Mrityu-Darshan (Hindi Lekh/Nibandh) : Rahul Sankrityayan

मृत्‍यु-दर्शन (हिंदी निबंध) : राहुल सांकृत्यायन

घुमक्कड़ की दुनिया में भय का नाम नहीं है, फिर मृत्‍यु की बात कहना यहाँ अप्रासंगिक-सा मालूम होगा। तो भी मृत्‍यु एक रहस्‍य है, घुमक्कड़ को उसके बारे में कुछ अधिक जानने की इच्‍छा हो सकती है और मनुष्‍य को निर्बलताएँ कभी-कभी उसके सामने भी आती हैं। मृत्‍यु अवश्यंभावी है - ''जातस्‍य हि ध्रुवो मृत्‍यु:।'' एक दिन जब मरना ही है, तो यही कहना है -

''गृहित इव केशेषु मृत्‍युना धर्ममाचरेत्।''

मृत्‍यु की अनिवार्यता होने पर भी कभी-कभी आदमी को कल्‍पना होने लगती है - काश! यदि मृत्‍यु न होती। प्राणियों में, यद्यपि कहा जाता है सबके लिए ही मृत्‍यु है, तो भी कुछ प्राणी मृत्युंजय हैं। ऐसे प्राणी अंडज, उष्‍मज और जरायुजों में नहीं मिलते। मनुष्‍य का शरीर अरबों छोटे-छोटे सेलों (जीवकोषों) से मिलकर बना है, किंतु कोई-कोई प्राणी इतने छोटे हैं कि वह केवल एक सेल के होते हैं। ऐसे प्राणियों में जन्‍म और वृद्धि होती है, किंतु जरा और मृत्‍यु नहीं होती। आमोयबा एक ऐसा ही प्राणी समुद्र में रहता है, जो जरा और मृत्‍यु से परे है, यदि वह अकालिक आघात से बचा रहे। आमोयबा का शरीर बढ़ते-बढ़ते एक सीमा तक पहुँचता है, फिर वह दो शरीरों में बँट जाता है। दोनों शरीर दो नए आमोयबों के रूप में बढ़ने लगते हैं। मनुष्‍य आमोयबा की तरह विभक्त होकर जीवन आरंभ नहीं कर सकता, क्‍योंकि वह एक सेल का प्राणी नहीं है। मीठे पानी में एक अस्थिरहित प्राणी पल्‍नारियन मिलता है, जो आध इंच से एक इंच तक लंबा होता है। पल्‍नारियन में अस्थि नहीं है। अस्थि की उसी तरह हास-वृद्धि नहीं हो सकती जैसे कोमल मांस की। जब हम भोजन छोड़ देते है, तब भी अपने शरीर के मांस और चर्बी के बल पर दस-बारह दिन तक हिल-डोल सकते हैं। उस समय हमारा पहले का संचित मांस-चर्बी भोजन का काम देती है। पल्‍नारियन को जब भोजन नहीं मिलता तो उसका सारा शरीर आवश्‍यकता के समय के लिए संचित भोजन-भंडार का काम देता है, आहार न मिलने पर अपने शरीर के भीतर से वह खर्च करने लगता है। उसके शरीर में हड्डी की तरह का कोई स्‍थायी ढाँचा नहीं है, जो अपने को गलाकर न आहार का काम दे, और उलटे जिसके लिए और भी अलग आहार की आवश्‍यकता हो। पल्‍नारियन आहार न मिलने के कारण अपने शरीर को खर्च करते हुए छोटा भी होने लगता है, छोटा होने के साथ-साथ उसका खर्च भी कम होता जाता है। इस तरह वह तब तक मृत्‍यु से पराजित नहीं हो जाता, जब तक कि महीनों के उपवास के बाद उसका शरीर उतना छोटा नहीं दो जाता, जितना कि वह अंडे से निकलते वक्‍त था। साथ ही उस जंतु में एक और विचित्रता है - आकार के छोटे होने के साथ वह अपनी तरुणाई से बाल्‍य की ओर - चेष्‍टा और स्‍फूर्ति दोनों में - लौटने लगता है। उपवास द्वारा खोई तरुणाई को पाने के लिए कितने ही लोग लालायित देख पड़ते हैं और इस लालसा के कारण वह बच्‍चों की-सी बातों पर विश्‍वास करने के लिए तैयार हो जाते हैं। मनुष्‍य में पल्‍नारियन की तरह उपवास द्वारा तरुणाई पाने की क्षमता नहीं है। विद्वानों ने उपवास-चिकित्‍सा कराके बहुत बार पल्‍नारियन को बाल्‍य और प्रौढ़ावस्‍था के बीच में घुमाया है। जितने समय में आयु के क्षय होने से दूसरों की उन्‍नीस पीढ़ियाँ गुजर गईं, उतने समय में एक पल्‍नारियन उपवास द्वारा बाल्‍य और तरुणाई के बीच घूमता रहा। शायद बाहरी बाधाओं से रक्षा की जाय तो उन्‍नीस क्या उन्‍नीस सौ पीढ़ियों तक पल्‍नारियन को उपवास द्वारा जरा और मृत्‍यु से रक्षित रखा जा सकता है। मनुष्‍य का यह भारी भरकम स्‍थायी हड्डियों और अस्‍थायी मांस वाला शरीर ऐसा बना हुआ है कि उसे जराहीन नहीं बनाया जा सकता, इसीलिए मानव मृत्‍युंजय नहीं हो सकता।

