मेरे जीवन का नया अध्याय (आत्मकथ्य) : उषा किरण खान
Mere Jivan Ka Naya Adhyay (Hindi Nibandh) : Usha Kiran Khan
चाचाजी यानी पं0 बहादुर खां शर्मा नदी पार के गांव मुसहरिया के निवासी थे। भरे पूरे परिवार के मुखिया थे। वे चार विषयों के स्वर्णपदकधारी आचार्य थे। प्रतिष्ठित किसान थे। बाबूजी के साथ मिलकर कोसी इलाके के उद्धार के सपने देखने लगे थे। इलाके के पुराने बाशिन्दे होने के नाते उनके अपने दोस्त दुश्मन थे। दुश्मन प्रायः निकटस्थ ही होते हैं। जो उगलत बने न निगलत बने। हमारे लिये वे ही अभिभावक थे। परन्तु मेरे बाबूजी छूट देने वाले अभिभावक थे चाचाजी कठोर अनुशासनप्रिय व्यक्ति थे। हम उनसे सहमे रहते। पर उनके बच्चे स्वाभाविक रहते, उनको आदत जो थी। दोनों घरों के बच्चों में मैं बड़ी सन्तान थी तो रामचन्द्र जी अपने घर के बड़े थे। थे तो मुझसे तीन वर्ष बड़े पर उनकी चर्चा सर्वत्र होती। मेरे बाबूजी तथा उनके दोस्त मित्र सभी रामचन्द्र जी की तीक्ष्ण बुद्धि और रातदिन बड़ी बड़ी किताबों के पढ़ने के कायल थे। मैंने उनके बाद फिर अपनी ही बेटी अंशु (अनुराधाशंकर) को बचपन में उतनी मोटी मोटी अंग्रेजी, संस्कृत, हिन्दी मैथिली किताबें पढ़ते देखी । रामचंद्र जी जब 15-16 वर्ष के थे तब हम किशोरों पर उनका दबदबा खासा था। बाबूजी के नहीं रहने के बाद किशोर रामचंद्र जी हमारे सामने फ्रेंड फिलासफर और गाइड बन कर उभरे। हम तो तीन भाई-बहन उनके बेहद निकट हो गये। उनके कहे पर चलते। मैं एक तो लड़की थी दूसरी मात्र तीन साल छोटी थी सो मेरे प्रति उनका कोमल भाव था जिसे वे छुपाते नहीं। मैं भी उनसे सलाह लेती। मेरे स्कूल की और मुहल्ले की लड़कियाँ भी उनसे सलाह लेतीं और वे पुरोधा की तरह गूढ़ गहन भाषण देने को सदा तैयार रहते । अब विचारती हूँ तो अचरज होता है कि एक 15-16 साल का किशोर इतना विश्वसीनय कैसे था।
हमारी स्मृत्ति में सदा से वीणापाणि क्लब का भवन एक सांस्कृतिक रूप लिए खड़ा रहता है। बाबूजी और उनके मित्र अक्सर वहाँ जुटते, सुना था कि क्रांति के दिनों में उस जुटान पर पुलिस की नजर रहती। कई बार गिरफ्तारियाँ हुई । मैं जबकी बात कर रही हूँ, देश आजाद हो चुका था, तब चित्तों बाबू और शिवानी दी के कुँआरे रह जाने के किस्से सेमल की रूई के फाहों की मानिन्द वातावरण में उड़ते रहते । वयस्क स्त्रियों के मुख से सुना था कि चित्तों बाबू को टी०वी० हो गया है। जो उस समय असाध्य रोग था, शिवानी दी सच्ची प्रेमिका थीं शादी करना चाहती थीं पर चित्तो बाबू ने ही ना कर दिया था वे भी आजीवन कुँआरी रह गई थीं।
चित्तो बाबू वीणापाणि क्लब के दुर्गापूजन में लिप्त रहते। सुबह-सुबह बाँस के कमची की खूबसूरत फुलडाली लेकर प्रथम पूजा के दिन आते और हाँक लगातें - "मिनी, ओ गो लोक्खी कोथाय आछो?” – जब तक हम सँभलते वे अंदर आ जाते आंगन में, माँ से पूछतें - शुद्ध मैथिली में-
"भौजी, मिनी पटना सँ आएल?”
