मृत्युदंड (कहानी) : रा. कृष्णमूर्ति 'कल्की'
Mrityudand (Tamil Story in Hindi) : Kalki Krishnamurthy
अमावस्या की रात थी। दीवान बहादुर जज अष्टोत्तरम अय्यंगार अपनी सुकोमल शैया पर लेटे करवटें बदल रहे थे। बहुत प्रयत्न करने पर भी उन्हें नींद नहीं आ रही थी। सिरहाने का तकिया पायताने और पायताने का सिरहाने बदलने पर भी वे सफल नहीं हो सके। सहसा घड़ी में घंटे बजने शुरू हो गए। एक, दो, तीन...। वे गिनते जाते हैं और घड़ी बारह बजाकर ही मौन होती है। अब जरूर सो जाना चाहिए। इस दृढ़ संकल्प के साथ जज अय्यंगार अपनी आँखें खूब अच्छी तरह बंद कर लेते हैं। लेकिन तभी उनके मनस्-चक्षुओं के सामने एक भयंकर दृश्य उभर उठता है।
पहले वह दृश्य धुंधला–धुंधला, जैसे बहुत दूर से दिखाई दे रहा हो, उभरता है। फाँसी के खंभे में लटकी हुई कोई वस्तु जैसे हवा के झोंकों में धीरे-धीरे हिल रही है। दूसरे ही क्षण वह सारे-का-सारा दृश्य बहुत पास और स्पष्ट नजर आने लगता है। वह एक अत्यंत सुंदर युवक का चेहरा है, जो प्राणहीन है, जिसकी आँखें खुली हुई हैं।...
दीवान बहादुर को ऐसा लगा कि वह निष्प्राण आँखें उनके हृदय को तीर की तरह छेद रही हैं। वह एकाएक उठे और शैया से नीचे उतर आए। खिड़की के पास जाकर उन्होंने किवाड़ खोल दिए। शीतल वायु का एक झोंका अंदर आया। कुछ आश्वस्त होकर वे बाहर बगीचे में देखने लगे-ओह! यह क्या? उस पेड़ की डाल पर वह क्या लटक रहा है?
एक झटके के साथ अय्यंगार ने खिड़की के किवाड़ बंद कर लिये। फिर अँधेरे में टटोलते हुए स्विच का पता लगाया और बत्ती जलाई। उसके बाद अलमारी खोलकर एक किताब निकाल लाए और सोफे पर बैठकर उसे खोला–उफ! यह क्या? जैसे किताब में बिच्छू छिपा हुआ था। उसने हाथ में डंक मार दिया। उन्होंने पुस्तक को जमीन पर फेंका और खुद उछल पड़े।...
लेकिन बिच्छू–बिच्छु कहीं कुछ नहीं था। वह पुस्तक नालायिर दिव्य प्रबंधम् थी। उसको देखते ही जज महोदय को उभय वेदांतसार उपन्यास-चक्रवर्ती श्री शठकोपाचारी स्वामीजी की मदहुप्पट्टी के बलवे के मुकदमे में दी हुई गवाही याद आ गई। उन्होंने कौन सी गवाही दी थी। उन्होंने कहा था कि जिस दिन मदहुप्पट्टी में दंगा हुआ था, उस दिन से पहले की रात मैं और तिरुमलै दोनों तिरुच्चिराप्पल्ली जंक्शन के मुसाफिरखाने में बैठकर 'दिव्य प्रबंध' के संबंध में बातें कर रहे थे। उन्होंने पेरियाल वार के पद-पद्मों की
और तिरुमलै आलवार के श्रीचरणों की शपथ ली थी। शठकोपाचारी स्वामीजी को अष्टोत्तरम अय्यंगार बहुत दिनों से जानते थे। वे परम भक्त, प्रकांड विद्वान् और उच्च आचार-विचारवाले व्यक्ति थे। कितनी ही बार अष्टोत्तरम अय्यंगार ने उनके मुख से 'दिव्य-प्रबंधम' के मधुर पदों को सुना था और भावार्द्र होकर आँसू बहाए थे। ऐसे महापुरुष की गवाही को झूठा और पुलिस की गवाही को सच्चा मानकर तिरुमलै को फाँसी की सजा देनी पड़ी। क्या शठकोपाचारी की गवाही सच्ची है? क्या तिरुमलै निर्दोष है? क्या वह निरपराध बालक कल फाँसी पर चढ़ा दिया जाएगा? क्या वह पाप मेरे सिर पड़ेगा? हाय! मैं न्यायाधीश क्यों बना? वकील ही रहकर जीवन क्यों न बिता दिया।...
