नागन की पूँछ (कहानी) : आशापूर्णा देवी
Nagin Ki Poonch (Bangla Story in Hindi) : Ashapurna Devi
किसी
जूते की दूकान के रैक पर जिस तरह जूते के डिब्बे रखे रहते हैं, उसी तरह से
एक-दूसरे से गुँथे हुए, एक ही आकार के रेलवे क्वार्टर्स के ये मकान देखने
में ऐसे कुछ खास नहीं थे, पर जब एक कतार में खड़े उन मकानों में से एक खास
नम्बर वाले मकान के सामने यह रिक्शा रुका तो कानन को लगा, ऐसा खूबसूरत
मकान उसने जीवन में पहले कभी देखा ही नहीं था।
मकान इस समय पूरे तौर पर
खुला था, खाली था। जाड़े की आखिरी साँस भरती ठण्डी हवा बरामदे और आँगन के
बीच आख-मिचौली खेल रही थी।
इसी
खाली मकान को एक तरफ कानन, अपने साज-सामानों से भर देगी, बर्तन-बिस्तर
कपड़े और असवाबों से...और दूसरी तरफ कानन को भरपूर कर डाला खुद मकान ने।
यह मकान कानन का...उसके
अकेले का है।
बिलकुल अपना।
कानन और अनिमेष का।
यह
मनोभाव कितना सुखदायी है। यह बरामदा, यह आँगन, रसोईघर...और...ये दो-दो
सोने के लिए कमरे, सब...सब कुछ कानन का? पूरा एक साम्राज्य...इसके अलावा
और क्या?
रिक्शा
सै उतरते ही कानन ने मकान का कोना-कोना देख डाला। एक बार, दो बार, तीन
बार। उसके चेहरे पर शिशु-सुलभ उत्सुकता थी...शिशुओं-सा आनन्द। रिक्शावाले
की मद से सारा सामान अन्दर रखवाकर अनिमेष उसे किराया चुका रहा था, जव
बौखलायी-सी कानन दौड़ी-दौड़ी आयी-''सुनते हो!...जल्दी से यहां आओ, देखो एक
चीज देख जाओ!''
अनिमेष हड़बडाया नहीं।
बोला, ''जो देखना है उसे
बाद में देख लेना, पहले सारा सामान तो देख-समझ लो।''
यह छोटी-सी बात कानन के
उत्साह को कम न कर सकी। उसकी अनसुनी
करती हुई वह बोली,
''देखना-समझना क्या है? तुमने तो सब मिला ही लिया होगा। यह सब छोड़ो, पहले
उधर चलो।''
''चलो?'' अनिमेष बोला,
''मामला क्या है? क्या आँगन के बेल के पेड़ पर दो-दो भूत सवार हैं?''
''अहा,
कैसी बात करते हो? आँगन में बेल का पेड़ नहीं है। आम के पेड़ हैं आम
के...दो-दो आम के पेड़। और उन दोनों पर छोटी-छोटी अमिया लटक रही हैं।''
यकायक अनिमेष ठिठक गया।
फिर माथा ठोंककर बोला, ''क्या कह रही हो? यह तो गजब हो गया! आम के पेड़ से
आम लटक रहे हैं?''
कानन
पहले तो उसके कहने के ढंग पर घवरा गयी, उसके बाद तुरत ही समझ गयी कि मजाक
है तो हँसते-हँसते उससे लिपट गयी-ओक्को, कितने शरारती हो तुम! मुझको ऐसा
डरा दिया। अच्छा...तो मजाक उड़ाया जा रहा है लेकिन यह वताओ, अपने ही घर
में, अपने अर्गिन में, फल के पेडू पर फल लटकते देखा है कभी?
अनिमेष
की आँखों के सामने तैरता-उतराता, उत्तरी कलकत्ता की सँकरी-सी गली में एक
टूटा-फूटा पुराना-सा मकान उभर आया, जो नाते-रिश्तेदारों में बँट चुका था।
उभर आया उसी मकान का कोनेवाला छोटा-सा कमरा। उसी के साथ याद आया कानन के
अपने मायके का उक्के भी अधिक छोटा, सीमेण्ट और पलस्तर गिरता एक मकान।
''हां, देखा नहीं है यह
तो मानना ही पड़ेगा।'' उसने हामी भरी।
यह क्वार्टर अनिमेष पहले
ही देख चुका था।
फिर
भी कानन ने उसको साथ घसीटते हुए पूरे घर का चक्कर लगवाया। घर इतना बड़ा
नहीं था कि कोई खास समय लगता। फिर भी कानन के लिए घर काफी बड़ा था।
अनिमेष बोला, ''घर-बार तो
देख चुका। अब जरा सब कुछ जल्दी से समेट लो। खाना-पीना भी है या नहीं?''
