मुखौटा (ओड़िआ कहानी) : दाशरथि भूयाँ
Mukhauta (Odia Story) : Dasarathi Bhuiyan
“हम तो बच्चे हैं भाग्यवान्, हम से बड़ा है कौन महान् । हम तो उड़ते हैं नीले आकाश में, झलकती जहाँ रवि की किरणें ।” बचपन में स्कूल में पढ़े हुए इस गीत को याद करके सुदाम भट्ट बाबू खुद को भाग्यवान् समझ रहे थे । हाँ, आज उन्हें उस तरह का आनन्द मिल रहा था, वे आकाश में । उड़ने का मजा उठा रहे थे ।
वे पहली बार हवाई जहाज में बैठ कर उड़ते हुए लण्डन की यात्रा कर रहे थे । इसलिए यह यात्रा उनके लिए उत्साह और रोमांच से भरपूर थी । हवाई जहाज बादलों के ऊपर उड़ रहा था । झरोखे के उस पार बादलों की पंक्तियाँ आकाश के सीने में अठखेलियाँ कर रही थीं । बादलों की पंक्तियों का सौंदर्य मन को अत्यंत लुभानेवाला था । मानो किसी ने आकाश के खेत में बादलों की खेती की हो । रात को पाइलॅट ने जब केबिन की बत्तियाँ बुझा दीं, तब झरोखे के बाहर आकाश के तारा-मंडल के झलमलाते प्रकाश का अध्ययन करना प्रारंभ किया सुदाम भट्ट बाबू ने । रात के दौरान आकाश का चित्र काफी अस्पष्ट था ।
हवाई जहाज जितना आगे की ओर बढ़ रहा था, उनका मन उतना ही पीछे की ओर लौट रहा था । उन्हें अपने गाँव की बातें ज्यादा याद आ रही थीं । सुदाम बाबू गाँव के सबसे सम्मानित व्यक्ति थे । वे अपने गाँव के पास एक हाईस्कूल में शिक्षक थे और हाल ही सेवा निवृत्त हुए थे । उनके गाँव के बाकी सभी लोग अनप़ढ़ गँवार थे । गाँव के सभी लोग उनका आदर करते थे, सम्मान देते थे और उनसे डरते भी थे । उनका परिवार गाँव का एक मात्र ब्रह्मण परिवार था । बाकी सभी वैश्य, किसान और शूद्र श्रेणी के थे । जाति- प्रथा की दृष्टि से विचार किया जाए तो उनके बरामदे तक आने में लोग डरते थे । पुरोहित-कर्मकाण्ड में भी वे पारंगत थे । इसी कारण गाँव के लोग उन्हें गोसाइर् महाप्रभु के नाम से सम्बोधन करते थे । शिक्षक की तनखाह के साथ- साथ ऊपर से श्राद्ध, विवाह, गृह-प्रवेश आदि से दो पैसों की कमाई हो जाती थी । इसलिए उन्होंने बेटे को उच्च शिक्षा प्रदान करने में कोई अवहेलना नहीं की थी । तपन को मोटी तनखाह के साथ एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी मिली । पाँच साल चेन्नई में नौकरी करने के बाद उसे कंपनी ने पाँच साल के लिए लंडन भेजा । लंडन में पाँच साल में से दो साल बीत चुके थे ।
नौकरी से सेवा निवृत्त होने से पहले सुदाम बाबू की पत्नी का देहान्त हो चुका था । सुदाम भट्ट बाबू गाँव में अकेले रहते थे । तपन लंडन से छुट्टियों में आये और सुदाम बाबू को अपने साथ ले जाने की जिद की । सुदाम बाबू एक रूढिवादी ब्रह्मण थे । पुराने जमाने के लोगों में सदियों से एक धार्मिक भावना घर कर गयी थी कि समुद्र के उस पार यात्रा करने से जाति चली जाती है । हालाँकि अब वह भावना सुदाम बाबू के मन में नहीं है, फिर भी खाने- पीने को लेकर काफी समस्याएँ बनी