मुक्ति बोध (कहानी) : राजिन्दर सिंह बेदी
Mukti Bodh (Hindi Story) : Rajinder Singh Bedi
यक़ीन मानिए, इसमें नंद लाल का ज़रा भी क़सूर न था। वो क्या करता? उसकी फ़िल्म अंबिका, चल गयी थी।
मैं भी हद हूँ जो हिन्दी फ़िल्म के सिलसिले में मंतिक़ की बात करने जा रहा हूँ! इस पर मैं कहूँगा कि जिस मंतिक़ से हिन्दी फ़िल्म फ़ेल होती है, उसी से चल भी जाती। जैसे उसे कोई ज़िद हो जाती है, चलने या न चलने की। ऐसी ही ज़द में नंद लाल की पहली दो फिल्में पिट गई थीं, हालाँकि उनमें से एक में हीरोइन, स्टूडियो की बरसात में भीगी भी थी, कपड़े उसके बदन के साथ चिपके भी थे। मा’लूम होता था जैसे कपड़े एका एकी कहीं नीचे चले गये हैं और बदन छटपटा के ऊपर आ गया है। भीगने से पहले कितनी मुफ़लिस और नादार सी मा’लूम होती थी, लेकिन जब किया मालदार नज़र आ रही थी वो। दूसरी फ़िल्म में हीरो ने ख़ाली हाथों, गुल-दानों, सोफ़े की टांगों, लैम्प शैड शेजलियर की ज़ंजीरों और जाने किन-किन हथियारों से काउ ब्वॉय विलेन और उसके दर्जन भर साथियों को फ़राश कर दिया था। कैसे वो उलटे शॉट में उछल कर मेंज़नीन फ़्लोर पर पहुंच जाता था, जहां एक रस्सा होता है। हमेशा होता है, जिस पर वो झूलता हुआ फिर नीचे के दोज़ख़ में कूद जाता है। जभी विरोधी दिल में से किसी ने आनन फ़ानन उठ कर पानगे से हीरो का सर काट दिया... जी, बिल्कुल ही काट दिया। या’नी सर अलग और धड़ अलग। लोग हिरासाँ हो गये। अब क्या होगा? अरे ये तो बिल्कुल ही मर गया! वो जानते थे कि फ़िल्म का हीरो मर ही नहीं सकता और फिर हिरासाँ भी होना चाहते थे। हीरोइन को शादी किए बिना ही विधवा कर गया तो इस संसार का क्या होगा? सृष्टि कैसे चलेगी? मगर मानिए तो... कहाँ मरा वो? जभी देखने में कंक्रीट की दीवार से देवी प्रकट हो गई और नृत्य के सब नियमों का पालन करते हुए, हीरो के पास चली आई। उसके कटे हुए सर को मुद्रा में उठाया। ऐसे धीरज से कि उसे दर्द न हो, और फिर उसे धड़ के साथ लगा दिया। सर लगते ही हीरो ने पहले एक छींक मारी, फिर उठा और हरी बोल, कहता हुआ एक तरफ़ यूं चल दिया, जैसे कोई बात ही नहीं। कोई दुआ न सलाम, शुक्रिया न डन्डवत। लेकिन जब हाल में क्या तालियाँ पिटी थीं। अगर फ़िल्म के आख़िर में लोगों ने नंदलाल को पीट डाला, तो इसकी वजह स्क्रीन प्ले की ग़लती थी... बात यूं हुई कि देवी के हाथों से तो वो बच गया, लेकिन कुछ देर बाद बाहर जा कर समुंदर में डूब गया!
जब नंद लाल कोई बी.ए फ़ेल न था, जैसे अब अंबिका के बाद वो पास नहीं। वो तो वही था। फिनांस ब्रोकर, जो अपनी हाजतों के पेश-ए-नज़र, रूपया लौटा दिये जाने पे भी हुन्डी वापस न करता। कहीं साल एक के बाद उसे फिर अपनी भुलक्कड़ असामी के सामने पेश कर देता। मगर, एक बात है, नंद लाल जब भी पहले ख़ुद हर किसी को नमस्कार करता था जैसे आज भी करता है, वर्ना फिल्मों में ये ख़िलाफ़-ए-वज़ा फ़ित्री बात है। यहां तो जो आपके सलाम का जवाब न दे, समझो उसकी फ़िल्म चल गयी और अगर आपसे पहले विश करे तो घोटाला हुआ।
नंदलाल की शक्ल में कोई ख़ास बात न थी। हमारी आपकी तरह का आदमी था वो। आम हिंदुस्तानी क़द, वही रंग रुप, वही चेचक के दाग़ जो बचपन में बहुत नुमायां होते हैं, लेकिन जवानी में ताक़त पकड़ने में अपनी ही एक दाब, एक छाप हो कर रह जाते हैं, बीच में अज़लात की सुकड़न छोड़ जाते हैं। अलबत्ता जिसमें आदमी बात करने में सर को छोटे-छोटे झटके देता है, आप इससे उधार लेने जाएं तो आख़िर दम तक यही लगता है वो देगा, नहीं देगा, देगा, नहीं देगा...
गुंफा से गद्दियों तक आप हिंदुस्तानी सनों को जमा करें और उनकी ता’दाद से हासिल-ए-जमा को तक़सीम करें तो जो औसत निकलता है, वो नंद लाल की शक्ल है। नहीं, ऐसे शायद मैं आपको समझा नहीं पाऊँगा। आप यहां से ईरानी होटल कूलार की तरफ़ चलें तो रास्ते में दो नुक्कड़ पड़ते हैं। उन पर लड़ने वाले हर तीसरे अलल टप आदमी की शक्ल नंदलाल की सी होगी। अब समझे न आप? ठीक है कृष्ण कन्हय्या का एक नाम नंदलाल भी है, मगर कृष्ण कहाँ के गोरे चिट्टे थे? वो भी तो भारत वर्ष में उत्तर और दक्कन के मेल की एक नाकाम सी कोशिश थे।
नंद लाल को अपने नाम के आ’मियाना होने से बहुत चिढ़ थी। मगर वो क्या करता? नाम भी तो वजूद की तरह आदमी के साथ यूं चिपक जाता है कि एक ही बार उतरता है। वो चिढ़ दरअसल पैदा की गई थी। ऐसी हरकतें बिलउ’मूम औरतें करतीं हैं, अपने वजूद को भूल कर... फ़िल्मी लड़कियां उसे कहतीं... क्या महा-भारत के ज़माने का नाम रख दिया तुम्हारे माँ बाप ने। अब अश्वनी कुमार को देखो। हम उसे प्यार से अश्शो अश्शो तू पुकार सकती हैं। नंदू क्या अच्छा लगता है? मा’लूम होता है जैसे ठेंगा है। चुनांचे नंदलाल ने बाक़ायदा और क़ानूनी तौर पर अपना नाम देवेंद्र कुमार रख लिया, इस उम्मीद में कि रिहाना और जयश्री उसे देबो देबो कह कर पुकारेंगी तो कितना अच्छा लगेगा। इस सिलसिले में उसने एक पार्टी भी की जिसमें स्काच चली, कबाब कॉर्नर से अफ़्ग़ानी कबाब और टिक्के भी आये। पाँच साढे़ पाँच हज़ार का ख़र्च भी हुआ, लेकिन नतीजा क्या निकला? हर दूसरे तीसरे उसे कोई मिल जाता और कहता... अरे नंद लाल, सुना है तू ने अपना नाम बदल लिया है? एक दिन रीनू आई जो पार्टी के दिन आउटडोर कर रही थी। बोली... इतनी बड़ी पार्टी कर दी, नंदलाल जी और हमें पूछा ही नहीं। बीवी कहती... मैंने तो उसी से शादी की थी, मैं कोई दूसरा नहीं जानती। कोई मेम थोड़े हूँ में,जो आज एक के साथ हो और कल दूसरे के साथ। मेरा तो वही है... और फिर पास बैठी हुई औरत नाम ले देती... नंद लाल...! रोल मांगने के लिए ऐक्टर लोग दफ़्तर में आते ही थे, चुनांचे उस दिन भी देवेंद्र कुमार इस्सर का नाम पढ़ कर एक चला आया। बाहर स्टूल पर बैठे हुए चपरासी ने कहा, हाँ, साहिब अन्दर हैं। ऐक्टर अन्दर जाते ही उन्हीं पांव पर वापस चला आया... वहां तो कोई नहीं, वही नंद लाल बैठा है!
