Naagdatt (Volga Se Ganga) : Rahul Sankrityayan
नागदत्त (वोल्गा से गंगा) : राहुल सांकृत्यायन
10. नागदत्त
(काल : ३३५ ईसा पूर्व) [वोल्गा से गंगा]
1.
"उचित पर हमें ध्यान देना चाहिए, विष्णुगुप्त ! मनुष्य होने से हमारे कुछ कर्तव्य हैं, इसलिए हमें उचित का ख्याल रखना चाहिए ।"
“कर्त्तव्य धर्म है न ?”
"मैं धर्म को ढोंग समझता हूँ। धर्म केवल परधन-अपहारकों को शान्ति से परधन उपभोग करने का अवसर देने के लिए है। धर्म ने क्या कभी गरीबों और निर्बलों की सुध ली ? विश्व की कोई जाति नहीं है, जो धर्म को न मानती हो, किन्तु क्या कभी उसने ख्याल किया कि दास भी मनुष्य हैं। दासों को छोड़ दो, अदास स्रियों को ले लो, क्या धर्म ने कभी उन पर न्याय किया ? धन चाहिए, तुम दो, चार, दस, सौ स्त्रियों को विवाहित बना सकते हो। वह दासी से बढ़कर नहीं होगी, और धर्म इसे ठीक समझता है। मेरा उचित का मतलब धर्म से उचित नहीं है, बल्कि स्वस्थ मानव का मन जिसे उचित समझता है।"
"तो मैं कहता हूँ, जो आवश्यक है, वही उचित है।”
“तब तो उचित-अनुचित का भेद ही नहीं रह जायेगा।"
"भेद रहेगा मित्र ! आवश्यक से मतलब मैं सिर्फ एक के लिए जो आवश्यक हो, उसे नहीं लेता।"
"जरा साफ करके कह विष्णुगुप्त !”
"यही हमारे तक्षशिला-गान्धार को ले ले भाई । हमारे लिए अपनी स्वतन्त्रता कितनी प्रिय और उचित भी है; किन्तु हमारा देश इतना छोटा है, कि वह बड़े शत्रु को मुकाबिला नहीं कर सकता। जब तक मद्र, पश्चिम गन्धार जैसे छोटे-छोटे गण हमारे पड़ोसी थे, तब तक चैन से रहे-कभी-कभी लड़ाई हो पड़ती थी, किन्तु उसका परिणाम कुछ आदमियों की बलि-मात्र होता था। हमारी स्वतन्त्रता का अपहरण नहीं; क्योंकि तक्षशिला के काँटेदार आहार को पचाना किसी के लिए आसान न था, किन्तु जब पार्शव (ईरानी) पश्चिमी पड़ोसी बने, तो हमारी स्वतंत्रता उनकी कृपा पर रह गई। हमारी स्वतंत्रता के लिए क्या आवश्यक है ? यही कि हम पार्शवों जितने मजबूत बनें ।"
"और मजबूत बनने के लिए क्या करें ?”
"छोटे से गण से काम नहीं चलेगा, हमें छोटे-छोटे जनपदों की जगह विशाल राज्य कायम करना चाहिए।"
"उस विशाल राज्य में छोटे-छोटे जनपदों का क्या स्थान रहेगा ?"
"अपनेपन का ख्याल।"
"यह गोल-मोल शब्द है विष्णुगुप्त ! दास कभी स्वामी में अपनेपन का ख्याल रखता है?"
"तो मित्र नागदत्त ! स्थान पाना इच्छा या ख्याल पर निर्भर नहीं करता, वह निर्भर करता है योग्यता पर; यदि तक्षशिला-गान्धार में योग्यता होगी, तो वह उस विशाल राज्य में उच्च स्थान ग्रहण करेगा, नहीं तो मामूली।"
“गुलाम का स्थान ?”
"किन्तु मित्र ! हम गुलाम का स्थान भी उससे कहीं अच्छा होगा, जो कि पश्चिमी गन्धार को दारयोश् के राज्य में मिला हुआ है। अच्छा, मेरी औषधि को जाने दे, तू ही बतला हमें अपनी स्वतन्त्रता को कायम रखने के लिए क्या करना चाहिए, जबकि यह निश्चित है, कि हम एक क्षुद्र जनपद के रूप में अपने अस्तित्व को कायम नहीं रख सकते ?"
"मैं कहूँगा विष्णुगुप्त ! हमें अपने गण-स्वातन्त्र्य को कायम रखना चाहिए और किसी राजा के अधीन नहीं बनना चाहिए । मैं मानता हूँ, हम एक क्षुद्र गण के रूप में अपनी स्वतन्त्रता नहीं कायम रख सकते, इसीलिए हमें सारे उत्तरापथ (पंजाब) के गणों का एक संघ संगठित करना चाहिए।"
"उस संघ में, प्रत्येक गण स्वतन्त्र रहेगा, या संघ सर्वोपरि रहेगा ?"
"मैं समझता हूँ, जैसे हम सब व्यक्तियों के ऊपर गण हैं, उसी तरह गन्धार, मद्र, मल्ल, शिवि आदि सभी गणों के ऊपर संघ को मानना होगा।”
"इसे कैसे मनवायेंगे ? आखिर गण के बाहरी शत्रुओं की रक्षा के लिए हमें सेना रखनी होगी। बलि (कर) लेनी होगी।"
“जैसे हम गण के भीतर के लोगों से कराते हैं, वैसे संघ के भीतर गणों से करा सकते हैं।"
"गण के भीतर हमारा पहले से चला आया एक जन एक खून का परिवार है, अनादि काल से इस परिवार को गण-नियम के मानने की आदत बन गई है, किन्तु यह गणों का संघ नई चीज होगा, यहाँ खून का सम्बन्ध नहीं, बल्कि खून का झगड़ा-प्रतिद्वन्द्विता अनादि काल से चली आई है, फिर कैसे हम संघ के नियम को मनवा सकते हैं ? यदि मित्र ! तू इस पर व्यवहार की दृष्टि से विचारता तो कभी इसके लिए न कहता। संघ की बात गण तभी मानेंगे, जबकि उन्हें वैसा मानने के लिए मजबूर किया जायेगा। और वह मजबूर करने वाली शक्ति कहाँ से आयेगी ?"
"मैं समझता हूँ, उसे भीतर से पैदा करनी चाहिए।"
"मैं कहता हूँ, भीतर से पैदा होती तो अच्छी बात है, किन्तु पार्शवों के प्रहार को अनेक बार सहकर हमने देख लिया कि वह भीतर से ही नहीं पैदा की जा सकती, इसलिए हमें जैसे हो, वैसे उसे पैदा करना चाहिए ?”
"राजा स्वीकार कर भी?"
"सिर्फ तक्षशिला का नहीं, तक्षशिला-गान्धार जैसे अनेक जनपद का एक राजा–चक्रवर्ती-भी स्वीकार करता, तो हर्ज नहीं।"
"तो फिर पार्शव दारयोश् को ही क्यों न राजा मान लें ?”
“पार्शव दारयोश् हमारा नहीं है, मित्र ! यह तू खुद जानता है हम जम्बूद्वीप के हैं।"
"अच्छा, तो नन्द को।"
"यदि हम उत्तरापथ (पंजाब) के सारे गणों का संघ नहीं बना सकते, तो हमें नन्द को स्वीकार करने में भी उज्र नहीं होना चाहिए। पश्चिमी गान्धार की भाँति दारयोश् का दास बनना अच्छा है, या अपने एक जम्बूद्वीपीय चक्रवर्ती के अधीन रहना अच्छा है?”
