मुक्ति (कहानी) : डॉ. पद्मावती
Mukti (Hindi Story) : Dr. Padmavathi
जून का महीना . . . न बादल न बरसात . . . हर तरफ़ उमस फैली हुई थी . . . वातावरण में ठहराव था . . . धूप भी आँख-मिचौनी खेल रही थी। सुमति बाहर बरामदे में आकर अपने गीले बालों को तौलिए से रगड़-रगड़ कर सुखा रही थी। दोपहर के दो बजे . . . अचानक पोस्ट बाबू की साइकिल द्वार पर रुकी। बाहर लगा छोटा सा गेट धकेल कर वह अंदर आया और सुमति को तार थमाते बोला, ‘बीबीजी . . . यहाँ हस्ताक्षर कर दो’।
अचानक पोस्ट बाबू को देख सुमति कुछ घबरा गई। मन आशंकित हुआ। बोली, "हाँ भैया . . . लेकिन मुझे हिंदी पढ़नी नहीं आती . . . तुम पढ़ दो क्या लिखा है?” सुमति का दिल धड़कने लगा था।
"राम राम राम बेटा! तुम्हारे नाम ही है, लिखा है—तुम्हारी माँ अब नहीं रही। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे! अब अपने हाथ में क्या है? सब परमात्मा की इच्छा!” पोस्ट बाबू बड़बड़ाता हुआ साइकिल लेकर आगे निकल गया।
सुमति के हाथ से काग़ज़ का टुकड़ा फिसल कर नीचे गिर गया। वह धम्म से फर्श पर बैठ गई। ज़मीन घूमती हुई नज़र आने लगी। मन भारी हो गया। गले में कुछ अटक सा गया रोना आ रहा था लेकिन रो न पाई। रुलाई अंदर ही दब गई। कुछ देर के लिए मस्तिष्क सुन्न हो गया। फिर न जाने बेसुधी में ही धीरे से सब कुछ याद आने लगा। सब आँखों के सामने दृश्य बनकर घूमने लगा . . . वो सब बातें . . . गुज़रा ज़माना . . . दादा की हवेली . . . माँ-पिता का घर . . . चाची का व्यवहार . . . बहुत कुछ . . . बहुत कुछ . . . या शायद सब कुछ!
चलें दो पीढ़ी पीछे।
क़िस्सा शुरू होता है सुमति के दादाजी पंडित मुकुटधर शास्त्री से। और वह समय था . . . .1930 के आस-पास का . . .! दक्षिण का एक सुदूर प्रान्त . . . छोटा सा गाँव जिसमें कुछ गिने-चुने ही संपन्न परिवार थे और पंडित मुकुटधर शास्त्री तो गाँव के सबसे अमीर रईस ज़मींदार थे। व्यवसाय से शास्त्री जी वकील थे। विलायत से पढ़ कर आये थे और आस-पास के गाँवों में भी काफ़ी नाम कमा लिया था। अभिजात्य वंश और प्रखर मेधा के धनी। दोनों हाथ कमाई होती थी। दरअसल उनकी संपन्नता का आधार उनकी वकालत नहीं बल्कि उनकी पैतृक संपत्ति था। विशाल ज़मीन जायदाद के मालिक थे। यूँ समझिए गाँव की सीमा में उनकी कई एकड़ ज़मीनें थी। पूरे इलाक़े में दूर-दूर तक उनके हरे-भरे धान के खेत लहलहाते रहते थे। आधे से अधिक गाँव की ज़मीन उन्हीं के अधीन थी। विशाल भू-भाग में निर्मित बड़ी ही शानदार कोठी में रहते थे। अपनी समय की आलीशान शोभायमान हवेली। चारों ओर नीम पीपल आम के घने वृक्षों से आवृत मैदान जिसमें कई रंग-बिरंगे फूलों की क्यारियाँ लगी थीं और उसके बीचों-बीच शुद्ध पानी का फव्वारा। काफ़ी सुंदर नज़ारा हुआ करता था। औसारे में बिछी सागौन की कुर्सियाँ, शीशम के मुख्य द्वार पर सोने और चाँदी का बंदनवार उनकी संपन्नता का द्योतक हुआ करता था। अंदर प्रवेश पाते ही बैठक में एक बड़ी सी दीवारनुमा शीशे की अलमारी रखी हुई थी जिसमें वकालत की मोटी-मोटी पुस्तकें क़रीने से सजी रहती थीं जिसे देख कर ही भान हो जाता था कि हो न हो यह घर वकील साहब का ही है। हवेली के अंदर गोलाई में कई कमरे थे।
