मेरे पिता (फ्रेंच कहानी) : अल्बैर कामू
Mere Pita (French Story in Hindi) : Albert Camus
कुछ सड़कें छोड़कर गीली सड़क पर तेज़ी से चलती कार की मद्धम लेकिन लंबी फूत्कार सुनाई दी—फिर वह फूत्कार बंद हो गई। दूर कहीं अस्पष्ट चिल्लाहटों ने वातावरण की नीरवता को भंग किया। उसके बाद तारों-भरे आसमान से जैसे किसी मोटे आवरण ने इन दोनों जनों को लपेट लिया और ख़ामोशी छा गई। तारो उठकर मुँडेर पर जा बैठा था, उसका मुँह रियो की तरफ़ था जो अपनी कुर्सी में धँसा बैठा था। टिमटिमाते आसमान की पृष्ठभूमि में रियो के भारी-भरकम शरीर की काली रेखाकृति दीख रही थी। तारो को बहुत कुछ कहना था, उसके अपने शब्दों में ही हम सारी बातें बताएँगे।
“मैं चाहता हूँ, तुम्हें मेरी बात समझने में आसानी हो, इसलिए सबसे पहले मैं यही कहूँगा कि मेरी ज़िंदगी शुरू से ऐसी नहीं थी। जवानी में मैं अपनी मासूमियत के ख़्याल पर ज़िंदा था, जिसका मतलब है कि मेरे मन में कोई ख़्याल ही नहीं था। मैं उन लोगों में से नहीं, जो अपने को यंत्रणा देते हैं। मैंने उचित ढंग से अपनी ज़िंदगी शुरू की थी। मैंने जिस काम में हाथ डाला, उसी में मुझे सफलता मिली। बुद्धिजीवियों के क्षेत्र में, बेतकल्लुफ़ी से विचरण करता था, औरतों के साथ मेरी ख़ूब पटती थी और अगर कभी-कभी मेरे मन में पश्चात्ताप की कसक उठती थी तो वह जितनी आसनी से पैदा होती थी, उतनी आसानी से ख़त्म भी हो जाती थी। फिर एक दिन मैंने सोचना शुरू किया और अब…
“मैं तुम्हें यह बता दूँ कि तुम्हारी तरह जवानी में मैं ग़रीब नहीं था। मेरे पिता ऊँचे ओहदे पर थे—वे पब्लिक प्रोसीक्यूशनों के डायरेक्टर थे। लेकिन उनकी तरफ़ देखकर कोई यह अनुमान नहीं लगा सकता था। देखने में वे बड़े ख़ुशमिज़ाज और दयालु मालूम होते थे, और वे सचमुच ऐसे ही थे। मेरी माँ बड़ी सादी और शर्मीली औरत थीं और मैं हमेशा उन्हें बहुत चाहता था, लेकिन मैं माँ के बारे में बात न ही करूँ तो अच्छा है। मेरे पिता मुझ पर हमेशा मेहरबान थे और मेरा ख़याल है कि वे मुझे समझने की कोशिश भी करते थे। वे एक आदर्श पति नहीं थे—इस बात को मैं अब जान गया हूँ, लेकिन इस बात से मेरे मन पर कोई विशेष आघात नहीं पहुँचा। अपनी बेवफ़ाइयों में भी वे बड़ी शालीनता से व्यवहार करते थे जैसी कि उनसे उम्मीद की जा सकती थी। आज तक उनकी बदनामी नहीं हुई। कहने का मतलब यह कि उनमें मौलिकता बिलकुल नहीं थी और अब उनके मरने के बाद मुझे एहसास हुआ है कि वे पलस्तर के बने संत तो नहीं थे, लेकिन एक आदमी की हैसियत से वे बड़े नेक और शालीन थे। बस, वे बीच के रास्ते पर चलते थे। वे उस क़िस्म के लोगों में से थे, जिनके लिए मन में हल्की, लेकिन स्थिर भावना उमड़ती है—यही भावना सबसे अधिक टिकाऊ होती है।
