नागमण्डल (कन्नड़ नाटक) : गिरीश कर्नाड

Nagamandala (Kannada Play in Hindi) : Girish Karnad

प्रस्तावना

[एक उजड़ा मन्दिर। विग्रह टूट चुका है अतः यह भी पता नहीं चलता कि वह मन्दिर किस देवता का है।
रात का समय। गोपुर की दरारों से बाहर छिटकी चाँदनी भग्न मूर्ती की पीठ को, गर्भमन्दिर के कोनों को प्रकाशमान कर रही है। एक आदमी खम्भे से टेक लगाकर बैठा है। वह कुछ देर तक चुप बैठा रहता है। बाद में एकदम आँखें फाड़-फाड़कर देखने का प्रयत्न करता है। उँगलियों से पलके खोलकर उन्हें चौड़ा कर के देखने की कोशिश करता है। फिर चुप हो जाता है और एकदम प्रेक्षकों से बातें करना शुरू कर देता है।]

मनुष्य : मैं अभी थोड़ी ही देर में मर सकता हूँ। (रूककर) नाटक की मृत्यु नहीं, असली मृत्यु । आप लोगों की आँखों के सामने ही मेरे प्राण-पखेरू उड़ सकते है। (रूककर) मुझे एक सन्यासी ने कहा था. तुम्हें इस मास में कम-से-कम एक दिन पूर्ण जागरण करना चाहिए, तभी जिन्दा रह सकोगे। नहीं तो महीने की आखिरी रात मर जाओगो। उसके यह कहने पर मैं यह सोच कर हँस पड़ा कि यह भला कौन-सी बड़ी बात है। परन्तु अब तक उनतीस रातें गुजा़र चुका हूँ। एक रात भी पूरी तरह जागरण सम्भव नहीं हो सका । प्रत्येक रात मेरे जाने-अनजाने नींद का झोका आ ही जाता है। आँखें लग ही जाती हैं जो मैं खुली आँखों से देख रहा हूँ और समझ रहा हूँ, वह तो बाद में पता चलता है कि वह एक सपना ही था। इस प्रकार उनतीस रातें गुज़र गयी हैं। एक रात भी पूरी तरह जागना सम्भव नहीं हो सका । यह अन्तिम रात है। यह भी कैसे विश्वास करूँ कि जो बात अब तक सम्भव नहीं हो सकी, वह आज सम्भव हो जाएगी. आप लोगों को देखते-देखते ही मुझे झोंका आ सकता है। अगर कुछ ऐसा हुआ तो समझना चाहिए कि मेरा सर्वनाश हो गया। (रूककर) मैंने उस सन्यासी से पूछा था-‘‘भला मेरा अपराध क्या है ? मेरी किस ग़लती के लिए यह मुसीबत मेरे गले पड़ी है ?’’

उसने कहा-‘‘तुमने नाटक लिखे हैं, खिलाये हैं। तुम पर विश्वास रखकर तुम्हारे नाटकों को देखने आयी जनता को ऊबड़-खाबड़ कुर्सी बेन्चों पर बैठने से न तो नींद आयी और न पूरा आराम मिला। इस प्रकार उन्हें नरक-यातना भोगनी पड़ी है। वही अनिद्रा शाप के रूप में तुम्हारे पीछे पड़ी है। मृत्यु बनकर तुम्हारी ताक में है।’’ (मौन) मुझे यह मालूम नहीं था कि मेरे नाटक इतने परिणाम कारी होंगे।

यह अन्तिम रात है। इसीलिए घर छोड़कर भाग आया हूँ। यही सोचकर आया हूँ कि लेखक होने के घमण्ड में जिन्हें मैं आजन्म तंग करता रहा, उनके सामने मरना ठीक नहीं। इस उजाड़ मन्दिर में, जिसका विग्रह भी टुकड़े-टुकड़े हो चुका है और जिसका कोई नाम भी नहीं है, सबसे आँखें बचाकर मरने के लिए यह जगह सही है । मानो इसी के लिए यह जगह बनी हो। एक बात तो सत्य है। अगर इस बार बच गये तो नाटक लिखने का नाम नहीं लूँगा । कहानी, कथानक, प्लाट, थीम, इतिवृत कुछ भी छुऊँगा तक नहीं, भगवान की कसम।
(दीर्घ मौन। बार-बार आँखें खोलने और अपने को चिकोटी काटने का प्रयत्न करता है। मन्दिर के बाहर कई स्त्री स्वर सुनाई पड़ते हैं। उस तरफ देखकर।)
कौन है ? इस आधी रात में, इस उजड़े मन्दिर में कौन आ रहा है ? (आश्चर्य से) चार-पाँच दीये !
(खम्भे की ओट में छिपकर देखता है। चार-पाँच दीये की ज्योतियाँ हवा में तैरती हुई मन्दिर में प्रवेश करती हैं और स्त्री स्वर में बातें करती हैं, हँसती हैं।)

आश्चर्य, परमाश्चर्य...केवल दिये की ज्योतियाँ हैं, बत्ती नहीं, दीये नहीं, दीया पकड़ने वाला नहीं ! केवल ज्योतियाँ बिना किसी का आधार के हवा मे तैरती चली आ रही हैं। बातें भी कर रही हैं। यह कैसा करिश्मा ? यह भूत-प्रेतों की करामात तो नहीं ? या भूतनियों का चमत्कार है?
( और भी दस-बीस ज्योतियाँ आती हैं। उनमें आपस में गप्पें और हँसी-मजाक चलता है।)
ज्योति-3 : ओह हो ! अरे यह क्या, ज्योति-1 ! आज तो तुम हमसे पहले ही आ गयी !
ज्योति-1 : वह हमारे घर का मालिक है न ! पता है कितना कंजूस है ! पत्नी जरा ज्यादा ख़र्चीली है, समझकर खुद पैंठ होकर आता है। आज दीया जलाकर एक घण्टा भी नहीं हो पाया था। कि उसका लाया वंगे का तेल ख़तम हो गया। घर में मूँगफली का तेल भला कितने दिन चलता ! अरण्डी के तेल का डिब्बा पहले ही खाली पड़ा था। खैर, घर में एक बूँद तेल नहीं था। और कोई चारा न होने से वे सब सो गये। हम भी चल पड़ीं ।

ज्योति-2 : (ज्योति-4 से नाक सिकोड़कर) धत्, कुसबी का तेल, मूँगफली का तेल ! वे कैसे सहन करते है ?हम तो घाट के नीचे के हैं। हमारे यहाँ खोपरे के तेल के सिवा और दूसरा तेल इस्तेमाल ही नहीं होता।
ज्योति-1 : हमारी बात छोड़ो। रोजा़ना आने के समय से कोई आधा घण्टा पहले आयी होगी। पर तुम्हारे साथ आयी यह मिट्टी के तेल की ज्योति ? इसका तो महीनों पता नहीं रहता। आज इतनी जल्दी कैसे यहाँ ?
ज्योति-4 :आज ही क्यों ? आगे से ऐसा लगता है, रोज़ जल्दी ही छुटकारा मिल जाएगा।
(उसके साथ आयी ज्योतियाँ खिलखिलाकर हँस पड़ी हैं)
ज्योति-1 : क्यों, क्या हुआ ?
ज्योति-2 : बताओ, बताओ न !
ज्योति-3 : हमारे मालिक की माँ बहुत बूढ़ी थी। पेट के घाव, पीठ में पस, दमा, खाँसी, मल-मूत्र सब कुछ बिस्तार पर। न मरती थी, न जीती। खाँसी इतनी कि कोई सो नहीं सकता । मुझे भी छुटकारा नहीं था। हालत ही ऐसी थी उसकी। आज सुबह वह चल बसी ! अब घर में केवल दो ही जीव हैं-यानि हमारे मालिक और पत्नी। पत्नी भी कितनी सुन्दर है, मालूम है ? छूने भर से ही मैली हो जाए। सोने सी उछलती है। उन्होंने अँधेरा होते ही मुझे बाहर निकाल दिया।
ज्योति-2 : तुम भाग्यवान हो। हमारे मालिक को तो पत्नी के अंगांग देखने पर ही गर्मी चढ़ती है। इसलिए अँधेरे में होने वाले सभी काम के लिए दीये का साक्षी होना चाहिए।

(हँसी। सब ज्योतियाँ बाते करती हैं । नयी ज्योतियाँ आ-आकर बैठती हैं, अलग हँसती है, गप्पें मारती हुई घूमती हैं।)
मनुष्य : (स्वगत) ओह, सुना था कि रात के समय दीया बुझते ही सारी ज्योतियाँ तुरन्त गाँव के बाहर के मन्दिर में एकत्रित होती हैं। वहाँ वे गप्पे मारते हुए सारी रात बिताती हैं। वे ही इस मन्दिर में एकत्रित हो रही हैं क्या ?
(एक नयी ज्योति मन्दिर में प्रवेश करती है। सारी ज्योतियाँ खुशी से शोर-गुल करती उसका स्वागत करती हैं।)
ज्योतियाँ : अरी इतनी देर क्यों ? कहाँ थी ? आधी रात हो गयी....
नयी ज्योतियाँ : क्या बताऊँ... हमारे घर में तो एक हंगामा ही हो गया।
ज्योतियाँ : (उसे घेरकर) क्या हुआ ? क्या हुआ ?