"एतेक टा फुलडाली?" - माँ उनके हाथ में बड़ी फुलडाली देख चकित होतीं।
"पूरा टोल के सखी बहिनपा फूल बीछत भौजी ।" - माँ उन्हें खुशबूदार चाय पीने देतीं, वे तारीफ करते फिर अपना कप ले ट्यूबवेल पर धोने लगते, माँ बरजती।
"जरूरी छै भौजी ।”
"अलग छै आहांक कप डिश; खौला कै फराक राखैछी ।" सचमुच दोनों बीमारी के कारण सावधान थे।
चार बजे सुबह हम एक बाग में जाते हरसिंगार के फूल चुनने। पूरी फुलडाली भर जाती। तब हम स्वयं के लिए भी लाते। मुहल्ले भर के बालक बालिकाओं की फौज रहती। फुलडाली देवी मंदिर में पहुँचा दिया जाता। एक दिन मैंने कोई कीड़ा देख लिया वहाँ से चीखकर भागी और सीधे आँगन आकर माँ की गोद में गिरी। वे डर गई कि मुझे हुआ क्या? मेरे पीछे पीछे दोस्तों का हुजूम आया। उन्होंने सारी कहानी कह सुनाई फिर तो मैं फूल चुनने कभी न गई। बाबूजी ने मेरी खिल्ली जरूर उड़ाई - "बेटी, मैं तो तुम्हें बहुत मजबूत देखना चाहता हूँ तुम एक कीड़े से डर गई?” - जीवन के कई मोड़ पर मैंने बाबूजी की वह आवाज सुनी है, दृढ़ होती रही हूँ।
ऐसे ही समय एक सप्तमी की शाम को गलियारे में साँप ने मुझे डँस लिया। घर में माँ या मामी नहीं थी। मैं और मुझसे छोटा भाई था। भाई ने चटपट मेरे टखनों को रस्सी से कस कर बाँध दिया। फिर स्वास्थ्य की किताब निकाल कर पढ़पढ़कर डॉक्टरी करने लगा। उंगली में जहाँ साँप ने काटा था वहाँ प्लस का निशान लगाकर काटा और उसमें पोटाश भर दिया तब हम माँ के पास गये जहाँ ढेर सारी चाचियाँ तथा कम्पाउन्डर चाचा थे। बड़ा शोर हुआ, भाई को एक चाँटा भी लगा। डॉक्टरी जाँच में जहर नहीं निकला पर रात भर कई गहवर घुमाई गई मैं, चाटी चली और रतजगा अलग। बाबूजी नहीं थे शहर में सो आस्थावान लोगों की बन आई। पर साँप हँसने के बाद का अनुभव कमाल का रहा।
बाबूजी जेल से निकलने के बाद एक बार फिर इतस्ततः में थे कि क्या किया जाय। तभी बेनीपुरी जी ने मुजफ्फरपुर बुला लिया। मैं दो-ढाई साल की रही होउंगी। रानी चाची ने मुझे चाँदी का पायल गढ़वा कर पहनाया बाबूजी ने निकालने कहा।
''क्यों?” – बेनीपुरी जी ने पूछा-
"भाईजीं, मैं इसमें लड़कीपन देखना नहीं चाहता, इसे विद्वान, क्रांतिकारी होना है।”
"पायल पहनने से विद्वान बनने में दिक्कत आयेगी क्या?”
"इसमें उलझकर रह जायेगी।"
"सरोजनी नायडू मोतियों की माला और कुंडल धारण करती हैं, अच्छे कपड़े बिन्दी चूड़ी पहनती हैं, वे विदुषी हैं न?"
अब बाबूजी निरूत्तर हो गये।
"चलती है तो रूनझुन का स्वर आता है, आपको नहीं भाता?" - चाचाजी ने कहा था। परन्तु एक दिन उस ऊँचे बरामदे से गिर गई, पायल टूट गई।
वहाँ बाबूजी 'किताब संसार' नामक प्रेस खोलकर किताबें छाप रहे थे। बाबू अनुग्रह नारायण सिंह का "मेरे संस्मरण" - छापा था। जिसे बाद में किसी ने छापा परन्तु उन्होंने बाबूजी के नाम का क्रेडिट दिया, क्योंकि बाबू गंगाशरण सिंह की देख-रेख में छपा था । वहाँ भी क्रांतिकारी साहित्य, परचे छपते थे सो एक दिन प्रेस ध्वस्त कर पकड़ लिये गये थे। आजन्म कैद की सजा सुनाई गई थी।
ऐसे समय में जब मेरा दोटा भाई गर्भ में था तो माँ पेरौल का दरख्वास्त लेकर कमिश्नर के यहाँ गई थी। पेरौल स्वीकार नहीं किया गया पर कॉटेज माँ को दे दिया गया, दो नर्स और एक मेट वन देख रेख के लिए रख दी गई। माँ जब दरख्वास्त लेकर गई थी उस समय कमिश्नर की बेटी ने मुझे चाकलेट खाने को दिया, माँ ने मेरे हाथ से चॉकलेट लेकर उसके सामने ही फेक दिया कि विदेशी के हाथ से विदेशी कि चॉकलेट छूना भी नहीं है। बाद में उन्होंने ही एल०आर० गर्ल्स स्कूल की स्थापना की, लेडी रादरफोर्ड गल्स स्कूल जिसका नाम अब पं० रामनन्दन मिश्र कन्या विद्यालय है। कई लोग कूट कर कहते है रामनन्दन मिश्र की कोई बेटी तो थी नहीं तब यह स्कूल उनके नाम पर क्यों? लोगों को यह नहीं पता कि बेटी में हूँ न ! और फिर सातवीं पास बहू सत्यवती मिश्र का आठवीं क्लास में नाम लिखाया गया। भाभी ने वहाँ से मैट्रिक पास किया और वहीं के सी०एम० कॉलेज से बी०ए० ।
