नहीं, हमें कोई तकलीफ नहीं : अजीत कौर
Nahin Hamein Koi Takleef Nahin : Ajit Kaur
रात बहुत देर गये मेरे अखबार के चीफ रिपोर्टर का फोन आया कि अभी पीटीआई की खबर आयी है कि फरीदाबाद में मजदूरों ने हड़ताल कर दी है, बहुत तनाव है! जिस फैक्टरी से यह हड़ताल शुरू हुई है, वहाँ एक मजदूर मर गया है! सुबह सीधे घर से ही चली जाना, दफ्तर आने की जरूरत नहीं, पूरी बात का पता लगाकर शाम को स्टोरी फाइल कर देना।
अगली सुबह।
फरीदाबाद!
जिस फैक्टरी से हड़ताल शुरू हुई थी, उसके बाहर मजदूरों का तगडा जमघट था। हवा में गुस्से और नफरत की गन्ध थी।
फैक्टरी का गेट बन्द था। बाहर, दूर दरख्तों के नीचे और दरवाजे के पास और सड़क के आसपास मजदूरों के झुंड बैठे थे, खड़े थे। हर नये आने वाले व्यक्ति को देख रहे थे। कुछेक बातें भी कर रहे थे, मशवरे कर रहे थे, पर सबके चेहरों पर से रात का अँधेरा झर रहा था–राख की तरह।
मैंने गेट के अन्दर की ओर खड़े चौकीदार को अपना प्रेस–कार्ड दिखाया। सींखचों के बीच से ही उसने प्रेस–कार्ड देखा और गेट के साथ बने छोटे–से कमरे में से टाइमकीपर को बुला लाया। उसने भी प्रेस–कार्ड को देखा, और गेट थोड़ा–सा खोलकर मुझे अन्दर घुसा लिया। अपने कमरे में ले जाकर वह टेलीफोन पर किसी को मेरे बारे में बताने लगा।
मालिक ने शायद इजाजत दे दी थी। सो, वह मुझे लेकर अन्दर फैक्टरी की इमारत की ओर बढ़ने लगा, आगे–आगे। मैं जरा तेज कदम चलकर उसके संग हुई, “किले जैसी फैक्टरी है तुम्हारी। नहीं?” सोचा था, बात में से बात निकलेगी। पूछ–पड़ताल करते वक्त कई बार ऐसे लोगों से बड़े–बड़े सुराग मिल जाते हैं, पर वह था कि माथे पर त्यौरी चढ़ाये सिर्फ इतना ही बोला, “हड़ताल के दिनों में बनाना ही पड़ता है किला,। वरना, ये मजदूर पता नहीं क्या कर दें।” और उसने कदम और तेज कर लिये।
मुझसे वह कोई वास्ता नहीं रखना चाहता था।
अन्दर, फैक्टरी का मालिक वातानुकूलित एक खुले कमरे में बैठा था। चमचमाती मेज के दूसरी ओर। चिकना चेहरा, फ्रेम की ऐनक के पीछे से झाँकती शातिर, एक्सरे जैसी आँखें। गोश्त के थैले–सा जिस्म, मश्क जैसा। मेज पर चार टेलीफोन, कागज, कलमें, कलमदान, पेपरवेट, फाइलों के ढेर।
चाय का आर्डर उसने मेरे न–न करने के बावजूद दे दिया और मुझे बताने लगा, “कोई कैसे डिसीप्लिन रख सकता है? ये मजदूर तो चाहते हैं, काम करें न करें, इनके आगे ठाकुरों की तरह माथा टेकते रहें और बस पैसे देते जायें,। पर अब बताओ, अगर किसी को चोरी करते रंगे हाथों पकड़ लिया जाय, तो भी चुप रहें? अगर कोई चोरी करता पकड़ा जाय तो उसको पलंग पर बैठाकर चोरी सह लें? वह प्रीतम भी चोरी करते पकड़ा गया था। पकड़कर पुलिस को दे दिया। आगे पुलिस जाने और वह जाने। अब पुलिस भी अगर चोरों से नहीं निबटेगी, उनसे चोरी कुबूल नहीं करवायेगी, चोर को सजा नहीं देगी, तो इस मुल्क में कोई लॉ एंड ऑर्डर रह जायेगा?”
