ पूर्ति ने मन-ही-मन कहा, और डर के मारे पेड़ पर चिपका रहा. कोई युवक हाथी किसी दल से निकाला जाकर यूथपति बन जाए ऐसे हाथी को ‘अकेला’ कहते हैं और ‘अकेला’ सबके लिए ही अवॉयडेबल- दूर रहनेवाला- होता है. ‘अकेला’ क्या करे, इसका पता नहीं. यूथपतित्व और दल से निर्वासन के कारण इसका व्यवहार भी और आचरण भी इर्रेसपांसिबल- गैर-जिम्मेदारी का होता है.
‘अकेला’ साल्टलिक को मूत से भिगोकर चला गया. पूर्ति समझा कि वह अपनी समझ के मुताबिक खचड़ई करके चला गया.
हाथी का पेशाब बचाकर नोनी माटी को पल्ले में बांधकर वह घर लौटा. पानी गरम कर उसमें नोनी माटी छोड़ दी. पत्नी से बोला, ‘कल देखना होगा, मिट्टी नीचे थिर जाने पर कितना निमक रहता है?’
‘पानी में निमक?’
‘हां.’
सवेरे देखा गया कि मिट्टी और नमक एक साथ नीचे पड़े हैं. पूर्ति ने ठंडी सांस लेकर कहा, ‘फिर भी नमक तो है! साले अब हाट में नमक बेचते ही नहीं.’
उस नोनखरे गन्दे पानी को ही कपड़े से छानकर पूर्ति पीता, औरों को खबर दी, और ‘अकेला’ हाथी के बारे में सबको सावधान किया. अब गांव वाले बूढ़ों ने कहा, ‘बहुत सावधान! उस बार क्या हुआ?’
सबको ही याद आया. हर बरस सारांडा फॉरेस्ट में हाथियों का एक झुंड बेतला आता और लौट जाता. कई बरस पहले किसी नासमझ आदिवासी युवक ने तीर मारकर एक बच्चा हाथी मार डाला. उससे हाथी खफा हो गए और मरे बच्चे को घेरकर आदमी की समझ में आनेवाली प्रतिज्ञा में चलते रहे.
उसके बाद वे प्रतिहिंसा की लड़ाई में उतर पड़े. झुझार और कोलना गांव के रहनेवाले भाग गए. पहले बरस गांव को उलट-पलट कर वे चले गए.
दूसरे बरस सारांडा से आकर उन्होंने काम में लगे जंगल के कुलियों में से दो आदमियों को मार डाला.
तीसरे बरस बेतला के जंगल-बंगले के नीचे एक बस और गाड़ी को उन्होंने तोड़- ताड़कर उलट दिया.
तीन बरस में आदमियों से बदला लेने की इच्छा को तृप्त कर तभी वे शान्त हुए. उनको बदमाश घोषित कर मारा न जा सका. क्योंकि वे हमेशा झुंड में घूमते और वयस्क हाथी रिट्रीब्यूशन- प्रतिशोध- का काम करते. आजकल बेतला में सब जगह कांटेदार तारों का घेरा है. हाथियों को बुद्धि बहुत होती है और इन कांटेदार तारों का निषेध उन्होंने समझा और मान लिया.
गांव के बूढ़े बोले, ‘और जो भी करना, हाथी को गुस्सा मत करना. और वह भी ‘अकेले’ को. वे भूलते नहीं.’
युवक लोग अवसन्न शरीर से और सहन न कर पा रहे थे. वे सूखे मुंह से बोले, ‘सावधानी से ही जाएंगे. पूजा देकर भी कुछ नहीं हुआ. दम निकल जाता है. बोझा खींचने में हाथ-पांव दुखने लगते हैं.’
वे लोग सावधानी से ही गए. सावधानी से नोनी मिट्टी चोरी की. ‘गाछ से पहले न उतरना, देख लेना कि सब हाथी चले गए हैं या नहीं.’ पूर्ति की बात याद रखी.
उसके बाद, सम्भवतः ‘अकेले’ के कारण ही साल्टलिक शिफ्ट की गई. दो-तीन जगह साल्टलिकें बनाई गईं. बहुत दूर पर अकेला, झुझार के आदिवासी साल्टलिक- इन कठिन अंकों के उत्तर लेने के बाद वन विभाग की हालत बड़ी होशियारी की थी.
अकेले या झुंड में, एलीफैंट पॉपुलेशन की जिम्मेदारी वन विभाग की थी. यह ‘अकेला’ खचड़ा था. यह साल्टलिक से नोनी मिट्टी चाटने के बाद मूतकर चला जाता. जगह-जगह साल्टलिक बनाने पर वन विभाग को आशा थी कि अकेला एक जगह जाएगा तो दूसरी जगह हाथियों का झुंड होगा.
