मुझ पर कहानी लिखो (मराठी कहानी) : दिगंबर बालकृष्ण मोकाशी
Mujh Par Kahani Likho (Marathi Story) : D. B. Mokashi
सोलह साल की उम्र में मैं महान लेखक था । हमारी गली में कहीं भी आपको मेरा नाम सुनने में आता । वैसे देखा जाए तो मेरी एक भी कहानी छपी न थी । पर गली से गुज़रते छोटे-बड़े राहगीर, आते-जाते हमारे घर की खिड़की की ओर मुँह करके, ज़ोर से आवाज़ देते हुए पूछते – ‘लेखक जी, लेख लिख रहे हो क्या ?’
उन बेवकूफों को लेख और कहानी के बीच का फ़र्क मालूम न था । फिर उनकी यह बात सुनकर, मैं ख़ुद पर बहुत खुश होता और उस वक़्त बाबा ने जो पैसे भेजे हुए होते, उनका अगर हिसाब चालू होता, तो पाँच रुपयों का हिसाब-किताब ग़ायब होता, मैं उसे मुख़्तलिफ़ खाते में लिख देता था । हिसाब जैसी मामूली बात में मन लगाना, कोई लेखक का काम है ?
सोलह साल की उम्र ! हर बात करने को दिल चाहता, पर कोई भी बात पूरी नहीं होती थी । हर किसी से प्यार करने को जी चाहता था, पर मन कहीं भी ठहराव नहीं पाता था । घाघरा पहनने वाली दस साल की छोकरी भी सुंदर लगती थी और साड़ी पहनने वाली अपनी उम्र की लड़की के साथ भी दोस्ती करने को दिल करता था ।
इसलिये पड़ोस में रहनेवाली दस साल की रागिनी ने रोते-रोते कमरे में आते ही जब मुझसे कहा – ‘नाना, अभी के अभी मुझपर कहानी लिखो !’ तब मैंने क़लम तैयार कर ली । रागिनी मुझे अच्छी लगती थी इसलिए अगर मैं छिड़ गया तो इसमें कौन-सी नई बात हुई ।
मैंने उससे पूछा – ‘कौन-सी कहानी लिखूँ ? एक रागिनी नाम की प्यारी…!’
आधे में मेरी बात काटते हुए वह बोली – ‘ऊँ…हूँ…। मेरा नाम नहीं डालना है, यही तो मेरी शर्त है ।’
‘शर्त क़बूल है, आगे…?’
‘कहानी इस तरह हो – एक शहर में राधा नाम की एक लड़की रहती थी । उम्र मेरे जितनी, मुझ जितनी पढ़ी-लिखी । घर मेरे घर जैसा ही, और माँ भी मेरी माँ जैसी । बाप के बारे में अच्छा लिखना है । पर माँ के बारे में बहुत बुरा लिखना । राधा को एक बार पाँच गज़ वाली साड़ी पहननी थी, पर उसकी माँ बहुत ख़राब थी न? आसपास की सब लड़कियाँ साड़ी पहनती थीं, क्या वे सब ख़राब बन गईं ? फिर भी राधा की माँ…’
पर फिर अचानक ज़ोर से सिसकी आने पर, रागिनी को राधा की कहानी अधूरी ही छोड़नी पड़ी । आस-पड़ोस की लड़कियों को पहनी हुई पाँच-गज़ वाली साड़ियाँ, अपनी ज़िद, माँ का मना करना, सब उसे याद आया होगा । मुझे उसपर तरस आ गया । मैंने उससे कहा – ‘रागिनी, बस करो । ऐसी कहानी लिखता हूँ कि तुम्हारी माँ तुम्हें एक क्या, दो साड़ियाँ लेकर देंगी ! माँ का ऐसा खौफ़नाक बिंब खीचूँगा, कि पूछो ही मत । ज़ालिम, खट-पट करने वाली, काली, मारपीट करने वाली, बिलकुल ऐसी जो आस पड़ोस में मुँह दिखाने के क़ाबिल न रहेगी ।’
तालियाँ बजाते हुए उसने कहा – ‘हाँ, हाँ ऐसी ही लिखो !’