“चोरी क्या की थी उसने?” मैंने पूछा।
इतने में चपरासी चाय लेकर अन्दर आया। आबनूसी ट्रे में चाँदी रंगा चमकता टी–सेट। पीछे–पीछे एक और आदमी दूसरी ट्रे उठाये आया। छोटी प्लेटों में नमकीन, पिस्ते, काजू, बिस्कुट।
चाय का कप तो मैंने पकड़ लिया क्योंकि चाय पीते हुए आप निश्चिंत हो सकते हैं कि दूसरा व्यक्ति अब किसी बहाने भी कमरे में से खिसक नहीं सकता, न ही आपको खिसका सकता है। बात को जितना खींचना हो, उतना ही चाय को खींचते रहो। आधा घंटा अगर आप सामने वाले व्यक्ति से बात करना चाहो, तो कप आधे घंटे में खाली करो। यह तरीका मैंने बड़े अनुभव से सीखा है। सो, इसे ही इस्तेमाल करना चाहती थी। वरना तो सामने वाला व्यक्ति किसी भी समय मेरे किसी प्रश्न से तिलमिलाकर इस मीटिंग को खत्म कर सकता था।
“चोरी क्या की थी उसने,” मैंने फिर पूछा।
“मशीनरी के पुर्जे थे, कुछ रॉ–मैटीरियल था।”
“कैसे पकड़ा आपने?”
“बस जी, बड़े–से थैले में भरकर उसने वो पम्प के पास ले जाकर रख दिया ताकि छुट्टी के बाद चुपचाप ले जायेगा। पकड़ा गया।”
“किसने पकड़ा?”
“चौकीदार ने।”
“फिर?”
“फिर क्या, हमने पुलिस को रिपोर्ट की। उन्होंने उसको हिरासत में ले लिया।”
“कितना समय रहा हिरासत में?”
“यही कोई, दसेक दिन।”
“दस दिन, मैजिस्ट्रेट को पेश नहीं किया?”
“नहीं, तफतीश कर रहे थे अभी।”
“फिर? मरा कैसे? हिरासत में ही?”
“हिरासत में ही, बिलकुल हिरासत में। पुलिसवाले यहाँ लेकर आये थे उसे। तफतीश करने के लिये ही। बस, पैर फिसल गया और कास्टिक टैंक में गिर गया। यह भी शुक्र है कि पुलिस की हिरासत में था वह उस वक्त। पुलिस खुद साथ थी। वरना तो मजदूरों का कहना था–शायद हमने ही धक्का दे दिया होगा उसे टैंक में।”
“फिर यह हड़ताल क्यों की है मजदूरों ने?”
“बस जी, यह तो इनसे ही पूछो। भई, जब पुलिस खुद उसके साथ थी, पुलिस की हिफाजत और हिरासत में था वह, तो उसकी मौत के लिये किसी को कैसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है?”
“आपकी फैक्टरी के साथ ही दूसरी फैक्टरियों के मजदूरों ने भी हड़ताल कर दी है।”
“बस जी, इनका क्या है! भूंडों के समूह की तरह उठ खड़े होते हैं सारे, छोटी–छोटी बात पर। न इनका कोई नुकसान होना है, न इनकी करोड़ों की मशीनें खाली पड़ी रहेंगी, न इनके माल की सप्लाई रुकने से करोड़ों का नुकसान होगा। इनका क्या है! जिन्दाबाद–मुर्दाबाद के नारे लगाये और लाल झंडियाँ डंडों पर टाँगकर चल पड़े। बाद में हल्ला–गुल्ला कराकर इस आवारागर्दी की तनख्वाह भी ले ली। कोई कानून होना चाहिए इस अन्धेरगर्दी को रोकने के लिये। तुम अखबारवालों को लिखना चाहिए इसके बारे में, सरकार को जागना चाहिए।”
“अब क्या ऐक्शन ले रहे हैं आप?”
“हमने क्या ऐक्शन लेना है जी? उसके परिवार केा पाँच हजार रुपया दिया है। वैसे बनता नहीं था हमारा कुछ भी देना, क्योंकि नौकरी से तेा उसने इस्तीफा दे रखा था। पर हम खुदा का खौफ रखने वाले बन्दे हैं, सो उसके परिवार की इमदाद कर दी है इन्सानियत के नाते।”
“इस्तीफा? वह काम नहीं करता था अब आपके पास?”
