मीठा दर्द (नाटक) : मंगल सिंह मुंडा
Meetha Dard (Play in Hindi) : Mangal Singh Munda
पात्र - परिचय
पुरुष - पात्र
1. इकबाल - रेलवे कर्मचारी
2. तपन कर्मकार - बड़ा बाबू 3. हमीद अंसारी - इकबाल का बाप 4. मधुसूदन - कर्मचारी 5. करीम - कर्मचारी 6. जॉन - रेलवे बोर्ड का सचिव 7. राघवन - रेलवे बोर्ड का सचिव 8. अन्य - रेलवे बोर्ड का सचिवस्त्री - पात्र
1. सुलोचना - तपन की पत्नी
2. शकीना - हमीद की बेगम 3. अन्यअंक - 1
प्रथम दृश्य
स्थान - रेल कार्यालय।
समय - 11 बजे दिन कार्यालय में तपन कर्मकार बड़े बाबू हैं। इकबाल, मधुसूदन, जॉन उनके विश्वासनीय कर्मचारी हैं। बूढ़ा नन्दलाल चपरासी है। कार्यालय का काम चालू है। तपन - (फाईल पलटते हैं) इस महीने के 10 तारीख को डिपार्टमेंट में रवीन्द्र नजरूल उत्सव मनाया जायेगा। तुमलोगों को भी कुछ कर दिखाना होगा, क्यों? समेत स्वर - जी सर। तपन - इकबाल ! तुम क्या दिखायेगा ? इकबाल - मैं नजरूल गीत गाऊँगा, सर तपन - शाबाश! तुम्हारा नाम तो पहले ही आसमान पर है। मेरी पत्नी रवीन्द्र संगीत पेश करेगी। तुम मधुसूदन और जॉन क्या करेगा? समेत स्वर - हम लोग ऑडियन्स में रहेंगे। हा... हा... हा... इकबाल - हाँ, हाँ, तुम दोनों ठीक बोले हो । सब अगर गाने-बजाने लगे तो कौन देखेगा-सुनेगा, हाँ? तपन - ( फोन बज उठता है) हल्लो, तपन स्पीकिंग... हल्लो.... राघवन - हल्लो चीफ सेक्रेटरी राघवन, रेलवे बोर्ड नई दिल्ली। तपन - हाँ साहब, कहा जाए। राघवन - ईयारली एक्सपेंस एण्ड आरनिंग फिगर सेन्ड सून। बोनस इस्टीमेट हेल्ड अप । तपन - ओ.के. सर। बाई 15 यू विल गेट दि फिगर पोजीटिबली ( तपन फोन रखता है) इकबाल - जी, सर । तपन - रेलवे बोर्ड से फोन आया था। कल जो फिगर कलेक्शन करने को कहा था...? इकबाल - फिगर रेडी है, सर । तपन - वाह! लेकिन माँ की तबीयत ठीक नहीं कह रहा था। इकबाल - जी। डाक्टर खाने से लौटकर गये रात तक काम पर लग गया। यह लीजिए ( पेपर देता है) जॉन - अरे वाह! इसने तो ऑफिस की लाज बचायी, वरना इसे कारण बताओ नोटिस मिलता ही मिलता । धुन का पक्का है यह मियाँ । करीम - लगता है यह दूसरा अन्ना हजारे है। नन्दलाल - क्यों नहीं? क्यों नहीं? आज समय की मांग है कि हम सभी को अन्ना के पदचिह्नों पर चलें। अरे बच्चे, कल का भारत तुम युवा पर ही तो निर्भर है। क्यों? तपन - इकबाल ! 10 तारीख को नजरूल गीत से समाँ न बाँधा तो जानो । मेरी पत्नी भी कहती है कि अल्लाह ने उसको गजब का गला दिया है। ( पटाक्षेप)द्वितीय दृश्य
स्थान - संस्कृति मंच
