Meri Jivan-Yatra (6th Khand) : Rahul Sankrityayan
मेरी जीवन-यात्रा (षष्ठ खंड) : राहुल सांकृत्यायन
किसानों-मजूरों के लिए (1938-44)
(अध्याय - 1) परिस्थितियों का अध्ययन
कलकत्ता में मुझे 10 दिन रहना पड़ा। पहिले ही दिन (5 अक्टूबर) पत्र संवाददाता से कह दिया था कि मैं अब क्रियात्मक राजनीति में भाग लेने जा रहा हूँ। मैंने ग्यारह वर्षों से राजनीतिक क्षेत्र का छोड़ रखा था। यह अच्छा हुआ, जो कि मैंने अध्ययन, अनुसंधान और पर्यटन में इतना समय देकर अपनी एक बड़ी लालसा की पूर्ति कर ली। मैं पहिले भी राजनीति में अपने हृदय की पीड़ा दूर करने आया था – गरीबी और अपमान को मैं भारी अभिशाप समझता था। असहयोग के समय भी मैं जिस स्वराज्य की कल्पना करता था, वह काले सेठों और बाबुओं का राज नहीं था, वह राज था किसानों और मजदूरों का, क्योंकि तभी गरीबी और अपमान से जनता मुक्त हो सकती थी। अब तो देश-विदेश देखने के बाद और भी पीड़ा का अनुभव करता था। मैंने भारत जैसी गरीबी कहीं नहीं देखी। मार्क्सवाद के अध्ययन ने मुझे बतला दिया कि क्रांति करने वाले हाथ हैं, यही मजदूर-किसान; क्योंकि उन्हीं को सारी यातनाएँ सहनी पड़ती हैं, और उन्हीं के पास लड़ाई में हारने के लिए सम्पत्ति नहीं है। लेकिन यह सब रहते हुए जब तक वह अपना मजबूत संगठन तैयार नहीं करते, तब तक क्रांति करने की शक्ति उनमें नहीं आ सकती। उनका संगठन भी तभी मजबूत हो सकता है, जबकि अपने रोज-बे-रोज के कष्टों को हटाने के लिए वह संघर्ष करें। उनके इस संघर्ष के संचालन के लिए कोई सेना-संचालक मंडली होनी चाहिए और मंडली ऐसी होनी चाहिए जिसके सदस्य दूरदर्शी हों, अन्तिम त्याग इसीलिए सफल हुआ कि यहाँ बोलशेविक पार्टी – कम्युनिस्ट पार्टी मजदूरों-किसानों के संघर्ष का संचालन कर रही थी। मुझे मालूम हुआ था कि हिन्दुस्तान में भी साम्यवादी हैं, लेकिन अभी तक मुझे उनके सम्पर्क में आने का मौका नहीं मिला था। इस बात का निर्णय 21 साल पहिले ही हो गया था कि कौन-सा पथ मेरा अपना पथ होगा। सोवियत क्रान्ति की खबरों से मुझे सोमनाथ लाहिड़ी का पता लगा। मैंने उससे बात की। उन्होंने बतलाया कि बिहार में अभी हमारी पार्टी नहीं बनी है, वहाँ हमारे साथी कांग्रेस-सोशलिस्ट पार्टी के साथ काम करते हैं, आप भी उन्हीं के साथ काम करें। कांग्रेस-सोशलिस्ट पार्टी से मैं कुछ भड़क-सा गया था। जिस वक्त मैं शिगर्चे में था, उस वक्त मुझे जनता का कोई अंक मिला था, जिसमें मसानी का एक लेख था। लेख में सोवियत को बहुत बुरा-भला कहा गया था। सोवियत मेरे लिए साम्यवाद का साकार रूप था, सोवियत की बुराई करके जो अपने को साम्यवादी या समाजवादी कहे, उसे मैं वंचक या बेवकूफ छोड़कर और कुछ नहीं समझ सकता था। लाहिड़ी ने बतलाया कि कांग्रेस-सोशलिस्ट पार्टी में सभी मसानी की तरह के नहीं हैं।
मैं 16 अक्टूबर को पटना चला आया। तिब्बत से आई चीजों की देख-भाल की और आमदनी-खर्च का हिसाब सोसाइटी के हाथ में दे दिया। यहीं मालूम हुआ कि छपरा में राजेन्द्र कालेज स्थापित हो गया है। 23 तारीख को मैं छपरा पहुँचा। पं. गोरखनाथ त्रिवेदी का घर सदा से मेरा अपना घर रहा है, अबकी बार भी वहीं ठहरा। अगले दिन राजेन्द्र कालेज देखने गया, उसकी स्थिति और भविष्य को देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। पण्डित महेन्द्रनाथ शास्त्री सत्याग्रह के समय से ही मेरे परिचित थे, उनसे मालूम हुआ कि बाबू नारायण प्रसाद ने गोरया कोठी में अपने परिवार के कई घरों के खेतों को मिलाकर पंचायती खेती शुरू की है। वर्तमान शासन-व्यवस्था में पंचायती खेती संभव नहीं है, यह मैं समझता था, किन्तु मैं यह भी जानता था कि इस तरह के प्रबन्ध में ही साइंस के कितने ही आविष्कारों का इस्तेमाल हो सकता है। 27 तारीख को मैं छपरा से गोरया कोठी पहुँच गया। नारायण बाबू घर पर ही थे। उन्होंने अपने खेतों को दिखलाया, अपनी योजना बतलाई। इस पंचायती खेती में चार परिवार (29 व्यक्ति) शामिल हुए थे, और उनके पास 97 बीघे (प्रायः 65 एकड़) जमीन थी। खेती अभी दस ही महीने पहिले शुरू हुई थी, लेकिन इतने में ही लोगों को फायदा मालूम हो गया था। मैंने ‘पंचायती खेती का एक प्रयास’ के नाम से एक विस्तृत लेख लिखा। 2 नवम्बर तक महाराजगंज, अतरसन, एकमा, बरेजा, माँझी आदि गाँवों में घूमा और वहाँ की राजनीतिक अवस्था का अध्ययन करता रहा। बनारस, प्रयाग भी गया और वहाँ के कालेज के छात्रों के सामने व्याख्यान दिए। जायसवाल जी के देहांत के बाद मेरी बड़ी इच्छा थी कि उनका एक जीवन लिख डालूँ, उनके कागज-पत्रों से मैंने कितनी बातें नोट भी की थीं। अबकी बार पटना में भी कुछ मसाला जमा किया था। उसी सिलसिले में मैं 24 नवम्बर को मिर्जापुर गया, वहाँ जायसवाल-परिवार, जायसवाल के बाल शिक्षक नाऊ गुरू तथा दूसरे परिचितों से पूछकर बहुत-सी बातें जमा कीं। लेकिन 29 तारीख को गया से पटना जाते वक्त सारी सामग्री चमड़े के बैग में रखी रेल पर ही छूट गई, फिर मुझे उत्साह नहीं रह गया कि उतनी मेहनत करूँ।
25 नवम्बर को डालमिया नगर वहाँ के मजदूरों की अवस्था देखने गया। सड़क के पास मेहतरों की झोपड़ियाँ थीं। झोपड़ियाँ भी कहना मुश्किल था, क्योंकि 4 हाथ लम्बी 3 हाथ चौड़ी इन टट्टियों पर टीन, छप्पर या टाट की छोटी-छोटी छतें थीं, बरसात का पानी शायद ही वह रोकतीं। फर्श भी बहुत नीचा था। मैंने एक स्त्री से पूछा – “बरसात में कहाँ रहती हो?” स्त्री ने कुछ अभिमान के साथ कहा – “खटिया पर बाबू!” शायद उसकी पड़ोसिनों के पास खटिया भी न हो, इसलिए उसे खटिया पर अभिमान था। बरसात में सचमुच ही वहाँ पानी भर जाता था, इसलिए खटिया बिना बैठने का ठाँव कहाँ था? यह धर्ममूर्ति देशभक्त सेठ के नगर के भंगी थे। जिन गरीबों की कमाई से करोड़ों का लाभ हो, उनकी यह हालत! डालमिया नगर के बाबू लोगों का एक क्लब है। साहित्यिक रचनाओं और अनुसन्धानों के कारण मेरा नाम क्लब वालों को मालूम था। उन्होंने शाम को मानपत्र देने का आयोजन किया। वह इसके लिए किसी दूसरी जगह सभा करना चाहते थे, लेकिन सेठजी ने बड़ी उदारता दिखाते हुए कहा – यहाँ अपने ही हाते में मानपत्र दो, मैं भी शामिल होऊँगा। मानपत्र दिया गया। मैंने ईरान और तिब्बत के बारे में भी कुछ-कुछ कहा। लोगों ने कहा कि रूस के बारे में भी कुछ बतलाइए। मैं चुप था, और दो-तीन बार वह आग्रह जब दुहराया गया तो सेठजी ने कहा – यहाँ रूस के बारे में कुछ न कहें। मैंने वहाँ कुछ न कहा। हाँ, पीछे पैक्टरी के मजदूरों की सभा हुई, उसमें मैंने रूस की बातें बतलाईं। गया जिले के किसान तरुणों का देव में शिक्षण-शिविर चल रहा था, वहाँ मुझे भी कुछ व्याख्यान देने थे। मैं डालमिया नगर से वहाँ चला गया।
किसान सम्मेलन
उस साल बिहार प्रान्तीय किसान सम्मेलन ओइनी (दरभंगा) में हो रहा था। मैं भी वहाँ गया। श्री कार्यानन्द शर्मा सभापति थे। असहयोग के जमाने से हम दोनों एक-दूसरे को जानते थे। कार्यानन्द जी ने बड़ी गरीबी से पढ़ा था। कालेज में पढ़ रहे थे, उसी वक्त स्वतन्त्रता के आन्दोलन ने जोर पकड़ा, और कालेज की पढ़ाई छोड़कर वह रणक्षेत्र में कूद पड़े। वह 18 वर्षों से बराबर उसी लगन से काम करते रहे। स्वराज का अर्थ वह गरीबी और अपमान का दूर होना समझते थे, धीरे-धीरे उनके तजर्बों ने बतला दिया कि निराकार स्वराज से काम नहीं चलेगा, किसानों की साकार तकलीफों को दूर करना पड़ेगा। वह किसानों की कई लड़ाइयाँ लड़ चुके थे। आज 30 हजार किसान अपने वीर सभापति के भाषण को बड़ी श्रद्धा और उत्साह के साथ सुन रहे थे। मैंने अपना व्याख्यान छपरा की भाषा (मल्लिका) में दिया था। यद्यपि यहाँ के किसानों की भाषा मैथिली है, लेकिन वह हिन्दी की अपेक्षा मल्लिका को ज्यादा समझते हैं। ओइनी से पूसा 6 मील दूर है। 4 दिसम्बर को कई साथियों के साथ मैं वहाँ के फर्म (कृषि) को देखने गया। भूकंप के बाद यहाँ की बहुत-सी संस्थाएँ दिल्ली चली गईं, लेकिन जो कुछ देखा, उससे यही मालूम हुआ कि यहाँ के सारे साइंस-संबंधी अनुसंधान किसानों के लिए नहीं, बल्कि कागजों पर छाप-छापकर सरकार की वाहवाही लेने के लिए हैं।
मुझे यह भी पता लगा कि ‘किसानों की जय’ का नारा जिन लोगों ने लगाकर किसानों से वोट लिये, वही कांग्रेसी मंत्रिमंडल में पहुँचकर अब कोई बात करने से जमींदारों की तकलीफों पर लेक्चर देने लगते हैं। ओइनी से मैं जीरादेई (5-6 दिसम्बर) गया। राजेन्द्र बाबू आजकल घर ही पर थे, उनके साथ देश-विदेश की राजनीति और खास करके किसानों की समस्या पर बात होती रही। मैंने यह भी कहा कि सरकारी फार्मों से नए ढंग की खेती का उतना प्रचार नहीं हो सकता, जितना कि पंचायती खेती में उन तरीकों को बरतने से होगा। वहाँ से लखनऊ, गोरखपुर, प्रयाग आदि घूमते-घूमते 29 दिसम्बर को मुजफ्फरपुर पहुँचा। उस वक्त प्रान्तीय कांग्रेस-सोशलिस्ट पार्टी का वार्षिक अधिवेशन हो रहा था। बिहार के सभी जिलों के कार्यकर्ता आए थे। इस वक्त यह भी देखा कि मेरे व्याख्यानों को नोट करने के लिए एक डिप्टी मजिस्ट्रेट खास तौर से आए हुए हैं। राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए यह भय की नहीं, सम्मान की चीज है। जयप्रकाश बाबू और दूसरे साथियों ने मुझे पार्टी का सदस्य होने के लिए कहा। मैंने मसानी के लेख का जिक्र करके कहा कि आपकी पार्टी यदि सोवियत विरोधी नीति रखती है, तो मैं कैसे उसमें शामिल हो सकता हूँ? उन्होंने बतलाया कि यह मसानी का अपना विचार है, पार्टी उसके लिए जिम्मेवार नहीं है। मैं मेम्बर बन गया। उस वक्त हरिनगर (चम्पारन) की चीनी मिलों ने तीन-तीन चार-चार वर्ष के भीतर इतना मुनाफा कमाया कि कारखानों में लगी सारी पूँजी नफे से निकल आई। यह पूँजीवादी प्रथा में भी रोजगार नहीं, सीधी लूट है।
जिन मजदूरों के पसीने की कमाई से पूँजीपति इतना नफा कमाते हैं, उनकी ओर उनका कुछ भी ध्यान नहीं जाता। हरिनगर मिल के मजदूरों की बहुत-सी शिकायतें थीं, जब 6 महीना बंद रहने के बाद पेरने का मौसिम नजदीक आया और मिल की मशीन और पुर्जे साफ किए जाने लगे, उस वक्त मिलवालों ने खूब नादिरशाही की। 7 अक्टूबर (1938) को 300 मजदूरों में से 20 को छोड़कर बाकी सबने हड़ताल कर दी। उनकी माँग थी – (1) मजूरी में 25 सैकड़ा वृद्धि। यानी साढ़े तीन आने की जगह छै आना रोजाना मजूरी हो; (2) मजूरों के घरों में चिराग और सफाई का इन्तिजाम किया जाय; (3) विवाहित मजदूरों के लिए जनाना क्वाटर मिले; (4) मिल-मालिक मजदूर-सभा को स्वीकार करें; (5) किसी मजदूर को बहाल-बरखास्त करना हो तो उसे अपने मन से न करें, बल्कि फैसला करने का अधिकार मजदूरों और मालिकों की एक सम्मिलित सभा को हो। हड़ताल 20 अक्टूबर तक जारी रही। मिलवालों के लिए यह बड़े नुकसान की चीज थी, क्योंकि यदि मशीन साफ होकर लग नहीं जाती, तो ऊख पेरने का काम कैसे होता? 18 से 20 तारीख तक मिल के भीतर ही जिलाकांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक होती रही – मिल में बैठक होने के लिए कोई आश्चर्य करने की जरूत नहीं, आखिर मिल-मालिक भी तो कांग्रेसी थे। कार्यकारिणी ने मजदूरों को आश्वासन दिया, और मजदूरों ने सप्ताह-भर के लिए हड़ताल रोक दी। पेरने का मौसिम आ गया और मिल में 1200 मजदूर काम करने लगे। मजदूरों ने कांग्रेसी नेताओं को चिट्ठी और तार दिये, लेकिन जवाब देने की जरूरत नहीं समझी गई। 15 दिन इंतिजार करने के बाद 5 नवम्बर को फिर हड़ताल करने के लिए मजदूरों ने अल्टिमेटम दे दिया। उसी दिन जिला के सबसे बड़े कांग्रेसी नेता आए, उन्होंने मजदूरों को धमकी दी कि यदि हड़ताल किया, तो सबको बाहर निकाल दिया जाएगा और नए मजदूर रखे जाएँगे। 9 नवम्बर को मजदूरों ने फिर हड़ताल शुरू कर दी। 14 नवम्बर को नेता ने आकर फैसला सुनाया कि मजूरी साढ़े तीन आने की जगह चार आने मिलेगी। बाकी किसी बात पर विचार नहीं किया गया। लेकिन मजदूर इतने से सन्तुष्ट कैसे हो सकते थे! हड़ताल जारी रही। मजदूरों ने धरना देना शुरू किया। पुलिस पकड़ नहीं रही थी, इस पर कांग्रेसी नेताओं ने उन्हें हिजड़ा कहा और धमकी दी। पुलिस ने लोगों को गिरफ्तार करना शुरू किया। मिल के सिपाही और पुलिस-घुड़सवार मजदूरों को खूब मारते-पीटते, उनके ऊपर घोड़े दौड़ाते, ठंडा पानी डालते। जनार्दन प्रसाद को तो इतना पीटा था कि दस दिन तक वह बोल न सका। आज (22 दिसम्बर) तक 168 मजदूर जेल भेजे जा चुके थे। सब-डिविजनल मजिस्ट्रेट ने कई लड़कों के हाथों पर बेंत लगवाए।
मुझे यह सब सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ। यह सब कांग्रेसी सरकार के राज्य में उस जनता पर हो रहा था, जिसने कांग्रेस को इतना बड़ा किया! क्या वह कांग्रेस मंत्रिमंडल से यही आशा रखती थी? सबसे बड़ी बात तो यह कि अभी हमारा देश अंग्रेजों का गुलाम था। क्या कांग्रेसवाले नहीं जानते थे कि जिस गरीब जनता के ऊपर इतना अत्याचार किया किया जा रहा है, उसी के बल पर उसे विदेशियों से लड़ना है। मुझे कांग्रेसी नेताओं से कभी ऐसी आशा नहीं थी।
राँची साहित्य सम्मेलन (27-30 दिसंबर)
उस साल प्रान्तीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन राँची में हो रहा था, मैं ही उसका सभापति चुना गया था। 26 दिसम्बर को मैं राँची पहुँचा। राँची की यह पहिली यात्रा थी। हरी-भरी पहाड़ी जगह थी, गर्मी में कैसे लगती होगी? मैंने अपने भाषण में जनसभा और जनगीत पर जोर दिया था, हिन्दी-उर्दू को मिलाकर एक कृत्रिम भाषा हिन्दुस्तानी के विपक्ष में कहा था। मैं बिल्कुल समझ नहीं सकता कि इकबाल और पन्त की कविताओं के साहित्य को कैसे एक कहा जा सकता है? मैं समझता था कि हिन्दी और उर्दू को अपने-अपने स्थान पर रहने देना चाहिए। 30 तारीख को हम काँके देखने गए। मुर्गी पालने को मैं बहुत फायदे की चीज समझता था, इसलिए वहाँ के मुर्गीखाने को बड़े ध्यान से देखता रहा। हम पागलखाना देखने गये। एक पागल कह रहा था – “देखिये हम काम करते हैं, किन्तु मजदूरी नहीं मिलती। हम कैदी थोड़े ही हैं; हमको शादी-ब्याह नहीं करने दिया जाता।” वह पागल ज्यादा खतरनाक नहीं था।
(अध्याय - 2) किसान-संघर्ष (1939 ई.)