“मेरे पिता में एक विशेष बात थी—हमेशा वे रात को सोने से पहले रेलवे का बड़ा टाइम टेबल पढ़ते थे। इसलिए नहीं कि उन्हें अकसर ट्रेन में सफ़र करना पड़ता था। ज़्यादा से ज़्यादा वे ब्रिटेन तक जाते थे, जहाँ देहात में उनका छोटा-सा मकान था। हम लोग हर साल गर्मियों में वहाँ जाया करते थे। लेकिन वे चलते-फिरते टाइमटेबल थे। वे आपको पेरिस-बर्लिन एक्सप्रेसों के आने और जाने का सही टाइम बता सकते थे; ल्यों से वार्सा कैसे पहुँचा जा सकता है, किस वक़्त कौन-सी ट्रेन पकड़नी चाहिए, इसका उन्हें पूरा पता रहता था। तुम अगर उनसे किन्हीं दो राजधानियों के बीच का फ़ासला पूछते तो वे तुम्हें सही-सही बता सकते थे। भला तुम मुझे बता सकते हो कि ब्रियान्को से केमोनी कैसे पहुँचा जा सकता है? मेरे ख़याल में तो अगर किसी स्टेशन मास्टर से यह सवाल किया जाए तो वह भी अपना सिर खुजलाने लगेगा। लेकिन मेरे पिता के पास इस सवाल का जवाब तुरंत तैयार मिलता था। क़रीब-क़रीब हर शाम वे इस विषय में अपने ज्ञान की में वृद्धि करते थे और उन्हें इस बात पर बड़ा गर्व था। उनके इस शौक़ से मेरा बहुत मनोरंजन होता था। मैं यात्रा संबंधी बड़े पेचीदा सवाल उनसे पूछा करता था और उनके जवाबों को रेलवे टाइम टेबल से मिलाकर देखा करता था। उनके जवाब हमेशा बिलकुल सही निकलते थे। शाम को मैं और मेरे पिता रेलवे के खेल खेला करते थे, जिसकी वजह से हम दोनों की ख़ूब पटती थी। उन्हें मेरे जैसे श्रोता की ही ज़रूरत थी, जो ध्यान से उनकी बातें सुने और पसंद करे। मेरी दृष्टि में उनकी यह प्रवीणता अधिकांश गुणों की तरह प्रशंसनीय थी।
“लेकिन मैं बहक़ रहा हूँ और अपने आदरणीय पिता को बहुत अधिक महत्त्व दे रहा हूँ। दरअसल उन्होंने मेरे हृदय-परिवर्तन की महान् घटना में केवल अप्रत्यक्ष योग दिया था, मैं उस घटना के बारे में तुम्हें बताना चाहता हूँ। सबसे बड़ा काम उन्होंने सिर्फ़ यही किया कि मेरे विचार जागृत किए। जब मैं सत्रह बरस का था तो मेरे पिता ने मुझसे कहा कि मैं कचहरी में आकर उन्हें बोलता हुआ सुनूँ। कचहरी में एक बड़ा केस चल रहा था और शायद उनका ख़याल था कि मैं उन्हें उनके सर्वोत्तम रूप में देखूँगा। मुझे यह भी शक हुआ कि उनका ख़याल था कि मैं क़ानून की शान-शौक़त और औपचारिक दिखावे से प्रभावित हो जाऊँगा और मुझे यही पेशा अपनाने की प्रेरणा मिलेगी। मैं जानता था कि वे मेरे वहाँ जाने के लिए बड़े उत्सुक थे। और हम घर में अपने पिता का जो व्यक्तित्व देखते थे, उससे अलग क़िस्म का व्यक्तित्व देखने को मिलेगा, यह कल्पना मुझे अत्यंत सुखद मालूम हुई। मेरे वहाँ जाने के सिर्फ़ यही दो कारण थे। अदालत की कार्यवाही मुझे हमेशा सहज और क़ायदे के मुताबिक़ मालूम होती थी, जैसी कि चौदह जुलाई की परेड या स्कूल के भाषण-दिवस की कार्यवाही। इस संबंध में मेरे विचार अमूर्त थे और मैंने इस बारे में कभी गंभीरता से नहीं सोचा था।
