नक्षत्र घूम रहे हैं (पंजाबी कहानी) : जसवीर सिंह राणा

Nakshatra Ghoom Rahe Hain (Punjabi Story) : Jasvir Singh Rana

'प्रकाश हमेशा अंधेरे से जन्म लेता है'-।

यह पंक्ति कॉलेज समय से ही मेरे दिमाग में अंकित थी। डायरी के पहले पृष्ठ पर भी मैंने इसे लिख रखा है।

कुछ पल पहले अलमारी से डायरी निकाल कर टेबल पर रखी है। पास ही बॉल पैन पड़ा है। कमरे की खिड़की खुली है। दस बजे डिस्कवरी चैनल पर एक प्रोग्राम देखना है। मैं एकाग्र होने की कोशिश कर रही हूं परन्तु सुरति एक स्थान पर स्थिर नहीं हो रही। कभी युद्धवीर की डैथ याद आ जाती है। कभी सुखचैन की डैथ की ओर ध्यान चला जाता है। लोगों की कही बातें दिमाग में अंकित पंक्ति से टकरा रही हैं।

“जब दो विरोधी वस्तुएं आपस में टकराती हैं तब उनके टकराव से एक तीसरी नई वस्तु जन्म लेती है।” कॉलेज में पंजाबी का एक प्रोफेसर शाही अक्सर यह उदाहरण दिया करता था।

जब इस दृष्टि से देखती हूं तो जिन्दगी उल्टे पांव चलती दिखाई देती है। सारे ही उल्टी बातें कर रहे हैं। जब मैंने सीधी बात कही। हर कोई अंदर तक जल-भुन गया। ससुराल की दहलीज लांघ कर मायके आने तक। औरतों ने पूरा जोर लगा लिया। हर तरीका आजमाया लेकिन सफलता ना मिली। पता मुझे भी है। हस्बेंड की मौत के बाद यदि कोई औरत नहीं रोती, उसके भीतर कुछ भी घट सकता है। जबकि सुखचैन की डैथ के साथ मेरे भीतर जो घटा, वह सब से अलग था। उसकी डेथ से पहले जो कुछ घटा, वह भी सबसे अलग था।

“ना ये…ना वो…। कुछ भी घटना नहीं चाहिए।” मेरे होंठ हिले।

नजर बार-बार टी.वी. स्क्रीन की ओर जा रही है। प्रोग्राम आने में अभी काफी समय है। क्यों ना डायरी…।

टेबल से डायरी और बॉल-पैन उठा कर फिर से बेड पर आ बैठी। यह डायरी मेरी हमराज है। आज तक जो भी घटा, सब कुछ इसमें दर्ज है। ठीक है या गलत, पता नहीं। एक अजीब-सी आदत का शिकार हूं। नया पृष्ठ लिखने से पहले पिछली सारी डायरी पढने लगती हैं। कई दिनों से कछ नया लिखना चाह रही हूं। परन्तु सबसे पहला पृष्ठ खोल कर बैठ गई। जिस पर यह पंक्ति लिखी हुई है। पढ़ते हुए मेरे भीतर कुछ सरकने लगा। उसे पलट कर अगला पृष्ठ पढ़ने लगी। सबसे ऊपर तारीख लिखी है:

1 दिसंबर- दीवार पर बॉडी बिल्डर का पोस्टर मुझे तंग कर रहा है। मेरी सुरति में सुखचैन का कमजोर शरीर घूम रहा है। जिस दिन पटियाला घूमने गए थे। वहीं से यह पोस्टर लिया था। मेरे जोर देने पर वह डंबल भी लाया था। खींचने के लिए स्प्रिंग भी लाया, परन्तु उसने किसी को इस्तेमाल नहीं किया। उसकी ओर देख कर मेरे अंदर कुछ होने लगता। मैं उसे प्रैक्टिस करने के लिए कहती।

मेरी बात सुनकर वह चुपचाप दीवार पर लगे पोस्टर की ओर देखने लगता। मैं उसकी कमजोर बांहों की ओर देखने लगती। रात का अंधेरा सब कुछ छिपा लेता। मैं उसकी बाहों में होती। जब रात टिक जाती। कुछ टूटने की आवाज सुनाई देती। मैं लाईट जला देती। लाईट ऑफ होते ही वह आवाज फिर से सुनाई देने लगती।

वह आवाज अभी भी सुनाई दे रही है। उसी से ही मेरी नींद टूट गई। ऐसा केवल आज ही नहीं घटा, प्रति रात होता है। ग्यारह बजे मेरी नींद टूट जाती है। सुखचैन को छुट्टी बिता कर गए आज पन्द्रह दिन होने वाले हैं। नहीं, पन्द्रहवीं रात है। उस संग बितायी रातें, रात को सपना बन कर मेरी नींद तोड़ जाती है।

कुछ पल पहले देखा सपना अभी भी आंखों में तैर रहा है। जब मेरी आंख खुलीं। बांहों की सुहाग-चूड़ियां खनक रही थी। कुछ पल पहले ये बांहें सुखचैन की बांहों में….। जब आंखें उठा कर देखती हूं। कमरे की सफेद दीवार गुलाबी दिखाई देने लगती। जानती हूं, यह सच नहीं है। यह भी जानती हूं, ऐसा घटना ही था। अभी तो कोई ख्वाहिश भी पूरी नहीं हुई थी कि सुखचैन की छुट्टी समाप्त हो गई। जिस दिन वह गया, उस दिन पहली बार मुझे फौज की नौकरी अच्छी नहीं लगी थी। उस समय जरूर अच्छा-अच्छा लगा था। जब चलते समय सुखचैन ने कहा, ‘डोंट वरी जशन! जाते ही मैं दो महीने की छुट्टी ले कर आने की प्लानिंग करूंगा।”

कब छुट्टी मंजूर होगी? कब वह आएगा और कब यह सपना आने से हटेगा, क्या मालूम। सारी रात तन्हाई से लड़ती हूं। बेड पर जाने से पहले अजीब हालत हो जाती है। काफी समय ड्रेसिंग-टेबल के सामने खड़ी रहती हूं। लाईट बंद करते ही मेरे अंदर कुछ बुझने लगता है। सुबह होते ही फिर खिल जाती हूं। घर का काम खत्म कर, मेकअप कर, तैयार हो जाती है। होंठों पर लिस्टिक। चेहरे पर पाऊडर। हाथ-पैरों पर लिस्टिक से मैच करती नेल-पालिश। इस वक्त सारा मेकअप गायब है। गलाबी रंग का सट और सारे गहने उतार कर अलमारी में रख दिए परन्त परफ्यम की गंध अभी भी आ रही है। मेरी कलाइयों की चूड़ियां डायरी से टकरा रही हैं। बॉल-पैन चल रहा है। दिमाग थोड़ा रिलैक्स हो रहा है।