उसके बाद मैं बिलकुल गंभीर होकर कहानी लिखने लगा । इस शौक़ में मुझे ध्यान ही न रहा कि इस बीच रागिनी पाँच गज़ वाली साड़ी पहनकर, नुमाइश करने के लिये रास्ते पर घूम फिर रही थी । रागिनी की कहानी से तालमेल खाती कहानियाँ पढ़ी, उनमें से कई हिस्से अपने पास दर्ज किये । ‘कैकई’ के कितने ही गुण काम आएँगे, इसलिए उसकी कई बातें अपनी चोपड़ी में लिख ली । ग़रीब राधा – खट-पट करने वाली माँ । ऐसा खौफ़नाक दिल में दरारें पैदा करने वाला शीर्षक दिया कहानी को । क़रीब एक महीने में कहानी लिख ली । फिर रागिनी को बुलवाया और रोब के साथ उसे कहानी दी । उसने कहानी का शीर्षक पढ़कर कहा –
‘अल्ला ! जैसी कहानी लिखने को कही थी, वैसी ही है ? पढ़ती हूँ, अच्छा !’
वह कहानी पढ़ने लगी । मैं उसकी ओर निरंतर निहारता रहा । पलकों को झपकाया, अब कुछ हँस पड़ी, जैसे लड़की को देखने के लिए आए हुए लोगों के चेहरों पर उभरते छोटे-बड़े भाव, जैसे लड़की के माँ-बाप जाँचते रहते हैं, वैसे ही मैं कर रहा था । कहानी कैसी लगेगी ? अच्छी लगेगी या नहीं ?’
आख़िर कहानी पढ़कर पूरी की और मुझे लौटाते हुए कहा – ‘कहानी कितनी खौफ़नाक लिखी है ! हमारी माँ इतनी खट-पट करने वाली, इतनी काली, इतनी ज़ालिम है क्या ? नहीं, ना, ना, ना, ! अम्मा कितनी स्नेहमयी है । वह डाँटती भी है तो ऊपरी मन से । उस दिन मै स्कूल से लौटी तो पाँच-गज़ वाली दो साड़ियाँ मेरे लिए लाकर रखी थीं । यह देखी है ? कितनी सुन्दर हैं ?’
पर मुझमें साड़ी की ओर ध्यान देने के लिए होश कहाँ था ?
मैंने कहा – ‘पर हमने फ़ैसला किया था कि…’
‘उस वक़्त मैं ग़ुस्से में थी, इसलिए रोई थी और तुमसे कहा था । पर, इसीलिए क्या मेरी माँ को खट-पट वाली और ज़ालिम कहोगे ?’
ग़ुस्से में आकर वह वहाँ से चली गई ।
इस बात को पाँच साल हो गए । रागिनी को अब साड़ी के लिये ज़िद करने की कोई वजह नहीं थी । हमारी बात-चीत पहले से अब कुछ कम हो गई थी । अब मेरी एक दो कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी थीं, इसलिये मैं नए लेखकों की सूची में दाख़िल हो चुका था।
कुछ दिनों से रागिनी के बारे में सरगोशियाँ सुनाई देने लगीं । कोई कहता – वह स्कूल का बहाना करके बाहर जाती और एक लड़के के साथ घूमती दिखाई देती ।
धीरे-धीरे उस लड़के के बाबत सारी मालूमात मिल गई । किसी मुद्रणालय में वह मुंशी था, उसे शायरी का शौक था, इसलिए ही दोनों की जान-पहचान हो गई ।
एक दिन शाम को रागिनी मेरे कमरे में आई । रो-रो कर उसका चेहरा सूज गया था। अंदर आकर, मेरी तरफ़ देखे बिना, मेज़ के पास जाकर, उसपर माथा टिकाकर, वह रोने लगी । मै चुप रहा । कुछ देर बाद उसने गर्दन ऊपर उठाकर कहा -‘नाना ! प्यार करना गुनाह है क्या ?’
