मीराबी (कहानी) : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
Meerabi (Hindi Kahani) : Sarveshwar Dayal Saxena
"अच्छा तो फिर सुनो। काल के प्रवाह में दुनिया की बहुत बड़ी-बड़ी सत्य घटनाएँ छोटी-मोटी कहानी मात्र रह जाती हैं। फिर यह भी एक कहानी ही सही।"
इन शब्दों में डाकुओं के एक बूढ़े सरदार ने अपनी कहानी प्रारम्भ की। वह घने जंगलों के बीच एक ऊँचे टीले पर लाल पत्थरों की भारी शिला की टेक लगाकर बैठा था जो मशाल की रोशनी में खून - सी चमक रही थी। उसके चारों ओर और कई जवान लुटेरे बैठे थे जिनकी काली-काली दाढ़ियाँ, बड़े-बड़े साफे, नंगी तलवारें उस लाल रोशनी में झिलमिला रही थीं। उनकी आँखें जलते हुए अंगारों-सी और उनके दाँत खून पिए हुए पशुओं से लग रहे थे। जिस टीले पर वे बैठे थे उसके पीछे सैकड़ों फुट नीचे पिशाचिनी नाम की पहाड़ी नदी एक भयानक अट्टहास करती हुई बह रही थी । रात का पहला प्रहर था। सोने की थाली-सा निस्तेज चाँद ऊपर नील गगन में उग आया था लेकिन मशाल की कड़वी रोशनी को छूकर जैसे उसकी सुकुमार किरणें मर गई थीं। हवा तेज चल रही थी। वृक्षों की पत्तियाँ झनझना रही थीं, लगता था चारों ओर अदृश्य झर रहे हों। बूढ़े सरदार की आवाज धीमी थी। उसके मुख पर पड़ी झुर्रियों में दर्द की स्पष्ट छाप थी यद्यपि उसका मुखमण्डल कठोर था। कहानी कहने के उसके ढंग से ऐसा लगता था जैसे वह भावुकता की गहराइयों में डूबा हुआ हो।
उसने कहा- दक्षिणी भारत में अपने नाम की धाक जमाकर चेतसिंह अपने गिरोह के साथ उत्तर भारत में चला आया। कनखल डमरुआ और पिशाची के भयानक जंगलों में उसके गिरोह ने डेरा डाल दिया। एक दिन साँझ को जब वह अकेले ही इन जंगलों की छानबीन करता हुआ एक झरने के किनारे पहुँचा तो उसे एक अत्यन्त सुन्दर लड़की गुनगुनाती हुई पानी भरती दिखाई दी। उसके उन्मुक्त केश हवा में उड़ रहे थे और उसके गोरे मुख पर डूबते हुए सूर्य की किरणों ने केसर का हल्का लेप लगा दिया था । उसके अस्तव्यस्त वसनों की ओट से यौवन की अल्हड़ता निःसंकोच झाँक रही थी, और उसकी रेशमी उँगलियाँ पानी से खेल रही थीं। चेतसिंह एकटक देखता रह गया। जीवन में प्रथम बार चेतसिंह की आँखों में नारी का सौन्दर्य चुभ गया। चलते समय उसका रास्ता रोककर, उसने पूछा- तुम कौन हो ?
प्रत्युत्तर में वह खिलखिलाकर हँस पड़ी-अरे इतना भी नहीं जानते, मीराबी मीराबी- और ही ही हँसती रही।
- मीराबी, पागल लड़की ! आश्चर्य से सरदार बोला ।
- पागल नहीं अच्छी लड़की ! वह बोली।
- कौन कहता है तुम अच्छी लड़की हो ?
- तुम्हारी आँखें ।
- मेरी आँखें ! मेरी आँखें तो कुछ नहीं कहतीं ।
- तुम क्या जानो वो क्या कहती हैं यह तो मैं जानती हूँ ।
- मैं क्यों नहीं जान सकता ?
- इसलिए कि तुम पुरुष हो, तुममें बनावट है, घमण्ड है ।
सरदार उसकी बात सुनकर विस्मित हो गया। आश्चर्य से बोला- यह तुमको किसने सिखाया ?
- मेरी माँ ने, मेरी माँ उत्तर भारत की सबसे प्रसिद्ध नर्तकी थी ।
- हाँ, एक वर्ष हुए वह मुझे छोड़कर दूसरे लोक चली गई।
- तुम्हारे पिता हैं ?
- नहीं, अब वे भी नहीं रहे।
- तुम्हारे पिता क्या करते थे ?
-पहले राजकुमार थे बाद में सब कुछ छोड़ दिया तपस्या करने लगे ।
- और राज्य ?
- वह दुश्मनों के हाथ चला गया।
- तुम्हारा भाई ?
- वह बहुत बड़ा व्यापारी है। आज 6 वर्ष से विदेश में है।
- तो तुम अकेली हो ?
- नहीं, मेरे पास उन सबकी मधुर स्मृतियाँ हैं। देखते हो यह कुटी, उसके सामने के फूल यह मेरे पिता के लगाए हैं। मेरे पैरों के ये घुँघरू मेरी माँ ने दिए हैं और वह सुनहरा दीप मेरे भाई की प्रतीक्षा में जलता है। मुझसे कहता है मीरा बहन, नहीं नहीं, मीराबी मैं तेरे लिए सोने का महल बनवाऊँगा ।
सरदार का कठोर हृदय भी उस लड़की की सरल बातें सुनकर भर आया और फिर वह नित्यप्रति उसके पास जाने लगा। मीराबी, भयानक जंगल में पड़ी एकाकी मीराबी उसकी बैठी नित्य प्रतीक्षा करती और उसके आने पर चिड़िया-सी चहक उठती। एक रात जब पूर्णमासी की चाँदनी उस निर्झर के किनारे की स्फटिक शिला पर दूध-सी फैली हुई थी, मीराबी के घुँघरू झमक उठे। वह घण्टों मदहोश-सी नाचती रही। जंगल का हर वृक्ष उसके घुँघरूओं की झनकार पर झूमता रहा। दूर एक कोने में बैठा सरदार उस रूप की दीपशिखा को नाचते देखता रहा । आखिरकार वह थककर बैठ गई। और उसने जीतू और लहरा को अपनी गोद में चिपका लिया। जीतू चीते का बच्चा था और लहरा हिरण का । मीराबी ने दोनों को पाल रखा था। सरदार ने कहा- मीराबी मेरे निकट आओ।
मीराबी उसके करीब जाकर बैठ गई। सरदार ने भावावेश में पूछा- मीराबी, तुम जीतू और लहरा को क्या मुझसे ज्यादा प्यार करती हो ?
- क्यूँ ? तुम्हारे और जीतू, लहरा के प्यार में अन्तर है। दोनों को एक-सा ही, तो है नहीं, कि मैं ज्यादा या कम की नाप-तौल कर सकूँ। नारी प्यार के लिए बनी है सबके लिए उसके दिल में प्यार होता है लेकिन उसके प्रकार में अन्तर होता है। जीतू लहरा का प्यार दूसरा है, तुम्हारा प्यार दूसरा और यदि आज मेरा भाई यहाँ होता तो उसके लिए दूसरा होता ।
सरदार चुप हो गया। सम्भवतः उसके पास इसका उत्तर नहीं था । उसकी खोई-खोई-सी आँखों में अब भी मीराबी नाचती हुई सी दिखाई दे रही थी और वृक्षों के पत्ते झनझनाकर उसके घुँघरूओं की ध्वनि की नकल कर रहे थे। कुछ देर बाद सरदार ने पूछा-अच्छा मीराबी, तुम जीतू और लहरा में किसको अधिक प्यार करती हो ?
- दोनों को एक-सा ।
- यह कैसे सम्भव है।
- यही असम्भव नारी अपने जीवन में सम्भव करती रहती है। अच्छा तुम यह बताओ, तुम अपनी तलवार में और मुझमें किसको ज्यादा चाहते हो ?
- सरदार बोला- दोनों को।
- बिलकुल गलत, मीराबी ने दृढ़तापूर्वक कहा - किसी को भी नहीं । तुम केवल अपनी इच्छा को प्यार करते हो। तुम्हारी इच्छा का मूल्य हम दोनों से अधिक है। यही नारी और पुरुष के प्यार में अन्तर है। नारी दूसरे की इच्छा को प्यार करती है और पुरुष अपनी इच्छा को । जीतू और लहरा दोनों ही मेरे लिए समान हैं। दोनों की आँखें मुझसे स्नेह की भीख माँगती हैं और मैं दोनों को अपनी गोद में सुलाकर सुख पाती हूँ । इतना कहकर उसने दोनों को चूम लिया ।
सरदार ने कहा- मेरी आँखों की ओर भी कभी देखा है । ये भी तुमसे प्यार की भीख माँगती हैं।
- यह मैं पहले ही दिन देख चुकी हूँ ! मीराबी ने एक शरारती नजर उसकी ओर फेंककर कहा ।
- तो फिर मुझसे विवाह कर लो। सरदार आवेश में बोला। मीराबी ने गरदन झुका ली और किसी गम्भीर चिन्ता में डूब गई।
-नारी तो दूसरे की इच्छा से प्यार करती है न! सरदार बोला।
- हाँ ।
- फिर क्या मेरी इच्छा की सत्यता पर विश्वास नहीं ।
- है, लेकिन सोचती हूँ कि वह कितनी टिकाऊ हो सकेगी।
- क्यों ?
- इसलिए कि तुम पुरुष हो, तुम्हारी इच्छा बदल भी सकती है। सरदार यह उत्तर सुनकर तिलमिला उठा। वह उठ खड़ा हुआ और रुँधे हुए गले से बोला- अगर मेरा पुरुष होना ही पाप है तब फिर मुझे उसका दण्ड भोगने दो। और जाने लगा।
तभी मीराबी ने उसे अपनी बाँहों में कस लिया और अपनी छलछलाई हुई आँखें उसकी आँखों में डालकर बोली- आए हो तो लौटकर मत जाओ । मुझे तुम्हारी इच्छा स्वीकार है। मैं अपने अदृष्ट को भाग्य पर छोड़ दूँगी।
और फिर मीराबी और सरदार का विवाह अमावस्या की काली रात में धूम से हुआ। जंगल के मध्य पेड़ों को काटकर एक गोल मैदान बनाया गया। बीच में लकड़ियों का ढेर जलाया गया। अग्निशिखा को आकाश छुआ देने का प्रयत्न किया गया। नदी के किनारे वन-पथ पर चारों ओर मशाल गाड़ दिए गए जिन्हें देखकर मुस्कराकर मीराबी ने सरदार से कहा- हमारी तुम्हारी शादी आग की लपटों में हो रही है, अब मरने पर मेरे लिए चिता की जरूरत नहीं पड़ेगी ।
- शुभ अवसर पर ऐसी बात कहकर तुम मेरा मन क्यों दुखाती हो ।
- मुझे क्षमा करो सरदार ! विपत्ति में पले हुए व्यक्ति के मन में सदा आशंका के ही नक्कारे बजा करते हैं। इसमें मेरा दोष नहीं। इतने बड़े सुख पर मन को यकायक विश्वास नहीं होता ।
- यह मेरा दुर्भाग्य है मीराबी, तुम्हारे मन में मेरे लिए प्यार नहीं जग सका अन्यथा इतना बड़ा अविश्वास तुम अपनी छाती पर न ढोती रहती ।
- ऐसा मत कहो सरदार नारी का प्यार इस मशाल की रोशनी की तरह धधककर नहीं जलता। वह एक नन्हे दीपक की लौ की तरह टिमटिमाता रहता है। मशाल जितना एक क्षण में खो देगी नारी उतना वर्षों तक संजोए रहेगी।
- मीराबी ।
- हाँ मेरे देवता । इस पुनीत पर्व पर मेरे जीवन की महानतम सुखद घड़ियों में तुम मेरे इस नन्हे दीपक का अपमान मत करो यही मेरी तुमसे प्रार्थना है।
इतना कहते-कहते उसका गला रुँध गया और उसकी आँखों में अश्रु भर आए। तभी दूरी पर भीषण कोलाहल सुनाई दिया। सरदार ने बात बदलते हुए कहा - यह देखो, मेरे बचे-खुचे साथियों को लेकर शेरसिंह भी दक्षिण भारत में आ पहुँचा।
- शेरसिंह, मीराबी चौंक उठी। उसकी छाती धकधक करने लगी । लेकिन सरदार ने नहीं देखा। वह अपने साथियों के स्वागत के लिए उठकर बाहर चला गया था। और फिर वह रात सरदार की सुहागरात थी । नदी की धार में डोंगी पर पड़े हुए सरदार ने पूछा- मीराबी, तुम कहाँ खोई हुई हो।
मीराबी के कानों में शेरसिंह की ध्वनि गूँज रही थी और उसकी आँखों के सामने एक तस्वीर बन बनकर मिट रही थी, मिट-मिटकर बन रही थी ।
- कुछ नहीं, मीराबी ने एक उच्छ्वास भरकर कहा- सोचती हूँ आज मेरा भाई पास होता तो कितना अच्छा होता। वह पता नहीं विदेश में कहाँ होगा, कैसे होगा ?
- प्यार और यौवन के इन भरे-पूरे क्षणों में तुम अभावों की कल्पना क्यों करती हो मीराबी ! सरदार ने पूछा।
- अभावों की कल्पना, कठोरहृदय सरदार, तुम इसे क्या समझोगे ? इन्द्रधनुष में एक रंग नहीं होता अनेक रंग होते हैं। नारी के हृदय में तुम एक ही रंग क्यों भरना चाहते हो ? इतने स्वार्थी मत बनो सरदार, मुझ पर दया करो।
सरदार ने देखा मीराबी की आँखें छलछला आई हैं जिन्हें वह उससे चुरा रही है।
- इन सितारों की चोरी मुझसे क्यों कर रही हो ? सरदार ने पूछा।
- इसलिए कि सूर्य की किरनों के सामने इन्हें नजर लग जाएगी। ये ठहर जो नहीं पाएँगे।
और फिर दोनों ही ठठाकर हँस पड़े। लेकिन यह हँसी मीराबी के अधरों पर रात भर से अधिक नहीं टिक सकी क्योंकि प्रातःकाल ही सूर्य की किरणों के साथ-साथ उसने अपने भाई को देखा। सरदार कहीं अन्यत्र चला गया था। मीराबी भाई से लिपट गई और फूट-फूटकर रोने लगी ।
- तो वह तुम्हीं थे।
- हाँ बहन, लेकिन तुमने यह क्या किया ?
- वही जो एक निराश्रित, निस्सहाय लड़की ऐसी अवस्था में करती । माता-पिता सब तुम्हारी याद करते चले गए। मैं वर्षों से अकेले इसलिए जीवित रही कि आज यह देखूँ कि तुम एक साधारण लुटेरे हो और तुम्हारे गिरोह का सरदार है मेरा पति । इससे बड़ा दुर्भाग्य मेरे लिए कुछ नहीं हो सकता कि मेरा भाई मेरे पति से कम हो, उसके आश्रय में हो। तुम आज ही उसका गिरोह छोड़ दो। सोने का महल तो मैं आँसुओं में बहा चुकी । सोचती थी अपनी शक्ति और बुद्धि से तुमने विदेशों का व्यापार मुट्ठी में कर लिया होगा जो कहकर तुम गए थे परन्तु आज छः वर्षों से तुम केवल डाका ही मार रहे हो। यदि तुम्हें यही करना है तो जाओ इससे भी सबल किसी दूसरे गिरोह की सृष्टि करो।
- यह कैसे सम्भव है मीराबी ।
- क्यों ?
- मैंने अब तक उसका नमक जो खाया है उसे कैसे छोड़ सकता हूँ ।
- ओफ, तुम उसे नहीं छोड़ सकते क्योंकि तुमने उसका नमक खाया है, स्वामिभक्त हो। मैं उसे नहीं छोड़ सकती क्योंकि मैंने उससे विवाह किया है। उसे प्यार करती हूँ। फिर मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ?
- इसमें घबराने की क्या बात है ? शेरसिंह ने कहा- नियति का चक्र कहाँ, कैसे चल जाएगा यह कौन जानता है ? उचित यही है कि हम दोनों ही खामोश रहें। सरदार को यह मालूम ही न होने पाए कि हम भाई-बहन हैं । और यही हुआ। सरदार को जीवन के अन्त तक यह नहीं ज्ञात हुआ कि शेरसिंह मीराबी का भाई है। और यह न जान पाने के ही कारण जो दुखान्त घटना हुई उसकी स्मृति से मैं आज भी दहल उठता हूँ। सरदार अक्सर मीराबी को छिप-छिपकर शेरसिंह से बातें करता देखता । उसका सन्देह दिन पर दिन प्रबल होता जाता था।
एक रात उसने मीराबी से पूछा- तुम शेरसिंह से क्या बातें करती हो ? मीराबी का चेहरा फक पड़ गया। काँपती हुई आवाज में बोली- कुछ तो नहीं।
- मुझसे झूठ बोलती हो। मैंने सब देखा है।
- और देखकर किस निष्कर्ष पर पहुँचे ?
- इस पर कि तुम शेरसिंह को प्यार करने लगी हो ।
- यह नहीं सोचा कि प्यार के प्रकार में अन्तर हो सकता है।
- मैं दार्शनिक नहीं हूँ। मैं पुरुष हूँ, मैं अपनी पत्नी को किसी दूसरे के साथ नहीं देख सकता ।
- यह मैं जानती हूँ कि तुम पुरुष हो और ऐसे पुरुष जो अपनी इच्छा के सामने संसार में किसी की भी परवाह नहीं कर सकते। जिसका गवाह तुम्हारा पेशा है। फिर भी मेरी इतनी बात मान लो कि तुममें विश्वास का अभाव है। विश्वास करना सीखो। इतना मैं कह सकती हूँ कि तुम्हारा स्थान तुम्हारा ही रहेगा उसे कोई दूसरा इस जीवन में नहीं पा सकता।
मीराबी की बात सुनकर सरदार ने उत्तर दिया – यह सच हो सकता है लेकिन अच्छा है कि तुम मेरी दुर्बलता से परिचित रहो क्योंकि मैं जानता हूँ कि आदमी अपनी दुर्बलता पर शीघ्र ही विजय नहीं पा सकता । शेरसिंह मेरा बहुत प्यारा साथी है। उसे मैं खोना नहीं चाहता और तुम मेरी जिन्दगी हो, तुम्हें खोकर मैं स्वयं जीवित नहीं रह सकता और तुम दोनों के बीच है मेरा दुर्बल मन, मेरे दुर्बल संस्कार। मुझे क्षमा करो। मीराबी, मुझ पर दया करो। तुम शेरसिंह से दूर रहो। मैं अपना मन नहीं सँभाल पाता ।
- भरसक चेष्टा करूँगी सरदार। लेकिन अपनी दुर्बलता से पराजित हो जाना एक परिष्कृत आत्मा के लिए उचित नहीं ।
और आज मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि जीवन की समस्त दुखान्त घटनाओं का मूल कारण व्यक्ति का अपनी ही दुर्बलता से पराजित हो जाना है। यह उसका कितना बड़ा उपहास है कि अपनी दुर्बलता से परिचित होते हुए भी उसके हाथ का शिकार हो जाता है। सरदार मीराबी के विचारों के रेशे - रेशे से परिचित था लेकिन फिर भी उसका पुरुष हृदय उस पर सन्देह करता ही रहा और एक दिन सन्देह की यह खाई इतनी बड़ी हो गई कि सरदार उसे पार करने में असमर्थ हो गया।
वह गुनाहों-सी काली रात थी। सरदार पास के एक बड़े जमींदार पर हमला करने वाला था। जमींदार को पहले ही से आशंका थी। उसने प्रान्त के सूबेदार से सिपाहियों की एक अच्छी-खासी टुकड़ी अपने यहाँ बुला रक्खी थी। गिरोह के प्रयाण के अवसर पर मीराबी से न रहा गया। इतने दिनों वह शेरसिंह से नहीं मिली थी। बहन का हृदय भाई के दर्शनों के लिए तड़प उठा। उसने शेरसिंह को बुलवाया। और बहते हुए आँसुओं के बीच बिलख-बिलखकर उसने उससे सिर्फ इतना ही कहा-अपना और उनका ख्याल रखना ।
तभी सरदार आ पहुँचा। सन्देह आदमी को सतर्क और अन्धा दोनों ही बना देता है। वह खड़ा खड़ा मीराबी का रोना और शेरसिंह का उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए सान्त्वना देना दोनों ही देखता रहा और शेरसिंह के चले जाने पर आँसुओं से भीगी हुई उस स्नेह प्रतिमा के उसने जाकर दो टुकड़े कर दिए और खून से भीगी हुई उस तलवार को लेकर वह कक्ष से बाहर निकल आया ।
और तभी उसे चारों ओर के उस घने अँधेरे में जीतू और लहरा दोनों को गोद में लेकर स्फटिक शिला पर बैठी हुई मीराबी दिखाई दी। जंगल के वृक्ष के हर पत्ते पत्ते से उसकी आवाज गूँजने लगी-तुम किसी को प्यार नहीं करते, पुरुष अपनी इच्छा को प्यार करता है। प्यार के प्रकार में अन्तर होता है, तुममें विश्वास का अभाव है। विश्वास करना सीखो, अपनी दुर्बलता से पराजित होना एक परिष्कृत आत्मा के लिए उचित नहीं। मेरे नन्हे दीपक का अपमान मत करो, तुम्हारा स्थान तुम्हारा ही है, उसे कोई दूसरा इस जीवन में नहीं घेर सकता।
सरदार घबरा गया। इस अँधेरे में स्वयं को ही वह एक तिनका- सा उड़ता हुआ दिखाई देने लगा ।
वह मीराबी को कितना प्यार करता है इसका अनुभव हुआ । उसके बिना वह नहीं रह सकता। उसे जिन्दगी असह्य हो गई और तभी गिरोह के सामने पहुँच कर उसने रुँधे हुए स्वर में कहा- देवी का वचन है कि आज के इस हमले में मेरी मृत्यु निश्चित है। मैं अपने सब साथियों से अपने सब अपराधों की क्षमा माँगता हूँ और चाहता हूँ कि मेरी मृत्यु के बाद शेरसिंह को वे अपना सरदार मानें।
परन्तु शेरसिंह चारों ओर कहीं भी नहीं दिखाई दिया। सरदार अपने कक्ष में आया। मीराबी का शव नहीं था। सरदार को एक काली आकृति तभी इस टीले पर दिखाई दी। वह शेरसिंह था । उसकी बाँहों में उसकी बहन का शव था उस बहन का शव था जो अपने पति को बहुत प्यार करती थी, जिसका सिर्फ गुनाह इतना था कि वह अपने भाई को भी प्यार करती थी। भाई के सम्मान का भी उसे ख्याल था । उसे वह अपने पति से कम या उसके आश्रय में नहीं देखना चाहती थी।
सरदार चीख कर भागा। 'मेरे प्यारे साथी शेरसिंह' परन्तु उसके पहुँचने के पहले ही शेरसिंह, मीराबी के शव के साथ सैकड़ों फुट नीचे बहती हुई इस पिशाचिनी नदी में कूद पड़ा।
यह दृश्य देख सरदार भयंकर स्वर में चिल्लाया- चलो लौट चलो, हमले का समय निकला जा रहा है। और उसके घोड़े के साथ-साथ गिरोह के सारे घोड़े एक क्षण में अदृश्य हो गए।
इतना कहकर बूढ़ा सरदार चुप हो गया। चारों ओर मरघट-सी नीरवता छा गई। सबकी आँखें सिर्फ मशाल की ओर गड़ी थीं जिसके तेज खूनी प्रकाश को छूकर चाँद की सुकुमार किरनें मरती जा रही थीं।