काफ़ी धार्मिक प्रवृति के थे शास्त्री जी। भरा-पूरा परिवार था। घर में उनके चार पुत्रों, पुत्र-वधुओं, पोते-पोतियों के अलावा नौकरों की एक पूरी फ़ौज विद्यमान रहती थी उनकी सेवा में। पीछे दालान में रसोई बनी थी जहाँ आचार शुद्धता का कड़ा अनुशासन चलता था। बिना स्नान किए घर के किसी भी सदस्य का प्रवेश यहाँ वर्जित था। अंदर रसोई में चमचमाते चाँदी और पीतल के बर्तनों की क़तार हुआ करती थी। पूरा परिवार चाँदी की थालियों में ही खाना खाता था और तो और मानिए शौच के लिए भी चांदी के लोटे का ही उपयोग किया जाता था। इतनी रईसी थी वहाँ उस परिवार में। शास्त्री जी आचार-विचार के बड़े शुद्ध थे। अब कचहरी में उनकी नैतिकता का कौन सा पैमाना चलता था, यह तो वे ही जानें लेकिन यह तो तय था कि सब उन्हें देवता मानते थे। उनका बड़ा मान करते थे। पूरा गाँव अपने छोटे-मोटे झगड़े तो उनकी चौपाल पर ही निपटा लेता था। पूरे प्रांत में उनका दबदबा था। थे तो वकील लेकिन जज की भूमिका बख़ूबी निभाते थे।। उनका निर्णय सर्वमान्य वेद-वाक्य हुआ करता था जिसको कोई न लाँघता था। पत्नी को गुज़रे ज़माना हो गया था। अपने ही बलबूते पर उन्होंने बच्चों की परवरिश की थी। पुत्रों की शिक्षा-दीक्षा में कहीं कोई कमी न हुई थी। बड़ा बेटा नारायण शास्त्री भी पिता के नक़्शे-क़दमों पर चलकर वकालत कर रहा था। बाक़ी तीन भी स्नातक थे और शहरों में नौकरी कर रहे थे। लेकिन उनके परिवार हवेली में ही रहते थे। द्वार पर सुसज्जित घोड़ा-गाड़ी बँधी रहती थी जो हर रोज़ शास्त्री जी को कचहरी ले जाया और वापस लाया करती थी।
‘हाय! विधि की लीला कौन टाल सकता है?’ अचानक एक घटना ने सब कुछ बिगाड़ दिया। हुआ यूँ कि उम्र के अंतिम पड़ाव पर आकर शास्त्री जी को यकायक क्या सूझी पता नहीं, उन्होंने एक नवयौवना युवती से विवाह कर लिया और दुल्हन को लेकर घोड़ा-गाड़ी में सीधा घर पहुँच गए। पूरा परिवार इस अप्रत्याशित घटना से सकते में आ गया। बहुएँ और बेटे अवाक्! किसी को समझ नहीं आ रहा था कि शास्त्री जी ने यह क्या कर डाला। इस उम्र में विवाह की क्या आवश्यकता आन पड़ी थी? विवाह का अर्थ था संतान! कल संतान हुई तो जायदाद के नए वारिस उपस्थित हो जाएँगे। आख़िर करोड़ों की संपत्ति का सवाल था! बेटों को यह बात नहीं पची। उन्होंने मुखर रूप से विरोध किया। घर भर में हंगामा हो गया। दुल्हन का कोई स्वागत-सत्कार नहीं हुआ। लेकिन ढीठ बुज़ुर्ग पिता के आगे बेटों की एक न चली।
आते ही उन्होंने कड़े शब्दों में एलान कर दिया था ‘आज से ये तुम्हारी माँ है। घर में किसी प्रकार की ऊँची आवाज़ का मैं सख़्त विरोधी हूँ। जिसे भी मेरे इस निर्णय से कष्ट पहुँचा है वे मेरी हवेली त्याग कर अपना रास्ता नापें। मुझे कोई आपत्ति नहीं है’।
फिर क्या था . . . सब की बोलती बन्द हो गई। सबने मौन धारण कर लिया। लेकिन किसी ने दुल्हन को अपनी माँ नहीं स्वीकारा। इतनी बड़ी रियासत छोड़ कर जाने की हिम्मत किसी भी बेटे ने न दिखाई।
अगले चार वर्ष परिवार में असहज वातावरण बना रहा। इस बीच शास्त्री जी की नई दुल्हन से दो संतानें हुईं। एक बेटा और एक पुत्री। अब शास्त्री जी का अंतिम समय निकट आ गया था। उन्होंने वसीयत लिख डाली। बेटों के व्यवहार को देखते हुए अपनी जायदाद का दो तिहाई हिस्सा नई पत्नी और उसकी संतानों के नाम व बाक़ी हिस्सा अपने चारों बड़े बेटों के नाम लिखकर सभी झंझटों से मुक्ति पा परमात्मा को प्यारे हो गए।
अब शुरू हुआ असली खेल!