"तूने विष्णुगुप्त ! राजा का राज्य अभी देखा नहीं है, देखता तो समझता, कि वहाँ साधारण जन दास से बढ़कर हैसियत नहीं रखते।"
"मैं मानता हूँ, मैंने पश्चिमी गान्धार छोड़ किसी राजा के राज्य में पैर नहीं रखा, किन्तु देश-भ्रमण की इच्छा मेरे दिल में है। मैं तेरी तरह बीच-बीच में चक्कर काटने की जगह अध्ययन समाप्त कर एक ही बार उसे करना चाहता हूँ किन्तु, इससे मेरे इस विचार में कोई अंतर नहीं आ सकता कि हमें यदि विदेशियों की घृणित दासता से बचना है, तो छोटी सीमाओं को तोड़ना होगा। दारयोश् की सफलता की वही कुन्जी है।"
“उन्हें कितनी सफलता मिली इसे मैं नजदीक से देखना चाहता हूँ"
"नजदीक से ?"
"हाँ, मैंने प्राचीन में मगध तक देख लिया, और देख लिया नन्द का राज्य जो हमारे पूर्व गान्धार (तक्षशिला) की तुलना में नर्क है; मजबूत वह जरूर है गरीबों को पीस देने के लिए, किन्तु मेहनत करने वाले लोग–कृषक, शिल्पी, दास-कितने पीड़ित हैं, इसे बयान नहीं कर सकता।"
"यह इसीलिए, कि नन्द के राज्य में तक्षशिला जैसा कोई स्वाभिमानी, स्वतंत्रता प्रेमी गण नहीं सम्मिलित हुआ"
"सम्मिलित हुआ है, विष्णुगुप्त ! लिच्छवियों का गण हमारे गन्धार से भी जबर्दस्त था, किन्तु आज वैशाली मगध की चरणदासी है; और लिच्छवि मगध-शिकारी के जबर्दस्त कुत्ते-इससे बढ़कर कुछ नहीं। वैशाली को जाकर देखो; उजाड़ हो रही है, पिछले डेढ़ सौ वर्षों में उसकी संख्या तिहाई भी नहीं रह गई। शताब्दियों से अर्जित स्वतंत्रता, स्वाभिमान के भाव अब मगध-राज्य के लड़ाके सैनिक बनाने में काम आ रहे हैं। एक बार जहाँ किसी बड़े राज्य के हाथ में अपने को दे दिया, तो फिर उसके हाथ से छूटना मुश्किल।"
"मित्र नागदत्त ! मैं भी किसी वक्त तेरी ही तरह से विचारता था, किन्तु मैं समझता हूँ, अब छोटे-छोटे गणों का युग बीत गया, और बड़ा गण या संघ कायम करना सपना मात्र है, इसीलिए मैं समय की आवश्यकता को उचित कहता हूँ। किन्तु यह बतला अब क्या पश्चिम की तैयारी है ?”
"हाँ, पहले पार्शवों के देश को, फिर हो सका तो देखना चाहता हूँ, यवनों (यूनानियों) को भी। हमारी तरह उनके भी गण हैं; किन्तु देखना है, कैसे उन्होंने महान् दारयोश् तथा उनके वंशजों को अपने मनसूबे में सफल नहीं होने दिया। इसे मैं अपनी आँखों देखना चाहता हूँ।"
"और मैं भी चल रहा हूँ मित्र ! प्राची को देखें मगध में सारे जम्बूद्वीप को एक करने की शक्ति है या नहीं। चलो हम लोग पढ़ाई समाप्त कर धन-अर्जन, परिवार-पोषण की जगह यहाँ काम करें। लेकिन मित्र ! तूने जो साथ ही साथ वैद्य की विद्या पढ़ी; अच्छा किया, मैं पछताता हूँ, यात्रा करने वालों के लिए यह बड़े लाभ की विद्या है।"
“किन्तु, तू उससे भी लाभ की विद्या ज्योतिष और सामुद्रिक यंत्र-मंत्र जानता है।"
"तू जानता है, मित्र ! यह झूठी विद्याएँ हैं।"
"लेकिन विष्णुगुप्त चाणक्य को झूठी-सच्ची विद्याओं से वास्ता? उसके लिए तो जो आवश्यक है, वह उचित है।”
बचपन से साथ खेलते, साथ पढ़ते तक्षशिला के नागदत्त काष्य और विष्णुगुप्त चाणक्य के विद्यार्थी जीवन की यह अंतिम भेट थी। एक से अधिक बार पार्शवों के हाथ में चली गयी तक्षशिला की स्वतंत्रता को बचाने के लिए दोनों अपने-अपने विचार के अनुसार कोई रास्ता ढूँढ़ रहे थे।"
2.
चारों ओर छोटे-छोटे नंगे वृक्ष-वनस्पति-शून्य पहाड़ थे, वहाँ हरियाली देखने को ऑखें तरस रही थीं। पहाड़ों के बीच में विस्तृत उपत्यका जिसमें भी जल और वनस्पति का चिह्न शायद ही कहीं दिखाई पडता हो। इसी उपत्यका के किनारे-किनारे कारवाँ का रास्ता था, जिस पर सदा लोग आते-जाते रहते थे, और कारवाँ और उनके पशुओं के आराम के लिए पांथशालाएँ (सरायें) बनी हुई थीं। आस-पास से भूखंड के देखने से आशा नहीं होती, कि इन पांथशालाओं में हर तरह का आराम है। न जाने कहाँ से इतनी चीजें इस मरुभूमि में प्रकट हो जाती थीं।
पड़ावों में पांथशालायें एक से अधिक थीं, जिनमें कुछ साधारण राज-कर्मचारियों और सैनिकों के लिए थीं; कुछ व्यापारियों के लिए और कम से कम एक तो राजा का पथ-प्रासाद होता था, जिसमें शाह और उसके क्षत्रप विश्राम करते थे। आज इस पड़ाव के पांथ-प्रासाद में कोई ठहरा हुआ था, उसके अस्तबल में घोड़े बँधे थे, आँगन में बहुत दास-कर्मचर दिखलाई पड़ते थे; किन्तु सबके चेहरे पर उदासी थी। इतने आदमियों के होने पर भी पांथ-प्रासाद में गजब की नीरवता छाई हुई थी। इसी समय फाटक से उद्विग्नमुख तीन राजकर्मचारी निकले और वह साधारण पांथशालाओं में घुस गये। उनके बहुमूल्य वस्त्रों, रोबीले मुख को देखते ही लोग भय और सम्मान के साथ एक ओर खड़े हो जाते । वह पूछ रहे थे, कि वहाँ कोई वैद्य है। अंत में साधारण जनों की पांथशाला में पता लगा, कि उसमें एक हिन्दू वैद्य ठहरा हुआ है। वर्षा उस भूमि में बहुत कम होती है, और उसकी ऋतु कब की बीत चुकी थी। सेब, अंगूर, खरबूजा जैसे फल अपने सस्तेपन के कारण इस पांथशाला में बिक रहे थे। राजकर्मचारी जब वैद्य के सामने पहुँचा, तो वह एक बड़े से खरबूजे (सर्दै) को काटकर खा रहा था, उसके आस-पास उसी की तरह के भिखमंगों जैसे भेष में कितने ही और ईरानी बैठे थे, जिनके सामने भी वैसे ही खरबूजे रखे हुए थे।
राजकर्मचारी को देखते ही, भिखमंगे भयभीत हो इधर-उधर भाग खड़े हुए। एक आदमी ने वहाँ खड़े आदमी की ओर इशारा करके कहा-"स्वामी ! यह हिन्दू वैद्य है।"
वैद्य के मलिन कपड़ों की ओर देखकर राजकर्मचारी का मुँह पहले बिगड़ सा गया। फिर उसने चेहरे की ओर देखा। वह उन कपड़ों के लायक न था, वहाँ भय, दीनता का नाम न था। राजकर्मचारी पर उन नीली आँखो से निकलती किरणों ने कुछ प्रभाव डाला, उसके ललाट की सिकुड़न चली गई, और कुछ शिष्ट-स्वर में उसने कहा-
"तुम वैद्य हो।"
"हाँ !”