5 दिसंबर- मम्मी-पापा दस मिनट पहले ही कमरे से गए हैं। मैंने दोनों को कभी सास-ससुर नहीं समझा। मम्मी-पापा ही कहती हूं। उन्होंने मुझे कभी बहू नहीं समझा हमेशा बेटी कहते हैं। मैंने हमारी मैरिज की मूवी लगाई थी। पम्मी-पापा को भी बुला लिया। जब मूवी खत्म हुई। डिस्क निकाल कर सी. डी. प्लेयर ऑफ कर दिया। जबकि टी.वी. स्क्रीन पर मुझे काफी समय तक सुखचैन दिखाई देता रहा। आज दिन में कई पड़ोसनें आईं। सभी ने हमारी एलबम देखी। उनसे अधिक ध्यान से मैंने उसे देखा। किसी फोटो पर अपनी पीठ या कंधा देखने के लिए कोई पड़ोसन उतावली में पन्ना पलट देती तो मैं उसे रोक देती। दुबारा उसे पलट कर देखने लगती। मेरी नजर सुखचैन की तस्वीर पर जम जाती। एलबम देखते हुए औरतें मेरी ओर इशारा कर, एक-दूसरे को कुहनी मारती। परन्तु मैंने किसी की परवाह न की। अब भी एलबम निकाल कर बेड के सिरहाने पर रख दी है। यदि सुखचैन को नहीं, उसकी तस्वीरें तो देख सकती है। सोने से पहले एक बार अवश्य देख लेती हूं।

10 दिसंबर- “तुम्हें एक दिन जान से मार कर ही छोडूंगा मैं। कहां साली चुडैल पीछे आ पड़ी है। जिन्दगी तबाह कर के रख दी मेरी। साली हर रोज आ जाती है।” पापा द्वारा मम्मी को दी जाने वाली गालियां अभी भी उसी तरह सुनाई दे रही हैं।

सुबह साढ़े पांच बजे का वक्त था। जब ऊंची-ऊंची लड़ने की आवाज सुन कर मैं चौंक उठी। आंखें मलते ही खिड़की से बाहर झांका। अभी मुंह-अंधेरा था। क्यों लड़ रहे हैं दोनो? कुछ समझ ना आया। बेड पर आंखें मूंदे कितनी देर तक सुनती रही। काफी देर बाद मम्मी की आवाज आई, “धीरे बोलो। बहू ने सुन लिया तो क्या कहेगं कुछ…।”

“मैं धीरे नहीं बोलता। मुझे किसी से क्या…।” पापा की आवाज का स्वर मुझे हैरान कर गया।

अभी तक हैरान हूं। उनके बीच लड़ाई क्यों हुई? दिन चढ़े, दोनों एक-दूसरे से घुटे रहे। परन्तु लड़ाई का पर्दा रखने की कोशिश दोनों ओर से जारी रही। दस बजे चौंकी वाले डेरे सतिसंग था। मम्मी तैयार होकर वहीं चली गई। पापा दालान में कुर्सी रख बैठ गए। सामने रखे टेबल पर शीशा, कैंची, कल्फ और ब्रुश रख लिया। जब तक मम्मी वापस लौटी, पापा की तराश दाढी काली हो चुकी थी। साधरण-सी बात मुझे पता नहीं क्यों असाधरण प्रतीत हो रही थी।

12 दिसंबर- आज सुखचैन की पहली चिट्ठी आई। उसे गए महीना हो गया। महीने में सिर्फ एक चिट्री। इंतजार करते हए मेरी आंखें थक गईं। डाकिए के आने-जाने का वक्त भी याद हो गया। आज जब वह हमारे घर के पास आकर रुका। मैं केबल टी. वी. पर सन्नी दयोल की ‘बॉर्डर’ फिल्म देख रही थी। गीत चल रहा था, ‘संदेशे आते हैं, बड़ा तड़पाते हैं।” फिल्मी अभिनेता एक-एक करके फौजी वर्दी पहन कर स्क्रीन पर उभरते हैं। हाथों में पत्नी या प्रेमिका की चिट्ठी। मेरे ख्यालों में सुखचैन लहरा रहा था। जब बाहर साइकिल की घंटी बजी। मैंने वॉल-क्लॉक की ओर देखा। ….डाकिया। मैं दरवाजे की ओर भागी। नंगे पैर ही। वह मुझे चिट्ठी थमा कर आगे निकल गया। पता नहीं, कितनी बार चिट्ठी को पढ़ चुकी हूं। लिफाफे में दो कागज थे। एक मम्मी-पापा के लिए, दूसरा मेरे लिए। पढ़ते ही रूह झूमने लगी। एक-एक अक्षर याद हो गया। लिखा था-

माई डियर जशन,

प्यार!

मेरा नाम ही सुखचैन है। वैसे मेरे पल्ले ना सुख है ना ही चैन। मेरा सुख तो तुम्हारे पास है। मेरा चैन तुम छीन कर ले गई हो। रात को नींद नहीं आती। तेरा चेहरा आंखों के सामने घूमता रहता है। सुबह नींद नहीं खुलती। पी. टी. के लिए तैयारी में लेट हो जाता हूं। साहिब डांट लगाता है। जब रात आती है। तुम्हारा चेहरा फिर आंखों में उतरने लगता। साहिब की झिड़क भूल जाती है। तुम्हारे साथ बिताई रातें….।

आगे उन बातों का जिक्र था। जो सपने में आकर मेरी नींद उड़ा जाती हैं।

16 दिसंबर- एक अजीब-सा डर मेरे भीतर उतर गया है। आज दिन में पापा की जो हालत देखी। जिन्दगी में पहले किसी की नहीं देखी। सुबह दस बजे का वक्त था। घर का कामकाज खत्म कर, मैं आराम कर रही थी। मम्मी सतिसंग जाने की तैयारी में थी। उस रात भी पापा की लड़ाई हुई थी। लड़ाई की जड़ कहां थी? सोच-सोच मेरा सिर फटने लगा। जब पापा ने वह हरकत की। उस वक्त तो मेरा दिमाग ही हवा में तैरने लगा। छत की मुंडेर की ओर उंगुली किए पापा के मुंह से अजीब-सी आवाज निकली थी, “हैं…! वे मुंडेर पर चिड़ियां बैठी है। नहीं। नहीं। वह मुंडेर नहीं। वह तो लंबी-सी स्टेज है। वैसे भी वो चिड़ियां कहां हैं! वह तो लड़कियां हैं। आज फैशन परेड़ है। एक मिनट ध्यान से सुनो। नुसरत फतेह अली गा रहा है। आफरीन, आफरीन।”

आवाज धीमी थी। परन्तु कमरे में लेटे हुए, मैंने सब सुन लिया। मुझे करंट-सा लगा। उठ कर आंगन में आ गई। सिर का दुपट्टा ठीक करते हुए मम्मी जहर घोल रही थी, “दिमाग हिल गया है तुम्हारा।”

“क्या हुआ मम्मी?”