हुई हैं । सुदाम बाबू तीर्थ करने के लिए जितनी बार बाहर के राज्यों में गये हैं, वे किसी मठ-मन्दिर में भोजन करते आये हैं या अपने साथ चिउड़ा और मुरमुरा लेकर गये हैं । हवाई जहाज में बाहर के भोजन के लिए अनुमति नहीं है । यात्रा के दौरान उन्हें कई समस्याओंका सामना करना पड़ेगा । विदेश में खाने की समस्या उपज सकती है, इसी कारण बेटे तपन के साथ लंडन जाने की उनकी इच्छा नहीं थी । लेकिन काफी समझाने-बुझाने के बाद वे राजी हुए ।
आकाश में उड़ते समय एक अनजान उल्लास से कब उन्हें नींद आ गयी थी, इस बात का उन्हें पता भी न चला । जब नींद टूटी तो देखा कि हवाई जहाज लंडन की मिट्टी को छू चुकी थी । रास्ते में कुछ फल खरीद कर वे पश्चिम साउथाल इलाके के पूर्वनिर्धारित अपार्टमेण्ट में पहुँचे । यात्रा की थकान के कारण बिस्तर पर लेटते ही वे गहरी नींद की गोद में चले गये । सुबह उठते ही अपार्टमेण्ट की पाँचवीं मंजिल की बैलकॅनि से लंडन शहर के दृश्य को देखकर वे खुशी से अभिभूत हो उठे । गाँव की मिट्टी की सोंधी गंध भले ही न थी, पर लंडन शहर के मनोरम दृश्य से वे विमोहित हो उठे । रक्तिम आकाश में उगता हुआ सूरज धरती-सुन्दरी के माथे के सिन्दूर की तरह दीख रहा था । आकाश को छूनेवाली अट्टालिकाओंके चरणों के पास चौड़ी सड़कों पर खूबसूरत कार और बसें आ-जा रही थीं । औरतें अपने बच्चों को तीन पहिंये वाली ट्रॅालि में स्कूल में छोडने के लिए ले जा रही थीं । बड़े-बड़े बच्चे पैदल या साइकिल से जा रहे थे । नौकरी करने वाले युवक और युवतियाँ कन्धे में बैग लटकाये अपने-अपने कर्म- स्थल पहुँचने के लिए बस के इंतजार में सड़क के किनारे कतार बाँधे खड़े थे । मेट्रो की ट्रेनें दूर से खिलौने की तरह दिखाई पड़ रही थीं । सुदाम बाबू ने ट्रेन के डिब्बों को गिनना शुरू किया – एक, दो, तीन ...... । कुल आठ डिब्बे थे । पिछली रात वर्षा होने के कारण सारी सड़कें नहा चुकी थीं । सब कुछ नया-नया और आश्चर्यजनक लग रहा था । चारों ओर मनोरम दृश्यों का अम्बार लगा हुआ था ।
तपन ने बैलकॅनि में आकर कहा – “पिताजी मैं आफिस जा रहा हूँ । पहले का कुछ काम बाकी है । आज मुझे आफिस में जल्दी पहुँचना होगा । आफिस के वैंटीन में लान्च करूँगा । तुम्हारे खाने के लिए आनलाइन आर्डर कर दिया है । एक बजे डिलिवरी बॉय आकर दे जाएगा । कल से घर में रसोई करेंगे । ”
सुदाम बाबू के गले से फिर वह रूढ़िवादी सलाह भरी आवाज सुनाई पड़ी –“ पकाया हुआ खाना भेजना मत । कुछ फल-सल भिजवा देना । तपन हामी भरते हुए चला गया । ”
धीरे-धीरे सुदाम बाबू उस शहर की जीवन-शैली के साथ परिचित होने लगे । किसी भी जगह पहुँचने के लिए आने-जाने में कोई परेशानी नहीं थी । एक किलोमीटर की दूरी पर मेट्रो ट्रेन की व्यवस्था थी । चौड़ी सडकों के दोनों ओर बने ट्रेक पर चलने के सारे नियम लिखे हुए थे । सार्वजनिक स्थानों में बनी सड़कों के किनारे बीच-बीच में लकड़ी, लोहे और सीमेंट की बेंच लगी हुई थीं । पैदल चलते समय थक जाने से यात्री वहाँ विश्राम लेते थे। उन सब सड़कों पर पैरों से चलाने वाले बच्चों के छोटे प्लास्टिक स्कूटर और साइकिल के अलवा दूसरी गाड़ियों के आने जाने की मनाही थी