पहिली जनवरी (1939) को सबेरे नागार्जुन जी के साथ मैं पटना पहुँचा, और दूसरे दिन छपरा के लिए रवाना हो गया। जिला-भर के किसान-कार्यकर्ता आए हुए थे, वहाँ किसानों की परिस्थिति जानने का मौका मिला। अमवारी के किसानों ने बतलाया – “हमारे खेत छीन लिए गए हैं, हमने इधर-उधर बहुत दौड़-धूप की, कांग्रेस नेताओं के पास भी गए, मगर कोई नहीं सुनता।” 5 जनवरी को मैं सीवान में रेल से उतरकर अमवारी पहुँचा। मालूम हुआ, सचमुच बहुत-से किसानों के खेत निकाल लिए गए हैं। यह भी पता लगा कि झगड़ा हरी-बेगारी से शुरू हुआ। सतयुग से व्यवस्था चली आई थी कि किसान अपने हल-बैल से मालिक के खेत को पहिले जोत-बो दें, फिर वह उसे अपने खेत में ले जा सकता है। रामधनी मेहतो अपना खेत जोत रहे थे, जमींदार (गु. बाबू) ने कहा – हल हमारे खेत में ले चलो। रामधनी ने कहा – इस खेत को जोतकर बाबू हम आपके खेत में चलेंगे। बाबू ने तीन लाठी मारी। पुलिस ने भी रैय्यत के खिलाफ ही रिपोर्ट दी। पुलिस की रिपोर्ट पढ़कर मजिस्ट्रेट ने किसानों के ऊपर दफा 144 लगा दी। सारा मामला एकतरफा था और यह सब कांग्रेसी मंत्रियों के राज में हो रहा था।
मैं अगले दिन (6 जनवरी) पास के गाँव जयजोरी की ओर चला। अमवारी प्राइमरी स्कूल के लड़कों ने मुझे खूब गालियाँ दीं। उनके अध्यापक जमींदार के यहाँ नौकरी भी करते थे, इसलिए नमक-हलाली दिखलानी ही चाहिए थी। रात को हम जयजोरी में रहे। यहाँ के किसानों पर भी जमींदार का वर्षों तक जुल्म होता रहा। खेत में चाहे एक अच्छत पैदा न हो, लेकिन मालगुजारी-जुर्माना सब मालिक के पास पहुँचना ही चाहिए। किसान कितने दोनों तक मालगुजारी कर्ज लेकर देते? जब देने में असमर्थ हुए तो जमींदार ने खेत नीलाम करवा लिया। खेत को छोड़कर किसान जी कैसे सकते! अन्त में उन्होंने निश्चय किया कि चाहे कुछ भी हो, हम अपने खेत को नहीं छोड़ेंगे। जमींदार ने सब कुछ करके देख लिया, लेकिन गाँव के एक-दो को छोड़कर सारे ही किसान एक राय थे। वह उनका कुछ नहीं बिगाड़ सका। वर्षों तक लड़ते रहने के कारण, मैंने देखा, जयजोरी के किसानों में जान है – मोहन भगत और कई दूसरे किसान सिर्फ अपना स्वार्थ नहीं देखते थे।
दूसरे दिन (7 जनवरी) हम सीवान के लिए रवाना हुए। थोड़ी ही दूर जाने पर सुल्तानपुर गाँव मिला। यहाँ हिन्दू-मुसलमान दोनों ही धर्मों के किसान हैं। मैंने एक मुसलमान किसान से बातचीत शुरू की – “तुम्हारे गाँव में कितने खेत और कितने घर असामी हैं?”
किसान – “पाँच सौ बीघा (300 एकड़ से कुछ ऊपर) खेत और पाँच सौ परिवार हैं – हिन्दू-मुसलमान दोनों।”
मैंने पूछा – “तुम्हारे मालिक कौन हैं?”
किसान – “हमारे मालिक डाक्टर म. साहब हैं।”
मैं – “तब तो तुम्हारा अहोभाग्य है। कांग्रेस के इतने बड़े नेता तुम्हारे मालिक हैं।”
किसान – “अहोभाग्य! सारी रैय्यत परेशान-परेशान है। एक किस्त मालगुजारी जो बाकी रह जाय तो मारकर खाल उधेड़ लेते हैं। हरी-बेगारी, जुर्माना के मारे नाक में दम है। मालिक के 75 बीघे की बकाश्त (अपनी खेती) है, और उसका सारा जोतना-बोना हमलोगों को अपने हल-बैल से करना पड़ता है।”
यह थे कांग्रेसी सरकार के एक मंत्री और शायद दूसरे मंत्रियों से काफी अच्छे!
उसी दिन हम सीवान पहुँच गए। दूसरे दिन सीवान के अंग्रेज एस.डी.ओ. के पास जाकर मैंने अमवारी के किसानों की तकलीफें बतलाईं। उसने कहा – “मैं अभी-अभी नया आया हूँ, मैं वहाँ जाकर जाँच करूँगा।” लेकिन वह कभी जाँच करने नहीं गया। जाँच करने की जरूरत भी नहीं थी, क्योंकि जमींदार (च) बाबू से झगड़ा था, वह सरकार के खैरख्वाह थे, कई सालों से अवैतनिक सी.आई.डी. (खुफिया) का काम कर रहे थे, सरकार ने उन्हें उपाधि भी दी थी। उनके पास कई बड़े अंग्रेज हाकिमों के प्रशंसा-पत्र थे। उनकी एक-एक बात अंग्रेज मजिस्ट्रेट के लिए ब्रह्मवाक्य थी।
छपरा में सबसे बड़ी जमींदारी हथुवा के महाराज बहादुर की है। सारा कुआड़ी परगना उनका है। जब मैं असहयोग और बाद में भी कांग्रेस का काम करता था, तो कुआड़ी में मुझे बहुत जाना पड़ता था। मैंने यहाँ के किसानों की बहुत-सी तकलीफें सुनी थीं। मैं कुआड़ी में जाने का ख्याल रखता था, लेकिन अबकी बार सिर्फ मीरगंज को दूर से देखकर ही संतोष करना पड़ा। मीरगंज बाजार अब बहुत बढ़ गया था। वहाँ एक चीनी की मिल कायम हो गई थी। थावे से सिधवलिया की रेल पर पहिले-पहिल चढ़ा। रतनसराय स्टेशन से उतरकर बरौली गया, वहाँ एक सभा में भाषण दिया, फिर रास्ते में रात को एक जगह ठहरकर गोरया कोठी पहुँचा और चार दिन वहीं रहा। वहाँ हाईस्कूल के विद्यार्थियों के सामने व्याख्यान दिया, और पंचायती खेती देखी। छितौली के किसानों ने अपनी तकलीफें बताईं। 31 जनवरी को छितौली पहुँचा। वहाँ के जमींदार अशर्फी साहू से मिला। उन्होंने कहा कि मैंने किसी असामी को खेत नहीं दिया है, मैं अपना खेत आप जोतता हूँ। अशर्फी साहू धर्मात्मा समझे जाते थे, उन्होंने एक मन्दिर बनाकर संस्कृत पाठशाला भी खोल रखी थी। पूजा-पाठ, व्रत-उपवास में भी आगे रहते थे, लेकिन बोल रहे थे सरासर झूठ। 489 बीघा खेत के लिए वहाँ उनके पास हल-बैल कहाँ थे? जब अशर्फी साहू ने एक निलहे साहब से यह जमीन और कोठी खरीदी, उस वक्त कितने ही असामी खेतों को जोता करते थे। उनसे साहू ने खेत निकाल लिया। गाँव से बुलाकर बसाया। पैमाइश (सर्वे) में इन असामियों के नाम दर्ज हो गए, फिर उन्हें इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया। बेचारे गरीब किसान लखपति जमींदार से कैसे लड़ते? पुलिस उनकी बात करती थी। खैर, अब तक वह किसानों को मनमाना मालगुजारी पर खेत जोतने को देते थे, लेकिन अब वह इसके लिए भी तैयार नहीं थे।
उसी दिन छपरा पहुँचा। अगले दिन कलक्टर से मिला। उनसे मैंने किसानों के कष्ट बताए। कलक्टर ने कहा कि हम तो कानून के बन्दे हैं, यदि किसानों के लिए कुछ करना है, तो कांग्रेस सरकार को करना चाहिए, तो भी मैं अमवारी के बारे में जानने की कोशिश करूँगा।
17 जनवरी को मैं पटना में था। मैं चाहता था कि पंचायती खेती को सरकार प्रोत्साहन दे, जिसमें नये ढंग की खेती को देखकर दूसरे किसान भी इसे अपनाएँ। डाक्टर महमूद से पहिले ही बातचीत हुई थी। पार्लामेन्ट्री सेक्रेटरी बाबू शारङधर से बातचीत हुई। फिर उनके परामर्शानुसार कृषि-विभाग के डाइरेक्टर मिस्टर सेठी के पास पहुँचा। उन्होंने पहिले इस तरह बात शुरू की, मानो विशेषज्ञों के लिए जो काम है, उसमें साधारण आदमी को हाथ डालने का हक नहीं है। वह कह रहे थे कि हजार-दो हजार एकड़ वाले किसान इकट्ठा करें, तो हम अपना ज्ञान और साधन खर्च करेंगे। मैंने कहा – “तब तो न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी। आपको सौ-पचास एकड़वाले पंचायती खेतिहरों को मदद देनी चाहिए, उनकी सफलता देखकर दूसरे भी अनुकरण करेंगे।” खैर, उन्होंने हाँ-हाँ किया और खर्च की योजना बना देने के लिए कहा। मैंने कुआँ, रहट और कुछ और चीजों के लिए रुपये का हिसाब दे दिया।
उस वक्त मुँगेर और गया जिला में किसानों का जमींदारों के साथ संघर्ष चल रहा था। कांग्रेस मंत्रिमंडल के कायम होने पर जमींदारों को डर हो गया था कि जिन खेतों को उन्होंने जबरदस्ती किसानों से छीन लिया है, और जिन्हें अब भी किसान ही जोत रहे हैं, उन पर किसानों का अब हक हो जाएगा, क्योंकि कांग्रेसी सरकार उनकी धाँधली चलने नहीं देगी। इसीलिए सारे बिहार में वर्षों से किसानों के जोत में रहते खेतों को जमींदारों ने निकालना शुरू किया। किसान विरोध करते थे और अपने खेतों को छोड़ना भी नहीं चाहते थे, यही संघर्ष का कारण था। श्री कार्यानन्द जी से मैंने बढ़ेयाटाल के किसानों की दुर्दशा सुन ली थी, और अब मैं उसे खुद देखना चाहता था।
1. बढ़ैयाटाल में
20 जनवरी को मैं लक्खीसराय, चितरंजन आश्रम में था। वहाँ उस वक्त किसान कार्यकर्ताओं का शिक्षण-शिविर चल रहा था और एक तरुण कर्मी अनिल मिश्र बड़ी तत्परता से काम कर रहे थे। अगले दिन (21 जनवरी) कार्यानन्द जी के साथ हम पैदल रवाना हुए। रास्ते में रजौना में पालवंशी राजा सूरपाल के समय (1075-77 ई.) की एक बौद्धमूर्ति देखी। एक दूसरी मूर्ति की चौकी पर किसी पालवंशी राजा के 13वें वर्ष का शिलालेख था। हरोहर नदी में नाव तैयार थी। हम नाव से रेपुरा गए। नदी से थोड़ा हटकर गाँव था। एक बगीचे में सभा का इन्तिजाम किया गया। 5 हजार से अधिक लोग जमा थे, जिनमें तीन-चार सौ औरतें थीं। सदियों से इन किसानों पर अत्याचार होता आया था। वह इसे भाग्य का फेर समझते थे, लेकिन अब वह अपने भाग्य को अपने हाथ से बनाने के लिए तैयार थे। बढ़ैयाटाल चालीस गाँवों का एक विस्तृत मैदान है। यहाँ की जमीन नीची है, इसलिए बरसात-भर वह एक छोटे-मोटे समुद्र का रूप ले लेता है, जिसके भीतर छोटे-छोटे गाँव द्वीप-से मालूम पड़ते हैं। बरसात खत्म होते ही पानी निकल जाता है। लेकिन हजारों गाँवों की गन्दी-सड़ी चीजों को अपने भीतर घोलकर वहाँ मोटी काली मिट्टी की तह के रूप में छोड़ भी जाता है, जिसके कारण रब्बी की फसल के लिए जमीन अधिक उपजाऊ हो जाती है। पानी निकलते ही किसान हल ले जाकर बीज बो देते हैं, और फिर लाखों एकड़ भूमि में हरी फसल लहराने लगती है। टाल को बराबर इन गाँवों के किसान जोता करते थे। जमींदार उनसे मनमाना अनाज और भूसा लिया करते थे और किसानों को इतना अन्न उपजाकर भी भूखे मरना पड़ता था। अब जब किसान जाग गए, तो जमींदार हर तरह के अत्याचार पर उतर आए थे। उनके लठधर किसानों का सिर फोड़ते, औरतों को बेइज्जत करते थे। पुलिस ने सैकड़ों आदमियों को जेल भेजा। लेकिन अब जेल का डर इनके दिमाग से निकल गया था। उस दिन औरतें अपनी मगही भाषा में गाना गा रही थीं – “चलु आज माता! जेहल के जवैयारे।” औरतें भी जेल जाने से नहीं डरती थीं।
अगले दिन (22 जनवरी) रंपुरा से हम रवाना हो मेहरामचक गाँव में पहुँचे। गाँव वालों का जिधर निकास था, उधर ही पुलिस ने डेरा डाला था। शांति-व्यवस्था तथा जमींदारों की लूट की रक्षा करने के लिए पुलिस का भारी दल टाल में पहुँचा हुआ था। लेकिन उन्हें डेरा डालने में इतना तो ख्याल रखना चाहिए था कि जिधर औरतें रात-विरात निकलती हैं, उस जगह को छोड़ देते – साफ था कि कांग्रेसी सरकार ने जमींदारों का पल्ला पकड़ा था। यह बहुत गरीब गाँव था। 5 व्यक्ति के एक परिवार के घर को मैं देखने गया। तीन हाथ की दीवार पर फूस की झोपड़ी रखी थी। घर भीतर से 8 फीट लम्बा और 5 फीट चौड़ा था। बाहर एक फूस का बरांडा था। इसी में वह गुजारा करते थे। एक 21 व्यक्ति के परिवार के पास वैसे ही तीन घर थे। क्या इसे मनुष्य जीवन कह सकते हैं? एक घर में देखा कि जमींदार ने घरवालों को निकाल दिया है और उसमें भूसा भर रखा है। हद दरजे की गरीबी और असहायता। भूखे थे तो भी अब उनके अन्दर से डर निकल गया था। उनके उत्साह को देखकर मेरी तबियत बहुत खुश हुई। मैंने कहा – क्रांति तुम्हारा स्वागत है।
2. रयोड़ा में
23 जनवरी को कार्यानन्द जी के साथ रयोड़ा देखने जा रहा था। गया के किसान-नेता पंडित यदुनन्दन शर्मा पर किसानों के संघर्ष में सहायता देने के अपराध में मुकदमा चल रह था। पचासों हजार किसान अपने वीर नेता के दर्शन के लिए गया जाने को तैयार थे। उस भीड़ में भला टिकट कौन माँगता और जेल से डरनेवाला कौन था? रेलवालों ने ढाई घंटा बाद रेल छोड़ी, इस पर भी उन्हें हिम्मत नहीं थी। फिर उन्होंने हम दोनों को भी साथ चलने को कहा। काशीचक स्टेशन पर अब भी पचास आदमी थे, बहुत-से कचहरी का समय बीत गया समझकर लौट गए थे। हमलोग लारी से रयोड़ा गए। सशस्त्र पुलिस गाँव से बाहर पड़ी थी। गाँव में दरिद्रता हद दर्जे की थी। कितनी ही छानों पर वर्षों से खर नहीं पड़ा था। इस गाँव में बड़ी जाति वाले किसान ज्यादा रहते थे और जमींदार भी उसी जाति के थे। एक-एक करके उन्होंने किसानों के सभी खेत नीलाम करवा लिये। अब किसानों के लिए दो ही रोजगार था, बैल-गाड़ी लादना या लड़कियों को पैदाकर उन्हें अपनी जाति में बेचना। इतनी गरीबी थी, किन्तु मैंने वहाँ के स्त्री-पुरुषों के रंग और शरीर को देखा तो उनसे सौन्दर्य की झलक आ रही थी। जमींदार पर पुलिस और सरकारी अफसरों का वरदहस्त था, क्योंकि उन्होंने अपने को पक्का अंग्रेजभक्त साबित किया था। कांग्रेस-मंत्रियों में चार में से तीन स्वयं जमींदार थे और चौथे बनने की तैयारी में थे, फिर उनकी सहानुभूति किसानों के प्रति क्यों होती? लेकिन किसानों में अब गजब का एका हो गया था। वह अपने हक पर एक साथ लड़ने, एक साथ जेल जाने, मार खाने के लिए तैयार थे। औरतें हमें देखकर “चलु चलु सखिया जेल के जवैया गे” गा रही थीं। मैंने वहाँ एक व्याख्यान दिया।