“उस दिन की कार्यवाही के बाद मेरे मन में सिर्फ़ एक ही तस्वीर उभरी थी, वह तस्वीर मुजरिम की थी। मुझे इस बात में शक नहीं कि वह अपराधी था—उसने क्या अपराध किया था, यह ज़्यादा महत्त्व की बात नहीं, तीस बरस का वह नाटा आदमी, जिसके बाल बिखरे और भुरभुरे थे, सब कुछ क़बूल करने के लिए इतना उत्सुक दिखाई दे रहा था? अपने अपराध पर उसे सच्ची ग्लानि हो रही थी और उसके साथ जो होने वाला था उसके प्रति वह आशंकित था। कुछ मिनट बाद मैंने सिवा अपराधी के चेहरे के, हर तरफ़ देखना बंद कर दिया। वह पीले रंग का उल्लू मालूम होता था, बहुत ज़्यादा रोशनी से जैसे उसकी आँखें अंधी हो रही हों। उसकी टाई कुछ अस्त-व्यस्त थी। वह लगातार दाँतों से अपने नाख़ून काट रहा था, सिर्फ़ दाएँ हाथ के...क्या इससे भी आगे कुछ कहने की ज़रूरत है! क्यों! तुम तो समझ ही गए होगे—वह एक ज़िंदा इंसान था।
“जहाँ तक मेरा संबंध था—अचानक बिजली की तरह मेरे मन में वह एहसास कौंध गया। अभी तक तो मैं उस आदमी को उसकी उपाधि 'प्रतिवादी' के साधारण रूप में देखता रहा था। मैं ठीक से नहीं कह सकता कि मैं अपने पिता को भूल गया, लेकिन उसी क्षण जैसे किसी चीज़ ने मेरे मर्मस्थल को जकड़ लिया और कटघरे में खड़े उस आदमी पर मेरे सारे ध्यान को केंद्रित कर दिया। मुक़दमे की कार्यवाही मुझे बिलकुल सुनाई नहीं दी। मैं सिर्फ़ इतना जानता था कि वे लोग उस ज़िंदा आदमी को मारने पर तुले हुए थे और किसी सहज, प्राकृतिक भावना की लहर ने बहाकर मुझे उस आदमी के पक्ष में खड़ा कर दिया। मुझे उस वक़्त होश आया, जब मेरे पिता अदालत के सामने बोलने के लिए खड़े हुए।
“लाल गाउन में उनका व्यक्तित्व एकदम बदल गया था। वे दयालु या ख़ुशमिज़ाज नहीं मालूम होते थे। उनके मुँह से लंबे दिखावटी वाक्य साँपों की अंतहीन पाँत की तरह निकल रहे थे। मुझे एहसास हुआ कि मेरे पिता क़ैदी की मौत को पुकार रहे थे, वे जूरी से कह रहे थे कि वे क़ैदी को दोषी सिद्ध करके समाज के प्रति अपने दायित्व को पूरा करें। यहाँ तक कि वे यह भी कह रहे थे कि उस आदमी का सर काट देना चाहिए। मैं मानता हूँ कि उन्होंने ऐन यही शब्द इस्तेमाल नहीं किए थे। उनका फ़ार्मूला था, 'इसे सबसे बड़ी सज़ा मिलनी चाहिए।' लेकिन इन दोनों बातों में बहुत कम फ़र्क़ था और मतलब एक ही था। मेरे पिता ने जिस सर की माँग की थी, वह सर उन्हें मिल गया। लेकिन सर उतारने का काम मेरे पिता ने नहीं किया। मैं अंत तक मुक़दमे को सुनता रहा था, मेरे मन में उस अभागे आदमी के प्रति एक ऐसी भयंकर और नज़दीकी आत्मीयता जागृत हुई, जो मेरे पिता ने कभी महसूस नहीं की होगी। फिर भी सरकारी वकील होने के नाते उन्हें उस मौक़े पर मौजूद रहना पड़ा, जिसे शिष्ट भाषा में 'क़ैदी के अंतिम क्षण' कहा जाता है; लेकिन दरअसल हत्या कहना चाहिए—हत्या का सबसे घृणित रूप!