‘अकेले’ ने बड़े हिसाब से गड़बड़ की थी. एक बार यहां, तो दूसरी बार वहां जाता था. झुंड में न रहने से उसके समय का ज्ञान भी बदल गया था. सन्ध्या या सवेरे के सिवा वह बेटाइम भी साल्टलिक पर चला जाता था. स्वभाव बदल गया था. शायद वह सोच रहा था कि नोनी मिट्टी चोरी हो रही है. बीच-बीच में सड़क पर आकर खड़ा हो जाता. जीप की रोशनी पड़ने पर भी न हिलता. जीप लौटा देनी पड़ती. वह क्या आदमियों पर सन्देह कर रहा था? सूंड़ के राडार हिलाकर क्या वह आदमी की गन्ध खोज रहा था?
वन विभाग में हाथियों के बारे में एक टेंशन बन और बढ़ रहा था. क्या इस तरह ‘अकेला’ अचानक बिगड़ैल आचरण कर सकता है? वन विभाग की मुसीबत थी कि ‘मैन-किलर या रोग’ कहकर प्रसिद्ध हुए बिना, उस बारे में प्रमाण मिले बिना, संरक्षित हाथी को मारा नहीं जाता था.
मन-ही-मन सभी इस तनावपूर्ण स्थिति के फलस्वरूप किसी विस्फोट के होने की अपेक्षा कर रहे थे. वन विभाग में कुली कह रहे थे, ‘अकेले’ के होने पर उन्हें काम पर जाने में डर लगता है. उन्होंने देखा कि ‘अकेला’ दूर खड़ा उनको लक्ष्य कर रहा है और वे काम छोड़कर भाग आए. ‘अकेले’ के मन में सन्देह घुस गया था. साल्टलिक पर जो नमक रखने आते, उनके मन में भी शक था. नोनी माटी खुरच-खुरचकर खतम कर दी गई है, ऐसी बात उन्होंने कभी नहीं देखी थी. नोनी माटी जैसी चीज कोई चोरी करेगा? न. उन्होंने रिपोर्ट नहीं की. रिपोर्ट के लायक महत्त्वपूर्ण घटना सी लगी नहीं. नमक जैसी चीज? स्टोर में बहुत-सा है.
एलिफैंट पॉपुलेशन भी संशय में था और असन्तुष्ट था. साल्टलिक है, नोनी मिट्टी नहीं रहती है, इसे वे भी कुछ नहीं समझ पा रहे थे. सब ही अजीब गड़बड़ था.
इसका कारण, इस सारी हालत का कारण, पूर्ति और दूसरे दो युवक थे.
पहले वे सावधान रहे, बहुत ही सावधान. शाम से पेड़ से चिमटकर चुपचाप फुनगी पर रहते. हाथियों के झुंड और ‘अकेले’ के चले जाने पर नोनी मिट्टी लेते. सम्भवतः इस नमक के जमा करने से उनकी मांसपेशियां तेज और स्वाभाविक गति में समर्थ हो गई थीं, शरीर की ऑस्मोसिस- स्थितावस्था- लौटाकर, खून में पानी की बढ़ती होने से हृद-यंत्र अधिक दबाव न डालकर स्वाभाविक चाव से ही शरीर में रक्त भेजेगा और शरीर की इलेक्ट्रोलाइट अवस्था ठीक हो जाएगी.
सम्भवतः! इसके फौरन बाद आदमी की धूर्त बुद्धि फिर दिमाग में भर गई. वे सतर्कता भूल गए. शाम को हाथियों के आने के पहले ही नोनी मिट्टी लेकर चले जाते. वे जान भी न पाए कि ‘अकेला’ उन्हें देख रहा है.
अचानक जंगल में ‘अकेले’ को कम देखा जाता. पता लगा कि शाम के शुरू होने पर नदी की सफेद बालू पर खड़े-खड़े जैसे दूर पर कुछ देख रहा हो.
‘क्या देख रहा है?’
‘नदी पार कर आदिवासी जा रहे हैं.’
यह समाचार कुछ अच्छा नहीं था. किन्तु ‘अकेले’ ने अपने मनोयोग का टार्गेट बदल दिया है, इससे ही वन विभाग का तनाव ढीला पड़ गया. पर कहा गया कि हाथी क्या करेगा, यह जान पाने पर ही जानना होता है.