24 जनवरी को सबेरे मैं पटना में था। वहाँ खबर मिली कि करनौती (हाजीपुर) की घरू नौकरानियों ने हड़ताल कर दी है। हमारे देश में एक ही कोढ़ थोड़ा है। जिन गाँवों में बड़े-बड़े जमींदार रहते हैं, वहाँ की औरतों की इज्जत मुश्किल से ही बच पाती है। जमींदारों की अपनी इज्जत पर भी आबरवाँ जैसा ही पर्दा होता है। साधारण स्त्रियों पर तो वह भी नहीं रहने पाता। फिर सैकड़ों वर्षों से उन्होंने कुछ जातियों को अपना खवास-गृहसेवक बना रखा है। इन घरों के पुरुष और स्त्रियाँ बाबुओं के घर में जिन्दगी-भर सेवा करने के लिए बने हैं। इनकी अवस्था दास-दासी से बेहतर नहीं है। मालिक के जूठे भात से वह पेट पालते हैं, उतारे कपड़े से शरीर ढाँकते हैं। महीने में 8 आना और 12 आना उन्हें तनख्वाह मिलती है, और काम के लिए पहर-भर रात से आधी रात तक हाथ बाँधे खड़ा रहना पड़ता है। लड़की का ब्याह होने पर जैसे मोटर, हाथी, सोने-रूपे का दहेज दिया जाता है, उसी तरह खवासिनें भी दहेज में जाती हैं। क्या दास-प्रथा में कोई कसर है? करनौती में घरू नौकरानियों की हड़ताल ने बतलाया कि राजर्षियों और ब्रह्मर्षियों का हिन्दुस्तान हिलने लगा है।
उसी दिन रात को मैं छपरा गया। मढ़ौरा में चीनी, शराब और लोहे की एक बड़ी फैक्टरी है, एक अंग्रेजी मिठाइयों का भी कारखाना है। कारखाने के मालिक अंग्रेज हैं। यद्यपि वह इंगलैण्ड में अपने मजदूरों को चार-चार रुपया रोज मजूरी देने के लिए तैयार हैं, लेकिन हिन्दुस्तान के मजदूरों को वह चार आने में टरकाना चाहते हैं। मजूरों ने बहुत शिकायतें कीं, उन्होंने मालिकों के पास बार-बार दरखास्तें दीं, लेकिन कौन सुनता है? कांग्रेसवाले अब मिल-मालिकों के सगे भाई थे, जैसा कि हमने हरिनगर में देखा था। लेकिन मढ़ौरा के मालिक हिन्दुस्तानी नहीं अंग्रेज सेठ थे, इसलिए उन्होंने मजूरों के साथ अपना छोह दिखाना चाहा। जिला कांग्रेस के तत्कालीन सभापति एक बड़े जमींदार थे। जिले में जगह-जगह किसानों पर जुल्म हो रहे थे। जमींदार उनके खेतों को जबरदस्ती निकाल रहे थे। किसान दौड़े-दौड़े जिला कांग्रेस के पास जाते, किन्तु सभापति महाशय क्यों उधर ध्यान देने लगे? उनकी जमींदारी में भी तो वही बातें दुहराई जाती थीं। खैर, अंग्रेज सेठ का कारखाना होने के कारण कांग्रेसी नेताओं ने यहाँ के मजदूरों की सभा स्थापित की। 1 दिसम्बर को जिला सभापति ने मजदूरों की सभा की और उनकी माँगें लिखकर मालिकों के पास भेज दीं। साथ ही यह भी लिख दिया कि 19 तारीख के 12 बजे तक माँगें पूरी कर दी जायँ। लेकिन मिलवाले इस तरह की चिट्ठियों से थोड़े ही माँगें पूरी किया करते हैं। 20 को चिट्ठी लिखी गई कि यदि चौबीस घंटे में समझौता नहीं हुआ तो मजदूर हड़ताल कर देंगे। 21 जनवरी को मजदूरों की आम सभा करके 23 जनवरी से हड़ताल करने की चिट्ठी लिख दी गई। यह सब कांग्रेस के नेता कर रहे थे। मजदूर उनकी बात पर विश्वास करके लड़ने पर तैयार थे। कांग्रेसवाले कई बार हड़ताल को स्थगित कर चुके थे। 22 तारीख को फिर उन्होंने हड़ताल स्थगित करने के लिए लिखा। मजदूरों को मालूम हो गया कि वह नहीं चाहते कि हम अपने हक के लिए लड़ें। उन्हें बड़ी निराशा हुई। वह हमारे साथियों के पास दौड़े। 23 को आकर साथी विश्वनाथ श्रमिक ने मजदूरों का पक्ष लिया, इस पर कांग्रेसी नेताओं ने धमकी दी, और 24 तारीख को फतवा दिया कि मजदूरों के नेता गुंडा हैं। अब पुलिस क्यों चूकने लगी? उन्होंने 31 आदमियों को गिरफ्तार किया। इसी काम के लिए मैं 25 जनवरी को मढ़ौरा पहुँचा था। मजदूर डटे हुए थे। बाजार के लोग थोड़ा-थोड़ा अन्न जमा करके हड़तालियों की मदद के लिए तैयार हो गए। मैंने मजदूरों की सभा में व्याख्यान भी दिया।
26 जनवरी को सोनपुर में स्वतन्त्रता-दिवस मनाया जाने वाला था। मुझे निमंत्रण दिया गया था। कई वर्षों बाद मैं वहाँ एक राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में गया। 2 बजे एक भारी जुलूस निकाला गया, और 5 बजे स्वराज-आश्रम में राष्ट्रीय झंडा फहराने के बाद मैंने व्याख्यान दिया। मैंने देखा कि लोगों में पहिले की अपेक्षा अधिक आकृति है। लोग सामाजिक और धार्मिक रूढ़ियों के खिलाफ भी बात सुनने के लिए तैयार हैं। मुझे एक अभिनन्दनपत्र आदि दिया गया, लेकिन अभिनन्दनपत्रों को रखने के लिए न मेरे पास ठाँव था, न लालसा ही। बाराबंकी, लक्खीसराय आदि की तरह इस अभिनन्दनपत्र को भी मैंने वहीं छोड़ दिया।
उस वक्त मैं देख रहा था कि सब जगह किसानों में उत्साह है। वह जमींदारों के जुल्म को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं थे, किन्तु उन्हें संगठित तथा सचेतन बनाने के लिए योग्य नेतृत्व नहीं मिल रहा था। मैं समझता था कि किसान अपने भीतर से नेता पैदा कर सकते हैं। किन्तु कैसे? इसका जवाब मैं अभी नहीं दे सकता था।
3. हथुआ राज में
अब मैं हथुआ राज के कुवाड़ी परगने में जाने का निश्चय कर चुका था। इसकी खबर राजवालों को मालूम हुई तो वह बहुत घबड़ाए। उन्होंने मेरे पास एक सज्जन को भेजा। उन्होंने कहा कि सिर्फ एकतरफा बातें न सुनें, हमारी बातों को भी सुनने का कष्ट उठाएँ। मैं इसके लिए तैयार था। 29 तारीख को पता लगा कि मढ़ौरा में दो साथी शिवबचन सिंह और श्रमिक विश्वनाथ गिरफ्तार कर लिए गए। 31 को 15 आदमी और गिरफ्तार हुए – मढ़ौरा के 60 आदमी इस वक्त जेल में थे। उस दिन छपरा में मालूम हुआ कि कांग्रेस के दोनों नेताओं ने मजूरों से बिना पूछे मालिकों के साथ समझौता करके उस पर हस्ताक्षर कर दिया। इस पर मैंने लिखा – “क्या यह सोते पर आघात करना नहीं है? लेकिन यह कोई असम्भव बात नहीं, जो श्रमजीवी श्रेणी के साथ आगे बढ़ने के लिए तैयार नहीं, वह अपने नेतृत्व के लिए सब कुछ कर सकता है।”
मैं देख रहा था कि हमारे किसान-मजूरों को हिन्दी समझना आसान नहीं है, यदि उनकी मातृभाषा में लिखा-बोला जाय, तो वह अच्छी तरह समझ सकते हैं। मैंने सोचा, छपरा की भाषा भोजपुरी (मल्लिका) में इसके लिए एक साप्ताहिक निकालना चाहिए, जिसका दाम सिर्फ एक पैसा रहे। मैंने कुछ रुपयों का प्रबन्ध भी किया, प्रेस भी ठीक हो गया। 1500 बिक जाने पर घाटा नहीं रहता, यह भी मालूम था। मैंने जिला मजिस्ट्रेट के पास ‘किसान-मजूर’ निकालने के लिए दरख्वास्त दे दी। लेकिन अंग्रेज मजिस्ट्रेट जानता था कि कमेरों की भाषा में अखबार निकालना बड़े खतरे की बात है, साथ ही वह यह भी जानता था कि कांग्रेस सरकार उसे पसन्द नहीं करेगी; इसलिए कई महीनों तक उसने इस पर कोई विचार ही नहीं किया। जब मैं जेल में पहुँच गया, तो 5 सौ रुपया जमानत देने की बात लिख भेजी।
पहिली से नवीं फरवरी तक 9 दिन मैंने कुआड़ी परगने में कई किसानों की सभाओं में भाषण दिया। पहिले दिन मीरगंज में सभा हुई, तीन हजार के करीब आदमी एकत्रित थे। नागार्जुन जी भी मेरे साथ थे। चीनी मिल के बाबू लोगों ने भी कुछ बोलने के लिए कहा और मैं उनके यहाँ भी गया। अगले दिन लारपुर में 5 हजार किसानों के बीच में बोलना पड़ा। मालूम हुआ कि राज ने अपने एक इंस्पेक्टर को हमारी हरेक सभा में जाने के लिए नियुक्त कर दिया है। उस दिन रात को हम दीवान परसा में रहे। यहाँ के कई तरुणों ने कांग्रेस के प्रथम आंदोलन में भाग लिया था। मैं भी अक्सर यहाँ आया करता था। लोगों ने गाँव-सुधार पंचायत कायम की थी, लेकिन बिना राजनीतिक अधिकार के क्या सुधार हो सकता है? ऊपर से इन लोगों ने बड़े तड़क-भड़क के साथ वार्षिकोत्सव कर डाला और अब करज में फँसे हुए थे। अगले दिन (3 फरवरी) भोरे में 8 हजार किसानों के सामने बोलना पड़ा। लोगों में जागृति देखी – वस्तुतः कमेरों को जब जरा भी पता लग जाता है कि उनकी तकलीफें सुनने के लिए दुनियाँ तैयार है, तो असफलताएँ भी उन्हें निरुत्साह नहीं कर सकतीं। भूखी पीड़ित जनता को रोज तकलीफें सूई-सी चुभती रहती हैं, इसलिए वह संघर्ष से पीछे नहीं रह सकती। किसानों की तकलीफें मैंने नोट कीं, और उनकी शिकायतों को जमा करने के लिए पाँच आदमियों की कमेटी बना दी गई। दूसरे दिन 4 फरवरी को माँडर घाट पर सभा हुई। कटया और भेरे के थाने गोरखपुर की सीमा पर हैं। पचासों वर्षों से यहाँ थानेदार का निरंकुश राज चला आया था। जिले का हरेक थानेदार चाहता था कि उसकी बदली इन थानों में हो जाय; क्योंकि इन थानों में सोना बरसता था। अपनी आमदनी के लिए थानेदारों ने दफा 110 में सैकड़ों आदमियों के नाम लिख रखे थे, उनकी संख्या बढ़ती ही जाती थी। जिस किसी आदमी पर दफा 110 लगाने की धमकी दी, वह गहना-जमीन बेचकर थानेदार की पूजा करने के लिए तैयार हो जाता था। कांग्रेसी राज से कोई फर्क नहीं हुआ था। अब भी थानेदार लोगों को पीटता था। अब भी उनसे रुपए ऐंठता था। कटया में (5 फरवरी) भी दो हजार की जनता में व्याख्यान दिया। अगले दिन (6 फरवरी) राजापुर गए। महन्त जी – जो आनन्द जी को शिष्य बनाना चाहते थे – अब भी जिंदा थे। उन्होंने महाजन से 1300 रुपया कर्ज लिया था, उसने 3100 की डिग्री कराई थी, घबड़ा रहे थे। जब कर्ज लेना होता है, खर्च करना होता है, तो महंत लोग कहते हैं – मालिक हम हैं। जब जायदाद बिकने लगती है तो कहते हैं – सम्पत्ति मठ की, ठाकुरजी की है।
एकाध और सभाओं में व्याख्यान देते 7 फरवरी को सासामूसा पहुँचे। वहाँ चीनी मिल के पास सभा हुई। यहाँ पर भी कांग्रेसी नेताओं ने सस्ते में मजूरों का नेता बनने के लिए हलके दिल से काम किया था। मिलवालों ने जरा डराया, धमकाया लेकिन हड़ताल में पड़ने की इच्छा नहीं थी। मिलवालों ने 8 रुपया महीना मजूरी मान ली और नेताओं ने अपना काम समाप्त समझा।
यहीं पर एक 60 वर्ष का बूढ़ा आया। वह जन्म-जात अभिनेता था। अपने पहिने हुए कपड़ों में ही वह सास-बहू और बेटे के जीवन की बिल्कुल वास्तविक नकल उतारता था। दूसरा समाज होता, तो वह एक ऊँचे दर्जे का कलाकार बना होता, किन्तु यहाँ जहाँ-तहाँ अपने अभिनय को दिखलाकर वह किसी तरह पेट पालता था – उसकी उम्र 60 की होगी। सासामूसा मिल में देखा, एक पक्की मसजिद बनी हुई थी। मौलवी धर्म सिखलाने के लिए रखे हुए हैं। दालमियाँ नगर में भी मैंने जैन और हिन्दू-मंदिर देखे थे और सेठ ने पचासों आदमियों को वेतन पर हरिकीर्तन करने के लिए रखे हुए थे। यह मिल-मालिक कितने धर्मात्मा हैं? धर्म के लिए हजारों रुपया खर्च करते हैं, लेकिन फिर मजूरों को पेट के अन्न और तन के कपड़े-भर के लिए तनख्वाह क्यों नहीं देते? शायद उस वक्त छपरा में सबसे कम मजूरी सासामूसा की मिल में दी जाती थी। यदि वह 8 से 12 रुपया मजूरी कर देते, तो महीने में चार-पाँच हजार रुपए देना पड़ता। इससे कहीं अच्छा था कि सौ-दो सौ रुपये धर्म पर खर्च किये जायँ और महन्त-मौलवी सेठ का जयजयकार मनाएँ।
सेमराबाजार (कुचायकोट) की सभा में व्याख्यान दे 9 बजे गोपालगंज गया। यहाँ हथुआ राज के प्रधान मैनेजर से बातचीत करने का निश्चय हुआ था। दो घंटे तक बात होती रही, मैंने राज के अमलों की घूस-रिश्वत और अत्याचार के बारे में कहा। बतलाया कि पानी के निकासी के रास्तों की मरम्मत वर्षों से बन्द हो चुकी है, जिससे किसानों की फसल तबाह हो जाती है। किसानों की जो जमीन निकाल ली गई, उसका न उन्हें दाम मिला और न मालगुजारी कम की गई। भोरे के पास इसी तरह की निकाली हुई जमीन थी, जिसमें कई मील नहर निकाली गई थी, जो अब बेमरम्मत थी, लेकिन उसके किनारे शीशम के दरख्त लगे हुए थे। मैंने सोच रखा था कि हथुआ राज में सत्याग्रह इन्हें शीशम के वृक्षों पर करना होगा; घटनाएँ कुछ दूसरी घटीं, जिसके कारण सत्याग्रह यहाँ न हो, अमवारी में करना पड़ा। मैं मानता था कि अमवारी के एक छोटे-से जमींदार से भिड़ने की जगह हथुआ के महाराज बहादुर से लोहा लेने में किसानों का ज्यादा हित होता। खैर, हथुआ बाल-बाल बच गया। मैनेजर साहब ने आमदनी-खर्च का लेखा-जोखा देकर कहा कि हमारे पास जो बच रहता है, उससे हम किसानों के लिए कुछ काम करने के लिए तैयार हैं। सिधौलिया में बिड़ला की चीनी मिल है। वहाँ पर मजदूरों की एक सभा हुई। फिर हम छितौली (12 फरवरी) गए। अशर्फी साहू किसानों को उजाड़ने के लिए तैयार थे। 6 हजार किसान सभा में आए थे – हिन्दू-मुसलमान सब। सत्याग्रह के सिवा कोई चारा नहीं था। मैं दो दिन वहीं रहा। 60 से ऊपर परिवारों ने सत्याग्रहियों में अपना नाम लिखाया। सत्याग्रह आश्रम कायम हुआ। साहू ने मामला बिगड़ते देखा। उन्होंने अपने आदमी को भेजकर कहलवाया – आधा खेत रैयतों को दिलवा दें और आधा हमारे पास रहने दें। मैंने कहा – दिलवाना न दिलवाना इतना आसान नहीं है। एक जमींदार की ओर से और एक किसानों की ओर से प्रतिनिधि हों, दोनों मिलकर एक तीसरे आदमी को चुनें। इन्हीं तीनों आदमियों के फैसले को दोनों मंजूर करें, तो मामला निपट जाएगा। भगवान के बड़े भगत अशर्फी साहू ने इसे मंजूर करके कागज पर दस्तखत भी कर दिया, लेकिन पीछे साबित हुआ कि उन्होंने फैसला मानने के लिए यह काम नहीं किया था।