समय - 10 बजे रात वाद्य यंत्रों के साथ इकबाल गीत गाकर सबका मन मोह लेता है। इकबाल - नजरूल गीत...' (तालियों की गड़गड़ाहट) गीत की समाप्ति सुलोचना - अरे वाह! बहुत सुन्दर... बहुत सुन्दर...। सच में अल्लाह ने आपको बेशकीमती उपहार दे रखा है। ऐसी मीठी आवाज तो पहले कभी नहीं सुनी थी। इकबाल बाबू कभी-कभी हमारे घर भी मेहमान आया कीजिये । जॉन - अरे वाह! सच में तुमने तो कमाल कर दिया। बधाई हो। मधुसूदन - हाँ-हाँ, बधाई हो! करीम - हाँ बधाई! कल ऑफिस में मुँह मीठा कराओगे तो? तपन - धत् बुड़बक कहीं का! तुम्हें उसका मुँह मीठा करना चाहिये कि नहीं। चलो ऑफिस का नाम तो रोशन किया। इसी तरह हुनर में लगे रहो इकबाल । इकबाल - आपका आशीर्वाद मिलता रहे, सर । पटाक्षेपअंक-2
प्रथम दृश्य
स्थान - हमीद का घर।
समय - 8 बजे सवेरे । आज शुक्रवार है। रेलवे ऑफिस में भी राजकीय छुट्टी है । इकबाल को तपन बाबू के घर जाने का मौका मिला हुआ है। वह वहाँ जाने के लिये माता-पिता से अनुमति माँगता है। हमीद कपड़ा रफू करता है। शकीना सूप में चावल में से कंकड़ चुनती है। ( इकबाल का प्रवेश ) इकबाल - पिताजी! हमीद - हाँ कहो बेटा! कहाँ गया था? इकबाल - चौधरी स्वीटस। हमीद - क्यों? माँ को कहा होता। घर में ईद की सेवई पड़ी हुई है। दूध चीनी के साथ जायकेदार बना लेती। इकबाल - नहीं। आधा किलो राजभोग ले आया हूँ। शकीना - (चौंकती है) क्या राजभोग! कल मालपुआ ले आओ... परसों चमचम... नरसों हिलसा का चोंएटा...। तुम्हारा हिन्दू सरकार का रेल है न! यह हिन्दू अन्न-जल खिला-पिलाकर हमें भी हिन्दू बनाने का चक्कर चला रहा है, समझा ? अरे गफूर मियाँ के मीट शॉप में हिमालयन बकरी आ गई है। इनके कबाब का स्वाद में ऐसा जादू है कि तेरा अल्लाह भी खिलखिला उठे, हाँ। इकबाल - नहीं अम्मा। जरूरी काम से हमारे बड़े बाबू का घर जाना है। हमीद - कौन बड़े बाबू ? इकबाल - ऑफिस का। तपन कुमार कर्मकार शकीना - ठीक कहा न? यह औलाद माथे पर चन्दन के कलंक का टीका नहीं लगवाया तो जानो। हमीद - ना बेटा ना। तुम्हारा वहाँ जाना ठीक नहीं रहेगा। इकबाल - पर क्यों? आप तो हमेशा कहा करते हैं कि धर्म आपस में वैर नहीं सिखाता...। क्या पता वो भी आपसी भाईचारे का हाथ फैलाकर अपने धार्मिक रिवाज का गला घोंट दे ! हमीद - अच्छा बेटा, तूने हमें अबतक के भारत की तस्वीर पेश की है। कल के भारत का दीदार तू और तेरा विवेक ही करायेंगे। जाओ, जहाँ जाना है जाओ...। शकीना - हूँ, जाता है तो जा। पर हाँ, घर आने के पहले मस्जिद में जाके खुद को अल्लाह से माफ करा लेना, हाँ। इकबाल - (चुपचाप माँ देखकर निकल जाता है) ( पटाक्षेप)द्वितीय दृश्य
स्थान - तपन का घर।