मैंने कहा – ‘ऐसा कौन कहता है ?’
‘तुम कहानियाँ लिखते हो, प्रेम के बारे में तुम्हें ज़्यादा मालूम । किसी भेड़िये की तरह सभी मुझपर टूट पड़ते हैं । क्यों ? कहते हैं, मेरा एक लड़के के साथ प्यार है । प्यार के बिना मैं जी नहीं पाऊंगी । क्या रे ?’
मैंने कुछ भी नहीं कहा । उसने जोश में कहा – ‘वह ग़रीब है – होगा ! दूसरी जाति का है – तो क्या हुआ ? लोगों का क्या जाता है ? हमारी दीवार में दरार डालने क्यों आते हैं ? बोलो नाना ! तुम्हें झुंझलाहट महसूस नहीं होती ? तुम लेखक हो, ऐसे दुष्ट लोगों पर कहानी क्यों नहीं लिखते ? ऐसे लोगों को समाज के सामने खड़ा करके, तुम क्यों नहीं कहते कि ये जवान दिलों को ठेस पहुँचाने वाले समाज के गुनहगार है ? मुझे ही देखो ! बाबा ने मुझे चार दिन क़ैद कर रखा था । अम्मा ने मुझे तरह-तरह की बातें सुनाई। घर के बाहर, लोगों ने अपनी नज़रें मुझपर केंद्रित करके मुझे जलाकर ख़ाक कर दिया जैसे मैंने प्यार करके कोई बहुत बड़ा गुनाह किया है ।’
सांस लेने के लिए वह कुछ पल रुकी ।
‘यही मेरा बाप है, जिसने आज तक मेरी तारीफ़ करते हुए मेरे चेहरे को प्यार भरे हाथों से सहलाया, उसीने कल मेरे गालों पर तमाचा दे मारा । शाम को मैं घर में घुसी ही थी कि बाबा ने मुझे धमकाते हुए कहा – ‘रागिनी कहाँ गई थी ?’
मैंने कुछ नहीं कहा । उन्होंने फिर ज़ोर से चिल्लाते हुए कहा – ‘बताती हो या नहीं?’
मैंने सिर्फ़ गर्दन हिलाई । वे गुस्से से कहने लगे – ‘ज़रूर उसके पास ही गई होगी । फिर उससे मिली न ? कहो, मिली या नहीं मिली ? कहो, कहो !’
मैं फिर भी ख़ामोश रही, तभी हाथ घुमाकर मेरे गालों पर तमाचा दे मारा । उन्होंने मुझे मारा यही वेदना बहुत थी, मुझे सालती रही । मैं रात भर रोती रही, सुबकती रही । अपनी बेटी के स्नेह से ज़्यादा बाबा को समाज का डर और रीति-रस्मों की परवाह है । किसी खलनायक की तरह क्यों हमारे सुख को भंग करने के लिये आतुर है । नायिका का पिता होकर, उसी के सुख संसार में आग लगाने वाले ऐसे खलनायक की कहानी कभी तुमने लिखी है ?
‘नाना ! सच, मेरे लिये इतना कर दो । मुझपर एक कहानी लिखो, फिर भले ही मैं शिकार बन जाऊँ, पर मुझ जैसी और नौजवान लड़कियों को माँ-बाप की ओर से आज़ादी तो मिलेगी । नाना सच में लिखो न !’