नयी ज्योति : आप लोगों को मालूम नहीं है ? हमारे घर में केवल दो ही प्राणी हैं- बूढ़ा़-बूढ़ी। आज बुढ़िया खाना खाकर गोबरी लगाकर, बर्तन माँजने के बाद पति के सोने के कमरे में गयी। वहाँ वह क्या देखती है-एक सुन्दर स्त्री बढ़िया-सी रंग-बिरंगी साड़ी पहनकर उस कमरे से बाहर आ रही थी। बुढ़िया को देखते ही, मुँह छिपाकर वह घर से चली गयी ! बुढ़िया ने बूढ़े को जगाकर उस औरत के बारे में पूछा। बात से बात बढ़ गयी। यहाँ तक कि नौबत हाथापाई तक आ पहुँची।
ज्योतियाँ : (शोर) वह औरत कौन थी? तुम्हारे घर में कैसे घुसी ?

नयी ज्योति : बताती हूँ, बताती हूँ। हमारी बुढ़िया एक कहानी और एक गीत जानती थी। पर उसने कभी किसी को वह कहानी नहीं सुनाई ; न ही वह गीत। वह कहानी और वह गीत वहीं पड़े-पड़े ऊब गये थे। आज दोपहर को भोजन करके बुढ़िया जरा लम्बी हो गयी। ज्यों ही उसने खर्राटे लेने को मुँह खोला, त्यों ही कहानी और गीत उसके मुँह के बाहर कूद पड़े। अटारी पर चढ़कर एक कोने में छिपकर बैठ गये। रात को बूढ़ा अपने कमरे में सोने गया ही था कि मौका देखकर कहानी ने एक लड़की का रूप धारण कर लिया, गीत ने साड़ी का रूप धारण किया। उस साड़ी को पहनकर कहानी बूढ़े के कमरे में जा बैठी। ठीक बुढ़िया को वहाँ आने के समय वह बाहर निकली। इस तरह घर में झगड़ा पैदा करके कहानी और गीत ने अपना बदला ले लिया।
ज्योति-4 : वही तो। एक कहानी छिपा लो तो दूसरी बन जाती है।
ज्योति-5 : बदला तो ले लिया। पर उन बेचारियों का आगे क्या बनेगा ? इस अँधेरे में पता नहीं कहाँ-कहाँ भटक रही होगी।
नयी ज्योति : आते समय रास्ते में मेरी उनसे भेट हुई थी। मैंने कहा ‘मन्दिर में आ जाओ। हम सब वहीं है।’ आ सकती हैं...वह देखो आ ही गयीं।

(एक सुन्दर युवती रंग-बिरंगी साड़ी पहने, मन्दिर में प्रवेश करती है। उसका मुँह उतरा हुआ है। चुपचाप जाकर एक कोने में बैठ जाती है। ज्योतियाँ उसे घेर लेती हैं।)

ज्योतियाँ : अरे, ऐसे मुँह लटका कर क्यों बैठी गयी ?हमें भी कोई और काम नहीं। सारी रात बितानी है। तुम अपनी कहानी सुनाओ तो।

कहानी : (विषाद से) आप लोगो को बताने से क्या लाभ है! जो कहानी सुनते हैं उसे वे दूसरों को सुनाएँ तो ही ठीक है। आप लोग उसे किसी को नहीं सुनाओगी तो समझ लो वह कहानी वहीं समाप्त हो जाती है। इससे अच्छा तो यही था कि उस बुढ़िया के भीतर ही पड़ी रहती। आज नहीं तो कल कभी तो वह दूसरों को सुनाती ही।
ज्योतियाँ : यह बात ठीक है। पर भला बताओ। हम भी क्या करें ?
(इस प्रकार वे सब आपस में बातें करती हैं। कहानी शून्य मन से बैठी रहती है। मनुष्य अपनी जगह से उछलकर कहानी की बाँह पकड़ता है। ज्योतियाँ घबराकर बिखर जाती हैं। कहानी भी अपने को छुड़ाने का यत्न करती है।)
मनुष्य : तुम मुझे बताओ, मैं उसे दूसरों को सुनाऊँगा।

कहानी : (हाथ छुड़ाने का यत्न कर) तुम कौन हो, कौन हो तुम ? छोड़ो मुझे।
मनुष्य : मैं चाहे कोई भी होऊँ। मैंने कहा न, मैं कहानी सुनने को तैयार हूँ।

कहानी : यह बात है ! तो मेरा हाथ छोड़ो । (वह छोड़ता नहीं। उसे डर है कि वह भाग जाएगी।)
कहानी कहने के लिए सिर्फ मुँह काफी नहीं। हाथ भी चाहिए। (वह हाथ छोड़ देता है।)
पर एक शर्त है !
मनुष्य : क्या ?

कहानी : सिर्फ़ कहानी सुनने से कोई लाभ नहीं। उसे फिर से किसी को सुनाना चाहिए। कहानी का जन्म किसी एक की सम्पत्ति बनाने को नहीं होता है।
मनुष्य : ओह, जिन्दा रहा तो सुनाऊँगा ? पर पहली बात तो यह है कि मुझे जि़न्दा रहना चाहिए । हाँ, मेरी भी एक शर्त है !

कहानी : वह क्या ?
मनुष्य : कहानी सुनते समय मुझे नींद नहीं आनी चाहिए । ऊँघ नहीं आनी चाहिए। नींद आ गयी तो मैं मर जाऊँगा।

कहानी : (हँसकर) कहानी होकर जन्म लेने के बाद अगर इतना भी नहीं कर सकी तो क्या लाभ ?
मनुष्य : (एकदम याद करके) नहीं, नहीं, सम्भव नहीं।

कहानी : क्या ? अब क्या हो गया ?
मनुष्य : मैंने अभी-अभी प्रतिज्ञा की थी। अगर जिन्दा रहा तो कहानी, नाटक लिखना सब बन्द कर दूँगा। दुबारा इन प्रेक्षकों के शाप का सामना करने का उत्साह मुझमें नहीं बचा है।

कहानी : (खीचकर) तो ठीक है, हम चलीं । (जाती है।)
मनुष्य : रूकिए, रूकिए।
(रूकती है। मनुष्य दीन होकर)

मेरी परिस्थिति को जरा समझने का यत्न कीजिए ।
(कहानी जाने को होती है। मनुष्य जो़र से)
ठीक है मान लिया। और क्या करू ? आप अगर चली गयीं तो समझ लीजिए मेरी कहानी भी खतम। मेरे लिए और कोई चारा ही नहीं।
(प्रेक्षकों से) कम-से-कम अब तो नाटक खिलवाने का कारण पता चल ही गया होगा। हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हूँ। ज़रा सहयोग दीजिए। कृपया ध्यान देकर नाटक देखिए। मेरे लिए तो यह जीवन-मरण का प्रश्न है।
(कहानी से) ठीक है, कहानी सुनाओं ।
(आगे से नाटक के अन्त तक कहानी और मनुष्य रंगमंच पर ही रहते हैं। उनके चारों ओर यानी ज़रा दूर ज्योतियाँ एकत्रित होकर कहानी सुनती हैं। अब उजड़े मन्दिर के स्थान पर अप्पण्णा के घर के सामने का भाग दिखाई देता है।

प्रथम अंक

[अप्पणा का घर। घर के भीतरी हिस्से के दिखाई देने के समान रंगमंच की रचना। अगले दरवाजे़ पर ताला लगा है।]

कहानी : एक लड़की थी। नाम....मान लीजिए कुछ था। वह माँ-बाप की इकलौती बेटी थी। माँ-बाप उसे प्यार से ‘रानी’ पुकारते थे। रानी, लम्बी केशराशि की रानी। बहुत बड़े-से जूड़े वाली रानी । अगर वह जूड़ा़ बाँधती तो ऐसा लगता था मानो साँप कुण्डली मारे झूम रहा हो। बाल खोल लेती तो काली घटा की तरह चमचमाते और पाँव की पयाल चूमते थे। रानी बड़ी हो गयी। पिता ने एक वर ढूँढ़कर उसका ब्याह कर दिया। लड़का भी एकलौता ही था। बचपन में ही उसके माता-पिता जाते रहे। काफी़ सारी धन-सम्पत्ति थी। रानी रजस्वला हुई। पति आकर उसे विदा कराकर अपने गाँव ले गया। उसका नाम अप्पण्णा माने लेते हैं। (अप्पण्णा और रानी रंगमंच पर प्रवेश करती है। उनके सिर और कन्धों पर गठरियाँ लदी हैं। अप्पण्णा घर का ताला खोलता है। इशारे से उसे भीतर बुलाता है। दोनों सामान को घर के भीतर ले जाकर रखते हैं।)
अप्पण्णा : सारा सामान आ गया न?

रानी : जी।
अप्पण्णा : तो ठीक है। मैं कल सुबह फिर से आऊँगा। खाना पकाकर रखना। खाना खाकर जाऊँगा।
(रानी अवाक् होकर देखती है। वह उसकी ओर ध्यान नहीं देता। बाहर जाकर दरवाजा बन्द कर के ताला लगाकर चला जाता है। रानी दौड़कर दरवाजे तक आती है। दरवाजा टटोलकर देखती है। खिड़कियों की सलाखों से बाहर देखती है। तब भी वह उसकी ओर दृष्टि डाले बिना निकल जाता है।)
रानी : (घबराकर) जी...जी...ऐ जी...!
(उसे यह समझ में नहीं आता कि क्या हो रहा है। चुपचाप खड़ी रह जाती है। रोया भी नहीं जाता। बाद में जाकर दुछत्ती के एक कमरे के कोने में बैठ जाती है। धीरे-धीरे अँधेरा होता है। वह अपने-आप से बातें करने लगती है। पहले उसकी बातें सुनाई नहीं देतीं। पर अँधेरा होते ही उसकी बातें स्पष्ट होती हैं।)

रानी : तब रानी पूछती है : ऐ गरूड़, मुझे कहाँ ले जा रहे हो ? गरूड़ कहता है : सात समुद्र पार सात द्वीप हैं। सातवें द्वीप पर एक सुन्दर-सा बाग़ है। उसमें एक हरा-भरा पेड़ है। उस पेड़ के नीचे तुम्हारे माँ-बाप तुम्हारी प्रतिक्षा कर रहे है। तब रानी कहती है : यह बात है तो चलो आती हूँ। वह उस गरूड़ की पीठ पर बैठकर आकाश में उड़ जाती है।
(बैठी-बैठी वह वहीं सो जाती है। नींद में ‘माँ, माँ, इधर आओ कहकर बड़बड़ाती है। प्रातःकाल होता है। वह घबराकर उठती है। उठकर गुसलखाने में जाकर मुँह धोती है और तेजी से रसोई घर में जाकर रसोई बनाने लगती है। दोपहर होती है। अप्पण्णा आता है। ताला खोलकर घर के भीतर जाता है।)
अप्पण्णा : मेरे नहाकर बाहर आने तक खाना परोस देना।
(स्नान करके आता है। खाने बैठता है। वह परोसती है।)
रानी : (डरती हुई) जी...

