मुख बंद रखने की कीमत (कहानी) : गोपाल भाँड़

Mukh Band Rakhne Ki Keemat (Bangla Story in Hindi) : Gopal Bhand

एक समय की बात है। एक दिन महाराज कृष्णचन्द्र ने गोपाल भाड़ से कहा, “एक मैं ही हूँ जिससे तुम हँसी-मजाक करके बड़ी सहजता से आये दिन रुपये लेकर चले जाते हो। यदि मेरी बुआ से तुम्हारा पाला पड़ता, तब तुम्हें पता चलता कि तुम कितने पानी में हो।"

यह सुनते ही गोपाल भाड़ की जिज्ञासा बढ़ गयी। उसने पूछा, “आपने ऐसा क्यों कहा महाराज? आपकी बुआ तो खूब दयालु महिला हैं। मुझसे जब भी भेंट होती है, मेरा हाल-चाल बड़े प्रेम से पूछती हैं।" महाराज ने गोपाल भाड़ के भ्रम को तोड़ना चाहा। कहा, “यह सब तो ऊपरी दिखावा मात्र है। यदि तुम उनसे कुछ रुपये निकाल कर ला सको, तब हम समझेंगे कि वे कितनी दयालु महिला हैं।"

महाराज के इस कथन से गोपाल भांड की जिज्ञासा और बढ़ गयी। उसने कहा, “आप ऐसा क्यों कह रहे हैं महाराज? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है। "

"समझोगे, समझोगे। ...तो जाओ न चमड़ी जाये पर दमड़ी न जाये कहावत पर खरी उतरने वाली उस बुढ़िया की गाँठ से कुछ रुपये निकालकर ले आओ। तब हम तुम्हें मान लेंगे।"

महाराज की बात सुनकर गोपाल भांड गम्भीर हो गया। कहा, “क्या आप मेरी परीक्षा लेना चाहते हैं?"

इस पर महाराज ने भी गम्भीर मुद्रा में गोपाल को फिर चुनौती दी, “मैं अटल हूँ कि तुम उस कंजूस बुढ़िया से एक पैसा भी नहीं ला सकते।"

"और यदि मैंने उनसे रुपये ला दिये तो?... तब आप क्या करेंगे?..."

गोपाल ने महाराज की चुनौती को स्वीकार कर महाराज को उकसाया और महाराज की ओर देखने लगा।

महाराज ने भी तैश में आकर गोपाल से कह ही दिया, " तब... तब जितना तुम लाओगे, उससे दोगुना पैसा मैं तुम्हें दूँगा।"

"तब यही तय रहा महाराज", कहकर गोपाल भाड़ ने महाराज को दण्डवत् प्रणाम किया और खुशी मन से अपने घर लौट आया। गोपाल महाराज की विधवा बुआ को खूब पहचानता था। यद्यपि बुआ कंजूस थी, पर उनके जैसी आचार-विचार वाली, नियम आदि को मानने वाली भद्र महिला का मिलना बड़ा मुश्किल था। विशेष पर्व-त्योहार के दिन व्रत, उपवास तो चलता ही रहता था, उनसे एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि भी नहीं छूटता था। इस दिन भी वे नियमत: उपवास करती ही थीं।

अतः इस प्रकार की निष्ठावती भद्र महिला को किस तरह से काबू में किया जाता है, गोपाल भांड अच्छी तरह जानता था। अपनी योजनानुसार पहले वह बाज़ार पहुँचा। वहाँ से उसने छोटी झींगा मछली खरीदी। घर लाकर अच्छी तरह से उसे तला। फिर कागज में लपेटा और चल दिया महाराज की बुआ से मिलने ।

गोपाल को देखते ही बुआ ने बड़े ही अपनत्व से उसका स्वागत किया।

"आओ गोपाल, आओ" ।

पर गोपाल ने बुआ को जैसे ही दण्डवत् प्रणाम कर चरण-धूलि लेनी चाही, न जाने क्यों बुआ बिदककर दो क़दम पीछे हट गयी। कहने लगी, "रहने दो, रहने दो। अभी मुझे छुओ मत। नहीं तो फिर से मुझे स्नान करना पड़ेगा। पता नहीं बाहर की कितनी गन्दगी तुमने अपने शरीर में लगायी होगी।"

गोपाल को अन्ततः बुआ को दूर से ही दण्डवत् कर सन्तोष करना पड़ा। गोपाल ने कहा, “बहुत दिनों से बुआ तुम्हारे हाथों का भोजन करने का अवसर मुझे नहीं मिला। आज तो मैं आपके हाथों का भोजन ग्रहण करके ही जाऊँगा। यही तय करके आया हूँ।”

सुनते ही बुआ चौकी। कहा, “ऐसा था तो पहले से ही बता देना चाहिए था ताकि तुम्हारे लिए अच्छा भोजन मैं बनाकर रखती। आज तो बस थोड़ी बहुत दाल, लौकी-बड़ी की सब्जी और पोस्ते की चटनी भर है। यह तुम्हें क्या रुचेगा?"

