मुग़लसराय (कहानी) : मिर्ज़ा हामिद बेग
Mughalsarai (Story in Hindi) : Mirza Hamid Baig
शाम के साये गहरे हो गये थे और वो दोनों मटमैले अँधेरे में धुँधलाये हुए हिलते-हिलते धब्बों की तरह चुपचाप बढ़े चले जाते थे। उनके साथ फ़ुटपाथ पर सफ़ेदे की क़तार में बहती हुई हवा की सरसराहट अब साफ़ सुनायी दे रही थी। और वो दोनों एक साथ क़दम उठाते यहाँ, इस जगह पहली बार ठिठककर रुके थे।
अभी कुछ देर पहले पीछे से आते हुए खिलन्दड़ नौजवानों की एक टोली बहुत देर तक उन्हें अपने घेरे में लिए चलती रही थी। और उनके बीच वो मुजरिमों की तरह सिर झुकाये बहुत आहिस्ता क़दम उठाते यहाँ तक पहुँचे थे। अब वह हँसती-गाती टोली बहुत आगे निकल गयी थी और दूर तक कोई न था। अलबत्ता उनके कन्धे अभी तक आपस में रगड़ खा रहे थे। लड़का थोड़ा झुककर चल रहा था। उसका बल खाया हुआ बायाँ बाशू लड़की को पूरी तरह अपनी लपेट में लिये हुए था।
वो दोनों इस इलाक़े में नवागन्तुक थे और सिर्फ़ सुनी-सुनायी बातों पर यहाँ तक निकल आये थे। अब वो सफ़ेदे की क़तार के इस सिरे के आखि़री दरख़्त से टेक लिये खड़े थे। और दूर तक मटमैला अँधेरा हर तरफ़ लोटे ले रहा था।
दोनों अपने सफ़री थैलों के बोझ से ज़रा-ज़रा आगे को झुके हुए किसी हद तक डरे हुए भी थे। लड़के ने टॉर्च निकालकर लोटे लेते मटमैले अँधेरे में दूधिया रौशनी की कमन्दें हर तरफ़ फेंकी और मायूस होकर सिर झुका लिया। दोनों को अपनी टाँगें ज़मीन में धँसती हुई महसूस हुईं और वो देर तक यहीं, इसी जगह भारी सफ़री थैलों के बोझ तले दबे, बेबसी से आगे-पीछे झूलते रहे।
उनको इस हालत में कुछ ज़्यादा वक़्त नहीं गुज़रा होगा कि एक बड़े शोर के साथ दो सरपट आते हुए घोड़ों के पीछे दायें-बायें झूलती हुई बग्घी एक झटके के साथ उनसे चन्द क़दम आगे निकलकर रुक गयी। देखते ही देखते दोनों तरफ़ के दरवाज़े खुले और चमकते हुए भालों को सँभाले, दो बुझे हुए चेहरोंवाले लोगों ने उन्हें पूरी शिष्टता के साथ बग्घी में, नर्म झूलानुमा सीट पर ला बिठाया और चले।
लड़की को लपेट में लिए हुए बाशू की गरमाहट अब ढीली पड़ गयी थी और दोनों, जिस ख़ौफ़ के अभी कुछ देर पहले बन्दी हुए थे, वह ख़्वाबो-ख़याल होता जा रहा था। वो अजब आत्म-समर्पण के आलम में हवा के कन्धे पर थे और तेज़ हवा में उनके ऊपर को उठे हुए नर्म कालरों में आधे छुपे हुए, उनींदी आँखोंवाले, मुतमइन चेहरे दायें-बायें झूल रहे थे।
एक जगह बग्घी धीरे-धीरे रुक गयी उन्होंने जाना कि जैसे एक ठहरे ग़ुस्से से भरे पानी के धारे को राह दी गयी हो। वो जब बाअदब ख़ादियों का सहारा लिए बग्घी से बाहर आते हैं, तो सफ़री थैलों के बोझ से उनके कन्धे आज़ाद थे और उनके सामने आबनूस का पीतल-जड़ा विशालकाय दरवाज़ा धीरे-धीरे खुलता चला जा रहा था। और उसके अन्दर की ओर खिंचते और धनुष बनाते हुए जं़जीर, ग़ुस्से से भरे पानी के धारे का शोर बाहर उगल रहे थे।
दरवाज़े की दोनों चौकियों पर ठहरे हुए लैम्प पोस्ट अपनी पीली काँपती हुई रौशनी उगलते बेहद साफ़ और एक हद तक बुझे-बुझे से नज़र आये।