14 फरवरी को मैं छपरा में था। मालूम हुआ कि मढ़ौरा मिल के झगड़े का फैसला करने के लिए एक पंचायत मानी गई है जिसमें मजदूरों ने अपना प्रतिनिधि मुजे चुना है, दूसरा मिल मालिक का आदमी था, और कलक्टर मिस्टर केम्प सरकार के प्रतिनिधि।
उस वक्त परसादी (परसा थाना) में भी जमींदार किसानों को खेत से निकालना चाहते थे। इसके लिए किसानों को सत्याग्रह की तैयारी करनी पड़ी। 16 फरवरी को मुझे परसा ही पहुँचना था। 15 को मैं रामपुर और मठिया में व्याख्यान देने गया। रास्ते में कदना में दो एकड़ का एक प्राचीन ध्वंसावशेष मिला। वह सड़क के किनारे था। वहाँ सैकड़ों वर्षों से ढेलहवा बाबा को ढेला मारते-मारते डेर जमा हो गया था। संभव है इस ढूहे (स्तूप) के भीतर बुद्ध की मूर्ति हो। ब्राह्मणों ने विहार में अक्सर बुद्ध को ढेलहवा बाबा बनाया है और उन्हीं हाथों को ढेला फेंकने के लिए तैयार किया जो कभी बुद्ध की पूजा करते थे। पास के शिवालय में पहिले कितनी ही काले पत्थर की खंडित मूर्तियाँ थीं, जिन्हें कुछ ही साल पहिले वहाँ के साधू ने उठाकर गंगा में फिंकवा दिया था। उनमें न जाने कितनी ऐतिहासिक सामग्री रही होगी। परसादी की सभा में दो हजार आदमी जमा हुए थे। जमींदार और अधिकांश किसान दोनों एक ही अहीर जाति के थे, लेकिन जाति एक होने से वर्गस्वार्थ एक थोड़े ही हो सकता है। जमींदार खेत निकाल लेना चाहते थे, और किसान भूखे मरने के लिए तैयार थे।
4. हिलसा में
अन्नपूर्णा पुस्तकालय के वार्षिकोत्सव के लिए हिलसा के तरुणों ने मुझे बुलाया था। 18 फरवरी की शाम को मैं वहाँ पहुँचा। हिलसा मगध (पटना जिला) का कोई पुराना स्थान मालूम होता है। दूसरे दिन सबेरे में उसके पुराने चिह्नों को देखने निकला। पहले जमन-जती की समाधि पर गया। यह एक मुसलमान फकीर की दरगाह है। वर्तमान इमारत को शेरशाह ने बनवाया था, लेकिन स्थान उससे बहुत पुराना है – जमन-जती मालूम होता है, यवन (मुसलमान) यती से बना है। जमन-जती के बारे में कहा जाता है कि वह गौस पाक के भानजे और शहमदार (मकनपुर) के शिष्य थे। उनका जन्म बगदाद में हुआ था। बहिन ने बेटे को गौस पाक को दे देने की मिन्नत माँगने पर पाया था, किन्तु बेटे के पैदा हो जाने पर उसे लोभ लगने लगा। बच्चे को खुदा ने छीन लिया। माँ हाय-तौबा मचाने लगी, फिर भाई (गौस पाक) ने मुर्दे बच्चे की ओर देखकर आवाज लगाई – “वया बाबा जानेमन!” (आ बाबा, मेरे प्राण) बच्चा जिन्दा होकर गौस पाक के पास चला आया। वक्ता ने बतलाया कि ‘जानेमन’ से ही जमन शब्द निकला है। जमन-जती लँगोटबन्ध साधू थे, उन्होंने ब्याह नहीं किया था और (बौद्ध साधुओं की तरह) पीला कपड़ा पहनते थे। जब वह हिलसा में आए तो यहाँ एक भिक्षु रहा करते थे। दोनों फकीर थे। बौद्ध विज्ञानवाद और सूफी दर्शन एक ही विचार के दो रूप थे, इसलिए जमन-जती बौद्ध भिक्षु के साथ रहने लगे। भिक्षु के मरने के बाद जमन-जती ही उत्तराधिकारी हुए। आगे चलकर बौद्ध विहार करने लगे। अब वह एक श्रीहीन दरगाह है, जिसकी जियारत करने के लिए लोग कभी-कभी आया करते हैं। हिलसा पटना (पाटलिपुत्र) से बिहार शरीफ (उडन्तपुरी), नालन्दा और राजगृह के पुराने रास्ते पर है। इसलिए न जाने वह अपने भीतर कितनी ऐतिहासिक सामग्री छिपाये होगा।
5. अमवारी सत्याग्रह (24 फरवरी)
20 फरवरी को छपरा आने पर मालूम हुआ कि अमवारी में मेरे नाम दफा 144 लग गई है – अर्थात् मेरा वहाँ जाना निषिद्ध है। वहाँ जाने का मतलब था – जेल की सजा। मैं पहिले कह चुका हूँ कि सत्याग्रह किया जाय। मैं सीवान उतरकर जैजोरी गया। चार दिन आस-पास के गाँवों में सत्याग्रह का प्रचार करके पाँचवें दिन सत्याग्रह करने का निश्चय हुआ। मेरे साथ नागार्जुन जी और एक दूसरा तरुण जलील था। हिन्दुओं के घर पर मुसलमानों के खाने-पीने का इन्तिजाम करने में बहुत बखेड़ा होता, इसलिए जलील का नाम मैंने प्रताप सिंह रख दिया। हम जैजोरी, नदियाँव, देवपुर-हरिनाथपुर में सभा करते निखती में पहुँचे। निखती भी कोई प्राचीन स्थान है। हरिनाथपुर में मैंने एक कुएँ पर चुनारी पत्थर की एक गुप्तकालीन मूर्ति का खंड देखा और निखती में काले पत्थर का मुखलिंग। निखती से रघुनाथपुर गए। थानेदार ने बतलाया कि दफा 144 नहीं लगी है, लेकिन सत्याग्रह की तैयारी बहुत आगे बढ़ गई थी, इसलिए गाड़ी रोकना सम्भव न था।
आँदर में 23 तारीख को सभा हुई। देशभक्त मजहरुल हक के पुत्र हुसेन मजहर सभापति थे। डिप्टी सुपरिन्टेन्डेन्ट पुलिस और सीवान के मजिस्ट्रेट (एस.डी.ओ.) अपनी मोटर में बैठकर व्याख्यान सुनते रहे। उस रात को हम लोग जैजोरी में ठहरे। पता लगा कि जमींदार ने अपने दोनों हाथियों को मुझे कुचलवाने के लिए तैयार कर रखा है, और जहाँ-तहाँ से सैकड़ों लठधर बुलाए हैं। मृत्यु से भय खाना मेरे लिए मरने से भी बदतर है।
अगले दिन (24 फरवरी) 8 बजे सबेरे जल-पान के बाद हम अमवारी के लिए रवाना हुए। गाँव के पास दोनों हाथी तैयार खड़े थे, और उनके पीछे सैकड़ों लट्ठधारी आदमी भी। लालजी भगत के बधान में सैकड़ों किसान जमा हो गए थे। हमने निश्चय किया कि दस-दस आदमी और एक-एक नायक की पाँच टोलियाँ बारी-बारी से सत्याग्रह के लिए जायँ। सत्याग्रह था – एक किसान के खेत में ऊख काटना। जमींदार इस खेत को अपना कहता था। थानेदार बहुत चिन्तित थे। मैंने उनसे कहा कि ठीक 10 बजे हम ग्यारह आदमी अमुक खेत में ऊख काटने जायेंगे।
10 बजे हम ग्यारहों आदमी हँसुवा लेकर खेत में पहुँच गये। शराब पिलाकर मतवाला किये दोनों हाथी पास खड़े थे, उनके पास सैकड़ों लठधरों की पाँती खड़ी थी। लठधरों में से कुछ को तो जमींदार ने भाड़े पर बुलाया था, कुछ आदमी आस-पास के दूसरे जमींदारों ने दिये थे, और कुछ को समझाया गया था कि कुर्मी एक राजपूत भाई की इज्जत बिगाड़ रहे हैं, जातिगुहार में शामिल होना चाहिए। लेकिन, पिछला प्रोपैगंडा जान पड़ता है सफल नहीं हुआ, क्योंकि सबेरे के चार-पाँच सौ लठधरों में बहुत-से खेत पर नहीं आए थे। यद्यपि अमवारी में पचासों सशस्त्र पुलिस आ गई थी, लेकिन इंस्पेक्टर ने उन्हें 3 फर्लांग दूर ही एक बाग में रोक रखा था। खेत पर सिर्फ दो थानेदार, एक सिपाही और दो चौकीदार आए थे। इंस्पेक्टर को अच्छी तरह मालूम था कि जमींदार खून करने को उतारू है; फिर भी हाथियों और लठधरों को खेत पर जमा होने देना और सिपाहियों को न भेजना इसका क्या अभिप्राय था, यह बिल्कुल स्पष्ट था। हमारे खेत पर पहुँचते ही जमींदार-परिवार के दो व्यक्ति लठैतों को लाठी चलाने के लिए उकसा रहे थे, लेकिन कोई आगे बढ़ना नहीं चाहता था। शायद मेरे शरीर पर जो पीले कपड़े थे, उसकी वजह से उनको हाथ छोड़ने की हिम्मत नहीं पड़ती थी, अथवा वह समझते थे कि यहाँ लाठी चलानेवाला कोई नहीं है। ग्यारह निहत्थे आदमी, हाथ में हँसिया लेकर ऊख काटने आए। मैंने दो ऊख काटी, थानेदार ने मुझे गिरफ्तार कर लिया। इसी तरह बाकी को भी गिरफ्तार कर लिया गया। मैंने सिर पीछे की ओर किया, देखा – जमींदार का हाथीवान कुरबान हाथी से उतरा। मैंने दूसरी ओर मुँह घुमाया, उसी वक्त खोपड़ी के बाईं ओर जोर की लाठी लगी। मुझे कोई दर्द नहीं मालूम हुआ, हाँ, देखा कि सिर से खून बह रहा है। थानेदार ने दूसरी लाठी नहीं लगने दी। वहाँ से हमें डिप्टी मजिस्ट्रेट के कैम्प में लाया गया। थानेदार ने कुरबान को गिरफ्तार कर लिया था, किन्तु जमींदार के कहने पर इंस्पेक्टर ने उसे छोड़ दिया। उस दिन 32 आदमी गिरफ्तार हुए, लेकिन पुलिस ने 28 को छोड़ दिया। शाम के वक्त 15 आदमियों को मोटर से भरकर सीवान के लिए रवाना किया। रास्ते में पेशाब करने के लिए गाड़ी को ठहरने के लिए कहा गया, लेकिन पुलिस ने मना कर दिया। पता लग गया कि डेढ़ साल के कांग्रेसी राज्य में हम कितने आगे बढ़े हैं।
6. जेल में (24 फरवरी-10 मई)
रात को सीवान के जेल में हमें बंद कर दिया गया। जाड़े का दिन था, हमें गन्दे कम्बल ओढ़ने को मिले। पिस्सुओं ने रात को सोने नहीं दिया। लेकिन स्वेच्छापूर्वक इनसे भी गन्दे कम्बलों और इनसे सख्त पिस्सुओं को मैं कितनी ही बार भुगत चुका था।
अगले दिन (25 फरवरी) सबेरे दरवाजा खुला। हमने हाथ-मुँह धोया। नमक के साथ पकाया पतला चावल खाने को मिला। फिर साढ़े तीन छटाँक आटे की रोटी खाने को मिली। किसानों को भला साढ़े तीन छटाँक से क्या बनता, लेकिन मंत्रियों को तो अब जेल भूल गया था, इसलिए इसकी ओर ख्याल करने की क्या जरूरत थी? नागार्जुन, जलील, मजहर, वासुदेव नारायण, महाराज पांडे और कितने ही अमवारी के किसान अब जेल में थे।
तीसरे दिन (26 फरवरी) हमें छपरा जेल में भेजा जाने लगा, क्योंकि सीवान का जेल बहुत छोटा है। पहिले अपनी टोली के नौ आदमियों के साथ मुझे भेजा गया। मेरे साथियों के हाथ में हथकड़ी डाल दी गई। मैंने सिपाहियों से कहा – या तो मेरे भी हाथ में हथकड़ी डालो, नहीं तो सबको बिना हथकड़ी चलने दो। सिपाही ने हथकड़ी खोल दी और रस्सी से घेरकर हमें स्टेशन ले गए। रास्ते-भर हम नारा लगाते रहे – “इन्कलाब जिन्दाबाद”, “किसान राज कायम हो, जमींदारी प्रथा नाश हो”, “कमानेवाला खायेगा, इसके चलते (लिए), जो कुछ हो।” सीवान के नागरिकों के लिए यह बिल्कुल ही नयी चीज थी। यही नहीं कि वह राहुल बाबा को सिर फूटे डोरी में बँधे सड़क पर से जाते देख रहे थे, बल्कि वह यह भी ख्याल करते थे कि यह सब कुछ गाँधीबाबा के राज में हो रहा है। रास्ते में मैंने रेल पर अखबारों के लिए एक वक्तव्य लिख दिया। 10 बजे छपरा पहुँचे और पैदल ही जेल में ले जाये गए। प्रोपैगंडा के लिए यह पैदल चलना बहुत अच्छा था। शायद हफ्ता भी न लगा होगा कि अमवारी के सत्याग्रह में मेरे सिर फूटने की खबर हरेक गाँव में पहुँच गई।
उस दिन अमवारी में मेरे बहुत जोर देने पर खोजवा से डाक्टर को बुलाया गया था और सिर में मामूली पट्टी बाँध दी गई। सीवान के डाक्टर ने घाव देखने की जरूरत नहीं समझी। आज तीसरे दिन यहाँ छपरा जेल के डाक्टर ने स्प्रिट से घाव को धोकर पट्टी बाँधी। डाक्टर ने अस्पताल में रखने और विशेष भोजन के लिए कहा, किन्तु मैंने इनकार कर दिया। 4 बजे कलक्टर आए। उन्होंने सुलह की बातचीत की। मैंने निष्पक्ष पंचायत के हाथ में झगड़े का फैसला दे देने के लिए कहा। उन्होंने चन्देश्वर बाबू से बात करके जवाब देने का वचन दिया।
अखबारों में खबर पहुँच गई थी। जिले के बाहर के भी नेता आने लगे थे। शिववचन सिंह और कितने ही दूसरे साथी अमवारी पहुँच गए थे और वह सत्याग्रह का संचालन कर रहे थे। जेल के बारे में मैंने 27 फरवरी को लिखा था – “जेल का ठेकेदार खराब चीजें देता है, खाना कम दिया जाता है, तरकारी, दाल भी खराब। अस्पताल में न कोई जमीन साफ न कपड़ा साफ। सामान भी बेतरतीब। कोई कम्पाउंडर भी नहीं।”
28 फरवरी को कलक्टर फिर आए। सुझाव रखा कि झगड़े के फैसले के लिए तीन आदमियों की पंचायत बनाई जाय – जिसमें एक किसान प्रतिनिधि, एक जमींदार प्रतिनिधि और एक सरकारी प्रतिनिधि हो। कलक्टर ने तीन डिप्टी कलक्टरों का नाम भी बतलाया जिनमें से एक को लिया जाय। उसने यह भी कहा कि मैं एक कानूनगो को अमवारी भेज रहा हूँ। वह किसानों की खेती-बारी का लेखा तैयार करके लाएगा।
अमवारी के किसान दबे नहीं, और आस-पास के सभी किसान उनकी मदद के लिए तैयार थे। वह हजारों की संख्या में जेल आए होते, यदि पुलिस ने गिरफ्तारी बन्द न कर दी होती। वहाँ सत्याग्रह-आश्रम में बहुत से स्वयंसेवक रहते थे, जिनके खाने-पीने का इन्तिजाम आस-पास के लोग करते थे। हाटों में स्वयंसेवक जाते तो साग-भाजी बेचनेवाली औरतें उनको तरकारी देतीं। किसानों को यह समझाने की जरूरत नहीं थी कि यह उनकी अपनी लड़ाई है। 6 मार्च को डायरी में मैंने लिखा था – “(आज) होली के उपलक्ष में पुआपूड़ी मिली, घी बरता गया हम लोगों की वजह से। कैदी चाहते हैं, स्वराजी लोग जेल में आते रहें। जेल के कैदी यहाँ के स्टाफ (अधिकारियों) से क्या सीखेंगे, जिन्हें कि वह खुद अपने से बदतर समझते हैं। जब तक मानव-संसार में जोंकों को चैन की बाँसुरी बजाने का मौका है, तब तक संसार से बेईमानी कैसे हट सकती है?”
