मृत्युंजय (उपन्यास) : बीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य
Mrityuanjaya (Assamiya Novel in Hindi) : Birendra Kumar Bhattacharya
1942 के स्वाधीनता आन्दोलन में असम की भूमिका पर लिखी गयी एक
श्रेष्ठ एवं सशक्त साहित्यिक कृति है ‘मृत्युंजय’। असम
क्षेत्रीय घटनाचक्र और इससे जुड़े हुए अन्य सभी सामाजिक परिवेश इस रचना को
प्राणवत्ता देते हैं चरित्र समाज के उन स्तरों के है जो जीवन की
वास्तविकता के बीभत्स रूप के दासता के बन्धनों में बँधे-बँधे देखते आये
हैं और अब प्राणपन के संघर्ष करने तथा समाज की भीतरी-बाहरी उन सभी विकृत
मान्यताओं को निःशेष कर देने के लिए कृतसंकल्प है।
उपन्यास में विद्रोही जनता का सजीव चित्रण है। विद्रोही की एक समूची योजना
और निर्वाह, आन्दोलनकारियों के अन्तर-बाह्य संघर्ष, मानव- स्वभाव के
विभिन्न रूप; और इन सबके बीच नारी-मन की कोमल भावनाओं को जो सहज,
कलात्मक अभिव्यक्ति मिली है वह मार्मिक है। कितनी सहजता से गोसाईं जैसे
चिर-अहिंसावादी भी हिंसा एवं रक्तपात की अवांछित नीति को देशहित के लिए
दुर्निवार मानकर उसे स्वीकारते हुए अपने आपको होम देते हैं ! और फिर
परिणाम ? स्वान्त्र्योत्तर काल के अनवरत, उलझे हुए प्रश्न ?......
आमुख : (प्रथम संस्करण से)
लेखक के नितान्त अपने दृष्टिकोण से देखें तो पुस्तक के लिए किसी आमुख की
आवश्यकता नहीं होती। स्वाभाविकता इसी में रहती है कि पुस्तक और पाठक के
बीच सम्प्रेषण निरवरोध हो। मेरे जैसे लेखक के लिए तो, जो अपनी रचना के
प्रति अनासक्त रहना चाहता हो, आमुख लिखना और भी दुष्कर हो जाता है। पर
प्रस्तुत पुस्तक के प्रसंग में कुछ लिखना शायद उपयोगी हो।
हमारे यहाँ साहित्यिक विद्या के रूप में उपन्यास पश्चिम से आया; और
देखते-देखते इसने यहाँ घर कर लिया। भले ही हमारी परम्परा काव्य को मान्यता
देती आयी, पर पाठक-जगत् ने उपन्यास को फिर भी युग का प्रतिनिधि सृजन रूप
माना। रवि बाबू जैसे महान कवि प्रतिभाओं तक ने महत्त्वपूर्ण उपन्यास लिखे
और इस विद्या को गरिमा प्रदान की। फिर तो उपन्यास न केवल समाज के लिए
दर्पण बना, बल्कि सामायिक विचार-चिन्तन की अभिव्यक्ति का माध्यम
भी
हुआ।
मैंने स्वयं जब सामाजिक वास्तविकता की भाव-प्रेरणा पर उपन्यास लिखना
प्रारम्भ किया तब असमिया में यह विद्या काफी प्रगति कर चुकी थी। भविष्य
इसका कैसा और क्या होगा, यह आशंका समाक्षकों के मन में अवश्य थी। हाँ
विवेकी समीक्षक उस समय भी आश्वस्त थे। उनके विचार से असमी जीवन की
विविधरूपता के कारण लेखक को सामग्री का अभाव कभी न होगा। और सचमुच देश के
उत्तर पूर्वी क्षेत्र की सामाजिक वास्तविकता को आपसी तनावों ने ऐसा
विखंडित कर रखा था कि लेखक के लिए सदाजीवी चुनौती बनी रहे।
जितना कुछ अब तक मैंने लिखा वह सब न अमृत ही है, न निरा विष। कुछ है तो
ऐसे एक व्यक्ति का प्रतिबिम्ब मात्र, जो अमृत की उपलब्धि के लिए
वास्तविकता के महासागर का मन्थन करने में लगा हो। मेरे प्रमुख उपन्यासों
के प्रमुख पात्रों में ऐसा कोई नहीं जिसके अन्तर्मानस में एक सुन्दर और
सुखद समाज की परिकल्पना हिलोरती न रहती हो। कहीं व्यक्तित्व रूप
से
तो कहीं सामूहिक रूप से, वे सभी इस महामारियों के मारे वर्तमान जीवन-जगत्
की बीभत्स वास्तविकता को अस्वीकार ही अस्वीकार करते-रहते हैं। किन्तु
सच्चाई यह भी है कि वे चरित्र-पात्र एक सम्भावनीय मानव-संसार के
सम्भव प्राणी मात्र होतें हैं, और उस समूची परिकल्पना का सृजेता स्वयं भी
सम्भवन की अवस्था में होता है।
उपन्यास-लेखन को सामने की वास्तविकता से ऊपर उठकर उसे विजित करना पड़ता
है, तभी ऐसे चरित्रों की परिकल्पना और सर्जना सम्भव हो पाती है
जो
उसकी विचार-भावनाओं के प्रतीक और संवाहक बन सकें। सच तो, अपने
अभीष्ट चरित्रों की खोज में उसे पल-घड़ी लगे रहना होता है। ऐसा न करे वह
तो उसके भावित चरित्र उसी का पीछा किया करेंगे। और जहाँ अभीष्ट चरित्रों
का रूपायन हुआ कि फिर उसे ऐसे कल्पना-प्रसूत लोक-परिवेश की रचना करनी होती
है जहाँ वे सब रह सकें, सक्रिय हों, सोचें-विचारें और गन्तव्य की ओर बढ़ते
जा सकें। अवश्य अपना एक-एक चरित्र उसे लेना होगा युगीन वास्तविकता से हीः
और लेना भी होगा बिलकुल मूल रूप में : मृत चाहे जीवित। एक सीमा-बिन्दु तक
पहुँचने के बाद फिर लेखक की ओर से रचित्र-पात्रों को छूट मिल जाती
है कि अपने-अपने वस्तुरूप का अतिक्रम करें और उसकी अपनी भावनाओं
और
मूल्यों के साथ एकाकार हों।
वास्तव में सृजन प्रक्रिया को शब्द–बद्ध कर पाना कठिन
होता
है। किस प्रकार क्या-क्या करके रचना का सृजन हुआ, इसमें पाठक की रुचि नहीं
होती। उसका प्रयोजन सामने आयी रचना पर तो सृजन-पीड़ा के कोई चिह्न कहीं
होते नहीं। अनेक बार होता है कि अनेक चरित्रों के भाव-रूप अनेक-अनेक बरसों
तक लेखन की चेतना के कोटरों में अधमुँदी आँखों सोये पड़े रहते हैं और फिर
रचना-सृजन के समय उनमें से कोई भी हठात् आकर कथानक में भूमिका ग्रहण कर
लेता है। ये तीनों उपन्यास- ‘इयारूइंगम’,
‘प्रतिपद और