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मैं अपने सखा जो बाद में पति हो गये पर बाबूजी के जाने के बाद खासी निर्भर हो गई । वैसे तो होस्टल में रहती परन्तु जब माँ आती तो घर आ जाती। स्कूल के पीछे ही तो मेरा घर है। थोड़ी दूर पर एक कॉलोनी थी उन दिनों, राजपूत कॉलोनी वहाँ एक लड़की रहती थी जिससे मेरे टोले की लड़कियों की दोस्ती थीं वह लड़की हम सब से थोड़ी बड़ी थी। खूबसूरत रोमांटिक लड़की थी। मेरे टोले की लड़कियाँ उसके वायवीय इश्क के किस्से विभोर होकर सुनती थी। एक दिन हमने सुना कि कहीं से अपने प्रेमी का फोटो ले आई है। किताब के सात तहों वाले जिल्द में रखी फोटो देख हम आश्चर्य से चीख उठे। वह चित्र रामचन्द्र खान जी का था। उस लड़की ने हमें भार दिया कि उसका प्रेमपत्र उन तक पहूँचाऊँ। मैंने सबसे पहले सूखे कंठ से कहा कि ऐसा नहीं कर सकती क्योंकि वो मुझे माँ को कहकर पिटवायेंगे। बाकी लड़कियों को भी दिन में तारे नजर आने लगे। रामचन्द्र जी को सब आदरणीय वाले ऊँचे आसन पर बैठातीं। उस घटना के तीन चार साल बाद जब मैं पटना में कॉलेज में पढ़ रही थी, तब छुट्टियों में कुछ दिनों के लिए गांव जाने की बजाय लहेयिासराय में रह गई। मेरी सहेलियाँ विमला, इन्दु, गोदावरी भूमली सब बहुत प्रसन्न हुई । हम दिन भर मस्ती करते सुना वो रामांटिक लड़की भी आई है। उसका विवाह हो चुका था काफी गहनों से लदी थी। आई और मेरे दूल्हे रामचंद्र जी को देखकर भड़क गई। सभी सहेलियों को खरी खोटी सुनाती रही। उसकी अमानत में खयानत जो हो गया। इन सब बातों से रामचंद्र जी अनभिज्ञ थे । पर सहेलियों ने बुरा न माना।
उनदिनों किशोर खासे रोमांटिक हुआ करते थे। मेरे ही टोले में प्रभास कुमार चैधरी रहते थे। वे मुझसे दो साल सीनियर थे। कुछ दिनों के लिए मुझे सरस्वती स्कूल में पढ़ना पड़ा। तब प्रभास मुझे अपनी क्लासमेट लोगों के लिए प्रेमपत्र दिया करते पहुँचाने को। मैं पहुँचा भी देती। मुझे याद है कोई बुरा न मानती। एक दिन प्रभास ने मुझे एक कॉपी पकड़ाते हुए कहा - "किरण तुम हिन्दी बहुत अच्छा लिख लेती हो, वाद विवाद में अव्वल रहती हो, मेरा एक काम कर दो । - मैं क्या कहती भला? उन्होंने हिन्दी कहानी लिखी थी जिसे मुझे पढ़कर सही करने को कहा। अब बताइये आठवीं में मैं और दसवीं के टॉपर प्रभास; कहानी सही करने लगी। कुछ लाल निशान भी लगाये। बाद के दिनों में प्रभास कुमार चैधरी बड़े लेखक हुए। एकाध हिन्दी कहानी लिखी परन्तु वे मैथिली के यशस्वी लेखक हुए। प्रभास एक ईमानदार रोमांटिक व्यक्ति थे पढ़ने लिखने वाले जहीन बड़े अधिकारी | मैथिली साहित्य के लिए अभूतपूर्व कार्य किये। उन दिनों लहेरियासराय के नॉर्थब्रूक जिला स्कूल में बिहार के सभी स्कूलों का यूथ फेस्टीवल आयोजित था। एक बड़ा सर्वांगीण जमावड़ा। उस फेस्टीवल के संयोजक अध्यक्ष जिला स्कूल के ग्यारहवीं के रामचन्द्र खान जी, उपाध्यक्ष एल०आर० गल्स स्कूल की श्यामली बनर्जी और सचिव एम०एल० एकेडेमी दसवीं के छात्र प्रभास कुमार चैधरी । बहुत भव्य और चाक चैबन्द व्यवस्था थी। एक विशिष्ट कार्य के दर्शक हम हुए थे।
जब हमारा स्कूल पुराने किराये के मकान में चलता था तभी सन् 1949 में राष्ट्रपति देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद आये थे। मैं छोटी सी थी, इतनी कि गोद में लेकर टीचर ने मुझसे उन्हें खादी की माला पहनवायी। तब वे भारत के नहीं कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रपति थे।
