मूकज्जी (कन्नड़ उपन्यास) : शिवराम कारंत

Mookajji (Kannada Novel in Hindi) : Shivram Karant

मूकज्जी अपने पोते के माध्यम से इतिहास का ऊहापोह करती अनेक पात्रों की जीवन-गाथा में अपनी समस्त कोमल संवेदनाओं को उड़ेलती है। और हमे सिखाती है कि संसार की सबसे बड़ी शक्ति और मनुष्यता का सबसे बड़ा गुण है करुणा। मूकज्जी मिथ्यात्व और छलनाओं से भरी इन तथाकथित नैतिकताओं को चुनौती देती है और हमें जीवन की यथार्थ दृष्टि प्रदान करती है। मूकज्जी जिसने स्वयं जीवन की वंचना भोगी है। सैक्स और काम के सम्बन्ध में खुलकर बोलनेवाली बन गयी है, वैज्ञानिक हो गयी है।

प्रस्तुति
(पहले संस्करण से)

भारतीय साहित्य के श्रेष्ठ कृतित्व को हिन्दी के माध्यम से प्रस्तुत करना भारतीय ज्ञानपीठ की ‘राष्ट्रभारती’ ग्रन्थमाला का उद्देश्य है जो विख्यात ‘लोकोदय ग्रन्थमाला’ का अंग है। भारतीय साहित्य में श्रेष्ठ क्या है और श्रेष्ठ में भी श्रेष्ठतर या श्रेष्ठतम क्या है इसका एक सुनियोजित आधार देश के सामने है-भारतीय ज्ञानपीठ का साहित्य पुरस्कार ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’। इस उद्देश्य से गठित ‘प्रवर परिषद्’ प्रतिवर्ष भारतीय संविधान द्वारा मान्य पन्द्रह भारतीय भाषाओं में से प्रत्येक की श्रेष्ठ कृतियों में से श्रेष्ठतम को चुनती है और उसके लेखक को एक लाख रूपये की राशि तथा प्रशस्ति द्वारा सम्मानित करती है। इस प्रकार के बारह सम्मान-समारोह आयोजित हो चुके हैं। इस श्रृंखला में तेरहवाँ पुरस्कार डॉ. के. शिवराम कारन्त को उनके उपन्यास मूकज्जिय कनसुगलु के लिए समर्पित है जिसे 1961 से 1970 के बीच प्रकाशित भारतीय साहित्य में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। डॉ. के. शिवराम कारन्त की प्रशस्ति में कहा गया हैः

‘‘सत्य और सौन्दर्य के प्रबल जिज्ञासु कारन्त जी गाँधीवादी आदर्शप्रेरित युवा से क्रमशः विकास करते हुए अनुभवसिक्त और प्रबुद्ध मानववादी के रूप में प्रतिष्ठित हुए हैं। जीवन को यथार्थ और सम्पूर्णता में निरख पाने के अविराम प्रयत्न में वे साहित्य और विज्ञान, संगीत और नृत्य, चित्रकला और स्थापत्य जैसे ज्ञान और कला के विभिन्न क्षेत्रों में अन्वीक्षण करते आये हैं। उनकी बौद्धिक कुतूहलता, कलागत संवेद्यता और सर्जनात्मक प्रतिभा ने विविध और बहुमुखी उपलब्धियाँ अर्जित की हैं जिनके अर्न्तगत शब्दकोश, विश्वकोश और यात्रावृतों से लेकर संगीत-रूपक, निबन्ध, कहानी और एकांकी तक आते हैं, और आता है तटीय कर्नाटक के अनूठे लोक-नृत्यनाट्य ‘यक्षगान’ के संजीवन में उनका योगदान।

किन्तु उनकी प्रतिभा की दीप्ति प्रकट हुई है उपन्यासकार के रूप में। उनकी सब लगभग 200 प्रकाशित कृतियों में 39 उपन्यास हैं। इनमें जीवन के प्रति कारन्त जी का दृष्टि-भाव समाविष्ट हुआ है। इनके ही माध्यम से प्रत्यक्ष होती है उनकी व्यापक मानवीय सहानुभूति, अविचल सत्यनिष्ठा, समाजगत प्रामाणिक विचार-चिन्तना, निसर्ग के प्रति सहज श्रद्धा और प्रभावयुक्त व्यंग्य-विनोदप्रियता।
पुरस्कार-जयी उपन्यास ‘मूकज्जिय कनसुगलु’ एक असामान्य व्यक्तित्व, एक विधुरा वृद्धा के चतुर्दिक् संकेन्द्रित है जिसकी चरित्रगत विशेषताएँ हैं सत्यनिष्ठा, अपरिसीम करूणाभाव और सौम्य सदयता। बड़ी विशिष्टता है इसकी अधिमानसिक शक्ति, जिसके सहारे वह धर्म और जीवन की व्याख्या प्रस्तुत करती है और मानव-जाति की सम्पूर्ण अनुभूति को अभिव्यक्ति देती है।’’

‘मूकज्जी का अर्थ है, वह अज्जी (आजी-दादी) जो मूक है। इस उपन्यास में कारन्त ने अस्सी वर्ष की एक ऐसी विधवा बुढ़िया पात्र की सृष्टि की है जिसमें वेदना सहते-सहते, मानवीय स्थितियों की विषमता देखते-बूझते, प्रकृति के विशाल खुले प्रांगण में, बरसों से एक पीपल के नीचे उठते-बैठते, सब कुछ मन-ही-मन गुनते-गुनते, एक ऐसी अद्भुत अतीन्द्रिय क्षमता जाग्रत हो गयी है कि उसने प्रागैतिहासिक काल से लेकर वर्तमान काल तक की समस्त मानव-सभ्यता के विकास को आत्मसात् कर लिया है। किन्तु, मात्र इतिहास-क्रम बताना इस उपन्यास का उद्देश्य नहीं है। इतिहास तो मूकज्जी की परा-चेतना का एक आनुषंगिक अंग है। वास्तव में तो यह उपन्यास अनेक क्रिया-कलापों और घटनाओं के सन्दर्भ में मानव चरित्र की ऐसी छवि है जिसमें हम सब और हमारी सारी मनोवृत्तियाँ प्रतिबिम्बित हैं।

मूकज्जी अपने पोते के माध्यम से इतिहास का ही ऊहापोह नहीं करती, अनेक पात्रों की जीवन-गाथा में अपनी समस्त कोमल संवेदनाओं को सम्मिलित करती है और हमें सिखाती है कि संसार की सबसे बड़ी शक्ति और मनुष्यता का सबसे बड़ा गुण है ‘करूणा’। ‘सिखाती है’ कहने से एक भ्रामक धारणा बन सकती है कि उपन्यास का उद्देश्य नैतिक है। किन्तु व्यंग्य तो यह कि मूकज्जी सारी नैतिकताओं को चुनौती देती चलती है, और एक ऐसी वस्तुपरक यथार्थ दृष्टि प्रस्तुत करती है जो परम्परागत धाराणाओं पर प्रबल प्रहार करती है। हम चौंकते हैं कि क्या कह दिया इस बुढ़िया ने। और जो कहा यह तो हमारी श्रद्धा से, हमारी मान्यता से, हमारी सामाजिक धारणा से मेल नहीं खाता ! यही ‘चौंकना’ हमें सिखाता है जीवन को नयी दृष्टि से देखना, सम्पूर्णता से देखना। मूकज्जी, जिसने स्वयं जीवन को वंचना भोगी है, सेक्स और कामभोग के सम्बन्ध में वाचाल हो गयी है, वैज्ञानिक हो गयी है। सच्ची ललक और सच्ची जीवन-अनुभूति के लिए मूकज्जी के दर्शन में कुछ भी वर्जित नहीं है। वर्जित है पाखण्ड, वर्जित है त्रास, वर्जित है अन्याय, वर्जित है नारी का, दीन-असहाय का दोहन। मूकज्जी कहना चाहती है कि जीवन जीने के लिए है, और जिसने जीवन को जीना नहीं जाना, समग्रता से जीना नहीं जाना, उसका तत्त्वचिन्तन, उसकी तपस्या और उसका संन्यास स्वस्थ नहीं है। नास्तिकता तो यहाँ नहीं है, किन्तु ‘अन-आस्तिकता’ यदि यहाँ है तो यह निषेध की दृष्टि नहीं है, स्वीकृति की दृष्टि है। आप चाहे तो मूकज्जी से झगड़ें, चाहें तो मूकज्जी के स्त्रजेता से। लेकिन मूकज्जी के यथार्थ-दर्शन को, उसकी व्यापक सहानुभूति को, उसकी मानवीय दृष्टि को, उसके करूणा और प्रेम के निर्दशन को आप नकार सकें, यह हिम्मत की बात होगी।
भारतीय ज्ञानपीठ को गर्व है कि उसने कारन्त जी के सम्मान से अपने पुरस्कार को गौरवान्वित किया है और मूकज्जी के प्रकाशन से अपने को कृतार्थ।

प्राक्कथन
(मूल कन्नड़ उपन्यास ‘मूकज्जिय कनसुगलु’ से)

बुद्धिजीवी मानव धरती पर निवास की अपनी इस अल्प अवधि में अनन्त विश्वों से युक्त एवं करोड़ों-करोड़ वर्षों से चली आ रही इस विशाल सृष्टि के किसी एक भाग के एक सूक्ष्म अंश को भी ठीक-ठीक से नहीं देख पाया। किन्तु अपनी अल्प दृष्टि में इस बीच उसे जो कुछ भी अद्भुद, आलौकिक और चमत्कारपूर्ण लगा उससे वह विस्मित हुए बिना भी नहीं रहा और जिज्ञासु बन प्रश्न करने लगा-आखिर यह जगत क्या है ? इसकी रचना किसने की? किस प्रयोजन से की ? और, मैं कौन हूँ और क्यों हूँ ? आदि। मात्र प्रश्नों से वह तृप्त होकर नहीं रह गया। उसने अपनी पहुँच के बाहर के उन विषयों को अपनी अपेक्षाओं के अनुरूप जानने-समझने के लिए अपनी बुद्धि को अनुमान और कल्पना के लोक में प्रवाहित किया । फलतः उसे जैसा, जो कुछ भी आभास हुआ उस कल्पित को ही वह सत्य बताने लगा।

जिनकी कल्पना जितनी भव्य और चतुराई-भरी रही उनका चिन्तन, कथन उतना ही अधिक सत्य माना गया। जिनकी कल्पना को अवकाश नहीं मिला या जिनका चिन्तन-पक्ष दुर्बल रहा, वे आँख मूँदकर अपने बुजुर्गों की प्रत्येक बात अक्षरश: सत्य मानकर उसी लीक पर चलते-चले आये। हज़ार लोगों द्वारा हज़ार-हज़ार ढ़ंग से समय-समय पर प्रकल्पित ये मनोविलास परस्पर संघर्ष के कारण भी बने।

