मूर्ख कौन ? : बिहार की लोक-कथा
Moorkh Kaun ? : Lok-Katha (Bihar)
पुराने ज़माने की बात है। किसी गाँव में एक सेठ रहता था। उसका एक ही बेटा था जो व्यापार के सिलसिले में परदेश गया हुआ था। सेठ की बहू एक दिन कुएँ पर पानी भरने गई। घड़ा कुएँ के मुंडेर पर रख दिया और अपना मुँह-हाथ धोने लगी। उसी समय कहीं से वहाँ चार राहगीर आ पहुँचे। उनमें से एक ने कहा, “बहन, मैं बहुत प्यासा हूँ। क्या तुम मुझे पानी पिला सकती हो?”
सेठ की बहू को पानी पिलाने में थोड़ी झिझक महसूस हुई, क्योंकि वह उस समय कम कपड़ों में थी। उसके पास कोई लोटा-गिलास भी नहीं था जिससे वह उनको पानी पिला देती। इसी कारण राहगीरों को वहाँ पानी पिलाना उसे ठीक नहीं लगा।
बहू ने उनसे पूछा, “आप कौन हैं?” राहगीर ने कहा, “मैं एक यात्री हूँ।”
बहू बोली, “यात्री तो संसार में केवल दो ही होते हैं, आप उन दोनों में से कौन हैं? अगर आपने मेरे इस सवाल का सही जवाब दे दिया तो मैं आपको पानी पिला दूँगी। नहीं तो मैं पानी नहीं पिलाऊँगी?”
बेचारा राहगीर उसकी बात का कोई जवाब नहीं दे पाया।
तभी दूसरे राहगीर ने पानी पिलाने की विनती की। बहू ने उससे पूछा, “अच्छा, आप बताइए कि आप कौन हैं?”
दूसरा राहगीर तुरंत बोल उठा, “मैं तो एक ग़रीब आदमी हूँ।”
इस पर सेठ की बहू बोली, “भइया, ग़रीब तो केवल दो ही होते हैं। आप उनमें से कौन हैं?” इस प्रश्न का दूसरे राहगीर को कोई जवाब नहीं सूझा तो वह चुपचाप हट गया।
तीसरा राहगीर बोला, “बहन, मुझे बहुत प्यास लगी है। ईश्वर के लिए तुम मुझे पानी पिला दो।” बहू ने पूछा, “अब आप कौन हैं?” वह बोला, “बहन, मैं तो एक अनपढ़-गँवार हूँ।” यह सुनकर बहू बोली, “अरे भाई, अनपढ़-गँवार तो इस संसार में बस दो ही होते हैं। आप उनमें से कौन हैं?” बेचारा यह तीसरा राहगीर भी कुछ नहीं बोल पाया। अंत में चौथा राहगीर आगे आया और बोला, “बहन, मेहरबानी करके मुझे पानी पिला दो। प्यासे को पानी पिलाना तो बड़े पूण्य का काम होता है।”
सेठ की बहू बड़ी चतुर और होशियार थी। उसने चौथे राहगीर से पूछा, “आप कौन हैं?” वह राहगीर अपनी खीज छिपाते हुए बोला, “मैं तो बहन बड़ा ही मूर्ख हूँ।”
बहू ने कहा, “मूर्ख तो संसार में केवल दो ही होते हैं। आप उनमें से कौन हैं?”
बेचारा यह भी उसके प्रश्न का जवाब नही दे सका। चारों राहगीर बिना पानी पिए ही वहाँ से जाने लगे तो बहू बोली “यहाँ से थोड़ी ही दूरी पर मेरा घर है, आप लोग कृपया वहाँ चलिए। मैं आप लोगों को पानी पिला दूँगी।”
चारों राहगीर उसके द्वारा बताए घर की तरफ़ चल दिए। बहू ने इस बीच पानी का घड़ा उठाया और छोटे रास्ते से अपने घर पहुँच गई। उसने घड़ा रखकर अपने यथोचित कपड़े पहन लिए। इतने में ही चारों राहगीर भी उसके घर पहुँच गए। बहू ने उन सभी को गुड़ खिलाकर पानी पिलाया। पानी पीने के बाद वे राहगीर अपनी राह चलते बने।
सेठ घर में एक तरफ़ बैठा यह सब देख रहा था। उसे बड़ा दुख हुआ कि इसका पति तो परदेश गया है और यह उसकी ग़ैर-हाज़िरी में पराए मर्दों को घर बुलाकर पानी पिलाती है। इसे तो मेरा भी लिहाज़ नहीं है। वह सोचने लगा कि यदि मैं चुप रह गया तो आगे इसकी हिम्मत और बढ़ती जाएगी। क्यों न इसका फ़ैसला राजा पर ही छोड़ दूँ। यही सोचता-सोचता वह सीधा राजा के पास जा पहुँचा और अपनी सारी परेशानी बताई।
सेठ की सारी बात सुनकर राजा ने तुरंत बहू को बुलाने के लिए सिपाही भेजे और उनसे कहा, “तुरंत सेठ की बहू को दरबार में उपस्थित किया जाए।” राजा के सिपाहियों को अपने घर आया देख सेठ की पत्नी अर्थात् बहू की सास ने पूछा, “क्या बात है बहू रानी? तुम्हारी किसी से कहा-सुनी हुई थी क्या जो राजा ने सिपाही भेज दिए तुम्हें लेने के लिए?
