मूल्य (कहानी) : राचकोंड विश्वनाथ शास्त्री

Mulya (Telugu Story in Hindi) : Rachakonda Viswanatha Sastri

इस कल्चरल सिविलाइजेशन में
मुझे आधी घड़ी सुख देने के लिए
उस स्त्री का मूल्य
डेढ़ रुपया है।
हमारे कांट्रैक्ट के लिए
निर्णय नहीं किया गया, कंसिडरेशन।
एक रुपए आठ आने
व्यक्ति के अनुसार, समय के अनुसार
स्टेटस् के अनुसार,
पर्स के अनुसार,
मूल्य बढ़ भी सकता है, या घट भी सकता है। लेकिन उस दिन मुझसे उसने उतना ही ले लिया है।

यह गलत है। उसे मैंने उतना ही दिया है। उससे ज्यादा भी मैं दे देता तो वह शायद मना नहीं करती, उससे कम देने पर भी वह शायद मुझसे नहीं झगड़ती, लेकिन उस समय मैं उसे उतना ही दे सकता था। उस दिन उससे मैं बसस्टैंड के पास मिला, अंधेरा छाने के बाद।

पकौड़ियों के दुकान के पास किरोसिन का दिया, लाल रोशनी बिखेर रहा था। वह फड़फड़ा रहा था।

उसकी पहनी हुई सफेद साड़ी धुंधली लाल रोशनी में आँखमिचौनी खेल रही थी। उस रोशनी में, छायाओं में उसकी मैली लाल रंग की चोली मुझे दिखाई नहीं पड़ी। लेकिन दबी हुई वक्राकृतियाँ उभर कर बुला रही हैं। पान से रक्तिम हुए अधर विलासिता में इठलाने लगे। भौंहों के नीचे आँखें छेड़ रही थीं। नीली पुतलियाँ टिमटिमाने लगीं, नटखट होकर इशारे करने लगी। उसके काले केशों में छिपी हुई चमेली की सुगंध प्याज की बनी पकौड़ियों की तेल की गंध से मिलकर चारों ओर फैल गई।

मेरी नज़रें उसके बदन पर रेंग गई। उस पर टिक गईं।

वे कहीं एक जगह न टिककर उफ किए बिना उसकी झुकी हुई लकीरों पर सरक गई।

उसे छोड़े बिना घूम रही थीं।

चारों ओर कोलाहल, भनभनाहट और ध्वनियाँ। उसकी नज़रें अंधी रोशनी को, धुंधले अंधेरे को, लाल धूल को चीर रही थीं।

मुझे खींच रही थीं।

इर्दगिर्द गड़बड़ी, हड़बड़ी।

कोक सोड़ा बोतलों के प्राण छूट रहे हैं।

आवाज़ करने के लिए ही घूम रहे हैं तांगे के पहिए। साइकिल, रिक्शे, कार, बस, गाड़ियाँ और मनुष्य सब मिलकर शोर-शोर, शोर के बीच बिना बोले उसने बुलाया।

बिना मुँह खोले बुलाया।
बोले बिना बुलाया।
बिना बोले चल पड़ी।
गया मैं उसके पीछे।
मन में शोरगुल के साथ।
एक ही आकांक्षा के साथ, अपरिमित कामना के साथ, मिला उससे मैं मोड़ पर।
पता नहीं मैं क्या बोला। यद्यपि नहीं थी ज़रूरत बातों की।

दोनों को मालूम है कि दोनों में समझौता है, न कहने की जरूरत है, न पूछने की जरूरत है। मोड़ पर की गैसलाइट की रोशनी में वह कालिमा-सी चमक उठी, लालिमासी विहँस उठी, उष्णता-सी झाँक उठी।

इतने में रिक्शा आ गया, रिक्शा में वह और रिक्शा में मैं।

रिक्शा में मर्द, बगल में औरत, हाथ में हाथ, ताकतवर, गँवार और खुरदरा हाथ, उसने मेरी वांछा को जगा दिया।
मुझे कँपा दिया,
रिक्शा जा रहा था गलियों से,
वह ज्यादा दूर नहीं सागर के तीर से, सफेद बालू तब भी थोड़ा गरम ही था।

चलते हुए उसने मेरी भुजा पकड़ ली, मेरे हाथ को खींचकर छिपा दिया, क्या मैंने उसके बारे में पूछा है?

क्या वह मुझे जानना चाहती है?
सन्नाटे में चलकर बैठ गए।
मल्लाहों की नावों के बगल में, नावों के बीच मुलायम बालू, नावों के बीच खारे पानी की मछलियाँ, गंदगी, नावों के बीच ठंडी हवा, नावों के बीच वह और मैं,
मेरा दम घुट रहा था,

अनबुझा ताप मेरे पैरों को कँपा रहा था, काँपने वाले मुझको उसने ज़ोर से अपनी ओर खींचकर चूम लिया, तीखी गंध, सस्ता साबुन, स्नो, फेस पाउडर की मिलीजुली गंध, भीगी, मैली, लाल चोली के पसीने की गंध, इन सभी में मिली हुई मानवी की गंध, पगलाकर आँखों पर परतें ढकनेवाली औरत की गंध, मधुर सुगंध ।

मेरे हाथ उससे लिपट गए। हाथ उसे ज़ोर से दबाने लगे, मेरे दिल की धड़कनों को उसके उष्णिम उरोजों ने जवाब दिए।