घर से आधा किलोमीटर की दूरी पर साउथाल बाजार । पश्चिम लंडन का साउथाल इलाका लिटिल इंडिया के नाम से जाना जाता है । वहाँ से रोज तपन आफिस के लिए मेट्रो में चढते हैं । रोज संध्या-भ्रमण में सुदाम बाबू साउथाल बाजार के रास्ते को पार करके जाते हैं । रास्ते के दोनों तरफ बने होटल, स्टोर, दुकान और रेस्तोराँ भारतीयों के हैं ।
एक दिन सुदाम बाबू साउथाल होते हुए लौट रहे थे । एक छोटे होटल के बाहर उनकी ही उम्र के कुछ वृद्ध व्यक्ति कुरसी में बैठ कर चाय-नाश्ता करते हुए बातचीत में मशगुल थे । होटल का नाम था “महाराजा ।“
चेहरे-मोहरे से वे सभी भारतीय लग रहे थे । वे हिन्दी और उर्दू में बातचीत कर रहे थे । वे शायद एक दूसरे को अच्छी तरह जानते थे या एक दूसरे के मित्र थे। सुदाम बाबू उस होटल के सामने पहुँच कर एक कुरसी में बैठे । वे दुविधा में पड़े रहे कि चाय पियेंगे या नहीं । उनके रूढ़िवादी मनोभाव ने उन्हें सजग कर दिया कि वे चाय नहीं पियेंगे । फिर भी कुछ देर तक वे चुपचाप बैठे रहे । उन्होंने अनुमान लगाया कि बातचीत में मशगुल कोई भी वृद्ध व्यक्ति वहाँ से जाने की हड़बड़ी में नहीं है । सभी काफी देर तक बैठे-बैठे गपशप कर रहे थे । उनकी गपशप में सुदाम बाबू ने हिस्सा लेना चाहा, लेकिन किसी को न पहचानने के कारण चुप रहे । गपशप करने वालों में से किसी एक ने होटल के मालिक से ऊँची आवाज में कहा –“ हे भट्ट बाबू ! और पाँच कप मलाईदार चाय लाने के लिए अपने नौकर से कहिए ।”
यह जानकर सुदाम बाबू काफी खुश हुए कि होटल के मालिक का कुलनाम भट्ट है । लेकिन इस मामले में होटल के मालिक से कुछ पूछने की उनकी हिम्मत नहीं हुई । मन में तय किया कि कभी मौका मिलने से पूछेंगे । फिर उन्होंने चाय की फरमाइश की ।
उस दिन से सुदाम बाबू रोज शाम को भट्ट बाबू के ’महाराजा“ होटल में चाय पीने के लिए जाने लगे । रात के नौ बजे बेटे के बस से उतरने तक वे वहीं इंतजार करते । तब तक होटल में ग्राहकों का आना लगभग बन्द हो जाता था । एक दिन होटल के मालिक होटल बन्द करने की तैयारी कर रहे थे । उस एकान्त का मौका देखकर सुदाम बाबू ने होटल के मालिक से पूछा- ’मुझे यह जानकर खुशी हुई कि आपका कुलनाम भट्ट है । मेरा नाम भी भट्ट है, यानी सुदाम भट्ट । मैं भारत के ओिड़शा राज्य का निवासी हूँ । आपका घर भारत के किस इलाके में है ?“
होटल के मालिक ने कोई खास उत्तर नहीं दिया, पर चुप भी नहीं रहे । कहा - ’हाँ मेरे पिताजी भी भारत से आये थे ।“
तब तक तपन बस से उतर कर आने लगा । ज्यादा देर तक बातचीत करने का मौका नहीं था । इसलिए बाप-बेटे दोनों घर लौट आये । इस तरह रोज मुलाकात होने के कारण दोनों भट्टों के बीच मित्रता दृढ़ होने लगी ।
