मेरी सायरा यात्रा (यात्रा वृतांत) : ज्योति नरेन्द्र शास्त्री
Meri Sayara Yatra (Hindi Travelogue) : Jyoti Narendra Shastri
अभी ग्रीष्मकालीन अवकाश समाप्त होने के बाद भी मेरी कुछ छुटिया शेष रही थी । पति भी अनमने मन से गये थे । घर के वातावरण और गाँव की सौंधी मिट्टी मे इतना रम गये थे की उनका जाने का मन ही नही कर रहा था । उन्हे इस संसार मे अपने गाँव से प्रिय शायद ही कोई अन्य वस्तु हो जिससे वो आकर्षित होकर कह दे की ये चीज मुझे मेरे गाँव से बढ़कर लग रही है । हो भी क्यो नही कहा भी गया है " अपि स्वर्णमयी लंका न मे रोचते लक्ष्मण: । जननी जन्मभूमि च स्वर्गादपि गरियसी । हों भी कैसे जिसकी जड़े अपने संस्कारो से जुड़ी होती है उसकी सोच ऐसी ही हुआ करती है । घरवालों और उनके मित्रो ने बड़ी फजीहत करके समझा बुझा कर उनके विचलित मन को स्थिर किया । उनके एक मित्र दीपक जिसे वो प्यार से ताऊ कहा करते थे ने समझाते हुए कहा देखो नरेन्द्र शास्त्री जी माना मिट्टी से लगाव ज्यादा है किन्तु अपना पंसदीदा काम विदेश मे भी करना पड़े तो कैसी शर्म । मेरी भी काफी मान मनुहार के बाद उन्होंने इस शर्त पर हामी भरी की ठीक है बाकी की छुटिया तुम्हे सायरा मे बितानी पड़ेगी । मैने स्वीकृति मे हामी भरी , एक दिन अपने विधालय मे प्रवास करके सायरा के लिए प्रस्थान किया ।
उदयपुर से सायरा की दूरी लगभग 73 किलोमीटर है । मै जोधपुर जाने वाली बस की टिकट लेकर मै बस मे चढ़ गई । बस मे भीड़भाड़ ज्यादा थी । जितने लोग सीट पर बैठे थे उससे ज्यादा लोग तो खड़े थे । एक सज्जन महानुभाव ने मुझे खिड़की वाली सीट दे दी । खिड़की के पास से बाहर के मौसम का नजारा देखने का अपना ही अलग मजा है । यक़ीनन अगर आप खिड़की के पास बैठकर मौसम का लुत्फ़ उठा रहे हो तो आपके किराये के सभी पैसे वसूल हो जाते है । बस सर्पिली सी घाटियों मे चलने लगी थी । रोड के दोनो तरफ फैले पहाड़ प्रतीत होते थे मानो किसी एकांतवासी पथिक को गहरी कन्दारो ने आच्छादित कर दिया हो । बस मे यात्रीगण आपस मे परिचर्चा कर रहे थे की इस बार सायरा समेत समूचे मेवाड़ और सीमावर्ती मारवाड़ मे भयंकर वर्षा हुई है । कुछ जगह तो पिछले कई सालो का रिकॉर्ड टूट गया । वैसे तो उदयपुर को झीलों की नगरी कहते है ।
यहां सैकड़ो की संख्या मे आपको झीले मिल जाएगी । फीनलैंड मे भी शायद इतनी झीलों को देखना दृष्टिगोचर नही हो । पहाड़ो की तलहटी मे खाली जगह पर जल के भर जाने से यहां झीलों का निर्माण हो जाया करता है । शांत पड़ी झीलों मे हवा के टकराव से उछलता जल किसी प्रवासी के आने पर पथ निहारती प्रेयसी का आभास करवाती है । बस पहाड़ी पर जोर लगाकर चढ़ने लगी । शांत पहाड़ियों मे आती साधनों की आवाजे जैसे लगता था ये वर्षो से किसी को पुकार रही है ।
इस बार मेवाड़ मे पहली बार ऐसी भयंकर बरसात हुई थी की मानसून की टकराहट से पहले यहां के सभी बाँध ओवरफ्लो हों गये थे । आमजन की सुरक्षा के लिए कुछ बांधो के तो गेट तक खोल कर उनसे जल तक निकालना पड़ा ।