वो दोनों एक बार फिर कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने लगे। लड़के के बल खाये हुए ब़ाजू ने लड़की को एक बार फिर अपनी लपेट में ले लिया। सुर्ख़ बानात की दरियों में, कमरे के चारों ओर धारीदार पटके लपेटे हुए, धीमे क़दमों से, ख़ादिम उनके सफ़री थैलों को एहतियात से सँभाले ‘रप-रप’ करते उनके पीछे चले आते थे।
स्वागत कक्ष की नीम-रौशनी में मेहराब तले, लटकी हुई मूँछों और कलियों से कानों की तरफ़ मुड़ी हुई नोकदार क़लमोंवाले मेज़बान ने झुककर उन्हें ख़ुशआमदीद कहा और साथ हो लिया। वह रास्ते में बिछता चला जा रहा था और उस बातूनी ने, मजाल है कि उन्हें बात करने का मौक़ा दिया हो। वह कह रहा था, "हुशूर, यह हमारी ख़ुशनसीबी है कि आपकी खि़दमत का मौक़ा हाथ आया। पुर्तगाली, वलन्देजी, प्ऱफांसीसी और अंग्रेज़-सभी हमारे सिर आँखों पर और अरब रियासतों के शेख़ तो हमारे भाई-बन्द हैं। हुज़ूर ख़ातिर जमा रखिये।"
उस वक़्त वो धुली हुई लाल ईंटोंवाले रास्तों पर चल रहे थे और उनके दोनों तरफ़ खुले तालाबों के साफ़ पानी में दरख़्तों का गहरा अक्स काँप रहा था। वो कन्धे से कन्धा मिलाये चले जा रहे थे और सामने बिछता हुआ मेज़बान, "बन्दापरवर, हमें यक़ीन है कि मुग़लसराय की शोहरत सुनकर ही आप चले होंगे। यक़ीनन आपने जो कुछ सुना, वह अलिफ़ से ये तक दुरुस्त है। यहाँ सराय के मेहमानों को रिवायती मुग़ल रखरखाव के साथ ठहराया जाता है। और अब क्या अर्ज़ करूँ, जल्दी ही आप ख़ुद मेहरबान होंगे और हमारी सर्विसेज़ के तारीफ़ करने वाले भी।"
गेंदे के फूलों और बनफ़्शे के दूर तक फैले दरख़्तों को पार करके वो चीड़ के छोटे दरवाज़ों वाली क़तार के साथ हो लिए। फिर तंग बरामदों को मरहला आया। यहाँ हर दस क़दम पर दरवाज़ों के साथ सीधी ऊपर को उठी हुई मशालों का धुआँ नीचे छत पर सियाही का लेप कर रहा था। वो एहतियात से झुके-झुके मेज़बान के पीछे चलते रहे। फिर वह एक जगह रुका और एक जं़ग-लगे ताले को खोलते हुए सामने से हटकर अदब से झुका। तब उसके सामने एक दरवाज़ा डरावनी चरचराहट के साथ खुलता चला गया। फिर वह लपक-झपक अन्दर गया और आतिशदान को रौशन कर आया। वो दोनों दरवाज़ों में खड़े थे और मुलाज़िम उनके सफ़री थैले कमरे में एक तरफ़ रखकर जा चुके थे। फिर मेज़बान ने झुककर इजाज़त चाही और धीरे-धीरे अतिशदान में चटख़ती हुई लकड़ियाँ और उड़ती हुई चिनगारियों की मद्धम रौशनी में अन्दर का माहौल साफ़ होता गया।
उनके सामने, नीची छत के नीम रौशन कमरे में, भारी पलंग के सिरहाने आतिशदान के ठीक ऊपर, दो चन्द्राकार तलवारें मटमैले रंग के ढाल के आर-पार ठहरी हुई थीं। कमरें में दीवारों से सहमें हुए हिरन और बारहसिंगे बस निकला ही चाहते थे। फिर जाने कहाँ से झुककर आदाब बजा लाती, लचकती हुई दो कनीजें़ हाज़िर हुई। दरवाज़े में सहमा हुआ जोड़ा जुड़कर खड़ा था। वो आयी और लड़की को सहारा देती हुई बग़ली दरवाज़े में ग़ायब हो गयी। लड़का हिम्मत करके उनके पीछे चला, लेकिन उनके पाँव नीचे बिछे हुए क़ालीन में धँसतें चले जा रहे थे। वह बड़ी मुश्किल में था। जाने क्यों उस पर बेहोशी-सी छाने लगी और वह लड़खड़ा-सा गया। जब उसे होश आया, तो उसने देखा कि उसकी साथी लड़की कोई मुग़ल शहज़ादी है, जो बड़े पलंग पर अतलस-व-किमख़ाब में माहताब की तरह खिली हुई है। उस लम्हे वह नीम बेहोशी में बग़ली कमरे से होता हुआ दो नाज़ुक कनीज़ों के बाजुओं में लिपटा-लिपटाया आगे बढ़ रहा था।