रोज की तरह सुदाम बाबू वृद्धों की महफिल में शामिल हुए । उनके साथ गहरी मित्रता के वन्धन में बंध गये । अपनी जन्मभूमि से बहुत दूर समय बिताने के लिए उन्हें मित्र मिल गये थे । रविवार या किसी छुट्टी के दिन सारे वृद्ध मित्र मिलकर भोज का आयोजन करते । उनके बन्धु-भोज या प्रेंÀड्स पार्टी में शामिल होने के लिए सुदाम बाबू को कई बार आमंत्रित किया गया है । सुदाम बाबू के रूढ़िवादी मनोभाव ने उन्हें हर बार रोक दिया है । एक दिन होटल के मालिक भट्ट बाबू ने उन्हें अपने घर पर अतिथि बनकर आने का निमंत्रण दिया । सुदाम बाबू ने उन्हें समय और सहूलियत देख कर जाने का वचन भी दिया ।
उस दिन रविवार था और ग्रीष्मऋतु की दुपहरिया । होटलवाले भट्ट बाबू के घर जाने के लिए सुदाम बाबू निकले । लंडन की ग्रीष्मऋतु मन को बहुत ही लुभानेवाली होती है । वहाँ ग्रीष्मऋतु कुछ महीनों के लिए ही आती है । इसलिए ज्यादातर लोग बाहर घूमते-फिरते हैं और ग्रीष्मऋतु का खूब उपभोग करते हैं । फिर भी लंडन के मौसम की कोई निश्चितता नहीं है । गरमी के दिनों में भी सहसा बारिश हो जाती है । इसलिए घर से बाहर निकलते समय लोग ठण्ड से बचने के लिए मोटा कपड़ा पहनते हैं और साथ में छतरी भी रखते हैं । ऊँची इमारतोंके बीच पतली गलियों में वे पैदल जा रहे थे । सूरज की किरणें महल्ले की सँकरीली गलियों में टेढ़े-मेढ़ ढंग से फैल गयी थीं । उनके साथ ताल मिलाते हुए सूरज की पतली रोशनी समान्तर ढंग से पसरी हुई थी । दोनों तरफ की ऊँची इमारतों की दरार में से लोग रक्तिम सूर्य को निहारते थे।
कुछ समय पैदल चलने के बाद सूरज की रोशनी फीकी पड़ गयी । सूरज की नारंगी रंग की रोशनी के साथ अपराह्न के बादलों की हल्कीr परत पूरे इलाके में छा गयी । थोड़ा-सा रास्ता तय करने के बाद साँझ घिर आयी। सुदाम बाबू के चेहरे, गर्दन और सीने से ठण्डी हवा के झोंके टकरा रहे थे, हालाँकि उन्होंने मोटे कपड़े की कमीज पहन रखी थी ।
सड़क के किनारे के पेड़ों की डालियों में चिड़ियाँ चहचहा रही थीं । उनके पंखों में घोंसले की ओर लौटने का उन्माद भरा हुआ था । सड़क के किनारे के खंभों पर बिजली की बत्तियाँ टिमटिमा रही थीं,खंभों के चारों तरफ हौले- हौले बहनेवाली ठण्डी हवा में कीट-पतंगों ने चक्कर काटना शुरू कर दिया था; लेकिन वे आपस में बिलकुल टकरा नहीं रहे थे । सभी अपनी-अपनी परिधियों में आराम से घूम रहे थे । सुदाम बाबू खुद से सवाल पूछ रहे थे - ’इंसान बिना किसी कारण के आपस में टकराते क्यों है?“