समय - दिन के आठ बजे । आज तपन का घर इकबाल आनेवाला है। सुबह के नाश्ते के विषय में वह पत्नी से बात उठाता है। तपन - एजी, सुनती हो...। ओ..ओ..ओ...! सुलोचना - क्या हुआ ?... आ...आ...आ....? तपन - आज वो लड़का शायद आयेगा। नाश्ते में क्या बनाओगी? सुलोचना - कौन लड़का ? तपन - वही, जिसको कि तुमने गत नजरूल कार्यक्रम में घर आने का न्योता दे रखा है। सुलोचना - ओ हो, इकबाल ! तपन - हाँ। सुलोचना - मुसलमान बच्चे तो सेवाई, हलुआ ही ज्यादा पसंद करते हैं। गाजर का हलुआ बनाती हूँ । तपन - जो भी करो। वह तो तुम्हारा भी पसंदीदा गायक है। सुलोचना - हाँ! सो तो है। बेचारा कितना सुन्दर गायन करता है । एक दिन यह छेले समाज की ज्योत बनेगा। आने दो। (पटाक्षेप)तृतीय दृश्य
स्थान - पूर्ववत ।
समय - 12 बजे दिन । तपन के घर आते-आते इकबाल को बारह बज जाता है। इकबाल आता देख तपन लोटा पानी लिये हाजिर हो जाता है। तपन - बड़ी देर लगा दी इकबाल । लो, जल्दी हाथ-पाँव धो लो । श्रीमती के हाथों बना गाजर का हलुआ ठंढा हुआ जा रहा है। जल्दी खा लो...। इकबाल - ...लेकिन बड़ा बाबू। मैं जरा बाहर जाके ... । तपन - ओ, अच्छा! बारह का नमाज अदा करना है न? ए जी सुनती हो...? ओ...ओ..ओ...! सुलोचना - आई...ई...ई...ई...। तपन - पूजा घर का दरवाजा खोल देना। इकबाल भाई नमाज अदा करेंगे...। इकबाल - लेकिन... लेकिन... बड़ा बाबू, यहाँ कहाँ ? तपन - तुम बाहर मत जाना। यहीं नमाज अदा करो। हमारे देवताओं को गुस्सा नहीं आयेगा। (पटाक्षेप)अंक-3
प्रथम दृश्य
स्थान - पूजा घर ।
समय - 12 बजे दिन । पूजा घर का दरवाजा जब खुलता है तो इकबाल देखता है कि करीने से काली, दुर्गा, सरस्वती, कार्तिक आदि की मूर्तियाँ जड़वत् खड़ी हैं। उन्हें देखकर वह पशोपेश में पड़ जाता है। इकबाल - या अल्लाह! तू मुझे कहाँ ले आया? यहाँ तेरा नाम कैसे लूँ? ( तपन का प्रवेश ) तपन - हाँ, हाँ। यहीं बैठकर नमाज अदा करो, यहीं...। इकबाल - लेकिन बड़ा बाबू...? तपन - कुछ नहीं । ईश्वर, अल्लाह एक ही हैं। बस उस तक पहुँचने का रास्ता अलग है। यहीं गमछा बिछाकर...। इकबाल - ( पूजा घर में गमछा बिछाकर नमाज पढ़ता है) (पटाक्षेप)द्वितीय दृश्य
स्थान - पूर्ववत् ।
समय - 1 बजे दिन । मेहमाननवाजी समाप्त कर इकबाल दोनों से विदाई मांगता है। इकबाल - बड़ा बाबू, अब आपका घर देख लिया। खाना-पीना भी हो गया। अब मुझे विदाई चाहिये। सुलोचना - ( पैकेट लिये हुए ) हमारा घर-द्वार कैसा लगा इकबाल बाबू ? लीजिए यह देवताओं का आशीर्वाद स्वरूप प्रसाद...। इकबाल - ( पैकेट लेता है) क्या कहूँ, आपके घर-द्वार मेरे सीने में एक मीठा दर्द पैदा कर दिया, बड़ी बबुआईन । दोनों - अरे तुमने यह क्या कह दिया इकबाल ? इकबाल - हाँ, बड़ा बाबू! मेरे सीने में मीठा दर्द हो उठा है। दोनों - बात समझ में नहीं आयी । तुम क्या कहना चाहते हो इकबाल ? कुछ असुविधा तो नहीं हुई? इकबाल - नहीं। कोई असुविधा नहीं। दर्द में मिठास इसलिये कि आज आप दोनों ने अपने ईश्वर के घर साम्प्रदायिक सद्भावना का लाजवाब प्रसाद भेंट किया। दर्द में जलन इसलिये है कि इस ऋण को चुका पाऊँगा या नहीं। मैं भी आप दोनों को न्योता देकर अपने अल्लाह के घर ला पाऊँगा या नहीं? सुलोचना - ओ हो। यह कोई बड़ी बात नहीं। तुम्हारे अल्लाह को यह सब पसंद न हो तो रास्ते के नाले में फेंक देना। जल-जंतु खा लेंगे। इकबाल - नमस्कार ! दोनों - नमस्कार ! (पटाक्षेप)तृतीय दृश्य
स्थान - हमीद का घर।
समय - 2 बजे दिन । इकबाल अपने घर पहुँचता है। माँ-बाप को सारी घटना बताता है। ( इकबाल का प्रवेश ) हमीद - (फटा कपड़ा रफू करता है) बेटा आ गया मेहमाननवाजी से? इकबाल - हाँ पिता जी आ गया। साथ में यह भी लेते आया। हमीद - क्या? इकबाल - प्रसाद । शकीना - जिस बात की आशंका थी, आखिर वही हुआ। तुम ही खाओ प्रसाद । हमीद - शकीना इतना रूखापन क्यों? तपन बाबू के हाथ कोई सूअर के जबड़े तो नहीं जिसके हाथों दिया गया अन्नकूट इन्कार किया जाए। शकीना - हिन्दुस्तान के मुसलमान साम्प्रदायिक एकता का ठेका लिये हुए हैं। गुजरात में लाख गोधरा काण्ड गुजर जाए और हिन्दू- मुसलमान एकता जिंदाबाद के नारों से आसमान फट फट जाए। हमीद - अरे नहीं, इकबाल की माँ, नहीं । तुम बात को समझने की कोशिश तो करो। तुम जरा कश्मीर की तरफ सिर उठाकर देखो, पाकिस्तान की तरफ देखो। वहाँ हमने कितनी ईमानदारी दिखायी है? उधार का सूद बड़ा खौफनाक होता है, शकीना बड़ा खौफनाक! और हाँ, यह कभी मत भूलना कि अल्लाह का यह शैतान सूअर केवल प्रेम को ही जड़ से खोदता है । तुम पहले हिन्दुस्तानी हो, तब मुसलमान। इकबाल बेटा अ..अ.. अ...। इकबाल - आया पिताजी । हमीद - बेटा आज तुमने धर्म-संसार के उस कोने पर ला खड़ा किया है जहाँ हमेशा दिन में तपती रेत पर जलती हवाएँ चलती हैं और रात के समय अमावस्या की काली रात छाई रहती है। शकीना - ... तो कृष्ण मुरारी से एक ढिबरी क्यों नहीं माँग लेते? इकबाल - चुप भी रहो माँ । आखिर हम हिन्दुस्तान का नमक खाते है कि नहीं? मैंने बड़ा बाबू के पूजा घर में नमाज अदा की है। क्या पूजा घर के कपाट मेरे लिये यों ही खुल गये? काश! हम भी उन्हें अल्लाह के दरबार में अपने मुरारी से बात करवा पाते। हमीद - तुमने पत्ते की बात की है, बेटा। कोई भी धर्म आपस में वैर नहीं सिखाता। हम अनुयायी उसे वैर करना सिखाते हैं। लाओ, इस प्रेम बीज से अपनी बंजर धरती को आबाद करने की कोशिश कर लूँ। (प्रसाद ग्रहण करता है) समाप्त ('महुआ का फूल' कहानी संग्रह से )