नागफाँस : विष्णु प्रभाकर

Naagphaans : Vishnu Prabhakar

सुशील की माँ अक्सर कहा करती थी और अक्सर क्या, अब तो कहने के लिए उनके पास एकमात्र यही कहानी शेष रह गयी थी, लम्बी साँस खींचकर, गर्व और वेदना भरे स्वर में वह कहती, 'भगवान की कृपा से उसने चौदह पुत्रों को जन्म
दिया था।'
सुनने वालियों की आंखों में कौतूहल साकार हो उठता। कोई वाचाल पूछ बैठती, 'चौदह पुत्र! पर माँ जी, अब तो केवल दो हैं।'
'हाँ बेटी। देखने के लिए ये ही दो हैं। वैसे मेरे चार बेटे दिसावर रहते हैं।'
'अच्छा, कमाने के लिए गए हैं?'
'हाँ, कमाते ही होंगे।'
'क्यों, कुछ भेजते नहीं?'
'भेजना! उन्होंने तो जाकर इधर देखा भी नहीं।'
'हाय रे! कैसे बेटे हैं,' वह वाचाल नारी काँप उठती, 'पर माँजी तुम्हें उनका पता तो होगा?'
सुशील की माँ उसी सहज वेदना भरे स्वर में बोली, 'पता बताया ही नहीं तो कैसे जान सकती हूं। वे चारों तो ऐसे गए कि जैसे थे ही नहीं।'
'शेष।'
'राम को प्यारे हुए।'
'ओह...।'
'क्या बताऊं, बेटी। ये दो बचे हैं। कुशल का स्वभाव भी ऐसा ही था- कई बार भागने को हुआ। पर उस पर मैंने बड़ी मिन्नतें मानीं, जात, बोली, चढ़ावे चढ़ाए तब कहीं जाकर देवी की कृपा से रुका है।'
इस पर प्राय: सभी नारियाँ उसे एक ही सलाह देतीं, 'कुशल का विवाह कर दो माँजी। विवाह का बंधन आदमी को बड़ा प्यारा लगता है। आजकल देर से विवाह करने की जो रीति चल पड़ी है उस कारण भी सत्ता हाथ से निकल जाती है।'
सुशील की माँ ने भी यही बात सोच रखी थी। उसके चारों बेटे सगाई कराने से पहले ही भाग गए थे। इसलिए कुशल की सगाई के लिए धूमधाम शुरु हुई और एक दिन धूप-सी गोरी लड़की देखकर उसे तिलक चढ़ा दिया गया। फिर लगन आया और विवाह की तिथि निश्चित हो गई। कुशल ने एक बार भी आपत्ति नहीं की बल्कि सब काम प्रसन्नचित्त करता रहा। सुशील की माँ को त्रिलोक का राज मिला। उसने सुशील के पिता से कहा, 'यह दिन बड़े पुण्य से देखने को मिला है। मैं मन की निकाल कर रहूंगी।'
लाला चंद्रसेन निम्न मध्यवर्ग के व्यक्ति थे। यह वर्ग अक्सर महापुरुषों को जन्म देता है। यही वर्ग बड़ी- बड़ी आशाओं और आकाँक्षाओं को लेकर जन्म लेता है, परंतु साधन के अभाव में घुटी हुई तमन्नाओं का मजार बन कर रह जाता है। यही है संघर्षों की क्रीड़ाभूमि और यहीं पर आदमी समझ से संपर्क स्थापित करता है। लाला चंद्रसेन भी समझदार थे और इसी समझदारी को आगे बढ़ाने के लिए उनके पुत्रों ने घर की संकुचित दीवारें तोड़कर खुले विश्व में आश्रय लिया था। पुत्रों के जाने का दर्द उन्हें भी था, पर पुरुष थे, पिता थे। पत्नी की बात सुनकर वे हंसे, 'मैं कब मना करता हूं।'
सच तो यह है उनके भीतर भी आकाँक्षाएं आग्रह कर रही थीं। पहला विवाह है, ऐसा हो जिसे सब याद रखें। इसलिए उन्होंने बढिय़ा अंग्रेजी बाजे का आर्डर दिया। भोज की व्यवस्था देश की हालत को देखते हुए सीमित थी, परंतु जितनी थी उससे बड़े- बड़े धनियों को ईष्र्या हो सकती थी। मीठी तश्तरी में बड़ी- बड़ी आठ मिठाइयाँ। पूरे पाव भर तोल की नमकीन तश्तरी। डालडा के युग में उन्होंने गाँव- गाँव घूमकर घी इकट्ठा किया था। वे कहते, 'या तो करो नहीं। करो तो ऐसा करो कि याद ही आती रहे।'
भोज का दिन आया। सब कुछ तैयार था। केवल साग बनने थे और कचौरियाँ उतरनी थीं। मुंह अंधेरे से ही हलवाइयों ने शोर मचाया। अन्दर से और भी वेग से हल्दी चढ़ाने का कोलाहल उठा। लालाजी ने आकर कहा, 'अरे भई ! क्या देर है? मसाला निकालो और सबको साग काटने पर बैठा दो।'
उतने ही वेग से सुशील की माँ चीखी, 'अजी कुशल को भेजो, हल्दी चढ़ानी है।'
'ओ हो भाई, कितनी देर हैं?'
