मूमू (रूसी कहानी) : इवान तुर्गनेव
Mumu (Russian Story) : Ivan Turgenev
1
मास्को की एक अलग-थलग सड़क पर सफ़ेद स्तम्भों, अटारी और टेढ़े-मेढे़ छज्जे वाले भूरे मकान में अनेक नौकरों-चाकरों से घिरी हुई कभी एक विधवा ज़मींदारिन रहती थी। उसके बेटे पीटर्सबर्ग में काम करते थे, बेटियाँ घर-बार वाली हो चुकी थीं, वह ख़ुद कभी-कभार ही कहीं जाती और अपने दुःखों तथा ऊबभरे बुढ़ापे के आखि़री साल एकाकीपन में गुज़ार रही थी। ख़ुशी तो उसने अपनी सारी ज़िन्दगी में ही नहीं जानी थी और उसका बुढ़ापा तो और भी उदासी भरा था।
उसके नौकरों-चाकरों में सबसे कमाल का आदमी था अहाते की देखभाल करने वाला गेरासिम। कोई दो मीटर क़द, बिल्कुल पहलवान जैसा और जन्मजात गूँगा-बहरा। ज़मींदारिन ने उसे गाँव से, जहाँ वह भाइयों से अलग एक छोटे-से झोपड़े में रहता था और बड़ी पाबन्दी से ज़मीन का लगान देता था, अपने यहाँ बुलवा लिया था। असाधारण रूप से तगड़ा होने के फलस्वरूप वह अकेला चार आदमियों का काम करता। काम तो उसके हाथों में सदा बड़ी फ़ुर्ती से सिरे चढ़ता नज़र आता। हल पर बड़ी-बड़ी हथेलियाँ रखकर जब वह उसे चलाता तो देखकर मन खिल उठता और ऐसे लगता मानो वह घोड़े के बिना अकेला ही ज़मीन की छाती को चीरता चला जा रहा है। या फिर सेण्ट प्योत्र के दिन वह ऐसे ज़ोर से हँसिया चलाता कि अगर नौउम्र भोज वृक्षों का जंगल भी सामने आ जाता, तो वह भी जड़ से कटकर गिरता दिखायी देता, या फिर वह कोई दो मीटर लम्बे मूसल से जल्दी-जल्दी तथा लगातार अनाज कूटता और उसके कन्धों की लम्बी-लम्बी तथा मज़बूत पेशियाँ लीवर की तरह ऊपर उठतीं और नीचे गिरतीं। स्थायी मौन उसके अथक कार्य को विशेष गरिमा प्रदान करता। बहुत बढ़िया मर्द था वह और अगर बदक़िस्मती से गूँगा-बहरा न होता, तो कोई भी लड़की ख़ुशी से उसकी बीवी बन जाती... तो गेरासिम को मास्को लाया गया, उसके लिए घुटनों तक के बूट ख़रीद दिये गये, गर्मियों के लिए कुर्ता और जाड़े के लिए भेड़ की खाल का कोट सिलवा दिया गया, हाथ में झाड़न्न् और फावड़ा थमाकर उसे अहाते की देखभाल के लिए नियुक्त कर दिया गया।
गेरासिम को शुरू में अपनी नयी ज़िन्दगी बिल्कुल अच्छी नहीं लगी। बचपन से वह खेत में काम करने और देहाती ढंग की ज़िन्दगी बिताने का आदी हो चुका था। अपने दुर्भाग्य के कारण लोगों की सोहबत से कटा-कटाया वह गूँगा और ऐसे हृष्ट-पुष्ट होकर बढ़ गया जैसे उपजाऊ भूमि में पेड़ बढ़ता है... शहर में आकर बसने पर उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि उसके साथ क्या बीत रही है। उसका मन नहीं लगता था और ऐसे ही परेशान-सा रहता जैसे वह जवान और तगड़ा साँड़, जिसे अभी-अभी खेत से लाकर, जहाँ रसीली घास उसके पेट तक उगी हुई थी, रेल के डिब्बे में खड़ा कर दिया जाता है और उसके मोटे-ताज़े शरीर पर कभी तो चिंगारियों के साथ धुआँ और कभी भाप के लहरे छोड़े जाते हैं और खट-खट की आवाज़ और इंजन की सीटियों के साथ तेज़ी से कहीं ले जाया जाता है। मगर किधर ले जाया जाता है - यह सिर्फ़ भगवान ही जानता है!
किसानी के कठिन काम के बाद गेरासिम को अपना नया काम मज़ाक़-सा लगा। आधा घण्टे में ही वह सब कुछ निपटा डालता और फिर या तो मँुहबाये अहाते के बीचोबीच खड़ा हुआ सभी राहगीरों को देखता रहता, मानो उनसे अपनी रहस्यपूर्ण स्थिति का समाधान चाहता हो, या फिर अचानक वह किसी कोने में चला जाता और झाड़न्न् तथा फावड़े को दूर फेंककर ज़मीन पर औंधा गिर जाता और जाल में फाँस लिये गये जानवर की तरह घण्टों इसी तरह निश्चल पड़ा रहता। मगर आदमी तो हर चीज़ का आदी हो जाता है और आखि़र गेरासिम भी शहरी जीवन का अभ्यस्त हो गया। काम उसके इने-गिने थे। उसे सिर्फ़ इतना ही करना होता था कि अहाते को साफ़-सुथरा रखे, दिन में दो बार पानी का पीपा भर लाये, घर और रसोईघर के लिए लकड़ी ढोये-काटे, अजनबियों को घर के पास न फटकने दे और रातों को पहरा दे। यह तो कहना ही होगा कि अपनी ज़िम्मेदारियों को वह बड़ी लगन से पूरा करता था - अहाते में तो कभी कोई छिपटी पड़ी दिखायी न देती और न कूड़ा-करकट ही। पानी लाने के लिए दिया गया मरियल-सा घोड़ा और ख़स्ताहाल गाड़ी कीचड़-गन्दगी के मौसम में अगर कहीं अटक जाती, तो उसे कन्धे से धकेलने पर गाड़ी ही नहीं, घोड़ा भी अपनी जगह से हिल पड़ता। अगर वह लकड़ी काटने लगता, तो कुल्हाड़ी शीशे की तरह टनकती और लकड़ी के टुकडे़ तथा चैलियाँ सभी दिशाओं में उड़ती दिखायी देतीं। रही अजनबियों के घर के पास फटकने की बात, तो उस रात के बाद जब उसने दो चोरों को पकड़कर उनके माथे आपस में टकराये, सो भी ऐसे कि बाद में उन्हें थाने ले जाने की भी ज़रूरत नहीं रही, तो आस-पास के क्षेत्र में उसकी ऐसी धाक जम गयी कि कुछ पूछिये नहीं। यहाँ तक कि दिन के वक़्त भी इस घर के पास से गुज़रने वाले, सो भी उचक्के-उठाईगीरे नहीं, बल्कि सामान्य अपरिचित लोग, अहाते की देखभाल करने वाले इस डरावने व्यक्ति को देखते ही हाथ हिलाकर उसे दूर रहने का इशारा करते और चीख़ते-चिल्लाते जैसे कि वह उनकी चीख़ों को सुन सकता हो। बाक़ी नौकरों-चाकरों से उसके सम्बन्ध दोस्ताना तो नहीं कहे जा सकते थे - वे उससे डरते थे - हाँ, सधे-बधे थे - वह उन्हें अपना मानता था। वे इशारों से उसे अपनी बात समझाते, जिसे वह समझ भी जाता। सभी आदेशों को कड़ाई से पूरा करता, मगर अपने अधिकार भी जानता था। मेज़ के गिर्द कोई भी उसकी जगह पर बैठने की ज़ुर्रत नहीं कर सकता था। कुल मिलाकर, गेरासिम बड़े कठोर और गम्भीर स्वभाव का आदमी था, हर चीज़ में उसे तौर-तरीक़ा पसन्द था। उसकी उपस्थिति में तो मुर्ग़े भी लड़ने की हिम्मत नहीं करते थे, वरना उनकी शामत समझो! अगर वह उन्हें लड़ते हुए देख लेता, तो फ़ौरन टाँगों से पकड़कर कोई दसेक बार हवा में घुमाता और अलग-अलग दिशाओं में फेंक देता। ज़मींदारिन के यहाँ हंस भी पाले जाते थे। मगर, जैसा कि सभी जानते हैं, हंस बड़ा गर्वीला और समझदार पक्षी है। गेरासिम उनका आदर और देखभाल करता, उन्हें खिलाता-पिलाता। वह ख़ुद भी तो हंस जैसा गर्वीला था। रसोईघर के ऊपर उसे कोठरी दी गयी। अपनी पसन्द के मुताबिक़ उसने उसे सजाया - उसमें बड़े-बड़े चार पायोंवाली बलूत के तख़्तों की चारपाई बनायी। वह सचमुच ही बड़ी मज़बूत चारपाई थी - सौ पूड(पूड - 16.3 किलोग्राम के बराबर) वज़न भी अगर उस पर रख दिया जाता तो भी वह न झुकती। चारपाई के नीचे बड़ा-सा सन्दूक़ रखा था; कोने में ऐसी ही मज़बूत मेज़ थी और मेज़ के क़रीब तीन टाँगों वाली कुर्सी रखी थी, ऐसी मज़बूत और गठी हुई कि गेरासिम कभी-कभी उसे उठाकर नीचे गिरा देता और मुस्कुराने लगता। कोठरी में काले रंग का ताला लगाया जाता जो देखने में कुण्डल-सा लगता। गेरासिम इसकी चाबी हमेशा अपनी पेटी में खोंसे रहता। अपने यहाँ लोगों का आना-जाना उसे पसन्द नहीं था।
2
इस तरह से एक साल बीत गया, जिसकी समाप्ति पर गेरासिम के साथ एक छोटी-सी घटना घट गयी।
बूढ़ी ज़मींदारिन, जिसके यहाँ गेरासिम अहाते की देखभाल करता था, सभी बातों में पुराने रंग-ढंग का अनुसरण करती थी और उसके नौकरों-चाकरों की संख्या काफ़ी बड़ी थी। उसके घर में केवल धोबिनें, सीने-पिरोने वाली, बढ़ई, दर्ज़ी-दर्ज़िनें ही नहीं, साज़गार भी था। उसे ही पशु-चिकित्सक और नौकरों के लिए हकीम भी माना जाता था, ज़मींदारिन के लिए एक घरेलू हकीम भी था और कपितोन क्लीमोव नाम का एक ज़बरदस्त पियक्कड़ मोची भी था। क्लीमोव अपने को उपेक्षित और ऐसा व्यक्ति समझता था जिसका उचित मूल्य नहीं आँका गया था। वह अपने को पढ़ा-लिखा और राजधानी में रहने लायक़ मानता था जिसे किसी कामकाज के बिना मास्को में किसी कटे-कटाये कोने में नहीं पडे़ रहना चाहिए, और अगर पीता भी था, तो जैसा कि वह ख़ुद छाती पर हाथ मारकर और रुक-रुककर कहता था, ग़म ग़लत करने के लिए ही पीता था। तो एक दिन उसी के बारे में ज़मींदारिन की अपने बड़े कारिन्दे, गव्रीला से, जिसकी पीली आँखों और बत्तख़ की चोंच जैसी नाक को ध्यान में रखते हुए ही यह कहा जा सकता है कि क़िस्मत ने उसे दूसरों पर हुक्म चलाने के लिए पैदा किया है, बातचीत शुरू हो गयी। ज़मींदारिन ने कपितोन के बुरे नैतिक आचरण के लिए दुख प्रकट किया, जो एक दिन पहले ही कहीं सड़क पर पड़ा मिला था।
"क्या ख़याल है, गव्रीला, हम उसकी शादी क्यों न कर दें? शायद वह सुधर जाये?"
"जी, क्यों न कर दी जाये शादी? बेशक कर दी जाये," गव्रीला ने जवाब दिया, "यह तो बहुत ही अच्छा रहेगा, सरकार।"
"हाँ, मगर कौन करेगी उससे शादी?"
"जी, यह बात तो है। ख़ैर, यह तो जैसा आप ठीक समझें। फिर भी वह किसी न किसी काम तो आ ही सकता है। बिल्कुल गया-बीता नहीं है।"
"लगता है, उसे तत्याना पसन्द है?"
गव्रीला ने विरोध में कुछ कहना चाहा, मगर चुप्पी लगा गया।
"ठीक है! कहो कि तत्याना से सगाई कर ले," मज़े से नसवार सूँघते हुए ज़मींदारिन ने फ़ैसला सुनाया। "सुना तुमने?"