और वह ख़ुद जैसे कोई मुग़ल शहज़ादा, ढाके की मलमल पर सुनहरी सदरी और कमर को चारों तरफ़ पटके में अंड़सा हुआ, जड़ाऊ थीक का मुड़ा हुआ खंजर सँभाले हुए था, जिसकी मूठ पर रेशमी फुँदना उसके लड़खड़ाते क़दमों के साथ झूल रहा था।
वह नीम-बेहोशी में लड़खड़ाता हुआ आगे बढ़ रहा था और उसने एकान्त चाहा था। कमरे में अब सिर्फ़ मोरछल हिलाती हुई दो कनीज़ें रह गयी थीं। और शायद पलंग पर अधलेटी मुग़ल शहज़ादी ने कोई फ़रमाइश कर दी थी। ऐसे में बग़ली कमरे से कोई एक वजूद बहुत गहरा घूँघट निकाले हुए ज़ाहिर हुआ था और झुकी-झुकी नज़रों के साथ चाँदी की ऊँची समावर, जिसके नीचे आग दहक रही थी और बड़े थाल में सूखे मेवे और नक़्काशीदार सुराहियाँ और भारी प्याले क़रीने से सजाकर पलट गया था।
वह लड़का जैसे कोई मुग़ल शहज़ादा बग़ैर कुछ खाये-पिये पलंग पर चित लेट गया और उसकी आँखें मुँदती चली गयीं। शायद कुछ देर वह सोया भी होगा उस दौरान बराबर से उठकर उसकी साथी लड़की मुग़ल शहज़ादी ने कमरे का चक्कर लिया और पाईं बाग़ की तरफ़ खुलनेवाली खिड़की में खड़ी रही।
फिर जैसे-जैसे रात बीत रही थी, नीचे दूर तक निकल गयी। घने दरख़्तों में अजब तरह की ग़ुर्राहटों का शोर उभरता चला गया। दरख़्तों से भर्रा मारकर चिड़िया और कौवे शोर करते हुए आसमान की तरफ़ उड़ने लगे।
शोर बढ़ रहा था। बाहर चाँदनी में रास्तों के साथ-साथ थूहर की ऊँची-नीची दीवारें घास के तख़्तों पर ठहरी हुई संगमरमर की कुख्रसयाँ और कासनी फूलों से गुँथी बनफ़्शे की मोटी तहें - सब धीरे-धीरे माँद पड़ गयी और हर तरफ़ से बढ़ता, करवटें लेता हुआ, पागल कर देने वाला शोर हर तरफ़ भर गया।
लड़की घबराहट में धीरे-धीरे पीछे हटती गयी थी। यहाँ तक कि कमरे में मेज़बान की आवाज़ गूँजी, "हुशूर, बेफ़िक्र रहिये। यह शोर नक़ली है और सिर्फ़ आपका दिल बहलाने के लिए इस वक़्त हमारे तनख़्वाह पानेवाले मुलाज़िमों की टोलियाँ पाईं बाग़ के कोने-खुदरों मे हरकत कर रही थीं। यह भेड़ियों और गीदड़ों की मिली-जुली आवाज़ें बहार के मंज़र में क़ुदरती रंग भरने की ख़ातिर हैं हुशूर! निश्चिन्त रहिये।" मेज़बान ने लपककर बाहर की ओर खुलने वाली खिड़की के सामने रेशमी पर्दों को बराबर कर दिया।
आवाज़ें लगातार आ रही थीं, जैसे भेड़ियों के झुण्ड निकल आये हों और उन्होंने सराय को अपने घेरे में ले रखा हो। अलबत्ता मेज़बान की सफ़ाई सुनकर लड़की ने इत्मीनान की साँस ली। फिर वह पाईं बाग़ को चलने के लिए ज़िद करने लगी, लेकिन लड़का थका हुआ था और उसे नींद भी आ रही थी।