अय्यंगार के मन में रह-रहकर इस तरह के विचार उभरते आ रहे थे। मदहुप्पट्टी के दंगे और उसके कारण चलनेवाले मुकदमे से सभी परिचित हैं। उस समय सारे देश में विप्लव की भयानक अग्नि प्रज्वलित हो उठी थी। सन् 1942 में जब महात्मा गांधी जैसे बड़े-बड़े नेता गिरप्तार हो चुके थे, तब मदहुप्पट्टी रेलवे स्टेशन से आधा मील दूर पर किसी ने रेल की पटरी उखाड़ फेंकी थी। सौभाग्य से उसके कारण कोई दुर्घटना नहीं हुई। सवेरे के समय जो गाड़ी सबसे पहले आती है, उसके ड्राइवर ने उखड़ी हुई पटरी को देख लिया और ठीक समय पर गाड़ी को रोक दिया। आधे घंटे में पटरी की मरम्मत हो गई और गाड़ी अपने रास्ते पर आगे बढ़ गई।
उसके बाद मदहुप्पट्टी की पुलिस अपनी दूरदर्शिता का परिचय देने लगी। उसने अनेक घरों की तलाशी ली। हाई स्कूल में पढ़नेवाले छह विद्यार्थियों को पकड़कर वह पुलिस स्टेशन ले गई। उन विद्यार्थियों के पीछे -पीछे स्कूल के सभी लड़के जयघोष करते हुए बाहर निकल आए। उस दिन मदहुएपट्टी की गलियों में 'इनकलाब जिंदाबाद,' के नारे गूंज उठे थे। अगर इन नारों के बल पर ही स्वराज्य मिल सकता है तो मदहुप्पट्टी को दुगुना स्वराज्य मिलना चाहिए था। स्कूल के विद्यार्थियों के नारे सुनकर दुकानदारों ने भयभीत होकर दुकानें बंद कर दीं। सड़कों पर भीड़ बढ़ने लगी। पुलिस स्टेशन के चारों ओर भी भीड़ जमा हो गई।
जो विद्यार्थी हवालात में बंद थे, खिड़की की राह से उस भीड़ को देखकर 'इनकलाब' के नारे लगाने लगे। बाहर की भीड़ ने भी उसका प्रत्युत्तर दिया। 'हवालात में बंद विद्यार्थी बहुत पिट रहे हैं' यह समाचार भीड़ में दावाग्नि की तरह फैल गया। जनता क्षुब्ध हो उठी। सड़क की मरम्मत के लिए रोड़ियों का ढेर लगा हुआ था। क्षुब्ध जनता ने उन रोड़ियों को ही अपना गुस्सा उतारने का साधन बना लिया। वे रोडियाँ पुलिस स्टेशन पर बरसने लगीं।
पुलिस के सिपाही बंदूक थामे बाहर आए और निशाना साधने लगे। उन्हें देखते ही जनता के क्रोध का पारावार न रहा। वह स्टेशन की ओर बढ़ी। पुलिस की बंदूकों से गोलियाँ निकलीं। दो-तीन व्यक्ति घायल होकर गिरे, लेकिन जनता की गति नहीं रुकी। गोलियाँ खत्म हो गई। सिपाही अंदर जा छिपे। जनता में जयजयकार का स्वर गूंजने लगा।
लेकिन यहीं उसका अंत नहीं हुआ। पास ही मिट्टी के तेल का एक डिपो था। भीड़ में से कुछ लोगों ने डिपो के किवाड़ तोड़ डाले और तेल के कुप्पे ले आए। सिगरेट पीनेवालों के पास दियासलाई थी। कुछ ही देर में पुलिस स्टेशन से धुंआ उठा और अग्निदेव अपनी करामात दिखाने लगे। उसी समय खबर पाकर जिला मजिस्ट्रेट और पुलिस सुपरिंटेंडेंट आदि एक बड़े पुलिस दल के साथ वहाँ आ पहुँचे। इस बार सचमुच पिस्तौल चली। कुछ लोगों का वहीं प्राणांत हो गया, कुछ लोग भयंकर रूप से घायल हुए। पाँच मिनट के भीतर ही भीड़ वहाँ से रफूचक्कर हो गई। आग भी बुझा दी गई। लेकिन तब तक पुलिस स्टेशन आधा जल चुका था।