'देर कुशल की है। उसे भेजो, बस।'
'कुशल कहाँ है?' 'कुशल यहाँ था।', 'कुशल वहाँ होगा।' वह क्षण भर से एक गगनभेदी कोलाहल उठा। ऐसा कि हल्दी और हलवाई की आवाज उसमें डूबकर रह गई। उसी में डूब गया कुशल। बहुद देर बात पता लग पाया कि वह पिछली रात को ही कहीं चला गया है। उसके बिस्तरे पर एक पत्र पाया गया था। पढऩे से पूर्व माँ समझ गयी कि कुशल भी भाईयों की राह का राही बना। वह रोई नहीं, एक आंसू भी नहीं आया आंखों में। लोगों ने कहा, 'ढूंढ़ों।'
लाला चंद्रसेन धीरे से बोले, 'व्यर्थ है।'
'क्यों?'
'जो रहना नहीं चाहता उसे रोकने की चेष्ठा करना उसे और खोना है।'
सुनकर सब स्तम्भित हो आए। वे जैसे अपने से बोलते हों, 'मैंने गलती की जो उसे बाँधना चाहा।' उससे कहता, 'बेटा! तू भी जा, दुनिया को देख, पहचान। मेरा जो कत्र्तव्य था वह मैंने यथाशक्ति पूरा कर दिया। पाल- पोस तुझे सोचने समझने योग्य बना दिया।'
सुशील की माँ ने यह सब सुना तो तड़प उठी, बोली, 'आखिर वे तुम्हारे ही बेटे तो हैं।'
'मेरे।' वे हंसे, 'मेरा तो मैं भी नहीं हूं वे क्या होते।'
बहस आगे बढ़ी और आंसुओं की अबाध गति से उसका अंत हुआ। अन्त हुआ यह कहना गलत है। अंतिम छोर की तरह उनका सबसे छोटा बेटा सुशील अभी शेष था। पंद्रह वर्ष का सुन्दर बालक सेब की तरह लाल और फूल की तरह खिला हुआ था। उसकी हंसी में सुगंध था, पर बड़े भाई तिलक के दिन उसे जो ज्वर चढ़ा था वह उतरने से बराबर इंकार कर रहा था। विवाह में लगे हुए परिवार में उसे कोई बहुत महत्व नहीं दिया गया पर अब जब हल्दी और हलवाई की बात फैलकर मिट गई तो माँ ने सुशील की पट्टी का सहारा लिया। देखा- संध्या होते- होते उसका सेब सा लाल मुख अंगार सा दहक उठा है। आंखें मुंदी जाती हैं।
तब पछाड़ खाकर माँ ने डाक्टर का दामन पकड़ा, 'डॉक्टर, मेरा सब कुछ ले लो पर इसे बचा दो।'
साँत्वना भरे स्वर में डॉक्टर बोला, 'घबराइए नहीं बुखार है। वक्त पर उतरेगा।'
'उतर जाएगा?' पागल सी माँ ने पूछा।
'हाँ- हाँ'
'कब?'