‘मृत्युंजय’- लिखते समय ऐसा ही हुआ।
इनके चरित्र-पात्र समाज के उन स्तरों से लिये गये हैं जो सामाजिक
वास्तविकता के बीभत्स रूप को देखते-भोगते आये हैं और अपनी स्वाभाविक
मानवीयता तक से वंचित हो बैठे हैं। वे अब उत्कण्ठित हैं कि संघर्ष करें और
यथार्थ मानव बन उठने के लिए अपने को भी बदलें और समूचे समाज को भी। किसी
भी मूल्य पर वे अब सामाजिक बीभत्सता का अस्तित्व लुप्त कर देना चाहते हैं;
और चाहते हैं कि समाज का बाहरी ही नहीं, भीतरी ढाँचा भी स्वास्थ और सहायक
रूप ग्रहण करे।
‘मृत्युंजय’ की कथावस्तु है 1942 का विद्रोहः
‘भारत
छोड़ों’ आन्दोलन का असम क्षेत्रीय घटना-चित्र और इसके विभिन्न
अंगों
के साथ जुड़ा–बँधा अन्य वह सब जो रचना को प्राणवत्ता देता है,
समृद्धि सहज मानवीय भावनाओं के चिरद्वन्द्वों की अछूत छवियों द्वारा।
कथानक आधारित है वहाँ की सामान्यतम जनता के उस विद्रोह की लपटों
को अपने
से लिपटा लेने पर, और कैसा भी उद्गार मुँह से निकले बिना प्राण होम कर उसे
सफल बनाने पर। घटना के 26 वर्ष बाद यह उपन्यास, मैंने लिखा। उस समय की वह
आग ठण्डी पड़ चुकी थी; पर उसकी आत्मा, उसका यथार्थ, अब भी सांसें ले रहे
थे। उपन्यास में विद्रोह-सिक्त जनता के मानस का, उसकी विभिन्न ऊहापोहों का
चित्रण किया गया है। सबसे बड़ी समस्या उस भोले जनसमाज के आगे यह थी कि
गाँधी जी के अहिंसावादी मार्ग से हटकर हिंसा की नीति को कैसे अपनाएं; और
सबसे बड़ा प्रश्न यह था कि इतनी-इतनी हिंसा और रक्तपात के बाद का मानव
क्या यथार्थ मानव होगा ? वह प्रश्न आज भी ज्यों-का-त्यों जहाँ का तहाँ
खड़ा है।
भारतीय ज्ञानपीठ के प्रति मैं आभारी हूँ कि यह कृति हिन्दी पाठकों के
सम्मुख पहुँच रही है। इसका हिन्दी रूपान्तर गुवाहाटी विश्वविद्यालय के
हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. कृष्ण प्रसाद सिंह ‘मागध’ ने किया
है। मैं उनका आभारी हूँ और दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी प्राध्यापक डॉ.
रणधीर साहा का भी जिनका सक्रिय सहयोग इसे मिला।
गुवाहाटी, 9 अक्टूबर 1980
-बीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य
एक
‘‘बर्रों के छत्ते छेड़ दें तो फिर उनसे अपने को बचा
पाना कठिन हो जाता है।’’
बात भिभिराम ने कही। घुटनों तक खद्दर की धोती, खद्दर की ही आधी बाँह की
कमीज, पाँवों में काबुली चप्पल जिन्हें खरीदने के बाद पॉलिश ने छुआ ही
नहीं घुँघराले बाल, लम्बी नाक और लम्बोतरा साँवला चेहरा : एक सहज शान्ति
आभा से युक्त।
साथ में थे धनपुर लस्कर और माणिक बरा। तीनों जन कामपुर से रेल द्वारा
जागीरोड उतरे और नाव से कपिली के पार करके पगडण्डी पकड़े हुए तेज पाँवों
से दैपारा की ओर जा रहे थे। आगे था पचीसेक मील का रास्ता। बीच में था एक
मौजा पड़ताः मनहा। तीनों जन का चित्य अब उद्वेगमुक्त हो आया था। क्योंकि
मनहा आगे का समूचा रास्ता घने जंगल से होकर जाता था। रास्ते के
दायें-बायें पहाड़ियाँ थीं या घनी वनस्पतियाँ। कहीं-कहीं दलदली चप्पे
मिलते, नहीं तो खुले खेत होते। दूर दाहिने झलझल करता ब्रह्मुपुत्र की की
बालू का प्रसार, उन्मुक्त पसरा हुआ बालूचर।
धनपुर लस्कर ! तरुणाई की साकार मूर्ति। बड़े चकोतरे जैसा गोल-मटोल चेहरा,
काली घनी मूछों की रेख, बाल पीछे के कंघी किये हुए लम्बी-बलिष्ठ देह,
बड़ी-बड़ी आँखेः पैनी वेधक दृष्टि। जो इसे देखता प्रभावित हुए बिना न
रहता। लगता जैसे आँखों से अग्नि-शिखाएँ फूटी आती हों। बहुत चेष्टाएँ करके
भी हाई-स्कूल की दहलीज पार न कर सका। बीड़ी-सिगरेट का लती, पर चिरचल
ग्रहों की नाईं सतत क्रियाशील, और अपने तरुण हृदय में छिपाये
हुए एक मूक व्यथा। अभी तक औरों को यह गोचर न थी। आज दोनों
साथियों
पर प्रकट कर उठने को व्याकुल सा हो आयाः इसलिए कि यात्रा के श्रम भूला
रहे, और इसलिए कि अपने चरम विपदा-भरे-कार्य-दायित्व पर रोमांचित हुए आते
मन को दूसरी ओर फेर सके।
भिभिराम रह-रहकर धनपुर की मोटी-गँठीली उँगलियों को सभय देख उठता था।
देहाती प्रवाद के अनुसार ऐसी उँगलियों वाला व्यक्ति बिना द्विधा में पड़े
किसी की भी हत्या कर सकता। धनपुर ने भिभिराम की उस दृष्टि को लक्ष्य किया।
बोलाः
‘‘तुम ठीक ही कह रहे थे भिभिरम भइया, कि हम लोग
बर्रों की तरह
हैं। बर्रों का अस्त्र डंक होता है। पर मैं तो सच में कसाई हूँ,
कसाई।’’ मुट्ठियों के रूप में दोनों हाथों की
उँगलियों को
भींचकर उन्हें देखता हुआ आगे बोला,’’ भाभी तो मेरी इन
उँगलियों पर आँख पड़ते ही भय के मारे मुँह को दूसरी ओर कर लेती
हैं।’’ दो क्षण कहीं खोये रहकर कहा,
‘‘भगवान ने
ये उँगलियाँ मुझे कलम पकड़ने के लिए नहीं दीं। ये हथौड़ा और दाव चलाने के
लिए हैं।’’ भिभिराम गम्भीर हो आया।
‘‘जानता हूँ धनपुर। तुम्हारी भाभी तो इसके प्रतिकार
के लिए
उपाय तक कराने गयी थी। गोसाईं जी को तुम्हारी जन्म-कुण्डली दिखायी।
उन्होंने दुष्ट-ग्रह बहुत प्रबल बताये; मारक योग तक का संकेत किया। कुछ
पूजा आदि भी सुझायी थी कुछ हुआ उसके बाद, मुझे नहीं पता
!’’