फैक्टरी मालिक ने कुर्सी पर थोड़ी करवट–सी बदली। “नहीं, काम तो करता था। पर उसने इस्तीफा दे रखा था। नौकरी छोड़कर पता नहीं क्या पापड़ बेलना चाहता था। आखिर के चार दिन ही थे उसकी नौकरी के। शायद, इसी कारण उसने सोचा होगा कि जाते–जाते ही हाथ मार लूँ।”
तभी, एक आदमी ने आकर फैक्टरी मालिक के कान के पास कुछ खुसुर–फुसुर–सी की। मैंने कागज समेटे, कलम बन्द किया और उठ खड़ी हुई। उसने रस्मी तौर पर कहा, “आपने कुछ खाया ही नहीं। कुछ तो लो।” मैंने कहा, “नहीं, आज नहीं। शायद, फिर से आना पड़े आपके पास किसी समय, फिर सही।”
जाहिर है, वह भी बला के टलने से काफी मुतमइन था। कमरे के दरवाजे तक दो कदम मेरे संग चला आया।
“बॉय द वे, वह कास्टिक टैंक कहाँ है?”
उसके चेहरे पर एक परछाई–सी गुजर गयी। पर ऐसे लोग सारी परछाइयाँ साफ करने के लिये झाड़ू भी तैयार रखते हैं। उसने परछार्इं को तुरन्त साफ किया। एकदम साफ। मुस्कुराहट फिर बदस्तूर अपनी जगह पर आ चिपकी।
“वह अन्दर है।”
“उसमें गिरने के लिये ऊपर जाना पड़ता होगा? सीढ़ियों से?”
उसकी ऐनक की घोड़ी के नीचे से त्यौरियों का त्रिशूल ऊपर उठा। उसका वश चलता तो त्रिशूल वह मेरे पेट में घुसा देता। पर तुरन्त ही, त्रिशूल गायब हो गया। मुस्कुराहट वापस आ गयी।
“क्या मतलब?”
“वह टैंक में ही गिरा था न?”
“यस।” (मैंने पहले भी देखा है कि हम झूठ बोलने के लिये, गुस्से की छटपटाहट में हमेशा दूसरी जबान का इस्तेमाल करते हैं। नहीं? मैं सोच रही थी।)
“कहाँ से गिरा?”
“ऊपर से।”
“ऊपर क्या करने ले गयी थी पुलिस उसे?”
“आपको बताया है न, तफतीश कर रही थी पुलिस।”
“औजारों वाला थैला तो आप कहते हैं, पम्प के पास मिला था चौकीदार को। फिर, तफतीश करने के लिये ऊपर ले जाने की क्या जरूरत थी? ऐसी जगह, जिसके ऐन नीचे तेजाब से भरा टैंक था।”
फैक्टरी मालिक अब वाकई खीझ गया। अपना गुस्सा और बौखलाहट छिपाने की कोशिश भी छोड़ दी उसने, “ये तो आप पुलिसवालों से ही पूछो। वे ही बेहतर जानते हैं। और…” उसने घड़ी देखी, “मेरा एक अपाइंटमेंट है अब, एक्सक्यूज मी।” और उसने चपरासी से कहा कि वह मुझे गेट तक छोड़ आये।
रास्ते में मैंने चपरासी को कुरेदने की कोशिश की, “लाश देखी थी तुम लोगों ने? कास्टिक के टैंक में से तो सड़े गोश्त का ढेर ही निकला होगा। तेजाब…”
वह दाँत खुरचता रहा और साथ–साथ चलता रहा।
“तुम लोगों का भाई बंद था आखिर। आज उसके संग ऐसा हुआ है, कल तुम्हारे संग भी हो सकता है। नहीं?”