8 मार्च को कलक्टर ने बतलाया कि जमींदार सुलह करने के लिए तैयार नहीं है।
यह तो बहानाबाजी थी। वह भला कैसे कलक्टर की मर्जी के खिलाफ जा सकते थे? 9 मार्च को मैंने जेलखाने के इन्सपेक्टर-जनरल के पास निजी रेडियो मँगवाने की आज्ञा माँगी। 11 मार्च को किसान कैदियों की तकलीफें बताते हुए कुछ माँगें रखीं, जो खाने, कपड़े, बिस्तर, पढ़ने-लिखने के सामान और अखबार आदि की सुविधा के लिए थी। उसमें लिख दिया गया था कि हम लोग एक हफ्ता इन्तिजार करेंगे, यदि 18 मार्च के 12 बजे तक हमारी माँगों के बारे में तै नहीं किया गया तो हम 5 आदमी (मैं, वासुदेवनारायण, मजहर, जलील और नागार्जुन) आमरण अनशन करेंगे। दूसरे दिन सुपरिटेन्डेन्ट ने कहा – आपकी माँगों में से जिन बातों का संकेत है, उन्हें करने के लिए हम तैयार हैं।
14 मार्च को मैंने ‘तुम्हारी क्षय’ पुस्तिका लिखनी शुरू की। आचार्य श्चेर्वात्स्की का पत्र आया जिसमें लिखा था कि लोला को एक स्वस्थ सुन्दर पुत्र हुआ है, पुत्र-जन्म की प्रसन्नता होनी ही चाहिए क्योंकि पुत्र ही आदमी का पुनर्जन्म और परलोक है। पत्र के साथ फोटो भी था।
समझौते की बातचीत के लिए अमवारी का सत्याग्रह स्थगित हो गया था। वह 13 मार्च से फिर शुरू हुआ। लेकिन पुलिस लोगों को गिरफ्तार नहीं करना चाहती थी।
अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियाँ बड़ी तेजी के साथ बदल रही थीं। मैं इसीलिए रेडियो चाहता था। और सो भी अखबारों में यह पढ़ने के बाद कि बिहार-सरकार जेलों में रेडियो लगवा रही है। लेकिन पीछे सरकार ने इस बात को लेकर प्रचार करवाया कि वह तो जेल को आरामगाह बनवाना चाहते हैं। 17 मार्च को पता लगा कि हिटलर ने प्राग (चेकोस्लोवाकिया) को ले लिया। मैं सोचने लगा – देखें अगला कदम रूस की ओर होता है या इंग्लैंड की ओर। उस दिन यह भी मालूम हुआ कि पुलिसवाले सत्याग्रह करनेवाले किसानों को नहीं, सिर्फ कार्यकर्ताओं को पकड़ते हैं। रोज 18, 20 आदमी सत्याग्रह करने जाते हैं। कार्यकर्ताओं को रखकर बाकी को पुलिस शाम को छोड़ देती है। प्रधानमंत्री से बात करके एक ऐसेम्बली मेम्बर उस दिन मेरे पास आए। उन्होंने कहा – मैंने अपने चार साथियों को उपवास न करने के लिए राजी कर लिया है। मैं भी हड़ताल कुछ दिनों के लिए स्थगित करने के लिए तैयार हूँ लेकिन सरकार किसान-कैदियों को राजनीतिक बन्दी मान ले। कांग्रेस मंत्रिमंडल ने अपने शासन के आखिरी दिन तक इस बात को नहीं माना। दुनिया आश्चर्य करेगी कि यह किसान चोर-डाकू नहीं थे, इन्होंने उसी तरह अपने हक के लिए लड़ाई की थी और जेल आए थे जैसे कि कांग्रेसी सत्याग्रही अँगरेजी सरकार से लड़ने के लिए जेल जाते थे। उस वक्त जिन्होंने राजनीतिक बन्दियों के लिए विशेष सुविधा पर जोर दिया था, अब वही किसान सत्याग्रहियों को राजनीतिक बन्दी नहीं, चोर-डाकू मानने के लिए तैयार थे। इसमें आश्चर्य करने की जरूरत नहीं, मन्त्री स्वयं जमींदार थे, किसान-आन्दोलन से स्वयं परेशान थे, वह भला अपने वर्ग-शत्रुओं के साथ कैसे न्याय कर सकते थे?
7. पहिली भूख-हड़ताल (18-22 मार्च)
जैसा कि मैंने पहिले लिखा है, मेरे दूसरे साथी मान गए और 18 मार्च के दोपहर से मैंने अकेले भूख-हड़ताल (उपवास) शुरू कर दी। उस दिन भी कुछ कांग्रेसी नेता आए और उपवास न करने के लिए कहते रहे; अगले दिन (19 मार्च) एक एम.एल.ए. मित्र आए। उन्होंने भी उपवास स्थगित करने के लिए कहा। मैंने उनसे कह दिया – “अब इसके लिए इतना प्रयत्न करने की जगह अच्छा होगा, जिन बातों के लिए उपवास किया जा रहा है, उसी के मनवाने का प्रयत्न करें।”
20 तारीख को उपवास का तीसरा दिन था। वजन 184 पौंड की जगह 175 पौंड रह गया, अर्थात् 3 दिन में 9 पौंड घटा। मैं अब सेल में पहुँचाया गया। मेरी बगल के सेल में एक फाँसीवाला कैदी था। आज ‘तुम्हारी क्षय’ पुस्तिका लिखकर खतम कर डाली। चौथे दिन वजन सिर्फ आधा पौंड घटा था। 21 मार्च को शरीर कुछ कमजोर मालूम हो रहा था। सोडा मिला हुआ पानी मुझे दिया जाता था। भूख मर गई थी। पढ़ने में थकावट मालूम होती थी। 22 मार्च को उपवास का पाँचवाँ दिन था। इंस्पेक्टर-जनरल का पत्र लेकर कोई सज्जन आए। उसमें लिखा था कि तत्काल के लिए हम सभी माँगों को स्वीकार करते हैं। उन्होंने फोन द्वारा यह भी स्वीकृति दे दी कि हमारे सभी साथी स्पेशल क्लास 2 में रखे जायेंगे और हम रेडियो भी मँगा सकेंगे। उसी दिन दोपहर को मैने उपवास तोड़ दिया। अमवारी के बारे में मालूम हुआ कि वहाँ सभाओं में 15, 20 हजार किसान जमा होते हैं, लोग दिन में दो बार खेतों पर सत्याग्रह करने जाते हैं - सबेरे स्त्रियाँ और बालक, और 3 बजे पुरु। 23 मार्च को मैं अपने साथियों में चला आया।
मुझे कुछ दिनों से ख्याल आ रहा था कि राजनीतिक प्रगति और भविष्य के कार्य के सम्बन्ध में एक उपन्यास लिखूँ। मैंने अब तक ‘बाइसवीं सदी’ को ही उपन्यास के ढंग पर लिखा था। ‘सतमी के बच्चे’ आदि कुछ कहानियाँ लिखी थीं, कुछ अंग्रेजी उपन्यासों का भारतीयकरण के साथ हिन्दी अनुवाद भी किया था; मगर अब तक कोई वास्तविक उपन्यास नहीं लिखा था; 25 मार्च से मैं ‘जीने के लिए’ उपन्यास लिखवाने लगा – मैं बोलता जाता था और नागार्जुन जी लिखते जाते थे।
28 मार्च को पता लगा कि अमवारी में सत्याग्रहियों पर मार पड़ रही है और कुछ लोगों को सख्त चोट आई है।
29 मार्च को शिक्षा-मंत्री डाक्टर महमूद आए। वह कहने लगे कि चलिए, जेल से निकलकर पंचायती खेती का काम सँभालिए। मैंने कहा – अभी तो किसानों के पास खेत ही नहीं है। पहिले अपने खेत होना चाहिए न।
8. हाथों में हथकड़ी
मेरा मुकदमा सीवान के मजिस्ट्रेट की अदालत में था। मुझ पर और मेरे साथियों पर दफा 379 चोरी का अपराध लगाया गया। हम लोगों की तारीख 31 मार्च को थी। उस दिन दोपहर बाद जेल के द्वार पर दोनों फाटकों के बीच में हमें ले गए। पुलिस-सिपाही मेरे हाथ में हथकड़ी लगाने लगा। जेल के एक अफसर ने कहा – बिना हथकड़ी के ही ले जाइए। इस पर पुलिसवाले ने वारन्ट दिखाकर कहा कि हथकड़ी लगाने के लिए यहाँ लिखा हुआ है। मैंने उस दिन की डायरी में लिखा था – “आज आग्रहपूर्वक हथकड़ी लगाई गई, वारन्ट पर खास तौर से हथकड़ी लगाने के लिए लिखा गया था। अच्छा, यह भी साध बुझी।” रेल में धूपनाथ से मुलाकात हुई और भी कितने ही दोस्त मिले। मालूम हुआ कि सारे जिले के किसानों में चेतना आ गई है, वह जमींदारों के सामने दबने के लिए तैयार नहीं हैं।
अगले दिन (1 अप्रैल) दो बजे हमें कचहरी ले जाया गया। चन्देश्वर सिंह के आदमियों ने गवाही दी कि बहुरिया (जमींदारिनी) का खेत काटने के लिए राहुलजी 10 आदमियों के साथ गए। कुरबान ने रोका, इस पर राहुल ने अपने हँसिए से उसके ऊपर वार किया और वह कट गया। उसने अपने बचाव के लिए बरगद की डाली घुमाई।
मुझसे मजिस्ट्रेट ने पूछा, तो मैंने कहा – बहुरिया का खेत है, और हमने गैरकानूनी मजमा बनाया, इसे मैं इनकार करता हूँ। लेकिन खेत काटने को मैं कबूल करता हूँ। दूसरे साथियों से पूछने पर उन्होंने कहा – हम नहीं जानते, बाबा जानते हैं। हमारी अगली तारीख 15 अप्रैल को पड़ी। अगले दिन (2 अप्रैल) दोपहर की गाड़ी से हम छपरा के लिए रवाना हुए। हथकड़ियाँ फिर लगाई गईं। वारन्ट को मैंने देखा, उसमें लिखा था – “Supplied 5 pairs of handcuffs” (5 जोड़े हथकड़ियाँ दी गई हैं)। यह साफ मालूम होता था कि अधिकारी जान-बूझकर अपमानित करने के लिए हथकड़ियाँ पहिनवा रहे हैं, लेकिन मुझे तो उसमें कोई अपमान नहीं मालूम होता था। जब मैं छपरा स्टेशन पर उतरा, तो किसी दोस्त ने हथकड़ियों के साथ मेरा फोटो ले लिया। वह अखबारों में छपा। बिहार के कांग्रेसी मंत्रिमंडल पर लोगों ने आक्षेप किया, फिर सरकार ने छपवाया कि मैंने माँगकर हथकड़ियों को पहना था जो कि सरासर झूठी बात थी।
मढ़ौरा फैक्टरी के झगड़े का फैसला करने के लिए तीन पंचों की पंचायत थी, जिसमें गवर्नमेंट की तरफ से पहिले मिस्टर पिल्ले नियुक्त हुए थे। ३ अप्रैल को तीनों पंच मढ़ौरा इकठ्ठा होने वाले थे। पुलिस मुझे जेल से ले चली, लेकिन जाते-जाते रेल छूट गई। शामको जाना था, लेकिन फिर तार आ गया कि मिस्टर पिल्ले कल नहीं आ रहे हैं।
६ अप्रैल को फांसी वाले कुछ बंदी छूटे। सोनपुर के तगड़े जमीदार ने एक आदमी का खून करवाया था, जिसमें चार आदमियों को फाँसी की सजा हुई, लेकिन मालिक साफ बच गए। जेल के फाटक से निकलते वक्त उनके पिट्ठुओं ने खूब जयकार मनाई। मुझे यह बहुत बुरा लगा। मेरे ही कहने पर चार आदमी फाँसी पर चढ़ने जा रहे थे, इस बात का तो उसे ख्याल करना चाहिए था। यदि उनके पास भी मुकदमे लड़ने के लिए उतने रुपये होते, तो बहुत कम सम्भव है कि उन्हें फाँसी की सजा होती ।
हमारे सत्याग्रही साथियों में अधिकतर अशिक्षित किसान, कुछ अल्पशिक्षित और कुछ अधिक शिक्षित तरह के लोग थे। सभी गाँवों के रहने वाले थे, तो भी उनमें पटरी नही जमती थी। मैं सोचता था कि शिक्षित अशिक्षित के साथ क्यों नहीं चल सकते । आखिर ग्यारह आदमियों को सैंतीस आदमियों से अलग रहने की जरूरत क्या ? यह ठीक था कि जेल में बेकार रहना भी झगड़े का एक कारण है। मैंने ९ तारीख की डायरी में लिखा- " शिक्षित साथी मुझसे बहुत नाराज हैं। कारण यही है कि मैंने अशिक्षित साथियों को दबाया क्यों नहीं। लेकिन शिक्षितों का अशिक्षितों के साथ रहना क्या असम्भव है ? कुछ कठिनाइयाँ जरूर हैं। सब से बढ़कर बात यह है,कि शिक्षित (स्वयं) एक अलग ही श्रेणी बन जाते हैं।" हमारे शिक्षितों का व्यवहार अधिक बुद्धिपूर्वक था, किन्तु ये गलतफहमियों को हटा नहीं सकते थे।
"गलतफहमी अधिकांश गलत बातों पर निर्भर थी।" १८ अप्रैल की डायरी में लिखा था, "शिक्षित क्यों साधारण जनता के विश्वासपात्र नहीं होते, आखिर वह भी तो उसीमें से हैं ? वह उनकी परवाह नहीं करते।" अगले दिन लिखा था- "नेतृत्व की ईर्ष्या ही झगड़े का प्रधान कारण होती रही है।" मैं यह नहीं कहता, कि अशिक्षित किसानों का कोई दोष नहीं था, लेकिन २४ घंटे साथ रहने पर, आदमी नंगा हो जाता है, इसलिए तोपतापके रोब गाँठने का प्रयत्न व्यर्थ है, इस बात को हमारे शिक्षित मानने के लिए तैयार नहीं थे ।
मेरी भूख-हड़ताल काँग्रेसी सरकार को किसी निर्णय पर पहुँचने के वास्ते समय देने के लिए स्थगित थी। वह फिर शुरू होनेवाली थी। १३ अप्रैल को मैंने प्रधान मंत्री के पास भूख-हड़ताल की सूचना भेज दी। उस दिन पटना से आनेवाले एक दोस्त ने खबर दी, कि किसान कैदियों की माँगों को सरकार नहीं मानेगी और उपवास करने पर मुझे जेल में छोड़ देगी । मुझे समझ में नहीं आता था, कि काँग्रेस मंत्रियों के सामने मैंने कौनसी ऐसी मांग पेश की, जिससे कि वह खुद राजनीतिक बन्दियोंके लिए न मांगते, यदि वह मेरी तरह जेल में होते ।
१४ अप्रैलको श्री वासुदेवनारायण और दूसरे सात साथी सीवान से आए । उनको एक-एक साल की कड़ी सजा हुई । उसी दिन हमें भी सीवान ले गए, फिर हमारे हाथों में हथकड़ी लगी थी, और साधारण नहीं, सशस्त्र पुलिस हमारे साथ चली । सीवान स्टेशन पर उतरे, तो लोगों की भीड़ बढ़ने लगी, और हजारों आदमी पीछे- पीछे जेल तक गए।
9. सजा और भूख हड़ताल
१५ अप्रैल को जेल के भीतर ही हमारा मुकदमा हुआ। मि० ब्राइसन थे तो नए आई० सी० एस० अँग्रेज, लेकिन जान पड़ता है, तानाशाही काफी सीख गये थे । उन्होंने इजलास इस तरह लगवाया था, कि जिसमें हमें बराबर खड़ा रहना पड़े । समझते होंगे कि इस अपमान से वह मुझे हताश कर सकेंगे । मान अपमान को मैं बहुत पीछे छोड़ आया था, हाँ ब्राइसन के दिल को शान्ति जरूर मिली होगी। वह एक परम अंग्रेज भक्त अवैतनिक खुफ़िया अफ़सर की सेवाओं के लिए पुरस्कार भी तो दे रहा था । हमने विरोध के तौर पर अदालत की कार्रवाई में कोई भाग नहीं लिया। हमारे खिलाफ़ ५ गवाह गुजरे, जिनमें एक थे रघुनाथपुर के दारोगा, जंगबहादुर सिंह । जंगबहादुर सिंह ने दो बातें सरासर झूठ कही थीं, एक यह कि मेरे सिर में चोट गिरफ्तारी से पहले लगी थी और दूसरी यह कि कुरबान को भी चोट लगी। पहिला झूठ तो उन्होंने इसलिए कहा कि सरकारी हिरासत में कोई आदमी हो तो उसकी रक्षा का भार सरकारी अफसर पर है। सिर फटने का मतलब था कि अफसर ने असावधानी की। इस प्रकार पहिला झूठ तो वह बोले थे, अपने को बचाने के लिए: लेकिन, दूसरे झूठ को बोलने की जरूरत नहीं थी। सिवाय इसके इसका कोई और मतलब नहीं हो सकता था कि वह खुफिया जमींदार की सहायता करना चाहते थे। उनका कहने का अर्थ यह हुआ कि मैंने शान्तिमय सत्याग्रह नहीं किया, बल्कि हँसुआ को मैंने हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया। मैंने पहिले दिन की पेशी में देखा कि कुरबान के हाथ में पट्टी बँधी हुई है। जमींदार ने जरूर उसके हाथ में घाव बनवाया था। तो क्या पुलिस भी पूरी तौर से मेरे मामले में दिलचस्पी ले रही थी? पुलिस ही क्यों, जिला-मजिस्ट्रेट और सीवान के मजिस्ट्रेट भी खास तौर से दिलचस्पी ले रहे थे। शायद वह समझते थे कि रूस से लौटा यह बोलशेविक ब्रिटिश साम्राज्य में गड़बड़ी मचा रहा है, इसलिए उसको दबाना और अंग्रेज-भक्त जमींदार की मदद करना उनका फर्ज है। मुझे दफा 143 (गैरकानूनी मजमे का मेम्बर होने) और दफा 379 (ऊख की चोरी करने) में छै-छै मास की कड़ी सजा हुई, और बीस रुपया जुर्माना, ने देने पर तीन मास की और सजा। यह मुझे तीसरी बार जेल की सजा हुई थी, और सो भी चोरी के अपराध में! और सख्त सजा! खूब!!