मृत्‍युंजय की कल्‍पना गलत है, किंतु सवा सौ-डेढ़ सौ साल जीने वाले आदमी तो हमारे यहाँ भी देखे जाते हैं। बहुत-से प्रौढ़ या वृद्ध जरूर चाहेंगे कि अच्छा होता, यदि हमारी आयु डेढ़ सौ साल की ही हो जाती। वह नहीं समझते कि डेढ़ सौ साल की आयु एकाध आदमी की होती तो दूसरी बात थी, किंतु सारे देश में इतनी आयु होनी देश के लिए तो भारी आफत है। डेढ़ सौ साल की आयु का मतलब है आठ पीढ़ियों तक जीवित रहना। अभी तक हमारे देश की औसत आयु तीस बरस या डेढ़ पीढ़ी है, और हर साल पचास लाख मुँह हमारे देश में बढ़ते जा रहे हैं। यदि लोग आठ पीढ़ी तक जीते रहे, तब तो दो पीढ़ी के भीतर ही हमारे मैदानों और पहाड़ों में सभी जगह घर ही बन जाने पर भी लोगों के रहने के लिए जगह नहीं रह जायगी, खाने कमाने की भूमि की तो बात ही अलग।

यदि इतनी पीढ़ियाँ इकट्ठी हो जायँगी, तो अगली पीढ़ी के लिए जीना दूभर हो जायगा। हम बीस बरस के तरुण-तरुणी की अपने चालीस साल के माता-पिता के साथ मुश्किल से निभते देखते हैं, दोनों के स्वभाव और रुचि में अंतर मालूम होता है। चालीस वाले माता-पिता अपनी तरुण संतान की बेसमझी और उतावलेपन की शिकायत करते हैं, और तरुण उन्‍हें समय से पिछड़ा मानते हैं। साठ बरस के दादा-दादी की तो बात ही मत पूछिए। पहली और तीसरी पीढ़ी का भारी अंतर बहुत स्‍पष्‍ट दिखलाई पड़ता है और वह इसीलिए एक साथ गुजर कर लेते हैं कि साथ अधिक दिन का नहीं होता। तीसरी पीढ़ी में जो भारी परिवर्तन देखा जाता है, उसे आठवीं पीढ़ी से मिलाने पर पता लग जायगा कि मनुष्‍य की ऐसी चिरजीविता अच्छी नहीं है। चौथी पीढ़ी को देखने के लिए बहुत कम बूढ़े-बूढ़ियाँ जीवित रहते हैं। तीसरी पीढ़ी को भी संसार सँभाले बहुत कम देख पाते हैं। एक बृद्ध को मैं जानता था, वह संस्कृत के धुरंधर विद्वान और ब्राह्मणों के खटकर्म तथा छूआछूत के पक्षपाती थे। उन्‍होंने अपने पुत्र को भी संस्कृत पढ़ाया और अपनी सारी बातें सिखलाईं, किंतु बाजार-भाव अच्छा होने के कारण अंग्रेजी भी पढ़ाई। अब वह एक बड़े कालेज में अध्‍यापक हैं। उनके पिता अब नहीं हैं, लेकिन यदि परलोक के भरोसे से वह कमी अपने पुत्र की रसोई की ओर झाँके, जहाँ हिरण्यगर्भ (जिसके भीतर हिरण्‍य अर्थात् पीला पदार्थ है - अंडा) की अनन्‍य उपासना हो रही है तो क्या समझेंगे? और सभी तो यह पंडितजी की दूसरी पीढ़ी है। तीसरी पीढ़ी का चार-पाँच बरस का बच्‍चा हिरण्यगर्म की उपासना के वातावरण में पैदा हुआ है, वह कहाँ तक जायगा, इसको कौन कह सकता है? एक दूसरे मेरे सौभाग्यशाली वृद्ध