बारहवें दिन सभी कर्मकांडों से मुक्त होकर बेटों ने बाप की वसीयत खोली। नई माँ की संतानें तो दुधमुँही थीं लेकिन ‘वो’ अनाड़ी न थी। उसे परिस्थिति की नाज़ुकता का भान पहले से ही हो गया था। सब पेचीदगियों से निपटने के लिए उसने अपने भाइयों को बुला भेजा था और तैयार बैठी थी। अब बड़े बेटों के सर पर पहाड़ टूट पड़ा। घर में महाभारत शुरू हो हुई। बेटों ने बाप की वसीयत को नकारते हुए अदालत का दरवाज़ा खटखटाने का निर्णय लिया। ज्येष्ठ पुत्र नारायण भी तो वकीली कर ही रहा था लेकिन उसमें अभी उतना अनुभव नहीं था। उन सभी ने पिता के सहयोगियों में से जान-पहचान वाले वकील को पकड़ा और उससे सलाह-मशवरा कर अदालत पहुँच गए।
फिर क्या था . . . सर्वनाश की घंटी बज ही गई। केस शुरू हुआ। सुनवाइयाँ होने लगीं। हर महीने तारीख़ें मिलने लगीं। जब तक शास्त्री जी जीवित थे कोर्ट में उनका मुक़ाबला कोई नहीं कर सकता था। उनकी कुटिल नीतियों के आगे किसी की न चलती थी। ऐसे-ऐसे दाँव-पेंच लगाते थे कि सामने वाला मुँह की खाए। अब उन सब वकीलों ने अपनी दुश्मनी साधनी आरंभ कर दी। बेटे जीत के भ्रम में फँसते चले गए और मुक़दमा आगे खिंचता चला गया।
नई दुल्हन भी कम न थी। इतनी जायदाद क्यों हाथ से जाने दे? आख़र उसके भी बच्चे थे . . . तो वह भी अदालत में पैसा पानी की तरह बहाने लगी। दिन, माह और वर्ष बीत रहे थे। दोनों तरफ़ वाद-विवाद होता रहा। धीरे-धीरे एक-एक करती ज़मीनें बिक गईं। खेत-खलिहान बिक गए। दोनों विवादी डटे रहे। दूसरे के हिस्से को दबोचने के लिए अपने अपने हिस्सों को बेचने लगे। नौबत अब चाँदी के बर्तनों को बेचने की आ गई। हवेली ख़ाली कर दी गई। हवेली नई माँ के नाम थी सो चारों बेटों ने अलग घर बसाए। केस सेशन कोर्ट, ज़िला कोर्ट, हाई कोर्ट के गलियारों को लाँघता हुआ अपने अंतिम पड़ाव सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच गया। कभी एक गुट की जीत होती तो कभी दूसरे की। लेकिन निगोड़ी आशा साथ न छोड़ती थी। काल जब सर पर मँडरा रहा हो तो क्या सूझ सकता है? जब तक सब कुछ न लुट गया, दोनों दल अपनी ज़िद पर अड़े रहे। अब लौटना भी असंभव था।
कई वर्षों की अंतहीन लड़ाई के बाद सुप्रीम कोर्ट का निर्णायक फ़ैसला आया कि जायदाद में सभी भाई समान हक़दार है। सबने सिर पीट लिया। इतनी प्रतीक्षा के बाद कुछ हाथ न लगा। सब बर्बाद हो गया था। अब जायदाद में बचा ही क्या था जो बाँटते और भोगते? सब वकीलों और अदालतों की भेंट चढ़ कर स्वाहा हो गया था। ख़ाली हाथ सभी मन मसोस कर रह गए। अब तो यह हाल था कि जीविका के भी लाले पड़ गए थे। नई माँ हवेली बेचकर अपने बच्चों को लेकर शहर अपने भाइयों के घर जा बैठी थी।
मुकुटधर शास्त्री के प्रथम चार बेटों में बड़ा बेटा नारायण उसी गाँव में किराए के मकान पर रहने लगा था। बाक़ी दो बेटे शहर की ओर कूच कर गए थे। अंतिम बेटे की किसी रोग वश मृत्यु हो गई थी और उसकी विधवा बहू सुभद्रा अपने जेठ नारायण के आश्रय में ही रह रही थी। गाँव वाले इस परिवार के वैभव को अभी भूले न थे। सो पिता का मान सम्मान नारायण को मिलता रहा और अब रही-सही वकालत पर किसी तरह उनका गुज़ारा हो रहा था।
नारायण की कई संतानें हुईं थीं लेकिन उनमें केवल चार संतानें जीवित बचीं थीं। दो पुत्र और दो पुत्रियाँ। सुमति चौथी संतान थी। बड़ी लाडली थी वो। लेकिन प्रसव के दूसरे दिन ही माँ को पक्षाघात (लकवा) मार गया था। शरीर का एक हिस्सा पूरी तरह से पंगु हो गया था। मुँह टेढ़ा होकर ज़बान बंद हो गई थी। केवल छोटी ध्वनियों के दो अक्षर वाले शब्द ही बोल पाती थी। नारायण ने पत्नी की अस्वस्थता के चलते अपनी संतानों के पालन पोषण में माँ और बाप दोनों की भूमिका निभाई थी। बड़ा रमाकांत और छोटा कृष्णकांत . . . दोनों को शहर भेज कर उच्च शिक्षा दिलवाई थी।