"कहाँ के ?"
"तक्षशिला का।"
तक्षशिला का नाम सुनकर राजकर्मचारी और नम्र हो गया, और बोला-
"हमारे क्षत्रप-वक्षु सोग्द के क्षत्रप की स्त्री शाहंशाह की बहिन बीमार हैं, क्या तुम उनकी चिकित्सा कर सकते हो ?"
"क्यों नहीं, मैं वैद्य जो हूँ।"
"किन्तु, यह तुम्हारे कपड़े ।"
"कपड़े नहीं चिकित्सा करेंगे, मैं चिकित्सा करूँगा।"
"किन्तु, यह ज्यादा मैले हैं।"
"आज इन्हें बदलने ही वाला था। एक क्षण के लिए ठहरें"-कह वैद्य ने एक धुले ऊनी चोंगे-जो पहले से थोड़ा ही अधिक साफ था-को पहना और हाथ में दवाओं की पोटलियों से भरी एक चमड़े की थैली ले राजकर्मचारी के साथ चल पड़ा।"
कहने को यह पांथशाला थी, किन्तु इसके आँगन में गदहों की न वह लीद थी, न भिखमंगों की गुड़ियों के जुएँ। यहाँ सभी जगह सफाई थी। ऊपर चढ़ने की सीढ़ी पर रंग-बिरंगे काम वाले कालीन बिछे हुए थे, सीढ़ी की बाहों में सुन्दर कारुकार्य थे। घरों में भी उसी तरह नीचे महार्घ कालीन थे, दरवाजों पर सूक्ष्म दुकूल के पर्दे लटक रहे थे, जिनके पास संगमर्मर की मूर्ति की भाँति नीरव सुन्दरियाँ खड़ी थीं। एक द्वार पर जाकर कर्मचारी ने वैद्य को खड़ा रहने का इशारा किया, और एक सुन्दरी के कानों में कुछ कहा। उसने बहुत धीरे से द्वार को खोला। भीतर के पर्दे के कारण वहाँ कुछ दिखलाई न पड़ता था। कुछ क्षण में ही सुन्दरी लौट आई और उसने वैद्य को अपने साथ चलने को कहा।
भीतर घुसते ही वैद्य ने मधुर सुगन्ध से सारे कमरे को वासित पाया, फिर जल्दी में आसपास नजर दौड़ाई। उस कमरे के सजाने में कमाल किया गया था। कालीन, पर्दे, मसनद, दीपदान, चित्र, मूर्तियाँ सभी ऐसी थीं जिन्हें वैद्य ने अभी तक न देखा था। सामने एक कोमल गद्दी थी, जिस पर दीवार के पास दो-तीन मसनदें रखी थीं, जिनमें से एक के सहारे एक अधेड़ उम्र का स्थूलकाय पुरुष बैठा था। उसकी कान तक फैली बड़ी-बड़ी मूछों के भूरे बालों में कुछ सफेद हो चले थे। उसकी बड़ी पीली आँखों पर अति जागरण और तीव्र चिन्ता की छाप थी। उसकी बगल में एक अनुपम सुन्दरी बैठी थी, जिसका वर्ण ही श्वेत मक्खन-सा नहीं था, बल्कि मालूम होता था, वह उससे अधिक कोमल है, उसके श्वेत कपोलों पर हल्कीसी लाली थी, जो अब धूमिल हो गई थी। उसके पतले ओठों की चमकती जाली की शुक-चंचु से उपमा नहीं दी जा सकती। उसकी पतली धनुषाकार भौंहों में मृदु पीत रोम थे, और नीचे कानों के पास तक चले गये दीर्घ पक्ष्म वाले नील नेत्र, जो सूजे और आरक्त से थे। उसके सिर पर मानों सुवर्ण के सूक्ष्म तन्तुओं को बलित करके सजाया गया था। उसके शरीर में एक पूरे बाँह की हरित दुकूल की कंचुकी, और नीचे लाल दुकूल का सुत्थन था। उस सौंदर्यमय कोमल शरीर पर मणिमुक्ता के आभूषण केवल भार मालूम होते थे। इन दोनों के अतिरिक्त कमरे में कितनी ही और सुन्दरियाँ खड़ी थीं, जिनके चेहरे और विनीत भाव को देखने से वैद्य को समझने में देर नहीं हुई कि यह क्षत्रप के अन्तःपुर की परिचारिकाएँ हैं।
पुरुष-जो कि क्षत्रप ही था—ने वैद्य को एक बार सिर से पैर तक निहारा, किन्तु उसकी दृष्टि को उसके नीले नेत्रों ने अपनी ओर खींच लिया। उसे यह समझने में देर न लगी कि यदि मैं अपने कपड़ों को इसी समय पहना दें, तो यह पर्शुपुरी (पर्सेपोलोस) के सुन्दरतम तरुणों में गिना जायेगा। क्षत्रप ने विनीत स्वर में कहा-
"आप तक्षशिला के वैद्य हैं ?
"हाँ, महाक्षत्रप!"
"मेरी स्त्री बहुत बीमार है। कल से उसकी अवस्था बहुत खराब हो गई है। मेरे अपने दो वैद्यों की दवाओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है।"
"मैं महाक्षत्रप की पत्नी को देखने के बाद आपके वैद्यों से बात करना चाहूँगा।"
"वह यहाँ हाजिर रहेंगे। अच्छा तो भीतर चलें।"
श्वेत भीतर से जैसे ही श्वेत पर्दे को हटाया गया, वहाँ भीतर जाने का द्वार था। क्षत्रप ओर षोडशी आगे-आगे चलीं, उनके पीछे-पीछे वैद्य था। भीतर हाथी दाँत के पावों का एक पलँग बिछा था, जिस पर फेन-सदृश श्वेत कोमल शय्या पर रोगिणी सोई हुई थी, उनका शरीर श्वेत कदलीमृग (समूर) चर्म के प्रावरण से ढंका था, और सिर्फ चिबुक के ऊपर का भाग भर खुला था। क्षत्रप को आते देख परिचारिकाएँ अलग खड़ी हो गई । वैद्य ने नजदीक से जाकर देखा, क्षत्रपानी का चेहरा उस षोड्शी से हूबहू मिलता था, किन्तु उसके तरुण-सौंदर्य की जगह यहाँ प्रौढ़ावस्था का प्रभाव और उस पर चिररोग के झंझावात का असर था। वह लाल ओठ अब पीले थे, उसके मांसल कपोल सूखकर नीचे बँस गये थे। आँखे बंद तथा कोटर नील थीं; पीली भौंहों की कमान अभी भी तनी हुई थीं। ललाट की स्निग्ध श्वेतिमा रूखी और निस्तेज हो गई थी।
क्षत्रप ने मुँह नजदीक ले जाकर कहा-"अपशा !"
