नहुष का पतन (कहानी) : विष्णु प्रभाकर
Nahush Ka Patan : Vishnu Prabhakar
सखि की बात सुनकर चिर-यौवना रूपसी उर्वशी खिलखिलाकर हँसी, ‘क्या सच सखि, राजा ऐसा कहते थे?’
सखि बोली, ‘उनका संकोच देखकर मेरा मन तो उलझन में पड़ गया है। इतनी बड़ी पृथ्वी का भार कैसे सहा होगा उन्होंने!’
‘पगली,’ उर्वशी ने मदिरा भरे स्वर में कहा, ‘बड़े प्रतापी, बड़े पुण्यात्मा हैं राजा; नहीं तो क्या इस शरीर को लेकर भी कोई स्वर्ग में आया है? राज्य-प्रबंध की शक्ति तो उनकी इतनी सुंदर है कि देवगण ने आप ही उन्हें अपना राष्ट्रपति चुना है। मनुष्य के लिए क्या यह गौरव की सीमा नहीं है!’
‘पर देवि, राजा तो जैसे गौरव को जानते ही नहीं। देवों से कहते थे कि आपको भला राजा की क्या जरूरत पड़ सकती है। यहाँ ऐसा कौन हो सकता है जो प्रबंध की अपेक्षा करे!’
‘यह उनकी उदारता है, सखि! वे महान् हैं।’ कहते-कहते उर्वशी का वक्षस्थल कुछ उभरा, आँखों की तरल मादकता कुछ फीकी पड़ी, जैसे पूर्ण चंद्र के ऊपर से बादल का टुकड़ा गुजर गया। विस्मित-चकित सखि क्षण भर के परिवर्तन से विमोहित सी बोली, ‘क्यों देवि, यह अवसाद कैसा?’
व्यर्थ मुसकाने की चेष्टा में ऊपर देखते-देखते उर्वशी ने कहा, ‘कौन जाने, देवराज कहाँ हैं इस समय?’
सखि का स्वर भी गिरा, ‘शायद किसी तीर्थ में पाप की निवृत्ति करते होंगे, देवि।’
‘उनके बिना सब सूना-सूना लगता है,’ दीर्घ निश्श्वास लेकर उर्वशी ने कहा।
‘सबकुछ सूना है देवि, और न जाने यह सूनापन कितना गहरा होता, अगर पृथ्वी से महाराज नहुष न आ जाते। उनके सामने सब प्रभाव भूल से गए हैं। अपनी उदासी को छिपाकर वे देवराज-रक्षण में पूर्णतया संलग्न हैं और हर क्षण सब प्रकार के भोगों की ओर से आँखें मूँदे वे यही पूछा करते हैं—मैं क्या करूँ?’
‘सच...?’ उर्वशी ने हठात् सिर उठाकर पूछ लिया।
‘देवि से क्या कुछ छिपा है, जो मैं झूठ बोलूँगी,’ सखि ने मानो उलाहना दिया।
उर्वशी उठ खड़ी हुई, ‘ठीक कहती हो सखि, मैं जानती हूँ।’ फिर सहसा मुड़कर बोली, ‘मैं अभी जाऊँगी।’
‘कहाँ?’ विस्मित सी होकर सखि ने पूछा।
‘महाराज नहुष के पास,’ उर्वशी मुसकराई।
‘महाराज के पास?...इस समय?’
‘उर्वशी के लिए समय का कोई बंधन नहीं है, पगली!’
‘नहीं है, देवि।’
‘तब क्या पूछती है तू?’
‘इसलिए कि देवि एक मानव से मिलने जा रही हैं, देवता से नहीं।’
‘जानती हूँ, लेकिन सखि, इस मानव ने जीते-जी देव-पद पाया है।’
‘लेकिन देव होकर भी क्या महाराज अपने को भूले हैं? उन्हें आज भी अपनी मनुष्यता पर गर्व है। उस गर्व को प्रकट करते वे कभी नहीं थकते।’
‘अंत को मनुष्य ही हैं न। गर्व होना ही चाहिए।’
‘तभी तो देवि, मैं कहती हूँ कि वे मानव हैं, इसीलिए उनके पास सीमा है, नियम है, बंधन है, मर्यादा है।’
उर्वशी फिर हँस पड़ी, मानो मोती झरे। बोली, ‘और यह कि उसका उत्थान भी है, पतन भी है!’
‘स्वर्ग में आकर भी किसी का पतन होता है, देवि?’
‘पगली,’ उर्वशी ने गंभीर बनते-बनते कहा, ‘पतन स्वर्ग से ही हो सकता है, पृथ्वी का मानव तो सदा ऊँचा उठता है!’
इसके पहले कि सखि उसे जवाब दे, वह फिर बोली, ‘तू कहती है, राजा उदास हैं। स्वर्ग में मेरे रहते यह क्या गौरव की बात है? मानव का अवसाद भी मैं न हर सकी तो यह दुर्भाग्य ही होगा।’
‘अवश्य देवि! महाराज की प्रसन्नता में ही हमारी भी प्रसन्नता है।’
उर्वशी बोली, ‘यही बात है सखि, तो मैं चली।’
सखि ने शीघ्रता से कहा, ‘मैं भी चलती हूँ।’
‘नहीं-नहीं, पगली, तू कैसे चल सकती है।’
‘क्यों देवि?’
