मेरी मृत्यु (अंग्रेज़ी कहानी) : खुशवन्त सिंह

Meri Mrityu (English Story in Hindi) : Khushwant Singh

मैं बुखार से बिस्तर में पड़ा हूँ।

बुखार ज़्यादा नहीं है।

दरअसल परेशानी की कोई बात नहीं है, क्योंकि मैं अकेला अपनी देखभाल के लिए छोड़ दिया गया हूँ।

मैं सोचता हूँ कि अगर टेम्प्रेचर एकदम ऊँचा चढ़ गया तो क्या होगा ?

मैं मर सकता हूँ। मेरे दोस्तों पर कया बीतेगी ?

मेरे तो दोस्त भी बहुत हैं और वे मुझे चाहते भी हैं। मैं सोचता हूँ कि अखबारवाले मेरे लिए क्या छापेंगे ?

वे मुझे दर गुज़र नहीं कर सकते ट्रिब्यून तो शायद पहले पन्‍ने पर ही यह खबर छापेगा और हो सकता है, उसके साथ छोटा-सा फोटो भी छापे ।

इसका शीर्षक होगा : 'सरदार खुशवंत सिंह नहीं रहेट-और इसके नीचे छोटे टाइप में लिखा होगा- ।

हमें यह सूचित करते हुए खेद है कि कल शाम 6 बजे सरदार खुशवंत सिंह की अचानक मृत्यु हो गई।

वे अपने पीछे जवान विधवा, दो छोटे बच्चे और मित्रों तथा प्रशंसकों की बहुत बड़ी जमात को शोक मनाने के लिए छोड़ गये हैं।

ज्ञात हो कि सरदार साहब पाँच साल पहले अपने शहर दिल्‍ली से लाहौर बस जाने के लिए आये थे। इस बीच उन्होंने कोर्ट में बड़ी उन्‍नि की और राजनीति में भी नाम कमाया। सारे सूबे में उनकी कमी महसूस की .जायेगी।

उनके निवास पर जो लोग शोक व्यक्त करने आये, उनमें प्रधानमन्त्री के सचिव, चीफ़ जस्टिस के सचिव, कई मन्त्री और हाईकोर्ट के जज शामिल हैं ।

चीफ़ जस्टिस महोदय ने एक प्रेस वक्तव्य में कहा : 'इस व्यक्ति का देहान्त हमारा प्रदेश महसूस कर रहा है।

मृत्यु के क्रूर हाथों ने एक उदीयमान प्रवक्ता हमसे छीन लिया है।'

पृष्ठ के नीचे लिखा होगा : “आज 10 बजे उनका दाह-संस्कार सम्पन्न किया जायेगा ।

मुझे अपने लिए और अपने मित्रों के लिए शोक महसूस होता है। मैं आँखों से निकलते आँसुओं को रोक नहीं पाता जो मेरी मौत पर रोने के लिए व्यग्र हो उठे हैं।

लेकिन मुझे यह सोचकर खुशी भी होती है कि इतने ज़्यादा लोग मेरा मातम करेंगे। इसलिए मैं फैसला करता हूँ कि मर ही जाऊँ-ज़रा मज़ा करने के लिए।

शाम को, प्रेस के लिए काफ़ी वक्‍त छोड़कर कि उन्हें यह खबर मिल जाये, मैं प्राण त्याग देता हूँ। फिर अपनी लाश में से बाहर निकलकर मैं दरवाजे पर लगी ठंडी पत्थर की सीढ़ियों पर मज़ा लेने के लिए बैठ जाता हूँ।

सवेरे का अखबार मुझे पत्नी से पहले मिल जाता है। इस पर झगड़ा होने का सवाल नहीं है, क्योंकि मैं पहले ही नीचे आ गया हूँ, और यूँ भी इस वक्‍त वह मेरी लाश के पास घूम फिर रही होगी ट्रिब्यून ने तो धोखा दिया।

तीसरे पेज के एकदम नीचे पहले कॉलम में मृत व्यक्तियों की सूची में रिटायर्ड अफ़सरों के नामों के साथ मेरा नाम भी छाप दिया है।

मुझे कोफ़्त होती है। यह ज़रूर उस विशेष संवाददाता शफ़ी का काम होगा। वह मुझसे चिढ़ता था। लेकिन मैंने नहीं सोचा था कि वह इतना नीचे गिर जायेगा कि मेरे मरने पर भी मेरा नाम अच्छे ढंग से छापने से परहेज़ करेगा।