"जी," गव्रीला ने कहा और वहाँ से चल दिया।
अपने कमरे में आकर (जो हवेली के पास था और लगभग पूरी तरह लोहे के सन्दूक़ों से अटा पड़ा था) गव्रीला ने अपनी बीवी को बाहर खदेड़ा और फिर खिड़की के पास बैठकर सोच में डूब गया। लगता था कि ज़मींदारिन के अप्रत्याशित आदेश ने उसे परेशान कर दिया था। आखि़र वह उठा और उसने कपितोन को बुलवाया। कपितोन आया... पाठकों के सामने उनकी बातचीत प्रस्तुत करने से पहले हम कुछ शब्दों में यह बताना उचित समझते हैं कि यह तत्याना, जिससे कपितोन को शादी करनी पड़ी, कौन थी और ज़मींदारिन के आदेश से कारिन्दे को परेशानी क्यों हुई थी।
जैसा कि हम पीछे कह चुके हैं, तत्याना धोबिन का काम करती थी (चतुर और समझदार धोबिन के नाते उसे केवल महीन कपड़े ही धोने को दिये जाते थे)। वह कोई अट्ठाईस साल की औरत थी - नाटी, दुबली-पतली, स्वर्णकेशी और उसके बायें गाल पर मस्से थे। रूस में बायें गाल पर मस्सों का होना बुरा लक्षण, दुखी जीवन का पूर्वसूचक माना जाता है... तत्याना अपने भाग्य पर कुछ इतरा तो नहीं सकती थी। जवानी से ही उसके साथ बुरा बर्ताव होता रहा था - वह अकेली दो का काम करती थी, किसी भी तरह के प्यार-स्नेह से वंचित रही थी, पहनने को उसे मोटा-झोटा दिया जाता, वेतन कम से कम मिलता, रिश्तेदार उसके नहीं के बराबर थे - कोई बूढ़ा चाबीबरदार, जिसे कामकाज के लायक़ न होने के कारण गाँव में रख लिया गया था, उसका चाचा था और उसके बाक़ी सभी चाचा भूदास थे - बस। कभी तो वह सुन्दरी मानी जाती थी, मगर उसकी सुन्दरता जल्दी ही हवा हो गयी। वह बहुत ही विनम्र स्वभाव की थी या यह कहना ज़्यादा सही होगा कि डरी-सहमी थी, अपने प्रति पूरी तरह उदासीन थी और दूसरों से बेहद डरती थी। उसे तो सिर्फ़ वक़्त पर काम ख़त्म करने की ही फ़िक्र रहती, कभी किसी से बातचीत न करती और ज़मींदारिन का तो नाम सुनते ही काँप उठती, यद्यपि ज़मींदारिन उसे पहचानती तक नहीं थी। गेरासिम को जब गाँव से लाया गया, तो इस लम्बे-तड़ंगे देव को देखकर डर के मारे उसका दम निकलते-निकलते बचा। वह हर तरह से यह कोशिश करती कि उससे मुलाक़ात न हो और जब कभी घर से धोबीख़ाने जाते हुए जल्दी में उसके पास से गुज़रना पड़ता, तो वह आँखें भी मूँद लेती। गेरासिम ने शुरू में तो उसकी तरफ़ कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया, मगर बाद में जब कभी वह सामने आ जाती तो ठिठोली करता, कुछ समय बाद उसे घूरने लगा और आखि़र को उस पर से नज़र ही नहीं हटाता था। चेहरे के नम्रभाव या फिर सहमी-सहमी चाल-ढाल के कारण उसे उससे प्यार हो गया था - यह तो भगवान ही जाने! एक दिन मालकिन का कलफ़ लगा ब्लाउज़ बड़ी सावधानी से फैली उँगलियों पर टिकाये हुए वह आँगन पार कर रही थी... अचानक किसी ने कोहनी से उसे कसकर पकड़ लिया। वह मुड़ी और चीख़ उठी - गेरासिम उसके पीछे खड़ा था। बेमतलब हँसता और प्यार से गुँगुआता हुआ वह मीठी रोटी के सुनहरे पंखों और सुनहरी पूँछ वाले मुर्ग़ को उसकी तरफ़ बढ़ाये हुए था। तत्याना ने उसे लेने से इंकार करना चाहा, मगर गेरासिम ने ज़बरदस्ती उसे उसके हाथ में ठूँस दिया, सिर झुलाया, वहाँ से चला गया और फिर मुड़कर अपनी गूँगी भाषा में अत्यधिक मैत्रीपूर्ण ढंग से उससे कुछ कहना चाहा। उस दिन के बाद से तो वह उसे चैन ही नहीं लेने देता था। जहाँ भी वह जाती, गेरासिम फ़ौरन वहीं जा पहुँचता, उसके निकट जाता, मुस्कुराता, अजीब-सी आवाज़ें निकालता, हाथ हिलाता, कुर्ते के नीचे से रिबन निकालकर उसके हाथ में ठूँस देता, झाड़न्न् लेकर उसका रास्ता बुहारता। बेचारी लड़की की समझ में नहीं आता था कि वह क्या करे और क्या न करे। जल्दी ही सारे घर को अहाते की देखभाल करने वाले गूँगे की हरकतों का पता चल गया - लोग तत्याना से हँसी-मज़ाक़ करने, चुटकियाँ लेने लगे, उस पर ताने-बोलियों के तीर चलाने लगे। गेरासिम का मज़ाक़ उड़ाने की हिम्मत हर किसी को नहीं होती थी। उसे मज़ाक़ पसन्द नहीं थे और उसकी हाज़िरी में तत्याना को भी कोई परेशान नहीं करता था। चाहे-अनचाहे बेचारी लड़की उसकी सरपरस्ती में आ गयी थी। सभी गूँगे-बहरों की तरह वह भी मामलों को ख़ूब भाँप लेता था और इस बात को अच्छी तरह समझता था कि कब उसकी या तत्याना की हँसी उड़ायी जा रही है। एक दिन ज़मींदारिन के कपड़ों की देखभाल करने वाली बड़ी नौकरानी, तत्याना जिसके अधीन थी, खाने की मेज़ पर उसे ताने-बोलियाँ मारने लगी। उसने उसका ऐसा हाल कर दिया कि बेचारी शर्म से गड़ी जा रही थी और परेशानी में बड़ी मुश्किल से अपने पर क़ाबू पा रही थी। गेरासिम अचानक उठा, उसने अपना भारी-भरकम हाथ फैलाया, कपड़ों की प्रबन्धिका के सिर पर रखा और उसके चेहरे को ऐसे ग़ुस्से से देखा कि वह मेज़ पर झुककर रह गयी। सभी को साँप सूँघ गया। गेरासिम ने फिर से चमचा उठाया और पत्तागोभी का शोरबा खाने लगा। "कमबख़्त बहरा भूत!" सभी दबी ज़ुबान से बुदबुदाये। कपड़ों की देखभाल करने वाली बड़ी नौकरानी उठी और नौकरानियों के कमरे में चली गयी।
फिर एक बार यह हुआ कि कपितोन, वही, जिसकी इस वक़्त चर्चा चल रही थी, तत्याना से बहुत घुल-मिलकर बातें कर रहा था। गेरासिम ने यह देख लिया, उसे उँगली के इशारे से अपने पास बुलाया, बग्घीख़ाने में ले गया और वहाँ कोने में रखा हुआ बाँस उठाकर धीरे-से, मगर बहुत ही अर्थपूर्ण ढंग से उसे धमकाया। उस दिन के बाद कोई भी तत्याना से बातचीत नहीं करता था। गेरासिम को ऐसी सभी बातें माफ़ कर दी जाती थीं। हाँ, कपड़ों की देखभाल करने वाली बड़ी नौकरानी तो जैसे ही भागकर नौकरानियों के कमरे में पहुँची, वैसे ही बेहोश हो गयी। कुल मिलाकर उसने ऐसे चतुराई से काम लिया कि गेरासिम की उस भौंड़ी हरकत की ख़बर उसी दिन ज़मींदारिन तक पहुँचा दी। मगर वह अजीब बुढ़िया सिर्फ़ खिलखिलाकर हँस दी, बड़ी नौकरानी के घाव पर मानो नमक छिड़कते हुए उसने उसे यह दोहराने के लिए मजबूर किया कि कैसे गेरासिम ने अपने भारी-भरकम हाथ से उसे मेज़ पर झुका दिया और अगले दिन गेरासिम को चाँदी का एक रूबल इनाम के तौर पर भिजवाया। ज़मींदारिन वफ़ादार और ताक़तवर चैकीदार के नाते गेरासिम पर मेहरबान थी। गेरासिम अपनी मालकिन से काफ़ी डरता था, फिर भी उसकी दया पर भरोसा करते हुए वह यह प्रार्थना करने के लिए उसके पास जाने की सोच रहा था कि उसे तत्याना से शादी करने की इजाज़त दे दी जाये। वह तो सिर्फ़ उस नये कुर्ते का इन्तज़ार कर रहा था, जिसका कारिन्दे ने उसे वचन दिया था, ताकि बन-ठनकर ज़मींदारिन के सामने जाये। पर अचानक इसी ज़मींदारिन के दिमाग़ में कपितोन से तत्याना की शादी करने की बात आ गयी।
पाठक अब ख़ुद ही आसानी से यह समझ जायेंगे कि ज़मींदारिन से बातचीत करने के बाद कारिन्दा गव्रीला परेशान क्यों हो उठा था। "मालकिन," खिड़की के पास बैठा हुआ वह सोच रहा था, "निश्चय ही गेरासिम पर मेहरबान हैं" (गव्रीला को यह अच्छी तरह मालूम था और इसीलिए वह ख़ुद भी उस पर मेहरबान था), "फिर भी वह गूँगा ठहरा, मालकिन से यह तो कहा नहीं जा सकता कि गेरासिम तत्याना पर लट्टू है। वैसे यह है भी सही, क्या पति होगा उसका? मगर दूसरी तरफ़, भगवान न करे, जैसे ही उस भूत को यह पता चलेगा कि तत्याना की कपितोन से शादी की जा रही है, तो वह सारे घर को ऐसे उलट-पलट कर देगा कि कुछ न पूछो। उसके साथ तो मामले को तय भी नहीं किया जा सकता। इस शैतान को, ख़ुदा मेरा गुनाह माफ़ करे, किसी तरह समझाया-बुझाया भी तो नहीं जा सकता... सच!"
कपितोन के आने पर गव्रीला की विचार- शृंखला टूटी। चंचल मिज़ाज का मोची अन्दर आया, उसने हाथ पीछे कर लिये, दरवाज़े के पास दीवार के बढ़े हुए कोने में बेतकल्लुफ़ी से टेक लगायी, दायें पाँव को बायें के सामने आड़े रखा और ऐसे सिर झटका मानो कह रहा हो -
"लो, मैं आ गया। क्या ज़रूरत पड़ गयी मेरी?"
गव्रीला ने कपितोन को देखा और खिड़की के पल्ले पर उँगलियों से ताल देने लगा। कपितोन ने अपनी ख़ाली-ख़ाली आँखों को थोड़ा सिकोड़ा, मगर उन्हें झुकाया नहीं, तनिक व्यंग्यपूर्वक मुस्कुराया और अपने बेरंग बालों पर, जो सभी ओर बिखरे हुए थे, हाथ फेरा। "हाँ, मैं हूँ, मैं, घूर क्या रहे हो?" वह मानो कह रहा हो।
"ख़ूब हो," गव्रीला ने कहा और चुप हो गया। "बेशक, ख़ूब हो!"
कपितोन ने सिर्फ़ कन्धे झटक दिये। "तुम तो क्या किसी कौवे-से बेहतर हो?" उसने मन ही मन सोचा।
"ज़रा अपने को देखो, देखो तो ज़रा अपने को," गव्रीला तिरस्कार से कहता गया, "क्या हुलिया है तुम्हारा?"
कपितोन ने अपने घिसे और फटे-फटाये फ़्राक कोट और पैबन्द लगे पतलून पर इतमीनान से नज़र डाली, ख़स्ताहाल बूटों, ख़ास तौर से उस पर, जिसकी नोक को उसका दायाँ पाँव बड़ी शान से छू रहा था, दृष्टि डाली और फिर से कारिन्दे पर नज़र टिका दी।
"तो?"