अगले दिन (16 अप्रैल) हमें सिपाही छपरा की ओर ले चले। वह मेरे हाथ में हथकड़ी देने में हिचकिचा रहे थे, मैंने अपना हाथ बढ़ा दिया और दोनों हाथों में हथकड़ी पड़ गई। उसी दिन हम छपरा जेल में चले आए। जेल में अबकी बार जब गिरफ्तार करके आया, तभी से मैंने अधबहियाँ कुरता और जाँघिया पहनना शुरू किया था। लेकिन अब भी पीले कपड़े मेरे पास थे। 17 अप्रैल को मुझे कैदियों का कपड़ा पहनने को मिला। उस दिन “चलो, धर्म से अब नाममात्र का भी सम्बन्ध नहीं रहा” यह वाक्य लिखा था, और वह भी – “मिस्टर केम्प कलक्टर अपनी सारी शक्ति लगाए हुए हैं। सारी पुलिस और खुफिया-विभाग लगा हुआ है। जिले की सभी जमींदारियों का साथ यहीं मुकाबिला हो रहा है।” अब हमें रोज दस-दस सेर गेहूँ पीसने के लिए मिलनेवाला था, हम चक्की आदि भी देख आए।
10. पुलिस की जाँच
कांग्रेस मंत्री भी उसी तरह कुचलने के लिए तैयार थे, जैसे सारन (छपरा) के अंग्रेज-अफसर! यह आश्चर्य की बात नहीं थी, इसके लिए उन्हें वर्गस्वार्थ प्रेरित कर रहा था, लेकिन अभी हिन्दुस्तान को आजादी नहीं मिली थी, अभी किसानों की शक्ति को कुचलने के लिए तैयार हो जाना राजनीतिक दूरदर्शिता नहीं कही जा सकती थी। लेकिन अखबारों में मेरे सिर फटने, हाथ में हथकड़ी लगाने तथा दूसरी अपमानजनक बातों की खबरें छप चुकी थीं। अखबारवाले बिहार की कांग्रेस मिनिस्ट्री को धिक्कार रहे थे, इसलिए सरकार को कुछ लीपापोती करने की जरूरत थी। उसने पुलिस के इंस्पेक्टर-जनरल अलख कुमार सिंह के जिम्मे जाँच करने का काम दिया। एक साधारण रायटर कांस्टेबुल तरक्की करते-करते सारे सूबे की पुलिस का इंस्पेक्टर-जनरल हो जाय, यह जरूर असाधारण-सी बात थी। अलख बाबू में विशेष योग्यता थी, इसे इन्कार करने की जरूरत नहीं, किन्तु साधारण तौर की योग्यता उनको इतने ऊँचे पद पर नहीं पहुँचा सकती थी। उनमें सबसे बड़ी योग्यता यह थी कि उन्होंने अपने शरीर और आत्मा को अंग्रेजों के हाथ में बेच डाला था, फिर ऐसा आदमी जाँच करने आए, तो उससे क्या आशा हो सकती है? उन्होंने मुझसे चोट लगने के बारे में पूछा – मैंने सारी बातें बता दीं।
उसी दिन सात बजे मुझे जेल से सीवान की ओर ले चले। मेरे साथ दो सिपाही और एक थानेदार था।
अगले दिन (21 अप्रैल) इंस्पेक्टर-जनरल, सुपरिन्टेन्डेन्ट पुलिस, डिप्टी सुपरिन्टेन्डेन्ट पुलिस, कलक्टर सारे अमवारी पहुँचे। रामयश सिंह के बथान के द्वार पर गए। वहाँ मैंने बतलाया कि यहीं मैंने थानेदार को दो घंटा पहिले सत्याग्रह करने का समय बतलाया था। हम यहाँ से 10 बजे रोशन भगत के खेत में गए। रोशन भगत के खेत पर जाकर घटना-स्थान को बतलाया। दरोगा जंगबहादुर ने मुझ पर जिरह करना शुरू किया। वह कितनी ही बातें कह जाते, जिनको इंस्पेक्टर-जनरल नोट नहीं करते और सिर्फ मेरी बातों को काट-छाँट के लिखवाते। थानेदार जंगबहादुर ने मुझ पर जिरह करना शुरू किया। वह कितनी ही बातें कह जाते, जिनको इंस्पेक्टर-जनरल नोट नहीं करते और सिर्फ मेरी बातों को काट-छाँट के लिखवाते। थानेदार जंगबहादुर सिंह और पुलिस इंस्पेक्टर विक्रमजीत सिंह चार घंटे तक जिरह करते रहे। सारी काररवाई से मालूम हो रहे था कि यह जाँच सिर्फ लीपापोती के लिए हो रही है। आस-पास के गाँवों में खबर पहुँच गई थी और झुण्ड-के-झुण्ड आदमी वहाँ जमा हो रहे थे। हम लोग उसी दिन सीवान लौट गए।
साढ़े चार बजे शाम को फिर जाँच शुरू हुई। यहाँ इंस्पेक्टर-जनरल सुपरिन्टेन्डेन्ट पुलिस (अंग्रेज), कलक्टर (अंग्रेज), विक्रमजीत सिंह (इंस्पेक्टर), द्रुत लेखक और मैं कुल 6 आदमी थे। यहाँ भी मैं देख रहा था, इंस्पेक्टर जनरल हमारी बातों को पूरा नहीं लिखवाते, और जो लिखवाते, उसे भी तोड़-मरोड़कर। मैंने इसका विरोध किया तो इंस्पेक्टर-जनरल (अलख बाबू) उबल पड़े। मैंने साफ कह दिया – “मैं तुम्हें खुदा नहीं समझता, तुम भूल कर रहे हो जो अपने को मेरा भाग्यविधाता समझते हो। तुम किस लायक हो, इसे तुम खुद अपने मन से पूछो।” इंस्पेक्टर-जनरल का दिमाग कुछ ठंडा हुआ। उन्होंने कहा – “कुछ मेरी उमर का भी ख्याल करें। मैंने कहा – मैं भी छियालीस साल का हूँ। हम दोनों की उमर में बहुत अन्तर न होगा।”
थोड़ी देर और कुछ लिखते-पढ़ते रहे, इसके बाद मुझे छुट्टी मिल गई और मैं उसी रात छपरा चला आया।
जेल बन्द हो चुका था, इसलिए थानेदार मुझ शहर के थाने पर ले गए। थानेदार भले मानुष थे। मैं खाकी हाफपैन्ट, हाफशर्ट में कुर्सी पर बैठा था। लोग क्या जानते थे कि यह चोर-कैदी बैठा हुआ है, वह मुझे ही दारोगा समझकर सलाम कर रहे थे। जलपान के बाद मुझ थानेदार जेल में छोड़ आए।
अबकी बार अमवारी सत्याग्रह के लिए जब मैं पटना से आया था तो अपने साथ (लेघोर्न) मुर्गी के अंडे इस मतलब से लाया था कि इनको सेयाकर बच्चे पैदा करें, फिर एक मुर्गीखाना तैयार किया जाय। मुर्गीखाने की जगह भी ठीक कर ली गई थी और नगर के सर्वमान्य देवता के नाम पर उसका नाम ‘धर्मनाथ मुर्गीभवन’ रखा जाने वाला था। सत्याग्रह के बाद मुर्गीभवन की बात तो बीच ही में रह गई। 22 अप्रैल को मालूम हुआ कि 12 अंडों में सिर्फ 4 ही बच्चे पैदा हुए – अंडे कुछ दिनों तक बिना सेए ही रख दिए गये, इसी से यह हुआ था। दो पालने वाले ने रख लिए थे और दो मेरे लिए छोड़े थे। आन्दोलनकारी ऐसे कामों को कैसे कर सकता? 22 अप्रैल को मैंने प्रधानमंत्री को तार दे दिया कि यदि हमारी माँगें नहीं मानी गईं तो पहिली मई से मुझे भूख हड़ताल करनी होगी।
अगले दिन (23 अप्रैल) बाबू मथुराप्रसाद आए। उनसे किसान-कैदियों की माँगों के बारे में बातचीत हुई। इसी बीच में ही पुलिस का जमादार अँगूठे का निशान लेने आया – चोर कैदियों के अँगूठे का निशान लिया जाता है। मैं चोर कैदी था ही। मैंने कहा – मुझे कोई उजुर नहीं, एक नहीं पाँचों उँगुलियों का निशान लीजिए। मथुरा बाबू ने मना कर दिया और निशान लेना बन्द हो गया। पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट इंस्पेक्टर-जनरल के जिरहवाले कागज को लेकर दस्तखत कराने आए। मैंने ‘Distorted and many points left out’ (तोड़ा-मरोड़ा और बहुत से महत्वपूर्ण अंशों को छोड़ दिया गया) लिखकर हस्ताक्षर कर दिया। पार्लामेंट्री सेक्रेटरी बाबू कृष्णबल्लभ सहाय ने भी हमारी माँगों के बारे में बातचीत की। कलक्टर ने चिट्ठी भेजी कि सरकार कुरबान के ऊपर मुकदमा चलाना चाहती है। शाम के वक्त फिर हमारी माँगों के बारे में कृष्णबल्लभ बाबू और मथुरा बाबू ने बातचीत की, जिससे पता लगा कि कांग्रेस-सरकार किसान कैदियों को राजनीतिक बन्दी बनाने के लिए तैयार नहीं है। शायद भविष्य के लोगों को यह पढ़कर आश्चर्य होगा कि किसान बन्दी भी उसी तरह अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे थे, जैसे किसी समय कांग्रेसी बन्दियों ने लड़ाई की थी, फिर किसानों के चुने हुए कांग्रेसी मंत्री उचित माँगों को माँगने के लिए क्यों तैयार नहीं हुए? लेकिन यह मामूली-सी बात है – कोई प्रतिद्वंद्वी अपने विरोधी के साथ रियायत करने के लिए तैयार नहीं होता। जमींदार-मंत्री इसे अपने हाथ से अपने पैर में कुल्हाड़ी मारना समझते थे।
27 अप्रैल को डाक्टर श्चेर्वात्स्की का पत्र आया, यह 17 मार्च को लिखा गया था, साथ में बच्चे का चित्र और लोला का भी चित्र था।
हमारे साथियों में से वासुदेव नारायण, मजहर, जलील और नागार्जुन को द्वितीय श्रेणी का कैदी बना दिया गया था। 30 अप्रैल को उन्हें हजारीबाग भेजने वाले थे, लेकिन अगले ही दिन मैं भूख-हड़ताल शुरू करने वाला था, इसलिए उन्होंने जाने से इन्कार कर दिया और उन्हें यहीं रहने दिया गया।
11. दस दिन (1-10 मई) का उपवास
अपनी उचित माँगों को मनवाने का कोई रास्ता न देखकर कैदी को भूख-हड़ताल करनी पड़ती है। मैंने अपनी भूख-हड़ताल को हल्के दिल से नहीं शुरू किया था, मैं उसे अन्त तक ले जाने के लिए तैयार था। सरकार को मौका देने के लिए एक बार कुछ दिन तक भूख-हड़ताल कर उसको छोड़ दिया था, लेकिन सरकार टस से मस नहीं हुई। कांग्रेसी जमींदार कितने पानी में हैं, यह बात मुझे ही नहीं, दूसरों को भी स्पष्ट होती जा रही थी। मैंने पहिली मई से भूख-हड़ताल शुरू कर दी, जो दस दिन तक जारी रही, और उसी समय टूटी जब कि मुझे जेल से बाहर कर दिया गया। उस वक्त मेरे स्वास्थ्य की अवस्था निम्न प्रकार थी –
दिन वजन (पौंड) नाड़ी-गति हृदय-गति तापमान विशेष
1. 174 .. .. ..
2. .. .. .. .. कमजोरी
3. .. .. .. .. कमजोरी नहीं, भूख मर गई
4. .. 64 18 .. कमजोरी, झुनझुनी, 102 ज्वर
5. 168 66 16 .. फुर्ती
6. 164 .. .. .. कमजोरी नहीं
7. 160 .. .. .. उठने पर बैठने की ताकत है, अँतड़ी में तिलमिली
8. 158 72 18 95.4
9. 159 .. .. .. ..
10. 156 74 20 .. ..