नंद लाल का मकान मा’मूली था और बीवी भी मा’मूली, मगर कुछ नव दौलतों की बातें चली आई थीं इसमें अम्बिकाए जाने के बाद। उसने नई कार ख़रीदी, लेकिन उसे बीवी की अरदल में दे दिया और ख़ुद उसी खट्टारे में घि-घिच करता रहा क्योंकि वो लकी था। स्पेयर जूतों की तरह से रहने पर भी नंदलाल बड़ा मकान लेने से डरता था। इसलिए नहीं कि कल कलां शायद इसी में लौटना पड़े, बल्कि इसलिए कि इसके भाग्य उदय होने की श्रीगणेश इसी लातूर भवन के दो कमरों और बालकोनी से हुई थी। चुनांचे उसी की दीवारों पर उसने सख़्त चमकीले, भड़कीले, चक्कू मारवाड़ी रंग पोत लिये थे। फ्रिज, टेलीविज़न तो आज हर अनंतराम, बे-अंत सिंह के पास होते हैं, इसलिए कहीं तो इम्तियाज़ी शान पाने की फड़फड़ाहट और बीवी को ख़ुश करने की लालसा में उसने अपने डबल बेड के पाए चांदी से मढवा लिये और बीवी बार-बार पहलू बदल कर अपने पति की बे-ख़्वाबी का साथ देने लगी। सब कुछ कितना फ़रावाँ और कम-कम मा’लूम होता था। एक वो वक़्त था जब फ़र्श भी अ’र्श था उनके लिए और एक ये, जिसमें अ’र्श भी सर पीट कर रह गया था। बहरहाल नंदलाल को जो भी करना था, उन्ही दो कमरों में और जो नहीं करना था वो भी उन्ही में।
नंद लाल के इर्दगिर्द की सब चीज़ें आ’मियाना बल्कि सोक़ियाना होने के बावजूद एक चीज़ बड़ी अच्छी थी जो पोरबले जन्म के किसी फल में चली आयी थी, और वो थी मोर्निंग गिलौरी की बेल जो कैसी बे-ख़ुदी से उसके घर की दीवारों पर लपकी थी। उसमें स्कार्लेट ओहारा के फूल फूटकर हर आते-जाते के अंदर लाल बुख़ार पैदा करते थे। लोग आ’म तौर से यही समझते थे कि इस घर के बासी कितने ताज़ा हैं, कितने ख़ुशमज़ाक़ हैं। फिर उनके जल्वे मैं रियाज़ करती हुई किसी लड़की की आवाज़ मिल जाती,
पनघट पे नंद लाल मुझे छेड़ गयो रे
और सुधा, नंद लाल की बीवी उठ कर सब खिड़कियों के पट बंद कर देती।
फ़िल्मी इश्तिराकियत में कोई अकेला नहीं खाता... खा भी नहीं सकता। किसी के अम्बिकाए जाते ही सब के कान हो जाते हैं और वो गंगटोक की जोंकों की तरह से कुछ यूं चिमटते हैं कि आदमी को पता ही नहीं चलता। इधर आदमी गिरता है, उधर जोंकें गिर जाती हैं नंदलाल का सा असील आदमी यही कहता हुआ पाया जाता है... अच्छा, तुम मेरे ताऊ के ममेरे बेटे हो,अच्छा? हाँ, हाँ, सुना था तुम्हारे बारे में क्या करूँ यार, जब से अंबिका चली है, मेरा फ्यूज़ ही उड़ गया है। बस, देवी माँ की मेहरबानी है... क्या पियोगे? और वो ममेरा भाई पीने की बजाय खाने बैठ जाता है और हमेशा खाता रहता है।
रात बीवी जब मियां के साथ भिंच कर लेटती है तो कहती है... हाय जी! तुम्हारे पिता का तो बड़ा भाई था ही नहीं कोई...
एँ? नंद लाल कहता है उनका कोई दोस्त होगा। सो जाओ, सर मत खाओ मेरा।
हीरालाल पांचवां वर्ण है जो आद से चला आया है। हैरानी की बात है कि वो मनु महाराज की गिनती में क्यों नहीं आया? पेड़ अलग, पत्ते अलग तो दीमक और अर्ज़ भी अलग होते हैं।
और आज तो इस पांचवें वर्ण के बिना वाफ़र पैसे और अंबिका का कोई हल ही नहीं...
जितना आप इस कासा-लैस नस्ल को ख़त्म करने की कोशिश करेंगे, उतनी ही इसमें लचक, उतना ही चोंचालपन और मुक़ावमत पैदा हो जाएगी। कुछ देर के बाद कॉकरोच और चूहे ज़हर की गोलियां हज़म करना सीख जाते हैं। आज कोई नहीं कह सकता कि उसे ख़ुशामद-पसंद नहीं। नहीं वो ख़ुदा से भी बड़ा हो गया। फिर आप अगर पहलू बदलते हैं तो ये वर्ण भी नया पैंतरा पेश करना जानता है। आज का तुफैलिया कभी भी सीधे-सीधे मर्द को अक़लमंद और औरत को ख़ूबसूरत नहीं कहता। वो हमेशा कहता है... नाक कैसी भी है, मगर तुम्हारे चेहरे पर फबती है, भाबी... ख़ूबसूरती का यही मतलब नहीं कि रंग गोरा हो... आजकल तो।
रंड साला सारा दिन अपनी ज़बान और सामने वाले के कान की मालिश करता रहता है। ये जो आदमी सुधा और नंदलाल के पास आया था, उसका नाम हीरा था। शायद लाल भी हो... हीरालाल। नासिर, जोशी, पांडे, रामनिवास के तरीक़े अलग थे और हीरालाल के अलग। वो फिल्मों में प्लेबैक सिंगर होने आया था। हीरा आज के ज़माने का आदमी था। उसकी शक्ल मॉड थी और अक़्ल भी मॉड। उसके बाल बेतरह लंबे थे और घने, घिनौने। इन्सान के होने के बजाय वो किसी घोड़े के मा’लूम होते थे। मगर ब्रिल क्रीम की करिश्मा-साज़ी से इताअ’त पज़ीर हो कर वो कुंडल और कड़ियाँ बन कर कांधे और गले में लटक रहे थे। हीरालाल जिसका मुक़द्दर पांचवां वर्ण था, यूं पहले वर्ण का आदमी था। ब्राह्मण, उसका रंग खिलता हुआ था और सुर्ख़ भी, जैसे पल्ले से पी हो। गोल चेहरे को लंबी क़लमों ने फ्लैंक कर रखा था। यूं मा’लूम होता था जैसे वो राज भवन है जिसके फाटक पर गार्ड हाथों में बंदूक़ें लिये खड़े हैं। बुशर्ट उन्नाबी, फ्लेयर्ज़ सीमाबी। ऐसा तज़ाद नादारी की वजह से होता है और या फिर उस वक़्त जब आदमी कपड़े की हद से गुज़र जाता है और फ़न के औज को छू लेता है। उस की सप्तम का सा कहीं गले में बैठ गया था। जब वो गाता तो औरतों में कोई बेनाम से जज़्बे पैदा हो जाते।