भारत, अर्थात् यहाँ के मूल निवासी और बाहर से आयी अन्यान्य जातियाँ, भी इसका अपवाद नहीं हैं। इस देश के लोगों के इस परम्परागत मनोविश्लेषण को इस उपन्यास की ‘मूकज्जी’ अपने अनुभव व चिन्तन के माध्यम से कुरेदती है।
प्रस्तुत उपन्यास का न तो कोई कथा-नायक है और न ही कथा-नायिका। मूकज्जी भी नहीं। उसका काम तो यहाँ साम्प्रदायिक मान्यातओं के कारण परत-दर-परत जम गये इस मन को धीरे-धीरे गर्म करके पिघलाना भर है। ऐसी भी कोई मूकज्जी होगी ? हमारी परम्परागत आस्था या विश्वास के कारण यदि किसी के मन में उसके अस्तित्व के प्रति भ्रम उत्पन्न होता है तो उसका वह शंका-पिशाच ही मूकज्जी है, ऐसा मान लीजिए। परन्तु हममें से अनेक ऐसे भी हैं जिनके मानस में वह पिशाच के रूप में नहीं है, बल्कि एक वास्तविक सन्देह के रूप में बसी हुई है। उसका पोता सुब्बराय ऐसों में ही एक है।
अज्जी और उसका पोता दोनों मिलकर चार-पाँच हज़ार वर्षों से प्रवहमान इस सृष्टि-समस्या के मंथन का प्रयास करते हैं। अवास्तविक लगने वाली ‘अज्जी’ कितने ही वास्तविक ऐतिहासिक तथ्यों को अपनी अन्तर्दृष्टि से उजागर करती है।
उपन्यास के अन्य पात्र-नागी, रामण्णा, जन्ना आदि या तो सृष्टि-शक्ति की अवहेलना करने वाली जो मनोवृत्ति है उसके समर्थक या विरोधी हैं, या फिर मात्र साक्षी हैं।
अपनी अपरिपक्व मान्यताओं को बलात् दूसरों पर लादनेवाले की कहानी भी इसमें समाविष्ट है। इसीलिए यातना की जो ध्वनियाँ आज के हम लोगों को सुनाई नहीं पड़ती थीं, वे यहाँ सुनाई पड़ रही हैं। इति,

एक

कहानियाँ सुनने और पढ़ने का सभी को चाव होता है। पढ़े-लिखे लोग तक उनमें रूचि लेते हैं। लिखित कहानियों के साथ लेखक का नाम दिया रहता है। लिखते-लिखते उसकी यदि प्रसिद्धि हो जाती है, तो फिर धीरे-धीरे उसकी बातों को वेदवाक्य की नाईं प्रामाणिक माना जाने लगता है।
मैं भी एक पढ़ा-लिखा आदमी हूँ। अर्थात् पाठशाला में पढ़ा हूँ। कुछ सीढ़ियाँ कॉलेज की भी चढ़ चुका हूँ। अपने बचपन मैं मैंने काफ़ी कहानियाँ पढ़ी हैं। पढ़ते समय और किसी बात की सुध-बुध तक नहीं रहती थी। कहानी चाहे बत्तीस पुतलियों की होती, चाहे यमन-यामिनी की; पढ़कर जी खिल उठता था। तब तक पढ़ता रहता कहानी, तब तक ही नहीं बाद को भी जब तक वह ध्यान में बनी रहती, उसके चरित्र और कितने ही प्रसंग चलचित्र की तरह मस्तिष्क में घूमते ही रहते थे। कुछ इस तरह छा जाती थी मन पर वह कि फिर न इसका बोध होने पाता कि भोजन परोस दिया गया है, न परोसे हुए भोजन को खाने की ही सुध आती। सारी चेतना ही कहानी की भाव-धारा में ऊभ-चूभ हुई पड़ी हो तब ऐसा होना स्वाभाविक ही था।

धीरे-धीरे पढ़ी हुई कहानियों के विवरण भूलने लगते। मगर पढ़ते समय जो प्रश्न उभर उठते वे बराबर कुरेदते रहते। जैसे यही कुछ प्रश्नः ‘सीसम-सीसम दरवाजा खोलो’ कहने से क्या सचमुच ही किसी गुफा का द्वार खुल सकता? क्या अलीबाबा नाम का कोई व्यक्ति कहीं सचमुच हुआ होगा? या यह निरा काल्पनिक पात्र है कोई ? क्या यह सम्भव हो सकता है किसी ने कठपुतली से बातें करायी हों, कठपुतली आदमी की तरह बोल सकी हो ? क्या कोई बाजीगर हाथ में कंकड़ लेकर अपनी जादू की छड़ी घुमाये तो उसके स्थान पर हीरा या मोती दिखाई पड़ सकता है? ऐसे-ऐसे अनगिनत प्रश्न और अनगिनत सन्देह मन में उत्पन्न होने लगते । मगर तब मेरी उम्र ऐसी नहीं थी कि इस प्रकार की बातों को असम्भव मानकर अनदेखा-अनसुना कर सकूँ। उतनी समझ ही तब नहीं हो सकती थी।

कैसे कहता कि हिरण्यकशिपु ने जब खम्भे में लात मारी तो नरसिंह का प्रकट होना असम्भव था ? कैसे ध्रुव के सीधे नक्षत्रलोक में जाने की बात को असत्य मान लेता ? किस आधार पर कहता कि नहीं, भगवान् ने उसे वर प्रदान ही नहीं किया होगा ? क्या यह कहता मैं कि दुर्वासा ऋषि ने शाप ही नहीं दिया ? या दिया भी हो तो उसका परिणाम वह नहीं हो सकता जिसका पुराणों में उल्लेख मिलता है ? मेरा मन बार-बार यही कहता था कि ये सब पौराणिक कथाएँ यदि झूठी नहीं हैं तब बत्तीस पुतलियों या अलीबाबा और चालीस चोर जैसी कथाएँ ही क्योंकर झूठी होंगी ? मेरी बुद्धि तो उन दिनों इसी तरह सोचा करती थी।

आगे चलकर जब कुछ अधिक पढ़-लिख गया तब अपने-आस-पड़ोस में ही जो सब आये दिन घटित हुआ करता उसे स्वयं अपनी आँखों देखता। साथ ही, अपनी बुद्धि के अनुसार हर बात को समझने की कोशिश भी करता। इस प्रकार जैसे-जैसे मेरा लोकानुभव बढ़ता और परिपक्व होता गया, मेरा मन गूँजने लगा कि उन कहानियों पर विश्वास करने में कोई विशेष हानि नहीं। कारण स्पष्ट थाः उनसे कहीं अधिक अनहोनी और विचित्र बातें हमारे अपने गाँव में घर-घर हो रही थीं। इन घटनाओं के पात्रों में से कुछेक के तो नाम भी गिना सकता हूँ। मगर आप लोग यह न समझ बैठें कि मैं उन नामों के व्यक्तियों की ही बात कर रहा हूँ।

कहा जाता है हमारे पड़ोस के गाँव के तिप्पय्या ने अपनी जान-पहचान की कई विधवाओं को बहला-फुसलाकर उनकी सारी सम्पत्ति हड़प ली। इतनी बात तो बिल्कुल सच है कि तिप्पय्या अब बहुत धनवान बन गया है। और यह भी उसी तरह सच है कि मैंने ही नहीं, किसी और ने भी कोई काम-धाम करते उसे कभी नहीं देखा। एक बार तो यह भी सुनने में आया कि उसकी प्रजा में से किसी के एक छोटे लड़के ने पिछवाड़े के बगीचे से एक अँबिया चुरा ली तो उसे खम्भे में बँधवाकर उसने कोड़ों से पिटवाया। उन विधवाओं की सम्पत्ति हड़प लेने की बात जितनी सच्ची है उतनी ही यह घटना भी सच है।
ये सारी कहानियाँ मेरी अपनी तरूणाई के दिनों की सुनी-सुनायी हुई हैं। सुनते समय कुछ बातें तो इतनी अविश्वसनीय लगतीं कि मैं भीतर-भीतर परेशान हो उठता था। अनेक-अनेक प्रश्न सामने आ खड़े होते और मुझे झँझोड़ने लगते। उदाहरण के लिए, मैं सोचने लगता कि गाँव के आस-पास जो कई भले और जाने-माने लोग रहते हैं और जिनकी मान-गौन है, वे सब क्यों चुप्पी साधे बैठे रहे ? इतना ही नहीं, वही तिप्पय्या यदि उनमें से किसी के यहाँ जाता तो उसका खूब स्वागत किया जाता ! यहाँ तक कहा जाता, ‘‘आइये-आइये श्रीमान्, आप आज पधारे तो घर में मानो साक्षात् गंगा मैया ही उतर आयीं ! विराजो !’’ क्यों कहा जाता इस प्रकार ? अपने छुटपन में यह प्रश्न मैंने आजीमाँ से पूछा था। तिप्पय्या का नाम लेकर पूछा था। उत्तर में वे इतना ही बोलीं, ‘‘कलमुँहा कहीं का ! भाड़ में जाये ! उसका तो नाम भी कानों में पड़ जाये तो नहाकर पवित्र होना पड़े।’’ आजीमाँ के शुद्ध और निष्कलंक व्यक्तित्व और खरी बात कह देने के स्वभाव पर मुझे बहुत गर्व है । हाँ, इसलिए तो और भी कि वे अपनी ही आजीमाँ हैं और अपने ही घर हैं। उन्हें न किसी से लेना है न किसी को देना।
और एक घटना सुनाऊँ। एक बार हमारे गाँव में रातों-रात खून हुआ, डाका पड़ा। कुहराम मच उठा। तिप्पय्या के ही एक कुटुम्बी के यहाँ यह घटना घटी। सवा लाख लूटलाटकर घर को आग भी लगा दी गयी। उस दिन यह कुटुम्बी, पूर्णय्या उसका नाम था, गाँव में नहीं था। काशी गया हुआ था। घर पर होता यदि तो उसकी भी वही दुर्गति होती जो घर के रखवाले सुब्बा की हुई। सुब्बा ने उन आतताइयों को घर में घुसने से भरसक रोका। दुहाई डाली। उनकी आवाज से उन्हें पहचानने में भी नहीं चूका। मगर हाय-पुकार करके भी कितनी देर उन्हें अटकाये रख सकता था ! उन गुण्डों ने बेहरहमी से उसे मार डाला।