कुछ दिन बाद फिर कत्थे के पेड़ों का काम छोड़ देना पड़ा. ‘खैर’ के पेड़ों का जंगल, प्राचीन पलामू किले की राह में जंगल के बिलकुल भीतर स्थित है. पता लगा कि प्राचीन पलामू किले के पास ‘अकेला’ घूमता-फिरता है.
यह प्राचीन पलामू का किला किसी समय पलामू के स्वाधीन राजाओं का दुर्ग था. बेतला के घने जंगल में इस विशाल, पहाड़-से ऊंचे पत्थरों और ईंटों के टूटे किले का दृश्य बहुत ही डरावना था. प्रकृति के उत्पन्न किए वनस्पतियों के जंगल में, ऊंचे से ऊंचे साल के पेड़ों से भी बहुत ऊंचा था. मनुष्य के बनाए इतने बड़े स्ट्रक्चर के लिए आंखें तैयार नहीं रहतीं. नहीं रहतीं, इसीलिए किले को देखकर डर लगता है.
जंगल के कुली देखते हैं कि बाघ से भी अधिक निःशब्द-सा, सूखे पत्तों को बचाता हुआ ‘अकेला’ किले के पास से चला जा रहा है और सूंड़ बढ़ाकर कुछ खोज रहा है. देखते ही वे लोग चले आए.
पूर्ति मुंडा को स्वभावतः ही ये सारी बातें जानने का मौका नहीं था, क्योंकि वन विभाग के लोगों का आभास पाते ही वे जंगल में छिपने जा रहे थे. वन विभाग के लोगों के लिए यह नमक कुछ भी नहीं था. लेकिन इस नमक के लिए ही पूर्ति सोच रहा था कि कभी भी दिखाई न पड़ें. देखते ही वन विभाग के लोग उनको ‘नोन चोर’ कहकर पकड़ लेंगे. यह सब गलत अन्दाज हो रहा था और ‘अकेला’ अपने चाटने के और मूत कर बहाने के नमक से वंचित होकर अपराधी तय करने पर उतर आया था- उसने ठीक ही समझा था, साल्टलिक और झुझार में एक बन्धन-सूत्र है. इसी से वह सफेद बालू पर खड़े-खड़े झुझार की ओर देखता रहता. दृश्य बहुत ही लाक्षणिक था. नदी, बालू, आकाश, रात, पलामू किले की पृष्ठभूमि, खामोश हाथी. बहुत ही प्रशान्त और चिरकालीन. केवल अन्तर था कि इस हाथी के दिमाग में जो इरादे हो रहे थे, वे सफेद कबूतर उड़ाने की तरह नहीं थे.
इसी तरह कई दिन बीत गए. उसके बाद एक रात को किसी को बिना गवाह बनाए हाथी पानी और बालू को पार करता झुझार चला गया और कुएं के पास खड़ा रहा. सवेरे सब लोग दरवाजा खोलकर प्रातःकालीन नित्यक्रिया के लिए अलग-अलग गए और कुएं के पास खड़े ‘अकेले’ के पीछे से सूर्य को निकलते देख उन्होंने अपने-अपने दरवाजे बन्द कर लिये और डर के मारे पत्थर-से चुपचाप बैठे रहे. खिड़की की झिरझिरी से उसे पूर्ति मुंडा ने देखा और मन-ही-मन रटने लगा, ‘हेई आबा! कोई तीर न मार दे, हेई आबा!’
किसी ने तीर नहीं मारा और हाथी मानो किसी सन्देह का जवाब पाकर गांव छोड़ नदी पार चला गया. उसके जंगल में गायब होने पर ही सब लोग घरों से निकले और गांव के बुजुर्ग ने कहा, ‘जो कहा था वही हुआ न? जरूर तुम लोग असावधानी से गए थे. उसने देख लिया. नहीं तो क्यों आया?’
‘देखा नहीं. देखता तो हमें पता चलता न, और हम उसे देखते न? हाथी क्या खरगोश होता है?’
‘हाथी चींटी होता है- हाथी तितली होता है- हाथी हवा होता है. इतना बड़ा शरीर, जब चाहे तब अलखा बन आकर सिर-पैर रख सकता है, तुझे पता न चलेगा. अरे बुद्धू! अरे गू के कीड़े! तूने उसे देखा नहीं, उसने तुमको देख लिया है. नहीं तो आया क्यों?’
‘जो हो गया हो गया, अब इलाज बताओ.’