‘भूल गई? अभी तू कहती थी न कि राजा मनुष्य हैं।’
‘ठीक है,’ सखि ने मुसकराकर कहा, ‘मैं भूल गई थी। मनुष्य पाप को पहचानता है, उसे एकांत चाहिए।’
उर्वशी मुसकराकर मुड़ चली, बोली नहीं। सखि ने उसे जाते देखा, देखती रही। उस चाल में न लज्जा थी, न संकोच। वह मणि-मुक्ताओं की हलकी प्रतिध्वनि से तीनों लोकों को चंचल बनाती, आँचल को मलय-समीर के परों पर डुलाती, चंचलता की गति से क्षण-के-क्षण में आँखों से ओझल हो गई। ठीक उसी समय राजा उपवन में निरख रहे थे उस वनश्री को, जो न
कभी म्लान होती है, न क्षीण। कभी कोई परिवर्तन नहीं, सब स्वच्छ-सुंदर, एकदम जगमग-जगमग करता वैभव, मानो सुंदरता अमरता का वरदान पाकर अणु-अणु में व्याप्त हो चली है।
पर वे थकते नहीं?—राजा ने मन-ही-मन सोचा, हाँ, वे थकते नहीं, कभी नहीं थकते, सदा एक ही रस पीते हैं, एक ही मादकता उन्हें विमोहित किए रहती है। प्रकाश सदा हँसता रहता है, समीर सदा सुगंध ढोती रहती है, पुष्प सदा खिलता रहता है, मयूर सदा नाचता रहता है, स्वप्नलोक के समान कल्पना यहाँ सदा साकार रहती है। वासना की चिर-पिपासा ही जैसे इन लोगों की प्रकट साधना रह गई है, पर उसमें भी छिपाने को इनके पास कुछ नहीं है। सबकुछ प्रकट है; इतना कि अचरज होता है, इन्हें आसक्त कहें या अनासक्त; मद में तैरते रहकर भी मनुष्य के समान मद इन्हें छू भी नहीं गया है।
महाराज इसी तरह के विचारों में तल्लीन थे तभी पीछे से एक सुमधुर सुकोमल मदिर स्वर सुन पड़ा, ‘महाराज की जय हो!’
महाराज स्तंभित से घूम पड़े। नेत्र अपलक उस रूप को देखते ही रह गए, पर दूसरे क्षण-मात्र लज्जित से वे मुसकरा उठे, ‘आइए देवि, असमय में कैसे कृपा की आपने?’
पास आती-आती देवांगना मुसकराई, ‘हमारे लिए समय-असमय की चिंता नहीं होती, महाराज! पर आपके समय की मर्यादा पर अगर मैंने प्रहार किया हो तो क्षमा चाहती हूँ।’
महाराज हँसे, ‘आपके लोक में अभी नया हूँ, देवि। इसी कारण अपनी बात भूल नहीं सका।’
‘संस्कारों की बात प्रबल होती है महाराज,’ उर्वशी बोली।
‘और मुझे उन संस्कारों पर गर्व है, लज्जा नहीं,’ कहते-कहते महाराज का मस्तक ऊँचा हो गया, नेत्रों में एक अद्भुत कांति चमक आई, वक्षस्थल उभरकर तन गया।
यह देखकर उर्वशी मुग्ध हो उठी। तरलता नेत्रों से बह पड़ी। वाणी को कोमलतम बनाकर उसने कहा, ‘अवश्य राजन्, उन संस्कारों पर आज मानव को ही नहीं, देवगण को भी गर्व है। उसी के कारण वे आज सनाथ हैं, लेकिन हमें इतना सुख पहुँचाकर भी महाराज स्वयं इतने उदास क्यों रहते हैं?’
‘उदास...?’
‘हाँ, देखती हूँ, आप सदा अपलक अमरपुरी के सौंदर्य को देखा करते हैं, जैसे यह कोई रहस्यमयी वस्तु हो। अब भी क्या कोई रहस्य बाकी रहा है, जिसे महाराज खोज निकालना चाहते हैं?’
महाराज हँसे, ‘मानव-तनधारी के लिए यहाँ सब रहस्य है।’
‘कैसे महाराज?’
महाराज क्षण भर चुप रहे। उस क्षण उर्वशी ने महाराज के सौंदर्य को अपलक देखा। उनकी अजानुबाहुओं को, विशाल वक्षस्थल को, उन्नत ललाट को, शरीर की समस्त गठन को, एक-एक करके और फिर समस्त रूप में परखकर वह मुग्ध हो गई। उसके उरोजों का उत्थान, नयनों की मदिरा, उसकी अपनी ही नस-नस में आलोकित हो उठी।
महाराज बोले, ‘एक बात पूछता हूँ, देवि!’
‘पूछिए महाराज!’
‘आपने कभी कली को खिलते देखा है, देवि?’
‘कली?’ उर्वशी अचरज से प्रतिहत बोली।
‘हाँ, वह कली, जो खिलकर एक दिन फूल बनती है, ऐसा फूल, जैसा तुम्हारे अमरलोक में सदा खिलते देखता हूँ।’
उर्वशी हँसी, ‘अमरलोक में कली का क्या काम, महाराज! यहाँ तो आँखें खोलते-खोलते पुष्प सदा इसी तरह हँसता रहा है।’
‘और तुम भी?’
‘मैं...?’ उर्वशी फिर विस्मित हुई।
‘हाँ, तुम कभी बालिका थीं या नहीं? किशोरी बनकर क्या कभी तुमने जीवन के मधुर आलोक को देखा?’
उर्वशी विमुग्ध सी बोली, ‘महाराज, जीवन किसे कहते हैं, मौत क्या है, जरा-जीर्णता कैसी होती है, यह सब प्रश्न अमरलोकवासी कैसे जान सकते हैं? वे तो सदा ऐसे रहेंगे। अनंत पृथ्वियाँ बनेंगी और नष्ट होंगी, अनंत लोक-लोकांतर अस्तित्व में आकर विलीन हो जाएँगे, पर देवलोकवासी सदा-सदा यौवन की इसी मादकता में बहते रहेंगे।’ महाराज बोले, ‘लेकिन यह तुम कैसे जानती हो कि मादकता क्या है, रस किसे कहते हैं?’