(अप्पण्णा कोई जवाब नहीं देता और खाने में मग्न रहता है। रानी बात करने को छटपटाती है।)
इस...रात के समय घर में...मुझे अकेले डर... लगता है ।
अप्पण्णा : डरने की इसमें क्या बात है ? चुपचाप पड़ी रहो। यहाँ तुम्हें कोई भी तंग करने नहीं आएगा। (मौन)
रानी : ज़रा....आप...
अप्पण्णा : देखो, मुझे बेकार की बातें पसन्द नहीं। बेकार से पूछ-ताछ करके मेरी जान मत खाओ। जैसा कहता हूँ, वैसा करोगी तो मार नहीं पड़ेगी। (खाना खाकर, उठकर) कल दोपहर फिर से खाना खाने आऊँगा। तैयार रखना।
(हाथ धोकर बाहर से ताला लगाकर चला जाता है। रानी दरवाजे तक आकर जिधर वह गया, उसी ओर शून्य दृष्टि से देखती है।)

कहानी : इसी प्रकार दिन बीतते गये।
(रानी रसोईघर में जाकर रसोई बनाने लगती है और अपने-आप से बातें करने लगती है।)
रानी : जब रानी के माता पिता उसे गले लगाकर उसे रोते हैं। प्यार करते हैं। उसे रात को दोनों के बीच ऐसे सुलाते हैं ताकि उसे डर न लगे। वे कहते हैं-‘‘अब तुम्हें अकेली नहीं छोड़ेंगे। डरो मत।’’ दूसरे दिन सुनहरे सींग का हिरण फिर से आता है। रानी को फिर से बुलाता है। वह उसकी ओर देखती है...(हँसती है) पर वहाँ हिरण था नहीं। उसकी जगह वहाँ एक राजपुत्र खड़ा है।

(चूल्हे की आग को निहारती शून्य मनस्क होकर बैठ जाती है। एकदम आँसू टपक पड़ते हैं। रोने लगती है।)
रानी : माँ...बापू...मुझे ले जाओ। आप लोग कहाँ हो ? माँ..बापू...
(कप्पण्णा अन्धी माँ को पीठ पर उठाकर लाता है। वह लगभग पचास की है। अन्धी है। लड़का बाईस-तेईस साल का जवान है। हाथ-पैर मजबूत हैं। दोनों बातें करते हुए प्रवेश करते है।)
कप्पण्णा : माँ, तुम्हें भी और कोई काम नहीं। सुबह होते ही, किसी के घर में कुछ गड़बड़ तो नहीं हो रहा है, यह देखने निकल पड़ती हो। इस अप्पण्णा को तो जंगली सुअर या भालू होना था। ग़लती से मनुष्य बनकर पैदा हो गया है। बात करें तो नाक ही काट डालने को आता है। सारा गाँव उसकी छाया तक पसन्द नहीं करता है। ऐसी हालत में तुम्हे उसकी फिकर क्यों ?
अन्धी माँ : वह चाहे कैसा ही क्यों न हो। उसकी माँ और मै बहनें-जैसी थीं। बेचारी वह परसूति में ही चल बसी। अब उसकी बहू आयी है। तो भला बताओं, मैं कैसे अपने को रोक पाती ! वह भी तुम्हारे यह कहने के बाद कि तुमने उसे उस रण्डी के कोठे पर देखा है। तबसे मेरी तो नींद ही उड़ गयी। घर में पत्नी के आने के बाद भी उसकी रखैल की लत नहीं छूटी।
कप्पण्णा : तुमको बताना ही ग़लती हो गयी। अब तुम्हे नींद नहीं आएगी और मेरी पीठ का दर्द नहीं जाएगा।
अन्धी माँ : ऐ, मैंने तुमसे कब कहा कि तू मुझे उठाकर घूमा करे। इस गाँव में मैं पैदा हुई हूँ। मैं अपने-आप अपना काम कर लेती हूँ।

कप्पण्णा : माँ, रोज हनुमान के मन्दिर में मैं क्या माँगता हूँ, पता है? ‘‘हे भगवान, मुझे कुश्ती नहीं चाहिए, झगड़ा नहीं चाहिए,। मेरी माँ को उठाकर घूम सकूँ, उतनी शक्ति दो, बस इतनी ही।’’
अन्धी माँ : यह मैं नहीं जानती हूँ क्या मेरे बेटे...!
(कप्पण्णा एकदम खड़ा हो जाता है।)
क्यों एकदम खड़ा हो गया ? क्या हुआ ?
(वह उत्तर नहीं देता। दूर तक नजर दौड़ाता खड़ा रहता है। अन्धी माँ घबरायी-सी)
कप्पण्णा...कप्पण्णा...!!

कप्पण्णा : डरों नहीं, माँ। अप्पण्णा का घर यहीं से दीखता है। इसलिए खड़ा हो गया।
अन्धी माँ : (लम्बी साँस लेकर) बाप रे, जान में जान आयी। मैंने यह सोचा था कि तुम कहोगे कि राक्षस या पिशाच देखा। यही सोचकर मैं डर गयी थी.
कप्पण्णा : माँ, वह राक्षसी भी नहीं है, पिशाचिनी भी नहीं। उसके दिखाई देने पर मैं कहूँ तो तुम्हें विश्वास नहीं होगा। अब मैं उसकी बात नहीं कह रहा हूँ। पर तुम भी बेकार में ही घबराती हो।
अन्धी माँ : उसकी बात छोड़। अब यह बता दे कि तू खड़ा क्यों हो गया ?
कप्पण्णा : क्योंकि ऐसा नहीं लगता कि अप्पण्णा के घर में कोई है। अगले दरवाजे पर ताला लगा है।
अन्धी माँ : (आश्चर्य से) आँ ? यह कैसे ? भले ही वह रखैल की बगल मे पड़ा रहा हो पर उसकी पत्नी को तो घर में होना ही चाहिए न....?
कप्पण्णा : उस अप्पणा का क्या कहूँ, वह एक निहायत गन्दा आदमी है।
अन्धी माँ : अरे, क्या उसे इतनी जल्दी पत्नी को मायके भेज दिया ? कप्पण्णा, मेरी बात को सुन। ज़रा जाकर खिड़की से झाँककर देखा। कहीं घर खा़ली करके चले तो नहीं गये?
कप्पण्णा : यह तो सम्भव नहीं।

अन्धी माँ : मैं जो कहती हूँ वह सुन।
कप्पण्णा : मैं तैयार नहीं।
अन्धी माँ : (गुस्से से) अगर मेरी आँखें होतीं तो मैं तुझसे नहीं कहती बेटे ! मैं खुद जाकर देख आती। पता नहीं भगवान ने मुझे आँखें क्यों नहीं दी।
कप्पण्णा : (विवश होकर) माँ, हम क्यों इस अप्पण्णा के बखेड़े में पड़ें। कोई देख लेगा तो क्या कहेगा?
अन्धी माँ : (ज़रा उत्साह से) जो चाहे कहे। हमें क्या ! चल, देखकर बता।
(दोनों घर के पास आते हैं। कप्पण्णा माँ को जमीन पर उतार देता है और खुद जाकर खिड़की से झाँकता है।)
कप्पण्णा : घर में कोई नहीं है।

अन्धी माँ : अरे मूर्ख, बाहर जब ताला लगा है तो भला भीतर कौन रहता है ! जरा यह देख, आँगन में रँगोली डाले कितने दिन हुऐ होंगे। बाहर रस्सी पर कपड़े सूखते हों तो यह देख कि कुर्ता-धोती ही है या साड़ी-ब्लाउज भी।)
कप्पण्णा : (ऊबकर जो़र से ) माँ यहाँ से कुछ भी दिखाई नहीं देता ।
रानीः (उसकी ध्वनि सुनकर भीतर से) कौन है ? कौन बातें कर रहा है ?
कप्पण्णा : (घबराकर) बाप रे !

(अन्धी माँ को उठाकर भागने लगता है।)
अन्धी माँ : ऐ ! ऐ ! रूक, रूक। ऐसे क्यों भाग रहा है जैसे कोई भूत दिखाई दिया हो।
कप्पण्णा : माँ, घर में कोई है। किसी स्त्री का स्वर है।
अन्धी माँ : इतना तो मुझे भी सुनाई देता है। स्त्री है। ऐसे भागने की क्या बात है। वह होगी सोचकर ही तो हम यहाँ आये हैं।
कप्पण्णा : अगले दरबाजे पर ताला लगाकर पत्नी को भीतर बन्द करके जाने का मतलब
क्या होता है ? अन्धी माँ : क्या मतलब हो सकता है, तू ही बता ?
कप्पण्णा : इसका मतलब है कि कोई उसकी पत्नी के बारे में बात न करे।
रानी (खिड़की के पास आकर) कौन है ?