मेरे पूछने पर, मम्मी-पापा की हालत रंगे हाथ पकड़े गए चोर समान हो गई।

“दौरा पड़ता है इन्हें….।” बाहर का गेट पार करते हुए मम्मी के जवाब ने मुझे दुविधा में डाल दिया।

“दौरा! कैसा दौरा?” मन ही मन सोचते हुए मैं कमरे में जाने लगी। मेरी नजर पापा के चेहरे पर जा पड़ी। कैसा चेहरा था वह? देख कर मुझे दौरा पड़ने लगा।

19 दिसंबर- मेरी जान सुखचैन

बहुत-बहुत प्यार!

मुझे ही मालूम है, तुम्हारे बिना कैसे रह रही हूं। परन्तु एक तुम ही हो, बस एक तुम। एक महीने में तुम्हें दस चिट्ठियां पोस्ट की परन्तु तुम्हारी केवल दो चिट्ठियां ही आई या कुछ फोन आए। वैसे भी अपनी मैरिड लाईफ के खाते में पन्द्रह दिन-रात से अधिक कुछ नहीं बोलता। क्या बात है सुखचैन? क्या तुम्हें मुझ से प्यार नहीं? तुम्हारे बिना मैं तो सारी रात….!

मैंने खत यहीं पर खत्म नहीं किया। इसके आगे उन बातों का जिक्र किया, जो सपने में मेरी नींद तोड़ देती हैं। सुखचैन को चिट्ठी लिखने के बाद दिल से बोझ-सा उतर जाता। इस बार चिट्ठी में दो बातों का जिक्र विशेषतौर पर किया। एक तो पापा को कह कर ‘कोड-लैस’ फोन मंगवाने के बारे में लिखा। उनके सामने फोन सुनना मुझे मुश्किल लगता है। जितनी बार भी सुखचैन का फोन आता, कोई न कोई पास ही खड़ा होता। फोन सुनते ही सारा अर्सा मुझे उनकी मौजूदगी चुभती रहती। कभी खुल कर बात नहीं कर पाती। दूसरी बात, मैंने पापा-मम्मी की लड़ाई का जिक्र कर, पापा के दौरे के बारे में पूछा और बताया।

21 दिसंबर- सुबह का वक्त है। हाथ-मुंह धो कर सीधी डायरी लिखने लगी। कमरे का दरवाजा भिड़ा रखा था। प्लेट से ढका चाय का गिलास टेबल पर पड़ा था। चाय पीने से ज्यादा भीतरी भावनाओं को बाहर निकालना जरूरी है। यदि ऐसा ना किया तो मैं पागल हो जाऊंगी। मैं ही जानती हूं, रात कैसे गजारी है। सारी रात संकटग्रस्त रही। डरावनी फिल्मों से अधिक डरावने सपने डराते रहे। सपने में टूटी हड्डियों की बारिश….।

(इससे आगे कुछ नहीं लिखा था। उस दिन सास द्वारा अचानक दरवाजा खटखटकाने के कारण डायरी बंद कर दी थी।)

23 दिसंबर- दिमाग में कई स्व-विरोधी बातें फंसी हुई हैं। इन बातों में सीधा-उल्टा पासा कौन-सा है? समझ में नहीं आता। उस समय मैं कमरे में बैठी सी.आई.डी. सीरियल देख रही थी। जब मॉडर्न कॉलोनी की राजी आई। हमारे परिवार के साथ उनका खासा प्यार है। मम्मी ने बताया। मैं उससे पहली बार मिल रही थी। मम्मी के पैर छू कर उसने पांच मिनट तक बातें कीं। फिर मेरे पास आ बैठी। जान-पहचान करवा कर मम्मी चाय बनाने चली गई। मेरा ध्यान राजी में कम और सीरियल में अधिक था। “जशन! मेरा हस्बैंड भी फौज में है।” उस की बात ने मेरा ध्यान खींचा।

अब मैं उसके साथ पूरी तरह से खुल गई। हस्बेंड का फौज में होना बहुत गर्व की बात थी। फौजियों की कुर्बानी को सलाम करना बनता है। अगर फौजी सरहद पर खड़े होने से इन्कार कर दे तो सारा हिन्दुस्तान अपने पैरों से उखड़ सकता है। उसकी बातें सुन कर मुझे भी सुखचैन पर गर्व महसूस हुआ।

“तुम्हारी तो नई-नई शादी हुई है। जिस्म का युद्ध जीतने के लिए क्या करती हो?” राजी की इस बात ने मुझे चीर दिया। मैं दंग रह गई। सुन्न और जड़। अभी संभल भी नहीं पाई थी कि वह कहने लगी, “मैंने तो दो लड़कों के साथ चक्कर चला रखा है। तुम भी कोई…।”

“शटअप राजी! चली जाओ यहां से प्लीज।” मैंने उससे कहा। वह एकदम उठ कर चली गई। चाय के खाली कप मम्मी कब ले गई, मुझे पता नहीं। ख्याल आते ही मेरे मुंह से निकला, “क्रैक्टरलेस…।”

आज अखबार में जवान पढ़ी-लिखी लड़कियों को संत के आश्रम में दान दिए जाने की खबर सुन कर भी मेरे मुंह से यही शब्द निकला था। इस का क्या मकसद? लड़कियां वहां क्या करती हैं? लोगों की मति मारी गई है?

“मति तो अखबारवालों की मारी गई है। जो करनी वाले संत जी पर झूठे इल्जाम लगा रहे हैं। …कहां चैन मिलेगा इन पापियों को।” मम्मी संत आश्रम की वकालत करते हुए मुझे नसीहत करने लगी, “जशन! तुम यह अखबार मत पढ़ा करो। यह बंदे की बुद्धि भ्रष्ट कर देते हैं। संत तो महापुरुष है। महान! तेजस्वी। इस इतवार को चौंकी वाले डेरे से उन के आश्रम का दर्शन दीदार करने के लिए संगत जा रही है। मैं भी आ रही हूं स्वामी!”