उसके बाद एक बहुत बड़ी सभा की याद है। वह सभा मेडिकल वाले मैदान में हुई थी। अवसर था जयप्रकाश नारायण का अभिनन्दन का, आचार्य कृपलानी वगैरह थे, गंगाशरण सिंह, बेनीपुरी जी थे। बाबूजी ने स्वागत भाषण किया था। वहाँ एक चर्चा आम थी कि पं० रामनन्दन मिश्रा ने राजनीति का परित्याग कर दिया है। वे आध्यात्मिकता की ओर चले गये है। ये सारे समाजवादी धड़े के लोग थे। उन्हें रामनंदन मिश्र का विचार परिवर्तन रास नहीं आ रहा था। आगे इसी जुटान ने सन् 1952 के चुनाव में जो कि आजाद भारत का पहला आम चुनाव था विशाल कांग्रेस पार्टी को चुनौती दी।
स्कूल में कितना कुछ होता था जो कमोबेश अब भी होता है। एक बात और है कि अनुशासन तो तब कड़क था पर आतंक नहीं था, सड़क पर भी माहौल आतंककारी न था यह मैं लहेरियासराय के संबंध में कह रही हूँ । हमने मात्र सुना था कि महाराजा दरभंगा के छोटे भाई जो राजाबहादुर कहलाते थे का आतंक व्याप्त था । परंतु आजादी के परवाने जब समाज में सामने आये तब उन्होंने अपने हाथ पाँव समेट लिए ।
मिथिला में जल्दी शादी की परंपरा थी। बाबूजी गुजर गये थे उनके दो निकटस्थ मित्रों को मेरी अत्यधिक चिन्ता थी। उनमें से एक उनके पुराने मित्र प्रख्यात वकील रामेश्वर प्र0 सिंह थे। लहेरियासराय में उनका दोमंजिला चेम्बर मुझे अब भी याद है। रामेश्वर बाबू काले सूट और गॉगल्स में शानदार लगते। जब उनकी गाड़ी रूकती तब टैफिक थम जाता। वे पाइप पीते। उनके चैम्बर की सज्जा भी कमाल की थी। उनका घर कटहलबाड़ी में था। चाची पढ़ी-लिखी थीं और सितार बजाना जानतीं। मैंने दो चार दिन हाथ आजमाये बस । दूसरे साथी थे बहादुर बाबू जो बाद में मेरे ससुर हो गये। रामेश्वर बाबू ने उन्हें ही कहा कि वे सजातीय हैं सो मेरे लिए लड़का ढूंढे, ध्यान रहे कि वह लड़का कम से कम एक हजार रूपया तो महीना कमाता हो। गपशप में उन्होंने कहा कि क्यों न राम बाबू से विवाह कर दिया जाय बहादुर बाबू ने कहा "वो कौन सा एक हजार रू० कमा रहा है, वह तो इन्टर में पढ़ रहा है।"
"बहुत मेधावी है, भविष्य अच्छा है उसका।" रामेश्वर बाबू ने कहा।
"कहेगा कौन उनसे?" बहादुर बाबू ने कहा।
"मैं कोशिश करूंगा।” - रामेश्वर बाबू ने कहा तो पर कह न पाये। परंतु मैंने मैट्रिक की परीक्षा दी और उन्होंने आई०ए० की और लाख ना नुकुर के बाद विवाह हो गया। मैं पटना के मगध महिला कॉलेज में साइंस लेकर पढ़ने लगी और रामचंद्र जी पहले से ही पटना कॉलेज में थे। हम दोनों अलग अलग छात्रावास में थे जिसमें रविवार को विजिटर के रूप में मिलते। मेरी सारी मित्र साथ होतीं। कुछ सहेलियाँ खासी रोमांटिक थीं; जैसे शेफालिका मल्लिक जिसकी शादी गर्मी की छुट्टी में हो गई थी वर्मा जी के साथ। शेफालिका के पिता का घर पटना में था। वह रोमांटिक कवितायें ही नहीं, रोमांटिक बातचीत भी करती थी।
मगध महिला कॉलेज गंगा के किनारे बसा हुआ है। वहीं एक होस्टल था जो अब जर्जर गार्गी होस्टल के नाम से जाना जाता है। शायद टूटकर नया बनने वाला है। होस्टल डॉरमेट्री टाइप था। पीछे मेस और भोजनालय आगे बेहद खूबसूरत बागीचा। बागीचा का माली चैतू बहुत जानकार और प्रयोगशील था। मैंने उससे गुलाब तथा अन्य फूलों को लगाने का गुर सीखा था। एक पौधे में चार छः रंगों के गुलाब तो वह खिलाता ही, गुलाब की पंखुड़ियों पर अनेक रंग बिखेरने का गुर भी जानता। फूलों के विषय में वह मेरा अच्छा गुरू निकला।
कॉलेज के परले सिरे पर होस्टल के पास विशाल बरगद का पेड़ था। उसकी कुछ डालियाँ गंगा की ओर झुकती थीं। पेड़ पर बन्दरों का ठिकाना था सो हमारे कॉलेज और होस्टल पर उसका खासा साम्राज्य था। कॉलेज का कैम्पस गंगा की ओर से मात्र तार से घिरा था; हम वहाँ लगे सिमेन्ट की बेंचों पर बैठ गंगा का नजारा देखते। वहीं बैठ कर दिन में हम शेफालिका की कवितायें सुनते और रात में सावित्री नेपाली से गीत सुनते । सावित्री गलत महमूद के गीत खूब गाती ।