उस दिन मदहुप्पट्टी सचमुच श्मशान भूमि बन गई। किसी भी व्यक्ति ने घर से बाहर सिर तक नहीं निकाला। वे लाशों का दाह-संस्कार करने के लिए भी तैयार नहीं हुए। बहुत देर बाद मरनेवालों के रिश्तेदारों को समाचार मिला और किसी तरह उनका दाह-संस्कार किया गया। दूसरे दिन अंग्रेजी राजसत्ता मदहुप्पट्टी में अपने असली रूप में प्रकट हुई। जहाँ देखो, वहाँ पुलिस थी। वे घर-घर में घुसे और पहले दिन के दंगे में सम्मिलित व्यक्तियों को पकड़ लाए। कुल 186 व्यक्ति गिरप्तार हुए। बाद में 30 को छोड़ दिया गया। क्योंकि उनके विरुद्ध पर्याप्त प्रमाण नहीं था। शेष 156 व्यक्तियों के ऊपर मुकदमा चलाया गया। नामी वकीलों का कहना है कि इस मुकदमे में 'भारत रक्षा कानून' और 'पीनल कोड' के नियम व उपनियम जिस सीमा तक उपयोगी सिद्ध हुए, उतने अब तक किसी भी मुकदमे में नहीं हुए थे।
दीवान बहादुर अष्टोत्तरम अय्यंगार की अदालत में मुकदमे की सुनवाई आरंभ हुई। इस मुकदमे में प्रथम अभियुक्त था—तिरुमलै नाम का एक नवयुवक। उस पर नौ दफाएँ लगाई गई। रेल की पटड़ी उखाड़ने से लेकर पुलिस स्टेशन में आग लगाने तक के कई अपराध उसके सिर पर लाद दिए गए। उसकी ओर से बड़े -बड़े वकील पैरवी करने लगे। वह अपने माँ-बाप का इकलौता बेटा था। वह मदहुप्पट्टी का भी लाडला था। वह बुद्धिमान, सुंदर, विनयी और वाक्चतुर था। सार्वजनिक कार्यों में उसकी अपार श्रद्धा थी। ऐसे ही अनुपम गुणों के कारण वह मदहुप्पट्टी के निवासियों के प्रेम और आदर का पात्र बन चुका था।
चाहे कांग्रेस कमेटी हो, चाहे संगीत सभा हो, पुराने विद्यार्थियों का संघ, सहकारी समिति, नि:शुल्क वाचनालय, कुछ भी क्यों न हो, सब में कोई-न-कोई विशेष उत्तरदायित्वपूर्ण पद तिरुमलै के लिए सुरक्षित था। किसी भी सार्वजनिक कार्य के लिए वह धन-संग्रह करने के लिए निकलता तो एक ही बार में अपेक्षित धन-राशि इकट्ठी करके लौटता। दूसरा कोई और व्यक्ति आ जाए तो मदहुप्पट्टी के निवासियों की तिजोरियों से एक पैसा भी न निकलता। तिरुमलै जी-जान से सभी सार्वजनिक कामों में सहयोग देता, इसीलिए वहाँ के हाकिमों और उसमें सदा छत्तीस का संबंध रहता था। वही तिरुमलै इस मुकदमे में प्रथम अभियुक्त था। उसकी ओर से यह आपत्ति की गई थी कि जिस दिन मदहुप्पट्टी में दंगा हुआ, उस दिन वह वहाँ था ही नहीं। उसी दिन शाम को वापस आया था।