और सच में मैंने कहानी लिख डाली । रागिनी के बाप को खलनायक न बनाकर, सारे ज़माने को खलनायक बनाने का फ़ैसला कर लिया था । कल्पना तेज़ रफ़्तार से परवाज़ भरने लगी ।
कहानी को मालामाल करने के लिये, रागिनी और उसके प्रेमी के इर्द-गिर्द के माहौल का अभ्यास किया । उसके प्रेमी का ऑफ़िस देखा, घर देखा । जिस मुशायरे में उनकी पहचान हुई, उस मुशायरे का सारा प्रोग्राम बैठकर सुना । वे साथ में घूमने क्यों जाते हैं, उसका सबब, उनके ख़तों के मज़मून, दोनों के बीच में हुई प्यार की गुफ़्तगू यह तमाम ‘मसाला’ रागिनी ने मेरे हवाले किया और आख़िर मेरी नाकाम मुहब्बत की बेहतरीन कहानी तैयार हो गई । सारे गाँव में उस कहानी ने क़यामत बरपा कर दी । कहानी में प्रेमी और प्रेमिका का ज़िक्र, प्रेमी की ऑफ़िस, उसका घर, माता-पिता, मुशायरे के ज़िक्र ने हर पहचान को आसान कर दिया, किसी को अपनी सोच पर दबाव देने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी । जो बात पहले सिर्फ़ कानों में सरगोशियाँ करती, वही हर चौराहे पर खुले आम सुनने में आने लगी । रागिनी को बंद करके रखने की ज़रूरत अब उसके पिता को नहीं पड़ी । वह खुद ही अपने आप को दिन-रात घर में बंद कर बैठी ।
इस समय मैं एक अजीब चिंता से घिरा हुआ था । मेरी कहानी उसने पढ़ी है या नहीं, इसकी मुझे कोई ख़बर नहीं मिल सकी । मैं फिर से बेचैन हो गया ।
अचानक, एक दिन उसके भाई ने मुझे चिट्ठी आकर दी । रागिनी ने लिखा था – ‘नाना, तुम्हारी कहानी पढ़ी, मुझे यक़ीन है कि तुम बड़े लेखक बनोगे । तुम्हारी कहानियाँ फिलमाई भी जाएँगी। गाँव में चारों ओर हमारे बारे में ही लोग बात कर रहे हैं । हमारी बदनामी हो रही है । इस बदनामी से बचने के लिये, बाबा ज़रूर हम दोनों की शादी करवाएँगे । क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता ?’
‘मुझे भी ऐसा ही लगता है’ ऐसा उसे लिख भेजा । मेरी लेखनी के बारे में जो भविष्यवाणी उसने की थी, वही मुझे सबसे ज़्यादा भली लगी । मैं बहुत खुश था ।
पर उसी रात रागिनी का पिता मेरे घर आया ।
‘नाना किस जनम की दुश्मनी निकाल रहे हो, ये तो बताओ । तुम्हारे पिता के साथ मेरी दोस्ती है, इसलिये छोड़ रहा हूँ, नहीं तो तुम्हारी इस कहानी के लिये… रहने दो ! तुम अभी छोटे हो । दिमाग़ ठिकाने पर रखो, अच्छे बर्ताव का सबक अब भी सीख लो । पर, तुम खुद क्या लिखते हो और उसका नतीजा क्या निकलेगा, इस पर चार दिन सोचो और फिर लिखो । बाक़ी अपनी कहानी से एक ग़रीब लड़की का सर्वनाश कर दिया है तुमने, यह बिलकुल सही है ।’
इतना कहकर रागिनी के पिता सिर झुकाए बाहर चले गए । फिर रागिनी को लेकर उसके पिता ‘वरहाड’ गए हैं, यह ख़बर सुनी । वहाँ रागिनी की मौसी थी ।
धीरे-धीरे दिन गुज़रने लगे । जैसे पानी पर मची हलचल आहिस्ता-आहिस्ता शांत हो जाती है, वैसे ही इस वारदात के साथ भी हुआ । लोगों की याद से जल्द ही रागिनी, उसका प्रेमी, मेरी कहानी – सब ग़ायब हो गए । नई बातें सामने आईं और लोग उन पर चर्चा करने लगे । जिनको जख़्म मिले, उनके साथ क्या वेदना हुई यह पता नहीं पड़ पाया।