"तो?" गव्रीला ने दोहराया। "तो? फिर यह भी पूछ रहे हो? निरे शैतान लगते हो, भगवान मुझे माफ़ करे, बिल्कुल शैतान के भाई-बन्द हो तुम।"
कपितोन ने तेज़ी से आँखें झपकायीं।
"कोसिये, हाँ, कोसिये, गव्रीला अन्द्रेइच," उसने फिर मन ही मन सोचा।
"तुम तो फिर नशे में धुत्त हुए थे न," गव्रीला ने कहना शुरू किया, "फिर धुत्त हुए थे? ठीक है न? दो जवाब।"
"हाँ, सेहत की कमज़ोरी की वजह से शराब का सहारा ज़रूर लिया था," कपितोन ने जवाब दिया।
"सेहत की कमज़ोरी की वजह से! बात यह है कि कम सज़ा मिलती है तुम्हें। फिर पीटर्सबर्ग में तालीम भी पाते रहे... ख़ाक भी पढ़ा-पढ़ाया नहीं तुमने। बस, हराम की रोटी तोड़ते हो।"
"गव्रीला अन्द्रेइच, इस सिलसिले में तो केवल भगवान ही मेरा जज हो सकता है और कोई नहीं। एक वही जानता है कि दरअसल मैं कैसा आदमी हूँ और क्या सचमुच ही हराम की रोटी खाता हूँ। जहाँ तक पीने का ताल्लुक़ है, तो इस बार मेरा नहीं, एक दोस्त का ही ज़्यादा कुसूर है - उसने ख़ुद मुझे बुलाया, ख़ुद ही बेवफ़ाई कर गया यानी छोड़कर चलता बना और मैं..."
"और तुम उल्लू सड़क पर पड़े रह गये। ओह, तुम आवारागर्द! पर, ख़ैर, मामला यह नहीं हैं," कारिन्दा कहता गया, "बल्कि यह है कि मालकिन..." यहाँ वह ज़रा चुप हो गया, "मालकिन यह चाहती हैं कि तुम शादी कर लो। सुनते हो? उनका ख़याल है कि शादी करने के बाद तुम संजीदा हो जाओगे। समझे?"
"समझूँगा कैसे नहीं।"
"सो तो है ही। यही ज़्यादा अच्छा होगा कि तुम्हारी नाक में नकेल डाल दी जाये। पर, ख़ैर यह उनका मामला है। तो? तुम राजी हो?"
कपितोन ने दाँत निपोरे।
"शादी करना इन्सान के लिए अच्छी चीज़ है, गव्रीला अन्द्रेइच, और मैं अपनी तरफ़ से बहुत ख़ुशी के साथ इसके लिए तैयार हूँ।"
"हाँ, हाँ," गव्रीला ने कहा और मन ही मन सोचा - "कहा ही क्या जा सकता है, आदमी ढंग से बात कर रहा है।" - "मगर मामला यह है," उसने ऊँचे कहा, "तुम्हारे लिए मंगेतर तो कुछ अनुकूल नहीं चुनी गयी।"
"जिज्ञासा प्रकट करने की अनुमति दीजिये कि कौन है वह..."
"तत्याना।"
"तत्याना?"
कपितोन की आँखें फैल गयीं और वह दीवार से हट गया।
"परेशान क्यों हो उठे? क्या वह तुम्हें पसन्द नहीं?"
"पसन्द क्यों नहीं है, गव्रीला अन्द्रेइच! कुछ बुरी नहीं है वह लड़की, ढंग से काम करती है, विनम्र है.. मगर आप तो जानते ही हैं, गव्रीला अन्द्रेइच, वह भूत, वह बनमानस, वह उस पर..."
"जानता हूँ, भाई, सब जानता हूँ," कारिन्दे ने दुखी होते हुए उसे टोका,
"मगर..."
"आप कह ही क्या रहे हैं, गव्रीला अन्द्रेइच! वह तो मुझे मार डालेगा, क़सम भगवान की, किसी मक्खी की तरह कुचल डालेगा। उसका हाथ, आप ख़ुद ही ग़ौर कर लीजिये, कैसा है उसका हाथ! वह तो बहरा ठहरा, मारता है और यह सुनता भी नहीं कि कैसे मारता है! जैसे कि सपने में घूँसे चलाता है। और उसे शान्त करना भी किसी तरह मुमकिन नहीं। भला क्यों? इसलिए, जैसा कि आप ख़ुद ही जानते हैं, गव्रीला अन्द्रेइच, वह बहरा है और इसके अलावा निरा काठ का उल्लू है। वह तो कोई दरिन्दा है, अहमक़ है, गव्रीला अन्द्रेइच, अहमक़ से भी गया-बीता है... निरा ठूँठ है। किसलिए अब मैं उसके हाथों मुसीबत का शिकार होऊँ? यह सही है कि अब मेरे लिए सब बराबर है - मैं बेहद ग़रीब, ख़स्ताहाल और नंगा-भूखा हूँ, मेरा बाल-बाल क़र्ज़ से बिंधा हुआ है, फिर भी मैं आदमी हूँ, रास्ते पर पड़ा हुआ कोई ठीकरा नहीं हूँ।"
"जानता हूँ, जानता हूँ, यह सब बताने की ज़रूरत नहीं..."
"हे मेरे भगवान!" मोची जोश में कहता गया, "कब अन्त होगा? कब, हे भगवान! कितना बदक़िस्मत, बदनसीब हूँ मैं! क़िस्मत, अरे मेरी क़िस्मत! ज़रा सोचिये तो, जवानी के दिनों में जर्मन मालिक ने मेरी ख़ूब पिटाई की, मेरी ज़िन्दगी के सबसे अच्छे दिनों में अपने ही लोगों ने मेरी खाल उधेड़ी और अब इस उम्र में किस हालत तक पहुँच गया हूँ मैं..."
"ए, रोनी सूरत हो तुम तो," गव्रीला ने कहा, "बात को इतना बढ़ाते क्यों जा रहे हो!"
"यह भी ख़ूब कही, गव्रीला अन्द्रेइच! पिटाई से नहीं डरता हूँ मैं, गव्रीला अन्द्रेइच। कमरे में बन्द करके मुझे सज़ा दो, मगर लोगों के सामने मेरी इज़्ज़त करो। आखि़र तो मैं इन्सानों की गिनती में आता हूँ और यहाँ किससे हड्डियाँ..."
"दफ़ा हो जाओ यहाँ से," गव्रीला ने बेसब्री से टोका।
कपितोन मुड़ा और चल दिया।
"अगर यह मान लें कि गेरासिम नहीं है," कारिन्दे ने उसे रोकते हुए पूछा, "तो तुम ख़ुद तो राजी हो?"
"नेकी और पूछ-पूछ," कपितोन ने जवाब दिया और चला गया।
कठिन परिस्थितियों में भी कपितोन का ख़ूबसूरत ढंग से बातचीत करने का अन्दाज़ बना रहता था।
कारिन्दे ने कमरे में कई चक्कर लगाये।
"तो अब तत्याना को बुलाओ," आखि़र उसने कहा।
कुछ मिनट बाद तत्याना दबे पाँव आयी और दहलीज़ के पास खड़ी हो गयी।
"क्या हुक्म है, गव्रीला अन्द्रेइच?" उसने धीमी आवाज़ में पूछा।
कारिन्दा उसे एकटक देखता रहा।
"तत्याना," वह बोला, "शादी करना चाहती हो? मालकिन ने तुम्हारे लिए दूल्हा ढूँढ़ दिया है।"
"जो हुक्म, गव्रीला अन्द्रेइच। किसे उन्होंने मेरे लिए दूल्हा चुना है?"
झिझकते हुए उसने इतना और जानना चाहा।
"मोची कपितोन को।"
"जो हुक्म।"
"यह सही है कि वह बड़े चंचल स्वभाव का आदमी है। मगर इस मामले में मालकिन ने तुमसे उम्मीदें लगायी हैं।"
"जो हुक्म।"
"मगर एक मुसीबत है... वह बहरा गेरासिम तो तुम्हारे आगे-पीछे घूमता रहता। इस भालू पर तुमने क्या जादू कर दिया है? वह तो तुम्हें मार डालेगा, वह भालू कहीं का..."
"मार डालेगा, गव्रीला अन्द्रेइच, ज़रूर मार डालेगा।"
"मार डालेगा... यह तो ख़ैर, हम देख लेंगे। कैसे कहती हो तुम यह - मार डालेगा! तुम ख़ुद ही सोचो, क्या वह तुम्हें मारने का हक़ रखता है?"
"नहीं जानती, गव्रीला अन्द्रेइच, हक़ रखता है या नहीं रखता।"
"अरी! तुमने उससे कोई वादा तो नहीं किया..."
"क्या मतलब है आपका?"
कारिन्दा चुप हो गया और सोचने लगा - "बिल्कुल गऊ हो तुम!"
"ख़ैर, अच्छी बात है," उसने इतना और कहा। "हम तुमसे फिर बात करेंगे और अब जाओ, तत्याना। मैं देख रहा हूँ कि तुम तो सचमुच ही बड़ी हलीम हो।"
तत्याना मुड़ी, उसने ज़रा दरवाज़े का सहारा लिया और चली गयी।
"शायद मालकिन तो कल इस शादी के बारे में भूल भी जायेंगी," कारिन्दे ने सोचा, "मैं भी किस बात के लिए इतना परेशान हो उठा हूँ? इस शैतान को तो ख़ैर हम क़ाबू कर लेंगे - ज़रूरत हुई तो पुलिस को ख़बर दे देंगे..."
"उस्तीन्या फ़्योदोरोव्ना," उसने अपनी बीवी को पुकारा, "ज़रा समोवार तो गरम होना रख दो, मेरी प्यारी..."
तत्याना लगभग उस सारे दिन धोबीख़ाने से बाहर नहीं निकली। शुरू में वह रोई, फिर उसने आँसू पोंछे और पहले की भाँति काम में लग गयी...