“उस दिन के बाद से मैं जब भी रेलवे टाइम टेबल देखता तो मेरा मन ग्लानि से काँप उठता। मैं मुक़दमों की कार्यवाही में, मौत की सज़ाओं में और फाँसियों में एक हैरत-भरी दिलचस्पी लेने लगा। मुझे यह क्षोभपूर्ण एहसास हुआ कि मेरे पिता ने अकसर ये पाशविक हत्याएँ देखी होंगी—जब वे सुबह बहुत जल्दी उठा करते थे और तब मैं उनके जल्दी उठने के कारण का अनुमान नहीं लगा पाता था। मुझे याद है कि ऐसे मौक़ों पर ग़लती से बचने के लिए वे अपनी घड़ी में अलार्म लगा देते थे। माँ के सामने इस प्रसंग को खोलने का मुझमें साहस नहीं था। लेकिन अब मैं अपनी माँ को ज़्यादा ग़ौर से देखने लगा और देखा कि उनका दांपत्य जीवन अब निरर्थक था और माँ ने उसके सुधार की उम्मीद भी छोड़ दी थी। इससे मुझे माँ को ‘माफ़ करने’ में मदद मिली। उस वक़्त मैं यही सोचता था। बाद में मुझे मालूम हुआ कि माफ़ी की कोई बात ही नहीं थी; शादी से पहले वह बड़ी ग़रीब थीं और ग़रीबी ने उन्हें परिस्थितियों के आगे झुकना सिखाया था।
“शायद तुम मुझसे यह सुनने की उम्मीद रखते हो कि मैंने फ़ौरन घर छोड़ दिया। नहीं, मैंने बहुत महीने, दरअसल पूरा साल वहाँ गुज़ारा। फिर एक दिन शाम को मेरे पिता ने अलार्म वाली घड़ी माँगी, क्योंकि उन्हें अगले दिन जल्दी उठना था। उस रात मुझे नींद नहीं आई। अगले दिन पिता जी के घर लौटने से पहले ही मैं जा चुका था।
संक्षेप में यह हुआ कि मेरे पिता ने मुझे ख़त लिखा, वे मुझे तलाश करने के लिए तहक़ीक़ात करवा रहे थे। मैं उनसे मिलने गया और अपने कारण बताए बग़ैर मैंने उन्हें शांतभाव से समझा दिया कि अगर उन्होंने मुझे घर लौटने के लिए मज़बूर किया तो मैं आत्महत्या कर लूँगा। उन्होंने मुझे आज़ादी देकर सारा झगड़ा ख़त्म कर दिया, क्योंकि वे दयालु हृदय आदमी थे—जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ। उन्होंने मुझे 'अपने ढंग से ज़िंदगी बसर करने' की बेवक़ूफ़ी पर लेक्चर दिया (उनकी दृष्टि में मेरे उस व्यवहार का यही कारण था। मैंने उन्हें धोखा न दिया हो ऐसा नहीं कह सकता) और मुझे बहुत-सी नेक सलाहें भी दीं। मैं देख रहा था कि इस बात ने उनके दिल पर गहरा असर डाला था और वे बड़ी मुश्किल से अपने आँसुओं को रोकने की कोशिश कर रहे थे। बाद में, बहुत अरसे के बाद मैं बीच-बीच में अपनी माँ से मिलने के लिए जाने लगा, ऐसे मौक़ों पर मैं अपने पिता से भी ज़रूर मिलता था। मेरा ख़्याल है कि कभी-कभी की इन मुलाक़ातों से मेरे पिता संतुष्ट थे। व्यक्तिगत तौर पर मेरे मन में उनके प्रति ज़रा भी दुश्मनी नहीं थी, बल्कि दिल में कुछ उदासी-सी छा गई थी। पिता की मौत के बाद मैंने माँ को अपने पास बुला लिया और अगर वे ज़िंदा रहतीं तो अभी मेरे पास ही रहतीं।