उसकी ओर से गवाही देनेवाले थे—उभयवेदांतसार उपन्यास-चक्रवर्ती श्री शठकोपाचारी स्वामीजी। उन्होंने कहा कि उस दिन शाम को श्रीरंगम में मेरा व्याख्यान हुआ था। उसके बाद सीधा मैं तिरुच्चिरापल्ली जंक्शन पहुँचा। लेकिन गाड़ी छूट चुकी थी, इसलिए मैं वेटिंग रूम में चला गया। वहाँ तिरुमलै बैठा था। मेरी ही तरह रेल छूट जाने के कारण वह वहाँ ठहरा था। वह मेरा पूर्व परिचित था, इसलिए हम दोनों बहुत देर तक बातें करते रहे। अदालत ने प्रश्न किया कि किस विषय पर बातें कर रहे थे। तो उन्होंने उत्तर दिया था।
"विशेषकर दिव्य प्रबंध की काव्य सुषुमा और भक्ति परवशता पर बातें हुई थीं।"
तिरुमलै के वकील ने पूछा, "इसके अलावा किसी और विषय पर बातें हुई थीं।"
"हाँ, देश में उस समय जो ऊटपटाँग काम हो रहे थे, उनके संबंध में भी बातें हुई थीं।"
"ऊटपटाँग कामों से आपका क्या मतलब है?"
"रेल की पटरियाँ उखाड़ना आदि दुष्कृत्य।"
"इस संबंध में क्या बातचीत हुई थी?"
"रेलयात्रा से जिन खतरों की संभावना हो सकती थी, उनकी चर्चा करते हुए मैंने कहा कि इन कामों से क्या लाभ होगा। आखिर हमारे भाई ही तो तकलीफ उठाएँगे। रेलगाड़ी पटरी से उतर जाए तो बहुत से लोगों को जान से हाथ धोना पड़ेगा। बहुत से कुटुंब दुःख सागर में डूब जाएँगे। तिरुमलै ने मेरी बातों का हृदय से अनुमोदन किया। उसने यह भी कहा कि तार काटना, रेल की पटरी उखाड़ना आदि हिंसक कार्य हैं। महात्मा गांधी किसी भी हालत में ऐसे काम करने की अनुमति नहीं दे सकते। पाँचवें दस्ते ने जानबूझकर तोड़-फोड़ करके उनके नाम का दुष्प्रयोग किया है।"
इस पर सरकारी वकील ने आपत्ति की कि ये बातें गवाही नहीं हो सकतीं। इनको दर्ज नहीं करना चाहिए। शठकोपाचारी स्वामीजी की गवाही वहीं समाप्त हो गई। पुलिस के गवाहों ने ठीक उनके विपरीत गवाही दी। उन्होंने कहा, "तिरुमलै पुलिस स्टेशन पर हमला करनेवाली भीड़ में था। हमने अपनी आँखों से देखा है कि वह पुलिस स्टेशन की चहारदीवारी पर खड़े होकर कैरोसिन तेल के कुप्पों को बाहर से ले-लेकर अंदर वालों को दे रहा था।"
मुकदमे की जाँच सांगोपांग पूर्ण हुई। सैकड़ों गवाहों के बयान लिये गए। आखिर फैसले का समय भी आ गया। प्रथम अभियुक्त तिरुमलै के संबंध में फैसला सुनाने में जज अष्टोत्तरम आयंगार को कड़ी कठिनाई हुई। उनमें और उनकी अंतरात्मा में बड़ा द्वंद्व मचा। शठकोपाचारीजी स्वामी की गवाही उनको सत्य प्रतीत हुई। वे मिथ्या बोलनेवाले व्यक्तियों में नहीं थे। ऐसा करने की आवश्यकता भी उन्हें नहीं थी। लेकिन पुलिस पक्ष की मजबूत गवाहियों की एकदम अवहेलना भी कैसे की जा सकती थी। ऐसा करने पर उन्हें बड़े लोगों की नाराजगी का शिकार होना पड़ेगा। अगली बार उन्हें सी.