कारिन्दे की उम्मीद पूरी नहीं हुई। कपितोन की शादी के ख़याल ने ज़मींदारिन के दिल में ऐसे घर कर लिया कि रात को भी अपनी एक संगिनी के साथ यही बातचीत करती रही, जिसे घर में केवल इसीलिए रखा गया था कि अगर मालकिन को नींद न आये तो उसके साथ रहे, और इसीलिए रात के गाड़ीवान की तरह वह दिन को सोती थी। नाश्ते के बाद गव्रीला जब कामकाज की चर्चा करने के लिए मालकिन के पास आया, तो उसने पहला सवाल यही किया, "तो शादी का मामला आगे बढ़ रहा है न?" ज़ाहिर है कि उसने यही जवाब दिया कि ख़ूब बढ़िया ढंग से बढ़ रहा है और कपितोन आज ही उनकी सेवा में उपस्थित होगा। ज़मींदारिन की तबीयत कुछ अच्छी नहीं थी, इसलिए कामकाज की ओर उसने थोड़ी ही देर ध्यान दिया। कारिन्दे ने अपने कमरे में लौटकर सबको जमा किया। मामला सचमुच ऐसा था कि उस पर गम्भीरता से सोच-विचार करना ज़रूरी था। ज़ाहिर है कि तत्याना ने तो किसी तरह की कोई आपत्ति नहीं कि, मगर कपितोन ने सबको सुनाकर यह कहा कि उसका एक सिर है, दो या तीन नहीं... गेरासिम ने कठोरता और जल्दी से सब पर नज़र डाली, नौकरानियों के कमरे के ओसारे से दूर नहीं हटा और ऐसा लगा मानो यह भाँप गया हो कि उसके खि़लाफ़ कोई खिचड़ी पक रही है। जमा हुए लोगों (जिनमें चाचा दुम उपनाम का बूढ़ा रसोइया भी था और जिसके पास सभी बड़ी इज़्ज़त से सलाह लेने जाते थे, हालाँकि जवाब में "तो यह माज़रा है" और "हाँ, हाँ, हाँ" के सिवा उससे और कुछ सुनने को नहीं मिलता था) ने सबसे पहला काम तो यह किया कि किसी तरह का जोखिम न उठाने के लिए कपितोन को पानी साफ़ करने वाली मशीन की कोठरी में बन्द कर दिया और फिर सभी गहरे सोच में डूब गये। ज़ाहिर है कि ताक़त से काम लेना तो बड़ा आसान था, मगर भगवान बचाये! शोर-ग़ुल मच जायेगा, मालकिन परेशान हो उठेंगी - मुसीबत हो जायेगी! तो क्या किया जाये? सोचते रहे, सोचते रहे और आखि़र उन्होंने एक तरक़ीब सोच ही ली। अनेक बार लोगों का इस बात की तरफ़ ध्यान गया था कि नशे में चूर लोगों को तो गेरासिम बर्दाश्त ही नहीं कर पाता था... वह जब फाटक के बाहर बैठा होता और अगर कोई नशे में लड़खड़ाता आदमी, जिसकी टोपी कान पर खिसक आयी होती, नज़दीक से गुज़रता तो गेरासिम ग़ुस्से से मुँह मोड़ लेता। तो यह तय किया गया कि तत्याना शराबी होने का नाटक करे और झूमती-झामती तथा लड़खड़ाती हुई गेरासिम के पास से गुज़रे। बेचारी बहुत देर तक इसके लिए राजी नहीं हुई, मगर उसे समझाया-बुझाया गया। वह तो ख़ुद भी यह समझ रही थी कि और किसी तरीक़े से अपने इस दीवाने से पिण्ड नहीं छुड़ा पायेगी। सो वह जाने को राजी हो गयी। कपितोन को कोठरी से निकाल दिया गया - आखि़र तो मामले का उससे सम्बन्ध था। गेरासिम फाटक के पास स्टूल पर बैठा था और फावड़े से ज़मीन को धीरे-धीरे खरोंच रहा था... सभी कोनों और खिड़कियों के पर्दों के पीछे से लोग उसे देख रहे थे।
यह चालाकी बहुत कामयाब रही। तत्याना को देखकर उसने शुरू में तो सामान्य ढंग से प्यारभरी गुँगुआहट से सिर हिलाया, फिर ध्यान से उसे देखा, फावड़ा उसके हाथ से गिर गया, वह उछलकर खड़ा हुआ, उसके पास गया और अपना चेहरा बिल्कुल उसके चेहरे के पास ले गया... वह डर के मारे और भी ज़्यादा लड़खड़ायी और उसने आँखें मूँद लीं... गेरासिम ने उसका हाथ पकड़ लिया, बड़ी तेज़ी से अहाता पार किया, उसे साथ लिये हुए उस कमरे में पहुँचा जहाँ सब लोग जमा थे और सीधे कपितोन की तरफ़ धकेल दिया। तत्याना का यह हाल था कि काटो तो ख़ून नहीं... गेरासिम कुछ देर खड़ा रहा, उसे देखता रहा, फिर उसने हाथ झटका, व्यंग्यपूर्वक मुस्कुराया और भारी-भारी क़दम रखता हुआ अपनी कोठरी की तरफ़ चल दिया... चैबीस घण्टे तक वह वहाँ से बाहर नहीं निकला। कोचवान अन्तीप्का ने बाद में बताया कि उसने दरार में से गेरासिम को गाल पर हाथ रखकर चारपाई पर बैठे, धीरे-धीरे, लयबद्ध और केवल कभी-कभी गुँगुआते देखा यानी वह झूलता था, आँखें मूँदता और सिर हिलाता था, ठीक उसी तरह जैसे कोचवान या बजरे खींचने वाले अपने दर्दभरे गीत की तान खींचते हुए करते हैं। अन्तीप्का से उसकी ऐसी हालत देखी न गयी और वह दरार से दूर हट गया। अगले दिन गेरासिम जब अपनी कोठरी से बाहर निकला, तो उसमें कोई ख़ास तब्दीली नज़र नहीं आयी। वह तो मानो और ज़्यादा उदास हो गया था और तत्याना तथा कपितोन की तरफ़ ज़रा भी ध्यान नहीं देता था। उसी शाम वे दोनों बग़लों में हंस दबाये हुए ज़मींदारिन की सेवा में उपस्थित हुए और एक हफ़्ते बाद उन्होंने शादी कर ली। शादी के दिन भी गेरासिम की गतिविधियों में किसी तरह का कोई परिवर्तन नहीं हुआ; हाँ, नदी से वह पानी के बिना ही लौट आया - उसने रास्ते में ही किसी तरह पीपे को तोड़ डाला था और रात को अस्तबल में अपने घोड़े को इतने ज़ोर से रगड़-रगड़कर साफ़ करता रहा कि घोड़ा हवा में हिलने वाले तिनके की तरह डोलता था और गेरासिम की लौह-मुट्ठियों के नीचे कभी एक तो कभी दूसरी तरफ़ लड़खड़ाता था।
3
यह सब कुछ वसन्त में हुआ था। एक साल और बीत गया, जिसके दौरान कपितोन पूरी तरह शराब में डूब गया। उसे बिल्कुल निकम्मा आदमी मानते हुए बीवी समेत किसी दूर-दराज के गाँव में भेज दिया गया। रवाना होने के दिन शुरू में तो उसने बड़ी दिलेरी दिखायी और यह यक़ीन दिलाया कि बेशक उसे कहीं भी, चाहे काले कोसों ही भेज दिया जाये, वहाँ भी उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा, मगर बाद में उसका दिल बैठ गया और वह शिकायत करने लगा कि उसे अनपढ़ों के बीच भेजा जा रहा है और अन्त में ऐसे हताश हो गया कि अपनी टोपी तक सिर पर नहीं ओढ़ पाया। किसी दयालु ने उसे उसके सिर पर रख दिया, उसका छज्जा ठीक किया और ऊपर से हाथ मार दिया। जब पूरी तैयारी हो गयी और गाड़ीवान हाथों में लगाम थामे "भगवान भला करे!" शब्दों का इन्तज़ार कर रहे थे, तो गेरासिम अपनी कोठरी से निकला, तत्याना के निकट गया और यादगार के तौर पर उसे लाल सूती रूमाल भेंट किया, जो एक साल पहले उसने उसी के लिए ख़रीदा था।
इस समय तक अपने जीवन की सभी मुसीबतों को अत्यधिक उदासीनता से ग्रहण करने वाली तत्याना भी अब अपने को बस में न रख पायी, उसकी आँखों में आँसू आ गये और घोड़ागाड़ी में बैठते हुए उसने ईसाइयों के ढंग से गेरासिम को तीन बार चूमा। गेरासिम ने उसे नगर-द्वार तक छोड़ आना चाहा और शुरू में उसकी घोड़ागाड़ी के साथ चल भी दिया, मगर फिर क्रीम्स्की उतारे के क़रीब अचानक रुका, हाथ झटका और नदी के किनारे-किनारे बढ़ चला।
शाम का वक़्त था। वह धीरे-धीरे चल रहा था और पानी की तरफ़ देख रहा था। अचानक उसे लगा कि तट के पास कीचड़ में कुछ हिल-डुल रहा था। वह झुका तो उसे छोटा-सा पिल्ला दिखायी दिया। वह सफ़ेद था, उस पर काले धब्बे थे और वह अपनी पूरी कोशिश के बावजूद पानी से बाहर नहीं निकल पा रहा था, छटपटाता था, फिसलता था और उसका समूचा गीला तथा दुबला-पतला शरीर काँप रहा था। गेरासिम ने मुसीबत के मारे इस पिल्ले को देखा, एक हाथ से उसे ऊपर उठाया, कुर्ते के नीचे खोंसा और बड़े-बड़े डग भरता हुआ घर की तरफ़ चल दिया। वह अपनी कोठरी में गया, पिल्ले को चारपाई पर लिटा दिया, उसे अपने भारी कोट से ढँका, पहले तो फूस लाने के लिए भागकर अस्तबल में गया और फिर रसोईघर से दूध का प्याला लाया। कोट को सावधानी से हटाकर और फूस फैलाकर उसने चारपाई पर दूध रख दिया। बेचारा पिल्ला कोई तीन हफ़्ते का था, कुछ ही समय पहले उसने आँखें खोली थीं, यहाँ तक कि उसकी एक आँख दूसरी से कुछ बड़ी भी लगती थी। वह प्याले से अभी दूध पीना नहीं जानता था और केवल काँपता तथा आँखें सिकोड़ता जाता था। गेरासिम ने दो उँगलियों से धीरे-से उसका सिर पकड़ा और थूथनी दूध के क़रीब झुका दी। पिल्ला अचानक बेसब्री से, फूँ-फूँ करता और काँपता हुआ दूध पीने लगा। ऐसा करते हुए उसे उच्छू भी आ जाती थी। गेरासिम देखता रहा, देखता रहा और अचानक ज़ोर से हँस दिया... सारी रात वह उसी की फ़िक्र करता रहा, उसे ढंग से सोने के लिए लिटाया, सहलाया और आखि़र ख़ुद भी उसके क़रीब ही ख़ुशीभरी और मीठी नींद सो गया।
गेरासिम जिस तरह से इस पिल्ले की (जो मादा निकला) देखभाल करता था, उस तरह कोई माँ भी अपने बच्चे की भला क्या चिन्ता करेगी! शुरू-शुरू में तो वह बहुत कमज़ोर, दुबला-पतला और बदसूरत-सा भी था, मगर धीरे-धीरे अच्छा और तगड़ा होता गया तथा कोई आठ महीने बाद तो अपने रक्षक की स्थायी देखभाल की बदौलत स्पेनी नस्ल का लम्बे कानों, पाइप की शक्ल वाली फूली-फूली पूँछ और बड़ी-बड़ी समझदार आँखोंवाला बढ़िया कुत्ता बन गया। गेरासिम से उसे बड़ा लगाव था। वह एक क़दम भी उससे पीछे न रहता और पूँछ हिलाता हुआ हमेशा उसके पीछे-पीछे भागता रहता। उसने उसे नाम भी दे दिया - गूँगे यह जानते हैं कि उनके गुँगुआने से लोगों का ध्यान उनकी तरफ़ आकृष्ट होता है - इसलिए उसने उसे मूमू नाम दिया। घर के सभी लोग उसे प्यार करने लगे और वे भी उसे मूमून्या कहकर ही पुकारते थे। मूमू बहुत ही समझदार थी, सभी से हिल-मिल जाती, मगर प्यार सिर्फ़ गेरासिम से करती। ख़ुद गेरासिम तो उस पर जान देता था... जब दूसरे मूमू को सहलाते, तो उसे बुरा लगता - वह उसके लिए डरता था या उसके मामले में दूसरों से ईष्र्या करता था - भगवान ही जाने! गेरासिम का पल्ला खींचकर वह हर सुबह उसे जगाती, पानी लाने वाले बूढ़े घोड़े की लगाम पकड़कर, जिसके साथ उसकी बड़ी दोस्ती थी, गेरासिम के पास लाती, चेहरे पर गर्व का भाव लिये हुए उनके साथ-साथ नदी की ओर चल देती, उसके झाड़न्न् और फावड़े की देखभाल करती, किसी को भी उसकी कोठरी में न जाने देती। गेरासिम ने अपनी कोठरी के दरवाज़े में उसी के लिए एक सूराख़ कर दिया। वह मानो यह अनुभव करती थी कि सिर्फ़ गेरासिम की कोठरी में ही वह पूरी तरह स्वामिनी है और इसलिए उसमें दाखि़ल होते ही ख़ुश होकर चारपाई पर छलाँग लगती। रात को वह बिल्कुल न सोती, मगर आम बेवक़ूफ़ कुत्तों की तरह, जो पिछली टाँगों पर बैठे हुए थूथनी उठाकर तथा आँखें मूँदकर महज़ ऊब के कारण सितारों पर, सो भी लगातार तीन बार भौंकते हैं, बेमतलब कभी नहीं भौंकती थी। नहीं, मूमू की पतली भूँक अकारण कभी नहीं सुनायी देती थी। वह तो तभी भौंकती, जब कोई पराया आदमी बाड़ के क़रीब आता या कोई सन्देहपूर्ण शोर अथवा सरसराहट सुनायी देती... थोड़े में यह कि वह ख़ूब बढ़िया चैकीदारी करती थी। हाँ, यह सच है कि अहाते में मूमू के अलावा पीले रंग और भूरी बुन्दकियों वाला लट्टू नाम का एक और बूढ़ा कुत्ता भी था। मगर उसकी तो कभी भी, यहाँ तक कि रात को भी जं़जीर नहीं खोली जाती थी। हाँ, वह ख़ुद भी अपने बुढ़ापे के कारण आज़ादी की माँग नहीं करता था - गुड़ी-मुड़ी होकर कुत्ताघर में पड़ा रहता और कभी-कभार ही उसकी खरखरी तथा दबी-घुटी भूँक सुनायी देती, जो फ़ौरन शान्त हो जाती, मानो वह स्वयं उसकी निरर्थकता अनुभव करता हो। मूमू ज़मींदारिन के घर में न जाती और जब गेरासिम कमरे में लकड़ी लेकर जाता, तो वह हमेशा बाहर ही रह जाती और कान उठाये तथा दरवाज़े के पीछे से ज़रा-सी भी आहट होने पर कभी दायें तो कभी बायें सिर घुमाते हुए ओसारे में बैठी बेसब्री से उसका इन्तज़ार करती...