नारायण ने भी अपने पुत्रों की देख-रेख में कभी कोई कमी न आने दी। उनकी हर ज़रूरतों को वे प्राथमिकता देते थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा में पैसा पानी की तरह बहाया था। बड़ी लड़की सुमना और छोटी सुमति दोनों माँ की सेवा में लगी रहती थी। उन्हें नहलाना, खाना-खिलाना और उनकी सभी ज़रूरतों को बड़ी निष्ठा के साथ पूरा करतीं थीं।
दोनों पुत्र जब त्योहारों की छुट्टियों में घर आते तो घर का माहौल ही बदल जाता था। रमाकांत अपनी विधवा चाची से जो आयु में उससे दस साल बड़ी थी, बेहद सहानुभूति रखता था। जब भी शहर से आता तो अपनी चाची के लिए कुछ न कुछ अवश्य लाता था। दोनों छत पर घंटों बैठकर बतियाते थे। शहर की ऊँची मीनारों सड़कों और चमचमाती गाड़ियों की बहुत सी बातें रमाकांत के पास होती थीं जो सुभद्रा को विशेष आकर्षित करती थीं। लेकिन धीरे-धीरे कब यह आकर्षण प्रेम में परिवर्तित हो गया इसका भान दोनों को नहीं हुआ। दोनों एक-दूसरे के मोह में बँधते चले गए। प्रेम ने वासना का रूप ले लिया। जवान सुभद्रा के लिए रमाकांत अपनी दमित इच्छाओं की पूर्ति का माध्यम बन गया। माँ को इसकी भनक लग चुकी थी लेकिन अपंग और असहाय! सब देखते हुए भी चुप रहने को विवश!
जब भी रमाकांत को सुभद्रा के साथ देखती तरजनी नाक पर रखकर कह उठती, ’पाप . . . महा पाप . . . घोर पाप’!
चाची से अनैतिक रिश्ता? आख़िर चाची माँ समान होती है। छोटी माँ होती है।
लेकिन रमाकांत माँ को हिक़ारत भरी नज़रों से देखकर विषैली हँसी हँसता हुआ निकल जाता था।
बात तब खुली जब सुभद्रा को रमाकांत से गर्भ ठहर गया। पिता सब देखते हुए भी अनजान बने रहते थे। आख़िर जवान लड़के से कौन भिड़े? समझाने की कोशिश की तो थी लेकिन हठी वंशज किसकी सुने? पढ़ाई ख़त्म होते ही बीमा निगम में नौकरी लगी तो वह सुभद्रा के साथ शहर जाकर बस गया।
दूसरा बेटा कृष्णकांत भी स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी कर महाविद्यालय में प्रवक्ता बन गया था। उसने भी अपनी पसंद की कन्या से विवाह कर वहीं अपना घर बसा लिया था।
बड़ी लड़की सुमना का विवाह निकट गाँव के तहसीलदार से कर दिया गया था।
सुमति का विवाह सरकारी नौकरी में लगे गजानन बाबू से हुआ था जो बड़े ही सभ्य और भद्र पुरुष थे। नीति और उसूलों के पक्के। धर्मनिष्ठ और सत्यवान। सुमति अपने पति के साथ दिल्ली चली गई थी क्योंकि गजानन बाबू की प्रति नियुक्ति में दिल्ली में पोस्टिंग हो गई थी। उस समय दिल्ली जाना सात समुंदर पार से कम न हुआ करता था। पिताजी और माँ काफ़ी दुखी भी हुए थे लेकिन गजानन बाबू पर उन्हें पूरा विश्वास था सो निश्चिंत होकर उन्हें दिल्ली भेज दिया गया था।
शुरू होता है कथा का दूसरा पड़ाव।
गाँव में नारायण शास्त्री की वकालत अब पूरी तरह से ठप्प हो गई थी। उमर भी हो चली थी। अब उनके पास कोई केस न आते थे। कोई आय नहीं थी। रही-सही जायदाद भी पत्नी की दवा-दारू, दोनों बेटों की पढ़ाई और बेटियों के विवाह में ख़त्म हो गई थी। फूटी कौड़ी भी न बची थी। काश मुकुटधर शास्त्री जी ने अपने जीवन के अंतिम क्षणों में वह ग़लती न की होती तो इस परिवार की दस पुश्तें भी बिना किसी उद्यम के ऐशो-आराम से जी सकती थीं।
लेकिन नियति को कौन बदल सकता है? अब गुज़ारा होना भी मुश्किल हो गया था और नारायण दम्पत्ति पूरी तरह से बेटों पर आश्रित हो गए थे।
उनके लाड़ले सपूतों ने आपस में साँठ-गाँठ कर एक नियम बना दिया था। माता-पिता का महीने के पंद्रह दिन बड़े के घर में और पंद्रह दिन छोटे के घर में रहने का। हर पंद्रह दिन में अपनी अपंग पत्नी को लेकर नारायण शास्त्री को दूसरे बेटे के घर चले जाना पड़ता था। कभी इधर तो कभी उधर!