“मुझे अपनी शुरू की ज़िंदगी के बारे में ज़्यादा इसलिए बताना पड़ा, क्योंकि मेरे लिए यह शुरुआत थी...हर चीज़ की। अठारह बरस की उम्र में ही मुझे ग़रीबी का सामना करना पड़ा—उससे पहले मैं आराम की ज़िंदगी बसर करता आया था। मैंने बहुत-से काम किए और किसी काम में मुझे असफलता नहीं मिली। लेकिन मेरी असली दिलचस्पी मौत की सज़ा में थी। मैं कटघरे में खड़े उस बेचारे अंधे 'उल्लू' के साथ हिसाब चुकता करना चाहता था, इसलिए मैं लोगों के शब्दों में एक आंदोलनकारी बन गया। बस, मैं विनाश नहीं करना चाहता था। मेरे विचार में मेरे इर्द-गिर्द की सामाजिक व्यवस्था मौत की सज़ा पर आधारित थी और स्थापित सत्ता के ख़िलाफ़ लड़कर मैं हत्या के ख़िलाफ़ लडूँगा, यह मेरा विचार था। और लोगों ने भी मुझे यही कहा था और मेरा अभी तक यह विश्वास है कि मेरा यह विचार ठोस रूप से सही था। मैं उन लोगों के एक दल में मिल गया, जिन्हें मैं उस समय पसंद करता था और दरअसल जिन्हें मैं अभी भी पसंद करता हूँ। यूरोप का कोई ऐसा देश नहीं जिसके आंदोलनों में मैंने हिस्सा न लिया हो। लेकिन वह दूसरी ही कहानी है।
“यह कहने की ज़रूरत नहीं कि मौक़ा पड़ने पर हम भी मौत की सज़ाएँ देते थे। लेकिन मुझे बताया गया था कि एक नए संसार के निर्माण के लिए—जिसमें हत्याएँ बंद हो जाएँगी—ये मौतें ज़रूरी हैं। यह भी कुछ हद तक सच था—और हो सकता है, जहाँ सच्चाई की व्यवस्था का सवाल है मुझमें डटे रहने की क्षमता नहीं। इसका कारण चाहे कुछ भी हो, मेरे मन में हिचकिचाहट पैदा हुई, लेकिन फिर मुझे कटघरे में खड़े उस अभागे 'उल्लू' का ख़याल आया और उससे मुझे अपना काम जारी रखने का साहस मिला। यह साहस उस दिन तक बना रहा, जब मैं एक फाँसी के वक़्त मौजूद था—हंगरी में और मुझे वैसा ही विक्षिप्त आतंक महसूस हुआ, जैसा बचपन में हुआ था। मेरी आँखों के आगे सब चीज़ें चकराने लगीं।
“क्या तुमने कभी किसी फ़ायरिंग स्क्वैड द्वारा किसी आदमी को गोली से उड़ाया जाता देखा है। नहीं, तुमने नहीं देखा होगा। चुने हुए लोगों को ही यह दृश्य देखने को मिलता है। एक प्राइवेट दावत की तरह इसमें शामिल होने के लिए निमंत्रण की ज़रूरत होती है। किताबों और तस्वीरों से आम तौर पर फ़ायरिंग स्क्वैड के बारे में विचार बटोरे जाते हैं। कल्पना की जाती है कि एक खंभे के साथ एक आदमी बँधा है, जिसकी आँखों पर पट्टी बँधी है और कुछ दूर पर सिपाही खड़े हैं। लेकिन दरअसल नज़ारा बिलकुल और ही तरह का होता है। तुम्हें मालूम है कि फ़ायरिंग स्क्वैड मौत की सज़ा पाए आदमी से सिर्फ़ डेढ़ गज़ दूर खड़ा होता है! क्या तुम्हें मालूम है कि अगर उनका शिकार दो क़दम भी आगे बढ़ आए तो उसके सीने पर राइफ़ल का स्पर्श होगा। क्या तुम जानते हो कि इतने कम फ़ासले पर खड़े होकर सिपाही उस आदमी के दिल पर निशाना लगाते हैं और उनकी बड़ी गोलियाँ इतना बड़ा छेद कर देती हैं, जिसमें पूरा हाथ जा सकता है? नहीं, तुम्हें यह नहीं मालूम। ये ऐसी बातें हैं, जिनका ज़िक्र नहीं किया जाता। शालीन लोगों को नींद में ख़लल नहीं पड़ना चाहिए न। क्यों! सचमुच यह सब जानते हैं कि ऐसे ब्योरों पर अधिक समय ख़र्च करना, भयंकर कुरुचि का परिचय देना है। लेकिन जहाँ तक मेरा सवाल है इस घटना के बाद से मुझे कभी ठीक तरह नींद नहीं आई। उसका कड़वा स्वाद मेरे मुँह में बना रहा और मेरा मन उसके ब्योरे में उलझा रहा और चिंतामग्न रहा।
