मिर्ची (पंजाबी कहानी) : बलीजीत

Mirchi (Punjabi Story in Hindi) : Balijit

मां का स्वर्गवास हुए पूरे पांच साल हो गए। रिश्तेदार क्या कहेंगे? पढ़ा-लिखा है पर अक्ल भर की नहीं। वह कब की मरी है और यह लड़का.... इसकी अक्ल पर पानी फिर गया है... घर में विवाह के शोरोगुल में किसी ने पूछा-

'मौली कहां है? पता है किसी को...'

'बेबे कहां है?... बेबे मौली दे। बेबे से पूछो।'

मैं शर्मिंदा हो गया। घबरा कर ठंडा हो गया। शगुन वाले दिन यह मैंने क्या कह दिया। इसी आंगन में दरी पर लेटी चादर से ढकी मरी मां को मैंने अंतिम प्रणाम किया था ... चादर से बाहर दिखते नंगे स्त्री पैरो को सिर लगा दिया था। आखिरी बार।... आखिरी ?

.... मेरे अंदर मां की चिता एक बार फिर धधक उठी। मेरी हैसियत, हस्ती मिट गई... मैं जिंदा ही राख हो गया....

मर कर सब खत्म नहीं हो जाता? मिट नहीं जाता?.... राख राख...

.....राख ... बेबे उपले की आग का जलता हुआ अंगार चूल्हे में से चिमटे से उठाकर लाई तो यह बिल्कुल लाल था। लाकर रखते ही लाली पर हल्के नीले रंग की राख बनने लगी। कुछ पल बाद ही राख बन बन कर उपले से झड़ने लगी। राख ?... राख ही तो बिछाई थी ? इसी चूल्हे की । उस जगह पर जहां से बाबा की लाश उठाई थी। उसी कमरे के अंदर जहां बैठकर मैं पांचवी, आठवीं और बीए के पेपरों की तैयारी किया करता था। बाबा के अंतिम संस्कार से पहले मेरे पिता घर से बाहर बिल्कुल बेसमझ से खड़े, खाद के ढेर की तरफ मुंह किए विलाप करते और फोले वाली दाईं आंख से आंसू पोंछते थे ....

'बाई तू कहां जा रहा है .... बाई... अपने लोगों को छोड़कर।'

मैं, बच्चा सा लाश के इर्द-गिर्द बैठे चाचा, तायों को झुककर माथा टेकने की तरह विलाप करते देखता रहा... मुझे हैरानी हुई... क्या हो गया... राख ... इस तरह...

.... और रात को उसी जगह पर राख की चौखट बिछा दी गई थी। सवेरे मेरी नींद.... हां सवेरे नींद खुलते ही घर के शोक में से खुसर- फुसर सुनी कि बाबा अगले जन्म में सांप की योनि में पड़ा है... कहते हैं सोए सोए राख हिल हिल कर सांप की शक्ल अख्तियार कर गई। ...ले? राख कैसे हिल गई...

'बेबे, बाबा मर कर कहां गए?'

'आसमान में, तारों के पास।'

'तारों के पास क्या होता है?'

'ईश्वर । '

'मर कर ईश्वर के पास चले जाते हैं?'

'हां, बेटा।'

'सभी ईश्वर के पास चले जाते हैं?'

'हां, ईश्वर के पास बस ईश्वर ही बन जाते हैं।'

.....मां का चेहरा उपले के अंगार की तरह लाल था । कितनी सुंदर और जवान थी मेरी मां तब। उस दिन अमावस्या थी। मां ने बियाइयों और सख्त हुए हाथों से मिट्टी में थोड़ा-सा गोबर मिलाकर तड़के ही घर की सबसे खास जगह को लीप-पोत दिया था और जब तक यह जगह सूखती रही, वह रसोई में बैठी बैठी कई तरह के पकवान बनाकर टिकाती रही।

'बेबे क्या बनाया?' ढके होने के बावजूद पकाए गए सामान की गंध सारे घर में फैल गई थी। हलवे में से आती देसी घी की खुशबू मुंह में पानी ले आई।

'नहीं...' जैसे गलती के कारण मुझे डांट पड़ी हो, 'पहले माथा टेक ले ।'

.. और फिर उसने लिपाई-पुताई सूख जाने के बाद अलग से दिखते चौकोर टुकड़े के इर्द- गिर्द गेहूं के आटे की चुटकियां भर-भर कर लकीरें खींच दीं। साथ-साथ कुछ बुदबुदाती भी रही...