“जब होगा, देख लेंगे। और हो ही जायेगा, फिर देखना क्या? फिर तो हमारे यतीम बच्चे देखेंगे, या फिर बेवा औरत।”
“पर इसका मतलब तो यह हुआ कि मौत से पहले सब कुछ चुपचाप देखे जाओ। तुम्हारा साथी तुम्हारे सामने तेजाब के टैंक में जिन्दा जला दिया जाय और तुम…”
हम गेट से चार कदम ही दूर थे कि पीछे से काले रंगे की शैवरलेट आयी और तेजी से हमारे करीब से गुजर गयी। कार को दूर से ही देखकर चौकीदार ने बड़ी फुर्ती से गेट खोल दिया था। कार के स्याह रंग के शीशों के पास मुझे कुछ भी नजर नहीं आया, पर जाहिर है कि उसमें फैक्टरी का मालिक ही रहा होगा।
गेट के बाहर बैठे मजदूर कार की ओर सूनी नजरों से देख रहे थे। कार धूल उड़ाती हुई दूर चली गयी तो उन्होंने मेरी ओर देखा। उनके चेहरों से अब और अधिक कालिख झर रही थी। मैं उनके संग बात करने लगी तो एक जवान मजदूर आगे बढ़कर कहने लगा, “क्या फायदा है इस जुल्म के बारे में लिखने का? क्या फायदा है अखबारों में छपी खबर का? क्या बनता–बिगड़ता है अखबारी खबरों से? अगर कुछ बनता–बिगड़ता है तो सिर्फ पैसे की ताकत से। हमारे पास भी पैसे की ताकत होती तो हम भी एक–आध नेता खरीद लेते और वह अपने आप पार्लियामेंट में हल्ला मचाता। पुलिस को खरीद लेते तो वह कातिलों को फाँसी दे देती। सिर्फ एक ही ताकत है, पैसे की।”
“क्यों? सच बात अखबार में छपे तो हंगामा तो होता ही है। सबको पिस्सू पड़ जाते हैं। सच्चाई ढूँढनी पड़ती है उन्हें–पुलिस को, हुकूमत को, सबको।”
“आजकल इस मुल्क में दो तरह की सच्चाई चलती है जी। उसी तरह जिस तरह दो तरह का पैसा चलता है–नम्बर एक का और नम्बर दो का। सच्चाई भी नम्बर एक की और नम्बर दो की चलती है। आप कौन–सी सच्चाई की बात करते हैं जनाबेआली?”
एक और मजदूर आगे आया। स्याह रंग, सख्त जबड़े, धरती के नीचे वाले बैल के भाँति कन्धे, चैड़े–चकले हाथ। बोला, “प्रीतम का कत्ल किया गया है।”
“प्रीतम? प्रीतम नाम था उसका?”
“हाँ जी, प्रीतम। उसका कत्ल किया गया है जानबूझ कर।”
“किसने कत्ल किया? पुलिस ने?”
“पुलिस? पुलिस क्या होती है? एक वर्दी, एक डंडा, एक बन्दूक।”
“पुलिस ने तो पहले ही पन्द्रह दिन मार–मारकर उसकी खाल उधेड़ दी थी।” एक अन्य मजदूर बोला।
“पर क्यों? वो कहते हैं कि चोरी करते पकड़ा गया था।”
“चोरी तो तब करेगा न, जब अन्दर काम करता होगा। काम तो वह कर ही नहीं रहा था। इस्तीफा दे चुका था।”
“इस्तीफा?” मैंने पूछा।
“हाँ, इस्तीफा उन्होंने मंजूर नहीं किया था। प्रीतम ने कहा–ठीक है, महीने भर की तनख्वाह काट लो, पर नौकरी मैं नहीं करूँगा।”
“झगड़ा हुआ था कुछ?”
“बिल्कुल नहीं। वह तो मालिक का बहुत राजदार आदमी था। हर समय साथ। तड़के मालिक की कोठी जाता था। मोटर में साथ ही फैक्टरी आता था। मालिक के बहुत से काम बाहर करने जाता था। कार में जाता था, कार में ही लौटता था। शाम को घर भी मालिक के संग ही जाता था। मालिक के साथ ही कभी दिल्ली, कभी मुम्बई और कभी कहीं और।”
“फिर?”
“हमारे संग तो वैसे भी उठता–बैठता कम ही था। वक्त ही नहीं मिलता था उसे। पर कुछ दिन से उदास–सा रहता था। कई बार रात का खाना खाकर हमारे में से किसी के घर आ जाता। कहता–कैसी कुत्ती नौकरी है! काजल की कोठरी है भाई! काजल की कोठरी!”
“इसी कारण इस्तीफा दिया था उसने?”