एकाएक लड़की उठ खड़ी हुई थी और खोजी निगाहों के साथ कुलाँचे भरती हुई खिड़की से दूसरी तरफ़ कूद गयी। ऐसे में मेज़बान उसे पुकारता रह गया और वह घास के नर्म तख़्तों और कासनी फूलों पर बेख़ौफ़ो-ख़तर चलती आगे ही आगे बढ़ती चली गयी। वह दरख़्तों और झाड़ियों के पीछे छुपे हुए, तनख़्वाह पाने वाले मुलाज़िमों को, दरिन्दों की बनावटी आवाज़ें पैदा करते हुए ढूँढ़ निकालना चाहती थी। ऊपर दरख़्तों की शाखों से उलझते हुए दरिन्दे उसके सिर पर चक्कर खाते उसके साथ-साथ अँधेरे में आगे बढ़ते रहे और वह अपनेआप में मगन मुग़लसराय के पाईं बाग़ से लगे हुए घने जंगल में उतरती चली गयी।
अन्दर सराय के उस नीम-अँधेरे कोने में लड़का हड़बड़ाकर उठ बैठा था और उसे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। नींद में उसे यूँ महसूस हुआ, जैसे कोई उसका नाम लेकर पुकार रहा हो। वह कुछ देर यूँ ही गुमसुम बैठा रहा, फिर उसने लड़की के बारे में पूछा। उस मौक़े पर मेज़बान को उसने पहली बार परेशान देखा। वह अपने सारे तजुर्बों को सामने लाते हुए अपने बातूनीपन का बेमिसाल प्रदर्शन कर रहा था, लेकिन उसकी काँपती टाँगें और उसके चेहरे पर कोरे लट्ठे के खुलते हुए थान और उसकी आँखें और ज़ुबान की लड़खड़ाहट - सब उसका साथ नहीं दे पा रहे थे।
लड़का अपनी सुनहरी सदरी पर लिपटे हुए पटके में अंड़ासा हुआ जड़ाऊ थीक का मुड़ा हुआ खंजर सँभालता उठ खड़ा हुआ। उसने कानों में पहने हुए सफ़ेद मुँदरे, गले की मालाएँ और जड़ाऊ बाज़ूबन्द वहीं नोचकर फेंक दिये। फिर वह कोने में रखी, माँद पड़ती हुई मशाल को एक हाथ में थामे पाईं बाग़ में उतर गया। सराय का मेज़बान उसके पीछे गिरता-पड़ता चला आता था। नीचे शोर में कान-पड़ती आवाज़ सुनायी न देती थी और लड़का सबसे बेख़बर उसका नाम पुकारता हुआ आगे बढ़ रहा था। आखि़र सुबह की धुँधलाहट में वह वहाँ तक पहुँच ही गया, जहाँ चक्कर खाते और ऊपर से झुकी हुई शाखों में उलझते हुए परिन्दे बावेला कर रहे थे। अचानक क़रीब की झाड़ियों से तीर की तरह दो साये निकले और जंगल की तराई में गुम हो गये।
लड़का उसका नाम लेकर वहीं झुक गया था, बुझी हुई मशाल वहीं पर रह गयी थी और उसके दूसरे हाथ की पकड़ कमर में मुड़े हुए खंजर पर ढीली पड़ रही थी। सूरज अब धीरे-धीरे ख़ासा ऊपर उठ आया था और मेज़बान कह रहा था, "हुज़ूर, मुग़ल सराय की इन्तिज़ामिया इस तकलीफ़देह वाकिये पर सख़्त शख्रमन्दा हैं। हम ख़ुद हैरान हैं कि पाईं बाग़ और उससे सटे इलाक़े में जाने कैसे-कैसे सचमुच के भेड़िये और गीदड़ों की टोलियाँ घुस आयी हैं। हुज़ूर आप दुखी न हों, मरहूमा की मिट्टी अज़ीज़ (क्रियाकर्म) करने के लिए हमारे अमले को आप बहुत जल्द सरगर्म होते देखेंगे। हमारी हर मुमकिन कोशिश होगी कि आपके नुकसान की भरपाई हो।"
उधर सराय के उस नीम-अँधेरे कोने में, मोटी लाल कालीन पर, दो सफ़री थैले रह गये थे और उनके क़रीब ही चाँदी की ऊँची समावार के नीचे राख उड़ रही थी और बड़े थाल में सूखे मेवे और नक़्क़ाशीदार सुराहियाँ और भारी प्याले ज्यों के त्यों करीने से सजे रखे थे।