सुदाम बाबू के थके हुए पाँव आगे की ओर बढ़ रहे थे । रास्ते की बगले में बने बार और रेस्तोंराँ से युवक और युवतियों की खिलखिलाहट के साथ संगीत का स्वर घुल कर बाहर गूँज रहा था । चाँद की रोशनी फैलने से अंधकार कोनों में बैठ हुए प्रेमी-युगलों की परछाई सड़क पर पसर आती थी। उन परछाइयों को पार करते हुए वे आगे की ओर बढ़ने लगे । उन्होंने अपने ही मन से प्रश्न किया - ’भारत में दूसरी जाति में शादी करने से जाति चली जाती है, लेकिन यहाँ भारत से आये युवक-युवती जिस भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, उससे उनकी जाति जाती क्यों नहीं है ?“
होटल के मालिक भट्ट बाबू के मकान का नम्बर और पता होने के कारण मकान को ढूँढ़ने में कोई दिक्कत नहीं हुई । होटल के मालिक भट्ट बाबू के मकान के सामने पहुँच कर उन्होंने घंटी बजायी । भट्ट बाबू बाहर आये और खुशी से हाथ मिलाते हुए सुदाम बाबू को स्वागत-सत्कार के साथ घर में ले गये । छतरी को बरामदे की दीवार से टिकाते हुए सुदाम बाबू घर में कदम रखने लगे। वे भट्ट बाबू के घर की चारों दीवारों पर निगाह दौड़ाने लगे । ममताज और शाहजहाँ के जुगल फोटो के बीच ताजमहल की छवि दीवार पर टंगी हुई थी । सुदाम बाबू सोचने लगे कि भारत के ऐतिह्य को ये विश्व के लोगों के पास पहुँचा रहे हैं ।
मित्र की पत्नी चाय-नाश्ते की तैयारी में जुट गयीं । उनके मना करने के बावजूद मित्र की पत्नी नाश्ता ले आयीं और कहा - ’हाथ-मुँह धो लीजिए और नाश्ता कीजिए । मैं चाय बनाकर लाती हूँ ।“
भट्ट बाबू ने अपनी पत्नी की बातों का समर्थन करते हुए कहा - ’आप जानते हैं न ? भारत में एक कहावत बहुत दिनों से चली आ रही है- “अतिथि देवो भव । ” अर्थात् अतिथि देवताओंके समान होते हैं । आप हमारे घर में अतिथि बन कर आये हैं, कुछ खाये बिना कैसे लौट जाएँगे । ऐसा कैसे हो सकता है । मैं यदि आपके घर जाऊँगा, तो आप मुझे ..... ।“
सुदाम बाबू ने कहा - ’भाभीजी ! मुझ जैसे एक सामान्य अतिथि के लिए आप इतना कष्ट क्यों कर रही हैं ? मैं तो ज्यादा दूर से आया नहीं हूँ । अपराह्न को चाय-नाश्ता करके घर से निकला था ।“
बातचीत के सिलसिले में भट्ट बाबू ने पूछा - ’आप के बेटे की शादी हो चुकी है कि नहीं ?“
सुदाम बाबू ने उत्तर दिया – “पत्नी के देहान्त के बाद गाँव में मुझे ही सब कुछ करना पड़ता था । इसलिए अब भी मैं रसोई में बेटे का हाथ बँटाता हूँ । तय किया है कि लंडन से लौटने के बाद बेटे की शादी रचाऊँगा । फिर घर में रसोई की कोई समस्या रहेगी नहीं । हालाँकि आजकल के बच्चे रसोई के लिए घर में नौकर-चाकर रख लेते हैं । यह सब उनकी इच्छा पर निर्भर करता है I”
भाभीजी शब्द को सुनकर भट्ट बाबू की पत्नी भावुक हो उठीं । कहा – “अतिथि के लिए कष्ट उठाने से आनन्द मिलता है । अब तो नाश्ता ले लीजिए ।”
भट्टबाबू की स्नेह-श्रद्धा को देख कर सुदाम बाबू भाव-विह्वल हो उठे । हाथ-मुँह धोकर नाश्ता करना शुरू किया । भट्ट बाबू के आतिथ्य से सुदाम बाबू काफी खुश नजर आ रहे थे ।
नाश्ता कर चुकने के बाद सुदाम बाबू सोफे पर आकर बैठे । टी-पॉय पर अँग्रेजी और उर्दू भाषा के अखबार और पत्रिकाएँ रखे हुए थे । सुदाम बाबू एक अँग्रेजी अखबार उठाकर पढ़ने लगे । उसमें कश्मीर के बारे में लिखा हुआ था ।