“यह तो मालूम नहीं। जिस दिन इस्तीफा दिया, उस दिन दोपहर में लंच की छुट्टी के वक्त मेरे पास आ बैठा। बोला–मौज है तुम्हारी। लंच के समय ससुरी सारी दुनिया को भूलकर रोटी तो पेट भर खाते हेा। दुख–सुख की बात करते हो एक–दूसरे से। बस, मैं भी इस्तीफा दे आया। मेरा भी इसी तरह बेफिक्री के साथ पेट भरकर रोटी खाने को दिल करता है, अपने बच्चों के पास बैठकर। मैं हैरान हुआ। हम सब तो सोचते थे कि पट्ठा बड़ी ऐश करता है। मोटरों में घूमता है। मैंने कहा–नौकरी छोड़कर करेगा क्या? कहने लगा–बाजार में साइकिलों की दुकान खोलूँगा। पुराने साइकिल खरीदकर, मुरम्मत करके बेचा करूँगा। फिर, धीरे–धीरे किसी साइकिल की एजेंसी भी शायद मिल ही जाये।”
“बाजार में एक दुकान किराये पर उसने ले भी ली थी। जिस दिन पकड़ा गया, उस दिन वह अपनी दुकान को ही ठीक–ठाक कर रहा था।” एक और व्यक्ति बोला।
“क्या मतलब? वह फैक्टरी में नहीं पकड़ा गया?”
“वह तो मालिक ने अपना आदमी भेजकर उसे बुलाया था। पता नहीं क्या सोचकर वह चला गया उस आदमी के साथ। शायद, सोचा होगा कि इस्तीफे के बारे में कोई बात करनी होगी मालिक को। वह फैक्टरी गया। मैंने खुद देखा उसे अन्दर मालिक के दफ्तर की ओर जाते। बस, जब बात करके बाहर निकला तो चौकीदार पम्प के पास से सामान भरा थैला उठा लाया और शोर मचा दिया।”
“फैक्टरी के अन्दर गया ही नहीं वह?”
“बिल्कुल नहीं। काम ही नहीं कर रहा था कई दिनों से वह फैक्टरी में। वो आप खुद ही देख रहे हो सामने…” और उसने अन्दर वाली बिल्डिंग की ओर बाँह लम्बी की, “वह है मालिक का कमरा, और वह है बाहर पम्प। अगर पुलिस ने तफतीश करनी ही थी तो या तो उसे पम्प के पास ले जाती या फिर मालिक के कमरे में। अन्दर फैक्टरी में, और वह भी तेजाब के टैंक के ऐन ऊपर ले जाने का क्या काम था?”
“जाहिर है कि साजिश थी उसको कत्ल करने की। पूरा प्लैन बनाया होगा मालिक ने, पुलिस के साथ मिलकर। पता नहीं कितना पैसा खिलाया होगा।”
“पर जब इतने दिन वह, क्या नाम था उसका? प्रीतम? जब हिरासत में था, तुमने क्यों नहीं कुछ किया?” मुझे बेहद गुस्सा आ रहा था इस सारे किस्से पर।
“असल में वह नौकरी छोड़ चुका था। यूनियन का मेम्बर भी नहीं था। सच बात पूछते हो तो वह कभी हमारे साथ रहा ही नहीं था। हमेशा मालिकों के पास ही रहा था। हम तो उसको गद्दार ही समझते थे हमेशा। जब कभी भी हमारी हड़ताल हुई, उसने कभी हमारा साथ नहीं दिया।”
“पर बन्दा तो तुम्हारा ही था। तुम्हारे जैसा ही मजदूर। तुम्हारा फर्ज नहीं बनता था कि…?”
“अब जब उसे मार ही दिया गया है, तो हमें लगा कि हमारा ही आदमी था। हमारी ही बिरादरी का, जो हमेशा जुल्म का शिकार होती रहती है।”
“तुम्हारी हड़ताल की माँग क्या है? क्या मैमोरंडम दिया है तुमने हड़ताल से पहले?”
“यही कि सारे मामले की पूरी जाँच होनी चाहिए।”
“जाँच से भी वैसे तो इंसाफ नहीं मिलने वाला नहीं है। अगर मालिक ने कत्ल किया है तो इस मुल्क की कौन–सी कचहरी मालिक को फाँसी की सजा दे देगी? और जिन पुलिसवालों ने मिलकर साजिश करके उसे मारा है, कौन–सा कानून उन्हें फाँसी पर चढ़ायेगा?” एक नौजवान मजदूर बहुत गुस्से में बोला।
उसके सवाल का मेरे पास कोई जवाब नहीं था। वैसे, शायद जवाब मुझे भी पता था और उन लोगों को भी।
“पर कारण क्या है उसके कत्ल का? मालिकों की क्या दुश्मनी थी उसके साथ?”