हीरालाल की भी एन्ट्री फ़िल्म जगत में आबाई जायदाद को बेच कर आने से हुई। उसने भी फ़िल्म बनाई और ख़ुदा आपका भला करे, मार खाई। उसके गिर्द भी पांचवें वर्ण के बीसियों आदमी जमा हो गये और उसे जीनियस साबित करके चलते बने। कितने साँप लोटे होंगे हीरालाल के सीने पर जब अपनी ही फ़िल्म में उसे पापूलर प्लेबैक सिंगर को लेना पड़ा क्योंकि म्यूज़िक डायरेक्टर नामी था और उसने ज़िद पकड़ ली थी। यहां कोई किसी नये आदमी को आज़माने की हिम्मत नहीं रखता, ये जानते हुए कि किसी वक़्त वो भी तो नया था और किसी ने उसे चांस देने की हमाक़त की थी। एक ख़ला और ख़ौफ़ हैं जो हर-आन फ़िल्म इंडस्ट्री के अज़हान का अहाता किए रहते हैं। बड़े-बड़े भी किसी दूसरे बड़े के सहारे बड़े पकाते हैं।
हीरा को ग़लतफ़हमी थी कि उसकी फ़िल्म इस बड़े प्लेबैक सिंगर की वजह से पिटी। उसका ये वहम ख़ुदपरसती पर नहीं तो और किस बात पर मबनी था? वो ये जानना ही न चाहता था कि फ़िल्म की आमिरीयत में प्लेबैक सिंगर तो एक मा’दिनी शैय है, पैसे की ऑक्सीजन बनाने के लिए जिसे इस्तिमाल किया जाता है। असल बात तो हीरो है और हीरोइन... और कहीं-कहीं बीच में डायरेक्टर।
रह-रह कर हीरा को मुक्तिबोध की याद आती थी। वो होते तो उसकी ये दुर्गत न होती। मुक्तिबोध अपने ज़माने के टाप के म्यूज़िक डायरेक्टर थे। कभी पूरे देस में उनकी धुनीं गूँजी थीं। लेकिन जब से चोरी यारी रिवाज हुए, वो पिछड़ गये। ता’य्युश के इस क़ानून में वो यक ज़ौजा आदमी उम्र-भर एक ही महबूबा को निहारते रहे,जो अब उनका मुँह चिढ़ाती, उन्हें गाली देती थी और जिसका नाम था, संगीता भारती!
इस पर भी मुक्तिबोध इसी जोश-ओ-ख़रोश से ख़ल्लाक़ी की बातें करते थे। लोग उन्हें मुँह पर तो कुछ न कहते, लेकिन कुछ दूर जा कर हंस देते। उनकी ग़ज़ल तक का भेस अब भी पहाड़ी, तिलक कामोद,या गोड़ी पूरबी होता, हालांकि आज का तक़ाज़ा था कि सर शोपां का हो, धड़ हरीसन का और पांव... किसी के भी।
हीरा का बाल बाल क़र्ज़ में बंध गया था और अब वो उस मंज़िल पर पहुंच गया था, जिसमें आदमी आख़िर बे-हयाई इख़्तियार कर लेता है। कपड़े झाड़कर उठता और तशन्जी अंदाज़ में पूरे बाज़ू फैला कर कहता है, कुछ नहीं है मेरे पास देने को। बिगाड़ लो जो बिगाड़ना है मेरा। सेठ लोग सोचते अब उस का और बिगड़ ही क्या सकता है? हौसले वाले उसके लिए दुआ करते, पच्चीस-पच्चास और भी देकर जाते, थुड़विले दीवारों से सर टकराते और या फिर कचहरियों में धक्के खाते।
कभी एक हाथी मेरे साथी को हीरा ने फ़्लैट लेकर दिया था। एहतियाज में हीरा उसी में उठ आया, लेकिन वहां भी फ़ोन पर फ़ोन आने लगे। ये आला जो करोड़ों का कारोबार करता है और या फिर आ’शिक़ों की चू-चू, मू-मू की तर्सील, हीरा के लिए फनेरा साँप हो गया। आख़िर एक सुहानी सुबह को हीरा के उस परवरदे ने उसका सामान उठा कर सड़क पर रख दिया, जो सामान भी न था।
वहां, राशन की दुकान के नुक्कड़ से, जो अब हीरा का रैन-बसेरा हो गया था, एक ही ख़ूबसूरत चीज़ दिखाई देती थी नंद लाल के मकान पर लपकी हुई बेल!
मगर जब अंबिका शुरू भी नहीं हुई थी तो हीरा ने नंदलाल को आते-जाते देखा था। ये मबादा के अंदाज़ में उसे नमस्ते करता था और वो ‘शायद’ के अंदाज़ में जवाब देता। फिर पब्लिक लैटरिन के नल से धोए बनाए हुए कपड़ों में हीरालाल, श्री रोकड़ा के पास गया, जो बहुत ही नामी प्रोडयूसर था। लेकिन उसने अपने इस नियाज़मंद को देखने तक की पर्वा न की। हीरा कुछ समझ गया जब तक कोई आदमी ख़ुद को किसी के लिए नागुज़ीर न बना ले, काम चलते हैं भला? उसने रग्घू दलाल से दोस्ती दोहरा ली और नाज़ सिनेमा के पास काफ़ी हाऊस में जाने लगा, जहां कसैली काफ़ी की एक प्याली और भुने सडे हुए केशोनट के चंद दानों पे फ़िल्म वालों की क़िस्मत बन या बिगड़ जाती है। रग्घू ने हीरा की मदद करने का वाअ’दा किया। हीरा आख़िर दम तक यही समझता रहा, रग्घू वो सब मेरे लिए कर रहा है मगर वो तो रोकड़ा के अंगूठे का निशान चाहता था।
अपने सेठ से बात कर लेने के बाद रग्घू, हीरा के साथ रोकड़ा के हाँ पहुंचा। इतने कम सूद पर किसी को पैसा मिले तो कौन छोड़ता है? जितना बड़ा प्रोडयूसर हो, इतना ही सूद कम लगता है और जितना सूद ज़्यादा हो, इतना ही प्रोडयूसर कम हो जाता है।
रोकड़ा को फ़ोन हो चुका था। जब हीरा और रग्घू, बल्कि रग्घू और हीरा उसके पास पहुंचे तो उन्होंने ख़ुद आकर दरवाज़े पर इस जोड़ी को रिसीव किया। अपने फ़िल्मी सेट के से ऑफ़िस में चैक टी सेट में उन्होंने ख़ुद अपने हाथों से चाय बनाई और पिलाई। बातों में जब रोकड़ा साहिब ने कहा... हाँ, हाँ, मैं हीरालाल जी को बड़ी अच्छी तरह से जानता हूँ, तो दोनों हीरालाल और रग्घू ने एक दूसरे की तरफ़ देखा। हीरा ने नाज़ से, रग्घू ने नयाज़ से। फिर अंगूठे का निशान या’नी दस्तख़त वग़ैरा हुए, रक़म इस जेब से उस जेब में गयी और दोनों ख़ुश ख़ुश लौटे। कुछ ही दिनों में हीरालाल को पता चल गया
हीरालाल ने देखा उसकी असल जगह वही है, जहां रोकड़ा साहिब का चपरासी बैठता है। बाहर वही दरवाज़े पर की सुर्ख़ बत्ती साहिब के मसरूफ़ होने की निशानदेही कर रही थी। हीरा बाहर बैठा हुआ सोच रहा था कि साहिब मसरूफ़ भी रहेगा तो कितना दो घंटा, चार... पाँच... उसे ख़बर न थी, घंटे दिन में बदल सकते हैं और दिन महीनों में।
बीच में रग्घू ने हीरा को इस आलम में देखा भी और कहा... तू तो कहता था रोकड़ा तेरा बड़ा यार है, यार? वो तो मैं अब भी यही कहता हूँ... हीरालाल ने घबरा कर जवाब दिया, आख़िर इन्सान है, इससे कभी मस्रूफ़ियत हो ही जाती है...