“आपने क्या कह दिया बुआ", गोपाल ने मुस्कुराते हुए कहा। “लौकी-बड़ी की सब्जी, ऊपर से पोस्ते की चटनी। अब इसके साथ और क्या चाहिए? आपने तो भोजन कर ही लिया होगा। उसी थाली में थोड़ा भात और जो कुछ सब्जी है, दे दीजिए। उसी से मेरा भोजन हो जायेगा।"

बुआ जानती थी कि एक बार गोपाल जो ठान लेता है, उसे पूरा करके ही छोड़ता है। अतः हारकर उनको उठना पड़ा। उसी जूठी थाली में उसने भोजन परोसकर गोपाल के सामने रख दिया और घर के अन्दर चली गयीं।

बुआ की अनुपस्थिति में, गोपाल जो तला हुआ लाल-लाल झींगा मछली लाया था, उसे सब्ज़ी में मिला दिया और ऊँचे स्वर में बुआ को आवाज़ लगाने लगा, "बुआ आपने तो लौकी में छोटा झींगा डालकर कमाल की सब्जी बनायी है।... इसका तो कोई जवाब ही नहीं...है तो थोड़ा और दीजिए ना।"

लौकी की सब्ज़ी में झींगा ! सुनते ही बुआ के तो कान खड़े हो गये। दौड़ी आयीं। आँखें बड़ी-बड़ी कर बुआ ने कहा, "पागल की तरह क्या बक रहे हो?"

“हाँ बुआ देखो तो! यह देखो...!" और गोपाल ने थाली से दो-चार लाल झींगा उठाकर बुआ को दिखा दिया। फिर भड़काया... "खूब बढ़िया बना है तो...।"

बुआ ने जैसे ही झींगे को साक्षात अपनी आँखों से देखा वे मूर्छित होने को आयीं। उन्हें लगा उम्र की इस दहलीज पर कहीं आँखों को भ्रम तो नहीं हो रहा। लौकी में झींगा आया कहाँ से ?

बुआ को गोपाल को छूने मात्र से ही स्नान करना पड़ रहा था, वे ही बुआ अब आगे बढ़ आयीं। उन्होंने गोपाल के दोनों हाथ कसकर पकड़ लिये। अनुनय- विनय के साथ बुआ ने गोपाल से कहा, “बेटा गोपाल, इस झींगे लौकी की बात को गुप्त ही रखना। किसी से कहना मत। नहीं तो लज्जा से मैं तो किसी को मुँह ही न दिखा पाऊँगी।'

गोपाल का निशाना सही जगह लग चुका था। अब गोपाल ने अपनी करामात दिखायी। कहा, “बुआ यह क्या कह रही हो? आपने इतनी स्वादिष्ट सब्ज़ी बनायी और इसे गुप्त रखना होगा ? यह मुझसे नहीं हो सकेगा। मैं तो कल ही राजा के दरबार में जाकर इस स्वादिष्ट सब्ज़ी के बारे में सबको बताऊँगा।"

यह सुनकर बुआ के होश उड़ गये। "नहीं बेटा गोपाल, नहीं! ऐसा काम मत करना। तुम मेरे प्रिय बेटे के समान हो। मैं तुमसे हाथ जोड़कर अनुरोध करती हूँ।"

गोपाल और कठोर हो गया। मुख चढ़ाकर बोला, “मुझे क्षमा करना बुआ। ऐसा अनुरोध मुझसे मत कीजिए। मैं महाराज से कभी झूठ नहीं बोल सकता।"

"तुम कर सकोगे बेटा, कर सकोगे!" बुआ ने गोपाल को मनाने की कोशिश नहीं छोड़ी। मैं तुम्हारे लड़कों को मिठाई खाने के लिए दस रुपये देती हूँ। पर गोपाल सहज ही मानने वाला व्यक्ति नहीं था। अतः बुआ के हर अनुरोध पर वह अपना सिर ना में हिलाता रहा। बात न फैले, इस डर से बुआ गोपाल के सामने अपनी गाँठ ढीली करती चली गयी। इस प्रकार जब धनराशि पचपन रुपये पर पहुँच गयी तब जाकर गोपाल ने अपना मुँह बन्द रखने पर सहमति जता दी। बुआ से रुपये लिये। दण्डवत् प्रणाम किया और बड़े खुशी-खुशी मन से अपने घर लौट आया।

अगले दिन वह महाराज के पास पहुँचा। राजा से एकान्त में मिलकर उसने बुआ से पैसे निकलवाने की पूरी कथा विस्तार से सुनायी। और महाराज से एक सौ दस रुपये ले लिये। फिर वह बाज़ार पहुँचा, जहाँ उसने एक लौकी, छोटी झींगा मछली और पोस्ता ख़रीदा। घर आकर स्वादिष्ट भोजन बनाने के लिए सब सामग्री पत्नी के हवाले की और स्नान करने ठाठ से पोखर की ओर चल पड़ा।

(बंगला से अनुदित : जयप्रकाश सिंह बन्धु)

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