मैं इस बात पर हैरान थी। चौंकी वाला डेरा और संत जी का आश्रम। पापा की नजर में ‘कोठा’ है। परन्त इस बार पापा ने भी मम्मी को तरन्त सहमति दे दी, “जाओ तुम भी देख आओ अगर तुम्हारी रूह करती है तो..।”

25 दिसंबर- आज हमारी मैरिज को पुरा सवा महीना हो गया है। आज मैंने सहाग-चडियां उतारी। चडियां उतारने की रस्म शम्सपर में ब्याही मेरी ननद ने की। मैंने लाल रंग की चूड़ियां पहन ली। शाम को चार बजे की बस से वह गांव चली गई। दोपहर में आटा गूंथते हुए मेरी चूड़ियां छनकती रहीं। लेकिन कोई सुनने वाला नहीं था। आज अगर सुखचैन यहां होता। ये चूड़ियां टूट जातीं। कुछ पल बाद खुद ही चूड़ियों पर निगाह मार लेती। खुद ही खुश होती, फिर खुद ही उदास हो जाती।

28 दिसंबर- पापा ने शराब पी रखी है। नशे का असर है या पता नहीं क्या बात। पापा का चेहरा रंग बदल रहा है। वैसे तो मैं किसी से डरती नहीं। परन्तु आज एक अजीब-सी घबराहट हो रही है। पापा का व्यवहार कुछ बदला-सा महसूस हो रहा है। चाय पकड़ाते हुए मैंने महसूस किया। जैसे उन्होंने मेरी उंगुलियों को टच करने की कोशिश की हो। पास से गुजरते हुए मुझसे सट कर निकलने की कोशिश। जिस समय मैं कमरे में लेटी थी। दरवाजे की दरारों से झांकने की कोशिश। मेरा अनुमान गलत भी हो सकता है। लेकिन मैंने ऐसा महसूस किया। उस समय वैसे पापा की चारपाई बरामदे के पास वाले कमरे में थी। कमरे में बैठी मैं सुखचैन को खत लिखने के बारे में सोच रही थी। यह फीलिंग उससे साझी करने का दिल चाह रहा था।

31 दिसंबर- आज साल की आखिरी रात है। यह भी रात बारह बजे के बाद बदल जाएगी। बदलाव आवश्यक है। परन्तु मैं एक ही स्थिति भोग रही हूं। हर रोज अकेलापन। सुखचैन को पिछली चिट्ठी के साथ ही नए साल का कार्ड पोस्ट कर दिया था। बुर्ज बघेल सिंह वालों को बाद में पोस्ट किया था। वहां से भी कितने कार्ड आए। लेकिन सुखचैन ने कार्ड तो क्या, चिट्ठी तक का जवाब नहीं दिया। यदि चिट्ठी नहीं भेजनी थी तो फोन ही कर लेता। जो नंबर वह देकर गया है, वह लगता ही नहीं। कंप्यूटर रोंग नंबर कहता है। मैंने बहुत कोशिश की। जब ना लगा तो मैंने बुर्ज बघेल सिंह वाला को फोन करके ‘हैप्पी न्यू ईयर’ कहा। परन्तु असली मजा तो सुखचैन के साथ…। रात के बारह बजने वाले हैं। सारी दुनिया फोन से चिपकी हई है। मैंने टी.वी. लगा लिया। अकेले बैठी चैनल पर चैनल बदल रही हूं। हर चैनल पर नए वर्ष का प्रोग्राम चल रहा है। परन्तु मेरा मन कहीं नहीं लग रहा। सोनी चैनल पर भीड़ चीख रही है। लड़के-लड़कियां गले मिल रहे हैं। शोम्पेन उड़ रही है। लाईट बंद। अंधेरा। बारह बज चुके हैं। आवाजें उभर रही हैं… हैप्पी न्यू ईयर…।” ।

1 जनवरी- नए साल का पहला दिन ही संकट-सा बीता। अभी रात बाकी है। अंदर से चिटकनी लगा रखी है। मेरा ससुर शराब पिए घूम रहा है। अब मैं उसे पापा नहीं कह सकती। वह इस शब्द के योग्य ही नहीं। मेरी सास भी मम्मी कहलवाने के योग्य नहीं। दोनों शैतान हैं। पहले कमरे में पता नहीं क्या घुसर-पुसर करते रहे। सुबह ससुर को चाय का गिलास थमाते हुए मैंने झिझकते हए कहा, “पापा! हैप्पी न्यू ईयर….।”

“हैप्पी न्यू ईयर, जशन! यह कार्ड मैं तुम्हारे लिए …।” कहते हुए उसने कार्ड अपने तकिए के नीचे से निकाल कर मेरी ओर बढ़ाया और तिरछी नजर से मुझे देखा। उसका ‘बेटा’ की जगह पर ‘जशन’ कहना भी रड़क गया।

“ओ नो….नो…।” कमरे में आकर जब मैंने लिफाफा खोल कर देखा। मेरी चीख निकल गई। नंगी तस्वीरों वाला कार्ड था।

दोपहर बाद मेरी सास आश्रम से वापस आई। वह संत जी की महिमा का गुणगान करने लगी। मैं उसके गले लग कर रोने लगी। उसने कारण पूछा। मैंने वह कार्ड निकाल कर, उसके सामने रख दिया। कार्ड के टुकड़े-टुकड़े कर, चूल्हे में फेंकते हुए बोली, “चूल्हे में डाल। इसे तो दौरा पड़ता है।”

सास की बात सुन कर मुझे झटका लगा। बुर्ज बघेल सिंह वाला से फोन आ जाने पर मैं कुछ नॉर्मल हुई। वे सभी मुझे ‘हैप्पी न्यू ईयर’ कह रहे थे। मैंने हंसने की कोशिश की परन्तु मेरे दिमाग में ससुर का दिया कार्ड घूम रहा था।

4 जनवरी- काफी रात बीत चुकी है। अब सोना ही होगा। सो गई तो वही सपना आएगा। सोचते ही मैं चौंक गई। दो रातों से एक ही सपना बार-बार आ रहा है। सपना भी क्या है? पिछली घटी बातों की परतें खोल कर रख देता। काफी अपसेट हो गई हूं मैं। जो बातें कब्र बन चुकी हैं, उनकी परछाई सुखचैन पर नहीं पड़ने देना चाहती। परन्तु मेरे ससुर की बदली निगाह…।

सारी रात सपने में एक ही आंख दिखाई देती रही। कभी वह नीली हो जाती, कभी सफेद। कभी बड़ी हो जाती या छोटी। हवा में तैरती आंख चेहरे की बूढ़ी साईड में उभर आती है। अंदर हलचल होती। बूढ़ी साईड से गायब हो कर जवान साईड में उभर आती। मुझे जिस्म में कुछ चुभता महसूस होता। धमाके की आवाज आती। आंख से खून की धारा बह निकलती। चीखें मारते हए चेहरा खन से लथ-पथ हो जाता। दिखाई न देता। परन्त यद्धवीर की आवाज मैं लाखों में से पहचान लेती हूं। वह जोर-जोर से कहता, “जशन! इसे इस तरह से नहीं देखना चाहिए था।”

आवाज सुन कर मेरी नींद टूट गई। याद में युद्धवीर घूमने लगा। कॉलेज में घटी घटना मेरे सामने साकार होने लगी। एक लड़का मुझे रोज छेड़ने लगा। पहले मैंने उसे इग्नोर किया। एक दिन मेरे साथ ही बस में चढ़ गया। भीड़ होने के कारण मैं ड्राईवर की सीट के पास खड़ी हो गई। वह भी मेरे पास ही खड़ा हो गया। एक-एक मिनट के बाद वह मेरी ओर फूंक मारता। हवा मेरी गर्दन से टकराती। जब मैं पीछे की ओर देखती, वह आंख दबा कर मेरी ओर देखता रहता। लगातार दो दिन वह इसी तरह करता रहा। तंग आ कर मैंने यह बात युद्धवीर को बताई। अगले दिन कॉलेज में बातें हो रही थीं. “किसी लडके ने ईंट मार कर बंटी की आंख फोड डाली।”