कप्पण्णा : माँ, आ चलें। (चलने को होता है। माँ उसकी पीठ पर मुक्का जमाती है।)
अन्धी माँ : रूक, रूक। (रानी से जोर से) आयी बेटी, आ ही गयी। (कप्पण्णा से) तू यहीं ठहर, उतार मुझे, उतार।
(कप्पण्णा माँ को उतारता है। वह तेजी से घर की ओर जाती है।)
पत्नी को उसने तोते के पिंजड़े में बन्द रखने की तरह रख रखा है क्या ?मैं उससे बात करके ही जाऊँगी। चाहे तू घर चला जा। कप्पण्णा : मैं वहाँ नहीं जाऊँगा। घर भी नहीं जाऊँगा। इसी बरगद के पेड़ के नीचे बैठा रहूँगा। तुम जरा जल्दी आ जाना। गप्पें मारने मत बैठ जाना।

(पेड़ के नीचे बैठता है।)
अन्धी माँ : ऐ...लड़की...बेटी...
रानी (डरती हुई)...कौन ?
अन्धी माँ : डर मत बेटी ! मैं अन्धी माँ हूँ। तुम्हारी सास और मैं सगी बहनों के समान थीं। तुम्हारे पति के पैदा होने के समय मैंने ही तुम्हारी सास की जचगी करायी था। डरो मत। अप्पण्णा मेंरे लिए भी बेटे के समान ही है। वह घर में नहीं है क्या ?

रानीः नहीं ।
अन्धी माँ : तुम्हारा नाम क्या है ?
रीनीः मुझे सब ‘रानी’ पुकारते हैं।
अन्धी माँ : तो अप्पण्णा कहा है ?
रानीः मालूम नहीं।
अन्धी माँ : बाहर कब गया ?
रानी : कल दोपहर का भोजन कर के गये ।
अन्धी माँ : तो फिर लौटेगा कब ?

रानीः वे तो सिर्फ दोपहर के भोजन के समय ही घर पर रहते हैं।
अन्धी माँ : अरे ! एक बार खाना खाकर जाने के बाद दूसरे दिन ही आता है क्या ?
(उत्तर नहीं)
तब सारा दिन तुम अकेली ही घर पर पड़ी रहती हो ?
(रानी अपने को रोक नहीं सकती और बिलखने लगती है।)
ना,ना रो मत बेटी ! मैं तुम्हें रूलाने नहीं आयी । रोज़ ऐसे ही बन्द करके जाता है क्या?
रानी : जी, जबसे मैं उनके साथ यहाँ आयी हूँ, तभी से ऐसे ही....
अन्धी माँ : हाय, हाय ! पीटता-पाटता है क्या ?
रानीः नहीं ?
अन्धी माँ : (अटकती हुई) बातचीत..करता है कि नहीं ?
रानी : बहुत कम, बस इतना ही ‘खाने के लिए आऊँगा। खाना पकाओ और जैसा कहता हूँ वैसे कर।’
अन्धी माँ : यानि, तुम्हे अभी...
रानीः इस गाँव में आने के बाद से उनके अलावा मुझसे बात करने वाला कोई भी नहीं है। (आँसू भर आते हैं) मन ऊब गया है।
अन्धी माँ : लड़की, बात करने का मतलब मेरा यह नहीं। शादी के बाद तुम्हारे पति ने तुम्हारे हाथ-पैर....धत्, तुम्हारी शादी से पहले तुम्हारी माँ, दीदी, मौसी किसी ने सिखाया नहीं ?
रानी : मेरी माँ मेरे रजस्वला स्नान के दिन रोने लगी। मेरे गाँव छोड़ने तक रोती ही रही। बेचारी अब भी आँसू बहा रही होगी।
अन्धी माँ : रोओ मत बेटी ! रोने से क्या होता है, रोओ नहीं। इधर आओ। खिड़की के पास आ। मेरी हथेलियाँ ही मेरी आँखें हैं। तुम कैसी हो, यह मैं देखना चाहती हूँ।
(खिड़की की सलाखों से हाथ डालकर रानी के सिर मुख को छूकर देखती है।)

हाय राम ! तुम कितनी सुन्दर हो। कान तो अड़हल के फूल जैसे हैं। गाल रागी के लड्डू हैं। होंठ तो रेशम के लच्छे हैं। ऐसी सुन्दर लड़की घर में अकेली छोड़कर गाँव में वह कैसे घूमता-फिरता है हरामजादा।
रानी : (बिलखकर) मुझे रात को नींद नहीं आती । बहुत डर लगता है। मैं अपने गाँव अपने माँ-बापू के बीच में सोया करती थी। यहाँ मैं अकेली हूँ अन्धी माँ ....तुम मेरे माँ-बाप को ज़रा खबर कर दोगी। इन्होंने मुझे कैसे रख रखा है। उनको यह कहला भेजो कि वे आकर मुझे छुड़ा ले जाएँ। मैं जि़न्दगी से ऊब गयी हूँ। किसी दिन कुएँ, तालाब...
अन्धी माँ : अरे ऐसी बातें नहीं करते। मैं सब सँभाल लूँगी (आवाज देती है)
कप्पण्णा, कप्पण्णा, !........
कप्पण्णा : (पेड़ के पीछे से ही) जी.....
अन्धी माँ : ज़रा इधर तो आ....
कप्पण्णा : नहीं आता ।
अन्धी माँ : अरे मूरख, यह भी एक...(उसी के पास जाकर) दौड़कर घर जा। गोंठ में जाते ही दायें कोने में....
कप्पण्णा : दायें कोने में...
अन्धी माँ : तू हल रखता है न ! वहीं ऊपर, हाँ खम्भे की तरफ़ शहतीर पर....
कप्पण्णा : खम्भे की तरफ़ शहतीर पर....
अन्धी माँ : एक पुराने ट्रंक है। उसे खोलना, उसमें बहुत-सा सामान भरा पड़ा है। वहीं पर कपड़े की एक पोटली है। उसे खोलना। उसमें लकड़ी का एक डिब्बा है।
कप्पण्णा : लकड़ी का डिब्बा....
लड़की का डिब्बा है फिर ?
अन्धी माँ : उसे डिब्बे में बायें किनारे एक कागज की पुड़िया है। उस पुड़िया में नारियल का खोल है। उसमें दो जड़ियाँ है। उन्हें ले आ। जा।
कप्पण्णा : अभी ?
अन्धी माँ : हाँ, अभी। अप्पण्णा के आने से पहले ही।
कप्पण्णा : माँ, मेरी बात सुनो। वह आ गया तो....
अन्धी माँ : बातें कर के समय बरबाद न कर। जा, हाँ।
(उठकर घर की ओर चलने को तत्पर होती है। कप्पण्णा और कोई चारा न होने से जाता है।
लड़की, तुम यहीं हो न ?
रानी : यहीं हूँ, माँ। वह कौन था ?
अन्धी माँ : मेरा बेटा-कप्पण्णा।
रानी : उसका मुँह दिखाई नहीं दिया ?

अन्धी माँ : उसका नाम मैंने कप्पण्णा रखा है। पर इससे तू यह मत समझना कि वह काला ही है। वह गोरा है। उसके पैदा होने पर, उसका रंग देखकर मेरे घरवाले ने कहा-यह कितना गोरा है। मैंने ऐसा गोरा बच्चा पहले कभी नही देखा, इसका नाम गोरा रखेंगे। पर मैंने तो जिन्दगी में कालेपन के अलावा और कुछ देखा ही नहीं था। मेरा जगत् तो काला ही है। मैंने कहा, मेरी आँखों का तारा भी काला होना चाहिए। इसलिए इसका नाम कप्पण्णा रखा।
रानी : अब अपने उसे कहाँ भेजा है ?
अन्धी माँ : वही बता रही हूँ, सुन। बैठ जा। (दोनों बैठ जाती हैं) मैं जन्म से अन्धी हूँ । भला कौन मुझसे शादी करता ? मेरे बापू मेरे लिए वर खोजते-खोजते थककर चूर-चूर हो गये थे। एक दिन हमारे घर एक संन्यासी आया। घर मे मैं अकेली थी। मैंने सब प्रकार से उसकी सेवा की। गरम-गरम चावल बनाकर पेट भर भोजन परोसा। संन्यासी बड़ा खुश हुआ। मुझे जड़ियों के तीन टुकड़े देकर बोला-जो भी पुरूष यह जड़ी खाएगा, वह तुम पर आसक्त हो जाएगा।
रानी : (उत्साह से) आगे ?
अन्धी माँ : उसने कहा पहले छोटी वाली जड़ी ही खिलाकर देखना। उससे कोई फल नहीं निकला तो बीच वाला टुकड़ा खिला देना। उससे भी कोई फायदे न हुआ तो सबसे बड़ा टुकड़ा खिला देना।
रानी : फिर ?
अन्धी माँ : एक दिन हमारे रिश्तेदारों में से एक लड़का हमारे गाँव आया था। हमारे घर में ही ठहरा था। मैंने जड़ी घिसकर, दाल में मिलाकर उसे परोस दिया। (दोनों हँसती हैं।)
पता है कौन सा टुकड़ा मिलाया....
रानी : कौन-सा टुकड़ा ? सबसे छोटा। नहीं-नहीं, शायद सबसे बड़ा ही होगा।
अन्धी माँ : नहीं, मैं इतनी जल्दी में थी कि छोटे की ओर मेरा ध्यान नहीं गया। बड़े के बारे में संन्यासी ने डराया था।। बीच का ही इस्तेमाल किया।
रानी : (मन्त्रमुग्ध-सी होकर) फिर ?
अन्धी माँ : लड़के ने खाना खाकर एर बार मेरी ओर देखा, बस अपनी सारी सुध-बुध खो बैठा। दो दिनों में शादी कर ली। हमारे घर पर ही घर-जँवाई बन कर रह गया। अपने पास से उसे हटाना एक मुश्किल काम हो गया।
(रानी ताली बजाकर खिलखिलाकर हँसती है। कप्पण्णा जरा आगे आकर)