बंदर लड़कियों से खाना छीनकर खा जाता। रविवार को बरामदे में बैठकर छात्रायें होस्टल के मशीन पर अपना कपड़ा वगैरह सिलतीं। एक दिन एक बन्दर आया अधसिला ब्लाउज ले भागा। जाकर वह पेड़ की डाल पर बैठ गया। लड़कियों ने उस पर कुछ अमरूद वगैरह फेंके, ताकि वह ब्लाउज फेंक दे । उसने वैसा किया भी पर...। गंगा में मेडिकल कॉलेज के छात्र नौका विहार कर रहे थे, वह ब्लाउज उनकी नाव में गिर गया। लड़कियाँ हक्की-बक्की । लड़कों ने इशारे से किनारे आकर ले जाने को कहा वे चढ़ने भी लगे। एक सीनियर दीदी ने कहा यह गलत है यदि आपलोग कृपा कर सामने से दे जायें तो उपकार होगा सचमुच उसी शाम को अखबार में लपेट कर ब्लाउज दे गये लड़के जो भावी डॉक्टर थे। बंदरों के तमाम सारे किस्से तत्कालीन अखबारों में छपते। अब वह वटवृक्ष नहीं है। गंगा किनारे ऊँची दीवारें हैं। मैदान के पूर्वी सिरे पर हॉल, लैब इत्यादि है । होस्टल भी दो और हैं। परन्तु एक विशेष स्थान जिसकी कॉलेज को जरूरत थी नहीं दी गई। वहाँ ट्रेनिंग कॉलेज है। यह सब गड़बड़ विश्वविद्यालय प्रशासन और सरकारें करती हैं। संरचना, भूगोल और सरकार का रवैया सदा से विरोधी रहा है। फिर भी कॉलेज आन बान और शान से खड़ा है। उसी की कोख से पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय की कई बढ़ियाँ संस्थायें उभरी हैं। सामने बड़ा सा गांधी मैदान है जो पहले लॉन कहा जाता था। पहले वह खुला विशाल मैदान था अब बाड़े हैं, मूर्तियाँ और बागीचे हैं। अब की तरह पहले भी पन्द्रह अगस्त तथा छब्बीस जनवरी को झंडे फहराये जाते थे। परेड होते थे आर्मी, पुलिस और स्कूली बच्चों के। उन दिनों सन् बावन-तिरेपन में मैं ऐंगस गल्स स्कूल में पढ़ती थी। स्कूलों में गल्स गाइड बड़ी बच्चियों के लिए और ब्लू बर्ड्स छोटी बच्चियों के लिए संस्था थी। मैं ब्लू बर्ड्स में थी, अच्छा परेड करने के कारण में कैप्टन थी, सबसे आगे रहती। अंग्रेजी गीतों का अजीब सा अनुवाद हम गाते, जिसे आजतक समझ न पाई -
नीली चिड़िया हँसती गाती है +ये तो हमारी आदत है +ओ डाउन ओ डाउन, वेरी वेरी डाउन +हरी पत्तियों के बीच में है।"
एक बार छब्बीस जनवरी के समय हमें गाँधी मैदान परेड में जाना था। वहाँ निरीक्षण के समय राज्यपाल से हाथ मिलाना होता। ब्लू बर्ड को बायाँ हाथ मिलाना होता था, मैं कैप्टन थी मुझे बायाँ हाथ मिलाने का अभ्यास कराया गया। पर में बड़े पेशोपेश में थी। पढ़ाकू थी सो राजगोपालाचारी द्वारा संक्षिप्त बच्चों के पढ़ने लायक महाभारत पढ़ लिया था। उसमें देवयानी का बायाँ हाथ पकड़कर सम्राट ययति ने कुएँ से बाहर निकाला जिस कारण उन्हें विवाह करना पड़ा। हमारे राज्यपाल थे वयोवृद्ध माधव श्री हरिअणे। मेरे मन में था कि कहीं मेरा विवाह तो नहीं इनसे हो जायेगा? मैंने चटपट दाहिना हाथ उनसे मिला लिया। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा परन्तु स्कूल में मुझे सजा मिली। पर मैंने यह भेद बहुत बाद में समझने पर अपनी लहेरिया सराय की सहेलियों से साझा किया। हम उस प्रसंग को याद कर हँसते रहते।
लहेरियासराय से नाता छीजने लगा क्योंकि पटना पढ़ने आ गई। अब लहेयिासराय मात्र रास्ते का एक ठहराव भर रह गया था। मैं गाँव पकरिया चली जाती। बस से उन दिनों बिरौल सुपौल पहुँचते, नाव पर चढ़कर तीन-चार कभी पाँच घंटों में गाँव पहुँचते। गाँव में घर के आगे कोसी नदी की धारा थी जो बारहो माह जल से भरी होती। बाद में जब तटबंध बना तब हम लहेरियासराय से ट्रेन पर चढ़कर घोघरडीहा स्टेशन पर उतरते, कई बार वहाँ से बैलगाड़ी में आते, कई बार वहीं बाँध के साथ बहती धारा में नाव पर आती। यात्रायें बेहद थकाऊ और खतरनाक होतीं। कई बार रात हो जाती तो नाव तट पर लगा कर छोड़ देते नाविक। नाव पर चैकी होती, बिस्तर होता और टप्पर भी होता। खाने का सामान बरतन भांडा सहित साथ होता। वे अक्सर या तो खिचड़ी पकाते और हमें खिलाते या जाल, टहुका लगाये मल्लाहों से मछली लेकर पकाते । पूरे दो दिनों की यात्रा होती। दो दिन और दो रात। छोटी छुट्टियों में हम गाँव नहीं आते। प्रत्येक यात्रा एक जंग थी प्रकृति के साथ। दो चार बानगी मैं देती हूँ।