मैंने उपवास करते वक्त साथियों से कह दिया था कि सात दिन तक कोई उपवास शुरू न करे। दूसरे दिन पटना से टेलीफोन आया कि मुझे हजारीबाग भेज दिया जाय। मैंने जाने से इन्कार कर दिया। चौथे दिन जेलवालों ने जबरदस्ती नाक के रास्ते दूध पिलाना चाहा, लेकिन वह सफल नहीं हुए। मुझे बहुत पीड़ा हुई, और दोपहर बाद एक 102 डिग्री बुखार आ गया। सिर और शरीर में दर्द होने लगा। जेल में कलक्टर आए थे। पता लगा कि मेरे हाथों में हथकड़ियाँ डालने के बारे में जाँच हो रही है। पाँचवें दिन जेल विभाग के पार्लामेन्ट्री सेक्रेटरी कृष्णबल्लभ बाबू आए। माँगों पर बातचीत हुई। उन्होंने कहा कि अनशन छोड़ दें, सरकार माँगों पर विचार कर रही है। मैंने कहा – “मैं इतनी जल्दी मरूँगा, आप माँगों को मानकर उपवास तुड़वाने की कोशिश करें।” आज से लिखना-पढ़ना बंद हो गया। तीसरे दिन तक तो मैं ‘जीने के लिए’ बाकायदा लिखवाता रहा। सात बजे दिन तक मैंने पुस्तक थोड़ी-सी लिखाई। उठने-बैठने-चलने में किसी की सहायता की जरूरत थी, आँखों के सामने अँधेरा आता था। पेट में अँतड़ियाँ कुछ तिलमिलाती मालूम होती थीं, लेकिन भूख न थी। उसी दिन जेलों के इंस्पेक्टर-जनरल मिस्टर अंगर आए। उन्होंने दूध-बार्ली लेने को कहा और बहुत आग्रह किया कि जान मत दें। मैंने कहा – मैं जान देने के लिए तैयार हूँ, जुए पर जान की बाजी लगा चुका हूँ।
12. जेल से बाहर
8 मई को मालूम हुआ कि कालेज और स्कूलों के लड़के मेरे बारे में शाम-सुबह रोज जुलूस निकाल रहे हैं, और अंग्रेजी सरकार की भद उड़ रही है। दसवें दिन (10 मई) रात को फाटक पर चलने के लिए बुलवाया गया, मैंने किसी का सहारा नहीं लिया और अपने पैरों ही से चल पड़ा। कलक्टर आए हुए थे। उन्होंने कहा – बिहार-सरकार ने आपको जेल से छुड़ा दिया है। फिर अपने साथ ही मोटर पर अस्पताल में छोड़ गए। 24 घंटे के बाद मैंने उपवास तोड़ा। हमारी माँगों को पूरा नहीं किया गया, लेकिन मैं जानता था, मुझे न जाने कितनी बार किसानों के लिए जेल में आना होगा और जब तक इन माँगों का निपटारा नहीं होता, तब तक जेल में मुझे कुछ खाना नहीं है।
दूसरे दिन मैं पंडित गोरखनाथ त्रिवेदी के घर पर चला गया। डाँ. सियावर शरण अपने घर आए हुए थे, वह मिलने आए और मुझे साथ ले चलने के लिए बोले। 16 मई को उनकी मोटर पर मैं जामो-बाजार चला गया – गाँव और एकांत स्थान था। डा. सियावर एक सफल डाँक्टर हैं, सफल ही नहीं, सहृदय डाक्टर हैं, मेरे ही लिए नहीं, सारे देहात के लोगों के लिए भी। दूसरे दिन (17 मई) स्वामी सहजानन्द और पंडित यदुनन्दन शर्मा सीवान आने वाले थे। बिरजा (ब्रजबिहारी मिश्र) ने अमवारी में बड़ी तत्परता और निर्भयता से काम किया था। एक बार किसानों के खोदे हुए कुएँ को पुलिसवाले मिट्टी डालकर बंद करना चाहते थे, बिरजा कुएँ में कूद पड़ा और उन्हें मिट्टी डालना बंद करना पड़ा। पंडित लक्ष्मीनारायण मिश्र अपने सबसे छोटे पुत्र को बहुत पढ़ाने की कोशिश करते थे, लेकिन बिरजा ने पढ़ा नहीं, तो भी उसके पास हृदय था, हिम्मत थी, और निर्भयता थी। बिरजा मुझे सीवान चलने के लिए कहने आया था। डा. सियावर शरण अपनी मोटर को वहाँ ले गए। बहुत भारी सभा थी, जिसमें अमवारी से चौदह मील चलकर तीन सौ मर्द और एक सौ ऊपर किसान-औरतें आई थीं। सियावन वालों ने उनके खाने-पीने का अच्छा इन्तिजाम किया था। यही मुझे पहिले-पहिल यदुनन्दन शर्मा का व्य़ाख्यान सुनने को मिला। उनका भेष किसानों जैसा था, वैसी ही उनकी भाषा थी। वह ऐसा एक भी वाक्य नहीं कहते थे, जिसे किसान न समझ पाए। उनके भेष, भाषा को देखकर कोई कह नहीं सकता था कि यह हिन्दू यूनिवर्सिटी का ग्रेजुएट क्या, चार दर्जे भी अंग्रेजी पढ़ा होगा। उसी दिन मैं जामो लौट आया। डा. सियावर ने ज्यादातर निरन्न भोजन का इन्तिजाम किया था। सिर्फ दोपहर को चावल या रोटी खाने को मिलती थी, नहीं तो अंडा, मछली, कबूतर, मुर्गी, बकरे का माँस – यही प्रधान खाद्य थे। साथ में हरे खीरे जैसी कुछ चीजें भी थीं। बड़ी तेजी से मेरा स्वास्थ्य सुधर गया था।
21 मई को ‘जीने के लिए’ के अवशिष्ट अंश को लिखकर मैंने खत्म कर दिया। लोग बराबर आया करते थे और पुलिस भी पूछती रहती थी। जामो में मैं नौ दिन से ज्यादा नहीं रह सका, इसके लिए डा. सियावर को बड़ा अफसोस रहा। लेकिन जब शरीर में ताकत आ गई, तब फिर विआम कैसे किया जा सकता था। 24 तारीख से फिर मैंने काम शुरू किया। 25 को अमवारी में 8-10 हजार जनता की एक बड़ी सभा हुई, जिसमें 5-6 सौ स्त्रियाँ थीं। उसके देखने से मालूम होता था कि किसान के पास अटूट हिम्मत है, वह अपराजेय है। स्त्रियाँ नए तरह का गीत गाती थीं जिसमें किसानों के दुःख और अत्याचार की बात होती थी।
26 मई को मेरवा गया। हरिराम ब्रह्म किसी राजा के जुल्म के कारण पेट में छुरी भोंककर मर गए थे। आज उस राजा का गढ़ ढह गया है, लेकिन हरिराम ब्रह्म का मृत्यु-स्थान एक तीर्थ के रूप में परिणत है, जहाँ हर साल लाखों आदमी दर्शन के लिए आते हैं। बारह-चौदह वर्ष हुए, जमुना भगत एक अनपढ़ किन्तु साधु-हृदय कुम्हार ने यहाँ धुनी रमाई। यात्रियों को टिकने और नहाने-धोने की बड़ी तकलीफ होती थी। यमुना भगत ने प्रण किया कि यहाँ एक तालाब और धर्मशाला बनवाई जाएगी। न उनके पास विद्या थी, न धन था। असहयोग आन्दोलन के समय बिहार में जो देशभक्ति की बाढ़ आई थी, उससे यमुना भगत भी प्रभावित हुए थे – वह कांग्रेस के स्वयंसेवक थे। उनकी लगन को देख लोगों ने पैसा-दो पैसा देना शुरू किया। आज वहाँ पक्का तालाब बन गया है, एक धर्मशाला भी है। यमुना भगत का गाँव गंगपलिया वहाँ से कई मील दूर है। वह खुद तो साधु की तरह रहते हैं, लेकिन घर में बड़ा परिवार था। घरवाले बर्तन बनाते थे और कई पीढ़ियों से जमींदारों से कई बीघा खेत लेकर जोतते आए थे। जैसा कि आम तौर से बिहार में देखा जाता है, सर्वे (पैमाइश) के वक्त जमींदारों के वक्त मीठी-मीठी बातें कहकर समझा दिया – क्या करोगे अपने नाम काश्तकारी लिखकर, रहने दो। जैसे आज तक तुम जोतते थे, वैसे ही जोतते रहना। वह मालगुजारी की रसीद भी नहीं देते थे। पिछले साल उन्होंने खेत छीन लिया। यमुना भगत के परिवार के लोग भूखे मरने लगे। यमुना उनसे अच्छा परिचय रखते थे। कांग्रेस का जब भी कोई काम आता तो यमुना भगत हरिराम धाम को छोड़कर वहाँ पहुँच जाते थे। दुर्भाग्य से जमींदार कायस्थ थे, बिरादरी का मामला था, इसीलिए न्याय करना आसान काम नहीं था। वह जिले के, प्रान्त तक के कांग्रेसी नेताओं के पास दौड़ते ही रह गए, किन्तु किसी ने उनकी अरज नहीं सुनी। एक दिन लाल कुर्ती वाले दस किसान स्वयंसेवक गंगपलिया पहुँच गए। जमींदार बाबू घबड़ा गए और उन्होंने समझौता शुरू करने की बात की। समझौता हुआ या नहीं, वह दूसरी बात है।
राजेन्द्र कालेज में विद्यार्थियों और प्रिंसिपल का झगड़ा हो गया था। प्रिंसिपल हजारी योग्य और सज्जन पुरुष थे, लेकिन वह नहीं जानते थे कि आज के नए तरुण के साथ कैसे बर्ताव करना चाहिए। उन्होंने बहुत-से विद्यार्थियों को नाराज कर दिया। राजेन्द्र कालेज अब जम चुका था, कितने ही लोग सोचते थे कि दूसरे प्रान्त के लिए सिंधी को लाकर इतनी बड़ी नौकरी देना ठीक नहीं। इसे हमें किसी अपने जाति-बिरादरी के आदमियों को देना चाहिए। उन्होंने विद्यार्थियों को और भड़काया। मैं 29 मई को छपरा में था। कालेज के विद्यार्थियों ने बातचीत की। मैंने समझाने की कोशिश की लेकिन मालूम हुआ कि कालेज की रक्षा के लिए प्रिंसिपल हजारी को हटाए बिना कोई रास्ता नहीं।
दस जून को प्रिंसिपल हजारी ने राजेन्द्र कालेज को छोड़ा। मैं बीच में न पड़ा होता, तो वह इतनी आसानी से अपनी जगह न छोड़ते। लेकिन उनके जाते वक्त अच्छी तरह अनुभव करता था कि प्रिंसिपल हजारी के साथ अन्याय हुआ है, यद्यपि उनमें उनकी अपनी भी भूलें कारण हुई थीं। जहाँ भी पैसे और अधिकार का सवाल आता है, वह सभी पूँजीवादी देशों में ईमानदारी और न्याय को ताक पर रख दिया जाता है। हिन्दुस्तान में वह और भी वीभत्स रूप धारण करता है। यदि किसी ऊँचे स्थान या ऊँची संस्था पर ब्राह्मण पहुँच जाता है तो वह ब्राह्मणों को भरने की कोशिश करता है, यदि राजपूत तो राजपूतों को, यदि कायस्थ तो कायस्थ को, यदि भूमिहार तो भूमिहार को। किसी कालेज या सरकारी विभाग में कायस्थों को भरा देख कितने ही लोग गाली देते हैं – देखो ये कायस्थ बड़े बेईमान हैं, यह सिर्फ अपने भाई-भतीजों का ख्याल करते हैं। वह कभी यह नहीं ख्याल करते, कि वैसी परिस्थितियों में वह खुद क्या करते। जब तक जात-पात है, तब तक ऐसा होना स्वाभाविक है कि आदमी अपने रक्त-संबंधियों के कष्ट को पहिले अनुभव करे और उसे दूर करने की कोशिश करे। मेरे छपरा के कुछ दोस्त कहते हैं – राजेन्द्र कालेज को कायस्थ बिल्कुल अपनी चीज बना लेना चाहते हैं, वह आपको अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं। मैं भी कालेज कमेटी का मेम्बर था। जब नए प्रिंसिपल की नियुक्ति का अवसर आया, तो मैंने मनोरंजन बाबू का नाम पेश किया। मनोरंजन बाबू पहिले आने में नाहीं कर रहे थे, लेकिन मैंने जब उन्हें जोर देकर कहा, तो उन्होंने आवेदन-पत्र भेज दिया। नियुक्ति के समय जब मैंने मनोरंजन बाबू के लिए प्रस्ताव किया, तो विरोधियों का बल बहुत कमजोर हो गया। मनोरंजन बाबू प्रिंसिपल नियुक्त हुए। मेरे कितने ही दोस्त उलाहना देते ही रहे। लेकिन मेरे बारे में वह यह तो कह नहीं सकते थे, कि मैंने किसी जात का पक्ष लिया। मेरे दोस्त जब फिर कहते हैं कि कायस्थ कायस्थ का पक्ष कर रहे हैं, तो मैं कहता हूँ – पहले कायस्थ की बेटी लो या बेटा दो, तब इस बात को कहो। जब तक यह जात-पात है, तब तक अवसर और अधिकार न मिलने तक ही आदमी ईमानदार रह सकता है।
छब्बीस-छब्बीस वर्ष से मैं इस जिले में पहिले रामउदार बाबा, पीछे राहुल बाबा के तौर पर प्रसिद्ध रहा हूँ। अब मैंने कपड़ा छोड़ दिया था, अधिकतर जाँघिया-कुर्ता पहनता था। मंत्री और कांग्रेस नेता मुझे फूटी आँखों देखना नहीं चाहते थे, क्योंकि मेरी वजह से जनता में बदनाम हो रहे थे। यद्यपि यह बात गलत थी। बदनाम वह इसलिए हो रहे थे, कि अपने जन्म (वोट) दाताओं का नहीं, अपने जमींदार-बंधुओं का पक्ष ले रहे थे। रूस में मेरी बीबी है, यह बात भी उन्हें मालूम थी। वह लोग फूले न समाते थे। उन्होंने चिट्ठियों के फोटो लिए। बीबी-बच्चे के फोटुओं को वापस कराई। अखबारों में मेरे विरुद्ध छपवा रहे थे कि इस तरह हम राहुल को जनता के सामने पतित साबित कर देंगे। मेरे घनिष्ठ दोस्त पहिले ही से इस बात को जान गए थे। मैं मंत्रिमंडल के इस उल्लास-भरे प्रयास को सिर्फ कौतूहल की दृष्टि से देखता था। मुझे उनके इस लड़कपन पर हँसी आती थी – वह समझते थे कि कमेरे राहुल जी के कपड़े और साधुताई का मुग्ध हैं। वह यही नहीं जानते थे कि उनकी जीविका के लिए जो भी ईमानदारी से लड़ेगा, उसके साथ वह स्नेह प्रकट करेंगे। जब मैं सत्याग्रह के लिए अमवारी गया, तो जलील को प्रताप सिंह बना के रखना पड़ा था। हम साठ-सत्तर सत्याग्रही छपरा जेल में थे, जिसमें अधिकांश किसान थे। मैं और मेरे शिक्षित दोस्त तथा किसान-मजदूर और जलील एक साथ खाते थे। हिन्दू-मुसलमान की एक रोटी होनी चाहिए, हमने इस पर एक दिन भी लेक्चर नहीं दिया। लेकिन कुछ ही दिनों में किसान एक-दूसरे के हाथ से रोटी छीनकर खाने के लिए तैयार हो गए। दूसरी बार जब छितौली-सत्याग्रह के लिए जाना पड़ा, उस वक्त इब्राहीम और दूसरे कर्मियों का मैंने नाम नहीं बदला। पाँच-पाँच, सात-सात आदमियों के लिए थाली जमा करवाने कौन जाय? हम लोग एक थाली में दाल रख लेते, और एक में रोटी, उसी में बैठकर सब खाना खा लेते। इससे किसानों को कोई तरद्दुद नहीं करना पड़ता था। एक घर में नहीं होता, तो वह दस घरों से थोड़ा-थोड़ा खाना जमा करके ले आते। जमींदार ने इस बात को ले बेधर्मी आदि कह-कहकर बदनाम करना चाहा, लेकिन किसानों का एक ही जवाब था – हम उनसे धर्म नहीं ले रहे हैं, हम तो खेत के लिए उसकी सहायता चाहते हैं, और राहुल बाबा जी जान देने के लिए तैयार हैं। लेकिन कांग्रेस-सरकार के विरोधी प्रोपेगंडे का थोड़ा-बहुत असर जमींदारों के बाद शिक्षित मध्यम-वर्ग पर हो सकता था, लेकिन वह तो खुद नपुंसक हैं।
पुराने कांग्रेसी कार्यकर्ताओं पर बुढ़ापे का पूरा असर दिखलाई पड़ता था, लेकिन नौजवानों में तत्परता थी। मैंने 7 जून को लिखा था – नई पीढ़ी से ही आशा रखनी चाहिए। जब (हम) भूमि की विषमता को देखते हैं, तो निराशा-सी होती है। जब सैलाब के जोर को देखते हैं, तो निराशा का कोई कारण नहीं मालूम होता।
सरजू (घाघरा) की बाढ़ के कारण इधर कई सालों से कई थानों के लोग फसल मारे जाने से तबाह हो रहे थे। सरकार का ध्यान इस तरफ नहीं था। कांग्रेसी सरकार कान में तेल डाले बैठी थी। जब हल्ला होता, तो दो-चार हजार रुपये की माटी कहीं-कहीं रखवा दी जाती और कहा जाता कि सरकार का ध्यान इस ओर है। इसके लिए 18 जून को एक बड़ा प्रदर्शन किया गया। गुठनी और रघुनाथपुर जैसे दूर-दूर के थानों के किसान पैदल चलकर आए थे। 13 थानों के लोग छपरा पहुँचे थे। पानी बरस गया था, इसीलिए लोग खेत बोने में लग गए। नहीं तो उनकी संख्या पचासों हजार तक पहुँचती। शहरवालों तक को जुलूस देखकर इतना उत्साह हुआ कि रायबहादुर वीरेन्द्र चक्रवर्ती जैसे राजभक्त ने सैकड़ों आदमियों को आम और चिउड़ा खाने को दिया। कलक्टर डर के मारे बंगला छोड़कर भाग गया, और वहाँ पचास फौजी पुलिस पहरा दे रहे थे।
13. छितौली का सत्याग्रह
प्रदर्शन से छुट्टी मिलती तो दूसरे दिन छितौली के किसान दौड़-दौड़ आएँ। मालूम हुआ कि जमींदार खेत नहीं जोतने दे रहा है। जो किसान आषाढ़ में खेत नहीं जोतने पायेंगे, उसे जीने की क्या आशा हो सकती है। उसी दिन (19 जून) इब्राहीम, रामभवन, अखिलान्दन के साथ छितौली के लिए रवाना हो गया। दूसरे दिन नौ बजे हम सत्याग्रह-झोपड़ी में पहुँच गए। यहाँ के किसान बहुत गरीब थे, तो भी वह खाने के लिए विशेष तरद्दुद करने लगे। मैंने कहा – हम कोई ऐसी चीज नहीं खाएँगे, जिसे तुम रोज नहीं खाते। जाओ, जिसके घर में जो बना हुआ हो, उसी को थोड़ा-थोड़ा जमा करके लाओ। उस दिन उनके घरों से जो खाना आया था, वह था चीनी का भात, महुआ का लाटा-खाली भी और भुनी मक्की के साथ भी, कूटा हुआ भी। साथ में ताल की घास, कर्मी का साग। मैंने उसे बड़ी रुचि से खाया, किन्तु इसका यह मतलब नहीं कि वह मनुष्य के तीस दिन खाने की चीजें थीं। वह ऐसा भोजन था, जिसे भारत का ही गरीब खाकर धैर्य रख सकता है।
तीन बजे बाद हम लोग सभा की जगह गए। अशर्फी साहू के लठियल जगह छेककर खड़े थे। मैंने कहा – क्या अशर्फी साहू इतने तक उतर आए और फिर एक लठियल को पकड़कर साहू के घर की ओर ले चला। जरूर यह खतरे की चीज थी, लेकिन ऐसे वक्त मुझे खतरे की बिल्कुल परवाह नहीं रहती। अशर्फी साहू से पूछा – आप धर्मात्मा बनते हैं, आपने मंदिर खड़ा किया है, बहुत पूजा-पाठ करते हैं, क्या आप लड़ाई-झगड़ा भी करना चाहते हैं? वह मीठी-मीठी बातें करके अपनी माया पसारने लगे। उसी वक्त कुछ हल्ला हुआ। आकर देखता हूँ कि अशर्फी साहू के पुत्र जगन्नाथ बंदूक लेकर पहुँचे हुए हैं। बहुत-से लोग भाला-तलवार लेकर खड़े हैं। मैं उनके भीतर घुस गया। मैंने उन्हें ललकारकर कहा – हिजड़ों, क्या खड़े हो, यदि कुछ भी तुममें ताकत है, तो अपनी तलवार और भाले को मेरे ऊपर चलाओ, मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूँ। सब वहाँ से चले गए। मैं इधर-उधर अपने दोनों गुम साथियों के विषय में पूछता रहा। मालूम हुआ कि मार खाकर वह गिर पड़े और उन्हें हमारे आदमी झोपड़ी में ले गए। रामभवन पर चार और अखिलानन्द (18 साल) के नौजवान पर आठ लाठी पड़ी थी। अखिला की बाईं हथेली की हड्डी टूट गई थी। रात को डाक्टर सियावर आए, उन्होंने पट्टी बाँधी। उसी रात बैलगाड़ी से दोनों घायलों को सीवान रवाना कर दिया। अगले दो दिन (21-22 जून) किसान खेत जोतते-बोते रहे। बसंतपुर के छोटे-बड़े दोनों दरोगा आए, लेकिन अशर्फी साहू ने उनकी खूब पूजा कर दी थी। जमींदार की फिर हिम्मत नहीं हुई कि किसान से छेड़-छाड़ शुरू करे।
14. दो साल की सजा
तीसरे दिन भी खेतों में हल चल रहे थे। 9 बजे बड़े थानेदार गणेशनारायण आए। उन्होंने दिखलाने के लिए अशर्फी साहू के कुछ आदमियों से पूछ-ताछ की। उनके कुछ आदमियों को मोटर पर बैठाया और मुझे यह कहकर साथ कर लिया कि इन लोगों ने बहुत जुलुम किया है। साढ़े दस बजे हम सीवान थाने में पहुँचे। वहाँ के एक मुसलमान थानेदार ने मेरे लिए खाना बनवाया। उनके घर में मैंने नहाकर खाना खाया। मुझे यह नहीं मालूम था कि मैं गिरफ्तार करके यहाँ लाया गया हूँ। एक बजे मैं अपने एक दोस्त से मिलने गया, तो देखा छोटे थानेदार मेरे साथ है। डेढ़ बजे मिस्टर ब्रायसन की अदालत में मुझे खड़ा कर दिया गया। अब क्या संदेह रह गया। गैर-कानूनी मजमा बनाकर दूसरे की जमीन दखल करने का अपराध (दफा 117) के लिए मुकदमा चलाया गया। मैंने किसी गवाह पर जिरह नहीं की। और किसानों की खेत की जुताई-बुआई में मदद देने के कसूर को स्वीकार किया। साढ़े तीन बजे सजा सुनाई गई – नौ मास सख्त कैद, तीस रुपया जुर्माना या तीन मास की सख्त कैद। छूटने पर साल-भर के लिए हजार रुपये की दो जमानतें। 6 बजे सीवान इंस्पेक्टर वहाँ पर पहुँचे और रात को भटनी की गाड़ी पर सवार कर दो सिपाही मुझे ले चले। पिछली बार हथकड़ी देने से जो बदनामी हुई थी, उसके कारण पुलिस ने मेरे हाथ में हथकड़ी नहीं डाली। छपरा-पटना के रास्ते ले जाने से लोगों में उत्तेजना फैलती, इसीलिए सरकार ने (युक्त प्रान्त-भटनी, मऊ, बनारस, मुगलसराय) के रास्ते मुझे सीधे हजारीबाग भेजने का इन्तिजाम किया। मैंने पचास साल की उम्र तक आजमगढ़ जिले में न जाने की प्रतिज्ञा की थी। मैं रेल से उतरा नहीं, न मैंने बाहर झाँककर देखा ही, तो भी 23 जून को मऊ (आजमगढ़) के रास्ते जाना पड़ा। सबेरे बनारस छावनी में उतरे। यदि मालूम हुआ होता कि इस गाड़ी से जाने पर गया में कई घंटे पड़ा रहना पड़ेगा तो हम 6 बजे सबेरे की गाड़ी को बनारस में न पकड़ते। दोनों सिपाही भले मानुष थे। वह गंगा-स्नान करना चाहते थे, लेकिन नहीं कर सके। जलपान के वक्त वह कुछ ले जाना चाहते थे। मैंने कह दिया कि अदालत के कमरे में घुसते ही मेरी भूख-हड़ताल शुरू हो गई है, मैं नहीं खाऊँगा। वह कह रहे थे – आप नहीं खाएँगे तो हम कैसे खाएँगे? मैंने बहुत कह-सुनकर उन्हें राजी किया। सोन-ईस्ट बैंक पर हमलोग उतर गए, और दो घंटे से अधिक की प्रतीक्षा करने पर तूफान-एक्सप्रेस मिला। पाँच बजे शाम को हजारीबाग रोड (सरिया) पहुँचे।
15. दूसरी बार हज़ारीबाग जेल
एक टैक्सी पर हमलोग बैठे। टैक्सीवाला थोड़ी दूर जाकर लौट आया, वह बदमाशी करने लगा। सिपाहियों के लिए मैं कैदी नहीं, गोया एक अफसर था। मैं टैक्सीवाले को थाने पर ले गया। वहाँ उसका नाम-ग्राम लिखा गया। फिर दूसरी बस से हमलोग हजारीबाग रवाना हुए। दस बजे रात को जेल पहुँचे। वहाँ पहिले ही खबर आ चुकी थी। रात को आफिस में ही चारपाई बिछा दी गई, खाना तो मुझे खाना नहीं था। इस बार मुझे सत्रह दिन तक भूख-हड़ताल करनी पड़ी थी, उस वक्त की स्वास्थ्य-अवस्था इस प्रकार थी –
दिन वजन (पौंड) नब्ज हृदय-गति तापमान विशेष
1. .. .. .. .. ..