मित्र हैं, जिन्‍होंने पुत्रों की चार पीढ़ियों देख ली हैं, पुत्रियों की शायद पाँच पीढ़ी भी हो गई हों। अस्‍सी बरस के ऊपर हैं। खैरियत यही है कि पैंतीस साल से उन्‍होंने संन्यास ले रखा है और घर पर कभी-ही-कभी जाते हैं। जब जाते हैं तो उनके वीतराग हृदय में कुफ्त हुए बिना नहीं रहती। वह गांधी-युग के पहले से ही हर चीज में सादगी को पसंद करते थे। और धर्मभीरुता के लिए तो कहना ही क्या? कोई जीविकावृत्ति की आशा न होने पर भी उन्‍होंने अपने एक पुत्र को संस्कृत पढ़ाया। लेकिन पुत्र के पुत्रों के बारे में मत पूछिए। आजकल के युग के अनुसार पौत्र बड़े सुशील और सदाचारी हैं, किंतु दादा की दृष्टि से देखें तो उन्‍हें यही कहना पड़ता है - भगवान्! और अब यह सब अधिक न दिखलाओ। उनके घर में साबुन का खर्च बढ़ गया है, तेल-फुलेल का तो होना ही चाहिए, चप्‍पल और जूते की भी महिलाओं को अत्यंत आवश्‍यकता है। और तीसरी पीढ़ी के साहबजादों का चाय के बिना काम नहीं चलता। चाय भी पूरे सेट में होनी चाहिए और ट्रे में रखकर आनी चाहिए। वृद्ध मित्र कह रहे थे - ''यह सब फजूलखर्ची है, लेकिन इन्‍हें समझावे कौन?'' और पौत्र कह रहा था - ''रहने दीजिये आपके युग का भी हमें ज्ञान है, जब एक या दो साड़ी में स्त्रियाँ जिंदगी बिताती थीं। आज हमारी किसी स्‍त्री के ट्रंक को खोलकर देख लीजिए, बहुत अच्छी किस्म की आठ-आठ दस-दस साड़ियों से कम किसी के पास नहीं हैं।'' वृद्ध की सूखी हड्डियाँ यह कहते हुए कुछ और गर्म हो उठीं - ''यह तो और फजूलखर्चीं है।'' तीसरी पीढ़ी ने कहा - ''जो आपकी पीढ़ी के लिए फजूलखर्ची थी, वह हमारे लिए आवश्‍यक है। आप की न जाने कई दर्जन पीढ़ियों ने मांस का नाम सुनकर भी राम-राम कहा होगा और हमारी चाय ही ठीक नहीं जमती, यदि हिरण्यगर्भ भगवान तश्‍तरी में न पधारें।'' वृद्ध दादा के लिए अब बात सुनने की सीमा से बाहर हो रही थी। उनके हटते ही मैं भी साथ देने चला गया। उनके हार्दिक खेद की बात क्या पूछते है! मैंने उनसे कहा - ''आप भी जब पिछली शताब्‍दी के अंत में आर्यसमाजी बने तो सभी गाँव के लोगों ने नास्तिक कहना शुरू किया था। यदि छुआछूत को हटा दिये होते तो निश्‍चय ही जात में ब्‍याह-शादी हुक्‍का-पानी सब बंद हो गया होता। आपने जो उस समय किया था, वही उस समय के लिए भारी क्रांति थी। आपने पत्‍नी को भी जनेऊ दिलवाया, दोनों बैठकर हवन-संध्‍या करते थे, लेकिन इसे भी उस समय के सनातनी अच्छी दृष्टि से नहीं देखते थे। जाने दीजिए, जो जिसका जमाना है वही उसकी जवाबदेही को सँभाले।''