रोगिणी ने जरा-सी आँखें खोलीं, फिर बंद कर लिया।
वैद्य ने कहा-"मूर्च्छा, आंशिक मूर्च्छा ।" फिर उसने हाथों को निकालकर नाड़ी देखी। मुश्किल से उसका पता लग रहा था, शरीर करीब-करीब ठंडा था। क्षत्रप ने वैद्य के चेहरे को गम्भीर होते देखा। जरा-सा सोचकर वैद्य ने कहा-
"थोड़ी-सी द्राक्षी सुरा, पुरानी जितनी मिल सके।"
क्षत्रप के पास उसकी कमी न थी, इस यात्रा में भी। एक कांच की श्वेत सुराही रुधिर जैसी लाल द्राक्षी सुरा से भरी और एक मणि-जटित सुवर्ण-चषक आया। वैद्य ने एक पोटली खोली और दाहिने हाथ की कानी अँगुली के बड़े नख से एक रत्ती कोई दवा निकाल रोगिणी का मुँह खोलने के लिए कहा। क्षत्रप को मुँह खोलने में कोई दिक्कत नहीं हुई। उसने दवा मुँह में डाल एक घूँट सुरा मुँह में डाल दी, रोगिणी को घोंटते देख वैद्य को संतोष हो गया। उसने क्षत्रप से कहा-
"अब मैं बाहर महाक्षत्रप के वैद्य से मिलना चाहता हूँ, थोड़ी देर में महाक्षत्रपानी आँख खोलेंगी, उस उक्त मेरे आने की जरूरत होगी। दूसरे कमरे में जाकर वैद्य ने पार्शव वैद्यों से मंत्रणा की। उन्होंने, सोग्द से चलने के समय जो साधारण ज्वर आया था, तब से लेकर आज तक की अवस्था का सारा वर्णन किया; इसी वक्त परिचारिका ने आकर सूचना दी; कि स्वामिनी महाक्षत्रप को बुलाती हैं। महाक्षत्रप के चेहरे पर नया प्रकाश-सा दौड़ गया, वह वैद्य को लेकर भीतर गया। क्षत्रपानी की आँखें पूरी तौर से खुली हुई थीं। उसके चेहरे में कुछ जीवन का चिह्न दिखलाई दे रहा था। क्षत्रपानी ने धीरे से, किन्तु संयत स्वर में कहा- "मैं जान रही हूँ, तुम बहुत खिन्न हो, मैंने यही कहने के लिए बुलाया कि मैं अच्छी हो जाऊँगी, मैं अनुभव कर रही हूँ, मुझमें शक्ति आ रही है।
क्षत्रप ने कहा-"यही बात मुझसे यह हिन्दू वैद्य भी कह रहे थे।"
चेहरे को और उज्ज्वल करते हुए क्षत्रपानी ने कहा-"हिन्दू वैद्य जानते हैं, मेरी बीमारी को; मेरी बीमारी खतम हो चुकी है, क्यों वैद्य ?"
"हाँ, बीमारी खतम हो गई, किन्तु महाक्षत्रपानी को थोड़ा-सा विश्राम करना पड़ेगा। मैं यही सोच रहा हूँ, कि कितनी जल्दी आपको पर्शुपुरी जाने लायक कर दिया जाय। मेरे पास अद्भुत रसायन है, हिन्दुओं के रसायन को मैं दे रहा हूँ। थोड़ा-थोड़ा द्राक्षा और दाड़िम का रस पीना होगा।"
“वैद्य ! तुम रोग को पहचानते हो. दूसरे तो गदहे हैं, गदहे। तुम जैसा कहोगे, वैसा ही करूँगी। रोशना !"
षोड्शी सामने खड़ी बोली-"माँ ?"
"बेटी ! तेरी आँखें गीली हैं, वे वैद्य मुझे मार डालते, किन्तु अब चिन्ता नहीं। हिन्दू वैद्य को अहुरमज्दा ने भेजा है, इन्हें तकलीफ न होने देना। मुझे जो खाने-पीने को वैद्य कहें, तू अपने हाथ से देना। वैद्य रोशना को कुछ बातें बतलाकर बाहर निकला। क्षत्रप का चेहरा खिला हुआ था। वैद्य ने कुछ दवाओं को भोजपत्र के टुकड़ों में बाँधकर, क्षत्रप के हवाले कर जब अपनी पांथशाला में जाना चाहा, तो क्षत्रप ने कहा-
"तुमको हमारे साथ रहना चाहिए।"
"किन्तु मैं दरबार में रहने का तरीका नहीं जानता।"
"तो भी मनुष्य के रहने का तरीका तुम अच्छी तरह जानते हो। तरीका जाति-जाति का अलग होता है !"
"मेरी रहन-सहन से आपके परिचायकों को कष्ट होगा।” ।
"मैं एक बिल्कुल अलग कमरा, पास ही दे रहा हूँ। तुम्हारे पास रहने से हमें संतोष रहेगा।"
“महाक्षत्रपानी की अब कोई चिन्ता न करें। वैद्यों ने बीमारी को ठीक से पहचाना नहीं था। मैं दो घण्टा और न आया होता, तो फिर आशा न थी। किन्तु अब उनकी बीमारी चली गई समझें।"
क्षत्रप के आग्रह पर वैद्य ने वहीं एक कमरे में रहना स्वीकार किया।
क्षत्रपानी चौथे दिन से बैठने लगीं और उनके चेहरे की सिकुड़ने बड़ी तेजी से घटने लगीं। सबसे ज्यादा प्रसन्न थी रोशना। दूसरे ही दिन उसने क्षत्रप के दिये महार्घ दुशाले के चोंगे को लाकर अपने हाथों वैद्य को प्रदान किया। उस चोंगे, उस सुनहले कमरबन्द, उस स्वर्ण-खचित जूतों के साथ अब वह भिखमंगों में बैठे खरबूजा खाने वाला आदमी न था।
क्षत्रपानी अब हल्का आहार ग्रहण करने लगी थीं। छठे दिन शाम को उन्होंने वैद्य को बुला भेजा। वैद्य उन्हें बिल्कुल नया पुरुष मालूम होता था, जान पड़ा उनके भतीजों में से कोई आ रहा है। पास आने पर बैठने के लिए कहा, और बैठ जाने पर बोलीं-
“वैद्य ! मैं तुम्हारी बड़ी कृतज्ञ हूँ। इस निर्जन बयाबान में मज्दा ने तुम्हें मुझे बचाने के लिए भेजा। तुम्हारा जन्म-नगर क्या है?"
“तक्षशिला।"
“तक्षशिला ! बहुत प्रसिद्ध नगर है, विद्या के लिए प्रख्यात है। तुम उसके रत्न हो।"
"नहीं, मैं उसका एक अति साधारण नया वैद्य हूँ।"
"तुम तरुण हो निस्सन्देह, किन्तु तरुणाई और गुण से बैर नहीं है। तुम्हारा नाम क्या है, वैद्यराज ?"
"नागदत्त काष्य।"
"पूरा नाम बोलना मेरे लिए मुश्किल होगा, नाग कहना काफी होगा?"
"काफी होगा, महाक्षत्रपानी !”
"तुम कहाँ जा रहे हो ?"
"अभी तो पर्शुपुरी (पर्सेपोलीस)"
"फिर?"