2. .. .. .. .. ..
3. 174 .. .. .. भूख मर गई
4. 172 .. .. .. ..
5. 168 .. .. .. थोड़ी कमजोरी, रुधिर-दबाव कम
6. 166 .. .. .. ..
7. 165 .. .. .. ..
8. 164 .. .. .. कंठ में दर्द
9. .. 66 17 .. ..
10. 161 .. .. .. कमजोरी,झुनझुनी,छाती में दर्द,खुजली
11. 160 .. .. .. निरुत्साह, निन्द्रालुता
12. 160 64 20 96.2 दम घुटना, दाहिनी छाती में दर्द, उन्निद्रता, मुँह कड़वा
13. 160 64 22 96.2 सिर-दर्द, निद्रालुता, गंभीर निद्रा नहीं, पेशाब में एसीटोन, कमजोरी, सिर में झुनझुनी, दम घुटना
14. 159 68 18 96.8 सिर में अधिक झुनझुनी, छाती में दर्द, खुजली, एसीटोन, पेट में बेकली, उन्निद्रता
15. 158 62 18 96.4 दम घुटना, छाती दर्द, शिर में झुनझुनी, एसीटोन
16. 157 62 21 96 ..
17. 156 67 18 .. 8 बजे उपवास तोड़ा
अगले दिन (25 जून) सबेरे भीतर एक नंबर के वार्ड (हाते) में साथियों के पास गया। नागार्जुन, जलील, मजहर सब यहीं थे। सुपरिन्टेन्डेन्ट साहब आये, उपवास तोड़ देने के लिए बहुत लेक्चर देते रहे। शायद उनको नहीं मालूम था कि मैं उनसे अच्छा लेक्चर दे सकता हूँ। चौदह वर्ष बाद मुझे हजारीबाग जेल में आने का मौका मिला। उस बार भी दो साल की सजा लेकर आया था और अबकी बार भी दो साल की – मैं जमानत नहीं देने जा रहा था। उस बार मैंने अपने जेल का सारा समय गम्भीर अध्ययन में बिताया था। यहीं मैंने ‘बाईसवीं सदी’ और 16 और पुस्तक लिखी जिनमें बहुस-सी प्रेस में जाने से पहिले ही लुप्त हो गईं। अगले दिन (26 जून) फिर सुपरिन्टेन्डेन्ट ने अपना सरमन सुनाया। डाक्टरों की इस हिदायत को मानने के लिए मैं तैयार था कि पेट के भीतर ज्यादा से ज्यादा पानी जाना चाहिए ताकि अँतड़ियाँ खराब न हों। पाँचवें दिन (27 जून) मैंने सोडा और पानी के सिवा किसी तरह की दवाई लेने से इन्कार कर दिया। फिर जबरदस्ती नाक से दूध देने की तैयारी होने लगी। इसलिए छठे दिन (28 जून) मैंने प्रधानमंत्री को तार दिया कि जबरदस्ती खिलाने को रोकें क्योंकि मुझे असह्य पीड़ा होती है, मैं शांति से मरना चाहता हूँ। किताबों का पढ़ना तो 12वें दिन तक जारी रहा और मैं आठ-आठ दस-दस घंटे पढ़ता रहता था। 7वें दिन तक बैठने, खड़े होने में अवलम्ब की जरूरत नहीं थी। हाँ, मैं ज्यादा चल नहीं सकता था। आठवें दिन (30 जून) कार्यानन्द जी और अनिल मित्र साल-साल भर की सजा लेकर आ गए। उस दिन कंठ में कुछ दर्द रहा। मैं अब अस्पताल में था। अगले दिन इन दोनों साथियों ने भी उपवास शुरू कर दिया। मुझे मालूम हो गया था कि दवा के बहाने डाक्टर कोई शक्तिवर्धक चीज दे देते हैं, इसलिए मैं सिर्फ शुद्ध पानी लेता था जिसमें सोडा अपने हाथ से डालता था।
11वें दिन मैंने डायरी में लिखा था – “वजन 160II पौंड, कमजोरी मालूम हो रही है, उत्साह कम। निद्रालुता अधिक। दोपहर को भी सोए। बदन में कहीं दर्द नहीं। खुजली अधिक। मालूम होता है, गवर्नमेंट ने तै किया है – माँगों की उपेक्षा करो, हालत बदतर हो तो छोड़ दो...। रात को 9 बजे तक पढ़ते रहे। अबकी बार बल का ह्रास बहुत धीरे-धीरे हो रहा है। पिछली बार आठ दिन से पढ़ना बन्द रहा। अबकी बार आज भी पढ़ने में दस-दस घंटा लगाने में दिक्कत नहीं। बदन थोड़ा सिहरता है।” पन्द्रहवें दिन (7 जुलाई) मैं 22 पौंड कम हो गया। साँस लेने में दम घुटता-सा मालूम होता था। छाती में दर्द अधिक, सिर में झुनझुनी थी और पेशाब में एसीटोन अधिक। उस दिन 10 बजे मिस्टर अंगर (इंस्पेक्टर-जनरल) आए। मैंने कहा – हम दोनों पुराने दोस्त हैं, विशेष कहने-सुनने की जरूरत नहीं। सुपरिन्टेन्डेन्ट साहब ने कहा कि उपवास तोड़ दें तो सरकार आपकी बात सुनेगी। मैंने कहा – यदि मैं बच्चा होता तो बगलवाले (लड़कों के) जेल में भेजा गया होता। 8 जुलाई से कार्यानन्दजी और अनिल को जबरदस्ती दूध पिलाया जाने लगा। जबरदस्ती मुझे नहीं पिलाया गया, इसके लिए मुझे कांग्रेसी सरकार का कृतज्ञ होने चाहिए। 16वें दिन भी मैं बराँडे में दो घंटा कुर्सी पर बैठा रहा। उपवास का 17वाँ दिन था। सबेरे ही सुपरिन्टेन्डेन्ट साहब ने आकर खबर दी कि सरकार ने आपको जेल से छोड़ दिया है। मैंने कहा – अच्छी बात, ले चलिए मुझे बाहर, देखें कब तक सरकार इस तरह खेल खेलती रहती है।
380 घंटे के उपवास के बाद सुपरिन्टेन्डेन्ट के बँगले पर उस दिन अनार के रस से उपवास तोड़ा। दोपहर के बाद वह हजारीबाग के अस्पताल में पहुँचा आए और मैं चार दिन वहीं रहा। 12 जुलाई को मुझे साधारण भोजन मिला। पहिली बार उपवास के बाद ज्यादा भूख लगी थी, लेकिन अबकी भूख नहीं मालूम होती थी। 14 जुलाई को पटना पहुँचा। किसान सभा के आफिस से मालूम हुआ कि बिहार के हर जिले में किसानों ने अपने खेतों का हाथ से न जाने देने का निश्चय कर लिया है, सिर्फ गया जिले में 50 से अधिक ग्रामों में सत्याग्रह छिड़ा हुआ है।
16. बम्बई को
मैं चाहता था कि फिर पाँच-सात दिन डाक्टर सियावरशरण के यहाँ जाकर रहूँ, लेकिन इसी वक्त बम्बई से खबर आई कि ‘वर्त्तिकालंकार’ को वहाँ का विद्या भवन छपवाना चाहता है। अभी मेरा स्वास्थ्य इतना अच्छा नहीं था कि गाँवों में घूँमूँ-फिरूँ; इसलिए सोचा कि इस समय को इसी काम में लगा दिया जाय। बनारस-प्रयाग होते 21 की रात को बम्बई पहुँचा। किसी परिचित का पता नहीं लगा सका, इसलिए मैं एक होटल में ठहर गया। अगले दिन पता लगाकर अँधेरी गया। पंडित जयचन्द्र विद्यालंकार मिले, उन्होंने ही प्रकाशन के लिए बातचीत शुरू की थी। बीच में तीन दिन बुखार आ गया। भवनवालों ने ढाई रुपया प्रति पृष्ठ पारिश्रमिक देने के लिए लिखवाया था। अब वह मोल-तोल करने लगे। मैंने कहा – मैं मुफ्त भले ही दे सकता हूँ, लेकिन मोल-भाव करने के लिए नहीं आया हूँ। प्रकाशन का इन्तिजाम नहीं हो सका और मैं 30 जुलाई को बम्बई से रवाना हो गया। प्रयाग, सारनाथ होते 2 को बनारस गया। रायकृष्ण दास जी छाती से लगाकर मिले – पतित का स्वागत। अगले दिन (3 अगस्त) को मैं छपरा पहुँच गया।
9 अगस्त को प्रान्तीय किसान कौंसिल की बैठक पटना में हुई। मैं भी वहाँ गया था। मेरे पहिली बार जेल में जाने के बाद पंडित बाँकेबिहारी मिश्र ने अध्यापकी छोड़कर किसानों में काम करना शुरू किया था। वह बड़ी लगन से काम में जुट गए थे। छितौली के किसानों के झगड़े के फैसले के लिए जो कमेटी बनी थी, उसमें वह किसानों के प्रतिनिधि थे। मालूम हुआ कि पंचायत ने दो सौ बीघे से अधिक खेत किसानों को दिया। छितौली और यमुना भगत के सम्बन्ध में दे लेख ‘जनता’ के लिए लिखे।
15 अगस्त को अमलोरी (सीवान) गाँव में किसानों की एक सभा थी। यहाँ के जमींदार विद्यासिंह के जुलुम और माया के मारे आस-पास के दस गाँवों में किसी के पास खेत नहीं रह गया था। उनकी इतनी तपी हुई थी कि राह चलते मुसाफिर को भी जुर्माना लिए बिना छुट्टी नहीं देते। रुपए का 5 सेर रैयतों से घी ही नहीं लिया जाता, बल्कि किसानों से रुपया लेकर हाथी कीना गया था। हरी-बेगारी और दूसरे कितने ही नाजायज कर सतयुग की तरह आज भी चल रहे थे। अमवारी और छितौली के सत्याग्रहों ने बहुत जगह के दबे हुए किसानों को उभार दिया था। यहाँ की सभा में 8 हजार से अधिक किसान एकत्र हुए थे। विद्यासिंह के अत्याचारों के विरुद्ध प्रस्ताव पास किया गया। सभा में गड़बड़ी डालने के लिए एक निर्लज्ज औरत को भेजा गया था, किन्तु वह अकेली क्या कर सकती थी? सभा बहुत अच्छी तरह हुई। सभा खत्म होने के बाद हमलोग स्टेशन की ओर जा रहे थे, गाँव के सामने से जरा-सा आगे निकलते ही एक ढेला आकर मेरी बगल में गिरा। घूमकर देखा तो एक नौजवान (पीछे पता लगा कि वह विद्यासिंह का साला है) पकड़ा गया और एकाध थप्पड़ लगाकर छोड़ दिया गया। हम स्टेशन पर चले गये। वहाँ विद्यासिंह के बहुत से आदमी लाठी लेकर आये, लेकिन किसान भी अपनी लाठी लिये खड़े थे। कहने पर भी वह सब तब तक जाने को तैयार नहीं हुए, जब तक कि हमारी गाड़ी वहाँ से रवाना नहीं हुई। मैं मार-काट पसन्द नहीं करता था, लेकिन हिंसक जमींदारों को कौन रोक सकता था? फिर किसानों को लाठी रख देने के लिए कहना अहिंसा नहीं, कायरता का प्रचार करना था। मैं ऐसी कायरता को पसन्द नहीं करता। जमींदार के आदमी फिर अपने गाँव के किसानों पर टूट पड़े और उन्हें खूब पीटा। गरीबों का हित करने के लिए गए हुए कांग्रेसी मंत्री चुप रहे। विद्यासिंह बड़े धर्मात्मा थे, उन्हें एक सिद्ध – कच्चा बाबा – के लिए बँगला बनवा दिया था, घोड़ा ले दिया था। इससे इतना धर्म होगा कि 12 गाँवों के लोगों पर अत्याचार करने से जो पाप हो रहा था, वह सब धुल जायगा। पाठकों को शायद ख्याल होगा कि मैं इन अत्याचारियों को हजार वर्षों के लिए अमर कर रहा हूँ। मुझे विश्वास नहीं है कि यह पुस्तक हजारों वर्ष तक रहेगी, यदि रही तो भविष्य के हमारे उत्तराधिकारियों के लिए इससे बहुत-सी बातें मालूम होंगी। रही अत्याचारियों के अमर होने की बात, सो तो उन्हें कोई जानेगा भी नहीं। उनके अपने वंशज भी अपने पूर्वजों का नाम लेने में शरम महसूस करेंगे।
16 अगस्त को मैं छितौली गया। वर्षा हो रही थी, तो भी दो हजार किसान जमा हुए थे। लोगों में बहुत उत्साह था। अशर्फी साहू अब भी पंचायत के फैसले को मानने के लिए तैयार नहीं, और दीवानी मुकदमा लड़ना चाहते थे।
कुरबान के ऊपर सरकार ने मुकदमा चलाया था, मैं उसमें गवाही देने के लिए गया। मैं सोचता था – कुरबान का क्या कसूर; लाठी उसने नहीं चलाई, उसके मालिक ने चलवाई, फिर उसे जेल की यातना दिलवाने से क्या फायदा? 29 अगस्त को मुकदमे की तारीख थी। मैंने उस दिन अदालत में जाकर दरख्वास्त दे दी कि कुरबान को छोड़ दिया जाय, मैं नहीं चाहता कि उस पर मुकदमा चलाया जाय। लोगों को आश्चर्य तो हुआ, मुझको इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं मालूम हुई। आखिर में कुरबान को छोड़ देना पड़ा।
(साभार : apnimaati.com)