हे भगवान मुझे आख़िर चाहिए क्या था... यही ना, एक प्ले बैक, रोकड़ा के पास!
ये ऐसे ही था, जैसे कोई मुफ़लिस ऊपर देखकर कहता है अल्लाह! मैं तुझसे आख़िर मांगता ही क्या हूँ, यही दो रोटियाँ ना?
हीरा की फ़र्याद उस मुफ़लिस की फ़र्याद से भी ज़्यादा अंदोहगीं थी। ग़रीब, ख़ुदा के साथ जूआ खेलता भी है, तो स्टेक क्या होता है उसका... यही दस पैसे ना?
रोकड़ा दूसरे करोड़ की फ़िक्र में है। मैं अभी पहले करोड़ की... और हंसी, जो रोना भी न थी।
पैसा उसके पास आता है, जिसके पास पैसा हो। इसलिए हीरा भीक मांग कर भी कुछ पैसे जेब में डाल लेता था, सौगन्द लेकर कि वो इस गदागरी को पेशे के तौर पर कभी इख़्तियार नहीं करेगा।
काम उसके पास आता है, जिसके पास पहले ही काम हो। इसलिए हीरा सरीहन झूट बोलता था... पाँच पिक्चरों में प्ले बैक दे रहा हूँ मैं। कोई शुरू नहीं हुई, कोई हो रही है। गोया उसने तीन रुपये कमाए, जिनमें दो खोटे थे और एक चल नहीं रहा था। जो चल नहीं रहा था, उसे तीन सर्राफों को दिखाया, जिनमें से दो अंधे थे और एक को दिखाई नहीं दे रहा था, वग़ैरा...
बीच में हीरा की मुक्तिबोध से भी मुलाक़ातें हुईं। ये कि उनकी हालत और भी ख़स्ता हो गई है। हीरालाल को उनकी बातों से पता चला... बरपशम क़लंदर! जिसे मेरे पास आना है आये, नहीं आना न आये। मैं न गया किसी के पास। ग़ज़ब ख़ुदा का, ये घमसान का म्यूज़िक देने के बाद भी अगर लोग मुझे भूल गये हैं तो भूल जायें। और फिर, ये हो क्या रहा है दुनिया में। झूट का मोल है, सच अनमोल हो कर रह गया है!
मुक्तिबोध को चाहिए था घर से बाहर निकलते,ताकि उसे देखकर ही किसी को तो भूले-बिसरे याद आ जाये और कुछ नहीं तो खुली हवा से फेफड़े ही साफ़ हो जायें।
एक-बार वो निकले भी... और तो और इसी संगीता भारती ने कूड़े की टोकरी उनके सर पे ख़ाली कर दी!
पैसे को औरत चाहिए, तो औरत को भी तो पैसा चाहिए!
उसके बाद मुक्तिबोध अंदर ही अंदर, और अंदर अपने आप में सिमट गये, जहां उन्हें अपने ही लहू का संगीत सुनाई देने लगा।
हीरालाल उनके पास बैठा था, जब मुक्तिबोध ने अपने मस्तक की तरफ़ इशारा करते हुए कहा जो यहां लिखा है हीरा, वो मिलकर रहेगा।
हीरालाल ने मुक्तिबोध के माथे की तरफ़ देखा, जहां चंद बेरब्त लकीरों के सिवा कुछ भी न था। बाएं तरफ़ एक घुंडी सी बनी थी। शायद उसी ने क़िस्मत के बहाव को रोक लिया था। जभी कुंडली देखने वाले पण्डित, मुक्ति बोध के पास से उठ कर चले गये। जैसे उनका भी सहारा चले जाने पर उन्होंने झल्लाकर हाथ हारमोनियम पर मारा और थोड़ी आ आ आ के बाद एक ग़ज़ल शुरू कर दी, जो पीलू में बाँधी गयी थी।
क्या जानिए क्या हो गया अरबाब-ए-जुनूँ को
मरने की अदा याद न जीने की अदा याद
ख़ुशू-ओ-ख़ुज़ू के आँसू मुक्तिबोध की आँखों से बह रहे थे, जिसने हीरा के भी बंध खोल दिये। ये वो दिन थे जब नंदलाल की ‘अंबिका’ हिट हो गई थी। हीरा ने जल्द से अपने आँसू पोंछे... आईडिया!
नंदलाल बुरी तरह से पांचवीं वर्ण में घिरा हुआ था, जब कि हीरालाल बड़ी ख़ामुशी से आकर नयाज़ मंदाना एक तरफ़ बैठ गया। साहिब सलामत तो हो ही चुकी थी, मगर नंदलाल उसे आगे बढ़ने देना न चाहता था। वो पहले ही गजू, दांडेकर, फ़िरोज़ और उनकी क़बील के लोगों से घबराया हुआ था। जैसे हर अमीर आदमी की बीमारी में मुलाक़ाती डाक्टर, हकीम और वेद बन जाते हैं, ऐसे ही सब लोग उसे आइंदा के लिए मश्वरे दे रहे थे। अगर नाकामी में नंदलाल कुछ सोच भी सकता था, तो अब कामयाबी में वो बिल्कुल कंफ्यूज़ हो गया।
नंदलाल जब दूसरों से बातें कर रहा था तो हीरालाल अपनी कमीन गाह से नज़रें उस पर फ़ोकस करने लगा, जैसे वो किसी मिस्मेरिज्म, तांत्रिक विद्या के गुर जानने लगा हो। एहतियाज आदमी को क्या कुछ नहीं सिखा देती?
उचट कर नंदलाल की नज़र जो हीरा पर पड़ी तो वो अपनी निगाहें हटा ही न सका। जैसे इस नव-वारिद में कोई ख़ास बात हो।
क्या हाल है? नंदलाल ने तकल्लुफ़न पूछ ही लिया।
अपनी जगह पर कसमसाते हुए हीरा ने वहीं से डोरी पकड़ ली... बस कृपा है अंबाजी की।
नंदलाल चौंक गया। उसे यूं लगा जैसे अम्बा माँ ने ख़ासतौर पर उसे उसके हाँ भेजा है। अम्बा माँ, जिसने छः लाख के ख़र्च पर करोड़ लौटाए। फिर वो डर गया कहीं ये भी तो वो नहीं है?