खैर, जो हो, वह सारे सूबे से मेरे चाहनेवालों के शोकोद्गार छापने के लिए ज़रूर मजबूर होगा। उनकी तो जैसे झड़ी लग जायेगी। मेरे दोस्त यह कमी पूरी कर देंगे।

हाई कोर्ट में अखबार सवेरा होते ही डाल दिया जाता है। मेरे वकील दोस्त क़ादिर के घर में भी सूरज निकलने से पहले ही पहुँच जाता है। कादिर के घर के लोग जल्दी उठनेवालों में नहीं हैं। दरअसल 9 बजे से पहले कोई भी बाहर नहीं निकलता । लेकिन कादिर उसूलों का पक्का है, इसलिए अखबार सवेरे जल्दी ही आना चाहिये, भले ही उस पर नज़र न डाली जाये।

हमेशा की तरह कादिर 9 बजे तक बिस्तर से नहीं निकला ।

रात को उसने बहुत देर तक काम किया था।

उसकी बीवी भी सोने की शौकीन थी।

जागने पर अखबार ट्रे में रखकर उसके सामने लाया गया जिसके साथ एक गिलास गर्म पानी, जिसमें ज़रा-सा नीबू पड़ा हुआ था, रखा था।

कादिर धीरे-धीरे सिगरेट के कश लेते हुए पानी पीता रहा। पेट साफ़ करने के लिए यह काम ज़रूरी होता था। उसने लेटे-लेटे ही सुर्खियों पर नज़र मार ली थी । पूरी पढ़ाई तब शुरू होती थी जब सिगरेट और नीबू-पानी का असर दिखाई देने लगता था।

मेरे साथ क्या हुआ, इसका ज्ञान उसे शौचालय में होना था।

हाजत होते ही कादिर एक हाथ में अखबार पकड़े और निचले होंठों में सिगरेट दबाये बाथरूम में घुसा ।

आराम से बैठकर उसने अखबार पढ़ना शुरू किया और कुछ देर बाद कम महत्त्व की खबरों पर उसकी नज़र गई । जब उसने पेज 3 के कॉलम का यह हिस्सा देखा, तो क्षण भर के लिए उसने सिगरेट पीना बन्द कर दिया, बहुत हीं कम समय था यह।

क्या वह एकदम उठे और बीवी को आवाज़ दे ? नहीं, उसने तय किया कि यह सही नहीं होगा। कादिर तर्कवादी था। वह इस औरत से शादी करने के बाद और भी ऐसा हो गया था, क्योंकि उसकी बीवी भावनाओं और चीखने-पुकारने का पुलिंदा थी।

यह बेचारा मर ही गया लेकिन वह कुछ कर नहीं सकता था। वह जानता था कि बीवी यह सुनते ही दहाड़ मारकर रोना शुरू कर देगी । इसलिए बड़ी सावधानी से उसे यह बात बतानी थी-जैसे कोई मुकदमा हार गया हो ।

कादिर अपनी बीवी को अच्छी तरह जानता था। उसने मामूली ढंग से यह बात उसे बताई लेकिन सुनते ही उसने रोना शुरू कर दिया। यह सुनकर उनकी दस साल की बेटी वहाँ दौड़ती हुई आई। उसने माँ को ध्यान से देखा और खुद भी रोना शुरू कर दिया। कादिर ने तय किया कि उसे कड़ाई से काम लेना होगा।

'तुमने यह इस तरह शोर मचाना क्‍यों शुरू कर दिया ? उसने सख्ती से सवाल किया, 'क्या इस तरह रोने से वह ज़िन्दा हो उठेगा ?'

बीवी जानती थी कि शौहर से बहस करना बेकार है। तर्क में वह हमेशा जीत जाता था।

“मेरा खयाल है, हमें फौरन उनके यहाँ जाना चाहिये। उनकी बीवी की हालत बुरी होगी ।'

कादिर ने कंधे बिचकाकर कहा, "मैं तो शायद जा नहीं सकूँगा। मैं उसकी बीवी नहीं, विधवा-को ज़रूर ढाढ़स बँधाना चाहूँगा, लेकिन मेरा पहला फ़र्ज अपने मुवक्किलों के लिए बनता है। मुझे आधे घंटे में कचहरी पहुँचना ही है।'

कादिर दिनभर कचहरी में रहा और उसका परिवार भी घर पर ही बना रहा।

शहर के बड़े वाले पार्क से थोड़ी ही दूर मेरा दूसरा दोस्त खोसला रहता है। यह

उच्च वर्ग के लोगों के रहने की जगह है और उसके परिवार में पत्नी, तीन बेटे और एक बेटी है।

वह जज है और नौकरशाही में उसका ऊँचा स्थान है। खोसला सुबह जल्दी उठने वालों में है।

उसे जल्दी उठना पड़ता है क्योंकि यही वक्‍त है जिसे वह अपना कह सकता है। दिन में तो वह कचहरी में रहता है।

शाम को वह टेनिस खेलता है-और फिर कुछ समय उसे बच्चों के साथ तथा पत्नी से बातचीत करने में बिताना पड़ता है। उससे मिलने वाले भी बहुत आते हैं, क्योंकि वह काफ़ी लोकप्रिय है, और लोकप्रियता उसे पसन्द भी है।

फिर वह महत्त्वाकांक्षी भी है। बचपन में वह अपने को बहुत होशियार समझता था। युवा होते ही उसके सिर के बाल गिरने शुरू हो गये और सिर गंजा हो गया। उसने सोचा कि यह उसके चतुर होने का ही परिणाम है। हो सकता है वह जीनियस भी हो।

वह शीशे में अपनी खोपड़ी को देखता और सोचता कि भाग्य ने उसे ज़रूर किसी बड़े काम के लिए बनाया है। इसलिए वह खूब मेहनत करता । उसने बहुत से स्कॉलरशिप प्राप्त किये और सिविल सर्विस में सर्वोपरि स्थान हासिल करके अपनी शिक्षा पूर्ण की। देश की सबसे कठिन प्रतियोगी परीक्षा में सबसे आगे रहकर उसने अपने आत्मविश्वास को प्रमाणित कर दिया। कई साल तक वह अफ़सरी जीवन का सुख और संतोष लूटता रहा । वह कोशिश भी करता कि लोग उसे देखकर कहें कि यह कितना सफल व्यक्ति है।

कुछ वर्ष बाद उसका यह संतोष समाप्त होने लगा। जब-जब वह अपने सिर पर बचे-खुचे थोड़े-से बालों पर हाथ फेरता, तो उसे लगता कि अभी तो उसे बहुत कुछ प्राप्त करना है। उस जैसे अफ़सर तो देश में सैकड़ों हैं। इन सबको 'सफल व्यक्ति” कहा जाता है। इसलिए यह उसके लिए काफ़ी नहीं है। वह कुछ और करेगा-वह लिखेगा, लेखक बनेगा-वह जानता था कि वह लिख सकता है। यह तो उसके बड़े सिर से ही पता चलता है। इसलिए खोसला ने लिखना शुरू किया। अच्छा लिखने के लिए उसने पहले पढ़ना शुरू किया । उसने बहुत-सी किताबें खरीद लीं और काम पर जाने से पहले कई घंटे उन्हें पढ़ने लगा।

एक दिन सवेरे खोसला का मूड बना कि कुछ लिखा जाये। उसने अपने लिए एक कप चाय बनाई और आरामकुर्सी पर जमकर बैठ गया। कलम मुँह में दबाकर सोचने लगा कि क्‍या लिखा जाये। कुछ समझ में ही नहीं आया तो उसने डायरी लिखने का फैसला किया । पिछले दिन वह एक महत्त्वपूर्ण मुकदमे की कार्यवाही में भाग लेता रहा था। यह कई दिन तक चलने वाला था। कमरा खचाखच भरा था और सब लोग उसकी ही तरफ़ देख रहे थे। यह अच्छा विषय था, इसलिए उसने उस पर लिखना शुरू किया।

नौकर अखबार लेकर आया तो उसकी खटखट से खोसला को कुछ परेशानी हुई। उसने अखबार खोला और देखने लगा कि आम ज़िन्दगी में कहाँ क्या हुआ है।

खोसला की रुचि देश और दुनिया की खबरों में ज़्यादा न होकर समाज की खबरों में थी-यानी किसकी शादी हुई, कौन पैदा हुआ और कौन मर गया । इसलिए उसने पहले तीसरा पन्‍ना खोला और पहले कॉलम पर नज़र डाली, तो वह एकदम चौकन्ना हो उठा।

उसने कलम नोट बुक पर रखी, और जाग उठने की खखार लेकर पत्नी को यह सूचना दी। पत्नी ने अँगड़ाई ली और आँखें फैलाकर उसकी तरफ़ देखा।

फिर बोली, 'मेरा खयाल है, आज तुम कचहरी की छुट्टी कर दोगे ?'