ज़िंदगी दूभर बन गई थी। बड़ी मुश्किल में दिन बीत रहे थे। माँ की दवा-दारू पूरी तरह से बंद कर दी गई थी। अब इस उम्र में उस असाध्य रोग की क्या दवा? बेटों ने साफ़ मना कर दिया था। सुमना भाइयों की नीयत जानती थी इसीलिए उसने आना ही बंद कर दिया था। लेकिन सुमति दूर महानगर में अपनों से अलग बहुत अकेलापन महसूस करती थी इसीलिए साल में केवल दस दिन जब गजानन बाबू छुट्टियों का प्रतिवेदन करते और अनुमति मिलती थी तो माँ बाबूजी को देखने अवश्य जाती थी। इस बार पिछले महीने ही जाकर लौटी थी। न चाहते हुए भी सब बातें याद आने लगी।
रिक्शे से उतरते ही सुमति बरामदे में खड़ी सुभद्रा चाची की ओर लपकी। चरण स्पर्श कर भैया का आशीर्वाद लिया लेकिन उसकी आतुर निगाहें माँ बाबूजी को ढूँढ़ रही थीं। जल्दी से कुशल क्षेम पूछ वह अंदर माँ के कमरे की ओर लपकी।
इस बार माँ बिस्तर पर लेटी हुई मिली थीं और पिताजी पर्दे के पीछे खड़े सुमति का आकुलता से इंतज़ार कर रहे थे। अंदर आते ही वह बाबूजी से लिपट गई। देखा बाबूजी काफ़ी दुबले हो गए थे। वह माँ के बिस्तर पर पहुँची। माँ ने उठने का प्रयत्न किया लेकिन उठ नहीं पाईं।
सुमति माँ से लिपट गई। आँखों से धारा बह चली। कुछ देर माँ का मुख हाथों में लिए सहलाती रही। फिर पिता की ओर मुड़कर बोली–
"पिताजी आपको पता था न मैं आ रही हूँ तो आप गेट पर क्यों नहीं मिले? मैं सबसे पहले आपको देखना चाहती थी। सिर्फ़ आपको। जाओ पिताजी, मैं आपसे नाराज़ हूँ।" सुमति बच्चों की तरह लाड जताने लगी।
"न बेटा, न।" पिता ने प्यार से सुमति को पुचकारते हुए कहा, "दरअसल तुम्हारी चाची और भैया ने हिदायत दे रखी थी कि मैं बाहर न निकलूँ, क्योंकि वे समझते हैं कि मैं आते ही तुमसे उनकी शिकायत कर दूँगा।"
सुमति अवाक् रह गई। पिता की आवाज़ बहुत धीमी थी। वह उनका मुँह ताकने लगी। इस उत्तर की उसे अपेक्षा नहीं थी।
उसने माँ की ओर ध्यान से देखा। माँ की साड़ी बहुत पुरानी हो चुकी थी। मन न जाने क्यों कुछ ग़लत सोचने लगा। वह कुछ समझ न पाई।
उसने अपने आपको सहज बनाते हुए कहा, "कोई बात नहीं बाबूजी मैं तो मज़ाक कर रही थी। आज से एक सप्ताह माँ का पूरा काम मेरा और आप मुक्त। ठीक है . . . और हाँ . . . माँ . . . आप क्यों बैठ नहीं पा रही हो? पहले तो उठकर मिलती थी, क्या हुआ?”