महीना भर हीरा ने अपना इंदीया नंदलाल से छुपाए रखा, जिससे नंद लाल में एक अ’जीब नफ़सियाती उलझन पैदा हो गय। वो अब तक लोगों की फ़र्माइश और अपने इनकार का आ’दी हो चुका था। हीरा ने काम भी पकड़ा तो नंदलाल के नए दफ़्तर का। वो पाई पाई पर इंटीरियर डेकोरेटर से लड़ता। पच्चीस हज़ार के ख़र्च पर नंद लाल उसे पाँच हज़ार ऐडवान्स देना चाहता था, लेकिन हीरालाल ने उसके हाथ रोक लिये और उसे पाँच सौ में निप्टा लिया। कुछ दिन के बाद फिर उसे एक हज़ार दे दिया... आख़िर सामान तो हमें ही देना है, उसे तो सब अपने दिमाग़ ही से निकालना है ना। वही दलील जिसकी वजह से कोई फ़नकार अपने पेशे से रोटियाँ नहीं निकाल सका। लेखक को साथ में प्याज़ की दुकान ज़रूर खोलनी चाहिए।
और ऐसा होता भी है कि जो आदमी पैसे के लिए लटकाया जाता है, ज़्यादा तनदही से काम करता है। फिर हीरा ने सुधा भाबी से पूजा का मुआ’मला तय किया। नंदलाल सुधा को हमेशा इग्नोर किया करता था। लेकिन अब ये हीरा ही की वजह से था कि सुधा को दफ़्तर के मुहूर्त प्रमुख रखा गया। पूजा में तो वो थी ही थी, लेकिन दूसरी बातों में भी सबसे आगे। असल में वही देवी थी जिसके पांव की ख़ैरात से नंदलाल बना। सैंकड़ों लोग नंदलाल के लिए नहीं, अंबिका की कामयाबी की ख़ातिर आते थे। वो पहले सुधा को नमस्कार करते थे, जिससे उसे अपना वजूद ज़रूरी, ख़ूबसूरत और अंबिका मा’लूम होने लगा था।
हीरा ने इस क़दर ख़ूबसूरत तरीक़े से नंद लाल को गुर्गों से बचाया तो नंद लाल के दिल में उसके लिए इज़्ज़त बढ़ गयी। फिर आया वो आईडिया का दिन!
दिन अभी शाम में ढल न पाया था कि नंदलाल ही के घर में हीरा ने इशा की नमाज़ की तैयारी शुरू कर दी। उस वक़्त वो वुज़ू कर रहा था, जब कि नंदलाल चौंका... तुम मुस्लमान हो?
नहीं तो...
तो फिर... ये?
मैं सीख रहा हूँ, नमाज़ कैसे पढ़ी जाती है?
वो किस लिए?
मैं एक मुस्लिम सब्जेक्ट बना रहा हूँ, नंदलाल जी... हीरा ने कुछ रुकते हुए कहा... दर असल मैं इस का टाइटल इम्पा में रजिस्टर्ड करवा आया हूँ और उसने जेब में से रसीद निकाली। वाक़ई टाइटल हीरालाल पण्डित के नाम रजिस्टर्ड था, और वो था... सज्दा!
अरे...! हीरा ने एकदम कहा, जैसे कोई भूली हुई बात एकदम उसे याद आ गयी और जो पहले ही कौंदे की तरह से लपक कर नंदलाल के दिमाग़ में आ चुकी थी और इसीलिए मुंतबिक़ हो गयी... ये फ़िल्म आपको बनानी चाहिए। आप जो किसी बात का फ़ैसला नहीं कर पा रहे हैं, आज हो गया फ़ैसला! बात ये है अंबिका बनाने के बाद आपने पूरी हिंदू क़ौम को राम कर लिया है। ‘सज्दा’ से पूरी मुसलमान क़ौम को रहीम कर सकते हैं।
हीरालाल...
जी, नंद लाल जी?
टाइटल...
टाइटल मेरे नाम है तो क्या हुआ? आपके लिए तो मेरी जान भी हाज़िर है।
नहीं, मैं सोच रहा था... टाइटल बहुत धांसू है।
जब ही हीरालाल को पता चल गया कि वो निशाने से थोड़ा आगे ही निकल गया है। चुनांचे उसने बातों में उलझाए रखने की बात सोची। यूं भी दिन-भर इधर-उधर झक मारने से नंदलाल की मुदाफ़अ’त की सब क़ुव्वतें ख़त्म हो चुकी थीं। फिर उस वक़्त वहां कोई दूसरा था भी नहीं। सुधा भाबी जी के साथ साज़िश करके उसने आने जाने वालों के तांते को बिखेर दिया था। उस वक़्त वो नंद लाल और उसके ख़ुदा-या देवी के बीच अकेले थे... हीरा कहे जा रहा था,मुसलमानों के उठने बैठने, उनके कल्चरों में वो बात है जो हिंदूओं को भी बहुत पसंद आती है देखो ना, बेटी कैसे बाप को आदाब कहती है और साथ में अब्बा हुज़ूर भी। सामने आकर भी कितना ख़ूबसूरत पर्दा है, जो आज के नंगेपन में कहाँ है?
मैं समझ गया.
नहीं, आप नहीं समझे... मुसलमान जो भाषा इस्तिमाल करते हैं, वो कितनी सुंदर है। शकीला बानो भोपाली जब क़व्वाली करती हैं तो गुजराती हिंदू भी पागलों की तरह से दाद देते हैं, चाहे एक लफ़्ज़ भी उनकी समझ में नहीं आता।
उसकी बात छोड़ो वो सब समझा देती है।
इस पर नंदलाल और हीरा दोनों मिलकर हँसे। उन्होंने देखा कि सुधा ही कबार्ड के पीछे खड़ी हंस रही है!
फिर मुशायरे पर बात चली आई, जिसके सामने कवि सम्मेलन का रंग नहीं जमता। तो ‘अंबिका’ के बाद ‘सज्दा’ बीच में ना’त, क़व्वाली, मुशायरा, कोठा, ग़ज़लें,चूड़ीदार मुक़य्यश लगे, लहराते हुए दुपट्टे और आख़िर... पैसा!
बात हो चुकी थी, मगर नंदलाल का क़ुदरती हर्बा आड़े आ रहा था, या’नी कि सर के झटके। कभी लगता था फ़िल्म बनेगी, कभी नहीं बनेगी, बनेगी, नहीं बनेगी...