उर्वशी खिलखिला पड़ी, ‘राजन्, जरूरत ही क्या है, जो हम रस को पहचानें। जहाँ भेद-विभेद होते हैं, वहाँ जानने-पहचानने की आवश्यकता होती है, लेकिन जहाँ आवरण का नाम नहीं, जो कुछ है, सब नग्न है, सब एकरस है, सब एकरूप है और ये रूप-रस सब हमारी ही दी हुई संज्ञाएँ हैं।’
‘फिर भी,’ महाराज बोले, ‘यह अमरता तो थकानेवाली है।’
उर्वशी ने कहा, ‘लेकिन वहीं, जहाँ थकान होती है। यहाँ तो स्फूर्ति अमर है। तब थकान कहाँ से आएगी, महाराज?’
महाराज तब निरुत्तर से उर्वशी को देखते ही रह गए, बोल न सके। उर्वशी ने ही तब मधुर मुसकान बिखेरते-बिखेरते कहा, ‘इसीलिए तो कहती हूँ महाराज, यह अवसाद कैसा! स्वर्ग आपका उपभोग है, उसे भोगिए।’
‘उर्वशी!’ मुग्ध भाव से महाराज ने इतना ही कहा।
‘महाराज!’
‘तुम विश्व-पे्रयसी हो!’
‘इसीलिए महाराज की भी...?’
महाराज हठात् काँपे, ‘अप्सरे, यह क्या? मेरा अवसाद मुझसे दूर होता जा रहा है। चारों ओर से मदिरा की सुगंध मुझे मदहोश करने के लिए बह चली है। तुम्हारे चंचल पैरों से उठती हुई नूपुरों की ध्वनि मेरी छाती में हिलोरें पैदा कर रही है। यह क्या है, उर्वशी?’
‘आनंद है, महाराज! इसे ही स्वर्ग-सुख कहते हैं।’
‘स्वर्ग-सुख, उर्वशी! सत्य ही तुम सुंदर हो, चिर-सुंदर।’
‘और मानव...उस चिर-यौवन, चिर-सौंदर्य का पुजारी!’ कहते-कहते उर्वशी की मादकता थिरक उठी। पैर हिले, नूपुरों में झंकार पैदा हुई, भ्रूवंक सीधे होकर तन गए। उरोजों पर झूलते हुए पुष्पहार के फूल एक-एक करके झरने लगे। आँचल मलय-पवन की चंचल तरंगों पर बहने लगा। समस्त वातावरण में एक अपूर्व संगीत भर उठा। महाराज तब अपने को भूल, विमुग्ध से, अपलक, उस अपूर्व दृश्य को देखते-देखते उसी में लय हो गए। ***
पहली चेरी महाराज के पास पहुँची भी नहीं थी कि दूसरी ने आकर उर्वशी से निवेदन किया, ‘देवि, महाराज पूछते हैं, कब तक आपकी प्रतीक्षा करें?’
उर्वशी आदेश के स्वर में बोली, ‘महाराज से निवेदन करो, मैं अभी आ रही हूँ।’
वह मुड़ी थी, तभी तीसरी ने प्रणाम किया, ‘देवि, महाराज कहते हैं कि देर हो रही है।’
उर्वशी हँसी, ‘होने दो, मैं आती हूँ।’
फिर चौथी आई, पाँचवीं आई, अंत में छठवीं ने आकर बताया, ‘महाराज स्वयं आ रहे हैं।’
उर्वशी हँसकर उठ बैठी, ‘महाराज स्वयं आ रहे हैं! अहोभाग्य मेरा! सखि, ओ सखि, सुना तुमने, महाराज आ रहे हैं!’
सखि ने विस्मित हो दौड़कर कहा, ‘महाराज आ रहे हैं?’
‘हाँ सखि, महाराज आ रहे हैं! इसी दिन की बाट जोह रही थी मैं। आदेश दो कि स्वागत गान आरंभ हो जाए। नृत्य की भूमिका बँधने दो, मार्ग में पाटंबर बिछवा दो और देखो, द्वार पर मैं स्वयं उनका स्वागत करूँगी। सभी नए संगीत-स्वर, सभी नई राग-रागिनियाँ आरंभ हो जानी चाहिए।’
सखि सुनकर हँस पड़ी, ‘क्षमा करो देवि, आप शायद आज कुछ भूल रही हैं। अमरलोक में स्वागत आदि की भला क्या जरूरत?’
‘आह सखि,’ उर्वशी मुसकराई, ‘अमरलोक में आज भूलोक का स्वागत हो तो क्या चिंता है। महाराज के लिए कुछ नवीनता तो चाहिए न?’
‘नवीनता देवि, महाराज अब उर्वशीमय हैं। उन्हें अब केवल उर्वशी चाहिए, उर्वशी...।’
‘जानती हूँ,’ उर्वशी भावावेश से हँसी। तभी पुष्पहार हिल उठा। बोली, ‘जानती क्यों न, सखि! मैंने ही तो उस नरपुंगव में वासना की यह आग जला दी है। वह हमारी वासना की तरह न निरपेक्ष है, न शांत। वह नर की वासना है, जिसमें शोले उठते हैं। इन शोलों में पड़कर स्वयं नर ही नहीं, बल्कि उसके आसपास का संसार भी भस्मसात हो जाता है।’
तभी मंत्रमुग्ध की तरह दोनों ने देखा, महाराज आ रहे हैं। दोनों ने पुलकित होकर कहा, ‘महाराज की जय हो!’
महाराज मुग्ध से हँसे। उर्वशी ने पुष्पों की सुवास बिखेरते हुए कहा, ‘मेरे भाग्य जागे, महाराज ने आज अपनी पद-रज से मेरा भवन पवित्र किया!’