स्त्रियों की बात लीजिए। मैं मेरठ की स्त्रियों के बारे में कहूँगा, जिनका मुझे तीस बरस का ज्ञान है - तेईस चौबीस बरस का तो बिलकुल प्रत्‍यक्ष ज्ञान। वर्तमान शताब्‍दी का जब यह फटा, तो मेरठ के मध्‍यम वर्ग में एक विचित्र प्रकार की खलबली मची हुई थी। कितने ही साक्षर और शिक्षित पुरुषों ने ऋषि दयानंद की पाखंड-खंडनी ध्वजा हाथ में उठाई थी। सनातनी पंडितों ने व्‍यवस्‍था दी थी -

''स्‍त्री शूद्रौ नाधीयेताम्'' अर्थात् स्त्रियों और शूद्रों की विद्या नहीं पढ़ानी चाहिए। पाखंड खंडनी वाले भक्‍तों ने स्त्रियों को पढ़ाने का बीड़ा उठाया था। बीड़ा घर से ही आरंभ हो सकता था। उस पीढ़ी का आग्रह आज की दृष्टि से कुछ भी नहीं था। वे स्त्रियों को अंग्रेजी पढ़ाने के विरोधी थे, और चाहते थे कि उन्‍हें संध्‍या गायत्री करने तथा चिट्ठी-पत्री लिखने-भर को आर्यभाषा (हिंदी) आ जानी चाहिए। परम लक्ष्‍य इतना ही था, कि हो सके तो गृहकार्य में निपुण होने के बाद स्त्रियाँ वेद-शास्‍त्र की बातें भी कुछ जान लें। पहली पीढ़ी की, तो प्रथम विश्‍व-युद्ध के समय तैयार हुई थी, आर्य-ललनाओं ने अपने नवशिक्षित तरुण पतियों के संसर्ग से कुछ और भी आगे पढ़ना पसंद किया, उनकी लड़कियों में कोई-कोई कालेज तक पहुँच गई। इन लड़कियों ने गांधीजी के दो युद्धों में भी भाग लिया और आँगन से ही बाहर नहीं जेलों की भी हवा खा आईं। आज आर्य ललनाओं की तीसरी पीढ़ी तैयार है और उनमें से बहुतेरी यूरोपीय ललनाओं से एक तल पर मुकाबला कर सकती हैं - अंतर होगा तो केवल रंग और साड़ी का। आर्य ललनाओं की सासें यदि अब तक जीवित रहतीं, तो जरूर उन्‍हें आत्‍म-हत्‍या करनी पड़ती। बूढ़ी आर्य ललनाएँ कहीं एकाध बच पाई हैं, उनकी अवस्‍था हमारे मित्र वृद्ध स्वामी जी से कम दयनीय नहीं हैं। और अब तो जब कि वर्तमान पीढ़ी के तरुण-तरुणी ब्‍याह-शादी में वृक्षों के दखल को असह्य मानते, जात-पांत और दूसरी बातों का ख्‍याल ताक पर रखके मनमानी कर रहे हैं, तो आर्य ललनाओं की अवस्‍था क्या होगी, इसे कहने की आवश्‍यकता नहीं। हम समझते हैं कम-से-कम और नहीं तो इन पुरानी पीड़ियों को भयंकर साँसत से बचाने के लिए ही मृत्‍यु को न आने पर बुलाकर लाने की जरूरत पड़ेगी।

वस्‍तुत: प्रथम श्रेणी का घुमक्कड़ वृद्धों के सठियाने का पक्षपाती नहीं हो सकता। वह यही कहेगा कि इन फोसीलो का स्‍थान जीवित मानव-समाज नहीं, बल्कि म्‍यूजियम है। यदि फोसीलों का युग होता तो घुमक्कड़-शास्‍त्र लिखने वाले के ऊपर क्या बीतती, इसे कहने की आवश्‍यकता नहीं। इन पंक्तियों का लेखक वृद्धों का शत्रु नहीं हितैषी है। उनके हित पर विचार करके ही वह समझता है कि समय बीत जाने के बाद उस चीज के लिए यही अच्छा है कि लोगों की दृष्टि से ओझल हो जाय।