"चलने, यात्रा करने की इच्छा से ही मैंने घर छोड़ा है।"
"हम भी पर्शुपुरी जा रहे हैं, तुम हमारे साथ चलो। हम तुम्हारा हर तरह से ख्याल रखेंगे। रोशना ! तू वैद्यराज के आराम का खुद ख्याल किया कर। दास बेपरवाही करेंगे।"
"नहीं, माँ ! मैं खुद देखती रहती हूँ, मैंने सोफिया को इस काम में लगा दिया है।"
"सोफिया यवनी (यूनानी) जिसे मेरे भाई ने यहाँ मेरे लिए भेजा था?"
"हाँ, माँ ! तुम्हारा तो कोई काम न था, और लड़की बहुत होशियार मालूम होती है, इसलिए मैंने उसे ही लगा दिया है।"
"तो वैद्यराज ! हमारे साथ पर्युपुरी चलना होगा। मैं तुम्हारी इच्छा के प्रतिकूल कुछ न करूंगी, किन्तु मैं चाहूँ तुम हमारे परिवार के वैद्य रहो।"
नागदत्त कुछ देर बैठ कर अपने कमरे में चला गया।
3.
संसार के इतने विशाल राज्य की राजधानी इन नंगे, वृक्ष-वनस्पतिहीन पहाड़ों में, इतनी प्राकृतिक दरिद्रता के साथ होगी, नागदत्त को इसका ख्याल भी न था। पर्शुपुरी महानगरी थी। राजप्रासाद के विशाल चमकते पाषाण स्तम्भों, उसके गगनचुम्बी शिखरों को बाहर से देखने पर ही शाहंशाही वैभव का पता लगता था, नगर की समृद्धि भी उसी के अनुरूप थी, किन्तु यह सब मनुष्य के हाथों का निर्माण था। प्रकृति ने अपनी ओर से सचमुच ही उसे अत्यन्त दरिद्र बनाया था।
पर्शुपुरी और शाहंशाह के वैभव को देखने के लिए शाहंशाह की बहिन अफ़शा के आश्रय से बढ़कर अच्छा अवसर नहीं मिल सकता था। क्षत्रपानी ने पर्शुपुरी पहुँचकर नागदत्त के आराम का बहुत ध्यान रखा, और जब उसने दक्षिणा के लिए जोर दिया, तो वैद्य ने सोफिया को माँग लिया। जब सोफिया की टूटी-फूटी पारसी को समझना मुश्किल हो रहा था, उस वक्त भी नागदत्त को इतना पता लग गया था, कि उन चमकीले नेत्रों के भीतर तीक्ष्ण प्रतिभा छिपी हुई है। जब वह उसकी हो गई-हाँ, दासी के तौर पर, तो नागदत्त ने उसे कभी स्वीकार नहीं किया, और धीरे-धीरे भाषा का परिचय भी और अधिक बढ़ने लगा। नागदत्त ने स्वयं यवनानी (यूनानी) लिपि सीखी, और सोफिया उसे बड़े परिश्रम से एथेन्स की भाषा सिखाने लगी। साल बीतते-बीतते वह उसमें निपुण हो गया। एक दिन सोफिया ने तरुण वैद्य के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए कहा-
"भाग्य या संयोग भी कैसी चीज है, मुझे कभी आशा नहीं हुई थी, कि मैं तुम्हारे जैसे कोमल स्वभाव के स्वामी की दासी बनूंगी।"
"नहीं, सोफिया ! तुम यदि क्षत्रपानी के साथ रहतीं, तो तुम्हें शायद ज्यादा आराम होता। लेकिन सोफी ! मुझे स्वामी न कहो। दासप्रथा का नाम सुनकर मुझे ज्वर आता है।
"किन्तु मैं तुम्हारी दासी हूँ ?"
"तुम दासी नहीं हो, मैंने क्षत्रप-दम्पति को सूचित कर दिया है, कि सोफिया को मैंने दासता से मुक्त कर दिया।"
"तो मैं अब दासी नहीं हूँ ?"
"नहीं, अब तुम मेरी ही तरह स्वतन्त्र हो और जहाँ चाहो, मैं कोशिश करूंगा, तुम्हें वहाँ पहुँचाने की।"
"किन्तु, यदि मैं तुम्हारे पास और रहना चाहूँ, तो बाहर तो नहीं करोगे।"
"यह बिल्कुल तुम्हारी इच्छा पर है।"
"दासता मनुष्य को कितना दबा देती है ? पिता के घर में मैंने अपने दासों को देखा था, वह हँसते थे, आमोद-प्रमोद करते थे! मैंने कभी नहीं समझा था कि उस हँसी के भीतर इतनी व्यथा छिपी हुई है। जब मैं स्वयं दासी हुई, तब मुझे अनुभव हुआ कि दासता कैसा नर्क है।"
"तुम कैसे दासी हुई, सोफी ! यदि कष्ट न हो तो बताओ।"
"मेरे पिता एथेन्स नगरी के एक प्रमुख नागरिक थे जब मकदूनिया के राजा फिलिप् ने हमारी नगरी का विजय किया, तो पिता परिवार के व्यक्तियों को ले नाव से एशिया भाग आये। हमने समझा था, यहाँ हमें शरण मिलेगी, किन्तु जिस नगरी में हम उतरे, चन्द महीने बाद ही पार्शवों ने उस पर आक्रमण कर दिया। नगर का पतन हुआ, और उस भगदड़ में कोई कहीं गया, कोई कहीं, कितने नागरिकों को पार्शवों ने बन्दी बनाया मैं भी उन्हीं बन्दियों में थी, और अच्छे रूप और तरुणाई के कारण मुझे सेनापति के पास भेजा गया, सेनापति से शाह के पास। शाह के पास मेरी जैसी सैकड़ों यवन-तरुणियाँ थीं, उसने अपनी बहिन को आते सुन, मुझे उसके पास भेज दिया। यद्यपि मैं दासी थी, किन्तु अपने रूप के कारण खास स्थान रखने वाली दासी थी, इसलिए मेरा अनुभव साधारण दासियों का नहीं हो सकता, तो मैं ही जानती हूँ इस यातना को। मुझे जान पड़ता था, मैं मानवी नहीं हूँ।"
"तो सोफी ! तुम्हारी पिता से फिर भेंट नहीं हो सकी ?"
"मुझे विश्वास नहीं कि वह जिन्दा बचे होंगे। अब तो हम हवा में उड़ते सूखे पत्ते हैं। प्यारी एथेन्स बर्बाद हो गई। अब जीवित होने पर भी मिलने का ठाँव कहाँ रहा ?"
"एथेन्स महानगरी है सोफिया ?"
"थी कभी स्वामी !”-
"स्वामी नहीं, नाग कहो, सोफी !"
"थी कभी नाग ! किन्तु अब तो वह उजड़ चुकी है; हमारा गण जिसने महान् दारयोश् के दाँत खट्टे किये, उसे क्षुद्र फिलिप ने आनतशिर कर दिया।"
"क्यों ऐसा हुआ, सोफी ?"
"पार्शवों के अनेक आक्रमण का प्रतिकार करके भी एथेन्स के कितने ही विचारकों के दिमाग में यह ख्याल बैठ गया, कि जब तक पार्शवों के मुकाबले में हम भी एक बड़ा राज्य नहीं कायम कर लेते, तब तक निस्तार नहीं। फिलिप कभी सफल न होता, यदि एथेन्स से उसे सहायता न मिली होती।"
"आह, तक्षशिला ! तूने भी विष्णुगुप्त को पैदा किया !"
"तक्षशिला, विष्णुगुप्त क्या है नाग !”