“हाई कोर्ट इस तरह किसी भी बात पर छुट्टी नहीं करता। मुझे तो जाना ही पड़ेगा । अगर वक्त हुआ तो रास्ते में वहाँ हो लूँगा-नहीं तो इतवार को चलेंगे इस तरह खोसला भी नहीं आया इसी तरह और भी बहुत से लोग कहीं-न-कहीं , अटक गये।

दस बजे के करीब मेरे फ्लैट के सामने की खुली जगह में कुछ लोग जमा हो गये। ज़्यादातर ये ऐसे लोग थे जिनके आने की मुझे उम्मीद नहीं थी। कुछ वकील थे जो काले कोट पहने ही चले आये थे और कुछ आम राहगीर थे जो यह देखने के लिए रुक गये थे कि यहाँ क्या हो रहा है।

मेरे दो मित्र भी थे लेकिन वे इन सबसे अलग खड़े थे ।

इनमें एक आदमी काफ़ी लम्बा और दुबला-सा था, जो कलाकार नज़र आता था। वह एक हाथ से सिगरेट थामे था और दूसरे से अपने लम्बे बालों को सिर के पीछे करता रहता था। वह दरअसल लेखक था और दाह-संस्कार में शामिल होने में विश्वास नहीं करता था।

लेकिन यह सोचकर आ गया था कि सामाजिकता के नाते कुछ तो दिखाना ही पड़ेगा । दरअसल यह सब उसे पसन्द ही नहीं था। उसे लगता था कि लाश से कीटाणु फैल सकते हैं-इसलिए वह लगातार सिगरेट फूँक रहा था और उसके धुएँ की एक दीवार-सी बनाकर अपनी रक्षा कर रहा था।

दूसरा दोस्त कम्युनिस्ट था-छोटे क़द का दुबला-सा आदमी, घुंघराले बाल और बाज़ जैसी नज़र। उसके भीतर छिपे ज्वालामुखी का कोई निशान उसके शरीर से नहीं मिलता था। वह दुनिया की हर बात को मार्क्सवादी नज़रिये से देखता था और भावनाओं का उसके जीवन में कोई स्थान नहीं था। इसलिए मृत्यु जैसी घटनाओं का उसके लिए महत्त्व नहीं था, उसके लिए उद्देश्य ज़्यादा महत्त्वपूर्ण था। वह लेखक से बात कर रहा था।

आप कहाँ तक इनके साथ जायेंगे ?”

'मैं कॉफ़ी हाउस से घर चला जाऊँगा। आप तो आखिर तक जा रहे हैं ?

'अरे नहीं”, कम्युनिस्ट ने ज़ोर देकर कहा। 'दरअसल मुझे दस बजे एक मीटिंग में जाना था और मेरा खयाल था कि साढ़े नौ बजे तक यहाँ से निबट जाऊँगा-लेकिन हमारे देश में वक्‍त की कीमत जानता कौन है ?

अभी तो मैं पार्टी के दफ़्तर में जा रहा हूँ, आपको कॉफ़ी हाउस में साढ़े ग्यारह पर मिल जाऊँगा और हाँ, अगर मौका मिले तो शव की गाड़ी के ड्राइवर से पूछना कि क्‍या वह ताँगा यूनियन का मेम्बर है। अच्छा ?

थोड़ी देर बाद एक काली-सी शव ले जाने वाली गाड़ी आई, जिसे एक चार हड्डियोंवाला दुबला-पतला भूरे रंग का घोड़ा खींच रहा था, और घर के दरवाजे पर आकर रुक गई। घोड़ा और उसका मालिक अवसर की गम्भीरता से पूरी तरह बेखबर थे।

ड्राइवर आराम से बैठा पान चबा रहा था और भीड़ को देख रहा था। वह सोच रहा. था कि इन लोगों से कितना पैसा वसूला जा सकता है।

तभी अचानक घोड़े ने पेशाब करना शुरू कर दिया जिसकी तेज़ धार से बचने के लिए, जो ईंटों के फ़र्श से उछल-उछल कर चारों तरफ़ फैल रहा था, लोग इधर-उधर भागने-दौड़ने लगे।