फिर पुकारा, ‘सखि, मधुपर्क तो ले आओ।’
उर्वशी कुछ कहे, इससे पूर्व मधुर सुकोमल शब्द-राशि से भवन की वायु थिरक उठी। वीणा का स्वर तरंगों के सहारे चारों ओर बिखर गया। महाराज बोले, ‘मेरे स्वप्नों की रानी, चिर-पे्रयसी, सरिता-तट पर नौका प्रस्तुत है।’
‘और मैं भी...!’ उर्वशी मुसकराई।
‘आओ चिर-कुमारी, आज तुम गाओगी और सुरसरि की तरंगें नृत्य करेंगी।’
उर्वशी खिलखिला उठी, ‘चलो महाराज, उनका नृत्य भी देखें।’
धीरे-धीरे दोनों नौका-विहार के लिए चल दिए। सदा की भाँति देव नदी एक अपूर्व संगीत से तरंगित हो उठी। उर्वशी के संगीत ने तीनों लोकों को विमुग्ध कर दिया। लोकपालों ने सबकुछ भूलकर उस मनोमुग्धकारी गान को सुना, नक्षत्र-लोकवासी अपनी गति भूलकर स्थिर हो गए, पृथ्वी पर निद्रा की मदहोशी छा गई। दसों दिशाएँ मुखरित हो उठीं। वसंत का आनंदोछ्वास तीव्र से तीव्रतर होता गया।
महाराज ने मदिरा पीते-पीते कहा, ‘तुम महान् हो उर्वशी, तुम अनुपमेय हो!’
उर्वशी ने उनींदी आँखों से महाराज को देखा। बोली, ‘मेरा संगीत धन्य है, मेरा गान मधुरतम है, अगर वह महाराज को तनिक भी प्रसन्न कर सका है।’
‘प्रसन्न?’ महाराज बोले, ‘पे्रयसी, मैं और कुछ नहीं चाहता। केवल यही चाहता हूँ कि यह क्षण अमर रहे। तुम इसी तरह गाती रहो, मैं इसी तरह सुनता रहूँ और हृदय इसी तरह मुग्ध होकर तुम्हारे प्रत्येक छंद पर ताल देता रहे।’
‘होगा महाराज, यही होगा। देवलोक में महाराज इसी अमर और अमिट आनंद को देखेंगे।’
‘तो मुझे और कुछ न चाहिए। मैं मुक्त हूँ, आनंदमग्न हूँ।’
महाराज बोल रहे थे कि सहसा सब राग-रंग भंग हो गया। वीणा के स्वर एक बार झनझनाकर बंद हो गए। एक मधुर कंपन के साथ ताल-लय सभी समाप्त हो गए। महाराज हठात् चौंककर काँप उठे। वे कुछ पूछें, इससे पूर्व उर्वशी के साथ समस्त अप्सराएँ जय-जयकार कर उठीं।
‘जय...किसकी जय...क्या देवगुरु पधारे हैं?’ लेकिन उन्हें आगे पूछने की जरूरत नहीं पड़ी। प्रकाश में एक उत्तेजना पैदा हुई, मानो बिजली कौंधी। फिर एकदम सब शांत हो गया। देव वीरांगनाएँ अपने-अपने स्थान पर आ बैठीं। संगीत फिर शुरू हो गया। महाराज मंत्रमुग्ध उसको देखते ही रह गए, वह रति की अथवा मोहनी या सौंदर्य और रूप की मूर्तिमती प्रतिमा! उसकी एक झलक के आगे चिर-कुमारी उर्वशी चेरी सी जान पड़ी।
नेत्र अभी भी चकित थे। वक्षस्थल काँप रहा था, लेकिन अब उधर कुछ भी नहीं था। केवल वायु की तरंगों में मिली हुई एक सुवास बह रही थी। महाराज ने समझा, अवश्य ही वह वायु अपूर्व सुंदरी को स्पर्श करके आ रही है। स्पर्श की सुवास जब इतनी मोहक है तो वह स्वयं कितनी सुंदरी होगी...!
सोचते-सोचते विचारों का एक तुमुल प्रवाह अंदर-ही-अंदर उमड़ आया। नृत्य, संगीत, उर्वशी की पे्रम-याचना, अप्सराओं की मादक लीला, सब तुच्छ और सब हेय जान पड़ीं। महाराज ने काँपकर सोचा, ‘यह हुआ क्या?’
उर्वशी देखकर मुसकराई, ‘अवसाद फिर जागा है, महाराज?’
स्वप्न से चौंकने की तरह महाराज एकदम बोले, ‘नहीं-नहीं, प्रिये, अब अवसाद कैसा! चिर-यौवना, चिर-पे्रयसी उर्वशी मेरी प्रिय सखि है।’
‘फिर भी देखती हूँ, महाराज उदास हैं। क्या इस क्षणिक रंग-भंग के कारण?’
‘नहीं-नहीं, उर्वशी।’
‘महाराज, देवराज्ञी की अभ्यर्थना के कारण ही यह अपराध हमसे बना है। उन्होंने संभवतः महाराज को देखा नहीं। पति-शोक के कारण वे विपन्ना हैं। अपने को भूल रही हैं। इसके लिए आप क्रोध न करें। वे आपकी बहुत कृतज्ञ हैं।’
महाराज चंचल हो उठे। उन्होंने कहा, ‘उर्वशी, अपराध मेरा है, देवराज्ञी का नहीं। मुझे उनकी सुधि लेनी चाहिए थी। प्रमादवश मैं अब तक भूला रहा।’
उर्वशी ने नहुष को कनखियों से देखा। बोली, ‘ऐसा कहना महाराज की उदारता है।’
लेकिन इतना होने पर भी उस दिन महाराज की उदारता प्रकट नहीं हुई। जल-विहार में उनका मन नहीं लगा। रंग एक बार उखड़ा, सो फिर नहीं जमा। रह-रहकर छाती में हूक सी उठती, जी कहीं दूर भटक जाता, रह-रहकर उन्हें अपने पर ग्लानि होने लगती। बार-बार वे अपने से पूछने लगे, ‘क्या सचमुच मैं इंद्र हूँ...लेकिन इंद्राणी तो मुझसे दूर ही है...वह क्या सोचती होगी...मैं अपने मानव स्वभाव में भूला रहा, नहीं-नहीं, अब मैं अधिक भूल नहीं करूँगा। आज ही क्षमा का संदेश पहुँचाऊँगा...!’