कप्पण्णा : माँ....
अन्धी माँ : हाँ, लगता है कि वह आ गया, अभी आयी।
(पेड़ के पास जाकर)
ला इधर
(कप्पण्णा से जड़ियाँ तेजी से दरवाजे के पास जाती है)
अन्धी माँ : लड़की, तुम यहीं हो न ?
रानी : यहीं हूँ, माँजी।
अन्धी माँ : ले।
रानी : यह क्या है ?
अन्धी माँ : वह बतायी थी न जड़ियों की बात। तू भी एक ले ले।
रानी : (घबराकर) नहीं, नहीं, माँजी।
अन्धी माँ : ले, छोटा ही टुकड़ा ले। तेरी जैसी सुन्दर मलिका के लिए यह छोटा टुकड़ा ही बहुत है। एक बार तेरी खुशबू सूँघ लेगा तो बस उस कुतिया को सूँघेगा भी नहीं।
(रानी एक टुकड़ा उठाती है। अन्धी माँ बड़ा टुकड़ा लेकर अपनी अण्टी में खोस लेती है।) उस जड़ी के टुकड़े को बारीक पीसकर दाल में मिलाकर अपने घर वाले को परोस देना। उसका परिणाम क्या होगा तू ही देख लेना। तुझे ही अपनी पत्नी बना लेगा।
रानी : (कुछ भी समझ में न आने से) हमारी शादी हो चुकी है, माँजी।
अन्धी माँ : अब जो भी कहती हूँ वह सुन। जाकर अभी से घिसने बैठ जाना।
(कप्पण्णा सीटी मारता है।)
लगता है अप्पण्णा आ गया।
रानी (भीतर भागती हुई) माँजी, अब तुम जाओ। आती-जाती रहना।
अन्धी माँ : अच्छी बात , पर मैंने जो कहा वह जरूर करना।
(जाती है। अप्पण्णा आता है।)
अप्पण्णा : कौन ? अन्धी माँ...
अन्धी माँ : हँ, कैसे हो अप्पण्णा ? बहुत दिन हो गये....
अप्पण्णा : ( सन्देह से) तुम्हें यहाँ क्या काम था, अन्धी माँ !
अन्धी माँ : सुना है कि तुम नयी बहू लाये हो। उससे मिलने आयी पर वह लाख बुलाने पर बाहर नहीं निकली।
अप्पण्णा : वह किसी से बात नहीं करती। किसी को उससे बात करने की जरूरत भी नहीं है।
अन्धी माँ : जाने दो।
(जाती है)

अप्पण्णा : (ज़रा ऊँची आवाज में) ताला इसलिए लगाया था कि देख सकने वाले समझ सकें। इस अन्धी माँ की ज़बरदस्ती क्या करें। एक शिकारी कुत्ता लाकर बाँध दूँगा।
(दरवाजा खोलकर भीतर जाता है।)
आज मैं खाना नहीं खाऊँगा। एक गिलास गरम दूध दे दो।
(गुसलखाने में जाता और नहाने लगता है। रानी चूल्हे पर दूध रखती है। तभी अन्धी माँ की दी छोटी-सी जड़ी की ओर ध्यान जाता है। सोचती है। भागकर गुसलखाने के पास खड़ी होकर यह पक्का कर लेती है कि वह नहा रहा है। लौटकर रसोई घर में जाकर वह जड़ी को पीसता है। दूध के गिलास में मिलाती है।)
अप्पण्णा : (शरीर पोंछता-पोंछता ) दूध !
(रानी घबराकर उठती है। जड़ी के रस को दूध में मिलाकर दूध का गिलास लाकर अप्पण्णा को पकड़ती है। वह एक ही घूँट में दूध गटक कर, गिलास उसके हाथ में देकर, ताला चाबी लेकर चला जाता है। रानी पति को देखती खड़ी है। वह दरवाजा आगे खीचने का यत्न करता है। सिर में चक्कर आने से दरवाजा जोर से पकड़ लेता है, उसी जगह धप से बैठ जाता है। वैसे ही दरवाजे में आड़ा हो जाता है और खर्राटे भरने लगता है। रानी को कुछ समझ में नहीं आता। धीरे से पास आती है। अप्पण्णा गहरी नींद में है। उसे हिलाती है। लाचारी से उसे भीतर को घसीटती है। उससे कुछ बनता नहीं। रोने लगती है। दौड़कर एक लोटे में पानी लाकर उसके मुँह पर छींटे मारती है। वह धीरे से उठ खड़ा होता है। उसे धक्का देकर बाहर से दरवाजा बन्द कर के चला जाता है।
रानी हक्की बक्की होकर उसी ओर खड़ी देखती रहती है। फिर एक कोने में जाकर बैठ जाती है और अपने आप से बातें करने लगती है। रंगमंच पर अँधेरा होने लगता है।)
रानी : राक्षस उसे कि़ले में बन्द कर के चला जाता है। बाद में सात दिन तक लगातार वर्षा होती रहती है। समुद्र में ज्वार आ जाता है। उसकी लहरें किले के दरवाजे से टकराने लगती हैं। एक तिमिंगल आकर रानी को पुकारना लगता है । आ रानी, आ !
( रानी सो जाती है। आधी रात मे कप्पण्णा अन्धी माँ को उठाकर लाता है। अँधेरे में दोनों ठोकर खाकर गिर जाते हैं।)

अन्धी माँ : धत् तेरी की, आँखें हों तो यही मुसीबत। अँधेरे में दिखाई नहीं देता। इसलिए मैंने सौ बार कहा है कि कम-से-कम अँधेरे में मैं अकेली आ-जा सकती हूँ ।

कप्पण्णा : जाओ माँ, जाओ। वैसे भी मैं उसके घर के पास जाने वाला नहीं। तुम भी भला क्या कर सकती हो अगर वह घर में हो और तुम्हें आधी रात को अपने घर के पास चक्कर काटती देख ले तो वह चुप रह जाएगा?

अन्धी माँ : चुप भी रह । हमारा काम सिर्फ यह देखना है कि वह ताला लगा है कि नहीं। वह खुला है तो समझना चाहिए कि वह भीतर है। तो हम जीत गये। तब तुरन्त हम लौट जाएँगे। तू जरा ठहर ।
( जाकर दरवाज़ा खटखटाती है। पंजों पर खड़ी होकर बाँह आगे करके टटोलती है। ताला हाथ में लगता है, आश्चर्य से )
अरे इसकी ... ताला ?
(सोचकर )
चाँदनी रात है । यहीं कहीं पत्नी को घुमाने ले गया होगा । फिर ?

रानी : (जागकर ) कौन है?

अन्धी माँ : अरे ! तू भीतर है क्या, बेटी ?

रानी : (दौड़कर) माँजी !

अन्धी माँ : क्या हुआ री ! अब भी इस दरवाजे पर ताला क्यों ?
( रानी कोई उत्तर नहीं देती )
वह जड़ी घिसकर पिलायी कि नहीं?

रानी : पिलायी।

अन्धी माँ : फिर ?

रानी : कुछ भी नहीं हुआ। जरा चक्कर आया। वैसे ही उठकर मुँह धोकर चले गये....

अन्धी माँ : (सोचकर) अच्छा! यह मामूली जड़ी नहीं है, बेटी। उस राँड़ ने भी कुछ कर रखा होगा...

रानी : कौन?

अन्धी माँ : (ज़बान दबाकर ) धत् तेरी की ! मैंने सोचा था कि तुझे न बताऊँ । वह है एक बाजारू औरत। उसी ने जकड़ रखा है तेरे घरवाले को । मसल डालती है उसे । इसका मतलब यह हुआ कि उसने जबरदस्त जादू किया है। अब उसके लिए एक ही उपाय है।

रानी : क्या?

अन्धी माँ : (अण्टी से जड़ी का दूसरा टुकड़ा निकालकर देते हुए) इस बड़ी जड़ी का टुकड़ा घिसकर पिला देना ।

रानी : हाय राम, नहीं ।

अन्धी माँ : मना नहीं करना ।

रानी : उस छोटी-सी जड़ी के कारण सिर में चक्कर आ गया। फिर से कोई अनर्थ हो जाय तो ?

अन्धी माँ : भला ही होगा। मैं हवा में बातें नहीं करती। मैंने जो अनुभव किया, वही कह रही हूँ ।
(रानी जड़ी ले लेती है ।)
अब मैं चली। मेरी बात याद रहे, डरना नहीं। दाल में जड़ी घिसकर मिला देना। एक कौर खिला देना। बाद में देखना उसकी करामात! तुझे अन्धी माँ कहने की देर है, बस तेरा घरवाला तुझे उठाकर मेरे घर ले आएगा।
( रानी शर्माकर हँसती हुई रसोईघर में चली जाती है । चन्दनौटी निकालकर जड़ी घिसती है। अन्धी माँ पेड़ के नीचे खरटि लेते सोये कप्पण्णा को जगाती है। वह उसे झट से उठाकर भागता है। सुबह होती है। अप्पण्णा आता है। साथ में एक हिंसक जंगली कुत्ते को जंज़ीर में पकड़कर लाता है। उसे पिछवाड़े ले जाकर बाँध देता है। फिर अगले दरवाज़े पर जाकर ताला खोलता है। कुत्ता भौंकता है। वह सुनकर रानी पिछवाड़े की ओर देखती है ।)

रानी : कुत्ता ?....