मृत्‍यु को नाहक ही भय की वस्‍तु समझा जाता है। यदि जीवन में कोई अप्रिय वस्‍तु है तो वह वस्‍तुत: मृत्‍यु नहीं है, मृत्‍यु का भय है। मृत्‍यु के हो जाने के बाद तो वह कोई विचारने की बात ही नहीं। मृत्‍यु जिस वक्‍त आती है, आम तौर से देखा जाता है कि मूर्च्‍छा उससे कुछ पहले ही पहुँच जाती है, और मनुष्‍य मृत्‍यु के डरवाने रूप को देख ही नहीं पाता, फिर भय और अप्रिय घटना का सवाल ही क्या हो सकता है? मृत्‍यु अपने रूप में तो कहीं कोई अप्रियता नहीं लाती। मृत्‍यु को दरअसल जिस तरह साधारण बातचीत में हम अप्रिय समझते हैं, वह ऐसी अप्रिय नहीं है। कितनी बार साधारण आदमी भी जीवन छोड़ मृत्‍यु को पसंद करता है। कोई अपने सम्‍मान के लिए मृत्‍यु का आलिंगन करता है, कोई देश-समाज के लिए मृत्‍यु को स्वीकार करता है। खुदीराम बोस ने जब पहले-पहल देश की स्वतंत्रता के लिए तरुणों को सर्वस्व उत्‍सर्ग का रास्‍ता दिखलाते हुए मृत्‍यु को चुना, तो क्या आखिरी घड़ी तक कभी उस तरुण के हृदय में अफसोस या ग्‍लानि हुई? खुदीराम के बाद सैकड़ों तरुणों ने उसी पथ का अनुसरण किया। भगतसिंह के लिए क्या मृत्‍यु कोई चीज थी? खुदीराम और उनके नजदीकी वीरों को यह विश्‍वास करके भी सांत्वना हो सकती थी, कि वह गीता के अनुसार मरकर फिर जन्‍म लेंगे और फिर देश के बलिदान होंगे, लेकिन भगतसिंह को तो ऐसा कोई विश्‍वास नहीं था। द्वितीय विश्‍व-युद्ध में रूस के लाखों तरुण-तरुणियों ने मृत्‍यु से परिहास किया। इससे साबित हो जाता है कि मृत्‍यु वैसी भयंकर चीज नहीं हैं, जैसा कि लोग समझते हैं। घुमक्कड़ तरुण तो इन लाखों पुरुषों में सबसे निर्भीक व्‍यक्तियों की श्रेणी में है, उसको क्‍यों मृत्‍यु की चिंता होने लगी?

मृत्‍यु के साथ ही आदमी को कीर्ति का ख्‍याल आता है। जीवित अवस्‍था की कीर्ति को - जो मरने के बाद भी जीवित रहती है - कितने ही तो कीर्ति-कलेवर कहते है, अर्थात् इसी भौतिक शरीर का वह आगे बढ़ा हुआ शरीर कीर्ति के रूप में हैं। कीर्ति का ख्‍याल बुरा नहीं है, क्‍योंकि इससे आदमी वैयक्तिक स्वार्थ से ऊपर उठता है, वह अपने वर्तमान के लाभ को तिलांजलि देता है। यह सब कुछ कीर्ति-लोभ के लिए करता है। कीर्ति-लोभ मनुष्‍य को बहुत से सुकर्मों के लिए प्रेरित करता है। कई शताब्दियों तक खड़े रहने वाले अजंता, एलोरा, भाजा और कार्ले के गुहाप्रसाद, यद्यपि आज लोगों के रहने के काम नहीं आते, लेकिन शताब्दियों तक वह निवास-गृह की तरह इस्‍तेमाल होते रहे। यह लाभ कई पीढ़ियों को उनके निर्माताओं की कीर्ति-लिप्‍सा के कारण ही हो पाया। जब हम कला, वास्‍तुशास्‍त्र और सांस्‍कृतिक दृष्टिकोण से देखते हैं, तब तो कीर्ति-लोभ का महत्‍व और अधिक जान पड़ता है। यद्यपि कितनी ही अचल कीर्तियों के बारे में नाम अमर होने की बात भ्रम होती है, जब कि हम कर्त्ता का नाम तक नहीं जानते। भारतवर्ष के कितने ही स्तंभों, स्‍तूपों और गुहा-प्रासादों की यही बात है। सभी पर अशोक के शिला-स्तंभों की भाँति अभिलेख नहीं हैं, और कितनों को हम कल्‍पना से नाम देना चाहते हैं। हम साधारण आदमियों के इस भ्रम को हटाना नहीं चाहते, कि ऐसे काम से उनका नाम अमर होगा। संतान के द्वारा अमर होने की धारणा लोगों के हृदयों में कितनी बद्धमूल हैं, जबकि यह सभी देखते हैं कि अपने परदादा का नाम बिरले ही लोग जानते हैं।