भीड़ को ज़्यादा इन्तज़ार नहीं करना पड़ा । मेरा शरीर सफ़ेद कपड़े में लपेटकर बाहर लाया गया और गाड़ी में रख दिया गया। उस पर फूल डाले गये। अब जुलूस चलने के लिए तैयार था।

लेकिन चलने से पहले मेरा एक और दोस्त साइकिल पर वहाँ आ पहुँचा। यह कुछ साँवला और गदबदा-सा था। साइकिल के कैरियर पर कई किताबें रखी थीं और शक्ल-सूरत से यह आदमी कोई विद्वान प्रोफ़ेसर लगता था । गाड़ी को देखकर वह उतर पड़ा।

मृत व्यक्ति के प्रति उसके मन में आदर था और उसे व्यक्त भी करना चाहता था। उसने साइकिल भीतर हॉल में रखी, उसका ताला लगाया और भीड़ में शामिल हो गया। जब मेरी पत्नी मुझे अन्तिम विदा देने के लिए नीचे उतरकर आई, तो वह उसकी दशा देखकर द्रवित हो उठा। उसने अपनी जेब से एक छोटी-सी किताब निकाली और उसका एक पृष्ठ खोला। फिर लोगों के बीच से होता हुआ वह पत्नी की ओर बढ़ा। आँखों में आँसू भरकर उसे देखा और यह किताब उसे पकड़ा दी।

'मैं आपके लिए गीता लाया हूँ। इससे आपको धीरज प्राप्त होगा / यह कहते हुए वह फफककर रोने को हुआ और आँसू रोकता हुआ पीछे हट गया।

फिर उसने एक “आह” भरकर जैसे अपने आपसे कहा, 'यह मनुष्य जीवन का अन्त है। यही सत्य है।

उसे धारणाओं के रूप में सोचना और बात करना पसन्द था-लेकिन ये धारणाएँ गम्भीर होती थीं और मौलिक विचार की तरह नई और ताज़ी लगती थीं।

'बुलबुले की तरह,' वह अपने से बोला, 'बुलबुले की तरह क्षणिक है हमारा जीवन ।'

लेकिन कोई एकदम मरकर गायब नहीं हो जाता। पदार्थ नष्ट नहीं होता, वह केवल रूप बदलता है। गीता में यह बात बड़े खूबसूरत ढंग से कही है-

जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्र उतारकर नये वस्त्र पहनता है...उसी प्रकार यह आत्मा...” इत्यादि।

प्रोफ़ेसर विचारों में डूब रहा था। वह सोच रहा था कि अब उसके मृत मित्र ने क्‍या कपड़े पहन लिये होंगे।

उसके पैरों से कुछ टकराया तो उसके ये विचार भंग हुए। एक कुत्ते का पिल्ला वहाँ आ गया था और उसके पाजामे और टाँगों को चाटता ऊपर देख रहा था। प्रोफ़ेसर दयालु प्राणी था, वह नीचे झुका और पिल्ले को दुलारने लगा। पिल्ले ने उसका हाथ चाटना शुरू किया।

प्रोफ़ेसर का दिमाग़ परेशानी से कुछ सोच रहा था । उसने शव पर नज़र डाली और फिर इस गुलगुले पिल्‍ले को देखा, यह भी ईश्वर की सृष्टि का अंग था।

“जिस तरह मनुष्य पुराने कपड़े उतारकर दूसरे पहन लेता है...उसी प्रकार . आत्मा... !'

नहीं, नहीं, उसने अपने से कहा ऐसे अनोखे विचार, उसे नहीं सोचना चाहिये । लेकिन वह अपने मस्तिष्क को रोक नहीं पा रहा था। यह असम्भव नहीं है। गीता भी यही कहती है। यह सोचकर वह फिर नीचे झुका और पिल्ले को और भी ज़्यादा प्यार करने लगा।

जुलूस चल रहा था। मैं शीशे की कोठरी में बन्द परेशानी महसूस कर रहा था। मेरे पीछे आधा दर्जन लोग चल रहे थे। सब नदी की तरफ़ जा रहे थे।