"अभिमानिनी तक्षशिला, मेरी जन्मभूमि, पूर्व की एथेन्स। हमारे गण ने भी महान् दारयोश् और उसके उत्तराधिकारियों को कई बार मार भगाया, किन्तु मेरा सहपाठी विष्णुगुप्त अब वही बात कह रहा है, जिसे फिलिप् को सहायता पहुँचाने वाले एथेन्स के नागरिकों ने कहा था।"
"क्या तक्षशिला भी हमारे एथेन्स की भाँति ही गण है ?"
"हाँ गण है। और हमारी तक्षशिला में कोई दास नहीं, उसकी भूमि पर पैर रखते ही दास अदास हो जाते हैं।"
"आह, करुणामयी तक्षशिला ! तभी, नाग मैंने पहले दिन से ही देखा, दासों के साथ बरतने का तुम्हें ढंग नहीं मालूम है।"
"और मैं कभी मालूम नहीं होने दूँगा। मैंने विष्णुगुप्त को कहा, यदि तुम मागधों को लाओगे, तो तक्षशिला की पवित्र भूमि पर दासता का कलंक लगे बिना नहीं रहेगा।"
"मागध कौन हैं नाग !"
"हिन्द के फिलिप्, तक्षशिला से पूर्व एक विशाल हिन्दू-राज्य। पार्शवों के आक्रमण से हम तंग आ गये हैं, जीतते-जीतते भी हम निर्बल और हारे से हो गये हैं। वस्तुतः अकेली तक्षशिला पार्शव शहंशाह से मुकाबला नहीं कर सकती, किन्तु मैं इसकी दवा अपने अनेक गणों के संघ को बतलाता हूँ।"
"किन्तु, नाग ! हमारे देश में यह भी करके देख लिया गया। हमारी हेल्ला जाति के कितने ही गणों ने संघ बाँध कर पार्शवों का मुकाबला किया, किन्तु वह संघ स्थायी नहीं हो सका। गणों में अपने-अपने गण की स्वतंत्रता का इतना ख्याल होता है कि वह संघ को यह स्थान देने के लिए तैयार नहीं होता।"
"तो क्या मैं गलत साबित होऊँगा और विष्णुगुप्त ही सही।"
"क्या, विष्णुगुप्त संघ में सफलता नहीं देखता ?"
"हाँ, वह कहता है, हमारा शत्रु जितना मजबूत है, उसका मुकाबला गणों के संघ से नहीं हो सकता। अनेक गणों की सीमा मिटाकर यदि एक महान् गण बनाया जा सके, तो शायद संभव हो, किन्तु गण इसे नहीं मानेंगे।"
"शायद नाग ! तुम्हारा मित्र ठीक कहता है, किन्तु हमने अन्त तक एथेन्स की स्वतंत्रता को खुशी से देने का ख्याल मन में नहीं आने दिया।"
"तो सोफी ! गण होते हुए एथेन्स ने इस दासता को क्यों स्वीकार किया?"
"अपने पतन को जल्दी बुलाने के लिए। धनिकों के लोभ ने दासता को जारी किया, और धीरे-धीरे दास स्वामियों से भी संख्या में बढ़ गये।"
"तुम्हें यहाँ पार्शवों में सब से बुरी बातें क्या मालूम हूई ?"
"दासता जो कि हमारे यहाँ भी थी। फिर शाहंशाहों और धनिकों का रनिवास।"
"तुम्हारे यहाँ ऐसा नहीं होता ?"
"हमारे यहाँ मकदूनिया का राजा फिलिप् भी एक से अधिक ब्याह नहीं कर सकता। यहाँ तो छोटे-छोटे राजकर्मचारी तक कई-कई शादियाँ करते हैं।"
"हमारे यहाँ कभी-कभी एक से अधिक ब्याह देखे जाते हैं, यद्यपि उनकी संख्या कम है; किन्तु मैं अनुभव करता था कि यह स्त्रियों की दासता की निशानी है। एथेन्स ने यदि दासता रखी, तो तक्षशिला ने अनेक स्त्री के साथ विवाह को जारी रखकर उसे कायम रखा।"
"और धन का थोड़े ही घरों में जमा होना।"
"मैंने विष्णुगुप्त को कहा था, गण में कितना ही धन सिक्का क्यों न बढे, किन्तु वह राजाओं की भाँति पानी की तरह नहीं बहाया जा सकता। यहाँ तुम देख ही रही हो सोफी ! महार्घ मृगचर्म, दूकूल, मणि, मुक्ता आदि वस्तुओं के साथ किस तरह का व्यवहार किया जाता है। ये गुलाबी गाल, ये प्रवाली अधर ख्याल भी नहीं करते, कि इन वस्तुओं को पैदा करने के लिए कितने करोड़-करोड़ आदमी भूखे मर रहे हैं।"
"हमारे घरों पर गिरे पानी को छीनकर समुद्र को महान् जलराशि मिली है।"
"मिट्टी से सोना पैदा करने वाले भूखे-नंगे रहते हैं और सोने को मिट्टी करने वाले मौज उड़ाते हैं। मैं तीन बार शाहंशाह के सामने गया, हर बार लौटते वक्त मेरे सिरे में दर्द होने लगा। मैंने उसके सारे वैभव से जाड़ों में ठिठुरकर, गर्मियों में जलकर मरने वाले कमकरों की आह निकलती देखी, उसकी लाल मदिरा मुझे सताई गई प्रजा के खून के रूप में दिखलाई पड़ी। मैं पर्शुपुरी से तंग आ गया हूँ, और जल्दी निकल भागना चाहता हूँ।"
"कहाँ जाना चाहते हो नाग ?"
"पहले तुम्हारे बारे में जानना चाहता हूँ।"
"मैं कहाँ बतला सकती हूँ।"
"यवन लोक (यूनान)”
"पसन्द होगा।"
"तो उधर ही चलेंगे।"
"किन्तु रास्ते में मुझे फिर कोई छीन लेगा, और अबकी बार नाग जैसा त्राता नहीं प्राप्त कर सकूँगी !”-सोफिया का स्वर असाधारण कोमल हो गया था, उसके सुन्दर आयत नयन कातर से दीख पड़ रहे थे। नागदत्त ने उसके कान के ऊपर से लटकते सुनहले बालों को छूते हुए कहा-"उसके लिए उपाय सोच रखा है, किन्तु उसमें तुम्हारी सम्मति की भी जरूरत है।"
"क्या ?"
"क्षत्रप, क्षत्रपानी और शाहंशाह से अपने बारे में पत्र ले लूंगा, कि यह शाहंशाह से सम्मानित हिन्दू वैद्य है।"
"तो तुमको कोई नहीं छेड़ेगा।"
"और तुम दुनिया को दिखलाने के लिए वैद्य की स्त्री यदि बनना चाहो; तो पत्र में तुम्हारा नाम भी लिखवा दूँगा।"
सोफिया की आँखों में आँसू छल-छल उतर आये थे। उसने नागदत्त के हाथ को अपने हाथों में लेकर कहा-
"नाग ! तुम कितने उदार हो, और साथ ही तुम उसे जानने की कोशिश भी नहीं करना चाहते ! तुम कितने सुन्दर हो, किन्तु कभी तुमने यहाँ अपनी ओर झाँकता पुष्पराग और नीलम की आँखों को नहीं देखा। नाग ! रोशना ने कितनी ही बार मेरे सामने तुम्हारे लिए प्रेम प्रकट किया था। उसका एक कोई मरियल-सा भाई है, माँ-बाप चाहते हैं, उसी से ब्याह कर देना; किन्तु वह तुमको चाहती है।"
"अच्छा हुआ, जो मैंने नहीं जाना, नहीं तो इन्कार ही करना पड़ता। सोफिया ! मैं इन प्रासाद-पोषिताओं के लिए नहीं हूँ। मैं शायद किसी के लिए नहीं हैं, क्योंकि मुझसे प्रेम करने वाली को कभी सुख की नींद सोने को नहीं मिलेगी। किन्तु, यदि तुम चाहो, तो शाहंशाह के पत्र में-पत्र भर के लिए अपनी स्त्री लिखवा लूँ! शायद यवन देश में तुम्हारा कोई प्रिय मिल जाय, कि तुम अपना रास्ता लेना।"
4.