म्यूज़िक डायरेक्टर के तौर पर मुक्तिबोध जी का नाम तजवीज़ हुआ था, इसलिए कि वही एक ऐसे आदमी थे, जो हीरालाल के प्ले बैक सिंगर बनने के ख़्वाब पूरे कर सकते थे। हीरा ने नंदलाल के सामने अपनी बात ही न की, क्योंकि अंदर से वो जानता था कि मुक्तिबोध आ जाऐंगे तो वो ख़ुद भी आ जाएगा। उसका चांस सेंट परसेंट है। नंदलाल का ए’तिराज़ था कि इसमें कोई शक नहीं कि मुक्ति बोध ऐसा संगीतकार इंडिया ने अभी तक पैदा नहीं किया, लेकिन आजकल वो बिकते नहीं। दूसरा,हिंदू होने के नाते वो ना’त कैसे बनाएंगे? प्ले बैक सिंगर भी चोटी का होना चाहिए क्योंकि उर्दू भाषा में काफ़ दो तरह के होते हैं, जिनमें से एक गले से निकलता है और दूसरा दूसरा नामा’लूम कहाँ से? ऐसे ही ‘सा’ आ अर्क़ उ’श्बा को ठीक से बोलें तो अतार (अत्तार) का लड़का कहेगा... है तो मेरे पास, पर इतना गाढ़ा नहीं है... और हीरा काँप गया।
लेकिन जैसे-तैसे इतने बड़े आदमी को, जिसकी ‘अंबिका’ हिट हो गई थी, मुक्तिबोध के घर ले ही आया। नंदलाल ने बड़ी अ’क़ीदत से उनके चरण छूए। मुक्ति बोध जी ने व्हिस्की और दूसरे लवाज़मात का बंदोबस्त कर रखा था। जितनी देर ये सब लोग पीते पिलाते, पीते-खाते रहे, मुक्तिबोध मुस्लिम कल्चर ही की बातें करते रहे। आख़िर तय हुआ कि गुरूवार के रोज़ उनसे कॉन्ट्रैक्ट करेंगे क्योंकि वही दिन देवी माँ का है। नंदलाल ने जाते हुए भी इतने बड़े मस्ट्रो के पांव पर सर रखा और मुक्ति जी को यक़ीन हो गया कि उस दिन उनका कॉन्ट्रैक्ट हो ही जाएगा। दोनों लाल चले गये, पीछे वही दो टोटरू रह गये, लेकिन आज उस बुढ़िया संगीता ने अपने बुड्ढे के लिए गाजर का हलवा बनाया था।
फ़िल्मी दुनिया में हर ख़बर जंगल की आग की तरह फैलती है। जहां इतने बड़े प्रोडयूसर की तस्वीर में म्यूज़िक देने के लिए लोग मुक्ति बोध के पास आने लगे, वहां क़र्ज़ख़ाह भी जो मायूस हो चुके थे। मुक्तिबोध सबको कहने लगे आप गुरूवार के रोज़ आ जाईये और अपना हिसाब ले जाईये और फिर... नहीं नहीं, गुरूवार नहीं। मेरा ख़्याल है अगले मंगल। बात ये है नंदलाल चेक में पैसे देगा। वो सनीचर को बैंक में पड़ेंगे और आप जानते हैं, उसदिन कोई क्लिरेंस नहीं होती। सोमवार को चेक जाएगा और मंगल की शाम को मेरे बैंक में आएगा। इसलिए बुध ही को आयें तो अच्छा है। मुक्ति बोध हैरान हुए कि किसी को उनकी ये बात बुरी नहीं लगी।
रात जब मुक्तिबोध सोने लगे तो एक अ’जीब सी शुक्रगुज़ारी का जज़्बा उन पर रेंगने लगा... आख़िर भगवान ने सुन ली मेरी। दीनानाथ शास्त्री, ज्योतिष आचार्य तो कहते भी थे कि बस आपके ऐसे दिन आने वाले हैं कि आप पहले के शिखर से भी ऊपर पहुँचेंगे। एक नहीं शायद आपको पाँच छे कॉन्ट्रैक्ट भी मिलें। हो सकता है राज दरबार की तरफ़ से मान भी प्राप्त हो। बस जब आपके चांद पर से मंगल गुज़र जाएगा तो पत्नी की तरफ़ से भी चिंता न रहेगी और गुरू के मार्गी होते ही लक्ष्मी आपके घर डेरा डाल लेगी। फिर उन्हें बीवी का ख़्याल आया। वो हँसे एक घर में दो औरतें कैसे रह सकती हैं?
सिटी सिविल कोर्ट से एक टांच भी मुक्तिबोध जी के हाँ की सब चीज़ों पे लगी थी। जब लाल बिरादरान वहां थे, तो बुढ़िया ने किस सफ़ाई से सब चीज़ों पर लगी हुई टांच की चीपियाँ छुपा दी थीं। किसी पर मेज़-पोश डाल दिया था, किसी पर चादर। अगले ही रोज़ बेलिफ वग़ैरा को कुछ दे दिला कर मुक्तिबोध जी ने सामान पर क़ब्ज़ा और नीलामी की तारीख़ अगले हफ़्ते तक मुल्तवी करवाली थी।
गुरूवार के दिन भी नंद लाल ही को मुक्तिबोध जी के हाँ आना था। पाँच बजे शाम का वक़्त था। जब छे साढे़ छे हुए, तो हीरा की शक्ल दिखाई दी। उसने बताया कि नंदलाल को लेबोरेट्री में ‘अंबिका’ के नए प्रिंट बनवाना थे, इसलिए देर हो गयी। बात ये है कि इस फ़िल्म ‘अंबिका’ के डेढ़ सौ प्रिंट बनवाए और नेगेटिव घिस गया। इसलिए हम एक प्रिंट से डीवप निकाल कर उससे कापियां बनवाएँगे। डेवलप से जो प्रिंट निकला है, अंकल, उसके मुक़ाबले में पहला प्रिंट भी कुछ नहीं। आप मेरी ख़ातिर इस कोताही को भूल जाइये। आप मेरी मदद तो कर ही रहे हैं, थोड़ी और कर दीजिए और वो ये कि आप नंदलाल जी के घर ही चले चलें... आनाकानी का कोई बहाना ही न रहे। देखिए आपकी इ’ज़्ज़त मेरी इ’ज़्ज़त है, और मेरी इ’ज़्ज़त तो कुछ है ही नहीं। आख़िर वो इतना बड़ा और कामयाब प्रोडयूसर हो कर आपके घर आया ही था ना... आपके चरण भी छूए ही थे ना।
मुक्ति बोध जी शायद कुछ सोचते मगर बुढ़िया ने उन्हें कोई मौक़ा ही न दिया। तसला,जिसमें चावल रखते थे, उसे ख़ाली दिखा दिया। मुक्तिबोध उठे और हीरा के साथ चल दिये। जब हीरा कह रहा था, मेरे प्ले बैक की बात अभी नहीं, बाद में कीजिएगा, जब आपका कॉन्ट्रैक्ट हो जाये।
लातूर भवन में नंदलाल की बीवी सुधा ने उनकी ख़ातिर वग़ैरा की। दस बजे तक ज़िंदगी के ये दो किनारे आपस में इधर उधर की हांकते रहे। फिर ग्यारह बज गये, बारह और ख़ून मुक्तिबोध के सर को आने लगा। मैंने ग़लत किया। चलो कोई बात नहीं। कभी एक झूट में से दस सच भी पैदा हो जाते हैं। मगर नंदलाल आख़िर इन्सान है और इन्सान से मस्रूफ़ियत हो ही जाती है। नंदलाल को अब ले ही आओ, परमात्मा, नहीं मौत का बिलिफ कैसे टलेगा?
नंदलाल अपनी इसी घिच घिच करती मगर लकी गाड़ी में इस वक़्त, या’नी कि रात के एक बजे आया जब कि मुक्तिबोध ऐसी-तैसी कह कर चलने ही वाले थे। नंद लाल लंगड़ा रहा था। पता चला अचानक पेचिश हो जाने से उसे डाक्टर के पास जा कर सरीन के ऊपर टीके लगवाने पड़े जो अभी दर्द कर रहे थे। शुक्रवार देवी माँ का दिन है, नंद लाल ने बताया, और उस रोज़ वो बरत रखते हैं। सुबह से कुछ खाया ही नहीं। मुक्तिबोध ने कहा... पहले खाओ, फिर बात करेंगे। आख़िर इन्सान इतनी दौड़ धूप करता किसलिए है? बहू! चावल में दही ज़्यादा देना ज़रा, और मुक्तिबोध ने किसी इज़तिरार में अपना हाथ पेट पर रख लिया और उसे सहलाने लगे।
हीरा और मुक्तिबोध टेरिसपर बैठे थे, जहां उन पर ओस पड़ रही थी। यहां ओस पड़ रही है, अंकल! हीरालाल ने कहा, अंदर न चले जायें?