'या बापू जी...बाई जी.. '

'या बेबे जी...'

पीतल की कटोरी में गुनगुने पानी की तरह लगता देसी घी रखा। बनाई हुई सारी चीजें... खीर, हलवा, साबुत उड़द की दाल... चुपड़ी हुई रोटियां थालियां, कटोरियों में डाल कर चौकोर टुकड़े के इर्द-गिर्द टिकाकर, किसी और ही रौ में हाथ जोड़ती हुई माथे को हाथ लगाए । पानी का लोटा रख, सबको आवाज लगाई-

'आ जाओ... हो गया... तैयार.... माथा टेक लो।'

'आग का उपला रख', बापू ने माथा टेकने के लिए बैठते ही बेबे को इस रह गई चीज की याद दिलाते हुए, पालथी मारकर आंखें मूंद लीं। बेबे ने सुलगते हुए उपले को चौखट के ऐन बीच में थोड़ा नीचे, कलाकारों की भांति चिमटे से टिका दिया। हम सब बहन-भाइयों ने भी सिरों पर रुमाल, चुन्नियां लेकर मां-बाप की नकल की। मैंने बापू की बंद आंखों को देखकर अपनी आंखें मूंद ली... फिर आंखें खोलीं...बापू आंखें बंद किए मुग्ध हुआ बैठा था।... बापू देसी घी अंगूठे और उगलियों में भरकर सुलगते उपले पर गिरा दिया।

घी के गिरते ही खुशबुदार धुएं का भभका निकला.....

'या बाई जी, तेरा आसरा... बड़ा कुछ दे गया तू, तेरा स्वर्गों में वास हो', और रोटी की बुरकियों में दाल, खीर भरकर सुलगते उपले के करीब रखता जाता । कटोरियों, थालियों को आगे-पीछे खिसकाया । आटे की लकीरें टेढ़ी-मेढ़ी हो गईं। 'अपने बच्चों के सिर पर मेहर भरा हाथ रखना । धन्य है तू दाता । भूलों को बख्शने वाला। सब कुछ तेरा दिया। पत्थर में कीड़े को रिजक देता महाराज । मेहर करना | बख्शना । सुख- शांति.... दिल न दुखाना...।'

फिर बेबे बड़ा सा घूंघट निकालकर अपने सास-ससुर का नाम लेती आग में घी डालने लगी।

'या बाई जी... बेबे जी .... . तूने हमें जिंदों में कर दिया। इतना तूने मेरे बच्चों को प्यार किया... ' फिर घूंघट को थोड़ा कम करती, 'तेरा स्वर्गों में वास हो, दाता । गरम हवा नहीं लगने दी तूने जीते जी । अब भी तेरा आसरा ।... ठंड बरताना... बरकतें डालना... लम्बी उम्रें... फिर हम सबने इस स्थान के आगे हाथ जोड़कर माथा टेका। मैंने भी मां की तरह दो बार 'वाहेगुरू' बोल दिया। उठ खड़ा हुआ। क्या बात थी भला? अब दे जल्दी खाने को....

'कांऊ... वास।'

'कांऊ..... वास।'

बापू अनपढ़ अंगूठा छाप था। हमारी समझ में न आए कि वह क्या कह रहा था । यही कहता वह मोगरे जैसे दाएं हाथ में दाल, खीर, हलवे की बुरकियां भर-भर कोठे की छत के ऊपर फेंकता रहा। हम उसको सीढ़ी के ऊपर चढ़े को जो कुछ मांगता, पकड़ाते रहे।

'और ला... पेट भर के...' खाने-पीने का सामान देखकर छत पर पंछी आ उतरे, 'कांऊ वास...मिर्च ला, हरी मिर्च का शौकीन था... पानी ?... जल्दी... कहीं गले में बुरकी न लग जाए।' उसका गला बैठ गया।

'कांऊ वास' बापू यह काम निपटाकर नीचे आकर दीवार से पीठ टिकाकर बैठ गया । हाथ जोड़े बैठा वह किसी और ही दुनिया का प्राणी लगा। मां ने सबकी हथेली पर हलवा रख दिया।