वैद्य नागदत्त की हर जगह आवभगत होती थी, वह हिन्दू वैद्य था, पार्शव शाहंशाह दारयोश् का वैद्य रह चुका था, साथ ही चिकित्सा में उसका अद्भुत अधिकार था। पर्शुपुरी में रहते ही वह यवन भाषा सीख गया था, फिर सोफिया उसकी सहचरी थी ! उसने मकदूनिया देखी, फिलिप् के पुत्र अलिकसुंदर (सिकन्दर) के गुरु अरस्तू को देखा। नागदत्त स्वयं भी दार्शनिक था, किन्तु भारतीय ढंग का। अरस्तू की शाहंशाह-पसदी से उसका मतभेद था, तो भी वह अरस्तू के लिए भारी सम्मान लेकर मकदूनिया से विदा हुआ। अरस्तू की सबसे बड़ी बात जो उसे पसंद आई वह थी, सत्य की कसौटी-दिमाग नहीं, जगत् के पदार्थ, प्रकृति है। अरस्तू प्रयोग-तजुर्बे को बहुत ऊँचा स्थान देता था। नागदत्त को अफसोस होता था कि भारतीय दार्शनिक सत्य को मन से उत्पन्न करना चाहते हैं। नागदत्त ने अरस्तू के मनस्वी शिष्य की प्रशंसा उसके गुरु के मुँह से सुनी थी, और खुद भी कई बार उससे बातचीत की थी। उस तरुण में असाधारण शौर्य ही नहीं, बल्कि असाधारण परख भी थी।
नागदत्त ने अरस्तू से एथेन्स जाकर लौट आने के लिए छुट्टी ली थी, किन्तु उसे क्या मालूम था कि यही उसकी यवन दार्शनिक से अंतिम भेंट होगी।
वीरों की जननी गणतंत्र की विजय-ध्वजा-धारिणी एथेन्स नगरी के भीतर वह उतने ही श्रद्धा और प्रेम के साथ प्रविष्ट हुआ जितना कि तक्षशिला के लिए करता। नगर फिर से आबाद हो गया था, किन्तु सोफिया ने बतलाया कि अब वह एथेन्स नहीं रहा। वेनस्, ज्युपितर के मंदिर अब भी अमर कलाकारों की सुंदर कृतियों से अलंकृत थे, किन्तु एथेन्स के नागरिकों में वह उत्साह, वह जीवन नहीं था, जिसे कि सोफिया ने देखा था।
सोफिया के पिता का घर—नहीं उसकी भूमि पर बने घर का स्वामी कोई मकदूनियन व्यापारी था। उस घर को देखकर वह इतनी उद्विग्न हुई कि एक दिन-रात उसकी चेष्टाएँ उसकी स्वाभाविक गम्भीरता के विरुद्ध होती थीं, किन्तु वह बोलती कम थी। कभी उसके नेत्रों से आँसुओं के बूंद झरते थे, और कभी वह संगमरमर की मूर्ति-सी निश्चल हो जाती। नागदत्त समझ गया कि अपने बाल्य के प्रिय स्थान को ऐसी अवस्था में देखकर उसकी यह हालत हुई है। किन्तु, बड़ी मुश्किल यह थी, कि समझाने का वहाँ अवसर न था और अंत में सोफिया के इस मर्मान्तक शोक का असर नागदत्त पर भी पड़ा।
जब सोफिया फिर प्रकृतिस्थ हुई, तो वह बिल्कुल बदली हुई थी। अपने शरीर को सजाने का उसे कभी ख्याल न होता था, किन्तु अब वह गणतांत्रिक एथेन्स की तरुणियों की भाँति अपने केशों को ताजे फूलों की माला की मेखला से बाँधती थी। बदन पर यवन-सुन्दरियों का पैर तक लटकता अनेक चुनावों वाला सुन्दर कंचुक होता है और पैरों में अनेक बद्धियों की चप्पल। उसके सुन्दर श्वेत ललाट, गुलाबी कपोलों, अरिरिक्त ओठों में तारुण्य, सौन्दर्य और स्वास्थ्य का अद्भुत सम्मिश्रण था। और प्रसन्नता, मुस्कान तो उसके चेहरे, ओठों पर, हर वक्त नाचती रहती थी।
नागदत्त को यह देखकर आश्चर्य नहीं, अपार हर्ष हुआ। उसके पूछने पर सोफिया ने कहा-
"प्रिय नाग! मैंने जीवन को अब तक एक मात्र शोक और चिन्ता की वस्तु समझ रखा था, किन्तु मुझे वह दृष्टि गलत मालूम हो रही है। जीवन पर इस तरह की एकांगी दृष्टि जीवन के मूल्य को कम कर देती है, और उसके कार्य करने की क्षमता को निर्बल कर देती है। आखिर तुम भी नाग ! तक्षशिला के भविष्य के लिए कम चिन्ता नहीं रखते, किन्तु तुम चित्त को शीतल रख उपाय सोचने में सारी शक्ति लगाते हो।"
"मुझे बड़ी प्रसन्नता है सोफी ! तुम्हें इतना आनन्दित देखकर।"
"मुझे आनन्द क्यों न होगा, मैंने एथेन्स में लौटकर अपने प्रिय को पा लिया।"
नागदत्त ने हर्षोल्लास से पुलकित होकर कहा-"यह और भी आनन्द की बात है कि तुमने अपने प्रिय को इतने दिनों बाद पा लिया।"
"मैं देखती हूँ, नाग ! तुम मनुष्य नहीं हो; देवताओं से भी ऊपर हो; तुममें ईर्ष्या छू तक नहीं गई है।"
"ईर्ष्या ! ईर्ष्या का यहाँ क्या काम ? मैंने सोफी ! क्या जिम्मा नहीं लिया था, तुम्हें यवन-देश में पहुँचाने का ? मैंने क्या तुम से कहा नहीं था कि तुम वहाँ अपने प्रिय को ढूंढ़ लेना ?"
"हाँ, कहा था।"
"तुम्हारे इस असाधारण हर्ष को देखकर मुझे ख्याल होने लगा था, कि तुम्हें कोई असाधारण प्रिय वस्तु प्राप्त हुई है।"
"तुम्हारा ख्याल ठीक निकला, नाग।"
"अच्छा तो मुझे आज्ञा दो तुम्हारे प्रियतम को यहाँ निमन्त्रित करने की, या यदि वह अभी यहाँ न आ सकता हो तो उसे देखने की।"
"किन्तु तुम इतने उतावले क्यों हो रहे हो ?"