साथ ही मन में एक प्रश्न और उभर आया, ‘उन्होंने मना कर दिया तो...?’
मन विषाद से भर आया, ‘मना कर दिया तो फिर यह जीवन ही क्या, यह स्वर्ग, यह गौरव—सब व्यर्थ है। प्राणहीन शरीर के समान सब विडंबना है। जिस प्रकार जल के बिना नदी नदी नहीं होती, उसी प्रकार इंद्राणी बिना इंद्रपद कैसा! उसके सामने हजारों उर्वशियों का सौंदर्य हेय है, उसकी शुभ्र-कांति के सामने समस्त देव वीरांगनाओं की कांति मलिन लगती है। उर्वशी का सौंदर्य नग्न सौंदर्य है। उसमें वह मादकता कहाँ, जो शांति की उस देवि के सौंदर्य की एक झलक में दिखाई पड़ी। वह कुलवधू है और उर्वशी मात्र पे्रयसी। पे्रयसी केवल क्रीड़ा की वस्तु है, परंतु वधू सखि भी है, स्वामिनी भी। पे्रयसी नग्न होकर भी पराई है, पत्नी अवगुंठनमय होकर भी अपनी है!...कुछ भी हो, मुझे शचि को प्राप्त करना ही होगा। आवश्यकता हुई तो स्वयं जाकर क्षमा-याचना करूँगा। क्षमा-याचना ही क्यों, उनसे दंड-याचना करने में भी मुझे प्रसन्नता ही होगी।’
लेकिन महाराज इस कार्य को जितना सरल समझते थे, वह उतना ही कठिन निकला। देवराज्ञी महाराज का संदेश पाकर हतभाग्य सी देवदूती की ओर देखती ही रह गई कि यह हुआ तो क्या हुआ। फिर, दूसरे ही क्षण गति-कंपन की एक लहर शरीर को ऊपर से नीचे तक कँपाती हुई निकल गई। आँखों में क्रोध उमड़ आया। हाथ-पैर थर-थर काँपने लगे, ‘मनुष्य की इतनी स्पर्धा...?’
उनकी सखि ने अचरज से प्रतिहत होकर दूती से पूछा, ‘महाराज नहुष के पास से आई हो तुम?’
देवदूती बोली, ‘जी महारानी!’
‘तो कह देना उनसे, मनुष्य होकर चंद्रमा को पकड़ने की दुराशा त्याग दें।’
‘लेकिन, देवि...?’
‘चुप रहो!’ देवराज्ञी बोली, ‘जानती हूँ, तुम उनकी दूती हो, परंतु क्यों भूलती हो कि एक दिन देवराज फिर इस पद पर लौटेंगे। उस समय...?’
‘नहीं-नहीं,’ शचि ने तब तक स्वस्थ होकर मन-ही-मन कहा, ‘सेविका है यह, अपने कर्तव्य का ही तो पालन करती है।’
सखि क्रुद्ध हुई, ‘कर्तव्य-अकर्तव्य में भेद होता है, देवराज्ञी?’
‘जानती हूँ,’ शचि बोली, ‘परंतु कैसा भी हो, कर्तव्य कर्तव्य है। करनेवाले को उसके भेद-विभेद की चिंता नहीं होती।’
फिर मुड़कर देवदूती से बोली, ‘अपने महाराज से कहना, उनकी सद्भावनाओं की मैं कृतज्ञ हूँ, परंतु जो कुछ उनका प्राप्य था, वे ले चुके। अब सीमा न लाँघें। मैं पति-शोकाकुला हूँ, अबला हूँ, मेरी इच्छा त्याग दें। उस इच्छा में कामवासना की गंध आती है और कामवासना मनुष्य को अंधा बना देती है!’
* * * * *
‘कामवासना मनुष्य को अंधा बना देती है!’ क्रुद्ध होकर महाराज नहुष फुसफुसा उठे, ‘और शायद देवता वासना से दृष्टि-दान पाते हैं। आह, वासना की नग्न पुतलियाँ मुझे उपदेश देती हैं कि कामवासना बुरी है, पाप है, परंतु यह सारा देवलोक क्या केवल मात्र वासना की साकार पिंड नहीं है? जहाँ सदा वासना की लहरें हिलोरें मारती हैं, वासना की तरंगें तरंगित होती हैं, जहाँ ज्ञान और धर्म की पुकार में भी वासना की नंगी पुकार है, वहाँ पर वास करनेवाली आज मुझे उपदेश देती है कि काम वासना पाप है!’
‘पाप...!’ महाराज फिर फुसफुसाए, ‘क्या अमरलोक में भी वासना पाप है? शचि क्या पर-नारि है? उसका सौभाग्य अखंड है। उसका कौमार्य कभी खंडित नहीं होता। वह एक ऐसा पुष्प है, जो बार-बार कली बन सकती है। फिर क्या है, जो उसे मेरे पास आने से रोकता है? नहीं-नहीं, उसे मेरे पास आना ही पड़ेगा। अवश्य आना पड़ेगा। तीनों लोकों में कोई ऐसी शक्ति नहीं, जो शचि को मुझसे अलग कर सके।’
फिर देवदूत को पुकारकर महाराज ने आदेश किया, ‘देवगुरु को संदेश दो कि मैं उनके दर्शन करना चाहता हूँ।’
‘जो आज्ञा देव!’
‘और निवेदन करना कि मैं उनसे देवराज्ञी के बारे में बातें करने की आज्ञा चाहूँगा।’
‘जो आज्ञा देव!’