‘पूर्ति, तुझे कौन-सी सजा देने से मन भरेगा, पता नहीं. गैर-आदिवासी कोयले के काम में, कुली के काम में जो शहर जाता है, वह वहीं रह जाता है. तू नहीं रहा. लात खाकर चला आया. सोचा, बड़ा ज्ञानी बनकर आ गया है. उससे उत्तमचन्द से विवाद किया. वह बाघ है. उसके बाद हाथी बुलाकर गांव में घुसा दिया.’
‘इलाज बताओ.’
‘कोई नोन लेने न जाएगा. अपने-अपने छप्पर में बैठो. हाथी दिखाई पड़े तो भागो.’
पूर्ति बोला, ‘कांटेदार झाड़ी काटकर बाड़ा बना लें? जंगल में लगाते हैं. उससे हाथी डरता है.’
‘हा-हा, पथरीला धरती का गांव है! कहां बेड़ा लगाएगा? किधर से अटकाएगा?’
‘तब?’
‘नोन लेने मत जा. उससे शायद वह भूल जाए.’
पूर्ति ने गांव के बुजुर्ग की बातें सुनीं. फिर वे नमक लेने न गए. एक दिन पूर्ति ने जंगल के बीट अफसर से कहा, ‘अकेला उस दिन गांव गया था. हम बहुत डर गए.’
‘हमें भी डर लगा था. अब साला कहीं दिखाई नहीं पड़ता. लगता है, चला गया.’
सबको ही लगा कि वह चला गया. मानो हरे जंगल में वह धूसर प्राणी गायब हो गया. जलाशय के पास जानवर के पैरों के छाप देखे गए, जीव-जन्तुओं की संगणना बनी. जलाशय या कमलताल देखकर या बिना देखे ही वन विभाग ने कहा दिया कि ‘अकेला’ गायब हो गया.
अकेला ने नदी के मोड़ पर जहां कि बांसों का जंगल झुका पड़ा था, वहां से सब देखा था और समझने की कोशिश की थी. साल्टलिक पर अब किसी का हाथ न पड़े, आसपास आदमी की अपवित्र गन्ध न रहे. यह क्या कोई नया आक्रमण-कौशल है? उसे मानो पता था कि आदमी बेसिकली इर्रैशनल प्राणी है. ‘अकेला’ को खफा कर नोनी मिट्टी लेना इर्रैशनल काम था. न लेना रैशनल था. लेकिन आदमी बहुत दिनों तक अकल से काम नहीं कर सकता है. पूर्ति आदि भी नहीं कर सकेंगे, इसे जैसे ‘अकेला’ जानता था.
पूर्ति ने वही इर्रैशनल काम किया. सबसे बड़ी आश्चर्य की घटना हुई कि जब किया, तो उसके एक सप्ताह पहले से ‘एनफ इज एनफ’ स्थिर कर उत्तमचन्द ने हाट में काफी नमक बेचना शुरू किया था. पूर्ति को यह पता था या नहीं, यह भी मालूम नहीं हुआ. शायद पता न था. अगर जानता, फिर भी विश्वास नहीं करता कि उत्तमचन्द उसे नमक बेचेगा. हो सकता है कि ‘अकेला’ की नाक के सिरे से या ‘अकेला’ को धोखा देकर उन लोगों की नोनी माटी चोरी करने की तबीयत हुई हो. वे भी मर्द और काम करनेवाले हैं, इसे प्रमाणित करने के लिए वही काम करना उनके लिए बड़ी बहादुरी का काम लगा था. शायद! या वन विभाग को छकाने की इच्छा हुई थी. पूर्ति के मन में क्या आया था, उसका पता नहीं चला. पर बहुत जिरह करने के बाद पता चला कि भोर रात में पूर्ति और दो युवक बोरा लेकर निकले. कह गए, ‘बहू, सावधान, सावधान, चिल्लाना मत. सावधानी से ही जाएंगे और आएंगे. सूरज निकलने पर हाथी चले जाएंगे, तब जाएंगे.’
वे भी गए और ‘अकेला’ भी बढ़ा. हाथी विशालकाय भूमिचर प्राणी होता है. लेकिन खफा हाथी जब आदमी के साथ अक्ल की लड़ाई में उतरता है, तो चाहे तो चींटी से भी निःशब्द चल सकता है. हर सूखे पत्ते को हटाकर होशियारी से कदम रखता है, अविश्वसनीय सतर्कता के साथ. इसलिए गरदन घुमाते ही पूर्ति आदि को लगा था कि शायद प्राचीन पलामू का किला ही बढ़ आया है. हाथी जितना बड़ा होता है बहुत पास से उससे भी बड़ा दिखाई देता है.