सुब्बा का बेटा, नौ-दस बरस का रहा होगा, उसके पास, सोया हुआ था। हल्ला सुनते ही डर के मारे भागकर कहीं आमने-सामने ही जा छुपा। उसने शायद यही सारा काण्ड होता हुआ अपनी आँखों से देखा था। घर-मालिक पूर्णय्या के काशी से लौटकर आने तक वह इधर-उधर वहीं लुका-छुपा ही रहा। तीन दिन बाद पूर्णय्या गाँव लौटा तो, हो सकता है, उस लड़के ने जो कुछ देखा था वह सब अपनी तरह से मालिक को बताया हो।
बाद में, डाके और खून की खबर पाकर कुन्दापुर से पुलिस वाले आये। पीछे-पीछे अफ़सर लोग भी दो-एक आये। पूरी तरह से जाँच पड़ताल की गयी। गाँव के लोग मन-ही-मन जानते थे कि सारी करतूत तिप्पय्या की है। मगर पुलिस ने अपनी तहकीकात करने के बाद जो रिपोर्ट लिखी वह तिप्पय्या के घर की ड्योढ़ी पर बैठकर।

काशी से लौटकर आने पर पूर्णय्या ने खूनी और लुटेरों का पता लगाने की बहुत-बहुत चेष्टा की। मगर परिणाम कुछ न निकला। पेड़ और दीवारों के बोल नहीं होते, कोई और बताने का साहस कैसे करता ! सुब्बा बेचारा मर चुका था। सच्चाई बताने के लिए वह अब आता कहाँ से ? मगर उसके बेटे ने भी अब बयान यह दिया कि वह तो तीन दिन से घर ही नहीं था कानोंकान लोगों ने जरूर कहा कि तिप्पय्या का हाथ रहे बिना यह सब हरगिज नहीं हो सकता था। बाद में ये ही कानाफूसी करने वाले कहते सुन गये कि सारा काण्ड पास के गाँव वालों की करतूत थी।
आजीमाँ ने इस पर इतनी टिप्पणी की थी कि आसपास के किसी भी गाँव के गुण्डों को तो यहाँ आये अब पचासों बरस बीते !
एक और छोटी-सी कहानी सुनाता हूँ। यह है रामण्णा की पत्नी नागी की। रामण्णा तेल बेचता है। वही उसका धन्धा है। जीवन चलाने का साधन। घर में उसका अपना कोल्हू है। एक भूल वह कर बैठा था। अपना ब्याह उसने एक सुन्दर लड़की से किया, फिर गौना भी कराया, मैंने यह सब अपनी आजीमाँ से ही सुना है। इसलिए यह सब बताने में कहीं कोई भूल-चूक या और कोई बात होने की गुंजाइश ही नहीं है।

उस लड़की का नाम था नागी। था नहीं, है। कुछ ही दिनों बाद कुछ लोग उसे रामण्णा के यहाँ से भगा ले गये। चार बरस उसे अपने यहाँ रखकर इन लोगों ने खूब ऐशो-आराम किया उसके बाद जैसे जूठी पत्तल को उठाकर फेंक देते हैं नागी को भी उन लोगों ने घर से निकाल दिया। बहुत दिनों बाद नेरा एक मित्र गाँव में एक बार मेला देखने आया। नागी पर नजर पड़ते ही उसने मुझे उँगली के इशारे से दिखाते हुए बताया, ‘‘यही है वह रामण्णा की पत्नी नागी ! एक दिन अपने रूप और सौन्दर्य में यह दूसरी रम्भा थी। अब देखो क्या दशा हो गयी है बेचारी की ! बिलकुल ठठरी बन कर रह गयी है।’’
मुझे तत्काल चार बरस पहले सुनी हुई उसकी कहानी याद हो आयी। मैंने पूछा मित्र से, ‘‘पर इसकी यह दुर्दशा हुई किस कारण?’’ मित्र में उसी क्षण उत्तर दिया ‘‘रूप के कारण ! इसके अपने सौन्दर्य के कारण !’ मैंने आजीमाँ से जो कुछ सुना था। वह भूला नहीं था। इसलिए बात की तह तक पहुँचने के उद्देश्य से मित्र ने कहा, ‘‘पर कौन व्यक्ति था इस सबके मूल में, उसका नाम भी तो बताओ !’’ मित्र धीरे से हँसा और इतना ही बोला, ‘‘वह व्यक्ति रामण्णा ही नहीं था। नागी स्वयं भी अपनी दुर्गति के मूल में नहीं थी। लोग बस, इतना ही कहते-बताते हैं।’’

‘‘फिर क्या हुआ ?’’ मैंने स्वभावतः आगे जानना चाहा। मित्र ने बताया, ‘‘सुनते हैं मायके वालों ने उसे अपने यहाँ बुला लिया था। सोने-चाँदी का लालच दिखा-दिखाकर उसे फुसलाना चाहा। चार-पाँच दिन कहीं छिपाये रखा उसे। उसके बाद तो वही कहावत चरितार्थ हुई कि नदिया में नहाने उतरे तो जाड़े का क्या डर ! एक दिन कहीं उसे रखैल बना ही दिया। गहने-कपड़े से लादकर कुछ ऐसा जाल उस पर फैलाया कि वह रामण्णा को भूल ही गयी। अच्छा ही हुआ शायद। रामण्णा के यहाँ रहती तो कोल्हू का बैल ही तो हुई रहती।’’

दो क्षण ठहर कर मित्र आगे बताने लगे, ‘‘मगर तब नागी की कच्ची उम्र थी। अपने ब्याहे मर्द को ठुकराकर भागने की समझ और हिम्मत ही उसमें कहाँ रही होगी। पर जहाँ रखैल बनाकर उसे डाला गया वहाँ भी बाद में कुछ-न-कुछ गड़बड़ हुई। हुई ही होगी। क्योंकि जो लोग उसे ले गये, जहाँ वह इतने दिनों रही कि दो-दो बच्चों की माँ तक बन गयी, वे भी अब नहीं अपनाना चाहते उसे। पहले जैसी चमक-दमक और सुन्दरता तो अब नहीं ही रह गयी थी।’’

मैंने बार-बार तरह-तरह से कुरेदकर अपने मित्र से जानना चाहा कि आख़िर यह जो कुछ हुआ उस सबके मूल में था कौन व्यक्ति। मगर मेरे मित्र ने नहीं बताया तो नहीं बताया। साफ इनकार ही कर दिया बताने से। मैंने भी जोर नहीं दिया। मित्र ही आगे कहता गया, ‘‘अब तो यह चुसी हुआ अँबिया होकर रह गयी है। रखैल के रूप में घर डालने वाला भी था तो कोई मनचला ही। हो सकता है जी भर चुका हो। हो सकता है बोझ को और न ढोना चाहा हो। और एक दिन यह कहकर कि तेरे गहने नये सिर से बनवाये देता हूँ, उससे सब कुछ लेकर अपने हाथों में कर लिया और फिर उसके पास आना-जाना ही नहीं बन्द कर दिया, उसे और उन दोनों छोटे-छोटे बच्चों को खाना-पीना देना तक बन्द कर दिया।’’
सुनाते-सुनाते मित्र उदास हो आया था। थोड़ा सभँलकर आगे बोला, ‘‘लोग कहते हैं कि सब तरह बरबाद होकर लाचारी में एक दिन यह उसके द्वारे जाकर बहुत-बहुत रोयी और गिड़गिड़ायी । मगर उस व्य़क्ति ने इस बेतरह दुतकारा और वहाँ से भगाते हुए यहाँ तक कहा, ‘‘राँड कहीं की, अब अगर कभी इधर आने का नाम भी लिया तो कमर तुड़वा दी जायेगी। जा, काला मुँह कर अपना।’ बेचारी चली आयी।’’

मित्र का कण्ठ भर्रा आया। कहता गया वह, ‘‘बस्ती का बड़ा आदमी था। अपनी चला ही सकता था। कमर भी तुड़वाते उसे क्या लगता। मगर तबसे ही इतनी बुरी हालत हो गयी है इसकी कि देखते तक नहीं बनता। छोटे-छोटे दो बच्चे हैं। इधर-उधर गाँव में ही फिरती-भटकती है। कहीं कुछ मजूरी या बेगारी मिल जाती है तो उसी से बच्चों का और अपना पापी पेट किसी तरह भर लेती है। सुनते हैं इतने पर भी रामण्णा ने इसके पास जाकर प्यार की भीख माँगी। कहा, ‘अपने घर चलकर रह।’ नागी सुनकर फफक पड़ी। आँसू बहाते-बहाते बोली थी, ‘नहीं, इस जूठी पत्तल को तुम मत छुओ। मेरे हाल पर ही छोड़ दो मुझे।’ और यह कहकर बच्चों को घसीटती हुई-सी सामने से हट गयी थी।’’
‘‘इतना भलापन ! और इतनी हिम्मत !’’ मेरे मुँह से निकला।
‘‘किसमें, नागी में !’’ मित्र ने मेरी ओर देखते हुए पूछा।
‘हाँ, नागी का भलापन और रामण्णा का भोलापन और हिम्मत दोनों !’’