सुदाम बाबू ने उत्सुकता के साथ पूछा - ’आप भारत के किस इलाके से आये हुए हैं ।“
भट्ट बाबू ने जवाब दिया - ’सुदाम बाबू आप गलत मत समझिएगा । मेरे पिताजी कश्मीर के मूल बाशिंदा थे, लेकिन भारत के कश्मीर के नहीं । वे पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के गिलगिट और बाल्टिस्तान इलाके के बाशिंदा थे । भारत-पाकिस्तान विभाजन के समय वहाँ से एक अँग्रेज सैनिक की सहायता से जहाज से वे इंग्लैैण्ड आये थे । उनके घर में कुछ दिनों तक घरेलू नौकर के हिसाब से काम करने के बाद उन्हें एक होटल में काम मिला था । बाद में उन्होंने खुद एक होटल खोला । पिताजी की मौत के बाद अब मैं उस होटल को सँभाल रहा हूँ ।“
सब कुछ सुन चुकने के बाद सुदाम बाबू ने पूछा - ’तो फिर होटल का नाम महाराजा रखने के पीछे रहस्य क्या है “
भट्ट बाबू ने जवाब दिया - ’यहाँ काफी संख्या में भारतीय लोग रहते हैं, इसलिए पिताजी ने होटल का नाम महाराजा रखा था । फिलहाल पाकिस्तान के प्रति विश्व की धारणा सही नहीं है । इसलिए इंग्लैंड़, अमेरिका और यूरोप के अधिकतर व्यक्ति पाकिस्तान नाम के साथ अपना कोई भी रिश्ता कायम करना चाहते नहीं हैं । विशेष कर ग्यारह सितम्बर दो हजार एक में इस्लाम के आतंकवादियों द्बारा अमेरिका के ट्विन टा@वर पर किये गये आक्रमण के बाद दक्षिण एसिया और अरब देश के मुसलमानों को यहाँ के लोग नफरत की नजर से देखते हैं । इसलिए अब मैं दाढ़ी और मूँछें रखता नहीँ हूँ । यूरोप के लोगों की नफरत की नजर से और इस्लाम फोबिआ से खुद को बचाने के लिए कई मुसलमान अब अपने असली परिचय को छिपाते हुए खुद का परिचय भारतीय के रूप में देते ह । इसलिए मैं भी अपने परिचय को छिपाकर खुद का परिचय भारतीय के रूप में देता हूँ । विश्व में भारतीय डाइआस्पोरा काफी विशाल है । पाकिस्तान की तुलना में भारतीय खाद्य काफी मशहूर हैं । यहाँ पाकिस्तानियों की तुलना में भारतीय ग्राहकों की संख्या बहुत ज्यादा है। जब भारतीय विदेश आते हैं, वे भारत के नाम के होटल ढू़ँढते हैं। पर्यटन या व्यापारिक यात्रा में आनेवाला हर नागरिक अपने देश का खाद्य खाना पसंद करता है । यदि पता चला कि कौई होटल या रेस्तोराँ किसी पाकिस्तानी का है, तो वे वहाँ जाएँगे नहीं । इसलिए भारतीयों को आकर्षित करने के लिए पिताजी ने भारतीय नाम रखा था I”
सुदाम बाबू अचरज भरी नयनों से भट्ट बाबू के समूचे बदन को निहारने लगे । होटल में भट्ट बाबू जिस प्रकार के कपड़े-लत्ते पहना करते हैं, उससे भिन्न एक प्रकार की पारंपरिक पोशाक पहने हुए थे । सुदाम बाबू ने पूछा -“पाकिस्तान में भट्ट कुलनाम वाले ब्रह्मण हैं क्या“?
भट्ट बाबू ने एक सीधा- सीधा उत्तर दिया- “ना !”
सुदाम बाबू ने फिर से पूछा - “गलत मत समझिएगा । तो फिर आप किस जाति के हैं । मैं सिर्फ आपको भट्ट बाबू के नाम से जानता हूँ। आपका शुभ नाम क्या है“?