देवदूत नतमस्तक होकर चला गया और महाराज फिर विक्षिप्त से अपनी विचारधारा में निमग्न हो गए। भूख-प्यास देवलोक में वैसे ही तंग नहीं करती, अब तो बिलकुल ही छुट्टी मिल गई। नृत्य-गान में भी उनका मन न लगा। उर्वशी के सब आकर्षण-विकर्षण व्यर्थ चले गए। उस चिर-यौवना को अब महाराज ने आँखें उठाकर देखा भी नहीं। वैसे शिष्टाचारवश उन्होंने प्रशंसा अवश्य की, परंतु उसमें न माधुर्य था, न उल्लास। उर्वशी ने यह सब देखा और समझा। वह चुपचाप लौट गई।
कामवासना की अग्नि कितनी तीव्र होती है, यह वह जानती थी, परंतु जानकर भी उसका मन अवसाद से नहीं भरा, अपितु उसके रोम-रोम में प्रसन्नता की हलकी सी लहर दौड़ गई।
***
अगले दिन उर्वशी सदा की भाँति प्रफुल्लित, हास्यमुखी, नए संगीत पर नृत्य की ताल बैठा रही थी कि सखि ने आकर कहा, ‘आपने सुना, देवि?’
‘क्या सखि?’
‘देवलोक में आज एक ही चर्चा है।’
‘जानती हूँ।’
‘जानती हो...क्या देवि?’
‘यही कि नए इंद्र शचि को अपनी इंद्राणी बनाना चाहते हैं।’
‘हाँ देवि, सब देव किन्नर और गंधर्व इसी एक प्रश्न को लेकर विवाद कर रहे हैं।’
‘क्या मत है उनका?’ स्वर-साधना छोड़कर उर्वशी ने सखि की ओर देखा।
सखि हँसकर बोली, ‘वह भी जानती होंगी आप।’
उर्वशी भी हँसी, ‘तू बताएगी तो जानूँगी क्यों नहीं। कुछ भेद छिपा है तुझसे?’
‘तो सुनो देवि, वे एकमत नहीं हैं। एक पक्ष का कहना है, महाराज नहुष जब इंद्र हैं तो इंद्रणी को भी उनके पास रहना चाहिए।’
‘ऐसा कहते हैं?’
‘हाँ देवि।’
‘और दूसरा पक्ष?’
‘वह कहता है कि यह नर की कामवासना है।’
उर्वशी ने अचरज प्रकट करते हुए फिर सखि की ओर देखा, ‘क्या सच सखि?’
‘हाँ देवि।’
‘लेकिन देवलोक में भी वासना!’
‘जानती हूँ देवि,’ सखि बोली, ‘लेकिन स्वयं शचि भी तो नहीं चाहतीं। देवराज के शोक में सबकुछ भूल बैठी हैं।’
‘हाँ सखि, देवराज्ञी आज विपन्ना हैं। उन्हें राग-रंग के बीच खींच लाना उचित नहीं है।’
‘अब क्या होगा, देवि! देवगण महाराज को समझाकर हार गए। गुरुदेव की मंत्रणा भी व्यर्थ गई। महाराज अडिग हैं, मैं इंद्र हूँ, इंद्राणी को वरके रहूँगा।’
उर्वशी फिर हँसी, ‘नर की वासना जागी है, सखि! देव-वासना के समान वह सदा नहीं जागी रहती और जब जाग जाती है तो विश्व में भूकंप आ जाता है।’
‘जान पड़ता है कि अब देवलोक में भी भूकंप आएगा, देवि!’
‘जरूर आएगा, सखि!’
‘तब तो बड़ा अकल्याण होगा। नर को इंद्रपद देकर देवों ने गलती की है।’
‘नहीं सखि, देवों ने कोई गलती नहीं की। यह महाराज का प्रारब्ध था, उन्हें मिला, परंतु डरो नहीं, इस भूकंप का परिणाम शुभ ही होगा।’
‘सच देवि?’
‘हाँ सखि!’
‘कैसे जानती हैं आप?’
‘कैसे जानती हूँ? पगली, इस विष-वृक्ष का बीज तो मेरे अंदर ही फूटा है।’
सखि अचकचाई, ‘देवि, आप तो पहेली बुझाने लगीं। मैं नहीं समझी।’
उर्वशी बोली, ‘समय आएगा, सब समझ जाओगी, लेकिन अब चलो, मेरे संग। मैं देवगुरु के आश्रम में जाऊँगी।’
सखि चौंकी, ‘वहाँ किसलिए, देवि?’
‘मुझे देवराज्ञी से मिलना है।’
‘अभी?’
‘हाँ अभी, देव-सभा होने से पहले; समझी।’
यह कहते-कहते देव-वारागंना उर्वशी उठ खड़ी हुई। जैसी थी, उसी के ऊपर एक परिधान और डाल लिया। रथ सदा प्रस्तुत रहता था। दोनों उसपर बैठकर देवगुरु के आश्रम में पहुँचीं। उस समय शचि म्लानवदना, शोकाकुला, विचार-निमग्न बैठी थी। दूती ने जाकर निवेदन किया, ‘देवराज्ञी की जय हो! उर्वशी आपसे मिलना चाहती हैं।’
‘उर्वशी?’ देवराज्ञी सहसा चौंकी।
‘जी महारानी!’
‘कहाँ हैं वे? उन्हें यहीं ले आओ।’ कहती-कहती देवराज्ञी उठीं और स्वयं बाहर आ गईं।
उर्वशी ने नतमस्तक होकर शचि का जय-जयकार किया। बोली, ‘असमय आपको कष्ट देने की अपराधिनी हूँ मैं।’
‘नहीं-नहीं,’ शचि बरबस हँसी, ‘तुम्हारे सब अपराध क्षमा हैं, बहन।’
‘यह आपकी उदारता है।’ उर्वशी भी हँसी।
‘कहो तो, कैसे कष्ट किया तुमने?’