आई.ई. की पदवी मिलने की संभावना थी। केवल इसी आधार पर कुछ कर देनेवाले व्यक्तियों में से वे नहीं थे। लेकिन किस आधार पर पुलिस पक्ष के बयानों का निराकरण करके एक वैष्णव व्याख्यानदाता की गवाही को वे स्वीकार करें। वे ऐसा करते तो उन पर शक पैदा होने की संभावना थी। उन पर यह दोषारोपण हो सकता था कि उन्होंने रिश्वत लेकर तिरुमलै को रिहा कर दिया है।
जज का क्या कर्तव्य है? अदालत में जो गवाही दी गई हैं, उसे उन्हीं के आधार पर फैसला करना चाहिए। पुलिसवालों ने भी सर्वशक्तिमान भगवान् की शपथ लेकर गवाही दी है। उन लोगों की बातें झूठी हैं, केवल शठकोपाचारीजी की सच्ची हैं, ऐसा निर्णय कर लेना कैसे न्यायसंगत हो सकता है।
अष्टोत्तरम अय्यंगार के मन में इसी तरह के तर्क-वितर्क उठते रहे। लेकिन अंततः पुलिस पक्ष की ही जीत हुई। उन्होंने तीन व्यक्तियों को फाँसी की सजा, बारह को आजीवन कारावास और शेष को दो से लेकर दस वर्ष तक के कारावास की सजा दी। फाँसी की सजा पानेवालों में तिरुमलै भी एक था। उस दिन उसके माता -पिता भी अदालत में आए थे। उनका विश्वास था कि शठकपाचारीजी की गवाही के बल पर तिरुमलै निर्दोष प्रमाणित होगा। अगर सजा हुई भी तो दो-चार वर्ष की जेल ही होगी। पर उनकी आशा पर पानी फिर गया। तिरुमलै को फाँसी की सजा मिली है, यह सुनकर उसकी माँ वहीं मूर्च्छित होकर गिर पड़ी। पिता, 'अरे तिरुमलै हमको छोड़कर कहाँ चला गया' चिल्लाते हुए पागल से सड़क पर दौड़ने लगे। उनकी छोटी बहन गर्भवती थी। फैसला सुनते ही उसका गर्भपात हो गया। उसे अस्पताल भेज दिया गया और उसके चार–पाँच दिन बाद ही उसने सदा के लिए अपनी आँखें बंद कर लीं।
इस मुकदमे का फैसला सुनाने के बाद से अय्यंगार का मन ठीक नहीं रहा। उनको निरंतर यह चिंता खाए जा रही थी कि तिरुमलै के विषय में उन्होंने अन्याय तो नहीं किया। फाँसी की सजावाले कैदियों की ओर से गवर्नर के पास दया की दरख्वास्त भेजी गई है, यह समाचार पाकर उनको तनिक सांत्वना मिली। उनका विचार था कि यदि गवर्नर तरस खाकर फाँसी की सजा माफ कर दे तो उनके सिर से एक बड़ा बोझ उतर जाएगा। लेकिन गवर्नर ने तरस नहीं खाया। अय्यंगार के मन से बोझ नहीं उतरा। उलटे दिनोदिन वह बोझ बढ़ता ही गया। ज्यों-ज्यों फाँसी का दिन नजदीक आने लगा त्यों-त्यों उनकी नींद हराम होने लगी। तिरुमलै का निरपराध और निरीह चेहरा उनके मनस्चक्षुओं के सामने बार-बार नाचने लगा। सरकारी गवाहियों को सुनते हुए तिरुमलै के मुख पर जो-जो आश्चर्य और विस्मय की रेखाएँ उभर आई थीं, वे सब उनको याद आने लगीं। तिरुमलै ने जब गरजकर कहा था-"यह कितना बड़ा झूठ है। मैं उस दिन गाँव में ही नहीं था।" उनको उसके ये वाक्य स्मरण हो आए। जितना वे सोचते, उतना ही उनको उसका यह कथन सत्य प्रतीत होता। 