कानन ने आँखें चढ़ाते हुए
कहा, ''खाना? खाना खाओगे? ऐसी शानदार घड़ी में तुम बस मामूली-सी खाने की
बात कर रहे हो?''
परन्तु
फौरन हँसते हुए आँचल कमर में खोंसती हुई बिस्तरबन्द को लुढकाती हुए बोली,
''ठीक है, घण्टे भर में मैं तुम्हें तीन तरह की सब्जी और भात-दाल खिलाती
हूँ। तब देखना और कहना कैसी घरवाली हूँ मैं तुम्हारी?''
कानन चौकड़ी भरती हुई
किशोरी बन गयी थी।
कानन के तन और मन से मानो
आठ-दस साल झर गये थे।
शादी के बाद और उससे
पहले-पच्चीस साल-किस तरह घुट-घुटकर जीती
रही
थी वह? अनिमेष रेलवे की नौकरी पाकर चला गया तो उसे छोटे-से कमरे की खिड़की
के सींखचों पर सिर पीटती थी और भगवान से मनाती रहती थी, ''भगवान, मुझे
क्या इन लोगों से छुटकारा नहीं मिलेगा? अगर नहीं मिलेगा तो इस जीवन से
छुट्टी दिला दो। मुझसे अब सहन नहीं हो रहा।''
भगवान को सचमुच दया आ गयी।
छुटकारा
मिला। अनिमेष को मिली पदोन्नति और इस क्वार्टर के मार्फत। जिठानी, ननद और
भावजों की ईर्ष्यापूर्ण जलती आँखों के सामने सामान लादकर टैक्सी पर चढ़
बैठी कानन...और हावड़ा स्टेशन की ओर चल पड़ी थी।
रेल पर चढ़ना भी तो एक नयी
बात थी। भगवन्, क्या सच है कि तुमने कानन के भाग्य के लिए इतने 'सुख' लिख
रखे थे?
अनिमेष कहता, ''मैं तो
देख रहा हूँ नया प्रेमी पाकर तुम मुझे भूल गयी हो।''
कानन कहती, ''चलो, हटो
भी...बेहया कहीं के...!''
अनिमेष
कहता, ''बेहयाई की क्या बात है? सच्ची बात है। घर मिलने पर तुम मेरी इस
तरह से अनदेखी करोगी, अगर पहले से मालूम होता तो दोबारा सोचकर देखता। यह
तो मेरा दुश्मन ही बन बैठा है।''
''अरे नहीं जनाब, घर का
मतलब है तुम और तुम्हारा मतलब है घर। समझे?''
हमेशा ही सीधी-सादी कानन
यहाँ आकर कवयित्री बनती जा रही है...या फिर विदुषी?
ऐसी
ही बातचीत के दौरान कभी-कभार अनिमेष कहता, ''मित्रा साहब की पत्नी से एक
बार मिलने नहीं गयी? उनके यहाँ न जाकर कोई अच्छी बात नहीं कर रही हो। कुछ
भी हो, हैं तो 'ऊपर वाले'। थोड़ा-बहुत खयाल तो रखना ही पड़ेगा।''
कानन बोली, ''तुम भी चलो
न!''
''अरे, मुझे क्यों घसीटती
हो? तुम सब औरतें आपस में...पता नहीं...''
कानन
जरा तनकर कहती, ''सारी औरतों से क्या मतलब? तुम्हीं तो कहते हो वह बी. ए.
हैं, एम. ए. पास हैं, सुन्दरी हैं आधुनिका हैं, और मैं ठहरी गँवई और
गँवार..."