हम नाव से घोघरडीहा की ओर चले। उधर जाना धारा के विपरीत जाना होता है। ऐसे में एक व्यक्ति चप्पू लग्गा चलाता है दूसरा आदमी गून (मजबूत रस्सी) से नाव को खींचता है। नाव की गति अक्सर धीमी होती। कई बार गून टूट जाती है तब नाव संकट में पड़कर डूबने लगती है। ऐसे में नाविक की सूझबूझ और सवारी का धैर्य काम आता है में दो बार ऐसे संकट से गुजरी हूँ। आज भी याद कर सिहर जाती हूँ, कलेजा मुँह को आता है। इस बार हमारे ससुर जी साथ थे और थे ससुराल के सम्मिलित परिवार के बच्चे जो लहेरियासराय में रहकर पढ़ते थे। अंधेरी रात थी गून खींचने वाले के पैरों में काँटा गड़ गया। उधर बबूल बहुत होते हैं। उसे बबूल का भयानक कांटा पैरों में गड़ गया, वह चीख उठा। ससुर जी ने टॉर्च से रोशनी की और कहा गून को वहीं झाड़ में बाँध दो में नीचे उतरता हूँ उसने वैसा ही किया। पर झाड़ में बिढ़नी का निवास था। कईयों ने बेचारे को काट लिया। वह चीखने लगा ससुर जी नीचे उतरे उसका काँटा खींच कर निकाला और चादर से झटक झटककर बिढ़नी उन्हें भगायी। टॉर्च से स्थान का मुआयना किया तो लगा कोई देवस्थली निकट है। उधर लालटेन टँगी थी। रास्ता देख कर वे वहाँ पहुँचे और रहने वाले से पूछा -
"आपलोग रात भर यहाँ ठौर देंगे क्या? हमारे साथ बच्चे हैं हम कल तड़के निकल जायेंगे। घोघरडीहा जाना है।”
"आप कहाँ के हैं सरकार ? " - संवासिनी ने पूछा।
"हम मुसहरिया जमालपुर के हैं। "
"किस मुसहरिया के? द्वारिका खाँ वाले मुसहरिया के कि बहादुर खाँ वाले मुसहरिया के?"
"द्वारिका खाँ वाले मुहरिया के हैं।"- ससुरजी ने हँसकर कहा । स्थल से एक बड़ी चैकी और एक खाट दी गई। सारे बच्चे और में चैकी पर खुले आकाश में लेटे, खाट पर ससुर जी। नाविकद्वय नाव पर थे। तारों भरी खूबसूरत अंधेरी रात थी, बच्चे पड़े-पड़े मारामारी कर रहे थे। नींद किसी को नहीं आई। बबूल का घना जंगल, पानी का शोर और तिलस्मी दिखता देवस्थल अलग से डरा रहा था। सुबह सबेरे हम निकल गये थे। वह यात्रा अविस्मरणीय रही।
एक बार मेरा भाई तटबंध से बैलगाड़ी लेकर घोघरडिहा की ओर मुझे लेने आया। हम ट्रेन से उतरकर चल पड़े। रास्ता लम्बा था। कुछ दूर जाने पर जोरदार बारिश होने लगी। किसी गाँव के रखवाले की झोपड़ी थी, बड़ी दो भाग में बँटी हुई। उसने कहा - "मैं गाँव चला जाता हूँ। आपलोग रहिये। चूल्हा बरतन और लकड़ी है, खाना बना लीजियेगा” – हम उतर गये। बैलों को दूसरे खंड में बाँध कर गाड़ीवान खिचड़ी बनाने लगा। बारिश तेज होने लगी। पास में ही डोमबस्ती थी जो बाँस के सूप टोकरे बनाते थे सूअर भी पालते थे। वे डोम और उनके सूअर सारे घुस आये झोपड़े में। क्योंकि उनके झोपड़ों में पानी भर आया था। बैल सूअरों को सींगे मारने लगा। अजब समा बन गया था जैसे हुरियाहा ले रहा हो। घंटे भर बाद बारिश थमी। चाँदनी रात थी। हमलोगों ने गाड़ी जोती और चल पड़े। अपने घर के सामने जहाँ कम पानी था वहाँ से बैलगाड़ी पार हुई, हम चलते हुए नदी पार कर घर पहुँचे।
ऐसा अक्सर होता रहता हम आदी हो गये थे। ये रोमांचक यात्रायें भूलने लायक नहीं हैं। गाँव जाकर सबकुछ भूल जाते। खेत नदी और सहेलियाँ जो मजदूर वर्ग की थीं उनके किस्से कारनामे के आगे वह सब हवा हो जाता।