मेरे दिल के दरवाजों को खटखटाया,
लहू की बाढ़ के लिए बाँध तोड़ दिया। मेरे दुर्दम्य आवेग पर वह मुस्करा उठी। वह मुस्कराहट अंधेरे में चाँदनी की तरह छिटक गई, रात अंधेरी थी।

ठंडी थी, उस अंधेरे में वह मुझे दिखाई नहीं पड़ी।

उसका नील वर्ण नीली रात में विलीन हो गया। लेकिन उस अंधेरे में उसे छोड़कर मुझे और कुछ दिखाई नहीं पड़ा।

उभरे हुए वक्ष को तकिया बनाकर उसके अधरों की मिठास को अपनाए उसकी ताकत का सामना करते मैं मिला, उससे सागर के समक्ष चंद्रविहीन आकाश को चाँदनी मानकर।

मेरे लहू के ठंडा होने के बाद, उठ बैठने के बाद, टटोलते हुए जेब से निकाल लिया अपना पर्स, निकाल तो लिया, न जाने क्यों, सर्दी से काँप उठा मैं। किया हुआ काम तो बुरा नहीं, जो अब कर रहा हूँ वह बुरा है। जिसका कोई मूल्य नहीं है, उसका मूल्य आँक रहा हूँ, अमूल्य का मूल्यांकन कर रहा हूँ।

बाज़ार में वस्तुओं की तरह, आनंद को, औरत को खरीद रहा हूँ।
एक आना देने पर पकौड़ियों का दोना दुकान से हाथ में आता है।
डेढ़ रुपया देने पर, एक सेर चावल अंधेरे से रोशनी में आ जाता है।
लेकिन उनके लिए समय के अनुसार खरीदने के लिए दाम है, नाप है। इतने के लिए इतना देने का हिसाब भी है।
वस्तुओं के रूप में ही समझ कर खरीदी जाने वाली इस औरत के दाम का निर्धारित नहीं हुआ है।
कम-से-कम मोल-तोल करके दामों के बारे में मैंने जानने का प्रयास भी नहीं किया है, हाय! इस संसार में ऐसी चीज़ों में यह भी एक है जिसका कोई फिक्सड प्राइस नहीं है,-पर्स निकालते वक्त इन सभी बातों की याद आई।

अपनी इच्छापूर्ति के लिए एक औरत को किराए पर लेने के लिए, औरत को किराए पर लेने के पहले मैंने उसका दाम जानने की चेष्टा तक नहीं की। अपने आप को बेचने वाली यह 'वस्तु' बड़ी कमीनी है।

उससे भी हीन है।
मैंने पर्स निकाला।
वह मेरी ओर नहीं देख रही थी।

लाल चोली के पीछे अपने काले उरोजों को छिपा रही थी। सफेद साडी की गाँठ मोड़ रही थी।

चमेलियों की माला के लिए खुरदरे हाथ बाल में खोज रहे थे।
ढूँढ़ रहे हैं मेरे हाथ
पर्स में पैसे के लिए।
अपनी मुटठी में आई हई तीन अठन्नियाँ उसकी हथेली में दबा दी,
खामोश होकर उसने ले ली,
बाद में आखिरी बार, मुझे अपने बाहों में लेकर चूम लिया, हँस दिया।

अज्ञात आनंद के साथ, लेकिन दुःख के साथ, अपमान से जगी हुई लज्जा के साथ मैंने भी उसका आलिंगन करके उसकी गोद में अपना सिर छिपा लिया।

उस रात उसका अपमान करने की वजह से, उसको ही नहीं, स्त्री जाति को अपमानित करने की वजह से, स्त्री जाति को ही नहीं, मानव लोक को अपमानित करने की वजह से मुझे, उसे,
सबकुछ को अपनाने की वजह से मानव-जीवन को अनंत तक चलाने तक मनुष्यों को भगवान से अयाचित रूप से प्रदत्त
अमर सुख को अपमानित करने की वज़ह से, मुझे और मेरी जाति को घोर शापाग्नि का शिकार बनाकर या पैरों के नीचे कुचल कर, मिट्टी में मिलाकर या आग की लपटों में फेंककर भस्म करने के बदले
वह मुझे अपने बलिष्ट बाहों में मृदुता से आलिंगन कर उमड़े हुए उरोजों से कोमलता से लगाकर तापतप्त अधरों में मिठास भरकर चुंबनों की झड़ी लगा दी। लेकिन-
जाने या अनजाने मुझे उस तरह क्षमा करने में और अपने सहज स्त्री-गुणों से मेरा आदर कर, दुलारने में उसने अपनी उन्नतता को प्रकट किया।
अपने उन्नतता को तारापथ तक पहुँचा दिया। अधःस्थान में रहती हुई और भी नीचे फिसल जानेवाले मुझ पर उसने चाँदनी की बौछार कर दी।

हाथ का सहारा लेकर मुझे उठा लिया।
औरत के मन को दर्शाया।
आखिर वह चली गई
उस अंधेरे में
पता नहीं किस ओर,
इस कमर्शियल सिविलाइजेशन में
मूल्यहीन बाजार में,
एक दिन के रात की
अमूल्य वस्तु का मूल्य
तीन अठन्नियाँ हैं।

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