ऐसे ही एक और साल गुज़र गया। गेरासिम अहाते की देखभाल का काम करता रहा। वह अपने भाग्य से बहुत ख़ुश था कि हालात ने अचानक एक करवट ली... हुआ यह कि गरमी के एक दिन ज़मींदारिन अपनी संगिनियों के साथ दीवानख़ाने में टहल रही थी। वह बड़े रंग में थी, हँसती और मज़ाक़ करती थी, संगिनियाँ भी हँसती और मज़ाक़ करती थीं, मगर वे ख़ास ख़ुशी महसूस नहीं कर रही थीं। बात यह थी कि ज़मींदारिन के ऐसे रंग में आने को घर में ख़ास पसन्द नहीं किया जाता था। कारण कि एक तो उस समय वह सभी से फ़ौरन और पूरी तरह अपना साथ देने की माँग करती और अगर किसी का चेहरा ख़ुशी से न चमकता होता, तो बिगड़ उठती। दूसरे, उसकी ख़ुशी की ये तरंगें कुछ ही देर तक बनी रहतीं और आमतौर पर उदासी तथा कटुता के मूड में बदल जातीं। उस दिन तो वह बिस्तर से उठी ही थी ख़ुश-ख़ुश। ताश में चार ग़ुलाम निकले थे (वह हर सुबह को ताश से अपनी क़िस्मत का अनुमान लगाती थी), जिसका मतलब था कि मन की इच्छा पूरी होगी, चाय भी उसे ख़ास मज़ेदार प्रतीत हुई, जिसके लिए नौकरानी की तारीफ़ भी हुई और दस कोपेक इनाम भी मिले। झुर्रीदार होंठों पर मीठी मुस्कान लिये दीवानख़ाने में टहलती-टहलती ज़मींदारिन खिड़की के पास गयी। खिड़की के सामने बग़ीचा था और ठीक बीच वाली क्यारी में, गुलाब की झाड़ी के नीचे लेटी हुई मूमू बड़ी लगन से हड्डी चचोड़ रही थी। ज़मींदारिन की उस पर नज़र पड़ी।
"हे भगवान!" वह अचानक कह उठी, "यह कुत्ता किसका है?"
बेचारी संगिनी, जिससे ज़मींदारिन ने यह सवाल किया था, वैसी ही परेशान हो उठी, जैसे कोई अधीन व्यक्ति आमतौर पर तब परेशान हो उठता है, जब उसे अच्छी तरह यह मालूम न हो कि वह अपने अधिकारी के भावावेश का क्या अर्थ समझे।
"मा... मालूम न... नहीं, जी," वह बुदबुदायी, "शायद गूँगे का है।"
"हे भगवान!" ज़मींदारिन बीच ही में बोल उठी। "बड़ा प्यारा कुत्ता है यह! उसे यहाँ लाने को कहिये। बहुत अर्से से है क्या वह उसके पास? यह कैसे हुआ कि मैंने उसे अब तक नहीं देखा? उसे यहाँ लाने को कहिये।"
संगिनी उसी समय ड्योढ़ी की तरफ़ लपकी।
"अरे, सुनो भाई!" उसने चिल्लाकर किसी से कहा, "मूमू को जल्दी से ले आओ। वह बग़ीचे में है।"
"अहा, इसे मूमू कहते हैं," ज़मींदारिन बोली, "बड़ा अच्छा नाम है।"
"ओह, बहुत ही अच्छा है, जी!" संगिनी ने कहा। "जल्दी करो, स्तेपान!"
घरेलू नौकर स्तेपान, जो ख़ासा हट्टा-कट्टा नौजवान था, ख़ूब तेज़ी से बग़ीचे की तरफ़ भागा गया और उसने मूमू को पकड़ लेना चाहा। मगर वह बड़ी फ़ुर्ती से उसकी उँगलियों में से निकल गयी और पूँछ उठाये हुए जान छोड़कर गेरासिम की तरफ़ भागी। गेरासिम उस वक़्त रसोईघर के पास पानी के पीपे को बच्चों की ढोलक की तरह हाथों में घुमाता हुआ साफ़ कर रहा था, झाड़-झटक रहा था। स्तेपान मूमू के पीछे-पीछे भागा गया, उसे मालिक के पैरों के पास ही पकड़ने लगा, मगर फ़ुर्तीली मूमू पराये आदमी की पकड़ में नहीं आयी, उछलती-कूदती हुई बच निकलती। गेरासिम व्यंग्यपूर्ण मुस्कान के साथ यह सब दौड़-धूप देखता रहा। आखि़र स्तेपान हताश हो उठा और उसने इशारे से गेरासिम को जल्दी-जल्दी यह समझाया कि ज़मींदारिन ने उसकी मूमू को लाने का हुक्म दिया है। गेरासिम को कुछ हैरानी हुई, फिर भी उसने मूमू को अपने पास बुलाया और उसे ज़मीन से उठाकर स्तेपान को सौंप दिया। स्तेपान ने उसे दीवानख़ाने में लाकर फ़र्श पर बिठा दिया। ज़मींदारिन बड़े प्यार से उसे अपने पास बुलाने लगी। मूमू, जो अपने जन्म से ही कभी ऐसे शानदार कमरे में नहीं गयी थी, बेहद डर गयी और दरवाज़े की तरफ़ लपकी। किन्तु स्तेपान ने उसे फ़ौरन वापस खदेड़ दिया और वह काँपती हुई दीवार के साथ सट गयी।
"मूमू, मूमू, मेरे पास आओ, मालकिन के पास आओ," ज़मींदारिन ने कहा,
"इधर आओ, बुद्धू... डरो नहीं..."
"जाओ, जाओ, मालकिन के पास जाओ," संगिनियाँ कह उठीं।
मगर मूमू उदास आँखों में चारों ओर देखती रही और अपनी जगह से नहीं हिली।
"इसके लिए कुछ खाने को लाइये," ज़मींदारिन ने कहा। "कैसी बुद्धू है यह! मालकिन के पास नहीं आती। किसलिए डरती है?"
"जी, वह अभी आपसे हिली-मिली नहीं," एक संगिनी ने सहमी-सहमी और मीठी आवाज़ में कहा।
दूध से भरी रक़ाबी लाकर स्तेपान ने मूमू के सामने रख दी। पर मूमू ने तो उसे सूँघा तक नहीं और काँपती तथा पहले की तरह इधर-उधर देखती रही।
"अरी, कैसी हो तुम!" उसके पास जाकर मालकिन बोली, झुकी और उसने उसे सहलाना चाहा। किन्तु मूमू ने तेज़ी से सिर घुमाया और दाँत दिखाये। ज़मींदारिन ने झटपट हाथ पीछे हटा लिया...
घड़ीभर को ख़ामोशी छा गयी। मूमू धीरे-से चीख़ी मानो अफ़सोस ज़ाहिर कर रही हो और माफ़ी माँग रही हो... ज़मींदारिन हट गयी। उसके माथे पर बल पड़ गये। मूमू की अप्रत्याशित हरकत से वह डर गयी थी।
"आह!" सभी संगिनियाँ एकसाथ चिल्ला उठीं। "भगवान न करे, उसने कहीं आपको काट तो नहीं लिया!" (मूमू ने तो अपने जीवन में ही किसी को नहीं काटा था) "आह, आह!"
"इसे यहाँ से निकाल बाहर करो," बदली हुई आवाज़ में बुढ़िया ने कहा। "कितना बुरा है यह कुत्ता! कैसा ग़ुस्सैल है!"
और धीरे-से मुड़कर अपने अध्ययनकक्ष की तरफ़ चल दी। संगिनियों ने सहमी-सहमी नज़र से एक-दूसरी की तरफ़ देखा और पीछे चलने को तैयार हुईं। मगर मालकिन रुकी, रुखाई से उसने उनकी तरफ़ देखा और बोली: "किसलिए? मैंने तो आपको नहीं बुलाया," और वह चली गयी।
संगिनियों ने हताशा से स्तेपान की तरफ़ हाथ झटके, उसने मूमू को पकड़ा और जल्दी से दरवाज़े के बाहर ले जाकर गेरासिम के पैरों पर फेंक दिया। आधा घण्टे के बाद घर में गहरी ख़ामोशी छा गयी और बूढ़ी ज़मींदारिन तूफ़ानी घटा से भी अधिक भयंकर बनी सोफ़े पर बैठी थी।
ज़रा ख़याल कीजिये, कभी-कभी कैसी मामूली बातें आदमी को परेशान कर डालती हैं!
शाम होने पर ज़मींदारिन ऐसे ही उखड़ी-उखड़ी रही, किसी से भी बोलीयायी नहीं, उसने ताश भी नहीं खेली और रात को भी ढंग से नहीं सोयी। दिमाग़ में कहीं से यह ख़याल आ घुसा कि उसे वह यू-डी-कोलोन नहीं दिया गया जो आमतौर पर दिया जाता है, कि उसके तकिये से साबुन की गन्ध आ रही है और उसने कपड़ों की देखभाल करने वाले को सारे कपड़े सूँघने को मजबूर किया। मतलब यह कि वह बहुत परेशान और भुनभुनाती रही। अगली सुबह उसने गव्रीला को हर दिन की तुलना में एक घण्टा पहले बुलाने का आदेश दिया।
"यह बताइये," कारिन्दे ने जैसे ही कुछ-कुछ धड़कते दिल से उसके अध्ययन कक्ष की दहलीज़ लाँघी, वैसे ही ज़मींदारिन ने कहना शुरू किया, "यह किसका कुत्ता है जो रात-भर हमारे अहाते में भौंकता रहा था? उसने मुझे सोने नहीं दिया!"
"कुत्ता... कौन-सा... शायद गूँगे का है, मालकिन," उसने कुछ-कुछ हिचकती हुई आवाज़ में जवाब दिया।
"मैं नहीं जानती कि गूँगे का है या किसी और का, पर उसने मुझे सोने नहीं दिया। मुझे हैरानी हो रही है कि यहाँ कुत्तों की इतनी भरमार क्यों है? मैं यह जानना चाहती हूँ। हमारे यहाँ अहाते की रखवाली करने वाला कुत्ता तो है न?
"ज़रूर है, मालकिन, बिल्कुल है, जी। वह लट्टू है, जी।"
"तो फिर यह और किसलिए है, क्या ज़रूरत है हमें एक और कुत्ते की? सिर्फ़ गड़बड़ी फैलाने के लिए? कोई मालिक घर में नहीं है - यही तो न! गूँगे को क्या करना है कुत्ते का? किसने उसे मेरे अहाते में कुत्ता रखने की इजाज़त दी? कल मैं खिड़की के पास गयी तो उसे बग़ीचे में लेटे देखा, कहीं से कोई गन्दी चीज़ उठा लाया था, उसे वहाँ चचोड़ रहा था - और मैंने वहाँ गुलाब लगवा रखे हैं।"
मालकिन ख़ामोश हो गयी।
"बस, इसे आज ही यहाँ से चलता कर दो। सुना तुमने?"