कई बार बाबूजी के साथ भी नाव पर कठिन यात्रायें हुई। रात अँधेरी होती, चप्पू का स्वर और जल का विराट क्षेत्र, समुद्र सा दीखता, परन्तु नाविक परिचित थे नदी की गति से। मुझे याद है रात को नाव पर बाबूजी ने तारे दिखाकर उनका परिचय कराया था, सतभैया के नाम बताये थे, शुक्र और ध्रुव तारे दिखाये थे। जब खलोगीय ज्ञान देते तो उसमें पौराणिक घुस पैठ नहीं होता, विशुद्ध विज्ञान होता । स्वतंत्रता आन्दोलन की ढेर सारी बातें बताते, कोई नकारात्मक चर्चा कभी नहीं थी। बंगाल के अकाल के समय वे पूर्वी बंगाल में सेवाकार्य करने गये थे। उन्होंने वहाँ की त्रासद कहानी सुनाई थी। एक वृद्धा इन्हें अपना बेटा समझने लगी थी। एक दिन इनसे पूछा - "तूभि पोछिमा मोतोन कैनो बोलचो?" - सच है, प्रायः दरभंगा में पश्चिम बंगाल वाले बांग्ला भाषी रह रहे थे सो हम वैसा ही बोलने समझने के आदी हैं। बाबूजी उन्हें यह कहकर निराश नहीं करना चाहते थे कि वे उनके बेटे नहीं हैं पछिमा ही हैं । उनके जीवन की कई छिटफुट कहानियाँ जो उन्होंने मुझे कहीं थी और जो मेरा पाथेय है सुनाकर आप सबको यदा कदा उबाउँगी।
बार-बार मैं बचपन की ओर लोट जाती हूँ। पर हमारा बचपन अभी बीता नहीं था कि विवाह हो गया। एक ही भली बात थी कि हम एक दूसरे को अच्छी तरह जानते थे। गुण-अवगुण अच्छा बुरा सब जानते थे। सो हम शरारतें वैसे ही करते जैसे पहले करते थे। मैं और मेरी गँवई सहेलियायाँ रामचंद्र जी के अत्यंत घने केश में तेल डालने का भय दिखाती, वे मुझे कीड़ा से डराते । मेरी माँ और उनके पिताजी थोड़े परेशान हो जाते। हमारे कॉलेज होस्टल वे मिलने आते रहते, मेरी सहेलियों के साथ गप्पे मारते। एक दिन सुपरिन्टेन्डेन्ट प्रो० भाग्यवती सिंह ने बुलाकर लड़कियों को डाँटा तथा समझाया कि वे पति-पत्नी हैं एकान्त में बातें करने दो। पर लड़कियाँ हँस कर टाल गईं। कुछ सीनियर लड़की और भाग्यवती दीदी ने समझाया कि - "रामचंद्र जी होली की छुट्टी में आपलोग घर नहीं जायेंगे तो क्यों नहीं राजगीर वगैरह घूम आते हैं?" - यह विचार जम गया हमें। हम चार दिनों के लिए राजगीर चले गये। गृद्धकूट पर्वत की तलहटी में वेणुवन नामक छोटा सा भदेस होटल था। वहाँ माड़वाड़ी थाली खाने को देते थे। समझ लीजिये कि वह हमारा हनीमून ट्रिप था। हमारे मन में स्त्री पुरूष का भाव जग गया और हम किशोर किशोरी से युवक युवती हो गये।
उन दिनों राजगीर में जैन धर्मशाला था जहाँ संवासिनियाँ सफेद हंस सी विचरण करती थीं। गरम पानी के कुंड पर नहाने वालों का तांता लगा रहता। मलमास और माघ में बड़ा मेला लगता। गृद्धकूट के रत्नागिरी पर्वत के लिए कोई रोप वे नहीं था पर लोग पत्थरों के ढोंके पर चढ़कर जाते जरूर । हम रत्नागिरी पर चढ़ने को प्रस्तुत हुए थे। मेरे पैर चढ़ाई चढ़ने से जबाव दे गये। हम आधे रास्ते पर थे। मैं बैठकर रोने लगी। रामचंद्र जी ने अपने स्वभाव के अनुसार पहले तो डाँटा कि इतनी सी दूरी पार नहीं कर सकती, बड़ी ऐथलीट बनती हो पर मैंने रोने का स्वर और ऊँचा कर लिया। तभी एक साधु चलता हुआ आ गया। वह कहने लगा - "बिटिया, मेरे कंधे पर बैठ जा मैं ले चलता हूँ।" - मैंने अपने आँसू पोंछे और ऊपर चलने लगी। साधु आगे कूद- कूद कर चले गये । मैं रूक-रूक कर चलती ऊपर शिखर तक पहुँच गई जहाँ एक जापानी साधु साधना लीन थे, बैठे थे। उन्होंने शीतल जल पिलाया। थोड़ी देर बैठकर हम उतर आये। राजगीर में बहुत कुछ नया जुड़ गया है पर पुरानी मान्यतायें जस की तस हैं। कुछ दूकानें जो मनके मोती बेचा करती थीं अब भी हैं । हमारे जैसे लोगों के श्रृंगार के शौक की गुरिया की मालायें। रत्नागिरी पर भव्य मंदिर और रोप वे पर अक्सर जाते रहे परन्तु अपना हनीमून होटल वेणुवन भूले नहीं। अब वेणुवन होटल भी भव्य है।
अब मुझे अपनी रोमांटिक दोस्तों की प्रेमकविता समझ में आने लगी। मैं कविता तो लिखती थी पर कभी रोमांटिक नहीं लिखा। हाँ अब प्रेमपत्र जरूर लिखने लगी। उत्तर भी आने लगा। होस्टल की सीनियर्स पत्र उड़ा लेतीं, पहले पढ़कर फिर चिपका कर मुझे देतीं। मैं तब समझती जब पत्रांश वे मेरे सामने बोल कर चिढ़ातीं।