बहू ने सास की चिंता दूर करते हुए कहा, “नहीं सासू माँ, ऐसी कोई बात नहीं है। आप फ़िक्र न करें।” सास को आश्वस्त कर वह सिपाहियों से बोली, “जाओ और अपने राजा से यह पूछकर आओ कि उन्होंने मुझे किस रूप में बुलाया है—बहन, बेटी या फिर बहू के रूप में? किस रूप में मैं उनकी दरबार में आऊँ?”
बहू की बात सुन सिपाहियों ने वापस जाकर राजा को सारी बात बताई। राजा ने तुरंत आदेश दिया कि पालकी ले जाओ और उसे कहो कि बहू के रूप में बुलाया है। सिपाहियों ने आज्ञानुसार जाकर सेठ की बहू से कहा, “राजा ने आपको बहू के रूप में आने के लिए पालकी भेजी है।” बहू उसी समय पालकी में बैठकर दरबार में पहुँच गई। राजा ने बहू से पूछा, “तुमने दूसरे पुरुषों को घर क्यों बुलाया, जबकि तुम्हारा पति घर पर नहीं है?”
बहू ने उत्तर दिया, “महाराज, मैंने तो केवल कर्त्तव्य का पालन किया। प्यासे पथिकों को पानी पिलाना कोई अपराध नहीं। यह तो हर गृहिणी का कर्त्तव्य है। जब मैं कुएँ पर पानी भरने गई थी, तब मेरे तन पर अजनबियों के सामने उपस्थित होने लायक़ कपड़े नहीं थे। इसी कारण उन राहगीरों को कुएँ पर पानी नहीं पिलाया। उन्हें बड़ी प्यास लगी थी। मैं उन्हें पानी पिलाना चाहती थी। इसीलिए मैंने उनसे मुश्किल प्रश्न पूछे और जब वे उत्तर नहीं दे पाए तो उन्हें घर बुला लाई। घर पहुँचकर ही उन्हें पानी पिलाना उचित समझा।”
राजा को बहू की बात ठीक लगी। राजा को उन प्रश्नों के बारे में जानने की इच्छा हुई जो बहू ने उन राहगीरों से पूछे थे। राजा ने सेठ की बहू से कहा, “भला मैं भी तो सुनूँ कि वे प्रश्न क्या थे जिनका वे उत्तर नहीं दे पाए?”
बहू ने उन सभी प्रश्नों को दोहरा दिया। राजा और सभी सभासद प्रश्न सुनकर चकित रह गए। फिर राजा ने बहू से कहा, “तुम ख़ुद ही इन प्रश्नों का उत्तर दे दो। हम अब तुमसे ही यह जानना चाहते हैं।”
सेठ की बहू ने बताया, “महाराज! मेरी दृष्टि में पहले प्रश्न का उत्तर है कि संसार में सिर्फ़ दो ही यात्री हैं—सूर्य और चंद्रमा। मेरे दूसरे प्रश्न का उत्तर है कि बहू और गाय इस पृथ्वी पर ऐसे दो प्राणी हैं जो ग़रीब हैं। अब मैं तीसरे प्रश्न का उत्तर बताती हूँ। महाराज, हर इंसान के साथ हमेशा अनपढ़-गँवारों की तरह जो हमेशा साथ चलते रहते हैं वे हैं—भोजन और पानी। चौथे राहगीर ने कहा था कि वह मूर्ख है। जब मैंने उससे पूछा कि मूर्ख तो दो ही होते हैं, तुम उनमें से कौन-से मूर्ख हो तो वह उत्तर नहीं दे सका। महाराज, इस समय मेरी नज़र में सिर्फ़ दो ही मूर्ख हैं।”
इस पर राजा ने कहा, “तुरंत बतलाओ कि वे दो मूर्ख कौन हैं?”
बहू बोली, “महाराज, मेरी जान बख़्श दी जाए तो मैं इसका उत्तर दूँ।” राजा को बड़ी उत्सुकता थी यह जानने की कि वे दो मूर्ख कौन हैं। इसलिए उसने बहू से कहा, “तुम निस्संकोच होकर कहो। हम वचन देते हैं तुम्हें कोई सज़ा नहीं दी जाएगी।”
बहू बोली, “महाराज, मेरे सामने इस वक़्त दो ही मूर्ख हैं।” अपने ससुर की तरफ़ हाथ जोड़कर कहने लगी, “पहले मूर्ख तो मेरे ससुरजी हैं, जिन्होंने पूरी बात जाने बिना ही अपनी बहू की शिकायत राजदरबार में कर दी। अगर इन्हें कोई शक था तो यह पहले मुझसे पूछ लेते, मैं ख़ुद ही इन्हें सारी बातें बता देती। इस तरह से घर-परिवार की बेइज़्ज़ती तो न होती।
ससुर को अपनी ग़लती का अहसास हुआ। उसने अपनी बहू से माफ़ी माँगी। बहू चुप रही। राजा ने इसके बाद पूछा, “और दूसरा मूर्ख कौन है?” बहू ने छूटते ही कहा, “दूसरा बहू की मान-मर्यादा का ज़रा भी ख़याल नहीं रखा और सोचे-समझे बिना ही बहू को भरे दरबार में बुलवा लिया।”
बहू की बात सुनकर राजा भीतर ही भीतर क्रोध से आग-बबूला हो रहा था, पर अपने क्रोध को प्रकट नहीं किया। सारी बातें उसे जल्दी ही समझ में आ गईं। राजा ने बहू की समझदारी और चतुराई की हृदय से सराहना की। उसने उसे ढेर सारे उपहार देकर सम्मानसहित विदा किया।
(साभार : बिहार की लोककथाएँ, संपादक : रणविजय राव)