अनिमेष
हँसकर टाल जाता, ''लेकिन तुम उनसे होड़ तो लगाने जाओगी नहीं। तुम तो कुछ
ऐसे जाओगी, जैसे राजा के पास प्रजा जाती है, स्वामी के निकट सेवक जाता
है।''
कानन का चेहरा लाल पड़
जाता, ''यह मैं न कर सकूँगी।''
''अरे
भई, तुम तो मजाक भी नहीं समझती हो।'' अनिमेष कहता, ''जाओगी, थोड़ा मिल-मिला
लोगी फिर चली आओगी। यहाँ 'ऊपरवाला'...'नीचेवाला' जैसी बातें कुछ ज्यादा ही
हैं। सूरज से ज्यादा गरम होती है रेत-इसी तरह साहब से ज्यादा मेमों की
इज्जत करनी पड़ती है। थोड़ा-सा फूल-फल नहीं चढ़ा तो नाराज हो जाएँगी।''
कानन कहती, ''जाऊँगी।
किसी दिन चली जाऊँगी।''
लेकिन तो भी जाना न हो
पाया।
आज
अनिमेष एक खबर ले आया। आकर बोला, ''अभी जाना हो तो जाओ। साहब कुछ दिनों के
लिए टूर पर गये हैं। इस घड़ी विरहिणी को सखी का साथ भी अच्छा लगेगा।''
हारकर कानन को जाना पड़ा।
दोपहर
को अनिमेष काम पर चला गया था-दूर से ही उनका घर दिखाते हुए। फागुन बीतने
वाला था, इसलिए हवा भी शरीर को भा नहीं रही थी। इतना-सा रास्ता चलना भी
अखर गया। चेहरा दिप गया।
लेकिन
जब तक अनिमेष घर वापस आया, तब तक तो इसके लाल रहने जैसी कोई बात नहीं थी।
वैसे कानन बहुत पहले घर लौट आयी थी तो भी उसका चेहरा तमतमा रहा था। होठों
पर अजीब-सी मुस्कान खेल रही थी। तमककर बोली, ''हूँ बाबा, तुम्हारे साहब
खूब बेवकूफ बनाते हैं। टूर पर जा रहे हैं, यह बताकर निकले और सीधे जाकर
बीवी के आँचल में जा छिपे।...उफ...मैं वहाँ पहुँचकर ऐसी शर्मिन्दा
हुई...'' अनिमेष को इस बात में कौतुक का कोई पुट नजर नहीं आया। लगभग चिढ़ते
हुए ढंग से बोला, ''क्या बहकी-बहकी बातें कर रही हो? साहब गये या नहीं
गये.. यह क्या मैं नहीं जानता? मैं खुद ट्रेन पर बैठा आया था।''
कानन भी बड़ी भोली
है...बल्कि बेवकूफ है...
''यही तो कह रही हूँ। दो
स्टेशन के बाद ही घर लौट आये...''
''चुप भी रहो। यह तो बताओ
कि जाकर देखा क्या? उनकी पत्नी से भेंट नहीं हुई क्या?''
डाँट
खाकर कानन कुछ सकपका गयी। बोली, ''भेंट कैसे होती? जिस हाल में देखा...।
तुम तो उनके घर घुसाकर चले गये। तेज धूप के कारण बगीचे की तरफ से जाने
लगी। कौतूहलवश बगीचे की तरफ की खिड़की का पर्दा जरा-सा हटाकर भीतर झाँकते
ही, उल्टे पाँव भाग आयी।''
''भाग आयी?''
''और नहीं तो क्या
करती?'' भौंहें नचाकर कानन बोली, ''साहब और मेमसाहब दिन-दहाड़े, रात का
मजा...''
''चुप। चुप भी रहो।''
अनिमेष बोला, ''तुम जरूर गलत मकान में घुस गयी
होगी।''
पति
का तमतमाया चेहरा देखकर कानन हक्का-बक्का रह गयी। फिर भी वह यह मानने को
तैयार न थी कि उससे कोई गलती हुई है। उलटे वह पति पर इल्जाम मढ़ते हुए
बोली, ''हां, मैं जैसे कोई पागल हूँ। तुम खुद घर दिखाकर नहीं गये थे? दूर
खड़े रहकर तुमने हाथ नहीं हिलाया था? उसके बाद क्या मैं गेट बन्द करके किसी
और के यहीं चली जाऊँगी? साहब लोगों का क्वार्टर कोई हमारे क्वार्टरों की
तरह एक-दूसरे से गड्ड-मड्ड तो नहीं होते कि गलती करती? यहीं से वहाँ तक तो
क्यारी ही क्यारी है।"
मित्रा
साहब की मेम साहब की जरूरत से ज्यादा लीपा-पोती और चटक-मटक पर दफ्तर में
लोग हँसा करते हैं और मातहतों की जैसी आदत है, आलोचना भी खूब करते हैं। हर
कोई...लेकिन यह तो बडी आफत वाली बात है!