बाबा नागार्जुन मेरे लोकल गार्जियन थे। वे मेरे काका थे। काका कभी कभी मिलने आते। उन दिनों वे भिखना पहाड़ी के एक मकान में रहते थे। मकान का वर्णन उनके कुम्भीपाक नामक उपन्यास में विस्तार से आया है। शोभाकान्त भी स्कूल की पढ़ाई करने को यहीं थे। तब काकी नहीं आई थीं। वे अक्सर मुझे ले जाते थे। एक दिन रामचंद्र जी रविवार को काका के आदेश पर मुझे ले गये। मछली भात बनी। हम जमकर खाये और सो गये। एक कमरा था जहाँ फर्श पर बिस्तरा था हम चारो के लिये। मैं और शोभाकान्त नींद के आगोश में थे। काका और उनके जमाता रामचंद्र जी वैचारिक गपशप कर रहे थे, गपशप उग्र बहस में तब्दील हो गया। काका ने कहा- मुझे तुमसे कोई बात नहीं करनी, 'जाओ यहाँ से।”
"मैं भी आप जैसे हठी इन्सान से बात नहीं करता।” कहा रामचंद्र जी ने और मुझे जगाया।
"चलिये यहाँ एक मिनट नहीं रहना है।" - मैं उठकर बैठ गई हक्की बक्की । काका ने मेरा हाथ पकड़ा और कहा -
"मेरी बेटी है, तुम जाओ यह नहीं जायेगी। मैं इसका लोकल गार्जियन हॅू कल होस्टल पहुँचा दूँगा।”
"मैं पति हूँ, मैं ले जाउँगा और कल सुबह होस्टल पहुँचा दूँगा।" - जाहिर है रामचंद्र जी ने कठोरता से मुझे उठाया और सीढ़ियाँ उतर गये। सामने ही एक रिक्शा वाला सो रहा था उसपर बैठा कर स्वयं बैठ गये और आर्यकुमार रोड में शायद हबीबुर्रहमान साहब का दरवाजा खटखटाया -
"कौन" - आवाज आई
"मैं हूँ कामरेड, रामचंद्र।" - रात के एक बजे थे। उन्होंने दरवाजा खोला। एक कमरा था, एक चैकी थी।
"अमां यार बेगम भी हैं? चलो बेगम किरण चैकी पर सो जाओ।" - उन्होंने न कारण पूछा न इन्होंने कहा। मैं पड़ कर सो गई। हबीब साहब जो बुजुर्ग थे ने चटाई बिछायी और दोनों सो गये। अल्लसुबह मैं होस्टल पहुँचा दी गई उधर काकाजी ने शोभाकान्त को कहा - "उठो देखो इतनी रात गये पगले ने मिन्नी को परेशान किया। रोको उसे। शोभाकान्त जबतक नीचे आये हम रिक्शे पर बैठ निकल गये थे। शाम को लगभग पाँच बजे मिठाई की हाँड़ी लेकर काका पहुँचे। आँखों में आँसू भरे थे, प्यार से सिर सहलाया और कहा - "उस बौराहे दामाद के पास सुबह गया था। मना लिया।” - मैं मूँह ताकती रही। यात्री काका यानी नागार्जुन का और रामचंद्र जी का अजीब आत्मीय रिश्ता था। दोनों घंटों पुस्तकों, विचारों समाचारों का विशद् विश्लेषण करते रहते।
मैं स्नातक कक्षा में पटना कॉलेज आ गई, सर गणेशदत्त के नाम पर विश्वविद्यालय होस्टल है जिसमें मैं आ गई। काका जी ही लोकल गार्जियन थे। वह होस्टल कृष्णा घाट पर है विश्वविद्यालय परिसर में। काका काकी और बच्चे पटना के रानीघाट में आ गये थे। चैकोर आंगन बरामदे और कई कमरों वाला खपरैल घर था। वहाँ में कई कई दिन रहती । रामचंद्र जी पटना विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम0ए0 करने के बाद कोलकाला प्रेसिडेन्सी कॉलेज में लिंग्विस्टिक्स में डबल एम०ए० करने चले गये थे।
इस बीच पटना विश्वविद्यालय में चुनाव के लिए यूनियन गठित हो चुका था। सबसे पहले पटना लॉ कॉलेज के छात्र श्री शीलेशचन्द्र मिश्र अध्यक्ष हुए थे। शायद वह 60-61 का समय होगा। दूसरी बार मित्रों ने रामचंद्र जी को आगे किया पर ये दो वोट से हार गये। मैं तब गाँव में थी । छुट्टियाँ थीं। राजनीति का अंदरूनी रूप स्वरूप देख इन्हें अच्छा नहीं लगा। इनके परम मित्र रामगोपाल बजाज नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में चले गये, ये कोलकाता चले गये । सन् 63-64-65 तक वे कोलकाता में रहे। मैं पटना कॉलेज में प्राचीन इतिहास पढ़ती रही। मेरी बेटी अनुराधा उसी बीच पैदा हुई । मैं घर पर काफी दिनों तक रही फिर बेटी को अपनी माँ के पास छोड़ भारी मन से पटना आ गई। मेरा पूरा मन था कि बहुत हुआ अब ग्रेजुएशन के बाद घर पर रहूँगी। पर ऐसा न हुआ, बी०ए० ऑनर्स में प्रथम आ गई, स्कॉलरशिप मिल गया और गुरू प्रो० डॉ. उपेन्द्र ठाकुर ने कहा कि आपको एम०ए० कर लेना चाहिए, काकाजी ने भी कहा। मैंने एम0ए0 में दाखिला ले लिया।