‘दो अब बच्चों को... खाओ...' बापू को इतना जोश और जल्दी थी कि नल पर से हाथ धोकर लौटा तो हाथ अभी भी आधे सने पड़े थे।

मां थालियां ला लाकर सबको देने लगी, 'यहीं बैठे रहना दीवार से पीठ लगाकर रोटी नहीं मांगनी। मैं नाश्ता, दही में अदरक हरी मिर्च कूटकर देती । खाकर बैठे रहना। चाहे सारा दिन न पूछो। ऐसा सब्र संतोष। पूछना -रोटी? 'ले मैंने अभी तो खाई है।' इतना भाग - प्रताप । तेरा सात जन्म भला हो । गंद में से निकल गया... मां फिर तारों की दुनिया से लौटी, 'खाओ बेटा.... सारे। '

पहले मन करता कि कटोरियां भरकर खा जाएं। जब मां कड़छियां भर कर देती तो खाया ही न जाता | मुंह फेर लेते। आधा-अधूरा खाकर, बर्तनों के बीच में ही छोड़कर पता नहीं हम क्या-क्या करने लग जाते। आंगन में उछलते कूदते रहते। कोठे की छत पर बैठे कौए और दूसरे पंछी बापू की फेंकी हुई बुरकियों पर दिन भर चोंच मारते 'कांव-कांव' करते दिखे तो बापू ने खीझ कर कभी हमें और कभी पंछियों को गालियां दीं।

पता नहीं साल में अचानक ऐसे एक-दो दिन... बैसाखी... दीवाली... अमावस कैसे आ टपकते कि सूंघकर ही स्वाद से रूह भर जाती... बाकी दिन.....

.. चौंसठ साल पूरे कर बापू दिल का दौरा पड़ने से मरा तो मां के रोजाना के विलाप ने उसे खुद को दो साल भी न जीने दिया। कोई रिश्तेदार, दोस्त मित्र आ जाता तो बापू की अच्छी- अच्छी यादें लेकर बैठ जाती और रो-धोकर ही उठती। बापू के गुजरने के बाद दो साल हर दूसरे तीसरे दिन दर्द से चिल्ला कर घर की दीवारों को कंपा दिया करती ।

'मौस (अमावस) वाला हो गया अब तू...' बापू के जीते जी तो हमें यही पता था कि बे-बापू दोनों पशुओं का चारा पानी करते हैं और एक-दूसरे से लड़ते हैं। एक-दूसरे से लड़े बगैर उनको रूखी-सूखी रोटी पचती नहीं थी। मां डरती तब थी जब बापू उसको मारने को दौड़ता था। अगर कहीं बेबे के कुछ लग जाता तो सात दिनों तक लड़ाई जारी रखने की ठान लेती। एक बार बाहर से आए बापू ने रोटी मांगी तो बेबे अभी मसाला कूट रही थी। वह भूख बर्दाश्त नहीं कर सकता था। गुस्से में मां के हाथ से कुंडी वाला सोटा छीनकर उसके हाथ पर मारा। बापू के मरने तक वह मां के लिए 'काले मुंह वाला', 'टौंड़ा' और 'आग लगना' ही रहा... मां का हाथ टेढ़ा ही रहा ।

'अब किसके साथ लड़ना, बच्चे... दुख-दुख, मोह, गिला, गुस्सा, जिंदों का ... मरों का क्या....' मां कितना सच बोलती थी। 'मरों का क्या' । राख हो गई और क्या । मां सीधा सोचने लग पड़ी थी। हाथ हालांकि अभी भी... और बापू के वियोग में रोती-बिलखती दो साल बाद वह भी...