'हाय! हमने अन्याय तो नहीं किया। इस लड़के की अकाल मृत्यु के लिए हम ही तो जिम्मेदार नहीं हैं?' यह विचार मन में उठते ही उनकी छाती धड़कने लगती थी।
रात का एक बजा, दो भी बजे। आखिर तीन भी बज गए। अय्यंगार सोफे पर लेटे हुए थे। उनकी आँखें बार -बार झपकने लगीं। लेकिन जैसे ही वे झपकतीं, दूसरे ही क्षण वे चौंककर आँखें खोल देते। तिरुमलै को फाँसी पर चढ़ाने में केवल चार घंटे शेष हैं। अब साढ़े तीन घंटे बाकी हैं। इस तरह उनका दिल हिसाब लगा रहा था। यह बात उनको मालूम ही थी कि मौत की सजा पाए हुए कैदियों को सवेरे के छह बजे के अंदर फाँसी दी जाती है, इसीलिए वे चिंतित मन से समय का हिसाब लगा रहे थे। सहसा नींद की खुमारी में अय्यंगार के मन में एक विचित्र विचार उठा। वे स्वयं नहीं बता सकते थे कि यह विचार उसके मन में कैसे पैदा हुआ। बस, सहसा ही वह मन में उभर उठा था। कभी-कभी कैदी जेलखाने से किसी तरह निकल भागते हैं, विशेषकर क्रांतिकारी और राजनैतिक कैदियों के लिए निकल भागना बहुत सहज है। सुभाष बाबू तक ने पुलिस की आँखों में धूल झोंकी थी। उसी तरह तिरुमलै भी जेल से क्यों न भाग जाए? पर साहस और धैर्य उस भोले लड़के में कहाँ? यदि वह निर्दोष है तो अवश्य भाग जाएगा। भगवान् भी उसका पक्ष लेंगे। क्यों न लेंगे।...
टन् टन्, टन् टन् 'घड़ी ने चार बजाए। उफ! समय निकट आ गया। अय्यंगार के मन में कँपकँपी उठी। उसी समय कमरे का किवाड़ धीरे से खुला और प्रात:काल की शीतल वायु अंदर आई। अय्यंगार ने किवाड़ बंद करने के लिए उठना चाहा, पर उठे नहीं। हतप्रभ से होकर जैसे के तैसे बैठे रहे। क्योंकि खुले द्वार के रास्ते एक आदमी की मूर्ति अंदर आई। यह कौन है? यह जवान चेहरा किसका है? यह तो स्पष्ट ही तिरुमलै का है। यह इस समय यहाँ कैसे आ गया? हमने जैसा सोचा था, वैसे ही यह जेल से भाग तो नहीं आया? ऐसा है तो...। तिरुमलै धीमी गति से चलता हुआ अय्यंगार के निकट आया और पास पड़ी हुई कुरसी पर बैठ गया। थोड़ी देर तक दोनों एक-दूसरे को स्थिर दृष्टि से देखते रहे। तिरुमलै के मुख पर एक अवर्णनीय करुणा दिखाई दी। अय्यंगार की आँखें सजल हो उठीं। जब उन्होंने बोलना शुरू किया तो वह अपनी ही आवाज नहीं पहचान सके। गला रुंध गया। उन्होंने प्रश्न किया, "कौन तिरुमलै ही हो न?"