बात वहीं रह गयी। मित्र ने और कुछ नहीं बताया। शायद किसी प्रकार का कोई भय कारण रहा हो। जो हो, मेरी उत्सुकता बनी की बनी रह गयी। उस समय मैं यही कोई सोलह का रहा हूँगा। लोकानुभव बिलकुल ही नहीं था।
मेरा मन नागी के लिए स्वभावतः सहानुभूति से भर उठा। उसके बच्चों को देख-सोचकर तो मैं द्रवित ही हो आया। कोई स्त्री किसी पुरूष के लिए अपने घर तक को छोड़ गयी या कोई पुरूष ही किसी स्त्री के पीछे पागल हो उठाः ऐसी बातें सुनने पर न हँसी आती मुझे, न कुछ अचरज ही होता। आये दिन ही कहीं-न-कहीं कोई घटना होती रहती। सच्चाई मनगढ़ी कहानी में भी होती है और वास्तविक जीवन में भी।

नागी के बारे में अपने मित्र से जो सब मेले में सुना उससे कई बातें बिलकुल स्पष्ट हो आयीं। जिन लोगों ने उसे ससुराल से बुलवाया उन्होंने जान-बूझकर ऐसा किया। उन्होंने ही उसे बाद को बहकाया भी। और इसमें नागी के मायके वालों का भी पूरा-पूरा हाथ था। फिर उसे जात-बिरादरी तक से अलग किया गया। दोनों बच्चों को पालने पोसने का समूचा भार उस अकेली, टूटी हुई, और सब तरह से मारी पड़ी औरत के ऊपर पड़ा । इतने पर भी रामण्णा के निहोरे करने पर उसके घर न जाकर उसने रामण्णा की इज्जत रखी। कितनी भली थी वह सचमुच ! मेरे मन में विचारों का एक ताँता लगा गया और नागी के प्रति एक सहज दया उमड़ आयी।

मेरा मित्र चला गया तो मैंने नागी को दूर से देखा। उससे बात करने की जी में आयी। तभी जैसे वह कपालेश्वर शिवालय के आस-पास लगे उस मेले की भीड़ में कहीं आँखों से ओझल हो गयी। काफी देर बाद वह अकस्मात वह दिखी। चने-कुरमुरे वाले की दूकान के आगे खड़ी थी। शायद बच्चों के लिए मूड़ी ले रही थी। फिर एक पेड़ के नीचे ऐसी जगह जा बैठी जहाँ भीड़ नहीं थी। मैं थोड़ा घूमता फिरता धीरे से उनके पास जा खड़ा हुआ। मेरे पास एक दुअन्नी थी। उसकी ओर बढ़ते हुए मैंने कहा, ‘‘लो, इन बच्चों के लिए कुछ ला दो।’’ सुनते ही इस तरह घूमकर उसने मेरी तरफ़ देखा कि मुझे आज तक भी याद है। कभी-कभी तो याद आने पर काँप तक जाता हूँ।

उसने कड़वे स्वर में उत्तर दिया था, ‘‘तुम्हारी पालतू कुतिया नहीं हूँ मैं, बड़े आये दया दिखानेवाले !’’ मैंने सामान्य भाव से समझाना चाहा, ‘‘क्यों इस तरह बिगड़ती हो, मैंने तो बच्चों का खयाल करके ही देना चाहा। नहीं लेना चाहती तो मैं जोर नहीं दूँगा। तुम्हारे कष्टों की कहानी मैंने सुनी है। हमारे ही गाँव की रहने वाली हो तुम । इसीलिए मुझे और भी लगा.....।’’ नागी कुछ बोली नहीं, आँखे उठाये सामने शून्य में देखती रही। मैं ही बताने लगा, ‘‘इस गाँव का हूँ, अड़िगों के घराने का। मूकज्जी का पोता...।’ सुनकर कुछ देर आँखें फाड़े हुए मेरी ओर देखती रही। उसके बाद बोली, ‘‘ना बाबा, मैंने जो पाप किया है उसका दण्ड मैं ही भुगतूँगी। मुझे किसी का पैसा नहीं चाहिए।’’

मैंने फिर एक बार कहा, ‘‘मैं तुम्हें नहीं, बच्चों के लिए दे रहा था। इन बेचारों ने किसी का क्या बिगाड़ा है। कुछ खा लेते, दो घड़ी ख़ुश रहते, बस !’’ नागी की आँखों से आँसू की बूँदें टपकती दिखीं। पैसे उसने फिर भी नहीं लिये। स्वाभिमानी ग़रीब के सहज दर्द के साथ बोली, ‘‘बच्चों के लिए भी दूसरों का पैसा मुझे नहीं चाहिए। अपनी शक्ति-भर मेहनत करूँगी। जो मिलेगा उसी से इनका पेट पालूँगी। कल को बड़े होकर ये भी कहीं दया माँगने नहीं जाएँगे, अपने परिश्रम पर जियेगे।” बच्चों को लेकर जाते जाते इतना और बोली, “तुम बड़े घर के लोग हो। आजीमाँ तो देवता ही है। तो भी किसी की कृपा मुझे नहीं चाहिए। तुम बुरा मत मानना।’’

मेरा गला भीग आया। नागी से कहा, ‘‘नहीं, बुरा क्या मानूँगा। एक तरह से तुम ठीक ही तो कहती हो। तुम्हारा साहस देखकर तो, सच आश्चर्य होता है।’’ सिटपिटाती हुई-सी बोली वह, ‘‘नहीं मालिक, मैं तो एक शिखण्डी की तरह हूँ।’’ मैं नहीं समझा उसका भाव तो उसने बताया, ‘‘यक्षगान के प्रसंग में आचार्य भीष्म के सामने खड़े शिखण्डी की तरह ही मैंने भी हठ पकड़ी है मालिक ! मैं उसे छोड़ने वाली नहीं। अपनी मेहनत से, अपना पेट काट-काटकर, बच्चों को सयाना बनाऊँगी। फिर इन्हें उसके सामने खड़ा करके कहूँगी, ‘लो, इन्हें देखो और पहचानो, और कहीं लाज-शर्म बची हो तो चुल्लू-भर पानी में डूब मरो !’ मैं भूलूँगी नहीं।’’

मैं कुछ सोच में पड़ा। भीतर-भीतर जैसे घबराया भी। नागी से बोला, ‘‘तुम्हारी बात मेरी समझ में नहीं आयी। मुझसे यह सब क्यों कहती हो ? मैं तो पढ़ता हूँ, विद्यार्थी हूँ अभी।’’ उसने स्पष्ट किया, ‘‘नहीं मालिक, तुम्हारे लिए कुछ नहीं कहा मैंने। पर जो कहा है मैंने वह अपने मामा को सुना देना। बस। वह समझ जायेंगे। इसलिए तुमसे कहा है।’’
और नागी बच्चों को लिये हुए वहाँ से चली गयी।
ऐसा लगा मानो शिखण्डी का शाप मुझे ही लग गया है। नागी की बातें सुनकर मेरा जी मसोस उठा। मेला देखने की सारी इच्छा वहीं बुझ गयी। मन मर गया। रह-रहकर ऐसा लगता जैसे कहीं कुछ भूल कर बैठा हूँ।
उखडा-उखड़ा-सा घर आया और आजीमाँ को देखते बोला, ‘‘आजीमाँ, क्या जाने क्यों आज जी अच्छा नहीं लगता। चलो, बाहर चबूतरे पर बैठें।’’

आजीमाँ की बूढ़ी आँखें मेरी तरफ़ को उठीं। मेरी बेचैनी भाँपते उन्हें दो क्षण भी नहीं लगे शायद। बोलीं, ‘‘क्यों, ऐसे क्यों हो रहे हो ? आज तो बड़ा अच्छा दिन है, त्योहार है।’’
मेरी सारी खिन्नता उमड़ पड़ी। जेब से उस दुअन्नी को निकालकर आजीमाँ की हथेली पर रखते हुए कहा, ‘‘आजीमाँ, इस दुअन्नी के कारण मुझसे बड़ी भूल हो गयी है आज। जिसे देने लगा था उसने ली भी नहीं और ऊपर से, उलटे बुरा-भला कहा। अपनी और अपने मामा, दोनों की फजीहत करायी।’’
आजीमाँ दुअन्नी हाथ में लिये रहीं, बोली कुछ नहीं। मैं ही फिर पूछ उठा, ‘‘आजीमाँ, मेरे मामा कितने हैं? कौन-कौन हैं ? मेरी माँ के तो कोई भाई थे नहीं शायद !’’
मैं पूछ ही रहा था कि आजीमाँ बीच में ही बोल उठीं, ‘‘यह दुअन्नी किसी स्त्री को दी थी क्या ? उसने लौटा दी ? पर तुमने दी ही क्यों ?’’
आजीमाँ के इस तरह पूछने पर मुझे सभी कुछ बता देना पड़ा।

वे तब बोलीं, ‘‘उसने इस दुअन्नी को छुआ दिखता है। अभी भी गर्म बनी हुई है। जरूर नागी ने छुआ है। उसके जी का सारा उबाल इसमें भर आया है।’’
‘‘आजीमाँ, उसने मेरे मामा को बुरा-भला कहा। वह तो हठ पकड़े है....’’
‘‘तुम नागी की कहानी नहीं जानते बेटा, ‘‘आजीमाँ बताने लगीं, ‘‘उसका अपना रूप ही उसकी मौत बन गया। बचपन में ही बहकावों में आ गयी। ऊपर से लालच। जाल में फँस गयी। अब समझ आ गयी है। हठीली वह है ही। भीतर-भीतर बहुत पछतावा है उसे कि जूठी पत्तल बनी और जूठने खाती रही।’’
‘‘हाँ, आजीमाँ, उसके मुँह से दो बार ‘जूठन’ शब्द निकला।’’
‘‘अपने पति को छोड़ गयी थी न ! जूठन तो बनी ही ! पर उसकी दुर्गति सारी हुई तुम्हारे मामा के ही कारण। पर जाने दो उन बातों को बेटा। जैसे जो बोयेगा वैसा काटेगा भी।’’

‘‘तो क्या, आजीमाँ, बच्चों के बड़े हो जाने पर भी वैसा ही करेगी वह जैसा कहती है ?’’
‘‘क्या नहीं करेगी ? वह हठ की भी पक्की है और सत्य भी उसके साथ है !’’ आजीमाँ ने निश्चय-भाव के साथ कहा।
‘‘पर आजीमाँ, वह जो पति के बुलाने आने पर भी उसके साथ गयी नहीं ?’’ मैंने तर्क किया।
‘‘हाँ, बेटा, अन्तर की सच्ची है इसीलिए तो नहीं गयी। आज के संसार में सत्य का पल्ला थामता ही कौन है ! कौन जाने की बीते युगों में कैसा क्या रहा। किन्तु यह अगर जीवित रही, दोनों बच्चे इसके समझदार बने, और तुम्हारे मामा भी तब तक जीवित रहे, तो यह इन बच्चों को उनके सामने खड़ा करके कहे बिना नहीं रहेगी कि मुझे अनाथ बनाकर तुमने सड़क पर फेंका मगर लोग नहीं कहेंगे क्या कि इन बच्चों के पिता तुम हो-तुम !’’