और इस तरह मुझे एहसास हुआ, बहुत सालों से मैं प्लेग से पीड़ित हूँ। और यह एक विरोधाभास भी था, चूँकि मेरा पक्का विश्वास था कि मैं अपनी समस्त शक्ति से इससे जूझ रहा था। मुझे एहसास हुआ कि हज़ारों लोगों की मौतों में अप्रत्यक्ष रूप से मेरा हाथ रहा है। मैंने उन कामों और सिद्धांतों का समर्थन किया है, जिनसे वे मौतें हुई हैं और मौतों के सिवा उनका कोई नतीजा और नहीं निकल सकता था। और लोगों को इन विचारों से ज़रा भी परेशानी नहीं हुई थी, कम से कम वे स्वयं इसे व्यक्त नहीं करते थे। लेकिन मैं उनसे अलग था, मुझे जो एहसास हुआ था वह मेरे गले में अटक गया था। मैं उन लोगों के साथ होते हुए भी अकेला था। जब मैं इन बातों की चर्चा छेड़ता तो वे कहते कि मुझे इतना अधिक शंकालु नहीं होना चाहिए। मुझे याद रखना चाहिए कि कितने बड़े सवाल इसके साथ जुड़े हुए हैं। और उन्होंने कई दलीलें दीं, जो अकसर बहुत ज़ोरदार थीं ताकि मैं उस चीज़ को निगल सकूँ, जो उनकी दलीलों के बावजूद मेरे मन में ग्लानि पैदा करती थी। मैंने जवाब में कहा कि प्लेग से अभिशप्त लोगों में, विशिष्ट व्यक्तियों के पास भी जो लाल चोगा पहनते हैं—अपने कामों को सही ठहराने की दलीलें हैं और अगर एक बार मैंने अनिवार्यता और बहुमत की शक्ति की दलील मान ली, जो कि अकसर कम विशिष्ट लोगों द्वारा पेश की जाती है तो मैं विशिष्ट लोगों की दलीलों को कभी अस्वीकार नहीं कर सकता। इसके जवाब में उन लोगों ने यह कहा कि अगर मौत की सज़ा पूरी तरह से लाल चोगे वालों के हाथ में छोड़ दी जाए तो हम पूरी तरह से उनके हाथों में खेलने लगेंगे। इसका जवाब मैंने दिया कि अगर हम एक बार झुक जाते हैं तो फिर हर बार हमें झुकते जाना पड़ेगा। मुझे लगता है कि इतिहास ने मेरी बात को सच साबित किया है। आज इस बात की होड़ लगी हुई है कि कौन सबसे ज़्यादा हत्याएँ करता है। सब पागल होकर हत्या करने में लगे हैं और चाहने पर भी वे इसे बंद नहीं कर सकेंगे।
“जो भी हो, दलीलों से मुझे ज़्यादा सरोकार नहीं था। मुझे तो उस बेचारे 'उल्लू' में दिलचस्पी थी, जबकि धोखाधड़ी की कार्यवाही में प्लेग की बदबू से सड़े मुँहों ने एक हथकड़ी लगे आदमी को बताया था कि उसकी मौत नज़दीक आ रही है। उन्होंने इस तरह के वैज्ञानिक प्रबंध किए कि कई दिन और कई रातों तक मानसिक पीड़ा झेलने के बाद उसे बेरहमी से क़त्ल कर दिया जाए। मुझे इंसान के सीने में बने जितने बड़े छेद से सरोकार था और मैंने मन ही मन तय कर लिया कि जहाँ तक मेरा संबंध है, दुनिया की कोई चीज़ मुझसे कोई ऐसी दलील को स्वीकार नहीं करवा सकती, जो इन क़त्लों को सही ठहराए। हाँ, मैंने जानबूझकर अंधे हठ का रास्ता चुना, उस दिन तक के लिए जब मुझे अपना रास्ता ज़्यादा साफ़ दिखाई देगा।