'रब के पास चली गई, बेटा' मैं अपने बच्चों को बताता। मेरी रूह में दर्द होता । शब्दों में गर्व होता । और मैं दोनों बेटों को बेबे - बापू की हकीकतें किस्सों की तरह सुनाता... कि बापू जी भरकर साइकिल चलाता था ... कि सर्दियों के पांच महीने में वह पूरे चार बार नहाता था.... कि मां मेरी सब बुरी बातों पर पोछा फेर देती थी।... कि बापू ने कभी किसी डॉक्टर से दवा नहीं ली थी।...' कभी बीमार नहीं हुए'... 'ना', वैसे तीन-चार वैद्य थे, जो उस अनपढ़ को उर्दू का अखबार पढ़कर सुनाया करते थे... एक बार उसने वैसे ही ब्रह्मानंद से अखबार सुनते- सुनते पाद कर, पेट की गड़बड़ का जिक्र मात्र कर दिया था। वैद्य ने जबरन उसको हरे रंग की दवाई बिना मांगे मुफ्त में दे दी थी और उसको पता भी न लगा कि ढक्कन खोलकर उसने सारी की सारी शीशी एक ही बार पी ली...कि बापू चार रोटियों में एक बार अंगूठा पार कर देता था.... और चार बुरकियों को एक साथ मुंह में डालते समय एकाध बुरकी थाली में रखी तरी में जा डूबती थी... कि .... कि .... बच्चे कभी इतना हंसते कि....कभी उदास हो जाते... कभी पूछते ... कभी सुनते।

समाज का डर, रिश्तों का बोझ और बच्चों तथा उनके साथ जुड़ी जिम्मेदारियों की दौड़ धूप में हांफते हुए हम पति-पत्नी लड़ पड़ते । लड़ने के लिए और कोई कहां मिलता है। वक्त ने एक-दूसरे को समझने-पहचानने का अवसर ही नहीं दिया। यूं ही एक दिन गर्म सर्द हुए, बच्चों के जिद्द करने पर होटल में रात का खाना खाने चले गए। सब मेज-कुर्सियां खाली पड़े थे। कैसे होटल में आ गए। बच्चे तो नाराज ही हो गए। भूपिंदर, मेरी पत्नी से रहा नहीं गया। उसने बैरे से पूछ ही लिया-

'सारा हाल खाली पड़ा है,' उसने संकोच में कुछ बता देने की तरह बड़ी मुश्किल से कह दिया, 'सर, श्राद्ध चल रहे हैं।' सामने फ्रंट ऑफिस में किसी बढ़िया व्हिस्की का पोस्टर खाली मेंजों को घूर रहा था। बच्चे चिढ़ गए। भूपिंदर उदास हो गई।

'मुझे पहले ही पता था।' बड़े लड़के के मुंह के पास से बड़ा-सा मच्छर उड़ता हुआ शोकमयी सुर अलापता निकल गया। मैं भी उदास हो गया। दफ्तर के मैनेजर वी. के. गोस्वामी की बात याद आ गई-

'साल में एक दिन तो अपने बुजुर्गों को याद करना चाहिए।' वह उस दिन या तो छुट्टी ले लेता था या दो घंटे देर से जाता, पर मैं श्राद्धों में भी मीट खाता रहता। शराब पीता । पहेवे बापू की गति करवाने भी मां के बार-बार कहने पर मौत के दो साल बाद गया था। मुझे तो अपने मां-बाप की मौत की तारीख भी याद नहीं रहती । खाली हाल में से फिर मुझे गोस्वामी की आवाज सुनाई देने लगी, ‘उस दिन स्वर्ग में वास करते अपने बड़े-बुजुर्ग अपनी-अपनी थालियां कर बैठ जाते हैं। बोलते कुछ नहीं । यदि तुम उनकी रोटी न करो तो वे भूखे ही बैठे रहते है । बाकी खाते रहते हैं, तुम्हारे वाले देखते रहते हैं।' स्वर्ग? वे नरक में नहीं हो सकते....

'मैं पिछले साल भूल गई... अब नहीं भूलूंगी।' मुझे भूपिंदर की बात समझ में ही न आई। खाना स्वाद नहीं था। इतने बड़े हाल में अकेले खाना खाते हम मूर्ख से लग रहे थे।

'डैडी, मैंने पहले ही बोला था।'

'कह रहे थे, 'महक' में जाना है... देख लिया।' वापसी पर भी बच्चे शिकायतें करते रहे। मैं गलत था। मुझे अजीब उदासी ने घेर लिया। पूरे वजूद पर भार पड़ गया। भीड़ में भी अकेले होने के बोझ जैसा अहसास ... गलत... गलत..