‘‘आजीमाँ, इसका कौन भरोसा ! सिर पर बदले की आग सवार है। मुझे तो भय है कहीं मामा का ख़ून न कर-करा दे !’’
आजीमाँ सुनकर हँस पड़ीं, ‘‘पगला कहीं का ! मौत क्या इज्जत और आबरू से बढ़कर होती है ?’’
फिर आजीमाँ जब आराम करने गयीं तब उन्होंने पास बैठाकर समूची कहानी सुनायी। हमारे गाँव के दक्षिण में ईरिगे नाम की एक छोटी-सी बस्ती है। वहाँ मेरे एक मामा रहते हैं। नागी की कहानी इनसे ही सम्बन्धित है। मगर ये मेरे सगे मामा नहीं है। आजीमाँ से यह जान लेने के बाद जाकर कहीं तसल्ली मिली मुझे।
उन्होंने बताया मेरे पिता ने दो विवाह किये थे। मेरी माँ उनकी दूसरी पत्नी थीं। पहली पत्नी प्रवास के समय ही चल बसी थीं। उनके ही भाई थे यह मामा जो नागी की बरबादी का कारण बने। मुझे इन मामा के बारे में कोई ज्ञान न था। आजीमाँ ने सब सुनने के बाद जरूर सोच में पड़ा कि आखिर कैसे होंगे यह मामा जिन्होंने एक भोली स्त्री को इस दुर्दशा को पहुँचाया !
जो हो, मुझे इस बात का सन्तोष था कि नागी का कोप-ताप छूत बनकर भी मेरे निकट नहीं आ सकता था। इन मामा से नाता जुड़ता भी था तो बहुत दूर का, टूटे हुए सम्बन्ध-सूत्रों का।
पर सचमुच कितनी-कितनी विचित्र होती हैं वास्तविक कहानियाँ ! कितनी पीड़ा और दर्द-भरी, कितनी करूण ! इसलिए अच्छा यही कि इन कहानियों के स्थान पर कल्पित कहानियाँ ही सुनें। कम-से-कम ऐसी तो वे नहीं ही होंगी।

बचपन में मुझे और छोटे भाईको आजीमाँ ने बीसियों कहानियाँ सुनायी थीं। इतनी अनोखी और बाँध लेने वाली होती थीं वे कि हम तो बस उन्हीं के हुए रहते। आगे चलकर जैसे-जैसे समझ आयी और स्कूल भी जाने लगा तो अपनी पुस्तकों में भी कहानियाँ पढ़ने का अवसर मिला। मगर आजीमाँ की कहानियों जैसा मजा इनमें नहीं ही होता ।

बाद को जैसे-जैसे बुद्धि का विकास हुआ, अलीबाबा और चालीस चोर जैसी कहानियाँ, जो अब तक अद्भुत और रमणीय लगती आयीं, बिलकुल नीरस और -सर-पैर की जान पड़ने लगीं। यहाँ तक कि रामायण के आख्यान भी ऐसे ही भान होने लगे । अनेक बार मैं सोचा करता कि गाँव में और आस-पास नित्य हीं कोई-न-कोई घटना हुई रहती है, क्यों ये कहानीकार लोग उनपर न लिखकर ऊलजलूल बातें लेकर उन पर मनगढ़न्त क़िस्से रचा करते हैं। मुझे तो कम-से-कम ऐसा ही लगता ।

मैंने पहले कन्नड़ में और बाद को अंगरेजी में एक के बाद एक कितने ही कहानी-संग्रह और उपन्यास पढ़े। सब कोई कहते, उन रचनाओं में जीवन की वास्तविकताओं का चित्रण किया रहता है। क्या जाने क्यों मुझे ऐसा कभी नहीं लगा।

इस सन्दर्भ में अपने एक सहपाठी मित्र का यदि उल्लेख करूं तो अनुचित नहीं माना जायेगा । यह मित्र हैं: जनार्दन, अपना जनार्दन । पुस्तकें की पुस्तकें यह यों लील जाता था जैसे सचमुच ही कोई बकपक्षी हो और मछलियों पर घात लगाये पोखर के किनारे खड़ा हो। जिन पुस्तकों को यह विशेष रुचिकर पाता उन्हें पढ़ने के लिए मुझे भी दिया करता था। इतना ही नहीं, मेरे पढ़ लेने के बाद उन पर मेरी टिप्पणियाँ जानने का भी आग्रह करता था। यहां संक्षेप में कुछ इसके बारे में बताऊँ।

हम दोनों एक ही गाँव में जनमे और एक ही साथ खेलते-कूदते बड़े भी हुए। बचपन से ही जैसे अभिन्न साथी थे हम दोनों। उसके बिना मेरी और मेरे बिना उसकी, कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। मेरा नाम यों सुब्बाराव था, पर वह मात्र 'सुब्बा' पुकारा करता था। इसी प्रकार उसका नाम जनार्दन था, पर मेरे लिए वह केवल 'जन्ना' था। गाँव में प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद हम दोनों आगे की पढ़ाई के लिए शहर के स्कूल और फिर कॉलेज में भी साथ- साथ ही गये । सगों से भी अधिक हम एक-दूसरे को मानते और चाहते थे । छुट्टियों में गाँव आते तो एक साथ और आकर आधा-आधा दिन या तो वह हमारे घर होता या मैं ही उसके यहाँ । उसने कॉलेज से आर्ट्स में पास किया, मैंने इतिहास लेकर ।

मगर यह अब उतने महत्त्व की बातें नहीं। महत्त्व की बात है यहाँ यह बताना कि इतना मेल होते हुए भी हमारे दृष्टिकोण कितने अलग-अलग थे। एक बार उसने एक उपन्यास मुझे पढ़ने को दिया। उपन्यास का शीर्षक था 'कटाक्ष' । कथा - नायिका अनुपम सुन्दरी थी। एक रसिक युवक, जो रसिक होने के साथ-साथ धनी और गुणी भी था, उसके कटाक्षों का आखेट बन गया। सुना है उसी अल- बेली ने पत्र के रूप में एक कविता लिखकर उस युवक की ओर फेंकी। दोनों में प्रेम अंकुरित हुआ और फिर पल्लवित होता हुआ, तीन दिन में कहिये चाहे तीन मास में, एक पूरा वृक्ष ही बन उठा ।

युवक कुछ दिनों बाद गाँव लौटा तो बड़े-बूढ़ों ने आग्रहपूर्वक उसका विवाह एक और ही लड़की के साथ कर दिया। युवक ने चूं तक नहीं की। यह लड़की बेचारी उसे पति-देवता मानकर पूजती रहती, पर पतिदेव भीतर-भीतर क्यों उदा सीन हैं इसे जान पाना उसके लिए असम्भव ही रहा। कुछ दिनों बाद पति को बेंगलूर में अच्छी-सी नौकरी मिल गयी और दोनों जाकर वहाँ रहने लगे । संयोग से 'युवक की प्रेयसी के पिता का भी स्थानान्तरण बेंगलूर हो गया। पिता के साथ वह भी वहाँ पहुँची । उसने निश्चय किया था कि विवाह करेगी तो उस युवक के साथ ही। बेंगलूर में किसी तरह यह ज्ञात होते ही कि उस युवक ने इसी बीच विवाह कर लिया है, उस युवती ने विष खा लिया ।

हाथोंहाथ उसे अस्पताल ले जाया गया और उसके प्राणों की रक्षा हो गयी । उस युवक का वह डाक्टर परिचित था जो अस्पताल में इस केस को अटेण्ड कर रहा था। एक दिन बातों-बातों में डाक्टर से इस सारी घटना का पता युवक को चला। बेचैन-सा हो उठा वह कि अस्पताल जाकर किसी प्रकार उसे देखे । डाक्टर के साथ उस वार्ड में पहुँचकर देखने का अवसर मिला तो युवक भौंचक रह गया कि युवती उसकी ही प्रेयसी थी। डाक्टर भावुक था। युवती को समझाया बुझाया गया । और अन्त में ये दोनों विवाह सूत्र में बंध गये। उस युवक के लिए भी यह अनुकूल सिद्ध हुआ । पत्नी को उसने गाँव भेज दिया और पीछे इनका प्रणय विकसित होने लगा । डाक्टर को पता चला तब सारी बात खुलकर सामने आयी ।

क्या हुआ आगे चलकर, इसे जाने दीजिये। उपन्यास में लेखक ने इन दोनों के प्रेम को पुरुरवा-उर्वशी के दिव्य प्रणय के साथ उपमित किया था। पर पुरुरवा की पत्नी का स्थान तो यहाँ पति हाथ ठुकरायी गयी विवाहिता को दिया नहीं गया ! इतना ही नहीं, उस पर कुरूपा और दुराग्रही होने के दोष भी लगाये गये । मैं तो उस उपन्यास को आधा भी न पढ़ सका। आगे की कहानी जनार्दन के ही मुँह सुनी। स्वयं न पढ़ने का कोई खेद या पछतावा मुझे कभी अनुभव नहीं हुआ। किन्तु जनार्दन की दृष्टि से यह कहानी अद्भुत थी। यहाँ तक कह उठा वह :

"कथा - नायिका हो तो ऐसी हो !"

"चुप करो !” सहन न कर सकने पर मैंने उसे झिड़क दिया।

"क्यों ?"

“इसलिए कि सब बकवास है, सजीव पात्र तुम्हारे इस उपन्यासकार के हाथों की कठपुतली हुए इस प्रकार नहीं नाचा करते।”

बाद को अपनी बात स्पष्ट करते हुए मैंने उसे बताया कि जिस रूप में चरित्रों का चित्रण उपन्यास में किया गया है उससे तो लगता नहीं कि जैसे उनका अपना भी कोई व्यक्तित्व हो । उनमें तो जैसे विचारशक्ति का अभाव है। जो दिशा-मोड़- कथानक में दिखाये गये हैं वे सब अस्वाभाविक हैं।

"अर्थात् तुम समझते हो ऐसा हो ही नहीं सकता ?" जनार्दन ने तर्क किया, "किन्तु जगह-जगह जो इसी प्रकार की घटनाएँ होती रहती हैं ! पुरुष और स्त्री के सम्बन्ध होते ही इस प्रकृति के हैं।"

“ठीक है, मान भी लें कि कोई पुरुष और स्त्री परस्पर बहुत घनिष्ट हों तब कुछ भी हो सकता है, पर तुम्हारे इस उपन्यासकार ने तो प्रेमी और प्रेमिका का जिस रूप में चित्रण किया है वह तो स्वाभाविक ही नहीं है।"

"जाने दो मित्र,” जनार्दन ने अन्त में कहा, "मतभेद हो ही सकता है। उसके लिए आपस में क्यों झगड़ें।"

बात वहीं छोड़ दी गयी। मगर इस घटना के बाद से ऐसी पुस्तकें मुझे देने की उसने फिर नहीं सोची। उसके विचार से मैं जीवन के राग-रंगों से अनभिज्ञ, इतिहास की निर्जीव घटनाएं देखने वाला, और दिवंगत राजों-नवाबों के जन्म-मरण के दिनांक बताने वाला नीरस व्यक्ति था । अर्थात् मैं यह बता सकता था कि ताजमहल कब बना और किसने बनवाया, यह नहीं कि किन भावनाओं को वहाँ रूपायित किया गया है और क्यों इतनी विवशकर हुईं वे भावनाएँ। मैंने जनार्दन की इन धारणाओं का कभी प्रतिवाद भी नहीं किया। लाभ भी क्या होता !