"सचमुच ही मैं उतावला हो रहा हूँ ? तुम गलत नहीं कह रही हो। नागदत्त ने अपने को रोकने की कोशिश की।"
सोफिया को भय मालूम होने लगा, कि वह अपने आँसुओं को रोक न सकेगी। उसने एक ओर मुँह फेरकर कहा-
"देख सकते हो, किन्तु तुम्हें एथेन्स के तरुण का भेष धारण करना होगा, इससे कुछ अच्छा।"
"वह नया होगा, नया चप्पल जो तुम कल खरीद लाई, मैं उसे पहने लेता हूँ।"
"जाओ, पहन आओ, तब तक मैं अपने प्रियतम के लिए माला ले लूँ, लिदिया उसे गूंथ रही है।"
"अच्छा" कह नागदत्त दूसरे कमरे में चला गया। सोफिया बैठक के बड़े दर्पण के सामने खड़ी हुई। उसने अपने वस्त्रों और फूल के आभूषणों पर एक बार फिर हाथ फेरा, फिर एक माला को दर्पण के पीछे रख, चुपके से कमरे के द्वार पर जाकर बोली-
"नाग ! बहुत देर हो रही है, कहीं मेरा प्रियतम किसी प्रमोदशाला में न चला जाये।"
"जल्दी कर रहा हूँ, सोफी ! यह तुमने कैसा तोगा ला दिया है, इसकी चुन्दन ठीक नहीं बैठ रही है !"
"मैं सहायता कर दूँ ?"
"बड़ी कृपा होगी !"
उलझी चुन्दन का सुलझाना आसान था। फिर नागदत्त ने नये चप्पल को पहना। नागदत्त के खिले मुँह की ओर देखने का सोफी को साहस नहीं हुआ। उसने हाथ को पकड़ कर कहा-"पहले चलो दर्पण में अपनी नई पोशाक देख तो लो।”
"तुमने देख लिया सोफी ! यही बहुत है। विनीत भेष होना चाहिए।"
"हाँ, मैं तो समझती हूँ, विनीत है, किन्तु एक बार देख लेना बुरा नहीं है।"
सोफी ने नागदत्त को दर्पण के सामने खड़ा कर दिया, वह अपने वस्त्र को देखने लगा। उसी वक्त उसने माला निकालकर कहा-
"यह माला मैंने प्रियतम के लिए बनाई है।"
"बहुत अच्छी माला है, सोफी !"
"किन्तु मालूम नहीं उसे कैसी लगेगी।"
"क्यों, बहुत अच्छी लगेगी।"
"उसके पीले केश, और यह माला अतिरिक्त गुलाबों की है।
"सुन्दर मालूम होगी।"
"जरा तुम्हारे सिर पर रखकर देख लूँ।"
"तुम्हारी मर्जी। मेरे भी केश पीले हैं।"
"इसलिए तो निश्चय कर लेना चाहती हूँ।” माला को सिर पर रखकर सामने से देख फिर दर्पण से मुँह दूसरी ओर घुमाने के लिए कहा-"तो तुम आज मेरे प्रियतम को देखोगे नाग ! अभी ! यह देखो।"
नाग ने मुँह घुमाया, सोफिया की अँगुली दर्पण की ओर, नागदत्त के प्रतिबिम्ब की ओर थी। उसने आनन्दाश्रुपूर्ण नेत्रों से कहा-"यह है मेरा प्रियतम !” और फिर दूसरे ही क्षण उसने अपनी भुजाओं में नागदत्त को बाँध, उसके ओठों पर अपने ओठों को रख दिया। नागदत्त कितनी देर तक चुप रहा, फिर सोफी ने ओठों को हटा अपने कपोल से उसके कपोल को लगाकर कहा-
"मेरा प्रियतम ! कितना अच्छा है, नाग?"
"सोफी ! मैं अपने को तुम्हारे योग्य नहीं समझता।"
"मैं अपने को समझती हूँ। मेरे नाग! अब मृत्यु तक हम साथ रहेंगे।"
नागदत्त के आँसुओं का बाँध अब टूटा, उसने कहा-“मृत्यु तक !"
5.
नागदत्त की बड़ी इच्छा थी, सलामी की खाड़ी देखने की, जहाँ कि यवन नौसेना ने पार्शवों को जबर्दस्त पराजय दी थी। दोनों स्थल के रास्ते चले जा रहे थे। नागदत्त अपने में नया उत्साह पा रहा था, और उसको ख्याल रह-रहकर तक्षशिला की ओर जाता था। दोनों रास्ते में एक वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे थे, उस वक्त सोफिया ने कहा- "सुना न नाग ! फिलिप् मर गया, अलिकसुन्दर मकदूनिया का राजा बना है और वह बड़ी जबर्दस्त सेना तैयार कर रहा है।"
"हाँ, वह सारे यवन (भूमध्य सागर के तट पर अधिकार करना चाहता है। किन्तु इसका पूर्वी और दक्षिणी (मिस्र) का तट तो पार्शवों के हाथ में है।"
"जिसका अर्थ है, वह पार्शवों से युद्ध करना चाहता है।"
"और इस प्रकार गणतंत्री यवनों से अपने राज्य की स्थापना में सहायता लेना चाहता है। एक ढेले से दो चिड़ियाँ मारना चाहता है, सोफी ! शाहंशाह को यवन सागर से हटाना-यदि और आगे न बढ़ सका तो और अभिमानी यवन गणों की राजभक्ति को प्राप्त करना।"
"अरस्तू ने उसको शिक्षा दी, अरस्तू ने उसके साहस को बढ़ाया।"
"दार्शनिक अरस्तू ने?"
"हाँ, और उसके गुरु अफलातूं ने एक आदर्श गण की कल्पना की थी, किन्तु उसने भी साधारण जनता को हरवाहा-चरवाहा ही रखना चाहा। अरस्तू ने आदर्श गण की जगह आदर्श राजा चकवर्ती की कल्पना की। क्या जाने, यह यवन-चकवर्ती पार्शव शाहंशाह को हराकर कहाँ तक जाये।"
"एक बार पैर बढ़ा देने पर उसे रोकना अपने हाथ में नहीं रहता सोफी ! और मेरा सहपाठी विष्णुगुप्त चाणक्य भी मगध में चक्रवर्ती खोजने गया था।"
"क्या यवन और हिन्दू चक्रवर्तियों का सिन्धु-तट पर मिलन तो न होगा ?"
"पहली पीढ़ी में नहीं तो दूसरी पीढ़ी में सोफी ! किन्तु तब पृथ्वी कितनी छोटी हो जायेगी।"
*****
समुद्र-तट से वह नाव पर सलामी के लिए रवाना हुए। समुद्र शान्त था, हवा बिल्कुल रुकी हुई थी। सोफी और नागदत्त दो शताब्दी पहले के इस समुद्र को बड़े कृतज्ञतापूर्ण हृदय से देख रहे थे, इसने ही पार्शवों की नौवाहिनी को ध्वंस करने में सहायता प्रदान की थी।
समुद्र में काफी दूर चले जाने पर एक भारी तूफान आया। दोनों अभी इस ख्याल में थे, कि यह सौ साल पहले वाला तूफान है। उसी वक्त उनकी दृष्टि नौकारोहियों के भयभीत चेहरों पर पड़ी, और फिर देखा कि पाल टूट गया, और नाव करवट लेने लगी। स्थिति स्पष्ट थी। सोफी ने इसी वक्त नागदत्त को अपनी भुजाओं में बाँध छाती से लगा लिया, उसके चेहरे पर मुस्कुराहट थी जब उसने कहा-“मृत्यु तक।"
"हाँ, मृत्यु तक”-कह नागदत्त ने सोफिया के ओठों पर अपने ओंठों को रख दिया, फिर दोनों चार भुजपाशों में बँध गये।
दूसरे क्षण नाव उलट गई, दोनों सचमुच मृत्यु तक साथी रहे।