बेवकूफ
कानन भी दोपहरी में निकलकर साँप की बीबी का पता लगा बैठी। एक गरीब और
साधारण परिवार का लड]का अनिमेष सोचने लगा, ''यह बात नामुमकिन है...हो ही
नहीं सकता, इसमें कहीं कोई गलती है।''
मित्रा
साहब की पत्नी के साज-सिंगार पर लोग जैसी टीका-टिप्पणी करते हें ठीक वैसी
ही टीका-टिप्पणी करते हैं साहब की...बीवी के पीछे-पीछे डोला करते हैं न।
खैर, बड़े लोगों की बड़ी बातें।
अनिमेष
ने एक गहरी साँस के साथ कहा, ''अब रहने दो, खूब हुआ है घूमना। अब तुम्हें
कहीं नहीं जाना है। और एक बात याद रखना...? जो कुछ देखा है उसे हे तौर पर
भुला देना। यह भी भूल जाना कि उस रास्ते पर कभी कदम भी रखा है है।"
कानन हँसना भूल चुकी
थी...उसका दिल डर के मारे धड़कने लगा था।
अपने
ऊपर से जैसे भरोसा ही उठ गया-बार-बार लगने लगा, क्या उसके देखने में कोई
गलती हो गयी? चिलचिलाती धूप के कारण क्या उसकी आँखें चौंधियां गयी थीं?
मेम साहब क्या अकेली ही थीं?...लेकिन....भरी दोपहर में...जीता-जागता
एक...कानन अन्धी तो है नहीं!
काफी
देर के बाद कानन बोली, ''सुनो जी...यह भी क्या मुमकिन है?'' अनिमेष ने
रूखे स्वर में कहा, ''असम्भव क्या है? दुनिया में ऐसी घटनाएँ घटती न हों,
ऐसा भी तो नहीं।''
''तो क्या ऐसा इन्द्र
देवता-सा पति रहते हुए भी...''
''उससे कुछ आता-जाता नहीं
है। कहावत है न...जिसके साथ मन मिले उसके साथ खैर...'' अनिमेष ने फिर एक
साँस छोड़ी।
लेकिन अब कानन जैसे तैयार
बैठी थी। तमककर बोली, ''बैठ-बैठकर लम्बी-लम्बी साँसें मत भरो। इस बात का
विरोध तो करना चाहिए...''
''विरोध?'' अनिमेष
मुस्कराया, ''हम करेंगे विरोध? भला कैसे?''
''कैसे क्या? साहब से कह
दोगे। उस हरामी और पाजी को साहब बिलकुल खत्म कर डालेंगे।''
अनिमेष
ने उसे एक झटके से रोक दिया। और कहा, ''चुप रहो, चिल्लाओ मत। मैंने कह
दिया न कि तुम्हें भूलना होगा कि आज दोपहर को तुम उस घर की तरफ से निकली
भी थीं। कौन जाने, साहब को इस बारे में पता हो।''
''साहब को पता है?'' कानन
गुस्से से विफर उठी, ''तुम पागलों जैसी बातें क्यों कर रहे हो भला?''
अपनी
सादगी से भरी बेवकूफी पर कुछ देर तक सोचते रहने के बाद अनिमेष ने अपने को
सँभाल लिया। बोला, ''मजाक कर रहा था बाबा, मजाक कर रहा था।''
''तो
फिर ऐसा कहो न...!'' कुछ शान्त हुई कानन। लेकिन फिर बोली, ''अब जो भी कहो,
हम क्या कर सकते हैं कहकर बैठ जाना इन्सानियत नहीं। बेचारे साहब...बेफिक्र
होकर दफ्तर चले जाते हैं और...इधर...''
अनिमेष
ने फिर फटकार लगाते हुए कहा, ''तुम चुप रहोगी भी कि नहीं? अब तुम्हारे
मुँह से मुझे ये बातें सुनाई नहीं देनी चाहिए। जो जैसा है, रहे।...''
''जो जैसा है रहे?''
''हमारा क्या बिगड़ता है?
जो जैसा है, रहे।''
''यह भी कोई बात हुई?''
कानन
के मन में रह-रहकर ये ही बातें चक्कर काटने लगीं निश्चिन्त, बेफिक्र ओर
बीवी पर भरोसा रखने वाला एक इन्सान उसे पता तक नहीं चल पा रहा होगा कि
उसकी पीठ पीछे क्या हो रहा है? क्या हम जानकर भी उसे सावधान नहीं करें?