जब तक यह मुख्य सड़क से गुज़रा, मैं स्वस्थ महसूस करने लगा था। कुछ _ वकील हाई कोर्ट से निकल रहे थे। मेरा लेखक मित्र कॉफ़ी हाउस से अलग हो गया था; वह अभी भी सिगरेट पी रहा था। कॉलेज आने पर प्रोफ़ेसर ने मुझ पर आखिरी नज़र डाली, कुछ देर मेरी तरफ़ देखता रहा, फिर तेज़ी से क्लास में घुस गया। बाकी छह-सात लोग कचहरी में जा घुसे ।

मुझे अपने ऊपर तरस आने लगा। मुझसे कम महत्त्व के लोगों की अरथी में कहीं ज़्यादा भीड़ होती थी। वह भिखारी जब मरा था, तब उसे भी दो भंगी गाड़ी पर रखकर ले गये थे। अब मेरे साथ एक ही आदमी, गाड़ी का ड्राइवर था, जो यह नहीं जानता था कि वह कितने लोकप्रिय व्यक्ति को उसकी अन्तिम यात्रा पर लिये जा रहा है।

और घोड़ा तो बस काबू से बाहर ही हुआ जा रहा था।

श्मशान भूमि के रास्ते पर तरह-तरह की बुरी दुर्गन्‍्ध सूँघने को मिलती है। इसकी चरम सीमा तब आती है जब यह मुख्य मार्ग से निकलकर एक पतली-सी गली के रूप में, जिसकी बगल से शहर का सबसे गंदा नाला बहता है, घाट का रुख करती है। नाले में काला, गंदा पानी भरा होता है जिसमें हमेशा बुलबुले उठते रहते हैं।

मेरा सौभाग्य था कि मुझे अपनी मृत्यु के बाद मिलने वाले सम्मान की गलतफ़हमी पर चिन्तन करने का थोड़ा-सा समय प्राप्त हुआ। मुख्य मार्ग से जहाँ गली निकलती थी, वहाँ ड्राइवर ने कुछ देर आराम करने के लिए एक पीपल के पेड़ के नीचे गाड़ी खड़ी कर ली। इस पेड़ के नीचे एक ताँगा-स्टैंड है जहाँ घोड़ों के पानी पीने के लिए एक नाँद भी है। घोड़ा पानी पीने चल दिया और ड्राइवर नीचे उतरकर ताँगेवालों से सिगरेट जलाने के लिए माचिस माँगने चल पड़ा।

कुछ देर बाद ताँगेवाले मेरी गाड़ी के चारों तरफ़ घिर आये और भीतर ताक-झाँक करने लगे। एक बोला, 'कोई पैसेवाला लगता है। लेकिन साथ में तो कोई भी नहीं है।'

दूसरा बोला, 'शायद यह भी अंग्रेज़ी रिवाज़ है। वहाँ शव के साथ कोई और नहीं जाता होगा ।

अब तक मैं बहुत परेशान हो उठा था। अब मेरे सामने तीन रास्ते थे। एक तो यही कि श्मशान भूमि में ही जाकर आग में जल जाऊँ, जिसके बाद शायद कोई बेहतर जन्म ले सकूँ, हालाँकि सम्भावना यही है कि ऐसा कुछ नहीं होगा और मैं शून्य में विलीन हो जाऊँगा।

दूसरा रास्ता यह है जो इसी सड़क से दाहिनी तरफ़ मुड़ जाता है। यह शहर का वह हिस्सा है जहाँ रंडियाँ और बदनाम लोग ही रहते हैं। ये शराब पीते हैं, जुआ खेलते हैं, रंडीबाज़ी करते हैं। यह अपनी तरह की अलग दुनिया है जिसमें इंद्रियों का सुख ज़्यादा-से-ज़्यादा लूटने की कोशिश की जाती है।

तीसरा रास्ता यह है कि वापस लौट जाऊँ। लेकिन इसका फ़ैसला करना मुझे मुश्किल लगा। ऐसी स्थितियों में सिक्का उछालकर देखना अक्सर काम आता है।

इसलिए मैंने सिक्का उछालने का फैसला किया।

चित पड़ा तो मैं दूसरी दुनिया की तरफ़ चल पड़गा और पट पड़ा तो इन इंद्रिय-भोग करने वालों में शामिल हो जाऊँगा और अगर सिक्का ना चित पड़ा और न पट और उठकर सीधा खड़ा हो गया, तो मैं अपनी पुरानी दुनिया में वापस लौट जाऊँगा, जिसमें न उत्साह है और न ज़िन्द्रा रहने की चाहत।

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