उर्वशी झिझकी नहीं। देवराज्ञी को सीधे देखती-देखती बोली, ‘यही कहने आई हूँ कि आप नए इंद्र से मिलने से मना न कर देना।’
‘क्या?’ देवराज्ञी सहसा विश्वास न कर सकीं।
‘ठीक कहती हूँ, देवराज्ञी!’
शचि चकित-क्रोधित चोट खाई नागिन की तरह बोली, ‘ठीक क्यों न कहोगी, तुम स्वयं भी...!’
उर्वशी ने शचि का वाक्य पूरा नहीं होने दिया। रहस्यमय स्वर में उसने कहा, ‘अवश्य महारानी, इसी में आपका कल्याण है।’
‘उर्वशी!’
‘देवराज्ञी!’
‘मैं तुम्हारा आशय नहीं समझी।’
उर्वशी मुसकराई। बोली, ‘देवराज्ञी, मनुष्य की वासना अंधी होती है। उसे आसानी से भुलावा दिया जा सकता है। वह पाप को पहचानता है, इसीलिए उसके बंधन में आता है। आँखें रखते हुए भी वह अंधा है। आप उसे उचित-अनुचित जो भी आज्ञा देंगी, वह मना नहीं करेगा।’
देवराज्ञी अब सहसा मुसकरा पड़ीं, ‘मैं समझी बहन, तुम क्या चाहती हो।’
‘तब आपका कल्याण होगा,’ उर्वशी हँस पड़ी और फिर सहानुभूति से भरकर उसने कहा, ‘मैं जानती हूँ, विपत्ति का अंत आ पहुँचा है।’
‘तुम्हारी वाणी फूले-फले,’ कहते-कहते इंद्राणी की आँखें सजल श्यामल मेघ की तरह चमक उठीं। ठीक इसी समय सखि ने आकर देवराज्ञी से निवेदन किया, ‘देवगुरु आपको बुलाते हैं।’
‘देवगुरु बुलाते हैं? जानती हो, देवों ने क्या निर्णय किया है?’
सखि बोली नहीं। सिर झुकाकर खड़ी रही।
‘बोलती क्यों नहीं?’ शचि ने गंभीर स्वर में कहा।
‘अपराध क्षमा हो, देवराज्ञी! देव-सभा का निर्णय आपके विरुद्ध है।’
‘मेरे विरुद्ध?’ कहते-कहते शचि फिर क्रोध से उमड़ आईं, परंतु उसी क्षण उर्वशी को देख वे मुसकरा उठीं। बोलीं, ‘गुरुदेव से निवेदन करो, मुझे देव-सभा का निर्णय स्वीकार्य है। मैं अभी आ रही हूँ।’
हठात् सखि उनकी तरफ देखती रह गई, लेकिन उर्वशी ने संतोष की गहरी साँस ली। सदा की भाँति मस्तक झुकाया और नए गीतों पर ताल का अभ्यास करने के लिए लौट गई।
उसी संध्या को देवदूत ने महाराज नहुष को जाकर संदेश दिया, ‘महाराज, गुरुदेव ने कहा है कि इंद्राणी प्रस्तुत हैं। आप जाकर उन्हें ले आइए, लेकिन...।’
‘लेकिन क्या?’ प्रसन्नता से गद्गद होकर महाराज बोले।
‘लेकिन क्या,’ दूत बोले, ‘यही महाराज कि शचि देवी कहती हैं, आप जिस पालकी में बैठकर जाएँ, उसे उठानेवाले ऋषि हों।’
‘ऋषि!’ महाराज चकित-विस्मित हो बोले।
‘हाँ देव!’
‘यह कैसी विडंबना है!’ महाराज ने सोचा, लेकिन मन अपार प्रसन्नता से उमड़ रहा था, रोम-रोम पुलकित हो उठा था, लग रहा था कि इंद्राणी उनके बिलकुल समीप है, वही दिव्य सौंदर्य, वही शुभ्र कांति, वही अलौकिक छवि...!
एक मादक कंपन नस-नस को कँपाती हुई शरीर में व्याप्त हो गई। उन्होंने सोचा, ‘कोई डर नहीं। ऐसा ही होगा। इस जीवन में मैंने सदा ऋषि-मुनियों के कार्य संपन्न किए हैं। आज वे मेरे काम आएँगे तो इसमें पाप ही क्या है। नहीं-नहीं, यह कोई पाप नहीं है। वे जरूर मेरी प्रार्थना स्वीकार करेंगे।’
बस, उन्होंने उसी क्षण दूत से कहा, ‘देवगुरु से निवेदन करो, मैं उनका अपार कृतज्ञ हूँ। सब काम उनकी आज्ञानुसार ही होंगे।’
फिर दूसरे दूत को उचित आदेश देकर तपोवन की ओर रवाना किया। तपोवन में इस समाचार से खलबली मच गई। अचरज, क्रोध, ग्लानि से ऋषियों की मुद्रा विचित्र हो उठी। एक ने कहा, ‘कामवासना ने महाराज को अंधा कर दिया है।’
दूसरे बोले, ‘अंत को मनुष्य है वह देवता बना है तो क्या राक्षस नहीं बन सकता?’
तीसरे मुसकराए, ‘लेकिन इसमें क्रोध करने की बात ही क्या है? वह भी तो राक्षसों को हमारा वाहन बनाता रहा है।’
‘आप सत्य कहते हैं, लेकिन पालकी ढोना क्या उपदेश देना है?’ चौथे ने तर्क किया।
पाँचवें ने कहा, ‘मैं जानता हूँ यह राजा का अन्याय है, परंतु हम लोगों को उदारता ही दिखानी चाहिए। एक राजा में बोझ ही कितना होता है!’