‘‘होना क्या था। उसके बाद तो हाथ में रिंच सँभाल ही
लिया।’’ भिभिराम चुप ही रहा।
उसे कामपुर हाईस्कूल में हुए स्ट्राइक का दिन याद हो आया।
उस दिन धनपुर ने ही झण्डा फहराया था। उस दिन ही उसे शान्ति-सेना में भरती
करे ‘करेंगे या मरेंगे’ की शपथ दिलायी थी। कामपुर के
पास ही
शान्ति-सेना का शिविर लगा हुआ था। मगर शिविर में बीड़ी-सिगरेट पीना मना
था। इसलिए धनपुर वहाँ जाना ही बचा गया। भिभिराम को बहुत बुरा लगा। पर करता
क्या ? नेता लोग गिरफ्तार किये जा चुके थे। बचे थे इने-गिने कार्यकर्ताः
इन्हें तत्काल आगे का कार्यक्रम देना था। कार्यक्रमः मिलिटरी की सप्लाई
काट देना, रेल-पुल आदि नष्ट करके यातायात
भंग कर देना।
समूचा देश उन दिनों मिलिटरी की एक विराट छावनी बना हुआ था। जापानी सेना
चिन्दुइन नदी के उस पार पहुँच गयी थी। ब्रिटिश, अमेरिका, चीनी और
आस्ट्रेलिया सेनाएँ सारे में फैली थीं। ऊपर से यमदूतों की तरह दया-मायाहीन
पुलिस और सी.आई.डी. हाथ धोकर देशसेवकों पीछे पड़ी हुई थी। कमी
देशद्रोहियों की भी नहीं थी। शहर तो शहर, गाँवों तक में इन दुष्टों के दल
खड़े हो गये थे। कम्युनिस्ट लोग अपनी-सी करने पर उतारू थे। युद्ध का विरोध
न करके, ये उसे फासिस्ट-विरोध संग्राम बताकर अपना सहयोग दे रहे थे। इतना
ही नहीं, देशसेवकों के हर काम को ये गलत ठहरा रहे थे।
यह अवस्था होते भी कार्यकर्ता लोगों ने न साहस छोड़ा न मन में निराशा आने दी। कार्यक्रम को चलाने के लिए अच्छे और विश्वस्त व्यक्तियों को खोज-खोजकर अपने साथ ले रहे थे। कामपुर में उनकी दृष्टि धनपुर पर पड़ी।
और एक दिन कामपुर में टेलीफोन और टेलीग्राफ के तार काट दिये गये। साँझ घिरे रेल-लाइन की फिश-प्लेट भी निकाल दी गयीं। परिणाम यह कि गोला-बारूद से लदी चली आती मालगाड़ी भड़भड़ाकर नीचे गिरी। आग तो लगी ही, पास वाले मिलिटरी कैम्प के जैसे हाथ कट गये। दूसरे दिन उधर के यमुनामुख पुलिस स्टेशन पर तिरंगा फहराया गया; दो रेल-पुल ध्वंस किये गये।
इन सब कामों में प्रमुख भूमिका धनपुर की थी। कितनी सफाई के साथ अपने हर दायित्व की पूर्ति उसने की, यह देखकर भिभिराम ही नहीं, अन्यान्य कार्यकर्ता लोग भी दंग रह गये।
इसके बाद तो जो होता, हुआ ही। पुलिस, सी.आई.डी. और मिलिटरी के उत्पात बेहिसाब बढ़ उठे। धनपुर एकदम से गायब हो गया : भूमिगत। ऐसा वेश मिस्त्री का अपना बनाया उसने कि कोई जान ही न सका कि अचानक गया तो कहाँ। किन्तु सरकारी दमन बहुत अधिक बढ़ उठने के कारण, कामपुर में आन्दोलन इस बीच स्वभावतः कुछ ढीला पड़ आया। अधिकारियों ने आन्दोलन को एकबारगी ही कुचल डालने की नीयत से सिपाहियों के एक बड़े दल-बल के साथ मेजर फ़िन्स को वहाँ भेजा। इतना क्रूर था यह व्यक्ति कि याद आने पर लोगों के आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
धनपुर अवसर पाते ही यहाँ से खिसककर रोहा पहुँचा। रोहा : अर्थात् वहाँ का बुनियादी केन्द्र। वहीं उसे पता चला कि बारपूजिया में शान्ति-सेना की एक सभा बुलायी गयी है। और धनपुर अपने उसी छद्मवेश में वहाँ जा पहुँचा।
उसके पास शान्ति-सेना का बैज था और था जेब में गोस्वामी जी का एक पत्र। यही दिखाकर उसने केन्द्र में प्रवेश किया। यह पत्र गोस्वामी जी ने उसे भूमिगत होने से पहले यमुनामुख जाने के लिए दिया था। निर्देश उनका यह था कि थाने पर तिरंगा फहराने के बाद तत्काल उसे नष्ट कर दें। यह इसलिए कि प्रमुख कार्यसंचालकों के हाथ की लिखावट पुलिस के हाथ पड़ना निरापद न होता। धनपुर ने तत्काल वैसा न कर कुछ दिन बाद नष्ट करने की सोची। कारण केवल यह था कि उस पत्र में कई बड़े भावपूर्ण वाक्य आये थे जिन्हें वह मन में बैठा लेना चाहता था, और था एक राष्ट्रीय गीत जो कण्ठस्थ होने में नहीं आता था।
सच तो, पढ़ाई आदि में उसकी रुचि बचपन से ही न थी। पाठ्य पुस्तक की तो कोई बात दिमाग में घुसती ही न थी। क्लास-रूम में मास्टर जब गणित समझाते तब उसका मन और-और ही कहीं पेंगें भरा करता। एक दिन तो आँखें मूंदै हुए एक मिकिर षोडशी के बारे में ही सपनाने लगा था। उधर पहाड़ की तलहटी में बसा हुआ था एक छोटा-सा गाँव रंगखाङ्, उसके पास से जाती पगडण्डी, आगे आता कामपुर। मिकिर षोडशी उसी गाँव की थी।