“मैंने फोड़ दी उसकी आंख, उसे इस तरह नहीं देखना चाहिए था, जशन!” युद्धवीर की बात सुन कर मैं दंग रह गई।

“नहीं, नहीं। मुझे इस तरह से नहीं सोचना चाहिए।”

7 जनवरी- बाहर चांदनी रात है। मैं अंदर बैठी, एलफ चैनल पर बंबू मान का गीत चल रहा था, ‘चन्न चानणी रात महरमा…टिमटिमाते तारे…।’ गीत के साथ उसका वीडियो चल रहा था। उस लड़का-लड़की को देख कर मुझे युद्धवीर का ध्यान आ गया। दूसरे ही पल मैंने अपना ध्यान सुखचैन की ओर मोड़ लिया। मैं बाहर छत पर आ गई। आसमान की ओर देखा, चांदनी मेरी चूड़ियों पर पड़ रही थी। अभी मैंने जी भर उन्हें देखा भी नहीं था कि दूसरे कमरे से खांसने की आवाज आई। मेरा ध्यान चांद के दाग की ओर चला गया। आंखें रड़कने लगी। मैं सोचने लगी। यह किस का दाग है? चरखा कातती बुढ़िया का, ग्रहण का या फिर गौतम ऋषि द्वारा फेंके गए गीले कपड़े का? सोचते हुए ही मैं अंदर ड्रेसिंग टेबल के पास आकर खड़ी हो गई। क्या हुस्न है मेरा! एक पल के लिए मैंने खुद को कोहकाफ की परी समझा। दूसरे ही पल लगा, जैसे पीछे से दरवाजा खुला। मेरा ससुर इन्द्र दबे पांव अंदर आ रहा था। मैंने पलट कर देखा। पीछे कोई नहीं था। नजर का भ्रम था।

11 जनवरी- नहीं जशन! यह तुम्हारा भ्रम है। पापा तो…।” सुखचैन से सिर्फ इतनी ही बात हुई।

उसके बाद फोन कट गया या काट दिया गया। लिंक टूट जाने से लंबी टोन कानों में सुई-सी चुभने लगी। रिसीवर कान से लगाए मैं बहुत देर तक खड़ी रही। रिसीवर रख कर भी फोन का इंतजार करती रही लेकिन फोन ना आया। निराश-सी कमरे की ओर बढ़ने लगी। आंगन में बैठे मेरे सास-ससुर किसी बात पर हंस रहे थे, मुझे देखते ही चुप हो गए। मेरा मन उचाट हो गया। बहाना बनाते हुए मैं वाशवेसिन पर झुक गई। सास से कुछ कहते हुए मेरा ससर हंस रहा था। फोन सनते हए भी वह हंस रहा था। फोन पास के कमरे में है। फोन बजते ही उन्होंने उठा लिया. पता नहीं क्या गोल-गोल बातें की? फिर रिसीवर मुझे थमा दिया। मुझे सुखचैन से बहुत बातें करनी थी। मन भरा हआ था। कितनी देर बाद उस का फोन आया था। डेढ बात करते ही उसने फोन काट दिया। बात करते हुए भी सुखचैन हंस रहा था। उसकी हंसी, फोन की लंबी टोन, सब आपस में गडमड्ड हो रहे थे।

13 जनवरी- मेरी जान सुखचैन

बहुत-बहुत प्यार।

युद्ध केवल वह नहीं होता जो सरहदों पर लड़ा जाता है। युद्ध के अन्य रूप भी होते हैं। युद्ध केवल फौजी नहीं लड़ता, फौजण भी लड़ती है। मैं अखबार पढ़ती हूं, टी.वी. देखती हूं। मुझे मालूम है, आजकल सरहद पर कोई युद्ध नहीं हो रहा। मगर अपने घर में युद्ध छिड़ चुका है। मैं हर रोज लड़ती हूं।

इसके बाद मैंने ससुर की हरकतों का जिक्र किया। सास के पाखंड के बारे में लिखा। धागे-तबीत की राख। मुझसे सुखचैन की तस्वीर छिपाती रहती। पता नहीं, उसे किस बला से बचाना चाहती है। मैंने कई बार उसे बुदबुदाते हुए सुना है, मेरे बेटे को बचा ले दाता।”

यदि मूों के सींग होते तो मेरी सास बारह सिंगी होती। बचने की आवश्यकता तो मुझे है। कल से यह आवश्यकता अधिक महसूस होने लगी है। मेरी सास संत जी के प्रवचन का चैनल लगा कर रखती है। उसके जाते ही ससुर रिमोट पर कब्जा कर लेता है। कल तो हद ही टूट गई। मुझ से कहने लगा, “जशन! तूने वह कंडोम का नया विज्ञापन देखा है।”

“हां देखा है। जब शम्सपुर से तेरी बेटी आती है, उसे भी दिखाया कर।” कह कर मैं रसोई में काम करने लगी।

मैं भीतर ही भीतर कितनी देर तक घुलती रही। मेरा दिमाग एकदम खराब हो गया, जब राजी अपनी आठ साल की लडकी के साथ आई। मैंने जालीदार खिड़की से उसे अपने ससुर से आंखों से इशारा करते हुए देखा। मैं बल खाकर रह गई।

राजी मेरी सास से बातें करने लगी। ससुर लड़की को टोनी की दुकान पर ले गया। वापस आया, लड़की के हाथ में चॉकलेट थी। उसे ले कर वह कमरे में आ धमका। टी.वी. ऑन कर दिया। राजी मेरी सास को बता रही थी. “देख लो बी जी। आज सुबह ज्योति फौजण मर गई। मालूम ही था, वह बचेगी नहीं।”

ज्योति फौजण कैसे मर गई। उसका पति तो ड्राईवर था। दिमाग में कई प्रश्न उठने लगे। उन्हें दिमाग से निकाल, आवेश में मैं अपने कमरे में जा घुसी। इंग्लिश मूवी चल रही थी। राजी की बेटी को गोद में बैठाए मेरा ससुर उसका मुंह चूम रहा था। उसकी आंखों में चमक थी। लड़की चॉकलेट खाते हुए टी.वी. देख रही थी। दृश्य देख कर मेरे मुंह से जोर से चीख निकल गई। आंखों के सामने अंधेरा छा गया। मैं चक्कर खा कर गिर गई।

जब होश आया। राजी, उसकी बेटी और ससुर, तीनों घर से गायब थे। सास मेरे तकिए की ओर खड़ी होकर हवा में राख बिखेर रही थी।

15 जनवरी- आज बुर्ज बघेल सिंह वालों की बहुत याद आ रही है। कोशिश की, इन्हें याद ना करूं। यह मेरा मायका ही नहीं, युद्धवीर का भी गांव है। गांव उसी प्रकार बसता है परन्तु अब युद्धवीर वहां नहीं रहता। जहां वह रहता है, वहां तो…। उफ! यह युद्धवीर….!