“अभी भी मेरे विचार वही हैं। कई साल तक मुझे इस बात पर शर्मिंदगी रही, सख़्त शर्मिंदगी रही कि मैं अपने नेक इरादों के साथ, कई स्तर पीछे हटकर भी हत्यारा बना था। वक़्त के साथ-साथ मैं सिर्फ़ इतना ही सीख सका कि वे लोग भी, जो दूसरों से बेहतर हैं, आजकल अपने को और दूसरों को हत्या करने से नहीं रोक सकते, क्योंकि वे इसी तर्क के सहारे ज़िंदा रहते हैं, और हम इस दुनिया में किसी की जान को जोख़िम में डाले बग़ैर कोई छोटे से छोटा काम भी नहीं कर सकते। हाँ, तब से मुझे अपने पर शर्म आती रही है; मुझे एहसास हो गया है कि हम सब प्लेग से पीड़ित हैं, मेरे मन की शांति नष्ट हो गई है। और आज भी मैं उसे पाने की कोशिश कर रहा हूँ; अभी भी सभी दूसरे लोगों को समझने की कोशिश कर रहा हूँ और चाहता हूँ कि मैं किसी का जानी दुश्मन न बनूँ। मैं सिर्फ़ इतना जानता हूँ कि इंसान को प्लेग के अभिशाप से मुक्त होने के लिए भरसक कोशिश करनी चाहिए और सिर्फ़ इसी तरीक़े से हम कुछ शांति की उम्मीद कर सकते हैं। और अगर शांति नहीं तो शालीन मौत तो नसीब हो सकती है। इसी से और सिर्फ़ इसी से इंसान की मुसीबतें कम हो सकती हैं। अगर वे मरने से नहीं बच सकते तो उन्हें कम से कम नुक़सान पहुँचे और हो सकता है थोड़ा फ़ायदा भी पहुँचे। इसीलिए मैंने तय किया कि मैं ऐसी किसी चीज़ से संबंध नहीं रखूँगा, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, अच्छे या बुरे कारणों से किसी इंसान को मौत के मुँह में धकेलती है या ऐसा करने वालों को सही ठहराती है।
“इसीलिए महामारी मुझे इसके सिवा कोई नया सबक़ नहीं सिखा पाई कि मुझे तुम्हारे साथ मिलकर उससे लड़ना चाहिए। मैं पूरी तरह से जानता हूँ—हाँ रियो, मैं कह सकता हूँ कि मैं इस दुनिया की नस-नस पहचानता हूँ—हममें से हरेक के भीतर प्लेग है, धरती का कोई आदमी इससे मुक्त नहीं है। और मैं यह भी जानता हूँ कि हमें अपने ऊपर लगातार निगरानी रखनी पड़ेगी, ताकि लापरवाही के किसी क्षण में हम किसी के चेहरे पर अपनी साँस डालकर उसे छूत न दें। दरअसल क़ुदरती चीज़ तो रोग का कीटाणु है। बाक़ी सब चीज़ें ईमानदारी, पवित्रता (अगर तुम इसे भी जोड़ना चाहो) इंसान की इच्छा-शक्ति का फल है, ऐसी निगरानी का फल है जिसमें कभी ढील नहीं होनी चाहिए। नेक आदमी, जो किसी को छूत नहीं देता, वह है जो सबसे कम लापरवाही दिखाता है—लापरवाही से बचने के लिए बहुत बड़ी इच्छा-शक्ति की और कभी न ख़त्म होने वाले मानसिक तनाव की ज़रूरत है। हाँ रियो, प्लेग का शिकार होना बड़ी थकान पैदा करता है। लेकिन प्लेग का शिकार न होना और भी ज़्यादा थकान पैदा करता है। इसीलिए दुनिया में आज हर आदमी थका हुआ नज़र आता है; हर आदमी एक माने में प्लेग से तंग आ गया है। इसीलिए हममें से कुछ लोग, जो अपने शरीरों में से प्लेग को बाहर निकालना चाहते हैं, इतनी हताशपूर्ण थकान महसूस करते हैं—ऐसी थकान, जिससे मौत के सिवा और कोई चीज़ हमें मुक्ति नहीं दिला सकती।