माँ ने कुछ इशारों से समझाने का प्रयत्न किया लेकिन तभी पिताजी बोल पड़े, "बेटा दस दिन पहले माँ नीचे गिर गई थी। शायद कूल्हे की हड्डी में कुछ चटक गया है। तब से दर्द में कराहती है। बैठ नहीं पाती। भैया होमियो का इलाज करवा रहा है लेकिन ज़्यादा आराम नहीं मिल रहा।"
सुमति ने सहारा देकर माँ को खड़ा किया। वो खड़ी न हो पा रही थी। बड़ी तकलीफ़ में थी। सुमति की ज़िद के कारण खड़े होने का प्रयास किया माँ ने। माँ के दोनों पाँव ज़मीन को न छू पा रहे रहे थे। एक पैर झूल रहा था। उसकी आँखें फटी रह गई। वह घबरा गई . . . तनाव में हड़बड़ा कर उसकी चीख़ निकल गई, "पिताजी आप क्या कह रहे है? हड्डी टूट गई है। साफ़ दिख रहा है। ऐसे में होमियो की दवा कैसे काम करेगी?”
पिताजी उसकी तेज़ आवाज़ से डर गए। उन्होंने सुमति को इशारों से धीमे बात करने को कहा। माँ भी काफ़ी भयभीत लग रही थी। उनके चेहरे सफ़ेद पड़ गए। सुमति कुछ समझ न पाई कि उसने क्या ग़लती कर दी? आख़िर माजरा क्या है? ये लोग किससे डर रहे हैं?
इतने में सुभद्रा चाची ग़ुस्से में आँधी की तरह झूलती हुई आई और कड़वाहट में फुफकारते हुए बोली—
"हो गई शिकायत हमारी? उगल दिया सब ज़हर? हम कितना भी करें कम है? अब तुम्हारे भैया सूख कर काँटा हो रहे हैं। धूप में एड़ियाँ रगड़ते हैं तो जाकर कमीशन मिलता है। महँगे डॉक्टर और इलाज हम नहीं करा सकते। अब कल छोटे बेटे के पास जा ही रहे हैं। वह तो प्रोफ़ेसर है . . . इलाज करवा देगा। और हमने यूँ ही नहीं छोड़ा। होमियो की दवाई बड़े से बड़े रोग का निदान है। और हाँ! देखो सुमति . . . तुम साल में एक बार मुँह दिखाई देती हो तो अतिथि बन कर ही रहो तो अच्छा है, ज़्यादा चिंता जताने की आवश्यकता नहीं। हम इन्हें अच्छे से ही रख रहे है।" सुभद्रा चाची के दाँत भिंच गए थे। मुट्ठियाँ तन गई थी। चेहरा लाल हो गया था।
पिताजी घबरा गए थे। वे दोनों हाथ जोड़कर सुभद्रा से धीमी आवाज़ में बोलने का अनुनय करने लगे। बरामदे में दामाद गजानन बाबू बैठे हुए थे। उनके सामने यह नाटक, यह ताड़ना सुनकर बाबूजी अपमानित महसूस कर रहे थे। सुमति अचंभित थी। वह कुछ कह पाने की स्थिति में नहीं थी। वह कभी बाबूजी को देखती कभी चाची को। समझ नहीं आ रहा था किसको मनाए। उसकी आँखें भीग आईं। उसने अपने जीवन में कभी बाबूजी को किसी के सामने हाथ जोड़ते इतना असहाय नहीं देखा था। आज उनकी यह दशा उसे हिला गई। हाथ जोड़े बाबूजी खड़े थे और वह भी किसके सामने? चाची के? जिसके तो वे आश्रयदाता थे!