जिन्दगी भी अजब शै है। जिस वक्त चैनल बदलती है, सब कुछ बदल जाता है। जिसका नाम सांसों में घुला हो, उस नाम से ही डर लगने लगता है। अब मैं बुर्ज बघेल सिंह जाने से कतराती हूं। मैरिज के बाद पहली बार जाने पर पुरानी घटनाएं याद आने लगी थी। बड़ी मुश्किल से मैंने खुद को संभाला था। दसवीं की फेयरवेल के दिन युद्धवीर ने पहली बार मुझे लैटर थमाया था। घर आकर पढ़ा, उसकी पहली ही पंक्ति थी, “जशन! प्यार ही जिन्दगी है।” जवाब में मैंने इसी पंक्ति से अपना लैटर शुरू किया। उसके बाद खतों का सिलसिला चल निकला। हम ने मैरिज कर, एक हो जाने के वायदे किए। परन्तु हमारी इच्छानुसार कुछ नहीं हुआ। जो भी हुआ, परिस्थितियों की उपज रहा। यदि युद्धवीर फौज में ना गया होता तो कर्ज में डूबे उसके पिता खुदकुशी कर लेते।

मैं स्कूल पास कर अब कॉलेज जाने लगी। युद्धवीर सरहदी एरिया में तैनात था। जिस दिन छुट्टी आता, सबसे पहले मुझे मिलता। हम खंडर हुए एक घर में बैठ कर खूब बातें करते। समय बीत जाता। छुट्टी खत्म होने पर वह चला जाता। मैं उदास हो जाती। वह अक्सर मुझसे कहता, “जशन! मेरी पढ़ाई बीच में ही छूट गई। प्लीज, तुम अपनी पढ़ाई मत छोड़ना। मेरे हिस्से का भी तुम ही पढ़ना।”

मैंने उसका हिस्से का पढा या नहीं. पता नहीं। लेकिन मैंने बी. ए. परी कर ली। युद्धवीर के साथ मुझे फौज से भी प्यार हो गया। जब भी किसी फौजी को देखती, मुझे युद्धवीर की याद आ जाती।

जिसे भलना चाहती हैं. वह याद आता रहता है। जिसे याद करना चाहिए. वह भूलता जाता है। नहीं-नहीं…। सुखचैन को कैसे भूल सकती हूं? उसके द्वारा तो फिर जिन्दगी से जुड़ी थी।

18 जनवरी- मैं पूरी तरह से चौकस हूं। इन पर अब रत्ती भर भरोसा नहीं रहा। कुछ भी कर सकते हैं। नया खरीदा प्लॉट और तीस हजार कैश मेरे नाम करवाने का लालच दिया। सास ने मिन्नत की। ससुर पैरों में गिर गया। लेकिन उसका गुनाह माफी योग्य नहीं। फोन कर दिया है। पापा गांव से चल चुके हैं। डायरी लिख कर, खुद को हल्का महसूस करना चाहती हूं। बार-बार बंद की चिटकनी की ओर देख कर तसल्ली करती हूं। अजीब हालत हो गई है। चिटकनी खुलने या बंद करने की आवाज सुनी नहीं जा रही।

चिटकनी तो रात में अंदर से बंद थी। मुझे नींद में चल रहा सपना याद है। सुखचैन का हाथ मेरे बालों में घूम रहा था। जब उसका हाथ मेरे चेहरे पर आया। मुझे टी.वी. चलने की आवाज सुनाई दी। मेरी नींद टूट गई। मैंने धीरे से आंखें खोलीं। कमरे में मद्धिम रोशनी। स्क्रीन पर ब्लू फिल्म चल रही थी। सी. डी. प्लेयर की चलती नंबरिंग देख कर मैं सस्पैंस में पड़ गई। इसका मतलब ‘डिस्क’ चल रही है। एक पल के लिए तो भूल ही गई कि मूवी चलाने वाला हाथ तो मेरे चेहरे पर रेंग रहा है। मैं बिजली की फुर्ती से उठी। ऊपर झुके साये को धक्का दिया। वह परे जा गिरा। मैंने भाग कर पहले टी. वी. बंद किया। साथ ही ट्यूब का स्विच दबा दिया। मेरा ससुर ही था। वह उठ कर फिर मेरी ओर बढ़ा। मेरा दिमाग घूम गया। मुझे जूडो ट्रेनिंग का एक पैंतरा याद आ गया। मैंने उसे टांग मार कर गिरा दिया। उसके गुप्तांग पर तीन-चार बार लातें मारी। उसकी सांस रुकने लगी। मैं बुरी तरह से हांफने लगी। उसे टांगों से घसीटते हुए बाहर आंगन में जा पटका। फर्श पर गिरा कंडोम मैंने उठा लिया। डिस्क बाहर निकाल, मैं बेड पर जा बैठी। दीवार से टेक लगा ली। काफी देर के बाद मेरी सास की आवाज सुनाई दी। मेरे दिमाग में आंधी चलने लगी। ससुर कमरे में कैसे दाखिल हुआ। क्या पहले से ही कमरे में था? कहां छिपा बैठा था? मुझे बताया गया, वह शाम की बस से मेरी ननद के घर गया है। इतनी बड़ी साजिश। इसका मतलब मेरी सास भी इसमें?

20 जनवरी- कल सुबह पहली बस से जाने का फैसला हो चुका है। मैंने दोनों सबत मम्मी को पकडा दिए। मम्मी ने पापा को दिखाए। आगे भाई और भाई ने भी देखे। पापा ने मेरे सास-ससुर की वो बेइज्जती की कि बस….।

मैं तो यह सोच कर मरी जा रही थी कि सुखचैन का सामना कैसे करूंगी? कैसे उसे सब कछ बताऊंगी? घरवालों को बताने से पहले मेरी यही हालत थी। लेकिन सब कुछ बताना पड़ा। यदि ना बताती तो दिमाग में…।