"जी।"
"आज ही। अब जाओ। काम-धन्धे की बात करने के लिए मैं तुम्हें बाद में बुलवा लूँगी।"
गव्रीला कमरे से बाहर चला गया।
दीवानख़ाने को लाँघते हुए उसने योंही घण्टी को एक मेज़ से उठाकर दूसरी पर रख दिया, हॉल में धीरे-से बत्तख़ की चोंच जैसी अपनी नाक सुड़की और ड्योढ़ी में चला गया। ड्योढ़ी में स्तेपान बेंच पर वैसे ही सोया पड़ था जैसे लड़ाई के मैदान सम्बन्धी चित्र में मरे हुए सैनिक को दिखाया जाता है, उसने फ़्राक कोट के नीचे से, जो कम्बल का काम दे रहा था, अपनी नंगी टाँगें बेचैनी के साथ बाहर निकालीं। कारिन्दे ने उसे झकझोरा और धीरे-से कोई आदेश दिया, जिसके जवाब में उसने जम्हाई-सी ली और कुछ हँसा। कारिन्दा चला गया, स्तेपान उछलकर खड़ा हुआ, उसने कुर्ता और बूट पहने और बाहर आकर ओसारे के पास खड़ा हो गया। पाँच मिनट भी नहीं गुज़रे होंगे कि गेरासिम लकड़ियों का बड़ा-सा गट्ठा (ज़मींदारिन ने अपना अध्ययनकक्ष और सोने का कमरा गर्मियों में भी गर्माने का हुक्म दे रखा था।) पीठ पर लादे आया। हमेशा साथ रहने वाली मूमू भी उसके पीछे-पीछे थी। गेरासिम दरवाज़े के सामने टेढ़ा खड़ा हो गया, कन्धे से धकेलकर उसने दरवाज़ा खोला और लकड़ियों का गट्ठा लिये घर में दाखि़ल हुआ। मूमू हमेशा की तरह बाहर इन्तज़ार करने लगी। तब स्तेपान मौक़ा देखकर उस पर अचानक ऐसे ही झपटा जैसे बाज़ चूज़े पर झपटता है, छाती से उसे ज़मीन पर दबा दिया, बाँहों में भर लिया, टोपी पहने बिना ही अहाते से भाग गया, सामने से आ जाने वाली पहली बग्घी पर चढ़ गया और अख़ोत्नी र्याद सड़क पर जा पहुँचा। वहाँ उसने झटपट उसका ग्राहक ढूँढ़ लिया और आधे रूबल में ही इस शर्त पर बेच दिया कि वह कम से कम एक हफ़्ते तक उसे बाँधे रखे। वह उसी वक़्त वापस आ गया, मगर घर से कुछ दूर ही बग्घी से उतर गया, अहाते के गिर्द चक्कर लगाकर और पिछवाड़े की गली से बाड़ लाँघकर अहाते में कूदा। फाटक से जाने की उसे इसलिए हिम्मत न हुई कि कहीं गेरासिम से मुलाक़ात न हो जाये।
वैसे स्तेपान बेकार ही घबरा रहा था, क्योंकि गेरासिम तो अहाते में था ही नहीं। घर से बाहर निकलते ही उसने मूमू को ग़ायब पाया। अब तक कभी ऐसा नहीं हुआ था कि मूमू उसके लौटने तक इन्तज़ार न करती रही हो। वह इधर-उधर दौड़ने, उसे खोजने और अपने ढंग से पुकारने लगा... वह अपनी कोठरी और घास-फूस की कोठी में भागा गया, सड़क पर इधर-उधर दौड़-धूप करता रहा... खो गयी मूमू! अत्यधिक निराशापूर्ण संकेत करते हुए उसने नौकरों-चाकरों से उसके बारे में पूछताछ की, ज़मीन से एक फ़ुट ऊँचाई का संकेत कर मूमू का उल्लेख किया, हाथों से उसकी आकृति-सी बनाकर दिखायी... कुछ को तो सचमुच यह मालूम नहीं था कि मूमू कहाँ गयी और इसलिए उन्होंने सिर्फ़ सिर हिला दिये, दूसरों को मालूम था और वे जवाब में मुस्कुरा-भर दिये, कारिन्दे ने बहुत ही धीर-गम्भीर सूरत बना ली और कोचवानों पर बिगड़ने लगा। तब गेरासिम अहाते से बाहर, कहीं दूर भाग गया।
जब वह लौटा तो झुटपुटा हो रहा था। उसकी थकी-हारी सूरत, लड़खड़ाती चाल और धूलभरे कपड़ों से यह अनुमान लगाया जा सकता था कि वह आधे मास्को का चक्कर लगा आया है। वह मालकिन के घर की खिड़कियों के सामने रुका, उसने ओसारे पर नज़र डाली, जहाँ कोई सात नौकर-चाकर जमा थे, मुड़ा और एक बार फिर उसने "मूमू" को पुकारा। मगर मूमू नहीं आयी। वह वहाँ से चला गया। सब उसे देखते रहे, कोई भी नहीं मुस्कुराया, किसी ने भी एक शब्द नहीं कहा... जिज्ञासु कोचवान अन्तीप्का ने अगली सुबह को रसोईघर में बताया कि गूँगा रातभर आहें भरता रहा था।
अगले दिन गेरासिम बिल्कुल बाहर नहीं निकला। चुनाँचे उसकी जगह कोचवान पोताप को पानी लाने के लिए जाना पड़ा, जो उसे बहुत अखरा। ज़मींदारिन ने गव्रीला से पूछा कि उसने उसका हुक्म पूरा कर दिया या नहीं। गव्रीला ने जवाब दिया कि हुक्म की तामील हो गयी है।
तीसरे दिन गेरासिम अपना काम करने के लिए कोठरी से बाहर आया। दिन के खाने के वक़्त मेज़ पर बैठा, खा-पीकर किसी से सलाम-दुआ किये बिना फिर वहाँ से चला गया। उसका चेहरा, जो सभी गूँगे-बहरों के चेहरों की तरह निर्जीव था, अब जैसे बिल्कुल पत्थर-सा बन गया, खाने के बाद वह थोड़ी देर को फिर अहाते से चला गया, लौटा और उसी वक़्त घास-फूस की कोठी में जाकर लेट गया। रात उजली थी, चाँदनी खिली हुई थी।
गेरासिम लेटा-लेटा गहरी आहें भर रहा था, लगातार करवटें बदल रहा था। अचानक उसने महसूस किया कि मानो कोई उसका पल्ला खींच रहा है। वह सिर से पाँव तक सिहर उठा, मगर उसने सिर नहीं उठाया, उलटे आँखें मूँद लीं। फिर से, पहले से अधिक ज़ोर के साथ उसका पल्ला खींचा गया। वह उछलकर खड़ा हुआ... मूमू उसके सामने उछल-कूद रही थी और उसकी गर्दन पर रस्सी का टुकड़ा लटक रहा था। गेरासिम की मूक छाती से ख़ुशी भरी लम्बी चीख़ निकल गयी। उसने मूमू को झपट लिया, बाँहों में कस लिया। मूमू ने एक ही क्षण में उसकी नाक, आँखों, मूँछों और दाढ़ी को चाट लिया... गेरासिम कुछ देर तक खड़ा रहा, उसने कुछ सोचा, फूस के ढेर से धीरे-से नीचे उतरा, इधर-उधर नज़र दौड़ाई और यह इतमीनान हो जाने पर कि कोई उसे देख नहीं रहा है, चुपचाप अपनी कोठरी में चला गया।
गेरासिम तो पहले से ही यह भाँप गया था कि मूमू ख़ुद कहीं नहीं खो गयी थी, कि मालकिन के हुक्म से ही उसे कहीं ले जाया गया था। लोगों ने तो इशारों से उसे यह भी समझा दिया था कि किस तरह मूमू ने मालकिन को काटना चाहा था। इसलिए अब उसने ज़रूरी क़दम उठाने का फ़ैसला किया। सबने पहले तो उसने मूमू को रोटी खिलायी, उसे सहलाया, बिस्तर पर लिटाया और उसके बाद कोई जुगत सोचने लगा। रात-भर वह यही सोचता रहा कि मूमू को कैसे अधिक अच्छी तरह से छिपाया जाये। आखि़र वह इस नतीजे पर पहुँचा कि दिन-भर उसे कोठरी में बन्द रखा जाये, जब-तब ख़ुद कोठरी में उसे देखने जाये और रात को बाहर निकाले। दरवाज़े के सूराख़ को उसने अपने पुराने कोट से कसकर बन्द कर दिया। कुछ-कुछ उजाला हो जाने पर वह ऐसे, मानो कुछ भी न हुआ हो तथा चेहरे पर पहले जैसी उदासी क़ायम रखते हुए (कितनी भोली चालाकी थी यह) अहाते में बाहर आया।
बेचारे बहरे के दिमाग़ में यह बात नहीं आयी कि मूमू अपनी चीख़-चिल्लाहट से अपना भण्डाफोड़ कर सकती है। सचमुच ऐसे ही हुआ भी। जल्दी ही घर के सब लोगों को यह पता चल गया कि गूँगे की मूमू वापस आ गयी है और उसकी कोठरी में बन्द है। मगर गेरासिम और मूमू पर तरस खाते हुए, शायद कुछ हद तक उससे डरते हुए भी, किसी ने उसे यह नहीं जताया कि वह उसका राज़ जानता है। कारिन्दे ने गुद्दी खुजलायी और हाथ झटक दिया - "भगवान उसका भला करे! शायद मालकिन को इसका पता नहीं चलेगा!" गूँगे ने काम के मामले में कभी इतनी लगन नहीं दिखायी थी, जितनी उस दिन - उसने सारे अहाते को बहुत ही अच्छी तरह, रगड़-रगड़कर साफ़ किया, घास का एक-एक तिनका खोद निकाला, यह जाँचने के लिए कि बग़ीचे की बाड़ की सभी खूँटियाँ मज़बूत हैं या नहीं, उन्हें ख़ुद बाहर निकाला और फिर ख़ुद ही ठोंका। थोड़े में, इस तरह काम में जुटा रहा और मेहनत करता रहा कि मालकिन का भी उसकी तरफ़ ध्यान गया।
दिन के दौरान गेरासिम लुके-छिपे दो बार अपनी बन्दी के पास गया। रात होने पर वह घास-फूस की कोठी में नहीं, बल्कि मूमू के साथ ही कोठरी में लेट रहा और रात का एक बजने के बाद ही उसके साथ खुली हवा में घूमने निकला। काफ़ी देर तक उसके साथ अहाते में टहलने के बाद वह लौटने ही वाला था कि अचानक सड़क की ओर से बाड़ के पीछ सरसराहट हुई। मूमू ने कान खड़े किये, गुर्रायी, बाड़ के पास गयी, सूँघा-साँघी की और बहुत ऊँची तथा ज़ोरदार आवाज़ में भौंकने लगी। किसी शराबी ने वहाँ रैन-बसेरा कर रखा था। काफ़ी लम्बी "स्नायविक बेचैनी" के बाद मालकिन की उसी वक़्त आँख लगी थी। शाम के बहुत बढ़िया खाने के बाद ही उसे हमेशा ऐसी बेचैनी अनुभव होती थी। कुत्ते की अप्रत्याशित भूँक से वह जाग उठी, उसका दिल ज़ोर से धड़क उठा और फिर जैसे उसकी धड़कन बन्द-सी हो गयी। "लड़कियो! लड़कियो!" वह कराही। "लड़कियो!" डरी-सहमी नौकरानियाँ लपककर उसके शयन-कक्ष में पहुँचीं। "ओह, ओह, मैं मर रही हूँ!" हाथों को परेशानी से हिलाते हुए वह बोली। "फिर, फिर वही कुत्ता! ओह, डॉक्टर बुलवाइये। वे मेरी जान लेना चाहते हैं... कुत्ता, फिर कुत्ता! ओह!" और उसने सिर पीछे की तरफ़ लुढ़का दिया, जिसका मतलब था - बेहोशी।