“मालिकों के कुछ खास भेद होंगे उसके पास। हर वक्त उनके साथ जो रहता था वह। इसी कारण उसका इस्तीफा मंजूर नहीं कर रहे थे। इसी कारण उसे वापस बुला रहे थे। यह बात नहीं थी कि उन्हें प्रीतम से मुहब्बत थी। फिर, वापस क्यों बुला रहे थे?”
“मुझे उसके घर ले जा सकते हो? मैंने एक मजदूर से पूछा।”
एक छोटी –सी गली के पिछवाड़े में उसके घर के बाहर एक चारपाई बिछी हुई थी, जिस पर एक जवान औरत बैठी एक बच्चे को कंघी कर रही थी। औरत की आँखों के पपोटे लाल सुर्ख थे, अंगारों जैसे, और सूजे हुए।
हमें देखकर उसने अपनी ओढ़नी को खींचकर कस लिया और कपड़ा माथे तक खींच लिया। कंघी करती रही, पर उसका कंघीवाला हाथ काँप रहा था।
“ये बीबी जी तुम्हें मिलने आयी हैं।”
मैं उसके समीप ही चारपाई पर बैठ गयी।
उसके चेहरे की ओर देखकर कलेजा मुँह को आता था।
वह मेरी ओर देख ही नहीं रही थी।
मैंने पता नहीं प्रीतम के बारे में क्या कहा, शायद रस्मी–से अफसोस के दो शब्द ही बोले होंगे, याद नहीं। उसकी झुकी हुई आँखों के सुर्ख पपोटों के नीचे पलकों से पानी के कतरे झरने लगे। वह बच्चे को कंघी करती रही।
तभी एक जवान लड़का अपनी पगड़ी लपेटता हुआ बाहर आया। मेरे संग गये मजदूर ने उसे मेरे बारे में बताया।
उसकी आँखें जलने लगीं।
“यह प्रीतम का छोटा भाई है, सत्ती।”
सत्ती मेरी ओर घूरता हुआ पगड़ी लपेटता रहा। और, फिर वह बोलने लगा, “कतल है ये, दिन–दिहाड़े कतल! और कोई सुनता ही नहीं। अखबार वाले आते हैं, मालिक लोग उन्हें भी पट्टे डाल देते हैं।”
मेरे संग गये मजदूर ने उसे आँखों से ही चुप रहने को कहा।
“ओए, मैं नहीं डरता किसी से। डरनेवाले को मार दिया उन कसाइयों ने। और पुलिस? पुलिस तो है ही जर–खरीद गोली उनकी। गरीब आदमी की कौन सुनता है? पर मैं अपनी बात सुनाकर रहूँगा। कोठे पर चढ़कर सुनाऊँगा सारी दुनिया को…” वह ऊँची आवाज में बोला।
मैंने जैसे उसे शान्त करने की कोशिश की, “कोई बात नहीं, काका।”
“बात कैसे नहीं जी? वे तो समझते हैं बन्दा मार दिया और बात खत्म हो गयी। उनके सारे भेद भी तेजाब के टैंक में जलकर फना हो गये। सारे पाप। पर मैं खत्म नहीं होने दूँगा बात।”
“यही तो मैं कह रही हूँ कि तुम अपनी बात किसी को ठीक से सुनाओ तो सही। सिर्फ गुस्सा करने से बात नहीं बनती। इस मुल्क में भी आखिर कोई कायदा–कानून है, सरकार है, डेमोक्रेसी है।”
“डेमोक्रेसी की माँ की…”
साथ वाले मजदूर ने उसे झिड़क कर चुप कराया, “अक्ल कर ओए सत्ती! आदमी देखकर बोला कर। मूर्ख न हो तो।”
“अक्ल? अक्ल तो घुस गई…मुझे तो कहर चढ़ा हुआ है। मेरा तो मन करता है, जिस तरह उन कसाइयों ने भाई का खून किया है, मैं सारों को पकड़कर आरे से चीर दूँ।”
और, फिर वह बताने लगा–एक आदिम काल की, पत्थर–युग की कहानी। वहशी और खौलते हुए क्रोध में। उसकी आँखों में अंगारे दहक रहे थे। और साथ में कुछ पिघल भी रहा था–लावे की तरह।