दिमाग में गेट की शक्ल उभर रही है। शहीद युद्धवीर सिंह यादगारी गेट (बुर्ज बघेल सिंह वाला) गांव में दाखिल होते ही मैं यह इबारत अवश्य पढ़ती। वापसी में भी इसे पढ़ते हुए आंखें भर आतीं। जिस दिन फौजी गाड़ी में युद्धवीर की डेड-बॉडी गांव आई। देखने के लिए सारा इलाका आ जुड़ा। सभी की आंखें नम थीं। उसके घर वालों की हालत सभी समझ रहे थे। मेरी हालत समझ से बाहर थी। उसकी मौत की खबर सुनते ही मुझे गहरा शोक लगा। सब कुछ देखते, सुनते-समझते हुए भी मैं खुद को संभाल नहीं पा रही थी। ना मैं आखिरी बार युद्धवीर का चेहरा देख पाई और ना ही खुल कर रो सकी और ना मरने वाले से अपना रिश्ता किसी को बता सकी। उसके दाह संस्कार के समय मैं उस खंडरनुमा घर में खड़ी रो रही थी। शमशान से उठने वाला धुंआ मेरे भीतर एकत्रित होने लगा।

जिस दिन गांव में युद्धवीर की याद में गेट बना। सब से अधिक मुझे गर्व महसूस हुआ। उसकी कुर्बानी की बातें मैं सिर उठा कर सुनती। उसके जल्दी चले जाने की कसक मुझे कचोटती रही। दुबारा जिन्दगी से जुड़ने के लिए मुझे बहुत मानसिक संघर्ष करना पड़ा। घरवाले मैरिज के लिए जोर दे रहे थे परन्तु मेरा मोह-भंग हो चुका था। कोई मेरी हालत नहीं समझ रहा था। फिर मैंने एक शर्त रख दी, “मुझे फौजी लड़के से ही शादी करनी है बस…।”

सुखचैन पर मुझे बहुत गर्व है। मैं उसकी छुट्टी पर आने का इंतजार कर रही हूं। लेकिन कल उसे किस रूप में मिलने जा रही हूं।

26 जनवरी- डॉ. सोनिक लाल से डिस्कस करने के बाद स्थिति कुछ नॉर्मल हुई। मैं तो जैसे कोमा में चली गई थी। कई दिनों के बाद सुरति लौटी। फौजी छावनी से लौटते हुए मेरी सारी शक्तियां जैसे डेड हो गई। बस का सफर….। वह हादसा….या फिर…क्या नाम दूं। समझ में नहीं आ रहा था। बस में सभी खामोश बैठे रहे। घर आ कर भी सभी खामोश हो गए। मम्मी, पापा, भाई-भाभी…सभी मुझ से दूरी रखने लगे। मेरे निकट आते ही हर चेहरा खौफ से जकड़ जाता। मैं भी उस खौफ से मुक्त नहीं थी। सबसे अधिक वार मुझ पर ही हुआ था। जिस्म से जिस प्रकार खून का एक-एक कतरा निचुड़ गया। बाथरूम से आते हुए शीशे में खुद को देख कर एक अजीब चेहरा नजर आया। काला रंग, सुर्ख आंखें। बड़े दांतों वाला जबड़ा। नीचे खोपड़ी के नीचे लिखा देखा, खतरा..।”

फौजी छावनी के अंदर भी यह शब्द कई जगह पढ़ा देखा था। पहली बस से गए और दोपहर बारह बजे छावनी जा पहुंचे। पापा ने मेन गेट पर खडे संतरी से बात की। उसका व्यवहार मझे कछ रहस्यमयी-सा लगा। पहले वह हमारी ओर देखता रहा। फिर दूर एक फौजी के साथ बातें करने लगा।

“चलिए।” कह कर वह फौजी चुपचाप हमारे आगे चल दिया।

हमें गेस्ट-रूम में बिठा कर चुपचाप ही लौट गया। कछ देर बाद जालीदार दरवाजा खोल कर एक अन्य फौजी वहां आया। उसने हमें ध्यान से देखा, फिर कहा, “आप को हमारे साब से मिलना होगा।”

मेजर साहब के ऑफिस में मेरा चेहरा पढ़ा गया। जैसे ही मैंने सुखचैन से अपना संबंध बताया। मेजर साहब की दहाड़ से सारा कमरा गूंज उठा, “व्हाट! सुखचैन की वाईफ! मैरिज…। नो…नो। यह नहीं हो सकता।”

“क्यों नहीं हो सकता?” हमारी आवाज लडखडा गई।

“क्योंकि सुखचैन एड्स का मरीज है।” लगा, जैसे मेजर ने शब्द नहीं गोलियां दागी हों।

मैं सुन्न हो गई। दिल-दिमाग जाम हो गया। कदमों की आवाज….मिलिट्री अस्पताल…एड्स पीड़ित मरीजों की लिस्ट में सुखचैन का नाम। मेरी फैली हुई आंखें…बुखार से तपा सुखचैन…। यहां तक मुझे थोड़ा-थोड़ा याद है। इसके बाद हर दृश्य पर आवाज धुंधली पड़ती गई।

9 फरवरी- वैसे तो दिन ही आसानी से नहीं बीतता। रात इससे भी बुरी बीतती है। अजीब-अजीब ख्याल आते। दिल डूबने लगता। पहले कमरे में लाल रंग का नाईट बल्ब था। स्विच ऑन करते ही हड्डियां के क्रॉस वाली खोपड़ी तैरने लगती। मैं आंखें बंद कर लेती। कानों के पास मेजर साहब की आवाज गूंजने लगी, “जब सुखचैन को एड्स था। फिर उसका मैरिज क्यों हुआ? मैरिज करने से पहले आप लोगों ने इंवेस्टीगेशन क्यों नहीं किया? कैसे पैरेंटस हो आप?”

मेजर के प्रश्नों के बीच मुझे कभी राजी, कभी मर चुकी फौजण, कभी सुखचैन की हंसी सुनाई देने लगी।

“दिमाग पर कुछ असर हुआ लगता है। लेकिन समझना जरूरी है। अधूरी जानकारी अधिक खतरनाक होती है।” सी. एम. सी. अस्पताल के डॉक्टरों की राय भी डॉ. सोनिक से मिलती है। उसकी हिदायतों के बाद मैं कुछ नॉर्मल हुई। चैकअप के दौरान कई टैस्ट हो चुके हैं। अब स्पष्ट हो गया है कि मैं भी एच.आई.वी. पॉजिटिव हूं। डॉ. के अनुसार, सफेद रंग से कम घबराहट होती है। कमरे से लाल रंग का बल्ब उतार दिया गया है। पहले दिनों से काफी नॉर्मल हो रही हूं। शायद आज रात को भी।