मुक्तिबोध बोले... नहीं बेटा,उसका तो कुछ नहीं, वो हमारी उम्मीदों पर न पड़े, बस... और फिर वो खिसियाना सी हंसी हंस दिये।
सब कुछ हो जाने के बाद नंदलाल आया और दोनों हाथ जोड़ कर मुक्तिबोध से माफ़ी मांगी, इसलिए नहीं कि वो लेट हो गया था, बल्कि पैसे लेट हो गये थे, अभी तक तो बंदोबस्त नहीं हुआ मगर बुध तक ज़रूर हो जाएगा।
जाने मुक्तिबोध जी ने कैसे कह दिया... कोई बात नहीं, बेटा! बुध कौन सा दूर है? हालांकि उनके दिमाग़ में दलाल, सेठिये, बिलिफ क्या कुछ घूमने लगा था और उनसे ज़्यादा अपनी बुढ़िया जो घूम ही नहीं रही थी।
बाक़ी ज़िम्मेदारी हीरा की थी कि वो बुढ़ऊ को समझा दे कि पैसा कोई आसानी से ढीला नहीं करता। ‘अंबिका’ में करोड़ का बिज़नस ठीक है, लेकिन वसूली भी तो कोई चीज़ है? पच्चीस हज़ार तो दफ़्तर की इंटीरियर डेकोरेशन में लग गया है। अरे साहिब, डिस्ट्रीब्यूटर और पैसा दें? क्या-क्या झूटे वोउचर और हिसाब नहीं बनाते? शहर-शहर, गाँव-गाँव जा कर चेकिंग करनी पड़ती है। इसके लिए एजेंट रखें तो उसे पाँच सौ हज़ार से क्या कम देंगे? अगर डिस्ट्रीब्यूटर उसकी जेब में पाँच हज़ार डाल दे, साथ शराब पिलाए और कोठे पर गाना सुनने के लिए ले जाये, तो बताईए वो एजेंट आपका हुआ या डिस्ट्रीब्यूटर का? ईमानदारी नाम की यहां कोई चीज़ ही नहीं। एक ही ईमानदार एजेंट मिला था, चेकिंग के एक हफ़्ते के अंदर जिसकी लाश टॉयलेट से मिली!
ख़ैर, हीरा कैसा भी था,मगर था तो मुक्तिबोध जी ही का बहीख़्वाह। साथ नंदलाल का भी। हालांकि ये सब झूट हैअसल में वो अपना ही ख़ैरख़्वाह था।
लातूर भवन के टेरिस से उठ कर चलते हुए मुक्तिबोध जी ने सिर्फ़ इतना ही कहा... ये काहे की बेल है?
मॉर्निंग गिलौरी की... नंदलाल ने जवाब दिया।
मुक्तिबोध जी ने अपनी नज़रें बचाते हुए कहा... तो फिर इवनिंग गिलौरी की भी कोई होगी...? और फिर वो हंस दिये, चल दिये।
हीरा में बाक़ी तो सब ठीक था, लेकिन एक बात ग़लत थी। उसने मुक्तिबोध जी की पूरी रक़म और साइनिंग अमाउंट भी ख़ुद ही तय कर दी थी। जैसे वो, मुक्ति जी, कोई बात ही नहीं... ज़ालिम! पूछ तो लिया होता? फ़िल्म में जो आता है, रिश्ते जगा लेता है। अरे भाई, हमें अपना बेटा नहीं ब्याहना है। ये कमर्शियल दुनिया है, इस हाथ से काम लो, उस हाथ से दाम दो और बस... इससे पहले ये बकवास कभी न हुई थी। हुई भी तो हमने कॉन्ट्रैक्ट फाड़ कर खिड़की से बाहर फेंक दिये। और अब, वो जिगर अब मैं कहाँ से लाऊँ? ये हीरा? कहता है मैंने नंद लाल को कह भी दिया कि अंकल का तो कुछ नहीं, वो दरवेश आदमी... अरे दरवेश को क्या हाजत नहीं होती? फिर... फ़िल्मी दुनिया ग्रुप से चलती है। आप एक-बार इस ग्रुप में घुस तो जाइये, अंकल! ‘अंबिका’ ग्रुप... आज के सबसे बड़े और कामयाब प्रोडयूसर नंद लाल का ग्रुप... अरे, बड़े नंद लाल आये और बड़े गये... उसके ज़रिये आपको दस तस्वीरें मिलेंगी। अरे, तीये, मुझे इसी एक की ज़रूरत है, बाद की दस और बीस की नहीं... कभी मेरा भी वक़्त था, जब तुम्हारे ऐसे आदमी को हफ़्ता हफ़्ता बाहर बिठाए रखता था। कहीं ग़लती से वो अपना थोबड़ा मेरे कमरे में ले तो आये,मैं चिल्ला कर कहता था... गेट आउट... गेट... आउट।
और अपने घर में बैठे हुए मुक्ति बोध सच-मुच चिल्ला उठे... गेट आउट...
बुढ़िया बड़बड़ा के उठी... क्या हुआ?
मुक्तिबोध की सांस धूँकनी की तरह से चल रही थी... वो माथे पर से इन्फ़िआ’ल के क़तरे पोंछ रहे थे।
वही हो रहा है, जो तेरे ऐसे खूसट का होना था... बुढ़िया ने कहा और वापस अपने बूढ़े बिस्तर पर लेट गयी।
जिस दिलेरी से तक़ाज़ा करने वालों को मुक्तिबोध जी ने बुध का वक़्त दिया था, उसी बे-हयाई से अगले सनीचर का दे दिया (चेक बुध को बैंक में पड़ेगा, तो... वग़ैरा) हैरानी की बात ये कि बीसियों ही आये मगर टाले जाने पर किसी ने उफ़ भी न की। क्या इरादे थे उनके? वो शोर मचाते, नालिश की धमकी देते, मगर ये चुप? राम जाने ये सब मिलकर क्या करने वाले हैं? मुक्तिबोध काँप रहे थे।
बुध के रोज़ मौऊ’दा वक़्त पर हीरा नंदलाल की पत्नी सुधा के साथ चला आया। सुधा के हाथ में मिठाई का डिब्बा था जो उसने मुक्ति बोध जी के आगे रख दिया... मुँह मीठा कीजिए, अंकल!
मुक्ति बोध और उनकी बुढ़िया ने डिब्बा ले लिया और इंतिज़ार करने लगे।
हीरा बोला... मैं आपके घर में इन लक्ष्मी को ले आया हूँ और उसने सुधा भाबी की तरफ़ इशारा किया... सुधा भाबी से बड़ी लक्ष्मी क्या होगी? बात ये हुई कि नंदलाल ओवरफ्लो लेने के लिए कलकत्ता चले गये हैं। हफ़्ता भर में लौट आएँगे। जाते समय उन्हों ने ताकीद की कि मुक्तिबोध जी को मेरा अचानक चल देना बुरा न लगे, इसलिए तुम मेरी बीवी को ले जाना और साथ ब्रजवासी के हाँ से रसमलाई का एक डिब्बा भी... अपनी औरत से बड़ी आदमी की इ’ज़्ज़त क्या होती है? मुक्तिबोध जी ने सर हिलाया और बोले... हूँ, और एक नज़र अपनी बुढ़िया की तरफ़ देखा... उनमें पुराने जलाल के दिन फड़फड़ाकर रह गये...