इसी तरह नाना तर्क-वितर्कों के बाद यह निर्णय हुआ कि ऋषि लोग महाराज की पालकी उठाकर चलेंगे, लेकिन देवलोक में जैसे ही इस समाचार की सूचना पहुँची, और भी सनसनी फैल गई। देवता लोग पहले से ही चिंताकुल थे। अब उन्हें स्पष्ट दिखाई देने लगा कि कोई-न-कोई अप्रत्याशित घटना अवश्य घटने वाली है। वह क्या हो सकती है, इसपर सब एकदम एकमत नहीं थे। कुछ का विचार था कि जो कुछ होने वाला है, वह कल्याणकारी ही होगा। यह महाराज का अन्याय है, परंतु कुछ ऐसे भी थे, जो इसमें शचि का ही दोष समझते थे और उन्हें भय था कि यह हठ अवश्य ही सबको नीचा दिखाएगा।
अंत में वह चिर-प्रतीक्षित समय आ ही पहुँचा। ऋषियों ने महाराज नहुष की पालकी उठाई और देवगुरु के आश्रम की ओर चले। स्तंभित चकित सबने उस दृश्य को देखा और काँप-काँपकर रह गए। देवगण अपने-अपने यानों में साथ-साथ चले। बार-बार वे आगे बढ़ जाते। बार-बार उन्हें रुककर पालकी की प्रतीक्षा करनी पड़ती। उनके अश्व आतुर थे। उनके विमान क्षण भर में सहस्रों कोस दौड़ने की शक्ति रखते थे, परंतु महाराज की पालकी इस प्रकार आगे बढ़ रही थी, जिस प्रकार कीचड़ हो जाने पर बालक उसमें घिसटता है। कभी दो पग आगे, कभी तीन पग पीछे। महाराज ने यह सब देखा। आतुरता उमड़ी, क्रोध आँखों में झलकने लगा। बोले, ‘अरे, आप लोग चार हैं और मैं एक। इतना बोझ भी आप नहीं उठा सकते?’
ऋषियों ने सुना। शरीर में आग लग गई, परंतु शांत होकर बोले, ‘महाराज, जीवन में पहली बार मनुष्य का भार उठाया है, इसीलिए अभ्यास नहीं है।’
फिर उन्होंने रुककर कंधे पलटे। साँस लेकर नई स्फूर्ति से आगे बढ़ना शुरू किया। गति कुछ तेज हुई। महाराज हँसे। बोले, ‘शाबाश, आप लोगों के लिए पौष्टिक भोजन और दक्षिणा का अभाव नहीं रहेगा। जो माँगेंगे, मिलेगा।’
ऋषि हँसे। दूसरा क्षण आया कि वे पहले से भी अधिक धीमे पड़ गए, साँस चढ़ गई। प्राणायाम कुछ काम न आया। प्रत्येक नया क्षण आता और उन्हें लगता कि वे अब गिरे, अब गिरे।
महाराज क्रोध से पागल हो उठे। चीखकर कहा, ‘अरे, चला नहीं जाता? खा-खाकर सारे दिन पड़े रहते हो। तुम लोगों से तो...!’
ऋषि झुँझला रहे थे। एक बोले, ‘हम इसी तरह चल सकते हैं, महाराज! कहो तो छोड़ दें।’
‘छोड़ दें? लज्जा नहीं आती यह कहते!’ नहुष काँपकर बोले।
‘बस, महाराज, बस।’ दूसरे ऋषि ने कहा।
‘चुप रहिए और शीघ्र चलिए।’
महाराज ने पैर पटके कि बिजली कौंधी। वह पैर एक ऋषि को जा लगा, मानो विश्व में भूकंप आ गया। ऋषियों ने उसी क्षण पालकी को पटक दिया। उनके शरीर कंपायमान हो उठे। नेत्र लाल अंगार के समान दहकने लगे। श्वास की हुंकार ने वायु में चिनगारियाँ पैदा कर दीं। तीव्रतम होकर उन्होंने कहा, ‘कामांध राजा, तेरा नाश हो! तू स्वर्गभ्रष्ट हो!’
यह कहते-कहते उन्होंने महाराज नहुष को पालकी से खींचकर नीचे भूमि पर डाल दिया।
देवमंडली में एक भयंकर सन्नाटा छा गया। उस क्षण वे किंकर्तव्य-विमूढ़ से गिरते महाराज को देखते ही रह गए। न हिले, न डुले, मानो घटना की गंभीरता ने सबको जकड़ दिया। जब उसी क्षण यह समाचार लेकर दूत उर्वशी के पास पहुँचे तो वह एकाग्र मन से नए रागों पर नृत्य का अभ्यास कर रही थी। सुनकर हर्षातिरेक से उसके नेत्र चमक उठे। एक दिव्य आभा से वह मुखरित हो उठी। क्षण भर के लिए रुककर बोली, ‘ओह, तो महाराज का पतन हुआ! ऐसा होना ही चाहिए था।’
‘क्यों देवि?’ सखि ने अचरज से पूछा, ‘महाराज तो प्रबल प्रतापी थे।’
उर्वशी मुसकराई, ‘मनुष्य सबकुछ हो सकता है, सखि! वह दंभ को पहचानता है और पाप सदा अपने पहचाननेवाले को ही खाता है। जन्म, जरा, मरण बंधन में मानव तभी आया है, जब उसने पाप-पुण्य का आविष्कार किया और वासना को पाप की संज्ञा दी। इन नर लोगों का देवलोक में कोई स्थान नहीं है, सखि!’
यह कहकर देव-वारांगना उर्वशी फिर बड़ी तेजी से नृत्य करने में तल्लीन हो गई। उसके नूपुरों की मादक झंकार से दिक्पाल मदहोश होने लगे। उसके संगीत की ध्वनि ने सातों सागरों की तरंगों को कंपायमान कर दिया। विश्व प्राणों में क्रंदन मुखर हो उठा। उस समय लगा, मानो स्वयं अखिल नारायण अपनी कला-कृति पर मुग्ध होकर पुलक उठे हैं।
(सन् १९४५)