मेरे हनुमान (कहानी) : ज्योति नरेन्द्र शास्त्री
Mere Hanuman (Hindi Story) : Jyoti Narendra Shastri
अपने पति मनसहाय पंडित की मृत्य के बाद भगवती जैसे तैसे अपने परिवार का पालन पोषण कर रही थी । परिवार मे मनसहाय की मृत्यु के बाद उनकी आखिरी निशानी के रूप मे उनका पुत्र राममूर्ति ही शेष रह गया था । क्या कुछ नहीं किया था भगवती ने मनसहाय के इलाज के लिए । लेकिन सब बेकार गया । मनसहाय का किसी समय समस्तीपुर समेत आसपास के गाँवों मे डंका बजता था । बड़े बड़े सेठो की हवेलियो पर पूजा के लिए एडवांस में बुकिंग रहती थी । कोई ऐसा ब्राह्मण , वेदवेता नहीं था जो मनसहाय की विद्वता के सामने खुद को टिका सके । वक्त का पहिया घुमा । पंडित मनसहाय ज्यादा बीमार रहने लग गये । घर में जो कुछ जोड़ा हुआ था सब उनकी बीमारी में चला गया । मनसहाय क्या गया , घर की तों समृद्धि ही चली गई । एन वक्त पर रिश्तेदारो ने आँखे फेर ली । पहले जिस घर में लोगो का हुजूम उमड़ पड़ता था अब भगवती कुछ सहायता ना मांग ले यह सोचकर कोई उसके घर के पास से भी नहीं गुजरता । जब मनसहाय की मृत्यु हुई थी तब राममूर्ति पूरे 2 साल का था । घर का सारा सामान भी बीमारी में चला गया था । मनसहाय की कुछ पुस्तके और उनका बेटा राममूर्ति ये 2 ही कुल मिलाकर उनकी आखिरी निशानी के रूप में शेष रह गयें थे ।
भगवती गाँव मे वार त्यौहारो पर कथा कह आती और उससे जो कुछ मिलता उसी से परिवार का बसर हुआ करता था । राममूर्ति अब सतरह वर्ष का एक समझदार युवक हो चुका था । उसकी माता ने उसको धार्मिक शिक्षा देकर इतना सशक्त बना दिया था की वाल्मीकि कृत रामायण के साथ सैकड़ो ग्रंथ साथ मे ज्ञान विज्ञान का आधुनिक समन्वय उसे याद था ।
राम और हनुमान के प्रति तों अगाध श्रद्धा उसके रोम-रोम मे बसी हुई थी । एक दिन राममूर्ति पंडित समस्तीपुर के ही किसी मंदिर में गया हुआ था वहाँ के पंडित किशोर चतुर्वेदी किसी जजमान को उनके कष्ट निवारण के लिए हनुमानजी पर सिंदूर लगाकर पूजा अर्चना करने के लिए कह रहे थे । इस संसार मे ईश्वर को मानने का सबका अपना तरीका होता है , कोई उन्हे किसी रूप मे प्रतिष्ठित करता है तों कोई किसी रूप मे । पंडित जी की यह बात राममूर्ति को नागवार गुजरी । वह भी रामायण को पढ़ता आया था , और ईश्वर मे भी अगाध श्रद्धा थी किन्तु उसें लग रहा था आज यह उसके हनुमान जी का गौरव कम करना है । बस फिर क्या था लगा पंडित जी से तर्क करने । पंडित जी हनुमानजी को अर्पित करने के लिए और भी बहुत चीजे होती है । महावीर पर स्त्रियोचित वस्तु अर्पण करना मुझे नहीं लगता बेहूदगी है । किशोर चतुर्वेदी देने लगे अपने पक्ष मे तर्क । रामायण मे प्रसंग आता है की माता सीता एक बार सिंदूर लगा रही थी , हनुमानजी ने पूछा की माता ये पदार्थ क्या है जो आप अपने मस्तक के बीचो बीच ( मांग में ) लगा रही है माता सीता ने जवाब दिया वत्स ये सिंदूर है इससे स्वामी यानी पति प्रसन्न होता है । बस फिर क्या था हनुमानजी ने अपने सारे शरीर पर सिंदूर लगा लिया जिससे प्रभु राम प्रश्न हुए । अपने कथन के पक्ष में तर्क देने के बाद किशोर पंडित राममूर्ति के तर्क का इंतजार कर रहे थे ।
पंडित जी रामायण समेत हमारे धर्मग्रंथो मे भयंकर मिलावट हुई है हनुमानजी जिनके लिए अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं, दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्। सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं, रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि। जो अतुलित बल की राशि है , जिनका शरीर सोने की कांति वाला है , जो ज्ञानियों मे अग्रगण्य है । इसके साथ मनोजवं मारुततुल्यवेगं, जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्. वातात्मजं वानरयूथमुख्यं, श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये॥ जो बुद्धिमानो मे वरिष्ठतम है । 4 वेद जिनको जबानी याद है । क्या उस महापुरुष को सिंदूर के बारे मे मालूम नहीं होगा । या फिर उन महापुरुष ने कभी अपने घर मे अपनी माँ अंजना को सिंदूर लगाते नहीं देखा होगा । गोस्वामी तुलसीदास की लाल देह लालीलसे, अरुधरिलाल लँगूर।
बज्र देह दानव दलण, जय जय जय कपिसूर।। उपरोक्त पंक्तियों मे लाल देह से तात्पर्य सिंदूर लगाने से नहीं वानरो की देह का सामान्य रूप से रंग ही ऐसा होता था इस संदर्भ मे कही गई है । विशाल समुद्र को लाँघकर अतिकम्पन , कालनेमी जैसे भयंकर राक्षसों के त्राण से पृथ्वी माता को भयमुक्त करने वाले महापुरुष के लिए ऐसी चीजे मुझे नहीं लगता शोभायमान है । उन्हे अर्पित करने के लिए वीरो के योग्य अनेको वस्तुए है वो भेंट करो तों शायद महावीर जैसे वीरो का भी औचित्य वीरता मे रह सके । बाकी तों ईश्वर को मानने का सबका अपना तरीका है ही गलत चीज को अगर हमने उसी रूप मे स्वीकार कर लिया तों फिर सभ्य और असभ्यो में अंतर क्या शेष रहेगा । राममूर्ति के तर्क जारी थे । मेरे हनुमान संकटमोचक है बस उनके प्रति ऐसा दुराग्रह मुझे स्वीकार नहीं था इसलिए बिना बुलाये शास्त्रार्थ कर डाला । बुरा लगा तों क्षमाप्रार्थी । तब तक एक बड़े मंदिर के सचिव वहाँ आ चुके थे । आपकी जगह यहां नहीं द्विजश्रेष्ठ मंदिर के मुख्य पुजारी के रूप मे है । राममूर्ति ने हनुमानजी को प्रणाम किया । सुन लोगे प्रभु और वी भी इतनी जल्दी । मेरे हनुमान यह तों मुझे नहीं पता था ।