उधर हीरा और सुधा गये, इधर टांच वाले घर से रेडियोग्राम, स्पीकर, टेप रिकार्ड, हारमोनियम, सितार, फ़र्नीचर और कुछ बर्तन उठा कर ले गये... उसका क्या है, मुक्तिबोध जी ने सोचा, दस दिन में पैसे आ जाऐंगे तो चीज़ें भी लौट आयेंगी, जब तक उन्होंने नीलाम न कर दी हूँ तो... कर भी दी हूँ तो नई ख़रीदेंगे... आख़िर एक आदमी ने अपनी औरत, अपनी इ’ज़्ज़त मेरे घर भेजी है। इससे बड़ी बात और क्या होगी? ये कोई आज़माइश हो रही है। हो सकता है दस दिन में नंदलाल कलकत्ता से लौट ही आये।
जब टांच वालों ने घर की चीज़ों पर हाथ डाला तो मुक्तिबोध की बुढ़या ने एक दिलदोज़ चीख़ मारी और इसके बाद बेहोश हो गई। ये अच्छा ही हुआ, अगर वो होश में होती तो दूसरों के होश ठिकाने कर देती। वो मुग़ल्लज़ात सुनाती कि बस।
दस दिन बीत गये लेकिन नंद लाल कलकत्ता से न लौटा। अब हीरा मुक्तिबोध जी से बचता फिर रहा था... नंदलाल का हाथ रोकने और मुक्तिबोध को पैसा दिलवाने के बीच में वो कहीं बट कर रह गया था। उसे अपना आदर्श दूर हटता, ख़ुद में कहीं गुम होता हुआ नज़र आ रहा था। नंदलाल कहीं उससे भी खेल तो नहीं कर गया? नहीं वो ऐसा आदमी तो नहीं है। हीरा ने एक-बार मुक्तिबोध को मिलकर बताया कि ओवरफ्लो झगड़े में पड़ गया है। इसीलिए नंद लाल नहीं आया, मगर आएगा ज़रूर, कुछ दिन में, कहाँ जाएगा?
मुक्तिबोध जी हीरा की बात पर होंट भींच कर सिर्फ़ एक ही कहते रहे... हूँ! लेकिन जब हीरा चला जाता तो अपने आपसे कहते मुक्ति! तुझे क्या हो गया है, क्यों नहीं तो इन पिल्लों को ठुड्डे मार कर बाहर निकाल सकता? अब रह ही क्या गया है?
इसी सिलसिले में एक दिन मुक्तिबोध जी ने दुलारे, अपने शागिर्द को भेज कर उस्ताद कलब अली का सितार मंगवाया, जिस पर हाथ रखते ही वो सब कुछ भूल गये। बजाते हुए कैसे वो इस साज़ से लिपट लिपट जाते थे। मा’लूम होता था, जैसे उनके बाज़ुओं में कोई महबूबा है, जिस पर झुक-झुक कर, जिसे चूम चूम कर, जिस पर उंगलियां दौड़ा दौड़ा कर, वो किसी नई ज़िंदगी के सुर निकाल रहे हैं... बुढ़िया देख रही थी और कबाब हो रही थी। यहां की औरत, वहां की औरत की हमेशा हासिद रही है... ये कि उसे अपनी ज़ात में खोकर, अपने मालिक मैं मुदग़म हो कर उसकी मलिका हो जाना चाहिए, सब बातें हैं... वो तो अपने मियां की हर दिल अ’ज़ीज़ी से भी जल भुन कर राख हो जाती है...
एक झाले के बाद यकदम मुक्तिबोध जी ने सितार एक तरफ़ रख दिया और फिर वही अपने आप पर रहम... इस पर भी तू ये सब अपने आपसे होते देख रहा है मुक्ति... क्यों नहीं तू नंदलालों से कह सकता... नहीं चाहिए मुझे तुम्हारा ‘सज्दा’ जो सज्दा ही नहीं...
फिर उन्हें रुस्तम के आख़िरी दिन याद आ जाते, जिनमें वो रोता और सर ऊपर उठा कर, हाथ फैला कर कहता... अल्लाह! कहाँ गये वो मेरे दिन, जब मैं चलता था तो मेरे पांव ज़मीन में धँस-धँस जाते थे
और आज?
फिर वो ना’त, जिसकी धुन अपनी बेकारी के दिनों में मुक्ति जी ने निकाली थी, जिसे गाते हुए उन्होंने बीच में सब बंद कर दिया। ये भैरवीं, ये टोडी... क्या मियां की और क्या बीवी की और क्या खम्माच सब बकवास हैं। क़ुरआन की भी तो आयत है, जिस रुख़ ज़माना फिरे, उसी रुख फिर जाओ... मैं नहीं फिर सकता, मेरी हड्डियां बूढ़ी हो गई हैं, जो टूट सकती हैं, मुड़ नहीं सकतीं।
नहीं! मैं ये नहीं करूँगा... मैं नहीं मुर्ग-ए-बाद-ए-गर्द। मैंने अपने संगीत, अपनी माँ से प्यार किया है,
ईश्वर! औरतें बीसियों, सैकड़ों हो सकती हैं, माँ सिर्फ एक... क्या मैं भूका भी नहीं मर सकता? ये आज़ादी मुझसे कोई नहीं, कोई नहीं छीन सकता...
नंद लाल दस दिन बाद भी न लौटा, बीच में हीरा मुक्तिबोध जी के घर का तवाफ़ करता रहा। मगर उनका दरवाज़ा खटखटाने, अंदर जाने की उसकी हिम्मत न पड़ी। शायद वो मुक्तिबोध जी से इतना न डरता था, जितना उनकी बुढ़िया से।
अब के जो हीरा आया तो एक तार से मुसल्लह। तार कलकत्ता से आया था, जिसमें लौटने का तिथ वार सभी लिखे थे। उस दस्तावेज़ को काँपते हुए हाथों में लेकर मुक्तिबोध फिर कुछ भूल गये... और आँखें सिकोड़कर कहीं दूर देखते हुए बोले... हूँ!
हीरा अंदर से जानता था कि अगर मुझे मुक्ति बोध जी की ज़रूरत है तो उन्हें भी मेरी... और नंदलाल की... मुक़र्ररा तारीख़ को नंदलाल वाक़ई चला आया। हीरा उसे घेर घार कर मुक्ति जी के हाँ ले भी आया। क्या तयक़्क़ुन से उसके हाथ घंटी पर पड़े। बहुत देर तक अंदर से कोई आवाज़ न आई। आख़िर पता चला कोई आ रहा है। दरवाज़ा खुला तो सामने बुढ़िया थी, जो उन्हें पहचानने की कोशिश कर रही थी। उसकी आँखों में कांच था। सारे चेहरे पर परछाईयां फैली थीं और झुर्रियों में कोई सिल्ट जमी थी, जैसे तूफ़ान और बाढ़ के बाद छोटे बड़े नदी नालों में जम जाती है।
बुढ़िया ने उनको जाने के लिए कहा, न बैठने के लिए। इस पर भी वो अंदर जा कर बैठ गये।
हीरा ने पूछा... अंकल कहाँ हैं आंटी?
पहले तो वो ऐसे ही बड़बड़ देखती रही। आख़िर बोली... जाने कहाँ खप गया है, बुढ़ऊ... उसे तो मौत भी नहीं आती... क्या-क्या टोने न किए मैंने...।
तीन घंटे इंतिज़ार के बाद नंदलाल चेक समेत लौट गये। हीरा ने और कोई देर देख लेने को कहा, मगर नंदलाल राज़ी न हुआ। उठते हुए नंदलाल ने तसल्ली के लिए जेब में हाथ डाल कर देखा, चेक वहीं था! हीरा की हालत अबतर थी। अलबत्ता, इतनी मेहनत से बनाई हुई उसकी इमारत ढय गई थी। जिस ठेकेदार को उसे बनने के लिए दिया था, उसने सीमेंट से ज़्यादा रेत उसमें मिला दी थी।
हीरा गुमसुम जा रहा था कि दूर से उसके कान में कोई धुन सुनाई देने लगी... जो पीलू में बंधी थी...
हीरा ने नंदलाल से पूछा... आपको कोई आवाज़ सुनाई नहीं देती। इस एनटोप हिल के पीछे से जहां अरब सागर है? नंदलाल ने सुनने की कोशिश की और बोला... नहीं तो... हाँ... नहीं तो...