'यही सात आठ दिन में।'
लेकिन आठ क्या, अट्ठाईस दिन बीत जाने पर भी बुखार ने जाने का नाम नहीं लिया। एक बार बीच में लगा सा था कि बुखार टूट चला है पर तीसरे दिन ही उसने दूने वेग से आक्रमण कर दिया। माँ रोते- रोते संज्ञाहीन-सी हो गयी। डॉक्टर मनुष्य था, उसने माँ की करुणा को समझा। बोला, 'माँ, यह बुखार इकहत्तर दिन तक चलता रह सकता है। इसकी दवा कुछ नहीं होती,
केवल रोगी की देखभाल से ठीक होता है।'
माँ ने कहा, 'आप जैसे कहते हैं वेसे ही मैं करती हूं।'
'ठीक है। अभी और करे जाइये आजकल में बुखार टूटने ही वाला है। प्रसन्न रहिए और रोगी को प्रसन्न रखिए, जानता हूं यह कठिन है पर यह भी जानता हूं कि बेटे के लिए आप सब कुछ कर सकती है। चार - पाँच दिन की बात है।'
डॉक्टर ने ठीक कहा था। पाँचवे दिन बुखार टूट गया। सुशील जितना शरीर से स्वस्थ था, मन भी उसका उतना ही दृढ़ था। रंग लौटते देन न लगी। माँ का मन खिल- खिल आया। पिता की चिंता भी कम हुई। सुशील ने बीमारी में ही पिता से प्रतिज्ञा करवा ली थी कि स्वस्थ हो जाने पर उसे कालेज भेजेंगे। सो अच्छा होते- होते एक दिन उसने कहा, 'पिताजी, कालेज खुलने को एक सप्ताह रह गया है। मेरी फीस भेज दो न। '
पिता ने जबाव दिया, 'कल शहर जाकर मैं सब ठीक कर आऊँगा।'
तब माँ ने धीरे से इतना ही कहा, 'बेटा! पहले ठीक तो हो जा, फिर जाने की बात सोचना।'
सुशील मुस्कराया, 'माँ! तुम सदा शंका करती रहती हो। मैं अब बिल्कुल ठीक हूं। देखना अगले सप्ताह कालेज जाऊंगा। डॉक्टर से पूछ देखो...।'
डॉक्टर ने हंसते हुए उसका अनुमोदन किया, 'हाँ, हाँ, तुम बिल्कुल ठीक होकर एक सप्ताह में शहर जा सकोगे, परंतु भोजन का विशेष ध्यान रखना होगा।'
'जी मैं वही खाता हूं जो आप बताते हैं।'
'तुम सचमुच एक आदर्श रोगी हो। तभी तो बार- बार रोग को पछाड़ कर अच्छे हो जाते हो। हाँ, कल मैं तुम्हारे लिए टानिक लाऊंगा।'
यह कह डॉक्टर उठे। फिर एकाएक बोले, 'पर सुशील! भगवान के लिए अब बुखार का न्यौता न दे बैठना। समझे, शरीर के शत्रु से ऐसी मित्रता ठीक नहीं है।'
बात हंसाने के लिए कही गयी थी, सब हंस पड़े। पर अगले दिन अचानक क्या हुआ कि सबेरा होते न होते सुशील जाड़े से काँपने लगा। ज्वर का आक्रमण हो चुका था, तापमान देखा तो 105 डिग्री! चिन्तातुर डॉक्टर ने बहुत देर तक गंभीरता से जाँच की, कहा, 'इस बार टाइफाइड के साथ मलेरिया भी है।'
शाँत गंभीर पिता ने उत्तेजित होकर पूछा, 'डॉक्टर, आखिर यह क्या है?।'
डॉक्टर ने पिता के कंधे को थपथपाया, 'चिंता मत करें। सब कुछ ठीक होगा। दु:ख इतना ही है कि सुशील महाशय अगले सप्ताह कालेज न जा सकेंगे?'
लगभग संज्ञाहीन होने पर भी कालेज का नाम सुनते ही उसने आंखें खोल दी। बोला, 'मैं कालेज अवश्य जाऊंगा। पाँच छह दिन की देर हो जाएगी तो क्या है? पिता जी। आप मेरी फीस अवश्य भेज दीजिए।'
पिता ने कहा, 'भेज दूंगा, पर तुम्हें अपना ध्यान रखना चाहिए।' सुशील ने नहीं सुना। वह बोला, पिता जी मैं डॉक्टर बनूंगा।
'अवश्य बनना'
आगे उससे बोला न गया।
दिन पर दिन वह दुर्बल होता चला गया। सुईयों से उसका शरीर बिंध गया, कड़वी- तीखी दवाइयों से उसका मन चिड़चिड़ा हो आया, तो भी इक्कीस दिन के बाद जब उसका ज्वर उतरा तो उसने यही कहा, 'दीवाली के बाद मैं कालेज जाऊंगा।'
'बेशक, तुम जा सकोगे,' डॉक्टर ने कहा।
पिता गर्व से बोले, 'परीक्षाफल शानदार है तुम्हारे प्रिसिंपल ने विश्वास दिलाया है कि तुम सब कमी पुरी कर लोगे।'
डॉक्टर ने विजयी खिलाड़ी के स्वर में कहा, 'विश्वास में अद्भुत शक्ति होती है सुशील। मैंने बड़े- बड़े रोगियों को विश्वास के बल पर अच्छे होते देखा है।'
यही विश्वास सुशील की ढाल बन गया। वह जिस तेजी से स्वास्थ्य लाभ कर रहा था उसे देखे बिना विश्वास नहीं हो सकता था। बस हर समय यही रट लगी रहती थी, 'मैं कालेज जाऊंगा, मैं डॉक्टर बनूंगा।'
माँ कहती, 'डॉक्टर बनकर तू कहाँ जाएगा?'