अप्पण्णा : हाँ, वह बुढ़िया और उसका बेटा जरा इस तरफ़ फटकें तो सही, पता लग जाएगा।
(स्नान करने गुसलखाने में जाता है। रानी दाल का बर्तन चूल्हे पर से उतारती है। ढक्कन उठाकर देखती है ।) रानी: हाय! मुझे डर लग रहा है। मैं क्या करूँ? (कहानी से) इस जड़ी के घोल को दाल में मिला दूँ?

कहानी : हाँ!
( रानी घिसी हुई जड़ी कटोरे में लाकर भगवान को नमस्कार करके दाल में उड़ेल देती है। एकदम विस्फोट होता है। रानी घबराकर रसोईघर के एक कोने की ओर भागकर दुबककर बैठ जाती है। विस्फोट के साथ बर्तन की दाल रक्तवर्ण होकर उबलने लगती है । उबलकर दाल बर्तन से बाहर गिरने लगती है। धुएँ के छल्ले उठते हैं, कमरा धुएँ से भर जाता है। ज़ोर से आँखें बन्द कर लेती है।
अप्पण्णा नहा रहा है। उसे रसोईघर के विस्फोट की कल्पना तक नहीं ।
रानी धीरे से उठकर रसोई में आती है। दाल का बर्तन देखती है। बर्तन ऐसा लाल दीखता है मानो ख़ून से सना है ।)

रानी : यह क्या? ख़ून? विष का धुआँ ? इसे मैं अपने पति को परोसूँ? उस अन्धी माँ को तो कुछ दिखाई नहीं देता। पर इनकी तो आँखें हैं। इन्हें यह उबलता ख़ून गिरता दिखेगा नहीं? संन्यासी के कहे अनुसार हो सकता है इन्हें दिखाई न दे। पर कुछ अनहोनी हो जाय तो? आगे क्या होगा? उस जड़ी के छोटे से टुकड़े से ही चक्कर आ गया था। अब इससे ....
( अपने गालों पर थप्पड़ लगाती है)
नहीं, नहीं, भगवान, मुझसे ग़लती हो गयी। मैंने महान अपराध कर डाला। ऐसे अच्छे माँ-बाप के पेट से जन्म लेकर मैं पाप कार्य करने चली थी। नहीं। इन्हें पता चलने से पहले ही इसे कहीं दूर ले जाकर फेंक आना चाहिए।
(बर्तन उठाकर बाहर जाती है। गुसलखाने की ओर जाये तो वहाँ पति है। अतः घर से बाहर जाती है। वहाँ आँगन के एक कोने में दाल गिराने की सोचती है ।)
थू! सत्यानाशी । ये लाल-लाल धब्बे आँखों में कौंधते हैं। यह उनकी नज़र में पड़े बिना न रहेंगे। क्या करूँ? कहाँ डालूँ ताकि उन्हें दिखाई न दे सके ?

कहानी : रानी, देखो उधर साँप की बाँबी है ।

रानी : हाँ। बात तो ठीक है।
( कहानी ने जिस बाँबी की ओर उँगली से इशारा किया था उस ओर जाती है। उस रसायन को उसमें डालने लगती है। पिछवाड़े कुत्ता भौंके जा रहा था ।)

अप्पण्णा : रानी, वह कुत्ता क्यों भौंक रहा है, ज़रा देखो ।
( उत्तर न मिलने पर )
रानी... रानी !
(शरीर पोंछते हुए वह गुसलखाने से निकलकर तेज़ी से आता है। वह दिखाई नहीं देती। रसोईघर में जाता है। वह वहाँ भी नहीं मिलती। आश्चर्यचकित होकर घर के दरवाज़े की ओर जाता है।
तब तक रानी दाल बाँबी में फेंककर घर की ओर दौड़ती है। उसके बाँबी की ओर पीठ करते ही एक नाग फुंफकारता हुआ बाँबी से बाहर निकलता है। गरम दाल से शरीर जल जाने के कारण इधर-उधर देखता है। रानी को देखकर और तन जाता है। बाद में उसका पीछा करता है। रानी के दरवाज़े पर पहुँचने तक वह भी पेड़ के पास आ जाता है और फन फैलाकर रानी को ही देखता है ।)

अप्पण्णा : (बिना किसी भावुकता से) रानी, कहाँ गयी थी?
( उत्तर नहीं)
कहाँ गयी थी?
( उसके ज़रा अपनी जगह से हटते ही रानी घर में क़दम रखने का प्रयत्न करती है। अप्पण्णा उसके गाल पर एक थप्पड़ जमाता है। उस थप्पड़ से वह चक्कर खाकर बैठ जाती है। वह उसकी ओर दुबारा देखता भी नहीं, दरवाजा बन्द करके बाहर से ताला लगाता है। उसकी किसी भी क्रिया में गुस्सा नहीं । अनासक्ति और केवल क्रूरता है। पिछवाड़े जाकर वहाँ बँधे कुत्ते को खोलकर घर के सामने के दरवाज़े के पास बाँधकर चला जाता है।
पेड़ के पास फुंफकारते नाग को देखकर कुत्ता भौंकता ही जाता है। रानी जहाँ पड़ी थी वहाँ से उठकर रोती हुई सोने के कमरे में जाकर बिस्तर पर पड़ जाती है।
रात होती है।
नाग पेड़ के नीचे ही है।
कुत्ता भौंकता ही जा रहा है।
पूर्णरूप से अँधेरा होने पर नाग घर की ओर आता है। कुत्ता और ज़ोर से भौंकता है। उससे रानी जागकर इधर-उधर देखती है। लेटी-लेटी कुत्ते को “धत् ! चुप हो जा, नासपीटा कहीं का!” कहती है और करवट बदलकर सो जाती है ।)

कहानी : उस रात को नाग गुसलखाने की मोरी से घर में घुसकर मनुष्य का रूप धारण कर लेता है। यानी-
( अप्पण्णा का ही रूप, वही वेशभूषा । उस छद्म अप्पण्णा को हम अपनी सुविधा के लिए नागप्पा कह सकते हैं। नागप्पा सारे घर में रानी को ढूँढ़ता है । अन्त में रानी के कमरे में पहुँचता है। वहाँ रानी को टकटकी बाँधकर देखता खड़ा हो जाता है। कुत्ता भौंकता ही जाता है ।)

द्वितीय अंक

[ जहाँ पहला अंक समाप्त होता है वहीं से यह अंक आरम्भ होता है। रात का समय। रानी सोयी है। नागप्पा उसी को निहारता खड़ा है। बाहर कुत्ता भौंके जा रहा है। नागप्पा आकर बिस्तर के पास बैठता है। धीरे से उसके गाल सहलाता है। उसके स्पर्श से जागकर घबराकर रानी चीखती है। यह पहचानने पर कि वह उसका पति है, घबराकर उठ खड़ी होती है। ]

रानी : आप! आप !

नागप्पा : खड़ी क्यों हो रानी? बैठो।

रानी : आप कब आये ! खाना... परोसूँ ?

नागप्पा : (हँसकर ) खाना? इस आधी रात में?

रानी : जी नहीं। और कुछ लाऊँ?
( कुछ समझ में नहीं आने से दीवार से सटकर खड़ी हो जाती है ।)

नागप्पा : ऐसे काँप क्यों रही हो? मुझे देखते ही इतना डर लग रहा है क्या?
( वह नहीं में सिर हिलाती है ।)
तो बैठो।

रानी : नहीं।

नागप्पा : तो मैं वहाँ दूर जाकर बैठता हूँ। तुम यहीं बैठो। ठीक है न?
( दूर जाकर ज़मीन पर बैठता है ।)
अब ?
( वह बैठे-बैठे ही दीवार से सिर टिका लेता है। दीर्घ मौन । जम्हाई, ऊँघ, फिर भी जागे रहने का यत्न करता है ।)

नागप्पा : तुम बहुत सुन्दर हो ।

रानी : (घबराकर ) जी! क्या? क्या चाहिए था?

नागप्पा : कुछ भी नहीं। मैंने कहा, तुम बहुत सुन्दर हो । ( रुककर ) बेचारी !

रानी : बेचारी !

नागप्पा : तुम्हारी जैसी कच्ची कली को ऐसा बेकार पति ।

रानी : नहीं, मैंने तो कुछ नहीं कहा।

नागप्पा : तुमने तो कुछ भी नहीं कहा। मैंने ही कहा। आज सुबह मारा था... बहुत दर्द हुआ क्या?

रानी : नहीं तो।

नागप्पा : सारा दिन घर में अकेली पड़ी रहती हो। बेचारी ! माँ-बाप की बहुत याद आती होगी?
(लड़की का गला भर आता है। फिर भी रुलाई रोकने का यत्न करती है।)
वे बहुत प्यार करते थे न?
( वह बच्चे के समान जोर से रोने लगती है। नागप्पा घबराकर )
क्यों...क्या हुआ?
(कोई उत्तर नहीं देती। रोती ही जाती है ।)
पता लग गया। तुम्हें उनको देखने की इच्छा होती है न? ठीक है, तुम्हें मायके भेजने का प्रबन्ध किया जाएगा।
( रानी चकित होकर रोना बन्द करके उसी को देखती है ।)
सच, हाँ सचमुच अब जरा हँसो तो, देखूँ! देखो, हँसने पर ही भेजूँगा ।
(रानी हँसने का प्रयत्न करती है। फिर से कुत्ता भौंकता है ।)
धत् ! यह कुत्ता रोज ऐसे कान फाड़ भौंकता रहता है तो तुम्हें नींद कैसे आती होगी?