सायरा समुद्र तल से लगभग 1000 मीटर की ऊंचाई पर बसा हुआ है । राजस्थान मे अधिकतम ऊंचाई पर बसा हुआ दूसरा छोटा शहर । यहां राजस्थान की तीसरी सबसे ऊँची पर्वत चोटी जरगा है ।यहां से कुम्भलगढ़ 35 किलोमीटर । बारह ज्योतिर्लिंगो मे नांदेशमा ज्योतिर्लिंग भी इसी भूमि पर स्थित है । विश्व प्रसिद्ध रणकपुर के जैन मंदिर यहां से मात्र 20 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है ।
बस शाम तक सायरा पहुंच गई थी । शाम होते होते यहां बाजार मे एक अलग ही चहल कदमी दिखाई देने लगती है । लेकिन रात्रि आगमन की पूर्व सूचना के यहां सन्नाटा पसर जाता है । दोनो और कुम्भलगढ़ अभ्यारणय के फैले होने के कारण यहां जंगली जानवरो का खतरा प्रायः मंडरा जाता है । भेड़िया , सियार , चौसिंगा , तेंदुआ इत्यादि हिंसक जानवर यहां रात्रि विचरण करते हुए दिखाई देते है । पँशुओ के लिए तारबंदी करके एक बाड़ा बनाया जाता है अन्यथा खतरा रहता है की रात्रिकाल मे तेंदुआ आदि हिंसक जानवर पँशुओ को उठा ले जाये । रात्रि के 9 बजते ही तो यहाँ के वातावरण मे एक सन्नाटा पसर जाता है । सायरा से रणकपुर तक की 20 किलोमीटर की दूरी मे रुपण माता मंदिर से तकरीबन 16 किलोमीटर की घाटी है । केरल की साइलेंट वैली की तरह रात्रि मे चमकने वाले जुगनूओ के अलावा कुछ नजर नही आता । ना आदमी नजर आता है ना आदमी की जात । शायद लोगो के रात्रि मे ना आने का एक कारण यह भी हो की जंगली जानवर पहाड़ की ओट मे सड़क किनारे घात लगाकर बैठे रहते है जिससे आक्रमण का खतरा बना रहता है ।
मेरे सायरा आने से कुछ दिनों पहले ही पतिदेव ने मेरे आगमन की सूचना दे दी थी । उनकी स्कूल का प्रत्येक विधार्थी लालायित था । कोई विधार्थी पेन को रंगीन कागज़ की तह मे लपेट कर मेरे लिए गिफ्ट ला रहा था तो कोई विधार्थी अपने अपने स्तर पर अपनी गुल्लक की सेविंग से गिफ्ट लेकर आया था । मै मना करना चाह रही थी , थोड़ी बहुत झुंझल पतिदेव पर भी आ रही थी लेकिन कह कुछ नही सकती थी । क्या जरूरत थी बच्चों को बताने की ? ना आप इन्हे बताते ना ये इतने महंगे गिफ्ट लाते । बदले मे मैने भी उन्हे ढेर सारे तोहफ़े दिये । लेकिन मेरे तोहफ़े उनके निश्चल प्रेम रूपी तोहफो के सामने कुछ नही थे । वे महज तोहफ़े नही थे वे उनकी श्रद्धा , प्रेम और उनका गुरुभक्ति प्रदर्शित करने का एक अनूठा तरीका था । यहां के भीलो मे गुरुभक्ति का जो अनूठा समागम देखने को मिलता है वो शायद ही दुसरी कही जगह हो। वे भले ही वर्षो के शोषित , दबे , कुचले हो लेकिन गुरु के प्रति जो पवित्र समर्पण है उसके सामने गुरुभक्ति रूपी निष्ठाओ की कोई कीमत नही ।