'यही रहूंगा, माँ।'
'इसी कस्बे में?'
'हाँ, माँ। पास में बहुत गाँव हैं। उनकी सेहत की देखभाल करना हमारा फर्ज है। उनकी सेहत ठीक न रहेगी तो देश की उन्नति कैसे होगी।'
माँ सहसा काँपकर बोल उठती, 'देश की चिंता करने से पहले अपने को तो देख।'
सुशील मुस्कराता, 'मैं ही देश हूं, माँ।'
माँ अचकचाती- चौंकती, 'आखिर तुम ये बातें कहाँ से सीखते हो?'
'तुमसे?'
'मुझसे।'
'हाँ! तुम माँ हो! तुमने ही तो हमारा निर्माण किया है।'
तब माँ हर्ष से फूलती, चिंता से दुबलाती। देर तक एकान्त में बैठकर सोचती, 'ये मेरे बेटे हैं, इनमें मेरा रक्त है पर मुझे तो ये बातें आती ही नहीं। फिर मुझसे ये कैसे सीखते हैं? सीखते हैं तो मुझे छोड़कर क्यों चले जाते हैं? क्या सुशील भी चला जाएगा... क्या सुशील भी ... सुशील जो मेरी आखिरी संतान है, मेरी आखिरी आशा है...।'
वह काँपी... सिहर- सिहर उठी... तभी किसी ने जैसे कहीं भीतर से पुकारा- सुशील में एक अन्तर है, वह सोचता नहीं बोलता है...।
हाँ, वह सोचता नहीं, बोलता है पर बोलता तो वैसी ही बातें हैं देश ... आदमी... कर्त्तव्य और न जाने क्या क्या...।
उस रात वह देर तक यही दिवा- स्वप्न देखती रही। सबेरे उठी तो देखा- सुशील चादर ताने लेटा है।
पुकारा, 'सुशील।'
सुशील नहीं बोला। सशंक आकर उसने चादर के भीतर हाथ डाला जैसे अंगार से छू गया हो। वह काँप कर पीछे हट गयी और भर्राए स्वर में कहा, 'सुशील... सुशील!!'
सुशील चौंक कर क्षीण स्वर में बोला, 'क्या है?'
'कैसा जी है बेटा?'
'शरीर जल रहा है। छाती में दर्द है। रात शीत लगी थी।'
'छाती में दर्द', माँ पागल सी उसके पिता के पास दौड़ी, 'देखिए तो सुशील को खूब बुखार चढ़ा है। छाती में दर्द है।'
जैसे वज्र गिरा हो। पिता एकदम बोले, 'क्या?'
'बुखार!'
'बुखार! बुखार किसको है?'
माँ ने किंचित तेज होकर कहा, 'जल्दी जाकर डॉक्टर को बुलाओ। सुशील की छाती में दर्द है और बुखार भी तेज है।'
डॉक्टर आया। खूब जाँच-पड़ताल के बाद उसने कहा, निमूनिया है।
'निमूनिया!! पिता स्तब्ध रह गए।'
'निमूनिया? माँ को जैसे विश्वास नहीं आया।'
फिर कई क्षण कोई किसी से नहीं बोला। आखिर डॉक्टर ने शिकायत के स्वर में कहा, 'मैं कहता हूं, क्या आप इसका बिल्कुल ध्यान रख सकते? इसे सर्दी लगी है।'
रुंधे स्वर में माँ ने उत्तर दिया, 'डॉक्टर! रात को बार- बार उठकर मैं उसे कपड़ा ओढ़ाती हूं।'
'दवा कौन देता है?'
'मैं देती हूं।'
'ठीक समय पर?'