पाषाण और धातु की बनी कीर्तियों से अमर होने की इच्‍छा सभी दोनों में बहुत पुरानी है। अब भी वह धारणा उसी तरह चली आती है। हमारे कितने ही अजंता, एलोरा, भुवनेश्‍वर और कोनारक की अचल कीर्तियों को देख अपना नाम अमर करने की इच्‍छा से कितने ही सीमेंट, और ईंट के तड़क-भड़क वाले मंदिर बनवाते हैं। कितने अपनी पुस्‍तकों के छप से समझते हैं कि वह अश्‍वघोष और कालिदास हैं। आज की पुस्‍तक जिस कागज पर छपती हैं, वह इतना भंगुर है कि पुस्‍तक सौ बरस भी नहीं चल सकती। छापाखानों ने पुस्‍तकों का छपना जितना आसान कर दिया है, उसके कारण प्रतिवर्ष हजारों नई पुस्‍तकें छप रही हैं, जिनकी संख्‍या शिक्षा-प्रचार के साथ शताब्‍दी लाखों हो जायगी। हजार वर्ष बाद इन पुस्‍तकों की रक्षा के लिए जितने घरों की आवश्‍यकता होगी, उनका बनाना संभव नहीं होगा। सच तो यह है कि हर एक पीढ़ी का अगली पीढ़ी पर अपनी अमरता को लादना उसी तरह की अबुद्धिपूर्वक भावना है, जैसी हमारे दस पीढ़ियों की पूर्वजों की यह आशा - कि हम उनके सारे नामों को याद रखेंगे - जो कि कुछ संभव भी है, यद्यपि बेकार है।

आज बीसवीं शताब्‍दी आधी बीत रही हैं, क्या आप आशा रखते हैं कि इन पचास वर्षों में जितने पुरुषों ने भिन्‍न भिन्‍न क्षेत्रों में महत्‍वपूर्ण कार्य किया है, उनमें से दस भी 6949 ईसवीं में अमर रहेंगे। गांधीजी, रवींद्र और रामानुजम् का नाम रह जायगा, बाकी में यदि दो-तीन और आ जाय तो बहुत समझिए, लेकिन उनका नाम हम आप बतला नहीं सकते। इतिहास का फैसला आँखों के सामने नहीं होता। वह उस समय होता है जबकि कोई सिफारिश नहीं पहुँचाई जा सकती। कभी-कभी तो फैसला बड़ा निष्‍ठुर होता है। संस्कृत के महान कवियों और विचारकों में जो हमारे सामने मौजूद हैं, क्या उनसे बेहतर या उनके जैसे और नहीं रहे, गुणाढ्य की बृहत्‍कथा क्‍यों लुप्‍त हो गई? क्या उसके संस्कृत अनुवादों को देखने से पता नहीं लगता, कि वह बड़ी उत्‍कृष्‍ट कृति रही होगी। बहुतों की महाकीर्तियाँ तो वर्ग-पक्षपात के कारण मिट गईं। क्या हमारे प्राचीन कवियों और लेखकों में सभी सामंतों के गुण गानेवाले ही रहे होंगे? हजार में दस-पाँच ने अवश्य उनके दोषों को भी दिखलाया होगा और साधारण जनता के हित को सामने रखा होगा, लेकिन सामंती संरक्षकों ने ऐसी कृतियों को अपने पुस्‍तकालयों में रहने नहीं दिया, उनके अनुचर विद्वानों ने भी प्रश्रय नहीं दिया। आज हम युगपरिवर्तन के संधिकाल में हैं। पिछली शताब्‍दी और वर्तमान के चौदह सालों में रूस में जिन्‍हें महाप्रतापी समझा जाता था, उनमें बहुत से हमारे सामने मर गये। चीन का इतिहास भी उसी तरह फिर से लिखा जा रहा है, जिसमें अमर चांगकैशक की क्या गत होगी, यह आप स्वयं समझ सकते हैं। भारत में भी कितने ही अमर होने के इच्‍छुक बहुत जल्‍द भुला दिये जायँगे। कितनों के मुह के ऊपर इतिहास इतना काला पुचारा फेरेगा, जिससे उनका डर मर जाना ही अच्छा होता।