लोग-बाग डॉक्टर, यानी घरेलू हकीम, ख़रितोन, को बुलाने दौड़े। यह हकीम, जिसकी सारी कला इसी बात में निहित थी कि वह कोमल तलों वाले जूते पहनता था और बड़ी नज़ाकत से नब्ज़ पर हाथ रखता था, दिन-रात में चैदह घण्टे सोता था और बाक़ी वक़्त आहें भरता तथा मालकिन को लगातार लारेल की दवाई पिलाता रहता था, फ़ौरन भागा आया, उसने पंखों को जलाया और मालकिन ने जब आँखें खोलीं, तो झटपट चाँदी की टेª में राम-बाण जैसी बूँदों वाला जाम रखकर ले आया। ज़मींदारिन ने दवा तो पी ली, मगर उसी समय रुआँसी आवाज़ में फिर से कुत्ते, गव्रीला और अपनी क़िस्मत के बारे में शिकवा-शिकायत करने और यह कहने लगी कि मुझ बेचारी बूढ़ी औरत को सभी ने त्याग दिया है, कि किसी को भी मुझ पर दया नहीं आती, कि सभी मेरी मौत चाहते हैं। इसी बीच क़िस्मत की मारी मूमू भौंकती जा रही थी और उसे बाड़ से हटाने की गेरासिम की हर कोशिश नाकाम हो रही थी। "वह देखो... वह देखो... फिर से..." ज़मींदारिन बुदबुदायी और फिर से उसने आँखें ऊपर चढ़ा लीं। हकीम ने किसी नौकरानी से फुसफुसाकर कुछ कहा, वह लपककर ड्योढ़ी में गयी, उसने झकझोरकर स्तेपान को जगाया, वह गव्रीला को जगाने भागा और गव्रीला ने हड़बड़ी में सारे घर को जगाने का हुक्म दे दिया।
गेरासिम ने मुड़कर देखा तो खिड़कियों में रोशनी और लोगों की परछाईंयाँ दिखायी दीं। उसके दिल ने मुसीबत को महसूस किया, उसने झटपट मूमू को बग़ल में दबाया, भागकर अपनी कोठरी में पहँुचा और दरवाज़ा बन्द कर लिया। कुछ मिनट बाद पाँच आदमी उसके दरवाज़े को पूरे ज़ोर से धकेल रहे थे, मगर क़ब्ज़े की मज़बूती महसूस कर उन्होंने ऐसा करना बन्द कर दिया। गव्रीला हाँफता हुआ भागा आया, उन सभी को सुबह तक वहीं रुकने और निगरानी करने का हुक्म दिया, ख़ुद नौकरानियों के कमरे की तरफ़ भागा गया और ज़मींदारिन की बड़ी संगिनी लुबोव लुबीमोव्ना के ज़रिये, जिसके साथ मिलकर वह चाय, चीनी और रसद की दूसरी चीज़ें चुराता तथा बाँटता था, मालकिन से यह कहलवाया कि बदक़िस्मती से कुत्ता फिर कहीं से भाग आया है, कि कल वह ज़िन्दा नहीं रहेगा, कि मालकिन मेहरबानी करें, नाराज़ न हों और शान्त हो जायें। मालकिन शायद यों तो जल्दी ही शान्त न होती, मगर हकीम ने उतावली में बारह की जगह दवाई की चालीस बूँदें डाल दीं। लारेल ने अपना रंग दिखाया और कोई पन्द्रह मिनट बाद ज़मींदारिन गहरी और शान्त नींद सो गयी। मगर उधर चारपाई पर पड़े गेरासिम के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं और वह कसकर मूमू का जबड़ा दबाये था।
अगली सुबह को ज़मींदारिन काफ़ी देर से जागी। गव्रीला इसलिए उसके जागने का इन्तज़ार कर रहा था कि गेरासिम की कोठरी पर निर्णायक प्रहार करने का आदेश दे और साथ ही ख़ुद ज़मींदारिन के भयानक ग़ुस्से के तूफ़ान का सामना करने के लिए तैयार हो रहा था। मगर तूफ़ान नहीं आया। पलंग पर लेटे-लेटे ही मालकिन ने बड़ी संगिनी को अपने पास बुलाने का आदेश दिया।
"लुबोव लुबीमोव्ना," उसने धीमी और कमज़ोर आवाज़ में कहना शुरू किया। वह कभी-कभी अपने को बेसहारा और मुसीबत की मारी ज़ाहिर करना पसन्द करती थी। स्पष्ट है कि ऐसे मौक़ों पर घर के सभी लोग अपने को बड़ी अटपटी स्थिति में महसूस करने लगते थे। "लुबोव लुबीमोव्ना, आप देख रही हैं न कि मेरी कैसी हालत है। मेरी प्यारी, गव्रीला अन्दे्रइच के पास जाइये, उससे बातचीत कीजिये - क्या उसके लिए कोई कुत्ता उसकी मालकिन के चैन, उसकी ज़िन्दगी से भी ज़्यादा महत्त्व रखता है? मैं इस पर विश्वास नहीं करना चाहती," उसने भाव-विह्न ल होकर इतना और जोड़ दिया। "जाइये मेरी प्यारी, इतनी मेहरबानी कीजिये, गव्रीला अन्द्रेइच के पास जाइये।"
लुबोव लुबीमोव्ना गव्रीला के कमरे की तरफ़ चल दी। मालूम नहीं कि उनके बीच क्या बातचीत हुई, मगर कुछ देर बाद ख़ासी भीड़ अहाते को लाँघकर गेरासिम की कोठरी की ओर जाती दिखायी दी। सबसे आगे-आगे गव्रीला चल रहा था। हवा न होने पर भी वह अपनी छज्जेदार टोपी को हाथ से थामे था। नौकर-चाकर और बावर्ची उसके साथ थे, चाचा दुम खिड़की से झाँकता हुआ हिदायतें दे रहा था, यानी सिर्फ़ हाथों को हिला-डुला रहा था। सबसे पीछे लड़के, जिनमें से आधे पराये थे, उछलते-कूदते और मुँह बनाते हुए चल रहे थे। कोठरी की तरफ़ जाने वाली तंग सीढ़ी पर एक पहरेदार बैठा था और डण्डे लिये दो अन्य पहरेदार दरवाज़े के पास खड़े थे।
लोग सीढ़ी पर चढ़ने लगे, पूरी सीढ़ी पर फैल गये। गव्रीला दरवाज़े के पास गया, मुक्के मारकर उसे धपधपाया और चिल्लाया -
"खोलो दरवाज़ा।"
दबी-घुटी-सी भूँक सुनायी दी, मगर जवाब नहीं मिला।
"सुनते नहीं, खोलो दरवाज़ा!" उसने दोहराया।
"गव्रीला अन्द्रेइच," स्तेपान ने नीचे से कहा, "वह तो बहरा है - वह कैसे सुनेगा!"
सभी हँस पड़े।
"तो फिर क्या किया जाये?" गव्रीला ने ऊपर से पूछा।
"उसके दरवाज़े में तो सूराख़ है न," स्तेपान ने जवाब दिया, "आप उसमें डण्डा घुमायें।"
गव्रीला झुका।
"उसने उस सूराख़ में तो कोट ठूँस दिया है।"
"आप कोट को भीतर धकेल दें।"
फिर से दबी-घुटी भूँक सुनायी दी।
"देखो, देखो, ख़ुद अपना भण्डाफोड़ कर रही है," भीड़ में से कुछ लोगों ने कहा और फिर से सभी हँस दिये।
गव्रीला ने कान खुजाया।
"नहीं भाई," आखि़र उसने कहा, "अगर चाहते हो, तो कोट को तो ख़ुद ही धकेलो।"
"तो दीजिये डण्डा!"
स्तेपान लपककर ऊपर गया, डण्डा लेकर उसने कोट भीतर धकेल दिया और सूराख़ में डण्डा घुमाते हुए चिल्लाने लगा - "निकलो बाहर, निकलो बाहर!" वह डण्डा घुमा ही रहा था कि कोठरी का दरवाज़ा अचानक तेज़ी से खुल गया। सभी लोग, जिनमें गव्रीला सबसे आगे था, सीढ़ी से नीचे लुढ़क गये। चाचा दुम ने खिड़की बन्द कर ली।
"देखो, देखो," गव्रीला अहाते से चिल्लाया, "देखो, ज़रा सँभल कर!"
गेरासिम दहलीज़ पर निश्चल खड़ा था। सीढ़ी के नीचे इन सभी तुच्छ लोगों की भीड़ जमा थी। वह जर्मन कुर्ता पहने कूल्हों पर हाथ रखे हुए ऊपर से देख रहा था। अपने लाल किसानी कुर्ते में वह इनके मुक़ाबले में देव-सा लग रहा था। गव्रीला एक क़दम आगे बढ़ आया।
"देखो मियाँ," वह बोला, "मेरे यहाँ गड़बड़ नहीं चलेगी।"
और वह उसे इशारों से यह समझाने लगा कि मालकिन अवश्य ही तुम्हारा कुत्ता ले लेना चाहती हैं। उसे अभी हमारे हवाले कर दो वरना तुम्हारी मुसीबत आयेगी।
गेरासिम ने उसकी तरफ़ देखा, कुत्ते की तरफ़ इशारा किया, हाथ से अपनी गर्दन पर ऐसे इशारा किया मानो फन्दा खींच रहा हो और कारिन्दे की तरफ़ प्रश्नसूचक दृष्टि से देखा।
"हाँ, हाँ," उसने सिर हिलाकर कहा, "हाँ, अवश्य ही।"
गेरासिम ने नज़रें झुका लीं, फिर अचानक झटके के साथ तन गया, फिर से मूमू की तरफ़ इशारा किया, जो इस दौरान भोलेपन से दुम हिलाती और जिज्ञासा से कान घुमाती हुई उसके पास ही खड़ी थी, अपनी गर्दन पर फाँसी के फन्दे का संकेत दोहराया और अर्थपूर्ण ढंग से अपनी छाती पर हाथ मारा, मानो यह घोषणा कर रहा हो कि मूमू को मारने की ज़िम्मेदारी मैं अपने ऊपर लेता हूँ। "तुम धोखा दे दोगे," गव्रीला ने जवाब में हाथ हिलाकर कहा।
गेरासिम ने उसको ध्यान से देखा, तिरस्कार से मुस्कुराया, फिर से छाती पर हाथ मारा और फटाक से दरवाज़ा बन्द कर दिया।
सभी ने चुपचाप एक-दूसरे की तरफ़ देखा।
"इसका क्या मतलब है?" गव्रीला बोला, "उसने तो दरवाज़ा बन्द कर लिया?"
"अब उसे कुछ न कहिये, गव्रीला अन्द्रेइच," स्तेपान ने कहा, "उसने अगर वादा किया है, तो वह उसे पूरा करेगा। वह ऐसा ही है... वादा करता है तो ज़रूर उसे पूरा करता है। इस मामले में वह हम लोगों जैसा नहीं है। जो सच है, वह तो सच ही है। हाँ।"
"हाँ," सभी ने दोहराया और सिर हिलाये। "हाँ, ऐसा ही है।"
चाचा दुम ने खिड़की खोली और उसने भी कहा, "हाँ, सच है।"
"देखेंगे," गव्रीला बोला, "निगरानी तो फिर भी करनी ही चाहिए। अरे, येरोश्का!" गाढ़े का पीला कुर्ता पहने ज़र्द चेहरे वाले एक व्यक्ति से, जिसे माली माना जाता था, उसने कहा, "तुम्हें तो कुछ ख़ास काम नहीं करना है न? डण्डा लेकर यहाँ बैठ जाओ और अगर कोई भी गड़बड़ हो, तो फ़ौरन भागकर मुझे ख़बर देना!"