भिभिराम की पत्नी के पास अकसर आया करती। उनके लिए कपास की पूनियाँ लेकर। इतनी चतुर थीं कताई में कि दस-बारह तो मुँह का पान पूरा होते-होते कात लिया करतीं। कभी-कभी यह षोडशी रात को भी यहीं रह जाती। साथ में होती बूढी माँ। कभी और-और चीजें भी खाँची में लाती, और जाकर बाजार में बेचा करती। बहुत बार कौनी के दाने भी लाती जो गरम पानी में भिगोकर खाते अच्छे लगते। बीच-बीच में लाख के पेड़ का गोंद भी ले आती : डेलियों के रूप में।
बड़ी गौरांगी थी वह । सुघड़ देह, उभरा हुआ वक्ष, सुन्दर सुडौल पिण्डलियाँ! असमी तरुणियों में तो वैसी देखने को न मिलें। नाम था डिमि; माँ का कादम। डिमि के गले में 'लेक' पड़ी होती, कानों में 'काडेङ् सिन्रो', कलाइयों में 'रई', वक्ष पर 'जिन्सो'; और कटिभाग पर लपेटे रहती रंगीन 'पिनि'। धनपुर ने उसी से पूछ-पूछकर ये सब नाम याद किये थे। बूढ़ी माँ पहने रहतीं केवल 'पिनि' और 'जिन्सो'।
बूढ़ी कादम और डिमि कभी-कभी भिभिराम के यहाँ के लिए अदरक-मिर्च और सन्तरे आदि भी लाया करतीं। उस दिन दोनों माँ-बेटी यही सब चीजें लेकर आयी थीं। रात को वहीं टिकीं। अकौड़ा लगा हुआ था। सब आग सेंकते बैठे थे। तभी कादम ने 'हरत कुँवर' की कहानी सुनायी थी।
अपूर्व थी कहानी। कब आधी रात बीत आयी, किसी को भान न हुआ। भिभिराम की पत्नी तो जंभाई पर जंभाई लेती ख भे से टिकी बैठी ही रही। और डिमि! वह माँ से सटी बैठी थी, मगर आँखें बार-बार धनपुर की ओर जा रहतीं। कहानी में हरत कुँवर का सूर्यदेवता की छोटी बेटी के साथ ब्याह हुआ था। धनपुर तो इतना विभोर हुआ सुनकर कि कई दिनों सब कुछ भूला रहा। उस दिन गणित की क्लास में भी डिमि सूर्यदेवता की बेटी बन उठी थी और वह स्वयं बुन चला था सपने आकाश में उसके साथ उड़ने के।
एक दिन तो वह स्कूल न जा डिमि के पीछे-पीछे कपिली तक गया। कादम ने देखा तो हँसी-हँसी में पूछा भी :
"अरे, तुम साथ-साथ ही चले आ रहे हो बेटा!"
धनपुर तो एक बार को ऐसा हो रहा कि किसी तरह वहीं धरती में छिप जाए। उधर डिमि के होठों पर एक सकुची-सकुची मुसकराहट छिटक आयी।
नदी तट आ गया था। पास ही घास से ढका एक टीला था। कादम ने प्यार से धनपुर को पुकारा और बैठते हुए बोली :
"आ बेटा, पान खा ले। डिमि, एक भुट्टा दे इसे।"
डिमि ने खाँची में से निकालकर आगे को बढ़ाया खूब भुना हुआ भुट्टा। नाक में सोंधी-सोंधी गन्ध गयी तो धनपुर ने आँखें उठाकर डिमि की ओर देखा। कटहल के पेड़ की छाया साँझ के सुरमई रंग में और रँगी आ रही थी। भुट्टा देते हुए डिमि का हाथ अचानक धनपुर के हाथ से छू गया।
मुसकरा पड़ी वह। उसने भी पूछा :
"हाँ, पीछे-पीछे तुम क्यों चले आये?"
"यों ही; कपिली को देखने के लिए।"
झूठमूठ का उत्तर। मगर एक क्षण को कपिली की ओर उसकी आँखें उठीं अवश्य। मानो डिमि का ही प्रतिरूप हो कपिली। पूस के महीने की मदिर-मन्थर धारा। दोनों ओर धूप में नहायी घास के अंचल। बीच से झिलमिल-झिलमिल करती दिखती कपिली की तरल तरंगें!
डिमि ने कपिली की ओर देखा। फिर धनपुर की ओर। उसके बाद होठों पर उभरती हँसी में खो रही।
"कपिली को तुम लोग भी प्यार करते हो क्या?" कादम ने सुपारी काटते-काटते पूछा।
"हाँ, हम लोग तो बहुत मानते हैं।"
बूढ़ी उसका भुट्टा खाना देख रही थी। देख रही थी : कभी दाने चबाते से मुँह अटक रहता, कभी न जाने कितने दाने होते मुँह में कि चलता तो चलता ही रहता। एकाएक बोली कादम :
"जानते हो धनपुर, कपिली के कई गुह्य नाम भी हैं। यह भी एक देवता है, देवता।"
"हाँ, देवता है।"
दो क्षण मौन रहा धनपुर। फिर एकदम से बोला :
"तुम लोग अब पार कैसे जाओगी?"
"नाव देखनी होगी कोई।"
धनपुर की आँख दूर सामने बालू पर पड़ी एक नाव पर गयी। नाववाला कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। धनपुर बोला :
"मैं पार करा दूँ? उधर नाव है।"
"तुम्हारी है बेटा?"
"नहीं; मगर मैं पार करा सकता हूँ।"
"ना बेटा, तुम अब घर जाओ। गुस्सा करेंगे घरवाले।"
"मैं उनसे नहीं डरता। एक भाई ही तो हैं : वह मुझे चाहते हैं।"
बूढ़ी जैसे एक सकपकाहट में पड़ी :
"पर एक बात बताओ बेटे, तुम इतनी दूर साथ-साथ आये क्यों?"
धनपुर धीमे से हँसा :
"सच बताऊँ? डिमि के लिए।"
माँ-बेटी दोनों खिलखिला पड़ीं। डिमि से धनपुर दो-एक बरस छोटा ही रहा होगा। कादम ने समझाया :
"इसकी सोचना बेकार है बेटा। इसकी मँगनी हो चुकी।"
धनपुर ने डिमि की ओर देखा, जैसे विश्वास न हुआ हो। डिमि हँस दी : हलके से, सहज भाव से।
कादम ने धनपुर की पीठ पर हाथ रखते हुए कहा :
"भुट्टा खाओ बेटा! तुम तो लिये ही बैठे हो।"
धनपुर ने शायद सुना ही नहीं। उलटे पूछा :
"अच्छा कादम काकी, हरत कुँअर के ब्याह की कथा सत्य है क्या? यह कपिली ही थी क्या नदी वह?"