मेरा मित्र वह आज भी बना हुआ है, उसी तरह बचपन के स्नेह न भूलते हैं न भुलाये बनते हैं। जो भी कहता है वह, मैं सुन लिया करता हूँ। वाद-विवाद कभी नहीं करता । किसलिए करूं ? अपने गाँव की कोई सच्ची घटना सुनाने लगूं तो कहेगा, "हो सकता है।" जानबूझकर कोई मनगढ़न्त कहानी कहूँ तो भी शायद यही कहेगा, "हो सकता है।" यह 'शायद इसलिए कि मूर्खता प्रकाश में लाने के लिए कोई मनगढ़न्त कहानी मैंने कभी सुनायी नहीं। वैसे मैं उसकी वास्त विक दुर्बलता से भी परिचित हूँ। उसे यदि कर्तव्य-अकर्तव्य और उपादेय - हेय आदि नीति के ऊंचे-ऊंचे आदर्शों का रंग चढ़ाकर कोई कहानी सुनायी जाये, जो किसी घटना पर भी आधारित हो, तो चकित होकर कह उठेगा, "अच्छा! यह सच है क्या ? तब तो एक भले मानव प्राणी का बलिदान ही हो गया। कितना धैर्य था कथानायक में !" और इसके बदले यदि नित्य के जीवन की कोई ऐसी घटना सुनायी जाये जिसमें व्यवहार-आचरण सम्बन्धी कोई समस्या उठायी गयी हो या किसी प्रकार की छल- प्रवंचना समाविष्ट हो, तो कहेगा, “पर ऐसा होता क्यों है ? कोई हल नहीं निकाला जा सकता क्या इसका ?" और ऐसे में यदि उसी सेहल सुझाने के लिए कहा जायेगा तो साफ़ कन्नी काट जायेगा यह कहकर कि क्यों माथा पच्ची करें।

सच तो यह है कि उसका सारा वास्ता अपने मन की शान्ति से रहता है। उसकी शान्ति बनी रहे, और बराबर ही शान्ति उसे मिलती रहे, ऐसी बातें उसे सुनायी जायें तो बस ठीक। फिर तो यह तक देखना आवश्यक नहीं कि जो बात सुनायी जा रही है वह जीवन में सचमुच घट भी सकती है या नहीं। कहानी रोचक लगे उसे, इसके लिए उसमें कोई अन्तद्वन्द्व या षड्यन्त्र या कोई बुरा उद्देश्य ही पिरो देना काफ़ी है । अवश्य, अन्त उसकी मनोरुचि के अनुरूप होना चाहिए।

मुँह सुनी कहानी, जीवन की घटना, और उपन्यास कथा : कहानियों के ऐसे वर्गीकरण का एक कारण भी होता है। इनमें से कुछ कहानियाँ, जिनमें वास्त- विकता नहीं होती, हमारे मन को संतृप्ति देती हैं। राम ने रावण को मारा, क्योंकि उसने सीता का अपहरण किया था। सीता का सन्धान पाकर भी राम ने तत्काल कुछ नहीं किया, वन-वन भटके और युद्ध करके ही उन्हें मुक्त किया । हनुमान से सीता की सारी व्यथा-कथा सुन चुके थे राम, फिर भी अग्निपरीक्षा बी । इस स्थल पर कठोर से कठोर हृदय भी कांप उठता है। पर सीता के अग्नि- परीक्षा से पार होते ही हम एक संतृप्ति की साँस लेते हैं। जैसे मन-ही-मन यही चाहते रहे होते हैं। पर यह अग्नि में तपाकर सीता को परिशुद्ध प्रमाणित करना कथाकार का हमारी आंखों में धूल झोंकना नहीं हुआ क्या ?

नित्य के जीवन में भी ऐसा ही हुआ करता है। विपत्ति से बचाने वाला कोई न हो तो हमें उसकी सृष्टि करनी पड़ती है । और इस प्रकार राम का संशयग्रस्त मन हमें सह्य हो जाता है। किन्तु जब नागी अपने बच्चों सहित अनाथ बन गयी और तब विगलित होकर रामण्णा उसे ग्रहण करने गया तो इसे उसकी पत्नी- परायणता कहकर हमने हँसी उड़ायी ! मेरे उन दूर के मामा ने ही जो कुछ किया उस पर किसी ने क्या किया ? नया खिला फूल मिलते ही बासी को ठुकरा दिया: उनके इस कुकृत्य पर किसी ने कुछ भी कहा ?

इतना सब कह जाने के बाद भी, मैं नहीं जानता कि कहानी कहने या सुनने के प्रति मेरी अपनी इच्छा कितनी प्रबल है और कितनी नहीं, यह आप समझ सके हैं या नहीं। मुझे तो वास्तविक जीवन अवास्तविक सा ही लगता है, और अवास्तविकता वास्तविकता-सी दीख पड़ती है। ऐसा लगता है जैसे इन दो छोरों के बीच का अन्तर बहुत कम हो। उसी प्रकार कम जिस प्रकार सत्य और असत्य की सीमाओं के बीच हुआ करता है। किन्तु एक-दूसरे के इतने समीप होकर भी ये परस्पर कितनी दूर-दूर, कितने विभिन्न रहते हैं ! मैं तो यह देख जानकर विस्मित हुआ रह जाता हूँ ।

मेरे अन्तर में इस प्रकार का विस्मय, अनेक-अनेक प्रश्नों और समस्याओं को लेकर, प्रारम्भ से ही रहता और पनपता आया है। इसका मुख्य कारण है मेरी आजीमाँ और उनके सपने, उनका परादृष्टि-संसार उनकी इन अनुभूतियों में से न तो कोई सुप्तावस्था के स्वप्न हैं, न हो किसी अपेक्षा को लेकर सँजोये हुए दिवास्वप्न । वे अपनी परादृष्टि से जो कुछ देखती हैं, अनुभव करती हैं, उसे न मैं ही देख सकता हूँ, न आप ही । इनका आनन्द और सत्य आपके साथ बाँटने से पहले मैं अपनी इन आजीमाँ की, अधूरी ही सही, पूर्व कथा सुनाने का प्रयत्न करूँगा। अब तक जो कुछ कहा है मैंने यह लगभग पन्द्रह वर्ष पूर्व का बीता हुआ है । आगे जो कहूँगा वह इसके बाद का है।

आजीमाँ मेरी सगी आजी नहीं हैं। मेरे परदादा की बेटी हैं। यानी मेरे पिता के पिता की बहिन | यह ठीक है कि उनका जन्म इस घराने में हुआ। मगर यह आवश्यक नहीं था कि घर के बाहर वाले पीपल की तरह जड़ें जमाये यहीं बनी रहें । स्वाभाविक यह था कि ब्याह के बाद ससुराल वाले कुल परिवार में कटहल या इमली की तरह वहीं फलती-फूलतीं । कटहल या इमली का उल्लेख मैंने इनकी अडिगता और दीर्घ आयु के कारण किया। कटहल की धरन सैकड़ों बरसों तक बनी रहती हैं। इमली का मूसल पिसता ही नहीं । आजीमां तो सचमुच ही इमली जैसी हैं उनकी बातों में खटास और मिठाम दोनों का मेल रहता है। किन्तु ससुराल की अंगनाई में अपना स्थान बनाने के बजाय वे हमारे घर के सामने वाले पीपल की जटाओं की तरह यहाँ मायके में ही जीवन बिताती आयी हैं ।

परदादाजी ने शायद कोल्लुर की मूकाम्बिका देवी की स्मृति में इनका नाम मूकाम्बिका रखा था। घर में पुकारते सब 'मूकी' थे। मूकी आजी मेरे दादाजी से दो-तीन बरस छोटी रही होंगी। दस बरस की होते न होते उनका शास्त्रोक्त विधि से विवाह कर दिया गया था। दादाजी की शक्ल मुझे बिलकुल याद नहीं । उन्हें मरे हुए भी बरसों बीत गये । वे जीवित होते तो आजीमाँ की कही कितनी ही बातें, जो समझ में नहीं आ पातीं, उनसे जाकर समझ आया करता। आजीमाँ के बचपन के बारे में जो कुछ भी मैं जानता हूँ, आंखों देखा नहीं है। इन्होंने कभी अपनी बहू, अर्थात् मेरी मां को बताया होगा। माँ अपनी आधी-अधूरी याद से जो कुछ बता सकीं उतना ही मुझे मालूम है। समझ आने पर कितनी ही बातों का मैंने विवरण जानना चाहा। मगर ज्ञात यह हुआ कि आजीमाँ स्त्रयं भी बहुत कुछ बताना नहीं चाहती थीं ।

ब्याह के बाद इन मूकाम्बिका का गौना हुआ । ससुराल हमारे गाँव से तीन कोस पर चम्बूर में बतायी जाती है। यह तब पूरे दस की नहीं थीं, वर भी चौदह का रहा होगा। कितनी कम वयस! ब्याह के चार-छह मास के ही अन्दर उनके पति को सन्निपात हुआ और आजीमाँ पर उस अबोधावस्था में ही वैधव्य की विपत्ति आ टूटी। उसके बाद ही परदादाजी उन्हें घर ले आये। इस घर का नाम इस कहानी में मैं बार-बार लेता आया हूं। यह जहाँ का तहाँ बना है; इतना ही नहीं, बीच की कालावधि में इसके रूप और आकार में चार-चार बार परिवर्तन हो चुके हैं। आजीमाँ के जीवन में क्या परिवर्तन हुए, यह बता सकने का साधन मेरे पास कोई नहीं । अवश्य, ममतावश या भक्ति भावना में परदादाजी ने जो नाम उनका रखा था उसे बाल-वैधव्य के महाप्रहार ने अन्वर्थक बना दिया ! दिनों मूकी पुकारी जाती रही थीं, अब यथार्थ में मूकी ( गूंगी) बन ही गयीं ।

घर का काम-काज करतीं और करती रहतीं, न कभी आलस न किसी भी काम से कभी कतराना । केवल बोलती न थीं। बिलकुल आवश्यक हो जाने पर मुँह से निकलता तो प्रसंगानुसार एक शब्द 'हाँ' या 'नहीं' या 'है'। आजीमाँ के उन दिनों की कल्पना तक नहीं की जा सकती। उतनी छोटी वय में वैधव्य की गाज गिरी और वह बची रहीं जीवित, यही अपने में असाधारण था। उस स्थिति में जीवन के प्रति मोह का रंच भी बना रह जाना तो सम्भव ही न था । कहा यहाँ तक जाता है कि बरसों तो ये गाँव के अन्दर ही रही थीं। कभी भी वह गाँव की सीमा के बाहर गयी ही नहीं ।

मेरे दादाजी बूढ़े हुए तो उनकी इच्छा काशी जाने की हुई। आजीमाँ से कहा उन्होंने, “चल बहिन, एक बार काशी ही हो आयें !" आजीमाँ ने ना करते हुए कहा, "जो भगवान् वहाँ है वही तो यहाँ भी है !" और वे भीतर जाकर बैठ गयीं। फिर किसी को साहस न हुआ कि तीर्थयात्रा के लिए उनसे कहे ।

दादाजी नहीं रहे, तब से उनके स्थान पर आजीमाँ ही घर की दीवार की तरह टेक बनी हुई इस कुटुम्ब की देखरेख करती आयी हैं। परलोकवासी हुए दादाजी, उसके थोड़े ही दिनों बाद दादीजी चल बसीं। घर में तीन-चार प्राणी नये जनमे, तीन-चार पहले के चिरविदा ले गये। मेरे पिता तो आजीमाँ की ही गोद में पल-पलकर बड़े हुए। इनसे ही बहुत कुछ उन्होंने सीखा और ग्रहण किया। जीवन में अनेक ज्वार-भाटे पिताजी ने अपनी आंखों देखे, झेले और पार किये | आजीमाँ अविचल दीपशिखा -सी धीरज और सहारे का स्रोत बनी रहीं। अन्तिम समय आया पिताजी का तो आजीम के मुंह से केवल इतना निकला, " जाने की बारी एक न एक दिन सबकी आती है। अकेली शायद मैं ही हूँ जिसकी घड़ी नहीं आती !”