सायरा से आठ-दस किलोमीटर दूर एक गाँव है पलासमा । वहा के पदमनाथ मंदिर का यहां की मेवाड़ी रियासत से गहरा संबंध रहा था । वैसे तो सम्पूर्ण सायरा ही मेवाड़ रियासत का अंग था किन्तु प्लासमा पर विशेष कृपा थी । यही से रास्ता जाता था राजस्थान की तीसरी सबसे ऊँची पर्वत चोटी जरगा का । पर्वत चोटी के नाम पर ही वहा बने मंदिर का नाम जरगा महादेव किया हुआ है । यह पहाड़िया बनास , डोई समेत मग्घा नदी के उद्गम स्थल के रूप मे अनुप्राणित है । मंदिर के पास होकर बहता शांत नदी का शोर और वातावरण की शांति जैसे यहां की पहाड़ियों मे सन्यासी मौन होकर तपस्या करता हुआ किसी के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा हों ।
पड़ाव का अगला चरण मग्घा गाँव था । किवंदन्तियों व लोकमान्यताओं के अनुसार इस गाँव का प्रारम्भिक नाम मगधा था जो मगध साम्राज्य से संबंधित होने के कारण था । किन्तु इस बात के कोई थोड़ प्रमाण नही होने के कारण इस बात का हम ज्यादा जिक्र नही करते । मग्घा उदयपुर की सीमा का आखिरी गाँव है । इससे आगे खेजड़ी के वे पेड़ है जिनसे कुम्भा व जोधा के मध्य आवल बावल की सन्धि के तहत निर्धारित किया गया था आम जहाँ तक है वो मेवाड़ , खेजड़ी जहाँ से शुरु है वो मारवाड । कोई एक दूसरे की सीमा पर अधिपत्य नही करेगा । ब्रिटानी सत्ता मे गुलामी के लम्बे काल खंड मे भी यहां के लोगो पर ब्रिटिश रेगुलिटिंग एक्ट के तहत अपनी सम्पदा ( वन , पेड़ पौधे ) इत्यादि पर अपना वर्चस्व मानकर उखाड़ फेकने के लिए उद्धृत हुए ।
यहां सायरा की जो पहाड़िया आपको बरसात के मौसम मे नीलगीरी की पहाड़ियों की याद दिला देगी । तमाम असुविधा होने के बावजूद जिस चीज से सायरा का आकर्षण बनता है वो है यहां की पहाड़िया । जो अरावली पर्वत श्रृंखला का एक विस्तृत भाग है । बरसात के मौसम मे यहां यहां बादल आमतौर पर पहाड़ो के स्तर से नीचे आ जाते है । सुनने मे ये भले ही अटपटा लगे किन्तु ये सत्य है । गर्मियों मे यहां कम गर्मी जबकि सर्दियों मे सर्दिया भी कम पड़ती है । चौमासे के मौसम मे यहां आपको जरूर हर जगह नाले व झरनो का शोर सुनाई देगा । रास्ते मे 2-3 महिलाये अपने सर पर भारी गठर लेकर जाती हुई दिखी । मैने उनसे सवाल किया इसमे आप क्या लेकर जा रही हों । उसमे उनके राशन की थी । यहां तो कोई सड़क ही नही दिख रही , आप इधर से किधर जा रहे हो । पगड़ंडियो के सहारे यही कोई तीन किलोमीटर दूर घर है हमारा । बाप रे ! जगह__ जगह ऐसी चढ़ाई , उस पर इतना बोझ और वो भी तीन किलोमीटर चढ़ाई मे पैदल चलना । यहां जनसंख्या अधिक विरल है । कुछ परिवार तो बिजली , पानी , सड़क इन सब मुलभुत सुविधाओं से कटे हुए है । मैने पूछा सरकारी नुमाइंदे आकर खैरियत या जरूरतों के बारे मे नही पूछते । वो बोली आते है लेकिन चुनावो के वक्त । तब तक पतिदेव के एक शिष्य उनके लिए आम लेकर आ चुके थे । हर बार कहा करते थे की मग्घा के आम वर्ल्ड क्लासिक आम है । चलो आज इन्हे ही खाकर देखते है । एक आम देखा तो सचमुच बहुत मीठा था । पास खड़ा राजू मुस्कुरा रहा था । आम से ज्यादा मिठास यहां के लोगो के दिल और जुबान मे थी । अच्छा चलते है । तभी बच्चे बोले मेम " वसंत ऋतु मे आना , जब ऋतुराज अपने चरम पर होगा और यहां आपको हजारों की संख्या मे खिलखिलाते पलास के फूल मिलेंगे ।