“भाई के पास बड़े राज थे मालिकों के। हर वक्त पता नहीं क्या–क्या करवाते रहते थे उससे। और पता नहीं किस तरह का उसके सिर पर वफादारी का भूत सवार था कि कभी घर में भी उसने कोई भेद साझा नहीं किया। कई बार शाम को चपरासी आकर सन्देशा दे जाता कि वह मालिकों के संग कहीं गया है, देर से लौटेगा। देर से क्या, कई बार तो मुर्गे की बाँग होने पर ही वह घर लौटता, अगले दिन तड़के। पर अब वह धीरे–धीरे इन कामों से खीझ रहा था। सारा गुस्सा आकर वह घर पर उतारता। या फिर गुमसुम होकर चारपाई पर लेटे–लेटे छत को घूरता रहता। मैं जब भी कहीं अपनी नौकरी की बात करता, वह मुझे झिड़क देता–नहीं सत्ती, हम अपना कोई काम करेंगे। नौकरी का भी ससुरा कोई जीना है। चाकरी तो होती ही बुरी है। बन्दा अपनी आत्मा को मार दे, तभी होती है चाकरी। वह कहा करता था।”
“और फिर उसने इस्तीफा दे दिया। क्या गुनाह किया…? साइकिल की दुकान खोल रहा था। घर में भी सबसे हँसकर बातें कर रहा था। उसकी छाती पर से मानो कोई पहाड़ उतर गया था। पर मालिक उसे चैन नहीं लेने दे रहे थे। रोज दिन में संदेशे आते। आखिर, एक दिन वह मालिकों के भेजे आदमी के संग फैक्टरी चला ही गया, मिलने के लिए। बताओ, जो आदमी मालिक के दफ्तर के अन्दर बैठकर बात करेगा, उसके पास फैक्टरी के औजार और पुर्जे कहाँ से आयेंगे? थैला कहाँ से भर लेगा वह? पम्प के पास वह गया ही नहीं। न ही अन्दर फैक्टरी के किसी भी फ्लोर में उसने पैर रखा। सब फरेब, झूठ, कुफर…”
“और, फिर पुलिस ने जिस तरह चौदह–पन्द्रह दिन उसकी खाल उतारी है, उल्टा लटकाकर जिस तरह उसके पैरों के तलुवों को पीटा है, मैं तो उनकी…”
और अब वह दहाड़ें मार–मार कर रो रहा था।
“फिर उसे कत्ल करने के लिए वो फैक्टरी में ले गये। कसाई! राक्षस! और फिर लाश पोस्टमार्टम के लिए पहुँचा दी। राक्षसो, मांस के झुलसे हुए लोथड़े का क्या करोगे पोस्टमार्टम तुम?”
वह बच्चों की तरह रो रहा था। चारपाई पर बैठी औरत, जो जाहिर है प्रीतम की बेवा थी, पल्लू आँखों पर रखकर सिसक–सिसककर रो रही थी। बच्चा चारपाई के पास खड़ा था, हैरान, झुलसा हुआ।
“काट–पीटकर बोरी की तरह सिलकर हमारा भाई हमारे हवाले कर दिया। ले जाओ और ले जाकर जला दो इस कूड़े को।”
उस औरत की हिचकियों में लम्बी–सी चीख भी शामिल हो गयी।
तभी, अन्दर से एक बुजुर्ग बाहर निकला। लाठी टेकते हुए। सिर पर मैली होती हुई पगड़ी। सफेद मटमैली–सी दाढ़ी। चेहरे पर बदहवासी।
बाहर आकर उसने आँखों के ऊपर अपनी हथेली की छतरी–सी बनायी और मेरी ओर देखा, गौर से। कहने लगा, “नहीं बीबी। हमें कोई तकलीफ नहीं। उस कमबख्त की मौत आयी थी, मर गया। पिछले जन्म का वैरी था, पेट पर लात मार गया।” और उसकी आवाज भर्राते हुए फट–सी गयी।
“किसी का कोई कसूर नहीं, बीबी। यह सत्ती तो पागल है, यूँ ही बोले जाता है।”
और, फिर उसकी दाढ़ी के सफेद बाल काँपने लगे। आवाज गले को खुरचकर बाहर निकली, फटी हुई, “एक तो गया, अब इसे भी गँवा बैठे!”
(अनुवाद : सुभाष नीरव)