यह जानने के लिये सीधा रास्ता नहीं था, इसलिये मैंने टेढ़ा रास्ता ढूँढ़ निकाला । मैं ख़यालों में खो गया । अपने प्रीतम से ज़बरदस्ती एक नौजवान लड़की को उसके पिता दूर बहुत दूर ले जाते हैं । वह तन से तो वाक़ई दूर हुई पर मन से वह अपने प्रीतम के पास ही रही । उसकी आँखों की चमक ख़तम हो गई । बातचीत से जोश ग़ायब था, जीना बेमज़ा हो गया । उसका दिल निर्जीव मिट्टी की तरह हो गया । उसे यूँ लगने लगा कि वह जहाँ बैठे, वहाँ बैठी ही रहे, जहाँ लेटे, वहाँ लेटी ही रहे, कुछ कर दिखाने का शौक़ बाक़ी न रहा । बतियाने की ख़्वाहिश भी ख़तम हो गई । ज़िन्दगी बेमानी हो गई ।
फिर उसके बाप ने उससे पूछा – शादी के बारे में पूछा । कुछ तो बात करनी चाहिए, इसलिए उसने ‘हाँ’ कही । उसे लड़का देखने आया । जिस समय वह आया, उस वक़्त वह मोम की गुड़िया बनी बैठी रही । सिर ऊपर करके लड़के को देखा तक नहीं । आख़िर उसकी शादी हो गई । पर उसका निर्जीव मन, ज़िन्दा न हो पाया । धीरे-धीरे वह दुबली होने लगी । खान-पान से उसका मन उचाट हो गया । उसे क्या हो रहा है, किसी को पता ही नहीं चला । आख़िर एक साल के बाद, डॉक्टर ने यह फैसला सुनाया कि उसे क्षयरोग हुआ है । तद्पश्चात् वह बहुत दिन ज़िन्दा न रही । मुर्दा तो वह पहले ही थी, ज़माने की नज़रों में आज मर गई ।
दिमाग़ में आई ऊटपटांग कल्पनाएँ लिख लीं । रागिनी के ग़म और गुस्से से मैं एक रस हो गया । लिखते-लिखते आँसू पोछने लगा, पोंछते-पोंछते लिखने लगा ।
कहानी लिखकर समाप्त करनी थी, मैंने खुद से कहा – ‘रागिनी, तुम यहाँ नहीं हो, तो भी तुम्हारे जज़्बात मैं महसूस कर सकता हूँ । मुझे उनके साथ एक रस होना आता है। रागिनी, तुम्हारा ग़म दुनिया के आगे रखना मेरा फर्ज़ था और वह मैंने निभाया । मेरे अल्फाज़ नीरस हो सकते हैं, पर वे तुम्हें मधुर लगेंगे, इसका मुझे यक़ीन है ।’
कहानी लिखी तो सही पर वह प्रकाशित डेढ़ साल के बाद हुई । पर छपने के बाद वह मुझे बहुत पसंद आई । मेरे यार-दोस्तों ने भी मेरी तारीफ़ की । दोस्तों को पसंद आने वाली यही मेरी पहली कहानी थी ।
उस वक़्त किसी ने मुझे आकर बताया कि रागिनी आई है । उससे मिलने को मैं बहुत आतुर था । अपनी छपी हुई कहानी उसे दिखाने के लिये मेज़ पर निकाल कर रखी। पर दो दिन शायद रागिनी घर के बाहर ही नहीं निकली । तीसरे दिन सुबह-सुबह, मैं अभी सोया ही था, तो दरवाज़े की कुंडी की खड़खड़ाहट थी । मैंने उठकर दरवाज़ा खोला । बाहर रागिनी खड़ी थी । मैं आश्चर्य के साथ उसको देखता रहा । उसकी गोद में एक प्यारा-सा बच्चा था ।
मैंने अपनी आँखों को रगड़कर फिर देखा । सूरज की रोशनी रागिनी के बदन पर पड़ रही थी । उसकी सेहत पहले से काफ़ी बेहतर हुई थी । चेहरे पर लाली थी और आँखों में चमक ।
कुछ सूझा ही नहीं कि क्या बात करूँ, इसलिए बेवजह हँसने लगा । उसने कमरे में बिखरी चीज़ों की ओर देखकर कहा -‘छिः ! छिः ! अभी तक तुम्हारा अनाड़ीपन कम नहीं हुआ है । ठहरो, अब तो तुम्हारी शादी करवा ही देनी चाहिए !’