भट्ट बाबू ने नीरस आवाज में उत्तर दिया मेरा पूरा नाम मकबूल भट्ट है । हमारी कोई जाति नहीं है; लेकिन हम इसलाम धर्म को मानते हैं। भट्ट बाबू का जवाब सुनकर सुदाम बाबू आश्चर्य -चकित हो उठे । उनके मुहँ से कोई बात नहीं निकली । उनकी रूढ़िवादी प्रकृति के कारण वे भट्ट बाबू के चेहरे को मुँह उठाकर देख नहीं सके । उसी पल वहाँ से निकल जाने को जी चाह रहा था; लेकिन जा नहीं सके । वहँा से उठ कर फौरन न चले जाने में उनका विवेक बाधक बन रहा था । उन्हें लगा कि उनका खाया हुआ सारा नाश्ता मानो उनके पेट से बाहर निकलने के लिए खदबदा रहा हो । उन्हें मितली-सी आ रही थी ओर डकारें निकल रही थीं ।
मित्र की पत्नी ने इसे भाँपते हुए कहा –“ घर में काफी दवाइयाँ हैं। ठहरिये, लेकर आती हूँ I”
सुदाम बाबू ने बात को छिपाने के लिए कहा-“मुझे ऐसिडिटि है। नाश्ता जरा ज्यादा हो गया । वैसे परेशान होने का कोई कारण नहीं है । थोडी देर बाद अपने आप सबकुछ ठीक हो जाएगा I”
फिर सुदाम बाबू ने पूछा-“आप तो मुसलमान हैं । तब आपका कुल नाम भट्ट कैसे हुआ I”
भट्ट बाबू ने समझाते हुए कहा –“ आप जानते नहीं हैं कि कभी हिन्दुस्तान की सीमा ईरान तक फैली हुई थी । सत्रहवीं शताब्दी में पश्चिम भारत, जो आजकल का पाकिस्तान है, वह पूरी तरह इसलामी राज्य में परिविर्तत हो गया । इसलिए हिन्दू ओर मुसलमान दोनों कुलनामों में समानता देखने को मिलती है । जो कुलनाम हिन्दुओं के हैं, वही कुलनाम मुसलमानों के भी हैं । भट्ट, चौधरी, मल्लिक, अमिन, हजारी, मुनसी, दास, मिर्द्धा, शाहा आदि कुलनाम हिन्दू ओर मुसलमान दोनों के हैं । कश्मीर के भट्ट ब्रह्मणों ने कभी इसलाम धर्म को स्वीकार कर लिया था । पाकिस्तान और भारत के सभी लोगों के पूर्वज एक ही वंश के हैं । हम सभी सिंधु-सभ्यता के अधिवासी हैं । इसलिए हमारा खून एक है । हमारे बदन का रंग भी एक हैं । हमारे शरीर की बनावट एक प्रकार की है । वह पाकिस्तानी हो या बंगलादेशी, सभी विदेश में भारतीयता को ही पाथेय बनाकर अपनी आजीविका चलाते हैं। हाल ही में रूस-युक्रेन युद्ध में पाकिस्तान के छात्रों ने भारत के तिरंगे झण्डे को फहराया और अपनी जान बचाई। वास्तव में हम सभी ने भारतीय मुखौटा पहन रखा है I”
सुदाम बाबू उस आलोचना के निष्कर्ष में पहुँचने के लिए खुद अपनी समीक्षा करने लगे । इस बीच उनके मन और मस्तिष्क में एक शीतल युद्ध प्रारंभ हो गया था । वास्तव में किसने मुखौटा पहन रखा है ? अब किसका मुखौटा उतर गया है । उनका या मकबूल भट्ट का ? उन्होंने मकबूल भट्ट द्वारा पहने गए भारतीय मुखौटे को खोल दिया है । अगले ही पल सुदाम बाबू ने महसूस किया कि वास्तब में उनमें पल रहे जाति-धर्म नाम के अहंकार के मुखौटे को भी मकबूल भट्ट ने जबरदस्ती छीन लिया है ।
आतिथ्य के लिए भट्ट दंपती का धन्यवाद करते हुए किसी और दिन फिर आने की बात कहकर सुदाम बाबू वहाँ से लौटने लगे । चाँद को ढकने वाले बादल हवा के बहने से जिस तरह छँट जाते हैं, वैसे ही उनके मुख-मंडल से अवसाद का एक परदा हट गया और उनका चेहरा उज्ज्वल चाँद की तरह दिखाई पड़ने लगा । उन्हें हृदयंगम हुआ कि साँप के केंचुली झाड़ने की तरह वे अपनी सारी संकीर्णता के आवरण को वहीं छोड़कर आ गये हैं । लौटते समय रास्ते में उन्होंने अनुभव किया कि गाँव के मानव से विश्व-मानव में रूपांतरित होने की प्रक्रिया के द्वन्द्व में उनका मन खदबदा रहा है; लेकिन घर पहुँचने के बाद उन्होंने खुद को एक विश्व-मानव के रूप में आविष्कृत किया । यद्यपि समग्र विश्व में भारत का मुखौटा पहनने वाले लोग अपने मुखौटे को खोल नहीं रहे हैं, पर सुदाम बाबू और मकबूल भट्ट बाबू के मुखौटे खुल गये थे ।