हाथी ने बिना कोई आवाज किए सूंड़ और पैर चलाए थे, लेकिन तीन आदमी जोरों से, बड़े जोरों से चीखने लगे. उनके आर्तनाद से दूर-दूर के हाथियों के झुड भी चंचल हो गए, हिरन उछलकर भाग निकले. इनसान का आर्तनाद झटपट निकलकर चुप हो जाता है. उसके बाद हाथी प्रायः मानुषी उल्लास में तेज चीत्कार से आकाश फाड़ते हुए जंगल को रौंदता हुआ चला जाता है.
‘ऐसा क्यों हुआ, इसका ठीक से पता नहीं चला,’ पूर्ति का कहना था. दलित और पिसे मानव-शरीर कोई गवाही या इजहार नहीं दे सकते.
नोनी माटी चुराने आकर मरे? नोनामाटी?
सबके मन में यही बात उठती और पूर्ति आदि का सारा आचरण बहुत दुर्बोध लगा. अन्त में दारोगा ने कहा, ‘जरूर शराब के नशे में मतवाला रहा होगा.’
सवेरे शराब पीकर आदिवासियों का मतवाले रहने का समय होता है या नहीं, इस बात को उठाकर, किसी ने मामले को उलझाया नहीं. यह नोनी माटी की चोरी का मामला है, यह समझना मुश्किल है. नोन ऐसी सस्ती चीज है! शराब पीकर मतवाले हुए बिना ऐसा इर्रैशनल- नासमझी का- काम पूर्ति आदि क्यों करते?
हाथी की नोनी माटी चोरी करने जाकर मरे! दारोगा की कुछ बातें पूर्ति आदि की एपिटाफ बन गईं और झुझारवासी किसी भी तरह विश्वास योग्य नहीं हैं, यह प्रमाणित हो गया. तृणभोजी जीवों को नमक की जरूरत होती है, और उस नमक को भी आदमी चुरा ले! मनुष्य के हाथों वन्य प्राणियों का संरक्षण कितना कठिन होता है, वह जैसे पूर्ति आदि के अस्वाभाविक काम से फिर याद हो आया.
‘अकेला’ की जानकारी के बिना वह ‘रोग’ (बदमाश) डिक्लेयर कर दिया गया और इसलिए उसके मरने से हाथियों का झुंड खफा न होगा. वह अकेला है, इसलिए कुछ कमीशन्ड शिकारी लोगों ने उसे गोली से मार डाला. घटना अखबार में छोटा-सा समाचार बनी और मृत ‘अकेला’ को देखने झुझारवासी भी आए. गांव के बुजुर्गों को हाथी देखकर बुरा लगा कि यह ठीक नहीं हुआ. प्रत्यक्ष सत्य था कि हाथी ने पूर्ति आदि को मार डाला, जिसके परिणामस्वरूप वह मरा. परोक्ष सत्य मानो कुछ और था. नमक के लिए इतना कुछ! उन्हें नमक नहीं मिलता. नमक खरीद सकते तो तीन आदमी और एक हाथी न मरते. इसके लिए कोई और जिम्मेदार है, कोई और. जिसने नमक नहीं बेचा वह, या कोई और नियम? कोई और व्यवस्था? जिस नियम और व्यवस्था के अन्तर्गत रहने पर नमक न बेचने पर उत्तमचन्द का कोई अपराध नहीं? उसका विचार गन्दा है और बातों के लिए शब्द भंडार बहुत सीमित होने से किसी को कुछ समझाया नहीं जा सकता.
‘यह काम ठीक नहीं हुआ जी!’ बाबुओं के लिए इतनी सी बात कहते हुए वे गांववालों को लेकर चले गए और कतार बांधकर सफेद बालू पार कर सिर हिलाते-हिलाते झुझार लौट गए. नमक जान लड़ा देनेवाली समस्या हो सकती है, इसे बाबू लोग कभी न समझ सकेंगे और यह मामला उनके निकट अवास्तविक रह जाएगा, इसे वे जानते हैं. जानते हैं, इसीलिए एक बार भी पीछे घूमकर नहीं देखा. बालू की छाती पर उनकी शकलें क्रमशः छोटी होती गईं. वे जल्दी-जल्दी चल रहे थे. अपने जीवन में लौटकर ही उनको चैन मिलेगा. जिस जीवन में अविश्वास नहीं है, पूर्ति आदि की मृत्यु की सहज व्याख्या नहीं, सहज व्याख्या देकर अपने अस्तित्व के वास्तविक सत्य को अस्वीकार नहीं करना है- उसी जीवन की ओर.