अगर यह बुरी औरत कहीं और भाग जाए? या फिर साहब का सारा रुपया-पैसा लेकर
खिसक जाए?
अपनी
बुद्धि के अनुसार कानन वैसा ही सोचती रही। अनिमेष होता तो यह सब न सोचता।
वह जानता है भाग जानेवाली ऐसी औरतें इस तरह की बेवकूफी नहीं करतीं। घर में
रहकर ही सेंध काटा करती हैं। जमा-जमाया थोड़ा-बहुत रुपया-पैसा लेकर भागने
से फायदा? इससे तो रोज की रकम मारी जाएगी।
कानन यह सब नहीं जानती।
शायद इसीलिए छटपटाती रही।
अनिमेष ने भी इस बात को
छेड़ने के लिए मना कर दिया है, फिर भी पूछती, ''अच्छा, साहब कब आएँगे?
''परसों,
परसों। क्यों? क्या तुम जाकर साहब को होशियार-खबरदार कर आओगी?'' अनिमेष ने
चुटकी ली, ''तुम्हारी खोपड़ी में मेम साहब तो नहीं घुस गयी? अब दया करो
कानन, अब चुप हो जाओ वरना गुस्सा आ जाएगा।''
कानन को झक मारकर चुप
होना पड़ा।
लेकिन इससे क्या कानन का
मन भी चुप हो गया?
कानन
की भलमनसाहत उसको कोंचती रही। वह एक बार फिर जाएगी। अच्छी तरह से
देखेगी-देखेगी, स्वप्न तो नहीं था? सब कुछ देखभाल कर वह साहब के नाम
बेनामी पत्र भी डालेगी।
दूसरे
ही दिन चिलचिलाती धूप में दोपहर को कानन अपनी उसी मुहिम पर चल दी। लेकिन
कल का निःशंक चित्त आज शंका मैं डूबा था। उसने तो कल बस कौतूहलवश ही
मेमसाहब की खिड़की का पर्दा उठाकर झाँका था।
पर आज की बात कुछ और थी।
आज कानन का दिल इतनी
जोरों से धड़क रहा था कि शायद उसी की आवाज ने मेम साहब कौ चौंका दिया।
''कौन? कौन है?'' कहती
हुई वह खुद खिड़की का पर्दा हटाती आ खड़ी हुई। ''कौन है?'' उसने पूछा।
कमरे से बाग की तरफ चली
आयीं मेमसाहब। फिर बड़े कड़े स्वर में पूछा, ''तुम कौन हो?''
धूप और गरमी से लाल हुए
चेहरे से जितना बन सका, कानन ने बताया। कम-से-कम परिचय का मामला तो साफ हो
गया।
''अच्छा....दफ्तर के
अनिमेष बोस की पत्नी हो तुम! यहाँ ताक-झींक क्यों कर रही थीं?''
बडी मुश्किल से साहस
बटोरकर कानन बोली, ''आपसे भेंट करूँगी....इसीलिए। देख यही रही थी कि आप सो
तो नहीं रही हैं?''
''ओह! यह बात है?''
मेमसाहब का सुन्दर नाक-नक्श, आँख और होठों से सजा चेहरा अचानक हिंसा-भाव
से विकृत हो उठा।
''लेकिन मुझसे भेंट करने
क्यों आयी हो तुम? क्या अनिमेष बोस अपनी नौकरी सै हाथ धो बैठा है?''
काटो
तो खून नहीं कानन को। मेमसाहब का गुस्से से तमतमाया चेहरा...उसकी चुस्त और
सुडौल देह को देखती हुई बोली, ''नहीं, नौकरी भला क्यों जाएगी? अभी उसी दिन
तो तबादला होकर आये हैं, इधर ही...नया क्वार्टर मिलने पर।''
''ओ
अच्छा? तो...फिर यहाँ क्यों आयी हो?'' मेमसाहब ने पाँव पटककर पूछा। कानन
की रक्षा के लिए भगवान क्या कोई दूत नहीं भेज सकते हैं। या फिर
इसी क्षण कानन की रक्षा
करने खुद साहब नहीं आ सकते?