मुझे कभी अपने मां-बाप का सपना नहीं आया... पर उस रात घर की तीसरी मंजिल पर धोती पहने बापू मुझे दिखाए दिए.. सपना था या हकीकत? हकीकत ही तो है, वह मुझे दिखाई दिए... मैं फर्श पर दीवार के साथ पीठ टिकाए बैठा था। वह आहिस्ता-आहिस्ता दबे पांव मेरी ओर बढ़ रहे थे। धोती का निचला हिस्सा फर्श पर घिसट रहा था। चलते तो धोती में से नंगे पैर बाहर निकलते। मेरे तक आकर रुके। फिर मुड़ गए... पिछले दरवाजे से होते हुए लापता हो गए... फिर वह मुझे सड़क पर मिल गए। साइकिल पर पैडिल मारते हुए तेजी से आगे निकल गए। मैं उनके पीछे पूरा जोर लगाकर भागा । बराबर जाकर मैंने उनका बायां हाथ हैडिल से पकड़कर खींच लिया। वह मेरी ओर देखते ही नहीं थे... नाराज होंगे.... मैंने रुआंसा- सा होकर उनको आवाज लगाई-

'बापू... ।'

मैं डरकर जाग पड़ा। बापू? वह तो कब के मर चुके हैं। बारह साल होने को आए हैं। उसकी सूरत का तसव्वर भी मन में मद्धम होता जा रहा है। मां का वजूद जेहन में से मिटता जा रहा है... उफ्फ! आधी रात ! क्या करूं मैं एल्पराजोलम की गोली खाकर फिर सो गया ।

'भाई... ओ भाई... तू मेरा नाम नहीं लेता।'

'कौन ? ... महिन्दर... बहन...' फिर उसका छोटा-सा आधा, एक आंख वाला, मासूम चेहरा दरवाजे के पल्ले की ओट में दिखाई दिया। वह घर में ही गुम हो गई थी। पुराने टूटे दरवाजे के पीछे खड़ी, मांग कर लाई लस्सी छिपकर पी रही थी। पता नहीं, कहां मर गई थी। सब जगह तलाश चुके। खट्टी लस्सी पीने से नही हटती था । कितना मना किया मां ने और कुछ घर में खाने को था नहीं। वह मुझे आवाज लगाती दरवाजे की ओट में से निकल आई। दो आंखों वाला बच्चा... अरे ! उसका पेट कितना फूला हुआ था ।

'भाई, मैं तेरी मन्नतें मांगा करती थी। भाई, तू मेरी जगह पैदा हुआ। तू मेरी जगह ही जन्मा, बाद में तू मुझे याद नहीं करता... तेरे सुखों की खैर मांगती मैं..'

'अब कहां है तू'

'रब के पास, तारों में, कभी देखना रात को ?'

'मां तेरे छोटे-छोटे कपड़े, कुर्ते, पजामियां गठरी में संभाल कर रखना चाहती थी। पर बाबा नहीं माना। कहता था 'बेटा, क्या करने हैं। यूं ही देखकर रोए जाएगी। ला इधर । जो हो गया, सो हो गया... साथ ही, दबा देते हैं। '

'भाई, मेरे तो कपड़े घिसे-फटे थे...क्या करने थे बीबी ने' फिर उस छोटी सी बच्ची की भावहीन आंखों में से पानी बहने लगा। फिर मुंह भी पेट की तरह फूलकर इतना फैल गया कि मेरे इर्द-गिर्द बहुत डरावना घेरा पड़ गया।

...कितना डरता हूं मैं... आठवीं भी पास नहीं की। हद हो गई। दफ्तर से छुट्टी लेकर आठवीं कक्षा में जा बैठा। मास्टरों का पता नहीं चलता। वो मुझे पूछते ही नहीं। बस, आठवीं पास हो जाए। आठवीं में फर्श पर दीवार से पीठ टिकाकर बैठा बच्चा । वही 'बच्चा' जिसके पास स्कूल जाने के लिए सफेद कैनवस के जूते नहीं थे। कितनी कमियों के बावजूद स्कूल चला जाता था। बाप के आगे मंगतों की तरह कुछ मांगते और ज्यादातर 'ना' ही सुनते.. वही बच्चा जो जोर-जोर से रो पड़ता था... आठवीं पास करने के लिए जिद्द करके क्लास में बैठा रोरोकर मुझसे कपड़े के बूट मांग रहा था । खाकी निक्कर... सफेद कमीज... पन्द्रह अगस्त..... छब्बीस जनवरी... और फिर मैं लंम्बी छुट्टी लेकर बी. ए. पास करने में लग गया।