27 फरवरी- सुखचैन की डेथ हो गई। सुबह पांच बजे सुसराल से फोन आया था। मेरी सास ने बताया। सन कर मेरी मम्मी रोने लगी। हाथ से रिसीवर छूट गया। मैं बाहर आई। सभी गुमसुम खड़े थे। रिसीवर नीचे लटक रहा था। मैंने रिसीवर कान से लगा लिया। लंबी टोन की आवाज आ रही थी। मम्मी रोते हुई सुखचैन की मौत के बारे में बता रही थी। सभी की नजर मुझ पर टिकी थी और मेरी नजर चूड़ियों पर टिकी थी। मेरी सुरति में सुखचैन घूम रहा था। बेड पर पड़ा वह अजीब हरकतें कर रहा था। पल-पल बाद उसका हाथ गुप्तांग की ओर सरकता। फिर हवा में उठता। मुंह से चीख निकलती। हाथ दूसरे हाथ से जा जुड़ता। सिर एक ओर लटक जाता। वह ऊंट-पटांग बोल रहा था। डॉक्टर-नर्से हैरान थे। जिस दिन हमने उसे छावनी अस्पताल में देखा, उस रात से ही वह पागलों-सी हरकतें करने लगा। एक दिन भाग कर अस्पताल की छत पर जा चढ़ा। जब तक कोई उसे पकड़ पाता, उसने वहां से छलांग लगा दी।

मम्मी बता रही थी और मेरे दिमाग में तेजी से कुछ दौड़ने लगा।

कैसी स्थिति है। हस्बैंड की मौत। मेरा दाह-संस्कार के लिए जाने का दिल नहीं कर रहा। लेकिन जाना पड़ा। जाते हुए मैं चूड़ियां भी साथ ले गई।

(उफ्फ! डायरी पढ़ते हुए सांस उखड़ने लगी। भीतर से सेक निकलने लगा। हाथ भी गर्म हैं। खुद पर काबू पाया। नजर टी. वी. स्क्रीन की ओर जा रही है। प्रोग्राम आने में अभी आधा घंटा बाकी है। तब तक बॉल-पेन उठा कर ‘नया पृष्ठ’ लिखने लगी, जो शूल की तरह मेरे दिमाग में फंसा हुआ है।)

3 मार्च- आंखें झपकने पर आग की एक लकीर तेजी से गुजरती है। आंखों में सुखचैन की चिता जलने लगती है। राख उड़ने लगती है। सिर को झटकती हूं। सुरति शमशान पहुंच जाती है। मैं वापस लौटने लगी। वापसी पर अंधेरा उतर आया। कार जब गांव में दाखिल हुई, गेट पर ‘शहीद युद्धवीर’ का नाम चमक रहा था। उस पर दो ट्यूब लाईटों की रोशनी पड़ते देख, मेरी आंखों में चमक आ गई। मेरा दायां हाथ सैल्यूट की मुद्रा में जा लगा।

“कोई नहीं, अभी दिमाग पर असर है, धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।” आस-पास बिरादरी के लोग मेरी ओर देखते हुए घरों की ओर चल दिए।

मुझे चेक करने आया डॉ. सोनिक भी चला गया। पता नहीं, मैंने क्या किया और उससे क्या कहा। वह मुझे नींद का इंजेक्शन देना चाहता था। मैंने इन्कार कर दिया। मैं सारी रात सो नहीं पाई। सारे दिन की घटनाएं मेरे सामने से गजरने लगीं। औरतों की आवाजें “इसे चप ना बैठने दें। इसे रुला दो। उसकी बातें करो। इसे उसकी याद दिलाओ।”

औरतों ने सुखचैन की बहुत बातें कीं। रोती-पीटती रहीं। लेकिन मेरे अंदर कोई एहसास ना जगा। सुखचैन का चेहरा देखने का भी मेरा मन नहीं किया। वापसी पर शमशान के पास से गुजरते हुए मैंने रुमाल में लपेटी अपनी चूड़ियां जलती चिता की ओर जोर से फेंक कर मारी।

सभी समझते, मैं पागल हो रही हूं। जो औरत मुझे रोने के लिए उकसाती, मैं उसे घूरने लगती। वह नजरें झुका लेती। औरतें-मर्द उठने लगे। मुझे अंदर कमरे में लिजाया गया। मेरा दम घुटने लगा। आवाजें आ रही थी, “जवान-जहान पति की मौत तो आसमान फाड़ देती है। इसने तो पत्थरों को भी मात दे दी। पता नहीं, इसकी आंखों का पानी कहां चला गया।”

मेरी आंखें जलने लगीं, लेकिन चेहरे पर जहरीली मुस्कान फैल गई, “ना वह दहलीज के अंदर का युद्ध लड़ पाया और ना दहलीज के बाहर ही। वह योद्धा नहीं, गद्दार था। गद्दार की मौत पर कभी रोया नहीं जाता।”

मेरी आवाज किसी ने सुनी या नहीं, लेकिन रोने-चीखने की आवाजें मद्धिम पड़ने लगी।

अंतिका- डायरी इस समय अलमारी में पड़ी है। कमरे में नाईट बल्ब जल रहा है। रात के बारह बज चुके हैं। मेरी आंखों में दूर-दूर तक नींद का नामो-निशान नहीं। बेड पर पड़ी जाग रही हूं। डिस्कवरी चैनल का प्रोग्राम मेरे दिमाग में चल रहा है। फिल्मी हीरोइन जैसी शैफाली का चेहरा नजर से हट नहीं रहा। एड्स की मरीज शैफाली का इंटरव्यू देखा था। वह खुद को मरीज नहीं समझ रही थी। डायरी बंद करने के पहले मैंने ‘एड्स-एक चुनौती’ प्रोग्राम पूरा देखा था। पहले मैडिकल तौर पर एडज की पूरी जानकारी दी गई। फिर कई एड्स पीडितों का इंटरव्यू करवाया गया। मैं सबसे अधिक शैफाली से प्रभावित हुई। दिमाग में दृश्य तेजी से बदल रहे हैं।

दृश्य 1- उम्र छब्बीस साल। कटे बाल। गोरी-चिट्टी और लंबी। काली शर्ट और नीली जींस पहने, तौलिए से चेहरा पोंछते हुए शैफाली से इंटरव्यूकर्ता ने पूछा, “हैलो शैफाली। क्या आपको मालूम है कि आप को एड्स है?”

“ओह…। याह…। मालूम है। बट इससे क्या फर्क पड़ता है।” वह हंसने लगी।

रिपोर्टर ने कमेंट किया, “डॉक्टर की लापरवाही। एड्स वायरस वाला खून देने से….।”

दृश्य 2- डांस अकादमी के हॉल रुम में खड़ा रिपोर्टर पूछ रहा था, “यह जानते हुए भी कि आप को एड्स है। आप डांस सीख रही हैं…?”

“ओह यस! वॉय नॉट…। जब मुझे मालुम हआ कि मझे एडस है। मैंने मरना छोड दिया। मैं तो यह मानती हैं कि सम टाईमज दा लाईफ हैज ट बिगन फ्रॉम डैथ…।” हंसते हुए शैफाली फिर डांस का स्टैप लेने लगी।

“हां शैफाली…। कई बार जिन्दगी मौत से ही शुरू करनी पड़ती है…।” मेरे भीतर आवाज गूंजने लगी।

मैं बेड से उठी। सुरति युद्धवीर यादगारी गेट पर जा टिकी। पैरों से होते हुए एक थिरकन मेरे सिर की ओर बढ़ने लगी।

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