'आप सुशील से पूछ लीजिए।'
डॉक्टर ने दोनों हाथ हवा में हिलाए कहा, 'कुछ समझ में नहीं आता। जैसे ही रोगी स्वास्थ्य- लाभ करता है रोग उसे फिर आ दबोचता है। अच्छा, मैं फेन्सीलीन की सुइयाँ लगाता हूं।'
कई दिन तक डॉक्टर हर चार घंटे के बाद सुइयाँ लगाता रहा। उन दिनों बेहोश सी माँ ने न जाने कितनी निद्राहीन रातें बेटे के बिस्तर के पास बैठकर काटीं। ऐसी देखभाल की कि सब अश- अश कर उठे। पड़ोसियों ने कहा, माँ ऐसा न करेगी तो और कौन करेगा और फिर वह माँ, जिसके बेटे एक बाद एक उसे छोड़ कर चले गये हों।
'हाँ, जी ! वह जान भी दे दे तो थोड़ी है उसके लिए।'
'जान ही तो वह दे रही है।'
'बेचारी ने पिछले जन्म में न जाने क्या पाप किए थे?'
'पाप क्या जी, आजकल की तो औलाद ही निराली है। कहते हैं बेटा माँ- बाप का नहीं होता, देश का होता है।'
'हाँ जी! यही बात है। भला कोई पूछे उनसे, तुम्हें पाल पोसकर किसने बड़ा किया है, देश ने या माँ ने! तुम्हारे गू-मूत किसने उठाए हैं, देश ने या माँ ने?'
उनमें कुछ युवतियाँ भी थीं। एक युवती शहर में रहकर पढ़ी थी, वह बोली, 'और तो मैं कुछ नहीं जानती पर आदमी होता देश के लिए ही है।'
जैसे यह युद्ध को चुनौती थी। फिर तो घंटों क्या दिनों यही चर्चा कर घर और गली- गली का विषय बनी रही। यहाँ तक कि सुशील फिर अच्छा होने लगा, पर देश और आदमी के रिश्ते का कोई निर्णय नहीं हो सका। आखिर डॉक्टर ने एक दिन सुशील के पिता को बुलाकर कहा, 'इस बार सुशील की देखभाल विशेष रूप से करनी होगी। यदि अब रोग ने आक्रमण कर दिया तो...।'
डॉक्टर ने जान बूझकर वाक्य पूरा नहीं किया। लाला चंद्रसेन बोले, 'जानता हूं डॉक्टर जानता हूं।'
'यही समय है जब रोग आक्रमण करता है।'
'जी, हमने पूरी तैयारी कर लगी है। बारी- बारी से रात को जागने का प्रोग्राम है, उसकी एक ममेरी बहन को भी बुला भेजा है।'
क्षण भर डॉक्टर शून्य में दृष्टिपात करके कहा, 'दो चार दिन मैं भी रहना चाहूंगा।'
'आप!'
'हाँ, मैं।'
करुण स्वर में लाला चंद्रसेन बोले, 'डॉक्टर! आपने क्या नहीं किया। आपकी कृपा से ही सुशील बार- बार मौत के मुंह में जाकर लौटा है आप अब...।'
डॉक्टर ने टोक दिया, 'मैं रोगी का अध्ययन करना चाहता हूं।'
'जी'
'और वह भी कुछ दूर से।'
'आपका मतलब?'
'मतलब यह है कि मैं आपके कमरे में रहकर सुशील की देखभाल करूंगा और हाँ! यह बात किसी से कहिए नहीं। माँ से भी नहीं।'
लालाजी का सिर चकरा उठा पहले तो, पर गर्व भी कम नहीं हुआ। घर आकर यह बात वे सुशील की माँ से कहते- कहते तनिक ही बचे। 'आज डॉक्टर कहते थे...।' इतना कहकर जैसे उन्हें होश आया। चुप हो गए।
सुशील की माँ बोली, 'डॉक्टर क्या कहते थे?'