कहते हैं- गरीबों के बच्चों की फीस माफ होती है। मैं गरीब मां-बाप का बेटा हूं। सबको पता है। मुझे भी। फीस माफ... क्लासें खत्म हो गई.. सबको रोल नम्बर मिल गए... मुझे नहीं मिला... फीस तो भरी नहीं...'बेटा, तू मां से पच्चीस रुपए मांगता तो सही'... पैसे लेकर दौड़ा ! घूमा... और अंत में जब मेरे ऊपर गिरती ऊंची यूनिवर्सिटी की बिल्डिंग के बाहर मुझे रोल नंबर मिलने की अंतिम 'ना' हुई तो मेरी जीभ दांतों के नीचे दबने की बजाय पीछे हट गई। और... मैं... मैं... अब देखता हूं, कैसे बी.ए. पास नहीं होती... बी. ए. नहीं होती पास? बापू आंखे निकालता, ‘अब मरा है तू?' बी.ए. नहीं होती, न हो, पर मैं अपनी नौकरी पर तो जाऊं... जहां रुपया-पैसा मिलता है। कितनी छुट्टी मार ली। मैं कहां लगा हुआ हूं, अब मेरी पोस्टिंग कहां होगी... पता नहीं ... किस को पता होगा... हां... विनोद भट्टी से पूछता हूं.. उसके पास रिकॉर्ड होता है... भट्टी ओए... भट्टी.....

मैं घबराकर जाग पड़ता हूं। ओ... हो... कितनी बेबसी .... बी. ए. भी पास नहीं कर सका। . ... ... फिर होशो हवास में आकर समझता हूं... कि बी. ए. तो क्या मैंने एम.ए. भी पास की हुई है। बड़ी नौकरी सरकार के तीसरे महकमे में करता हूं... खुश होकर दफ्तर जाता हूं... पर मेरा वह पांचवीं छठी... आठवीं कक्षा में पढ़ता बच्चा... मेरा वह बी. ए. में पढ़ता मुंछ फुट... मुझे अकेला छोड़ गए... और फूले हुए पेट वाली बहन... मेरी समझ से पहले ही......

'अब नहीं मैं भूली ... मैंने दीवार पर डेट लिखी हुई थी... मुझे साथ वालों ने कहा- तुम अपने बुजुर्गों को क्यों नहीं मानते ?... सच, मुझ पर तो महीने भर से बोझ पड़ा हुआ है।'

'क्या बोले जा रही है?' मैं पहले ही घबराहट से पसीने-पसीने हुआ पड़ा हूं।

'पता नहीं तुम्हें?'

'क्या?'

'आज अमावस है।'

'फिर?'

'मैंने रोटी की हुई है, अपने बुजुर्गों की। तो तड़के चार बजे की उठी हुई हूं। सब कुछ तैयार है। तुम्हें पता नहीं घंटे भर से नींद में क्या बड़ बड़ किए जा रहे हो। जल्दी करो... तुमने पहले नहाना है। छह बज गए... और लड़कों को भी उठाओ...'

घर में गैस रखी है। न आग, न उपले । न पाथियां। न चूल्हा। न मिट्टी। न वो पोछा। न चौकोर लीपा-पोती। न मां की बियाइयां । न धूल । न बापू की आंख का फोला । न छोटे कद की अम्मा। न खाली मुंह वाला बाबा... न फूले पेट वाली बहन.....

भूपिंदर ने नल के पानी का पोछा लगाकर धूप जला दी है। सरसों के तेल की जोत जगा दी है। बच्चे सिरों पर रूमाल रखकर बैठ गए हैं। सारा सामान डोगों में भरकर रखा है। जब से आंख खुली है, मैं तब से ही अपने आपको समझाने की कोशिश कर रहा हूं। पर समझ नहीं पा रहा। मैं रोटी की बुरकियों पर सब्जियां, प्रसाद लगा-लगा बिछाए अखबार पर रख रहा हूं.. घरवाली... बच्चे भी...