4
येरोश्का डण्डा लेकर सीढ़ी के सिरे पर बैठ गया। कुछ जिज्ञासुओं और छोकरों को छोड़कर बाक़ी भीड़ छँट गयी। गव्रीला घर लौटा और लुबोव लुबीमोव्ना से मालकिन को यह सूचना देने के लिए कहा कि उनके हुक्म की तामील कर दी गयी है। मगर ख़ुद सावधानी बरतते हुए उसने कोचवान को पुलिस के हरकारे के पास भेज दिया। ज़मींदारिन ने रूमाल में गाँठ लगायी, उसे यू-डी-कोलोन से तर करके सूँघा, कनपटियों को मला, चाय पी और अभी तक लारेल के प्रभाव में होने के कारण फिर से सो गयी।
इस सारे हंगामे के एक घण्टे बाद कोठरी का दरवाज़ा खुला और गेरासिम बाहर निकला। वह बढ़िया कुर्ता पहने था और रस्सी से बँधी मूमू उसके पीछे-पीछे आ रही थी। येरोश्का एक तरफ़ को हट गया और उसे गुज़र जाने दिया। गेरासिम फाटक की तरफ़ बढ़ चला। लड़के और अहाते में खड़े सभी लोग चुपचाप उसे जाते देखते रहे। गेरासिम ने तो पीछे की तरफ़ मुड़कर भी नहीं देखा और केवल सड़क पर पहुँचकर ही उसने टोपी पहनी। गव्रीला ने उसी येरोश्का को मुख़बिरी करने के लिए उसके पीछे भेजा। येरोश्का ने दूर से गेरासिम को मूमू के साथ भटियारख़ाने में जाते देखा और उसके बाहर आने की राह देखने लगा।
भटियारख़ाने वाले गेरासिम को जानते थे और उसके इशारे समझते थे। उसने मांस समेत पत्तागोभी का शोरबा लाने को कहा और मेज़ पर हाथ टिकाकर बैठ गया। मूमू उसकी कुर्सी के पास खड़ी थी और शान्त भाव से अपनी समझदार आँखों से उसे देख रही थी। उसके बाल चमक रहे थे। साफ़ नज़र आ रहा था कि अभी कुछ ही देर पहले उन्हें कंघे से साफ़ किया गया है। गेरासिम के लिए शोरबा लाया गया। उसने उसमें रोटी के टुकडे़ डाले, मांस के छोटे-छोटे टुकड़े किये और प्लेट को फ़र्श पर रख दिया। मूमू अपनी सामान्य शिष्टता से, थूथनी को शोरबे से तनिक छुआते हुए ही उसे खाने लगी। गेरासिम देर तक उसे देखता रहा। अचानक आँसुओं की दो बड़ी-बड़ी बूँदें उसकी आँखों से लुढ़क पड़ीं - एक मूमू के ढालू माथे पर और दूसरी शोरबे में जा गिरी। उसने चेहरे को हाथ की ओट में कर लिया। मूमू ने आधा शोरबा खाया और मँुह पर ज़ुबान फेरते हुए एक तरफ़ को हट गयी। गेरासिम उठा, उसने शोरबे के पैसे दिये और बाहर चल दिया। भटियारख़ाने का नौकर कुछ हैरानी से उसे देखता रह गया। गेरासिम को देखते ही येरोश्का झटपट ओट में जा खड़ा हुआ, उसे अपने पास से निकल जाने दिया और फिर उसके पीछे-पीछे हो लिया।
गेरासिम धीरे-धीरे चल रहा था और मूमू की रस्सी नहीं खोल रहा था। सड़क के सिरे तक जाकर वह मानो किसी उधेड़बुन में रुका और फिर अचानक तेज़ क़दमों से सीधे क्रीम्स्की उतारे की तरफ़ चल पड़ा। रास्ते में वह एक घर के अहाते में गया, जहाँ उपभवन बन रहा था और वहाँ से दो ईंटें उठाकर उसने बग़ल में दबा लीं। क्रीम्स्की उतारे से वह तट के साथ-साथ चल पड़ा और उस जगह तक गया जहाँ चप्पुओं सहित दो नावें खूँटे से बँधी हुई थीं (उसने उन्हें पहले से ही देख लिया था) और मूमू को साथ लेकर एक नाव पर सवार हो गया। बग़ीचे के कोने में बनी झोपड़ी में से एक लंगड़ा बूढ़ा बाहर निकला और चीख़ने-चिल्लाने लगा। मगर गेरासिम ने सिर्फ़ सिर हिलाया और इतने ज़ोर से नाव खेने लगा (यद्यपि वह प्रवाह के प्रतिकूल ही ऐसा कर रहा था) कि आन की आन में काफ़ी दूर जा पहुँचा। बूढ़ा खड़ा रहा, खड़ा रहा, पहले बायें और फिर दायें हाथ से उसने पीठ खुजलायी और फिर लँगड़ाता हुआ झोपड़ी में लौट गया।
गेरासिम नाव खेता गया, खेता गया। मास्को काफ़ी पीछे रह गया था। किनारों पर चरागाहें, बग़ीचे, खेत, वृक्षों के झुरमुट और झोपड़े दिखायी देने लगे। गाँव की अनुभूति होने लगी। उसने चप्पू रख दिये, मूमू के साथ अपना सिर सटा दिया, जो तल में पानी भर जाने के कारण उसके सामने सूखी तख़्ती पर बैठी थी और अपने भारी-भरकम हाथों को उसकी पीठ पर बाँधकर निश्चल-सा झुका रह गया। इसी बीच नाव लहर के साथ शहर की तरफ़ कुछ पीछे भी चली गयी। आखि़र गेरासिम सीधा हुआ, चेहरे पर दर्दभरे ग़ुस्से के साथ उसने ईंटों के गिर्द रस्सी लपेटी, फन्दा बनाया, उसे मूमू की गर्दन में डाला, मूमू को नदी के ऊपर उठाया और आखि़री बार उसे देखा... मूमू किसी तरह का भय अनुभव किये बिना विश्वास के साथ गेरासिम की तरफ़ देख रही थी और धीरे-धीरे पूँछ हिला रही थी। गेरासिम ने मुँह दूसरी ओर कर लिया, आँखें मूँद लीं और हाथ खोल दिये... गेरासिम ने कुछ भी नहीं सुना - न तो गिरती मूमू की तेज़ चीख़ और न पानी की ज़ोरदार छपाक। उसके लिए तो सबसे अधिक कोलाहलपूर्ण दिन भी मूक और मौन रहा था, जबकि हमारे लिए कोई शान्त से शान्त रात भी नीरव नहीं होती। फिर से आँखें खोलने पर उसे पहले की तरह ही एक-दूसरी से मानो होड़ करती हुई छोटी-छोटी लहरें दिखायी दीं, पहले की तरह ही वे नाव के पहलुओं से टकरा रही थीं और केवल पीछे, दूर तट की तरफ़ ही चैड़े-चैड़े घेरे-से भागते जाते थे।
गेरासिम जैसे ही आँखों से ओझल हुआ येरोश्का घर लौट आया और जो कुछ उसने देखा था, सब कह सुनाया।
"हाँ," स्तेपान ने कहा, "वह उसे डुबो देगा। यह पक्की बात है। अगर वह वादा करता है तो..."
गेरासिम किसी को भी दिन-भर नज़र नहीं आया। उसने घर पर दिन का खाना नहीं खाया। शाम के वक़्त सभी फिर खाने की मेज़ पर इकट्ठा हुए - गेरासिम तब भी नहीं आया।
"अजीब आदमी है यह गेरासिम!" मोटी धोबिन ने चिचियाती-सी आवाज़ में कहा। "भला कोई कुत्ते के लिए भी ऐसे घुलता है! है न!"
"मगर गेरासिम यहाँ आया तो था," चमचे से अपने लिए दलिया डालते हुए स्तेपान ने अचानक कहा।
"सच? कब?"
"कोई दो घण्टे पहले। फाटक पर मेरी उससे मुलाक़ात हुई थी। वह फिर यहाँ से जा रहा था, अहाते से निकल रहा था। मैं उससे कुत्ते के बारे में पूछना चाहता था, मगर उसका मूड बहुत ख़राब था। उसने मुझे धक्का देकर परे हटा दिया। वैसे उसने तो शायद मुझे एक तरफ़ करना चाहा था, यानी यह कि मैं उससे दूर रहूँ, मगर उस असाधारण बनमानस ने मेरी छाती पर ऐसे ज़ोर से हाथ जमाया, कि नानी याद आ गयी!" और स्तेपान ने उदासीभरी मुस्कान के साथ कन्धे झटके और गुद्दी खुजलायी। "हाँ, उसका हाथ तो ऐसा है कि भगवान बचाये," उसने इतना और जोड़ दिया।
स्तेपान की बात पर सभी हँस पड़े और खाना ख़त्म करके सोने चले गये।
ठीक इसी वक़्त ‘त’ सड़क पर कोई देव कहीं भी रुके बिना बड़ी तेज़ी से चला जा रहा था। उसकी पीठ पर गठरी और हाथ में लम्बा डण्डा था। यह गेरासिम था। वह मुड़कर देखे बिना तेज़ी से क़दम बढ़ाता जा रहा था, जल्दी-जल्दी अपने घर, अपने गाँव, अपने जन्म-स्थान की ओर। बेचारी मूमू को डूबोने के बाद वह भागता हुआ अपनी कोठरी में लौटा, झटपट कुछ चीज़ों की पोटली बनायी, पीठ पर डाली और चल दिया। रास्ते को तो उसने तभी अच्छी तरह से ध्यान में कर लिया था, जब उसे मास्को लाया गया था। जिस गाँव से ज़मींदारिन ने उसे बुलवाया था, वह सड़क से सिर्फ़ पच्चीस वेस्र्ता दूर था। वह किसी अदम्य साहस से भरपूर, हताश और साथ ही सुखद दृढसंकल्प किये हुए चला जा रहा था। वह चला जा रहा था चैड़ा सीना उघाड़े और आँखें बेसब्री से सामने की तरफ़ ताक रही थीं। वह ऐसे जल्दी कर रहा था मानो जन्मस्थान पर बूढ़ी अम्माँ उसका इन्तज़ार कर रही हो, मानो बहुत समय अजनबी जगहों और अजनबी लोगों के बीच उसके भटकने के बाद वह उसे अपने पास बुला रही हो... गरमी की रात ने अपनी चादर फैलायी, वह शान्त और गरम थी। एक तरफ़, जहाँ सूरज डूबा था, आसमान का छोर अभी भी सफ़ेद था और सूर्य के अन्तिम प्रकाश से कुछ कुछ गुलाबी था। दूसरी ओर से नीला, धुँधला झुटपुटा ऊपर उठ रहा था। वहीं से रात चली आ रही थी। सभी ओर सैकड़ों तीतर-बटेर अपनी बोलियाँ बोल रहे थे...
गेरासिम उनका शोर नहीं सुन सकता था, उसी तरह वह वृक्षों की, जिनके पास से उसके मज़बूत क़दम उसे लिये जा रहे थे, रात्रिकालीन सरसराहट भी नहीं सुन सकता था। मगर वह अँधेरे खेतों से आने वाली पकती हुई रई की परिचित गन्ध अनुभव कर रहा था, अनुभव कर रहा था कि सामने की ओर से आने वाली हवा - जन्म-स्थान की हवा - उसके चेहरे को प्यार से सहला रही है, उसके बालों और दाढ़ी से खेल रही है। वह अपने सामने उजला होता हुआ घर का रास्ता देख रहा था, तीर की तरह सीधा रास्ता। वह देख रहा था आकाश में अनगिनत सितारे, जो उसके रास्ते को रोशन कर रहे थे और बबर की तरह ऐसे मज़बूती और मस्ती से क़दम बढ़ाता जा रहा था कि जब उदय होते हुए सूर्य ने अपनी नम, लाल किरणों से बढ़े जाते सूरमा को जगमगा दिया, तो मास्को और उसके बीच पैंतीस वेस्र्ता का रास्ता तय हो चुका था..
दो दिन बाद वह अपने घर, अपने झोपड़े में पहुँच चुका था और उस झोपडे़ में रहने वाली सैनिक की बीवी तो उसे देखकर हैरान रह गयी। देव प्रतिमाओं के सामने प्रार्थना करके वह फ़ौरन मुखिया के पास पहुँचा। शुरू में तो मुखिया को आश्चर्य हुआ, मगर घास की कटाई अभी शुरू ही हुई थी। बढ़िया काम करने वाले के नाते उसे फ़ौरन हँसिया पकड़ा दिया गया और वह पहले की तरह ही घास काटने लगा। वह ऐसे लम्बे-लम्बे हाथ चलाता और घास के यों ढेर लगाता जाता था कि उसे देख-देखकर दूसरे किसानों के सीनों पर साँप लोटता था...
गेरासिम के भाग जाने के अगले दिन मास्को में उसकी अनुपस्थिति अनुभव हुई। उसकी कोठरी में जाकर उसे खोजा गया, गव्रीला को बताया गया। वह आया, उसने भी अच्छी तरह से ढूँढ़-तलाश की, कन्धे झटके और इस नतीजे पर पहुँचा कि गूँगा या तो भाग गया था या फिर अपनी बुद्धू मूमू के साथ ही डूब गया। पुलिस को ख़बर दी गयी, मालकिन को बताया गया। वह बहुत बिगड़ी, रोयी-धोयी, हुक्म दिया कि जैसे भी हो, उसे खोजा जाये, यक़ीन दिलाया कि उसने कुत्ते को मार डालने का कभी हुक्म नहीं दिया था और आखि़र गव्रीला को ऐसी डाँट पिलायी कि वह दिन-भर सिर झटकता और तब तक "ख़ूब रही!" कहता रहा, जब तक कि चाचा दुम ने "जो रही, सो रही!" कहकर उसे शान्त नहीं कर दिया। आखि़र गेरासिम के गाँव पहुँच जाने की ख़बर आयी। ज़मींदारिन को कुछ तसल्ली हुई, शुरू में तो उसने उसे फ़ौरन मास्को में वापस बुलाने का हुक्म दे दिया, मगर बाद में यह घोषणा की कि ऐसे कृतघ्न की उसे बिल्कुल ज़रूरत नहीं है। वैसे इस घटना के कुछ ही समय बाद वह ख़ुद भी चल बसी और उसके वारिसों को गेरासिम में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उन्होंने तो माँ के बाक़ी नौकर-चाकरों को भी कर अदा करने के लिए पैसे कमाने के लिए भेज दिया।
अपने एकाकी झोपड़े में गेरासिम अब भी अकेला ही रहता है, पहले की तरह ही हट्टा-कट्टा और ताक़तवर है, पहले की तरह ही अकेला चार का काम करता है, पहले जैसा ही अकड़बाज़ और धीर-गम्भीर है। मगर इस बात की तरफ़ पड़ोसियों का ध्यान गया है कि मास्को से लौटने के बाद वह औरतों में ज़रा भी दिलचस्पी नहीं लेता, उनकी तरफ़ नज़र तक उठाकर नहीं देखता और कभी कोई कुत्ता नहीं पालता। "वैसे यह तो उसकी ख़ुशक़िस्मती ही है," देहाती आपस में कहते हैं, "कि उसका औरत के बिना काम चल जाता है और रहा कुत्ता - तो उसका उसे क्या करना है? उसके अहाते में तो फन्दा डालकर भी चोर को नहीं लाया जा सकता!" गूँगे की बेपनाह ताक़त के बारे में दूर-दूर तक ऐसी ख़बर फैली हुई है।
(अनुवाद मदनलाल ‘मधु’)