रानी : पर...

नागप्पा : ( उसकी प्रतिक्रिया से सन्तुष्ट होकर) पर माने क्या ?

रानी : कुछ भी तो नहीं।

नागप्पा : ( उसे छेड़ने के लिए ही) धत् ! कितना भौंकता है यह कुत्ता ! लगता है तुम एक दिन भी सो नहीं सकी होगी।

रानी : पर...

नागप्पा : क्या? पर... पर क्या कहे जा रही हो, क्या है बताओ न?

रानी : पर आप उस कुत्ते को आज सुबह ही लाये थे न? अब तक कोई दिक्कत नहीं थी।

नागप्पा : (अपने अज्ञान को छुपाने का यत्न करते हुए) ओह ! फिर भी तुम्हें बेकार में कष्ट दिया न...

रानी : इतने दिन चौका-वर्तन के बाद कोई काम नहीं होता था। सारा दिन सोया करती थी। इसलिए रात को नींद नहीं आती थी। आज यह कम्बख्त कुत्ता जब से आया है तब से अपना गला फाड़े जा रहा है। इसलिए जब आप आये तभी थोड़ी आँख लगी थी।

नागप्पा : (झूठे गुस्से से) नहीं, आगे यह सब नहीं चलेगा। कल से रोज मेरे आते समय तुम्हें हँसते हुए स्वागत करना होगा। समझी?

रानी : रोज रात को ?

नागप्पा : हूँ। आगे से मैं रोज़ रात को आऊँगा । (दुलार से) आ सकता हूँ न?
( रानी लाज से हँसती है। मौन। उसकी आँखों में नींद ।)
मैं तुम्हारे पास आकर बैठ सकता हूँ ? कहीं फिर से उठकर खड़ी तो नहीं हो जाओगी?
(रानी नहीं में सिर हिलाती है। नागप्पा जाकर उसके पास बैठ जाता है। धीरे से उसके कन्धे के चारों ओर हाथ लपेटकर ) डरो मत, इतना डरने को मैं कोई गिद्ध या मंगूस तो नहीं ! मेरे कन्धे पर सिर रखो। अच्छा!
( वह डरते-डरते सिर रखती है। उसका डर कम होने तक चुप रहकर )
हाँ, ऐसे। अब तुम मुझे अपने माता-पिता के बारे में बताओ। वे क्या-क्या बातें करते थे? कौन-कौन-सी कहानियाँ सुनाते थे ? तुम्हें किस नाम से पुकारते थे? कैसे प्यार करते थे?
(उससे कोई उत्तर नहीं मिलता। वह उसकी छाती पर सिर रखे गहरी नींद में सो जाती है। नागप्पा धीरे से उसका जूड़ा खोलता है। उसकी लम्बी केशराशि दोनों कन्धों पर फैल जाती है। उसे हवेलियों में लेकर सूँघता है)
कितने सुन्दर हैं इसके बाल काली नाग कन्याओं जैसे ।
(वैसे ही बैठा रहता है। पौ फटने लगती है। नागप्पा धीरे से उसे उठाकर बिस्तर पर लिटाता है। माथा चूमकर चला जाता है। फिर से नाग बनकर गुसलखाने की मोरी से अपनी बाँबी में चला जाता है। प्रातः होता है। रानी उठकर इधर-उधर देखती है। पति दिखाई नहीं देता। गुसलखाने में जाकर मुँह पर पानी के छींटे देती है और सारे घर में पति को ढूँढ़ती है। अगले दरवाज़े के पास आती है। वह बन्द है। उसे धक्का देकर देखती है। उस पर बाहर से ताला लगा है। कुछ समझ में नहीं आने पर रसोईघर में जाकर रसोई बनाने लगती है ।)
(अप्पण्णा आता है। कुत्ता भौंकने लगता है। सीटी बजाकर उसके सिर पर हाथ फेरकर पुचकारता है और ताला खोलकर भीतर आता है।)

रानी : (हँसकर ) आप कब चले गये, मालूम ही नहीं....

अप्पण्णा : ( चिढ़कर) क्या?

रानी : (घबराकर ठण्डी पड़ जाती है) कुछ भी नहीं ।

अप्पण्णा : नहाकर आता हूँ । खाना परोसो ।
(गुसलखाने में जाता है। वह उसी की ओर देखती है। रसोईघर में जाती है। सिर खुजलाती है ।)

रानी : मैंने सपना देखा होगा।
( अप्पण्णा नहाकर आता है। बिना कुछ बोले खाना खाता है। दरवाज़ा बन्द करके चला जाता है। रानी अपने कमरे में जाकर बैठती है। उसे नींद आ जाती है।
रात हो जाती है। अँधेरे में कुत्ता भौंकने लगता है। किसी अन्य प्राणी से झगड़ने की आवाज़। बीच-बीच में नाग की फुंफकार । अन्त में कुत्ता 'कुई कुई' करके चीख़ता है। फिर उसकी आवाज़ बन्द हो जाती है।
रानी दौड़कर अगले दरवाज़े के पास आकर देखती है और कहती है, “ऐ पागल ! बेकार में क्यों भौंक रहा है !" अँधेरे में कुछ भी दिखाई नहीं देता। फिर से अपने कमरे में जाकर सो जाती है।
तभी नाग गुसलखाने की मोरी से भीतर आता है। नागप्पा का रूप धारण करता है। उसके कन्धे और गाल पर घाव हैं। उन्हें धोता है। रानी के कमरे में प्रवेश करता है। उसके क़दमों की आहट सुनते ही रानी घूँघट खींचकर सो जाती है।
नागप्पा हँसते हुए आकर पलंग के किनारे बैठ जाता है। कुछ देर बाद रानी घूँघट हटाकर देखती है। नागप्पा को देखकर आँखें बन्द कर लेती है।)

नागप्पा : ऐ! यह कौन-सा खेल है?
(आँखें खोले बिना रानी अपनी उँगली ज़ोर से काट लेती है। उस दर्द से 'हाय' कहकर चीखती है । )
क्या कर रही हो, रानी?

रानी : ( उँगली झटकती हुई उठ बैठती है। अपने-आप ) मैं शायद पागल हो गयी हूँ।

नागप्पा : क्यों?

रानी : (मानो अपने-आप ) मैंने सोचा था कि इनका कल रात को आना, मुझसे बातें करना, सब सपना होगा। पर यह सपना तो नहीं हो सकता। शायद यह भ्रम होगा। घर में अकेली रहते-रहते मेरे दिमाग़ में दीमक लगने लग गयी होगी।
(मौन)

नागप्पा : सपना भी नहीं, भ्रम भी नहीं। सचमुच मैं आया हूँ, तुम्हारे सामने बैठा हूँ। छूकर देखो तो !
( वह छूती नहीं ।)
छूओगी नहीं। तो कोई बात करो। वह भी नहीं तो ठीक है। मैं जाता हूँ।

रानी : नहीं, नहीं।

नागप्पा : तो चुपचाप मुँह बन्द करके बैठे रहने से क्या लाभ?

रानी : मैं क्या बात करूँ?

नागप्पा : जो चाहे बात करो। अपने बारे में कहो। अपने मायके के बारे में कहो । माँ-बाप के बारे में कहो। जो समझ में आता है, वह कहो। अगर तुम यह चाहती हो कि मैं यहाँ रहूँ, तो बताओ कि क्यों रहूँ? अगर चाहती हो कि चला जाऊँ तो बताओ क्यों जाऊँ?

रानी : ( सटकर) यही कि आप ऐसा बचपना करें तो बताइए मैं क्या कहूँ?

नागप्पा : बचपना ?

रानी : (अटककर) रात के समय तो प्यार से बातें करते हैं। दिन में तो मुँह खोलते ही फाड़ खाने आते हैं।
( हँसता है ।)
आपको तो हँसी आती है। मेरा तो रोने का मन करता है।

नागप्पा : तो यह बताओ कि रात के समय आना बन्द कर दूँ या दिन में? तुम ही बताओ।

रानी : मैं कौन हूँ बताने वाली? आपका घर है, आपकी मर्जी ।

नागप्पा : नहीं, ऐसा करेंगे कि दिन में पति की मर्जी, रात में पत्नी की। अगर तुम नहीं चाहती हो तो रात के समय नहीं आऊँगा ।

रानी : (आँसू बहाते हुए) ऐसे क्यों तंग कर रहे हैं? यहाँ अकेली रहते-रहते थक गयी हूँ। आज भी यह सोचकर बुरी तरह से डर रही थी कि आप रात को आएँगे कि नहीं। अगर आपका आना एक सपना होता.... अब आप न आते, मैं रो-रोकर मर ही जाती । भगवान की कसम । पर आते ही व्यंग्य करेंगे, मैं क्या कहूँ?

नागप्पा : (हँसी के बिना) रानी, बात ऐसी ही है। दिन वैसा, रात ऐसी क्यों ऐसा है, यह मत पूछना ।

रानी : नहीं पूछूंगी।

नागप्पा : आओ। कल मेरी छाती पर सिर रखकर बच्चे के समान सोयी थी न, वैसे ही सो जाओ।

रानी : (लजाते हुए उसकी बाँहों में जाते ही घबराकर) हाय राम, यह क्या?

नागप्पा : क्या?

रानी : आपके गालों पर से ख़ून बह रहा है ! कन्धे पर भी खून! ऐसा लगता है कि दाँतों के निशान हैं! आते समय काँटों की झाड़ी में से होते आये थे?