'बेटा अरदास करो..' पता नहीं बच्चों को अरदास करनी भी आती है कि नहीं। मैंने अपने बाप की तरह आंखें बंद कर ली हैं। मुझे भी अरदास करनी नहीं आती। मन में बोलता हूं- बेबे, बापू...इससे आगे बोला नहीं जाता। सोचा नहीं जाता। सिर में गुबार भर गया है। बंद आंखों में से गर्म आंसू की बूंदे टपकने लगी हैं। कब से रोने के लिए रुकी पड़ी थी। विलाप करने को मन करता है लेकिन करूं किसके सामने....मुझे पता है कि मेरे आंसू देखकर मेरे बच्चे डरे बैठे हैं। वे अति संजीदा, निशब्द हो गए हैं... बाप का दुख समझने की कोशिश कर रहे हैं। यह मुझे अच्छा नहीं लगता। फिर भी मेरा रोना नहीं रुकता। सारे वजूद में से दर्द से भीगा पानी आंखों के पीछे इकट्ठा हो रहा है। बहे जा रहा है। बहे जा रहा है.. मैं कुछ हल्का महसूस करता हूं फिर एक और पानी की गठरी आंखों के पीछे खुल जाती है....

'बाई जी ने मेरे बच्चो को कभी ओए भी नहीं कहा था।'

'बड़ा बाई कालू तो देखा ही नहीं हमने । '

'बूढ़ी खराब थी।'

'डैडी, बेबे पढ़ी-लिखी थी ?"

'मुझे तो किसी ने स्कूल नहीं भेजा । मैं तो किताबें फाड़कर खा जाती ।' अखबार पर पड़ी बुरकियां बोल रही हैं। धूप के धूएं से कमरा भर गया है। आंसू पोंछकर मैं अपने छोटे बड़े ईश्वर जैसे पुरखों के सामने नतमस्तक हुआ हूं। उठकर खड़ा हो गया हूं। अब कुछ हल्का हुआ हूं। बच्चों के स्कूल जाने का समय हो रहा है। मुझे भी सवा घंटे का सफर करके दफ्तर पहुंचना है।

'मैने नहीं खाना हलवा', बच्चे रोटी सब्जी खाने से बचते हैं। बर्गर, पिज्जे । बहुत प्यार, मोह में मैं उनसे या एकाध और से हिंदी में बात करता हूं.......पर अब बोला नहीं जाता । पूरे शरीर में पता नहीं क्या भर गया है समझ नहीं आ रहा...

'बेटा, डैडी को रोटी दो ।' छोटे पुनीत को रसोई में से आवाज पड़ी है। वह बहुत ही समझदार है। फुर्ती से प्लेट में चम्मच टिका लाया। प्लेट में चम्मच ने कुछ आवाज की। मुझे वह और भी समझदार लगने लग पड़ा है। कटोरियों में दाल, सब्जी और हलवा मेरे सामने रख गया। मैं हिंदी में कुछ बोलना चाहता हूं पर जीभ साथ नहीं देती। आंखों से देखकर ही गुजारा कर लेता हूं.... दही... आचार की डिब्बी... भाप छोड़ती रोटी लिए आ रहा है। मैं गौर से, मुर्दे की आखिरी निगाह के साथ अपने बेटे को देखता हूं। उसका सारा ध्यान मेरे में है। मैं आहिस्ता- आहिस्ता रोटी खोने लगता हूं। दूसरी कटोरी में हरे मटरों में झांकता पनीर का सफेद चौरस टुकड़ा मेरा ध्यान खींचता है।

'डैडी ?'

वो पानी रख गया है। पहला ही कौर मेरे गले में लगने लगा है। बेटा मेरी रोटी की निगरानी कर रहा है।

'ओह..... सॉरी मैं ...भूल गया....' वह रसोई की ओर दौड़ा और लौट आया।

'डैडी ?' वह एक और डिब्बी खोल रहा है।

मेरे शेरों जैसे दो बेटे हैं। पर मैं श्मशानघाट जैसी चुप में प्रश्नभरी नजर से अपने प्यारे बेटे को देखता हूं....

'मिर्ची है डैडी... हरी मिर्ची... ।'

(हिंदी अनुवाद : राजेंद्र तिवारी)

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