घुमक्कड़ वीरों को वस्‍तुत: न अमरता का लोभ होना चाहिए, न हजारों बरस तक लंबे कीर्ति-कलेवर की लिप्‍सा ही। इसका यह अर्थ नहीं कि उन्‍हें अकीर्ति की लिप्‍सा होनी चाहिए। उन्‍हें जनहित का कार्य करना है, समाज और विश्‍व को आगे ले चलना है। यदि इन कामों में उनकी कुछ भी शक्ति सफल रही, तो वह अपने को कृतकृत्‍य समझेंगे। जिस तरह सरोवर में डला फेंकने पर लहर उठती है, फिर वह एक लहर से दूसरी लहर को उठाती स्वयं विलीन हो जाती है, किंतु लहरों का सि‍लसिला आगे बढ़ता जाता है, इसी तरह घुमक्कड़ मानवहित लहर उठा देती है, तो उसे उसकी सफलता कहनी चाहिए। कोई-कोई आरंभिक लहरें अधिक शक्तिशाली होती हैं और कोई कम शक्तिशाली। आदमी के कृतित्‍व का मूल उसकी उठाई लहरों की शक्तिशालिता है। निर्माण का विचार सबसे सुंदर है। बिना अपने कलेवर को आगे बढ़ाये, अपने जीवित समय में विश्‍व को कुछ देना फिर सदा के लिए शून्‍य में विलीन हो जाना, यह कल्‍पना कितनों के लिए अनाकर्षक मालूम होगी। किंतु कितने ही ऐसे भी विचारशील हो सकते हैं जो अपना काम करने के बाद बालू के पदचिह्न की भाँति विलीन हो जाने के विचार से भयभीत नहीं, बल्कि प्रसन्‍न होंगे। आखिर काल पाँच-दस हजार बरस की अ‍वधि नहीं रखता। यह हमारी घड़ी के सेकेंड की सुई एक मिनट में अपना एक चक्‍कर पूरा करती है, एक जीवन के साठ बरसों में कितनी बार वह चक्‍कर काटेगीं? काल की घड़ी की सुई तो कभी थम नहीं सकती। सेकेंड मिलकर मिनट, मिनट मिलकर घंटा, फिर दिन, मास, वर्ष, शताब्‍दी, सहस्राब्‍दी, लक्षाब्‍दी, कोटयाब्‍दी, अरबाब्‍दी होती चली जायगी। आज के सेकेंड से अरबाब्‍दी तक यह काल अविच्छिन्‍न प्रवाह सा चलता चला जायगा। अमरत्‍व के भूखों को यदि इन सहस्राब्दियों में दौड़ने को छोड़ दिया जाय, तो किसी को कल्‍पना भी दस हजार बरस तक भी उसे अमरत्‍व नहीं दिला सकती, फिर अनवधिकाल में सदा अमर होने की कल्‍पना साहस मात्र है। अंत में तो किसी अवधि में जाकर बालू पर का चरणचिह्न बनना ही पड़ेगा। जब इस पृथ्‍वी पर जीवन का चिह्न नहीं रह जायगा, तो अमरकीर्ति की क्या बात हो सकती है?

घुमक्कड़ मृत्‍यु से नहीं डरता। घुमक्कड़ सुकृत करना चाहता है, लेकिन किसी लोभ के वश में पड़कर नहीं। उसने यहाँ जन्‍म लिया है, उसका स्वभाव मजबूर करता है, कि अपने आसपास को शक्ति-भर स्वच्‍छ और प्रसन्‍न रखे। वह केवल कर्त्तव्‍य और आत्‍म-तृष्टि के लिए महान-से-महान उत्‍सर्ग करने के लिए तैयार होता है। बस, यही होना चाहिए घुमक्कड़ परिवार का महान उद्देश्‍य।

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