मैं तब बिलकुल बच्चा ही था। आज़ीमाँ ने यह बात कुछ इतनी गहरी पीड़ा भरे भाव से कही थी कि मेरे रोंगटे तक खड़े हो गये थे। उनका उस दिन का सारा व्यवहार मुझे अद्भुत लगा था; उनकी एक-एक बात विचित्र जान पड़ी थी। शव के पास कुछ देर वह खड़ी रहीं, फिर जैसे अन्तर की किसी गहराई से कहती जान पड़ीं, "तुमने अच्छा ही किया कि बहू को अपने से पहले परलोक भेज दिया । बच्चों की चिन्ता मत करना। मैं देखभाल कर लूंगी। तुम शान्त मन से परलोक की यात्रा करो !” जैसे दादाजी की आत्मा वहीं उपस्थित हो और उसे सम्बोधित करते हुए आजीमाँ कह रही हों ।

मुझे बेहाल और अटूट आँसू बहाते देख बोली थीं, "यह क्या, बेटा ? यही क्या तुम्हारी बहादुरी है ? धरती पर अजर-अमर होकर कोई नहीं आता । समय आने पर सब कोई जाते हैं; सभी को जाना होता है। धीरज बांधो और जाकर चिता में अग्नि का स्पर्श कर आओ। यह सब एक खेल है। एक सपना । और सपना तो सपना ही होगा ! हम जैसा चाहेंगे वैसा ही हमारा सपना बनेगा । भला चाहेंगे तो भला बनेगा, बुरा चाहेंगे तो बुरा । जो कुछ भी यह सामने है, इसे अगर भ्रम मानो तो यह भ्रम है, सच मानो तो सच । जाओ, शान्त मन से जाओ और अपना कर्तव्य पूरा करो !”

मेरी हिलकियाँ बन्द न हुई देख वे और समझाने लगीं, "बेटा, ये सब सपने- वपने अपने जीवित रहने तक ही सच होते हैं। ऐसी ही बात परिवार और गृहस्थी की भी होती है। ऐसा ही सुख-दुख का रहता है। यह जगत् भी इसी नियम से बंधा हुआ है । और जगत् ही नहीं, तमाम देवी-देवता भी । वे सब भी हम जैसा चाहते हैं वैसे ही बनते हैं । अपने जी को कड़ा करो। तुम्हें काहे का डर ? जाओ, इन्हें विदाई दो ! तुम तो उनकी नर-सन्तान हो !”

कितनी शक्ति और सान्त्वना थी उनके शब्दों में ! शव उठाया गया। सब विधि-विधान पूरे करके घर लोटा आजीमां धैर्य की प्रतिमा-सी द्वार पर ही खड़ी थीं। मुझे याद नहीं आती कि उस दिन के बाद ऐसी सान्त्वना की बातें उन्होंने किसी से भी कभी कही हों। उस दिन आजीमाँ मुझे सचमुच ही अद्भुत और विलक्षण व्यक्ति जान पड़ीं ।

पिताजी के बाद घर की जिम्मेदारी भी उन्होंने मेरे ऊपर कभी नहीं पड़ने दी । न ही मेरी और छोटे भाई की पढ़ाई कभी बन्द होने दी। कब कैसी क्या स्थिति रही घर में, यह हम कोई कभी जान ही न सके । पढ़ाई पूरी करके मैं घर लौटा। उम्र अभी कच्ची थी। तो भी आजीमाँ ने समझा-बुझाकर एक प्रकार से आग्रह करके, उसी वर्ष मेरा ब्याह करा दिया। घर में एक बहू आयी। पिताजी के बाद से घर ही नहीं चलाती आयीं आजीमाँ, खेतीबारी के भी सारे काम पूरे कराये । हम दोनों भाइयों को तो इतने प्यार-दुलार के साथ उन्होंने रखा कि माँ का अभाव कभी भासा ही नहीं।

इतने घनिष्ट थे हमारे सम्बन्ध कि भूल न सकते थे कभी, न भुलाये जा सकते थे। मेरे बारह का होने तक तो मुझे और छोटे भाई को सामने बैठाकर न जाने कहाँ-कहाँ की कहानियाँ सुनाया करती थीं। कैसे-कैसे भावों से भरपूर रहा करती थीं वे कहानियाँ ! कभी भी याद हो आती है उन कहानियों की अब तो जी खिल उठता है । अपनी कहानियों के द्वारा ही आजीमां कभी हम दोनों को इतना हंसातीं कि हम लोटपोट हो-हो जाते, और कभी तो दुनिया के दुख-दर्द की सुना-जताकर हमें रुआँसा तक बना देतीं। ऐसी किसी बात पर मैं अगर पूछता ही, “आजीमाँ, क्या यह सच है ?” तो वे हलके से मुसकराती हुई कहतीं, "बेटे, कहानी तो कहानी ही है।"

मैं इस पर अगर उलझन में पड़ता हुआ पूछता, "तो क्या तुम मानती हो वह सब सच था ?” आजीमाँ गम्भीर हो आतीं और कहतीं, "तुम सोच देखो आप ही ! बाघ के मुँह गाय स्वयं जाती है ?” मैं उदास होता हुआ विरोध करता । वे तब कहतीं, "तो क्या यह चाहोगे तुम कि दाघ को आहार न मिले और वह सिर पीट-पीटकर प्राण दिया करे !" मेरे पास एक ही उत्तर होता, "नहीं आजीमाँ।" वे धीरे से समझातीं, "बेटे, इस जगत् में एक जीव दूसरे जीव को खाकर ही जीवित रहता है। बाघ जिये तो गाय जीवित नहीं रह सकती, और यदि गाय जीती है तो बाघ क्या खाकर रहे !"

"गाय और बाघ दोनों ही क्यों न जीवित रहें, आजीमाँ ?” मैंने उत्साह के साथ कहाँ । आजीमाँ मुसकरायीं, "ठीक तो है, पर तब बाघ जीवित रहने के लिए खायेगा क्या ? घास खायेगा क्या ? तब तो बेटा, कहानी ही बदल जायेगी । घास चरने जायेगा बाघ तो वह कहेगी, 'तुम जरा ठहरो, मैं अपने सब बच्चों को एक बार जाकर देख आऊँ !" क्या होगा फिर ?” मेरे पास उत्तर न था ।

आजीमाँ से सुनी हुई कितनी ही कहानियाँ मैंने समय-समय पर अपनी पत्नी सीता को भी सुनायीं । नयी बहू ही तो थी उन दिनों वह अपने माता-पिता और भाई-बहिनों की याद कर-करके अकसर उदास हो जाती। उस समय कभी-कभी तो मैं बिलकुल ही आजीमाँ का स्वांग भरकर कहता, "देखो, यह सच है कि मनुष्य का जीवन एक सपना मात्र है। हो सकता है यह निरा अभिनय ही हो। फिर भी जब तक यह दृश्यमान है तब तक अपना कर्तव्य है कि जो भूमिका हमें दे दी गयी है उसे पूरा करने का प्रयत्न करें। जो देश हमने ग्रहण कर लिया है उसके अनुरूप नाचते रहें। यही धर्म है।" इस प्रकार आजीमाँ की बातों का अपनी समझ के अनुमार अर्थ लगाता हुआ अपनी पत्नी को धैर्य बँधाया करता था ।

अब भी मैं जब कभी आजीमाँ के सामने खड़ा होता हूँ मुझे यही लगता है कि मैं बच्चा ही हूँ। उनकी वे कहानियाँ अवश्य अब सुनने को नहीं मिलतीं। इस बीच दो बच्चों का मैं पिता भी बन गया हूँ। इन बच्चों ने भी आजीमाँ से उस तरह की कहानियाँ नहीं सुनीं। मैंने कभी सुनाते हुए उन्हें देखा नहीं । वैसे भी जब से सीता इस घर में बहू बनकर आयी है, आजीमाँ ने घर-मालिकिन का पद उसे दे दिया है। स्वयं घर की तमाम जिम्मेदारियों से अलग हो गयी हैं। पिताजी जिवित थे, तब भी यह उन्होंने कभी नहीं जताया कि घर-मालिकिन वे हैं। जितना जो करना उस समय आवश्यक था, उसे पूरा करने में उन्होंने कोई कमी नहीं रखी । अब शायद दुनिया के झंझटों से अपने को बिलकुल ही दूर रखने के लिए वे स्वयं ही अलग-सी बनी रहती हैं।

एक बात का मुझे बहुत दुख है। हमारे यहाँ नाते-कुटुम्ब के या और भी परस्पर परिचय के लोग-बाग आते हैं। वे कभी आजीमा के पास तक नहीं जाते । पहले जो लोग आजीमाँ के पास बैठते उठते थे, वे भी अब जबसे मैंने घर-गृहस्थी सम्भाली उनके पास तक नहीं फटकते। गाँव वाले ऐसा समझते हैं कि ये सठिया गयी हैं।

उनके इस तरह समझे जाने का एक और कारण भी हो सकता है। उनके हाथ में यदि कोई चीज आ जाये, या बच्चे ही कहीं से कुछ पा जायें और लाकर उनकी हथेली पर रख दें, तो आजीमां थोड़ी देर आँखें मूंदे बैठी रहेंगी और उसके बाद आप से आप न जाने क्या-क्या बड़बड़ाने लगतीं। यह सब सुन-सुनकर लोगों ने धारणा बनाली कि वे पगला गयी हैं, नहीं तो सठिया जरूर गयी हैं। कभी-कभी तो यहाँ तक होता कि वे बैठे-बैठे अपने से ही बक-झक करने लगतीं या आपे से बाहर होकर कुछ बोलने लगतीं और तब देर तक चुप ही नहीं होतीं ।

जब कभी ऐसा होता तो परायों को नहीं, सगे-सम्बन्धियों को भी बुरा लगता । कई बार तो उन दोनों बच्चों में से ही कोई आकर उनके हाथ में कुछ रख देता । वे अपने स्वभाव के अनुसार दो-चार सेकण्ड बाद ही जाने क्या-क्या बड़-बड़ाने लगतीं। बच्चे समझ तो कुछ पाते नहीं, दौड़े-दौड़े अपनी माँ के पास जाते और उससे कहते, "माँ-माँ, आजी कहती हैं उन्होंने एक बहुत बड़े शैतान को देखा है । उसके सिर पर सींग भी हैं। माँ वह शैतान कौन है ?" सीता बच्चों को बरजते हुए कहती, "तुम उनके पास मत जाया करो। वे क्या देखती हैं, किसे क्या कहती हैं, इस सबसे तुम्हें क्या ?"