"ना बेटा, वह नदी और थी।" कादम की मुखमुद्रा गम्भीर हो आयी।
"पर कहा तो जाता है कि उन युगों में पत्नी ऐसे ही मिल पाती थी।"
डिमि जोर से हँसने लगी।
कादम ने उसे बरजा; फिर बड़े सरल भाव से धनपुर से पूछा :
"तुझे भी अपने लिए वैसी ही बहू चाहिए क्या?"
धनपुर ने कहना तो चाहा 'हाँ डिमि जैसी', मगर लाजवश कह कुछ न पाया। कपिली की दिशा में देखता रह गया।
कादम ने बताया डिमि का एक 'गारो' युवक के साथ ब्याह होनेवाला है।
"गारो युवक?" धनपुर चौंका।
"हाँ, बड़ा भला लड़का है। डगारु नदी के उस पार रहता है। कई खेत हैं उसके।"
धनपुर और न खा सका भुट्टा। कपिली में फेंक दिया।
"क्यों, फेंक क्यों दिया?" कादम ने पूछा।
"भूख नहीं है।"
डिमि फिर खिलखिल करती हँस पड़ी।
कादम ने डाँटा। धनपुर को पान देते हुए कहा :
"तुम अब जाओ बेटा, नहीं तो घर पहुँचते रात हो जाएगी। अगले महीने इसका ब्याह हो जाएगा।"
"अच्छा!" मुँह ऊपर किये बिना उसने पान लिया और अचल हुआ खड़ा रहा। एक बार डिमि की ओर देखने की लालसा हुई; देख नहीं सका।
कादम ने डिमि को पास बुलाया। आकर खड़ी हो गयी वह।
"धनपुर!" कादम के स्वर में सचमुच मार्दव था।
"क्या है?" अनमना-सा धनपुर बोला।
"बेटा, इसे अपनी बहिन समझो! बहिन।"
धनपुर ने एक निर्भाव-सी हुंकारी भरी। उसकी आँखें फिर कपिली की ओर जा लगीं। डिमि मौन खड़ी सुन रही थी; देख रही थी।
डिमि! कपिली के साथ कितनी मिलती है उस अप्सरा की देह! सच कितनी! उस दिन के बाद डिमि को कभी नहीं देखा। याद जब-तब बराबर आती रही, पर मुँह से एक शब्द नहीं निकला। आज कपिली को पार करते समय सारी यादें बरबस कुरेद उठीं।
हठात् भिभिराम ने टोका :
"अरे बारपूजिया वाली घटना तो तुमने सुनायी ही नहीं!"
धनपुर का चिन्तन तार-तार बिखर गया। भिभिराम से बोला :
"समय ही कहाँ मिला। कामपुर पहुँचे तीन ही दिन तो हुए हैं। एक दिन भाभी ने रोक रखा, दूसरा गोस्वामी जी के साथ बीता। उसके बाद ही गया। अब बताये देता हूँ, सुनो। हाथ में समय है। दैपारा पहुँचते तो देर लगेगी। रात भी हो आए तो . असम्भव नहीं। मगर रास्ता तो मालूम है?"
"हाँ मालूम है। तीनेक घण्टे और लगेंगे, बस। पर इधर का अंचल निरापद है। तुम बेखटक बताओ।"
धनपुर ने बीड़ी सुलगायी। भिभिराम का बैग इस कन्धे से उस पर जा लटका। फिर भिभिराम ने पूछा :
"अरे, तुम्हारी भाभी ने शिव-पार्वती की मनौती मानी थी, मालूम है?"
धनपुर ने धुआँ आकाश की ओर छोड़ा। कहा :
"उस सबसे कुछ नहीं हुआ करता। मैं तो..."
भिभिराम ठठा पड़ा। धनपुर ने विचित्र मुद्रा में उसकी ओर देखा :
"क्यों, इस तरह हँस क्यों दिये?"
"तुम्हारी ही बात याद करके! डिमि को पाने के लिए तुम्हीं ने काला बकरा भेंट चढ़ाने की मनौती नहीं मानी थी?"
"जरूर, मगर डिमि मिल सकी क्या? ये सब ढकोसले हैं! निरर्थक!"
"कह लो कुछ भी, भगवान तो हैं।"
धनपुर के कण्ठ से एक गहरी साँस निकली। धीमे स्वर में बोला :
"तुम्हारे महापुरुष शंकर देव के ही जन्म-दिवस पर मेजर फ़िन्स ने कामपुर के वॉलण्टियरों को अपने बूटों से नहीं रौंदा क्या, फुटबाल की तरह नहीं उछालाठुकराया क्या! कितनी बेरहमी के साथ उन पर लाठियाँ बरसायीं उसने! भगवान होता तो नृसिंह के रूप में अवतार जरूर लेता। लिया कहीं आज के दिन तक भी?"
"मगर अवतार तो हुआ है धनपुर," माणिक बॅरा ने झट से कहा।
"सब झूठ," धनपुर के स्वर में उपेक्षा से अधिक उपहास था।
पर माणिक भक्त प्रकृति का था। बात-बात में प्रह्लाद के उदाहरण ले आता। उसकी मान्यता थी कि नृसिंह की नाईं इस युग में दरिद्रनारायण का अवतार हुआ है। वह बोला :
"तुम तो भाई, गुरु-गोसाईं, देव-पितर किसी को भी नहीं मानते। मगर इतना जान लो कि भगवान को अन्याय-अत्याचार सहन नहीं होता। कभी नहीं हुआ। गाँधीजी ने जो मार्ग दोहराया है, हमें उस पर चलना है।"
“किन्तु बारपूजिया में जो वह अहिंसामार्गी युवक एक ही गोली से उड़ा दिया गया!" धनपुर के स्वर में व्यंग्य झलक आया।
"किसकी बात कह रहे हो धनपुर?" भिभिराम ने पूछा, "तिलक डेका की?"
"हाँ।"
"समझा। ठीक से बताओ तो क्या हुआ।"
"मैंने तो रोहा में सुना था। कॅली दीदी रोहा में ही थीं। उसके पास सब ओर से समाचार पहुँचा करते हैं। उधर गौहाटी से, इधर कलियाबर से। कामपुर की तो बात ही छोड़ दो। बड़ी चतुर और भली स्त्री हैं। बुनाई के काम में तो बहुत ही निपुण। बारपूजिया की हैं। जानते ही हो। कामपुर के एक कोच घर में ब्याही गयीं। शायद मनुराम कोच नाम था उस व्यक्ति का। दुर्भाग्य से पिछले वर्ष किसी अनजाने रोग से मृत्यु हो गयी। याद है न?"