“जब तक मुझे वह मुक्ति नहीं मिलती, मैं जानता हूँ कि आज की दुनिया में मेरी कोई जगह नहीं है। जब मैंने हत्या करने से इनकार किया था, तभी से मैंने अपने को निर्वासित कर लिया था। यह निर्वासन कभी ख़त्म नहीं होगा। 'इतिहास का निर्माण' करने का काम मैं दूसरों पर छोड़ता हूँ। मैं यह भी जानता हूँ कि मुझमें इतनी योग्यता नहीं कि मैं उन लोगों के कामों के औचित्य पर अपना निर्णय दे सकूँ। मेरे मन की बनावट में कोई कमी है, जिसकी वजह से मैं समझदार हत्यारा नहीं बन सकता। इसलिए यह विशिष्टता नहीं, बल्कि कमज़ोरी है। लेकिन इन परिस्थितियों में मैं जैसा हूँ, वैसा ही रहने के लिए तैयार हूँ। मैंने विनयशीलता सीख ली है। मैं सिर्फ़ यह कहता हूँ कि इस धरती पर महामारियाँ हैं और उनसे पीड़ित लोग हैं और यह हम पर निर्भर करता है कि जहाँ तक संभव हो सके, हम इन महामारियों का साथ न दें। हो सकता है, इस बात में बचकानी सरलता हो; यह सरल है या नहीं, इसका निर्णय तो मैं नहीं कर सकता, लेकिन मैं यह जानता हूँ कि यह बात सच्ची है। तुमने देख ही लिया है कि मैंने इतनी ज़्यादा दलीलें सुनी थीं, जिन्होंने क़रीब-क़रीब मेरी मति भ्रष्ट कर दी थी, और दूसरे लोगों की मति भी अधिक भ्रष्ट कर दी थी कि वे हत्या के समर्थक बन गए थे। मुझे यह एहसास हुआ कि हम स्पष्ट नपी-तुली भाषा का प्रयोग नहीं करते—यही हमारी सारी मुसीबतों की जड़ है। इसलिए मैंने यह किया कि मैं हमेशा अपनी बातचीत और व्यवहार में स्पष्टता बरतूँगा। अपने को सही रास्ते पर लाने का मेरे पास सिर्फ़ यही तरीक़ा था। इसीलिए मैं सिर्फ़ यही कहता हूँ कि दुनिया में महामारियाँ हैं और उनका शिकार होने वाले लोग हैं—अगर इतना कहने-मात्र से ही मैं प्लेग की छूत को फैलाने का साधन बनता हूँ तो कम से कम मैं जान-बूझकर ऐसा नहीं करता। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि मैं मायूस हत्यारा बनने की कोशिश करता हूँ। तुमने देख ही लिया होगा कि मैं महत्त्वाकांक्षी आदमी नहीं हूँ।
“मैं मानता हूँ कि इन दो श्रेणियों में हमें तीसरी श्रेणी भी जोड़ लेनी चाहिए—सच्चे चिकित्सकों की श्रेणी, लेकिन यह एक मानी हुई बात है कि ऐसे लोग बहुत विरले होते हैं और निश्चय ही उनका काम बहुत कठिन होगा। इसीलिए मैंने हर मुसीबत में, मुसीबतज़दा लोगों की तरफ़ होने का फ़ैसला किया ताकि मैं नुक़सान को कम कर सकूँ। कम से कम उन लोगों में मैं यह तलाश कर सकता हूँ कि तीसरी श्रेणी तक, अर्थात् शांति तक कैसे पहुँचता जा सकता है!