"हाँ, मैं ही हूँ।"
"सवेरा होने पर। छह बजे के अंदर!..." अय्यंगार का स्वर लड़खड़ाने लगा।
"हाँ, छह बजे के अंदर सब...।"
"अच्छा हुआ कि तुम भाग आए।"
"क्या?"
"हाँ, अच्छा ही हुआ। तुमको सजा देने के कारण मेरे मन में शांति नहीं है। अभी-अभी मैं सोच रहा था कि तुम जेलखाने से भाग जाओ तो अच्छा हो।"
तिरुमलै के मुख पर आश्चर्य की रेखा दौड़ गई।
"तुम भाग आए, मुझे बड़ी खुशी होती है। पर..."
"पर क्या?"
"तुम्हारा यहाँ आना अच्छा नहीं हुआ। तुम यहाँ आए ही क्यों?"
"आपसे मिलने की तीव्र इच्छा के कारण ही भाग आया हूँ।"
"क्या मुझसे मिलने के लिए?"
"हाँ, फाँसी की सजा के लिए मैं चिंतित नहीं हूँ। मैंने सुना है, आप बड़े भक्त हैं। शठकोपाचारीजी स्वामी ने आपके संबंध में बहुत कुछ कहा है। आपने भी मुझे झूठा समझा, यह जानकर बड़ा खेद हुआ। मैं कसम खाता हूँ कि उस दिन मैं मदहुप्पट्टी में नहीं था, तिरुच्चिराप्पल्ली जंक्शन पर था। शठकोचारीजी स्वामीजी से बातचीत कर रहा था।"
"तुम्हारी बातों पर मूझे पूरा विश्वास है। मैं जानता हूँ कि शठकोपाचारीजी स्वामी झूठी गवाही नहीं दे सकते। फैसला किसी तरह गलत हो गया। तुम्हारा भाग जाना अच्छा है। लेकिन यहाँ बहुत देर तक..."
"नहीं, मैं यहाँ बहुत देर तक नहीं ठहरूँगा। आप से यह कहने के लिए ही आया था। अब तो आप मेरी बातों पर विश्वास करते हैं न? मुझे बहुत खुशी हुई। अच्छा जाता हूँ। नमस्ते।"
तिरुमलै ने हाथ उठाकर उन्हें प्रणाम किया और चला गया। एक बार फिर अय्यंगार चौंक पड़े। इस बार वे कुरसी से उठे और खुले द्वार के पास जाकर बाहर के बरामदे में देखा, वहाँ कोई नहीं था। फिर उन्होंने द्वार पर जाकर देखा, वहाँ भी किवाड़ अंदर से अच्छी तरह चटकनी लगाकर बंद किए हुए थे। तिरुमलै कैसे अंदर आया और कैसे बाहर गया। छिह ह! यह सब निरा भ्रम है। तिरुमलै यहाँ कैसे और कहाँ से आ सकता है।... इस तरह विचार करते हुए अष्टोत्तरम अय्यंगार अपने कमरे में आए। घड़ी में उस समय पाँच बजे थे।
+++
दो दिन बाद जब वे अखबार के पन्ने पलट रहे थे, तब एक कोने में छपी हुई खबर ने उनका ध्यान अपनी ओर अकर्षित किया।
"मृत्युदंड पाया कैदी मर गया।"
मदहुप्पट्टी के दंगे के मामले में फाँसी की सजा प्राप्त तिरुमलै नामक व्यक्ति परसों सवेरे चार बजे ही प्राकृतिक मृत्यु को प्राप्त हो गया। उसे फाँसी पर चढ़ाने की आवश्यकता नहीं हुई।
उपरोक्त समाचार को पढ़ते ही अय्यंगार का सिर चकराने लगा। ठीक उसी समय तिरुमलै ने उनके कमरे में आकर बातें की थीं। इस बात का स्मरण आते ही वे भूमि पर गिर पड़े। डॉक्टरों ने आकर देखा और कहा कि अचानक दिल की धड़कन बंद हो जाने से इनकी मृत्यु हो गई है।