"भोले, कॅली दीदी को कौन नहीं जानता। घर की हालत देखकर मैंने ही यहाँ रखाया था। आज भी कॅली दीदी वैसी की वैसी युवती बनी हुई हैं : सुन्दर भी, भली भी।"
"हाँ, सचमुच कॅली दीदी आज भी बड़ी अच्छी लगती हैं!" दो क्षण रुककर धनपुर बोला :
"तो सुनो उस दिन वहाँ क्या हुआ। एकदम से कॅली मुझसे बोली : मेरे साथ चल सकोगे क्या? मैंने जानना चाहा : कहाँ? उन्होंने बताया : बारपूजिया तक। मैंने प्रयोजन जाने बिना हाँ कर दी। अपनी गठरी-मुटरी लेकर वे तुरन्त साथ चल दी। दोपहर का समय था। फिर भी तेज पाँवों बढ़ी जा रही थीं। देखने में चम्पाफूल जैसी। उनके साथ कहीं जाने का यह अवसर पाकर मेरा मन यों ही गद्गद हो उठा था।"
भिभिराम के मुँह की ओर एक बार उसने देखा और कहता गया :
"चलते-चलते एक गाँव पहुँचे हम लोग। गाँव का नाम याद नहीं। पर चिड़िया का एक बच्चा तक जो वहाँ हो। मिलिटरी पुलिस तड़के ही आकर बच्चे बूढ़ों-सभी को पकड़ ले गयी थी।"
"क्यों?" बीच में ही भिभिराम पूछ उठा।
"इसलिए कि पिछले ही दिन इन लोगों ने बारपूजिया में मीटिंग की थी। शान्ति सेना भी थी वहाँ। तिलक डेका गाँव के बाहर रास्ते पर पहरा दे रहा था। मृत्यु-वाहिनी की बैठक हुई और किसे कहाँ क्या करना है, यही निश्चय किया जा रहा था। सी.आई.डी. ने भनक पाकर रोहा थाने के ओ.सी. शइकीया को खबर दी। शइकीया उसी दम अपने लाव-लश्कर सहित आ धमका।"
"ऐसा?" माणिक के स्वर में घबराहट की झलक थी।
धनपुर कहता गया :
"रात घिर चली थी जब बारपूजिया वाली सड़क पार करके वे लोग गाँव के निकट पहुँचे। तिलक डेका एक बड़े पेड़ की ओट खड़ा था। बढ़ते आते बूटों की आवाज कान में पड़ी। सावधान हो वह कि तीन-तीन टॉर्चों का प्रकाश उसके मुँह पर था। तत्क्षण सिंगा फूंककर गाँववालों को सचेत करने के लिए उसने हाथ ऊपर किया। कैप्टेन ने कड़ककर उसे रोका। मगर तिलक की पोर-पोर में आग की चिनगियाँ चिनक उठी थीं। मौत सामने थी, फिर भी सिंगा गूंजकर रहा।"
कोई देखता उस समय तो लक्ष्य करता कि भिभिराम की छाती गर्व से तन उठी थी। सचमुच कितनी तत्परता के साथ तिलक डेका ने कर्तव्य का पालन किया!
धनपुर ने आगे बताया :
"नेता और कार्यकर्तागण संकेत पाकर हवा हो गये; कुछ जहाँ-तहाँ जंगलझाड़ियों में जा छिपे। किन्तु इससे पहले ही तिलक डेका की जवान उमंगों-भरी देह नीचे लुढ़क चुकी थी।"
बीड़ी जलाकर एक लम्बा कश धनपुर ने खींचा और धुएँ को घुटकर अपनी गँठीली उँगलियों को देखता हुआ बोला :
"तिलक के बाद एक और युवक को भी गोली से उड़ाया गया। उसके बाद मिलिटरी पुलिस और सी.आई.डी. के जवान गाँव में घुस पड़े। एक वॉलण्टियर तक कहीं न दिखा। शिकार हाथ से निकल जाने पर शइकीया का गुस्सा आसमान को छु उठा। फिर तो जो मिला उसे मार-मारकर पुलिस थाने ले गयी। थाना रोहा का! लोहे की छड़ें लाल कर-करके उनसे जहाँ-तहाँ दागा गया कि कोई तो कुछ बात उगल दे!"
भिभिराम की दृष्टि धनपुर की ओर घूमी। धनपुर कहीं खोया हुआ सुनाता जा रहा था :
"जिन्हें पर-पुरुष ने कभी छुआ न था उन स्त्रियों को खुले रास्तों ऐसी निर्लज्जता के साथ खींचा-घसीटा गया कि कपड़े फट गये और नंगी देह छिलछिलकर रक्त बहने लगा। बच्चों को माँ की गोद से छीनकर धरती पर पटका गया और रोने पर मुँह में कपड़ा दूंस दिया गया। पुरुषों को न केवल निर्दय होकर लाठियों से मारा, बल्कि पीछे हाथ बाँधकर नंगे बदन तपती धूप में सूरज की ओर मुँह किये घण्टों-घण्टों खड़े रखा। समूचे दिन इस प्रकार गाँव के जन-बच्चों को मिलिटरी पुलिस ने सन्त्रस्त किया।"
अचानक माणिक बॅरा को लगा जैसे धनपुर की गरदन कुछ और तन उठी हो। धनपुर कह रहा था :
"लेकिन सब कुछ करके भी किसी से कुछ कहला न सकी पुलिस। इतना अत्याचार इस प्रदेश में पहले कभी नहीं हुआ था। बर्मी आक्रमण के समय भी नहीं, फूलगुड़ी काण्ड में भी नहीं। ये पशु सभी से बढ़कर निकले। दूसरे दिन वहाँ जाने पर सुना कि ऊपर से समूचे गाँव से दण्ड वसूला गया। घर-घर कुर्की पड़ी; जब्तियों का कोई अन्त न था।"
धनपुर की आवाज सँध आयी थी। जैसे गला दबाया जाता हो!
"क्या हुआ?" माणिक बॅरा ने पूछा।
माणिक की देह पर सफेद सूती चादर थी और खद्दर का सफेद कुरता। सिर पर बालों का छोटा-सा चूड़ा। धनपुर से पुलिस के अत्याचारों की कथा सुनते-सुनते वह स्वयं आतंकित और रोमांचित हो उठा था। इसलिए उसे बूझते देर न लगी कि धनपुर का कण्ठ क्यों रूंध आया। पर उत्सुकता पूरी कथा सुनने की भी थी।
कम विचलित भिभिराम भी न था। भीतर से भीग आया था। कष्ट-कथा अपने में ही कष्टप्रद होती है : न कहते बनती है न सुनते। बस जी को झंझोड़ डालती है।
कुछ सेकण्ड एक पीड़ित मौन छाया रहा। धनपुर आगे बताने लगा :
"उसके बाद कॅली दीदी एक सँकरी-सी पगडण्डी के रास्ते निकलकर एक घर के द्वार पर पहुँची। पुकारा : 'सुभद्रा!' कुछ देर बाद एक बूढ़ी स्त्री द्वार खोलकर बाहर निकली। कॅली दीदी को देखते ही धाड़ मारकर रोने-पीटने लगी। बार-बार उसके मुँह से यही निकलता : हाय मैं लुट गयी, मेरा सब-कुछ चला गया!