सुमति वह दृश्य देख न सकी। वह अपने आप को रोक न पाई। भाग कर गई और बाबूजी की जुड़ी हथेलियों को थामे उन्हें अंदर धकेलते हुए कमरे में लेकर आ गई। उसके लिए यह सब बिल्कुल अप्रत्याशित था। सुभद्रा चाची का यह रूप उसे भी डरा गया था।
वातावरण कड़वाहट से भर गया था। सब चुप थे। कोई कुछ बोल नहीं रहा था। माँ पिताजी की आँखों में तरावट आ गई थी। लज्जित से बैठे थे। सुमति ने अपने आपको सँभाला और धीमे क़दमों से चुपचाप रसोई की ओर बढ़ चली।
चाची अंदर कुढ़ती बड़बड़ाती हुई हाथ चला रही थी। डरते-डरते सुमति ने कहा, "न चाची मैंने कब कहा आप सही देखभाल नहीं कर रहे? आप तो बहुत अच्छी तरह से देख रहे हो। वैसे हड्डी टूटने पर बहुत दर्द रहता है न इसीलिए और माँ तो बोल भी न सकती है। बुरा न मानो चाची। मैं कभी तुम्हें दोष नहीं दे सकती।" सुमति चाची का हाथ पकड़ कर रो पड़ी थी।
दोपहर खाने के बाद उसने अटैची में से दो सूत की साड़ियाँ निकाली और माँ को दिखाने लगी। माँ को बहुत पसंद आईं थीं। बाबूजी के लिए भी वह धोती लाई थी। दोनों की आँखों में ममता चमक उठी थी। वे कितने ख़ुश हो गए थे। दिल्ली से आते वक़्त उसने सभी के लिए कुछ न कुछ ख़रीदा था। यह उपाय भी गजानन जी का ही था। उपहार पाकर सभी ख़ुश हो गए थे और उस दिन का वातावरण कुछ हल्का हो गया था।
अगला दिन महीने की अंतिम तारीख़ थी यानी तीस तारीख़! अचानक पिताजी को याद आया कि आज तो उन्हें छोटे बेटे के पास चले जाना है।
कुछ सोचते हुए वे जल्दी से रमाकांत के कमरे में गए। रमाकांत ऑफ़िस के लिए तैयार हो रहा था। गजानन जी बरामदे में अख़बार पढ़ रहे थे। सुमति और चाची रसोई में थी।
पिता ने अति विनम्र शब्दों में धीमे से कहा, "बेटा रमा! सुमति कल ही आई है। अभी ठीक से बात भी न हो पाई है। और आज हमें छोटे के पास जाना होगा। क्या इस बार और दो दिन हम यहाँ रह नहीं सकते? बस दो दिन। उसके बाद चले जाएँगे। तुम सुभद्रा को मना लो बेटा। दामाद जी घर पर हैं। अच्छा नहीं लगेगा। बस दो दिन।"
रमाकांत की पेशानी पर बल पड़ गए। उसने आवाज़ ऊँची करके कहा, "पिताजी आप क्या कह रहे हैं? मैंने ने एक सप्ताह पहले ही छोटे को पत्र लिखा है। इस बार वह ही आ रहा है आपको लेने। तीनों की टिकट भी कटवा दी है। सब पैसा बर्बाद हो जाएगा। और सुमति तो हर साल आती रहती है। कहाँ भागी जा रही है? सुभद्रा को आपकी यही बात नहीं भाती। अब आप बिना कुछ कहे चले जाइएगा। सुमति को कुछ नहीं बताइए। अच्छा . . . मुझे देर हो रही है।"
पिताजी के बाक़ी शब्द गले ही अटक गए थे। पाँव काँपने लगे। वे वहीं बैठ गए। रमाकांत जा चुका था। बरामदे में बैठे दामाद जी ने सब सुन लिया था।
पिताजी कुछ देर बाद सर झुकाए धीरे से निकले और अपने कमरे की ओर चले गए।
अब तक गजानन बाबू ने सर उठा कर भी न देखा था। वे भी उठे और चुपचाप बाज़ार की ओर निकल गए।
उस शाम माँ का दर्द बहुत बढ़ गया था लेकिन डर के कारण वह कुछ कह भी न पा रही थी। सुमति बहुत विचलित हो रही थी। माँ का दर्द देखा न जा रहा था। वह उठी और पिताजी के पास जाकर बहुत धीमे स्वर में बोली, “बाबूजी, आप दोनों दिल्ली चलो न। आपके दामाद भी कह रहे थे। वहाँ कुछ समय गुज़ार सकते हो। जब माँ ठीक हो जाएगी मैं वापस भेज दूँगी।"
"न बेटा। अनजान जगह, अनजान शहर . . . अनजान भाषा। कल कुछ ज़रूरत पड़ जाए तो तुम अकेले कहाँ मारे-मारे फिरोगे। यहाँ की धरती में अपनापन है। यहाँ की भाषा अपनी है। हमें यहीं रहने दो।" पिताजी का गला रुँध गया था।
माँ भी इशारे से समर्थन कर रही थी।