शायद ऐसा हो पाना मुमकिन
नहीं था।
और
कानन की हिफाजत करने की गरज थी भी किसे? जो बेवकूफ आसरा देनेवाले पर
कुल्हाड़ी चलाता है उसे मौत के मुँह में जाने से खुदा भी नहीं बचा सकता।
इसीलिए कुछ नहीं हुआ।
कानन ही को कहना पड़ा, ''बस यूँ ही मिलने चली आयी थी।''
''मिलने
चली आयी थी? मुझसे?'' मेमसाहब के होठों के कोनों को हँसी छू गयी, ''कहां
ताश खेलने तो नहीं आयी हो न? या फिर पान-तम्बाकू खाने!... खैर! नागन की
पूँछ पर पाँव रखने का कग नतीजा होता है यह शायद अनिमेष वोस नहीं
जानता।...और उसे यह वात सिखानी पड़ेगी। अब तुम जा सकती हो!''
अपनी काली लम्बी चोटी को
लहकाकर, कसी और कसमसाती देह को मरोड़ती मेमसाहब पर्दा सरकाकर घर के अन्दर
चली गयी।
उसके बाद?
उसके
बाद सचमुच अनिमेष को सीखना पड़ गया कि नागन की पूँछ पर पाँव रखने का परिणाम
क्या होता है। दफ्तर के नियम बदल गये। यहाँ आने के डेढ़ ही महीने बाद उसके
तबादले का ऑर्डर आ गया... अनिमेष बोस के लिए।
इस
दफा हेड क्वार्टर्स नहीं। बहुत ही दूर...किसी रही जगह पर। जहाँ किसी
क्वार्टर के मिलने की बात सोची भी नहीं जा सकती है। दो रिक्शे आकर खड़े हुए।
खीज,
धिक्कार, अपमान और जलते गुस्से ने अनिमेष को पत्थर बना दिया था। अभी तक
कानन के साथ एक शब्द नहीं बोला था। चौबीस घण्टे की नोटिस में तबादले के
ऑर्डर के भीतर जो छिपा था-उस रहस्य को छिपाना आसान नहीं था। तिरस्कार करने
की भी इच्छा नहीं हो रही थी।
कानन
तो जैसे बोलना ही भूल गयी हो। चुपचाप खड़े-खड़े देख रही थी, किस तरह अनिमेष
के हाथों का एक झटका खाकर कॉच के बर्तन झनझना उठे, किस तरह लात मार-मारकर
वह बिस्तरबन्द इधर-उधर लुढ़काता रहा था।
सफेद
संगमरमर के एक लोटे में कानन गंगाजल रखती थी। श्री रामकृष्ण की तसवीर के
नीचे एक आलने पर। वह क्या असावधानी के कारण ही अनिमेष के हाथों से गिरकर
इधर-उधर बिखर गया!
इस चूक के लिए अनिमेष कुछ
शर्मिन्दा भी हुआ।
अभी
तक कानन ने एक शब्द नहीं कहा था...अब कहीं जाकर बोली। बड़ी मुश्किल से उमड़
आते आंसुओं को रोकती हुई बोली, ''पूजा की चीज है, उसे इस तरह
शायद
वह चुप रहती तों अनिमेष को अपने किये का अधिक पछतावा होता रहता; लेकिन
कानन की बात सुनते ही उसके तन-बदन में आग लग गयी। लोटे के छोटे-छोटे बिखरे
टुकड़ों को बटोरकर फेंकते हुए वह झुँझलाकर बोल उठा-''टूटे और टूट जाएँ। यब
कुछ टूट जाए। सारी चीजें टूटकर चकनाचूर हो जाएँ।...साहब का घर बरबाद हुआ
जा रहा है, सोचते-सोचते तुमने मेरा घरौंदा रौंद डाला। इसीलिए तो कहते हैं
औरत की बुद्धि...जाओ...फिर जाकर झामापुकुर वाली गली में पडा-पड़ा सड़ती रहो
और झामा घिसो। तुमको बार-बार मना किया था कि चुप रहना...वह सब भूल जाना।
मगर..।"
एक-एक कर और पटक-पटककर
सारा सामान चढ़ाता रहा अनिमेष।
कानन
इतने शौक से सजाये अपने घर की दुर्गत होते देखती रही, खड़ी-खड़ी...। लेकिन
उसकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि एक औरत, जो अपने पति को बेवकूफ बना रही
है, बेवफा है...दुश्चरित्र है...पति का घर तोड़ रही है, यह बात जानकर भी
चुप रहना...भला मुमकिन है कभी?
(अनुवाद : रणजीत कुमार साहा)