"कॅली दीदी मुझे चारों तरफ नजर रखने के लिए वहीं खड़ा करके भीतर चली गयीं। बूढ़ी के साथ कुछ देर कानोंकान बातें करती रहीं। क्या बातें, किस बारे में, मैं नहीं सुन सका। उसके बाद कॅली दीदी बाहर निकलीं : बाँहों में किसी तरह एक लड़की को सँभाले हुए। पीली-सफेद पड़ी हुई थी लड़की। कपड़ों पर रक्त के बड़े-बड़े धब्बे। पाँव धरती पर टेकते न बनता। कण्ठ से अस्फुट कराहें। मैं तो देखता रह गया।"
धनपुर काँप-सा गया। मानो समूचा दृश्य सामने हो। सँभलते हुए बोला :
"बूढ़ी बिलख-बिलखकर कह रही थी, 'इसे बचा सकेगा बेटा? कल रात से आँख लगाये बैठी हूँ। कोई जो मानुख का जाया इधर आया हो। तू जैसे देवता रूप आ गया बेटा!' कॅली दीदी से बोली, 'पर इसे ले कैसे जाओगी? हालत तो देख ही रही हो।' लड़की सचमुच ढही जैसी पड़ रही थी।
"कॅली दीदी मेरा मुँह जोहने लगीं। मानो पूछ रही हों : ले चल सकोगे उठाकर? छह मील का रास्ता है।
"मेरी दृष्टि लड़की की ओर गयी। आँखें अब भी मुँदी हुई थीं। घुटी-घुटी कराहें बराबर निकल रही थीं। चेहरा कॅली दीदी से भी सुन्दर। पर एकदम जैसे निचोड़ दिया गया हो। अँगलेट इकहरी..."
कहते से एक पल को कहीं खो रहा धनपुर। बोला फिर :
"डिमि को तो जानते हो भिभि भइया! वैसी ही थी यह भी। पिण्डलियाँ तक उसकी जैसी। कॅली दीदी को मैंने संकेत किया : जरूर ले चलूँगा दीदी। बूढी को आश्वस्त करते हुए बोलीं वे : सुभद्रा का भार अब मुझ पर दादी; मगर उन दुष्टों को भी शिक्षा दे सकूँ तब तो!
"बूढ़ी के भर आये कण्ठ से निकला, 'बेटी, इसे फिर देख तो पाऊँगी मैं? मेरा यही तो सर्वस्व थी। हाय, कैसी लुट गयी मैं!'
"कॅली दीदी ने धीरज बँधाया, 'देख क्यों न पाओगी दादी! सब ठीक हो जाएगा। चलूँ अब।'
"मुझसे उस लड़की को सँभालकर उठाने को कहा। मैंने पूरी सावधानी रखी। फिर भी सुभद्रा की चीख निकल ही गयी। शायद कहीं पेट दब गया था। उसकी सारी देह तप रही थी। जरूर तेज ज्वर था। पीड़ा और लाज के मारे आँख नहीं खोल रही थी। उँगलियाँ तो उसकी देखते ही बनती थीं : पतली-पतली लम्बी। बारपूजिया की लड़कियाँ होती भी सुन्दर हैं...एकदम छरहरी।"
भिभिराम की कमर पर एक गमछे का फेंटा कसा हुआ था। उसी के एक छोर में पान और चूने-तमाखू की डिबियाँ लिपटी बँधी थीं। भिभिराम ने खोलकर एक पान निकाला और चूने-तमाखू सहित मुँह में दिया। फिर तो माणिक ने भी माँगा और धनपुर ने भी। बीड़ी फेंककर पान चबाते हुए धनपुर ने आगे कहना शुरू किया :
"सुभद्रा की देह से कच्ची मछली जैसी बास आ रही थी। कभी-कभी तो इतनी असह्य हो उठती कि नाक पर रूमाल रखना पड़ता। कॅली दीदी चलते रास्ते को छोड़कर काँस के झुण्डों में से होती हुई अगली बस्ती के निकट पहुँची और वहाँ से सीधा रास्ता पकड़कर आगे बढ़ चलीं। दोपहर हो आया था। कलङ् के किनारे-किनारे हम दोनों चुपचाप चले जा रहे थे। उनके हाथ में एक पोटली थी जिसमें एक कटार उन्होंने छिपा रखी थी। चारों ओर जंगल में नाहर के सुन्दर-सुन्दर पौधे दिखाई दे रहे थे। सच तो, कॅली दीदी स्वयं एक गतिमान नाहर का पौधा लग रही थीं। भय तो उस युवती को छू तक नहीं पाया था।
"हठात् चलते से वे रुक गयीं। बोली : 'एक बड़ी भूल हो गयी धनपुर!' जानने के लिए मैंने उनकी ओर देखा। उन्होंने बताया, 'सुभद्रा की माँ के पास तो एक अधेला भी नहीं। थोड़ा-सा धान था, सो मिलिटरी वाले भर ले गये। कुछ रुपये दे आती तो उसे सहारा होता। पर यहाँ तो मेरे पास भी कुछ नहीं। इधर यह भी लग रहा है कि यह डरपोक डॉक्टर इस बेचारी को भी देखेगा या नहीं। यों आदमी बुरा नहीं।'
"मैंने कहा, 'मेरे पास थोड़ा-बहुत है, दादी को दे आएँ?' सोचती हुई वे बोलीं, 'चल, अभी तो इधर ही चल। उन नासपीटों में से कहीं कोई मिल गया तो फिर सर्वनाश ही समझ।'
"मैं समझा नहीं। इसलिए पूछा। दीदी ने लाज-शर्म को जैसे बलात् एक ओर ठेलकर बताया, 'देखता नहीं इस अबोध का हाल! और दो-पाँच नहीं तीस-तीस जन! फौजी! मेरी पोर-पोर दहक उठी है। पर कैसे बदला लिया जाए, यही बराबर सोच रही हूँ। पुल उड़ाना क्या बदला लेना हुआ!'
"पूछा मैंने, 'तब?' "उनका उत्तर था, 'युद्ध करना होगा। चीन जैसा युद्ध।'
"मैं उनका मुँह ताकने लगा। बोलीं वे, 'अखबार नहीं पढ़ता है क्या? चीन जिस तरह जापान से युद्ध कर रहा है वैसा युद्ध! सभी कहीं तो मचा है युद्ध । कल बारपूजिया में भी यही सोचा गया है ! अब तो गोली-बन्दूक और हथगोलों की जुगाड़ करके गॅरिला फौज का संगठन करना है।''
धनपुर ने दोनों साथियों की ओर देखते हुए कहा :
"मैं जानता न था गॅरिला का क्या अर्थ होता है। इसलिए दीदी से पूछा। मीठी झिड़की के साथ उनका उत्तर आया, 'तेरा सिर! अर्थ तो मैं भी नहीं जानती, पर मुख्य बात है छिप-छिपकर इन दुष्टों के साथ अविराम युद्ध करना। गोली-बारूद जमा करके- ' कॅली दीदी कहने से एकबारगी रुक गयीं। मेरे मुँह की ओर देखती हुई बोलीं, 'पर खबरदार, कहीं जो एक शब्द भी मुँह से निकला। अपनों तक के आगे नहीं। ऐसी बातों के लिए दीवारों तक के कान हुआ करते हैं। समझा!'