शाम के चार बजे छोटा भाई आ पहुँचा था। वह सुमति से औपचारिक कृत्रिम मुस्कान से मिला। सुमति हैरान हो गई थी। भैया गजानन जी से बतिया रहे थे। सात बजे की गाड़ी थी। पिताजी कपड़ों की गठरी बाँधते हुए कुछ विकल लग रहे थे। उसने एक नज़र माँ-बाबूजी पर डाली और भारी मन से चाची का हाथ बटाने रसोई में चली गई।
चाची बड़बड़ाते हुए खाना बाँध रही थी। सुमति को देखकर बोली, "देखो यह छोटा कितनी डींग मारता है . . . लेकिन है बड़ा कंजूस। इनको ले जाते बक्त रात का खाना चार रोटी भी बाँध कर देना पड़ता है। रेल गाड़ी में खाना तक नहीं खरीदता। पूछो तो कह देता है कि आज रात तक तुम्हारा जिम्मा! . . . और लाते बक्त दोपहर का खाना देकर भेज देता है। दोनों रात यहीं आकर खाते हैं। देखा . . . है कितना चालाक। हर बार एक समय का इनका भोजन बचा लेता है। आखर प्रोफेसर जो है।"
सुमति और सुन न सकी। लगा कान फट जाएँगे। अंदर कुछ जलने लगा। उबकाई सी आने लगी। भाग कर अंदर माँ के कमरे में गई और पिताजी के हाथ से कपड़ॊं की गठरी छीनकर छोटे भाई के लिए लाया मिठाई का डिब्बा अंदर ठूँस दिया। उसने पिताजी को चुप रहने का इशारा किया। उसका पूरा बदन जल रहा था। असहनीय पीड़ा हो रही थी। उसने माँ को देखा . . . माँ के चेहरे पे फीकी सी हँसी थी।
बड़ी मुश्किल से आँसू रोकते हुए सुमति ने पिताजी को गले लगाकर उनके कान में धीरे से कहा, "बाबूजी यहाँ मंदिर में मन्नत है। कल जाएँगे दर्शन करेंगे और शाम को हम तुम्हारे पास वहाँ आ जाएँगे। मैं यहाँ तुम लोगों के बिन नहीं रहूँगी। मुझे माँ के पास रहना है। आज आप जाइए कल मैं आ जाऊँगी। कल रात आपके दामाद भी यही कह रहे थे।"
सुमति माँ के पास आई और उनके चेहरे को हाथ में लिए पागलों की तरह चूमने लगी जैसे उसकी माँ छोटी सी बच्ची हो। माँ का चेहरा उसके आँसुओं से तर हो गया था। दोनों जी भर के रोईं थीं . . .
और . . . और फिर वे तीनों . . . माँ बाबूजी और भैया चले गए थे।
पिछले सप्ताह पिताजी का पत्र आया था। लिखा था . . . माँ की तबीयत बहुत बिगड़ गई है। टूटी हड्डी का समय पर सही उपचार न होने के कारण संक्रमण फैल गया है। पूरी रात दर्द के मारे सो नहीं पाती।
और आज यह तार . . .
पंडित मुकुटधर शास्त्री की बड़ी बहू . . . श्री नारायण शास्त्री की अर्धांगिनी . . . रईस ज़मींदार ख़ानदान की मालकिन . . . का इतना भयानक दर्दनाक अंत! . . . . . . उफ्फ . . . . . . सुमति ने कान बंद कर लिए।
"ये ऐसे क्या यहाँ बैठी हो सुमति अँधेरे में? और सात बज गए . . . अभी तक बत्ती क्यों नहीं जलाई? क्या हुआ?” सुमति आवाज़ सुनकर होश में आई।
गजानन बाबू दफ़्तर से आ गए थे। अँधेरा हो गया था।
वह बावली सी नज़रों से उन्हें देखने लगी, "तार आया था . . . एक बजे . . . बहुत बड़ी ख़ुशख़बरी है . . . माँ नहीं रही . . . अब कोई दर्द नहीं . . . कोई दवा नहीं . . . कोई खाना नहीं . . . चाची की रोटियाँ भी बच गईं . . . है न? अच्छी ख़बर है न . . . लेकिन देखो तो . . . मुझे रोना आ रहा है? मैं भी पागल हूँ, मुझे तो ख़ुश होना चाहिए . . . क्यों . . . पता नहीं क्यों . . .”
पागलों की तरह चीख़ती हुई सुमति दहाड़ मार कर रोने लगी। अब तक जो अंदर था . . . बाहर बहने लगा।
गजानन जी वहीं ठिठक गए।
"तार कहाँ है? बोलो . . . तार कहाँ है? उन्होंने पास आकर सुमति को झँझोड़ते हुए चिल्लाकर पूछा।
‘यहीं तो था . . . पता नहीं . . . चला गया माँ के साथ।"
वह बेतहाशा हँसने लगी।
उसकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी। गजानन जी तार के उस टुकड़े को ढूँढ़ने लगे।
अचानक बरामदे में एक कोने में धूल से सना काग़ज़ का टुकड़ा उन्हें दिखाई दिया।
उनकी निगाहें उस पर लिखे शब्दों को पढ़ने लगीं —
"बेटा सुमति! आज सुबह पाँच बजे ब्रह्म मुहूर्त में तुम्हारी माँ को संसार से मुक्ति मिल गई।"