अपनी कही बात पर वह खुद हँसने लगी । इसलिये मैं भी साथ में हँसता रहा । उस समय मेरे मन में कुछ और विचार थे । उसपर लिखी कहानी जिस मैगज़ीन में प्रकाशित थी, वह मेज़ पर थी । उचित मौक़ा पाकर, वह उसके सामने रखने की सोच रहा था ।
रागिनी भीतर आकर मेरे पलंग की ओर गई । अपने बच्चे को वहाँ लिटाकर वह उसके साथ खेलने लगी । उसने बच्चे का गाल खींचा, उसके नन्हें-नन्हें होंठ अपने होठों में समेटे और अपना चेहरा बच्चे की तरफ़ झुकाया तो बच्चे ने भी अपने छोटे हाथ ऊपर करते हुए अपनी बौनी उंगलियों को रागिनी के बालों में उलझाया । बालों में खिंचाव पर रागिनी ने लाड़ से ‘उई अम्मा !’ कहा और झूठमूठ के गुस्से से बच्चे के मुँह पर हल्की-सी थपकी देते कहा – ‘नाना ! अभी भी तुम कहानी लिखते हो ?’
मैंने कहा – ‘हाँ !’
सिर को कुछ नीचे झुकाते, बालों से बच्चे की उँगलियाँ छुड़ाते कहा – ‘अच्छी- अच्छी पत्रिकाओं में तुम्हारी कहानियाँ आती होंगी अब !’
मैंने ‘हूँ’ में जवाब दिया । उसने अपने बालों से बच्चे की उँगलियाँ छुड़ाकर, उसकी मुट्ठी को अपने हाथ में थामकर उससे खेलती रही ।
‘नाना ! तुम्हें ऐसी कहानी लिखनी आएगी क्या ?’ उसने कहा ।
‘कैसी ?’ मैंने पूछ लिया ।
एकदम अपना चेहरा नीचे करके, बच्चे के पाँच-दस चुम्बन लेते हुए कहा – ‘ऐसी… ऐसी… ऐसी…।’
मैं कुछ कहते-कहते रुक गया । अचानक मुझे आभास हुआ कि वह मुझसे बात नहीं कर रही थी ।
‘अभी कहानी लिखते हो ? ऐसी कहानी तुम्हें लिखनी आएगी क्या ?’
ये सवाल बेमतलब के थे । वे मुझे या किसी को भी मुख़ातिब होकर नहीं कहे गए थे । मैं वहाँ न होता तो कमरे में आई चिड़िया को या मेज़-कुरसी से भी मुख़ातिब होकर वह ऐसा ही कुछ कहती और अपने बच्चे को चूमती रहती ।
मैंने कुछ भी न कहा । हाँ उसे दिखाने के लिये मेरी लिखी कहानी जिस पत्रिका में थी, वह चुपचाप, उसका ध्यान दूसरी ओर देखकर मेज़ के नीचे छुपा दी !
(अनुवाद: देवी नागरानी)