'यहीं' उन्होंने कुछ याद करते हुए कहा, 'कि मैं आज गाँव जा रहा हूं। सुशील को लौटकर रात के समय देखूंगा।'
फिर करुण स्वर में बोले, 'कितना भला डॉक्टर है।'
'भगवान का रूप है', माँ ने गद्गद् स्वर में कहा।
'हमें तो वही जिला रहा है।'
उसने यह बात सच्चे मन से कही थी। दोनों पति- पत्नी तब देर तक भले आदमियों की चर्चा करते रहे। फिर दिन बीत गया। थके हुए जीवन को सहलाने के लिए रात आ पहुंची। अंधकार में दृष्टि नहीं है, पर शाँति अवश्य है। उसी शान्त वातावरण में डॉक्टर आये। सुशील को गुदगुदाया, हंसाया, दवा बताई और लौट गये। परंतु अपने घर नहीं, पास के कमरे में। लाला चंद्रसेन वहीं रहे, माँ भी वहीं थी, सुशील को नींद आ गई। माँ ने लैम्प बुझा दिया, दीवा जलता रहा। उसका धुंधला पर शीतल प्रकाश तन-मन दोनों को सुखकारी था। कुछ देर में लाला चंद्रसेन उठे, बोले, 'जब तुम सोने लगो तो मुझे पुकार लेना।'
और वे भी चले गये। धीरे - धीरे चारों और शाँति छा गई। सुशील के पास बैठी माँ की पलकें भारी हुईं और फिर झुक गई। पर डॉक्टर की आंखों में नींद नहीं थी। वे कभी कुर्सी पर बैठे रहते, कभी टहलते, कभी धीरे -से खिड़की में से देख लेते। लाला जी उत्सुक उत्तेजित उन्हें देखते और पूछे बैठते, 'डॉक्टर कोई बात देखी?'
डॉक्टर मुस्कराता, 'आप चिंता न करें।'
और फिर सन्नाटा, किसी के खखारने और चलने का शब्द, दूर कहीं गिदड़ों की हूँ हाँ और फिर मौन, डॉक्टर की धीमी पदचाप, फिर एकाएक कहीं कुत्तों की भौं- भौं! दीवार की घड़ी ने दो बजा दिए। तभी सहसा डॉक्टर चौंक उठे। उन्होंने धीरे से लालाजी को जगाया, 'हाँ- हाँ बोलिए नहीं। चुपचाप मेरे पीछे खिड़की के पास चले आइए।
'क्या है?'
'आ जाइये चुपचाप।'
दोनों ने हतप्रभ देखा- धुंधले प्रकाश में एक मूर्ति धीरे- धीरे सुशील की खाट के पास पहुंची है। उसने कई क्षण चुपचाप सुशील के मुख को देखा, फिर चूमा, फिर धीरे- धीरे काँपते हाँथों से चादर उतार दी। सुशील एक बार खाँसा, फिर पैरों को पेंट में समेट लिया। छाया मूर्ति पीछे हटी। मेज पर दवा की शीशी रखी थी, उसे उठाया और उसे चिलमची में फेंक दिया।
चित्रलिखित- सा डॉक्टर बोला, 'देखा।'
चंद्रसेन तड़पे, 'डॉक्टर! यह तो सुशील की माँ है।'
'हाँ। आइए।'
'डॉक्टर, मैं.... मैं....।'
'आइए।'
डॉक्टर ने आगे बढ़कर सहज भाव से किवाड़ खोले और सुशील के कमरे में चले आये। छाया मूर्ति ने सहसा मुड़कर देखा, उसके मुख से एक चीख निकली- 'आप... आप...।'
और वह तीव्र वेग से काँपती हुई पीछे हटी, हटती गई, काँपती गई और फिर लडख़ड़ा कर गिर पड़ी। लाला चंद्रसेन उधर दौड़े, इधर डॉक्टर ने सबसे पहले खिड़की बंद की। फिर सुशील को कपड़ा उढ़ाया। तब सुशील की माँ की ओर झुके। वह बेहोशी में बड़बड़ा रही थी- सुशील अच्छा हो रहा है... वह कालेज जाएगा, डॉक्टर बनेगा... और फिर नहीं लौटेगा... उसके भाई भी नहीं लौटे थे... नहीं, नहीं, वह शहर नहीं जा सकता... वह मुझे नहीं छोड़ सकता।
डॉक्टर ने सुना, पिता ने सुना दोनों ने एक दूसरे को देखा। पिता सिर से पैर तक सिहर उठे, मुंह से इतना ही निकला, 'डॉक्टर...।'
डॉक्टर ने गंभीर स्वर में कहा, 'मुझे यही डर था।'
'माँ का स्नेह पुत्र का काल बना हुआ है डॉक्टर।'
सहसा डॉक्टर का स्वर कठोर हो उठा, उन्होंने कहा, 'स्नेह नहीं यह मनुष्य का स्वार्थ है जो प्रतिक्षण मनुष्यता की हत्या करता रहता है।'
पिता ने इस बार कोई उत्तर नहीं दिया। माँ का स्वर निरंतर शिथिल हो रहा था इतना कि मात्र फुसफुसाहट शेष रही थी और सुशील सो रहा था- शाँत, निद्वन्द्व।

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