बच्चे मान जाते, लेकिन कई बार हठ भी पकड़ने लगते। कहते, “आजी क्या झूठमूठ ही कहती हैं, माँ ?” अन्त में पत्नी को उन्हें डाँटना पड़ता, "मैंने कहा न चुप रहो !” इस प्रकार कह सुनकर पत्नी को आये दिन ही बच्चों से निपटना पड़ता । पर अब यदि बाहर वाले ही नहीं, घर के बच्चे भी आजीमां की अटपटी बातों पर उन्हें पागल समझते हों तो मैं उसका क्या उपाय करूँ ? आजीमाँ और मेरे सम्बन्ध इतने गहरे और अटूट हैं कि बच्चों की ऐसी बातें अब भी कभी जानकारी में आती हैं, मेरे मन को बहुत ही ठेस लगती है ।

एक दिन ऐसे ही किसी कारण से जी खिन्न था। उनके पास बाहर चबूतरे पर जा बैठा था। मेरी ओर देखे बिना वे आप ही कुछ बड़बड़ाये जा रही थीं । मैंने अपने मन में कहा सचमुच इतने बुढ़ापे तक जीना नहीं चाहिए। अगले ही क्षण उनके मूँह से किकला, “तुम्हारे लिए भी आजीमाँ बोझ बन गयी क्या ? तुम भी अब चाहने लगे मैं मर जाऊँ !” और कहने के साथ ही वे जोर से हंस पड़ीं । मैं पानी-पानी हो गया। भीतर कुछ डरा भी बड़े अनुताप के साथ मैंने कहा, “आजीमाँ, माफ़ कर दो। तुम्हारा उस तरह बड़बड़ाना देख मैंने एक क्षण के लिए ऐसा सोचा, यह सच है मगर उसका मतलब यह नहीं कि तुम हमारे लिए बोझ बन गयी हो या तुम्हें हम नहीं चाहते । मेरा भाव केवल इतना था कि मन पर ही जब शासन न रहे तो जिये जाने से क्या लाभ ! पर मुझसे बड़ी ग़लती हो गयी सच !"

आजीमाँ हँसती रहीं । बोलीं, “पगले, वह तो मैं समझ गयी थी। मैं क्या तुम लोगों के जी की बात नहीं जानती ? मैं तो हंसी में कह उठ थी। तुम्हारे मन का भाव मुझसे छिपा नहीं।" मैंने चकित होते हुए पूछा, "सो कैसे आजीमाँ ?” वे बोलीं, “कैसे ? पता नहीं कैसे ! पर ठीक जैसा मैं उस समय सोच रही थी वही अपने मन में तुमने भी विचारा था।" मैं तब पूछ उठा, “आजीमाँ, कभी-कभी तुम अपने आपसे ही बोलती रहती हो, सो क्यों ?" उन्होंने बताया, "बेटा, मुझे कुछ दिखाई पड़ता है तभी मैं बोलती हूँ। ऐसा भी होता है कभी-कभी कि अन्दर से कुछ दिखता है । उस समय मैं अपने आपको भूलकर, जो दिखता होता है उसके प्रति कुछ कहने लगती हूँ। हो सकता है वह भी एक तरह का सपना ही हो !"

एक दिन आजीमाँ इसी तरह बड़बड़ कर रही थीं। मैं आड़ में खड़ा होकर उनका स्वगत सुनता रहा। बड़ा आश्चर्य हुआ मुझे ऐसा लगा जैसे कोई घटना उनकी आंखों के सामने घटित हो रही हो और वे जो देखती जा रही थीं उसका ज्यों-का-त्यों वर्णन कर रही हों। सकपकाहट में एकदम से मेरे मुँह से निकला, "आजीमाँ, ठीक तो हो ?" उसी क्षण उनके भाव सूत्र टूट गये। पूछा उन्होंने, "तुमने पुकारा क्या मुझे बेटे ?” उत्तर में मैंने कहा, "जी, भोजन तैयार है, चलो।" और वे उठकर मेरे साथ चल दीं ।

भोजन के बाद दो घड़ी सोयी रहीं। फिर घर के बाहर चबूतरे पर आकर बैठ गयीं । यहीं आजीमाँ का अधिकतर समय बीता करता था। यहाँ बैठे-बैठे जब ऊब जाती तो पीपल के पेड़ तले के चबूतरे पर चली जातीं। उनका यह एकान्त-वास का स्थान था । यहीं बैठे-बैठे कितनी और कैसी-कैसी कहानियाँ उन्होंने मुझे सुनायी हैं उन्हें याद करूँ तो उनके आगे दूसरों से सुनी, पुस्तकों में पढ़ी, यहाँ तक कि पुराणों तक में आयी कहानियाँ भी फीकी लगेंगी ।

अब तो उनकी वय भी नब्बे को पार कर चुकी है।

दो

अब मैं आपको अपने गाँव के बारे में बताता हूँ। आजकल यहाँ कम ही लोगों का आना-जाना होता है। वैसे भी यह वनखण्डों का अंचल है। दो-तीन कोस आगे पश्चिमी घाट की नागनकालु नामक तराई का इलाक़ा शुरू हो जाता है । देखने जायें तो अपने गाँव के आगे एक मील के घेरे में सो घर भी न होंगे। ये भी दो-चार जातिवालों के ही नहीं, अपने देश में जितनी जातियाँ हैं उन सबके मिला-जुलाकर होंगे।

इतना ही नहीं, सभी जातिवालों की तरह सभी सम्प्रदायों और पन्थों के भी लोग यहाँ मिलेंगे। भोगेर, कुडुबी बिल्लव भी हैं और जैन और ब्राह्मण भी, तेली और लोहार भी और आड़ी जात वाले और सीधी जात वाले भी। जैसे भारत की सभी जाति-पातियों का यहाँ प्रतिनिधित्व हो। हर एक जाति के एक-दो या ज्यादा-से-ज्यादा तीन-चार ही घर हैं। गाँव में रिश्ता नाता नहीं बनता इसलिए पास-पड़ोस वालों में ही ब्याह-शादी के सम्बन्ध जुड़ते-बनते रहते हैं । आजीमाँ कहा करती हैं, "लेकिन मैं ही एक ऐसी हूँ जो यहीं जनमी, यहीं बड़ी हुई । मरी भी नहीं, और फिर जीवित ही कहाँ हूँ ?"

घर के बाहर जो पीपल का पेड़ है वह बीसेक हाथ की दूरी पर है। उसके नीचे एक चबूतरा बना हुआ है। यही चबूतरा उनका सबसे प्रिय स्थान है। इसी पर बैठे उनका अधिकांश समय जाता है। मैं ने, जब बच्चा था तब एक बार उनसे पूछा था. "आजीमाँ, यहाँ आकर बैठने पर तुम्हें बहुत अच्छा लगता है क्या ?" वे बोली थीं, "बेटा, यह पीपल भी मेरी तरह यहीं पैदा हुआ है, यहीं पनपकर इतना बड़ा हुआ है। ससुराल तो मैं चार दिन ही रही, जीवन के सारे दिनों तो ठिकाना यहीं मिला । यह भी पुराना हो गया, मैं भी बूढ़ी हो गयी। पर आयु में इसकी मेरी कौन बरावरी। कौन जाने इसकी आयु हजार बरस की होगी या दस-पाँच हज़ार बरस की।"

मैं अचम्भे में जा रहा, “क्या कहा दस-पाँच हजार बरस ! इतने जुगों तक कोई पेड़ रह सकता है क्या ?” उन्होंने बताया, "यह पीपल है बेटे, मामूली पेड़ नहीं । इसके चारों तरफ़ जो जड़ें दिखाई पड़ रही हैं, वे सब नयी हैं। इसका पुराना तना न जाने कहाँ होगा। मेरे अंदाज में पाँच सौ बरस का तो होगा ही। मैं तो समझती हूँ कि जबसे मूडूरु गाँव बसा है, तब से, या उससे भी पहले से, यह पीपल यहाँ है।"

मैं स्कूल का पढ़ा-लिखा : चार बातें सीख गया हूँ । सो घमण्ड जैसा करता हुआ बोला, "मुडूरु ! यह भी कोई गाँव है आजीमाँ ? गाँव हो तो सागर, शिव- मोग्गा, कुण्डापुर, उडुपि जैसा तो हो !" आजीमाँ हँसते हुए बोलीं, “हां, अपना गाँव अब छोटा रह गया है, इसी से तुम ऐसा कह सके। किसी जमाने में यह बहुत बड़ा था। इक्केरि से भी बड़ा आस-पास के जंगल-भरे कोस भर के घेरे में कितने ही खण्डहर देखने को मिलेंगे, कहीं गिरी पड़ी दीवारें, कहीं पुराने परकोटे ।”

उनकी इन बातों का ही परिणाम था कि मैं जब गर्मियों की छुट्टियों में घर आता तो बिना चूके गाँव के चारों तरफ़ फैले मैदानों में ही नहीं, जंगलों और आगे के वनखण्डों तक में चक्कर लगाया करता । छोटा भाई नारायण तब छोटा था । इसलिए उसकी आँख बचाकर जाता था। साथ में मेरा वह मित्र जनार्दन जरूर रहता । और किसी भी दिशा में थोड़ी भी दूर हम जाते कि देखते आजीमाँ का कहा बिलकुल सच है । न वहाँ खण्डहरों की कमी थी और न चिह्नों की ही ।