"मैंने उन्हें विश्वास दिलाया। फिर सोचने लगा। मुझे जान पड़ा कि सचमुच ऐसा ही कुछ हमें करना होगा।"
माणिक बॅरा ने लक्ष्य किया कि भिभिराम की मुखमुद्रा गम्भीर हो आयी है। पूछने को हुआ वह, पर धनपुर आगे बताने लगा था :
"थोड़ी देर कॅली दीदी और मैं चुपचाप चलते रहे। सुभद्रा को मैं कन्धे से लगाये बाँहों पर सँभाले हुए था। जरा-सा झटका लगते ही बेचारी की चीख-सी निकल जाती। पर ऊँचा-नीचा रास्ता : सावधानी रखते भी झटका कभी-कभार लग ही जाता। दो-एक बार तो उसके कपड़े भी और रंग-रंग गये।
"एकाएक कॅली दीदी ने आँखों में आँखें डालते हुए पूछा, 'तुझे मरने से तो भय नहीं लगता रे?' मैंने उत्तर दिया, 'मरने से भय किसे नहीं लगता दीदी? मगर न्याय और सच्चाई के लिए मरना पड़े तो उसके लिए तैयार हूँ।' कॅली दीदी हलके से हँस दी, 'ठीक कहता है भइया। भगवान ने तुझे साहस भी दिया है, हृदय भी।' सुभद्रा की ओर देखती हुई बोलीं फिर, 'मैं सहारा दूं क्या कुछ देर के लिए?' मैंने कहा, 'नहीं, मैं ले चलूँगा। मगर यह है कौन दीदी?'
"कॅली दीदी चलते-चलते हठात् मिट्टी के एक दूहे पर बैठ गयीं। बुझीबुझी आवाज में उनके मुँह से निकला, 'उसी बूढी की बेटी है। कताई और बुनाई में अत्यन्त निपुण। घर-घर जाकर कातना और बुनना सिखाती रहती है। हर तरफ की खबरें भी उसमें इसे मिल जाती हैं। मैंने कई बार सावधान किया था : इन कलमुँह फौजियों की आँख पहले से ही इस पर थी। मेरी बात को कान नहीं दिया। ईश्वर पर बहुत भरोसा था इसे। क्या कर लिया ईश्वर ने अब!' "
धनपुर चलते-चलते एक स्थान पर रुका। पीक थूककर थोड़ी दूर पर दिखाई देते एक दलदली चप्पे की दिशा में संकेत करता हुआ कहने लगा :
"इधर ही है शायद लुइत का कछार! सुनते हैं बहुत ही उपजाऊ है यह समूचा खण्ड। यह भी सुना जाता है कि अनगिनत नेपाली और मैमनासिंही आ-आकर इधर बस गये हैं।"
भिभिराम ने बताया कि मैमनासिंहियों को तो स्वयं सरकार ने लाकर बसाया है। कारण कि मुसलिम लीग वाले यहाँ से असम को पाकिस्तान के साथ जोड़ देना चाहते थे।
"यह तो लीग के पुरखे भी नहीं कर पाते।" खंखारकर गला साफ करते हुए माणिक बॅरा बोला।
धनपुर ने एक और बीड़ी सुलगायी। कहने लगा :
"हमारे भी हल सँभालने का समय आ गया अब। कपिली से यह कलङ्का कछार ज्यादा उपजाऊ है। ढिंग से लेकर यहाँ तक का समूचा अंचल उर्वर मिट्टी से भरा हुआ है और दलदल कहीं नाम को नहीं...।"
कोई सपना जैसे आँखों में तिर आया हो! बोला आगे :
"स्वाधीनता मिल जाने के बाद इधर ही खेती जमाऊँगा। कामपुर में तो मेरे पास एक बित्ता भर भी जमीन नहीं। भइया तो गोसाईंजी के यहाँ से अध-बटिया पर गुजारा कर लेता है, देखता मैं ही रह जाता हूँ। वैसे भी कपिली में हर साल ही तो बाढ़ आती है। कोई तो उसके कोप से बच नहीं पाता!"
भिभिराम सुभद्रा वाली घटना का शेषांश सुनने के लिए उत्सुक था। धनपुर को टोका उसने :
"यह सब तो ठीक भाई, अपनी वह कहानी पहले पूरी कर। रोहा तो पहुँच ही गये होंगे तीनों निरापद?"
धनपुर सुनाने लगा :
"हाँ, पहुँचते-पहुँचते अँधेरा झुकने लगा था। सुभद्रा को सँभालकर आश्रम के कमरे में लिटा दिया। तब देखा उसके ही कपड़े और नहीं रँग गये हैं, मेरे कपड़ों पर भी जगह-जगह धब्बे आ गये हैं। वह कच्ची मछली जैसी गन्ध तो नाक में बस ही गयी थी। सुभद्रा अब भी उसी तरह आँखें मूंदै निढाल लेटी थी। पहली नजर में तो पहचानना मुश्किल था कि साँस भी ले रही है या नहीं। मैं उसे वहीं लेटा छोड़ तालाब की तरफ लपका। कपड़ों के धब्बे धोये, नहाया; मगर वह गन्ध तो मानो छोड़ने का नाम नहीं ले रही थी।"
अजीब-सा मुँह बनाते हुए उसने आगे बताया :
"कमरे में लौटा तो कॅली दीदी ने कहा, 'जा, देखकर आ डिस्पेन्सरी में डॉक्टर हैं या नहीं। हों तो बुला लाना।' मुझे नाक पर रूमाल रखते देखा तो झिड़कते हुए बोलीं, 'एक की गन्ध से यह हाल? मिलिटरी और पुलिस ने तो न जाने ऐसी कितनीकितनी बेचारियों का सर्वनाश किया है। कितनी ही तो अपंग हुई पड़ी हैं। कोई देखे तो खौल उठे। मगर इस गन्ध से अब परिचित होना पड़ेगा भइया। यही तो अत्याचार की गन्ध है। जा, डॉक्टर को जल्दी ले आ। देर होने से कहीं यह मर ही न जाए।'
"मैं डिस्पेन्सरी की तरफ चल दिया। किन्तु मन-ही-मन सोचता हुआ कि अत्याचार की भी गन्ध होती है क्या?"