नागप्पा : कुछ भी नहीं छोड़ो।

रानी : रुकिए। मरहम लगाती हूँ। माँ ने एक डिब्बी दी थी । कहाँ रख दी ? उस दिन प्याज काटते समय अँगूठे में चोट लग गयी थी तब निकाली थी। हाँ, उस शीशे की पेटी में होगी ।
( उठकर उस शीशे का दराज़ खोलती है। नागप्पा यह सोचकर वहाँ से हटना चाहता है ताकि शीशे में रानी को उसका प्रतिबिम्ब दिखाई न पड़े। पर वह देख लेती है। ज़ोर से चीख पड़ती है। वह उसे खींचकर, अपनी बाँहों में लेता है। वह काँपने लगती है ।)

नागप्पा : क्या हुआ? क्या हुआ, रानी ?
(उससे बचाकर वह डिब्बा बन्द करके वहाँ से हटाता है। वह धीरे से सिर उठाकर उस ओर देखती है जहाँ वह पहले बैठा था ।)
क्या हुआ ?

रानी : कुछ भी नहीं । शीशे में देखा तो जहाँ आप बैठे हैं न, वहाँ एक...
( हाथ से फन बनाकर दिखाती है ।)
बैठा-सा लगा।

नागप्पा : क्या कोई नाग... ? रानी (उसके मुँह पर हाथ रखकर) छिः, नाम मत लीजिए। रात के समय उसका नाम लो तो घर के भीतर आ जाता है।

नागप्पा : नाग घर के भीतर आ ही जाये तो ?

रानी : ऐसा न कहिए। जिसको याद नहीं करना चाहिए, उसे ही बार-बार याद क्यों करते हैं !

नागप्पा : ठीक है। समझो 'वह' आ गया। आए तो वह प्यार से क्यों नहीं आएगा ?

रानी : न बाबा न, भगवान बचाए। ऐसा कुछ न हो। याद करते ही मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

नागप्पा : (हँसकर) आओ। इधर बैठो।

रानी : नहीं।

नागप्पा : मैं हूँ न !
(दोनों साथ बिस्तर पर बैठते हैं। उसका मुँह देखकर)

रानी : अरे, मेरी अक़ल पर पत्थर पड़ गये क्या आपके घाव पर मलहम लगाया ही नहीं ।
( उठने का यत्न करती है। वह उठने नहीं देता। वह उसका घाव छूती है। काँप जाती है। कितना ठण्डा है आपका खून!)
रात नहीं देखते, दिन नहीं देखते, वर्षा का डर नहीं, आँधी की चिन्ता नहीं । सारा दिन भटकते रहते हैं।
(एकदम आँखें बन्द करके उसकी छाती पर सिर रख देती है ।)

नागप्पा : अब क्या हो गया?

रानी : जब से उस शीशे में देखा तब से वही दिमाग़ में चक्कर काट रहा है ।
( सिर उठाकर उसी की आँखों में झाँककर)
बापू कहते थे - चिड़िया नाग की ओर देखे तो बस...

नागप्पा : अब तुमने ही नाम ले लिया तो आ ही जाएगा, देखो, वह ।
( हाथ से फन-सा बनाकर दिखाता है ।)

रानी : आने दीजिए। आप जब मेरी बग़ल में हैं तो मुझे डर नहीं लगता।

नागप्पा : बापू क्या कहते थे?

रानी : बापू कहते थे - चिड़िया के नाग की ओर देख भर लेने से ही, नाग अपनी दृष्टि में ही उसे फाँस लेता है। चिड़िया अपने को छुड़ा नहीं सकती। वह नाग की आँखों में रंग-बिरंगे चित्र देखने में ही अपने आपको खो बैठती है । अपना डर भूलकर आधे पंख हवा में खोलकर पत्थर-सी हो जाती है।
(उसकी आँखों में आँखें डालकर बैठ जाती है। दीर्घ मौन ।)

नागप्पा : धीरे से तब नाग चिड़िया पर झपट्टा मारकर उसे निगल जाता है।
( उसे चूमता है। दोनों उसी भंगिमा में निश्चल पड़े रहते हैं। यह देखकर कुछ ज्योतियाँ खिलखिलाकर हँस पड़ती हैं। उनमें यों बातें होती हैं। ‘थू’ ‘हमें बाहर जाना चाहिए' 'मैंने कहा न हमारे घर में यह सदा चलता है। हमें इसमें कोई विशेष नहीं लगता ।' 'अरी चुप भी रहो।' बाद में सब चुप हो जाती हैं। रानी उठकर एक कोने में बैठ जाती है। अपने दोनों हाथों से घुटने लपेटकर उसमें सिर घुसेड़ कर रोती है ।)

नागप्पा : क्या हुआ ?

रानी : धत् ! आप मुझसे बात मत कीजिए ।

नागप्पा : रोने के लिए ऐसा क्या हो गया?

रानी : मैंने कहा नहीं कि आप चुप हो जाइए।
(मौन)
मुझे यह मालूम नहीं था कि आप इतने खराब हैं। पता होता तो मैं विवाह ही नहीं करती। आपकी चिकनी-चुपड़ी बातें सुनते ही मुझे सचेत हो जाना था।
( एकदम याद करके)
अम्मा री ! अगर माँ-बाप को पता लग जाय तो पता नहीं क्या-क्या कहेंगे ?

नागप्पा : क्या कहेंगे? यही तो कहेंगे कि हमारी बेटी हमारे क़दमों पर चल पड़ी। अच्छा ही हुआ।

रानी : (चिढ़कर) बन्द भी रखिए अपना मुँह । कहे देती हूँ-मैं आपकी पत्नी हूँ। आप मेरे साथ जैसा भी सलूक करें कोई पूछने-ताछने वाला नहीं है। पर आपका मेरे माँ-बाप के बारे में ऐसी बातें करना, मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती । धत्, यह कुत्ता भी ....

नागप्पा : (हँसकर) अरे राम! उस कुत्ते ने ऐसे क्या अच्छे कर्म किये हैं जो उसी का नाम जपे जा रही हो ! घनघोर वर्षा में टर्राने वाले मेंढक, अँधेरे में चुपचाप गाने वाले गीदड़ और केंकड़े, चिउँटियाँ, नाग, अबाबील, मछलियाँ, धरती की गन्ध छोड़ने के समान मादा भी एक खुशबू छोड़ती है। उस गन्ध से मदमाता होकर नागराज रानी को खोजता है। शेर शेरनी को ढूँढ़ता है। रत्तियों के पेड़ पर लाल-लाल रत्तियाँ खिल उठती हैं। बरगद की कोंपल फूटते ही धरती अपना मुँह खोल देती है। तब उसकी जड़ उसके खोखल से अवरुद्ध जगह में पत्थरों की सन्धि में आकाश से पाताल तक अँकुवाकर, फूटकर, फोड़कर धँस पड़ती है और हर जगह अपना आकार फैला लेती है; और सन्तुष्ट होकर, पस्त होकर फैल जाती है। यही बात हर जगह है, हर चीज़ के लिए है ।

रानी : बाप रे! दिन में एक बात मुँह से निकलवानी हो तो धरती आकाश एक होने चाहिए। पर रात में तो बातों की फुलझड़ियाँ लग जाती हैं। कीड़े-मकोड़े, साँप कुछ भी करें, मनुष्य को तो जरा शरम होनी चाहिए न ?

नागप्पा : (ध्यान से सुनकर ) पौ फटने को है । अब मैं चलता हूँ ।

रानी : नहीं-नहीं।

नागप्पा : सुनो, चिड़ियों का कलरव ।

रानी : (चिढ़कर) यह कलरव गले में फँसकर इन चिड़ियों का दम क्यों नहीं घुट जाता ! किसने दिया है उन्हें यह बेकार का बड़प्पन?

नागप्पा : फिर से कल रात को आऊँगा न!

रानी : रात यानी दोपहर को खाने के लिए नहीं आएँगे?

नागप्पा : (याद करके) ओह ! वह तो रोज़ की बात है। ( रुककर ) देखो रानी, आगे से मैं रोज दिन में भी आया करूँगा और रात को भी। लेकिन एक शर्त है...रात को तुम्हें कमरे में सोये रहना होगा। रात को मेरे आने के समय और जाने के समय तुम अपने कमरे से बाहर नहीं निकलोगी और खिड़की से भी नहीं झाँकोगी। यह मत पूछना - क्यों?

रानी : मैं नहीं पूछूंगी। सुअर, तिमिंगल, गरुड़ आदि 'क्यों' नहीं पूछते । मैं भी नहीं पूछूंगी। पर वे सब 'चाहिए' कहते हैं, तब मैं भी चाहिए कह सकती हूँ न ?
(हँसती हुई जाकर उससे लिपट जाती है। दोनों आलिंगन करते हैं ।)
( बाहर बरगद के पेड़ के पास कप्पण्णा और अन्धी माँ आते हैं। कप्पण्णा सदा की भाँति पेड़ के नीचे बैठ जाता है। अन्धी माँ घर के अगले दरवाज़े की ओर जाती है और मरे पड़े कुत्ते के शव से टकरा जाती है। तब आश्चर्य से उसे टटोलकर देखती है। दरवाज़े को भी टटोलती है। उस पर ताला लगा देखकर )

अन्धी माँ : (फुसफुसाकर ) कप्पण्णा....

कप्पण्णा : आँ...ाँ.....

अन्धी माँ : इधर आ ।

  • गिरीश कर्नाड : कन्नड़ कहानियां और अन्य गद्य कृतियां हिन्दी में
  • कन्नड़ कहानियां और लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : भारत के विभिन्न प्रदेशों, भाषाओं और विदेशी लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां