मौन की आभा (प्रबोध कुमार श्रीवास्तव) : शर्मिला बोहरा जालान

Maun Ki Aabha (Article on Prabodh Kumar) : Sharmila Bohra Jalan

अपने जीवन काल में कम से कम अपने जीवन के अंतिम पच्चीस वर्षों के दौरान जिसमें एल्जाइमर के छह-सात वर्ष निकाल दिए जाएँ तो प्रेमचंद के नाती (दौहित्र) अमृत राय के भांजे लेखक प्रबोध कुमार श्रीवास्तव ने कई विधाओं में लेखन किया जो महत्त्वपूर्ण है। कुछ पुस्तकों की समीक्षाएँ लिखीं, बांग्ला से दो पुस्तक- ‘आलो आंधारि’, ‘ईषत रूपांतरण’ तथा तसलीमा नसरीन और काजी नजरूल इस्लाम की कविताओं का अनुवाद किया। ‘द हिन्दू’ और ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ अखबार में 1998 में अख़बार की खबर पढ़कर सत्ता और समाज में हुई कुछ घटनाओं पर आपत्ति दर्ज करते हुए प्रतिक्रिया में पत्र लिखे। अपनी नानी अम्मा- शिवरानी देवी प्रेमचंद- पर संस्मरण लिखा जो ‘प्रेमचंद घर में’ (प्रकाशक-संजय भारती, रोशनाई प्रकाशन, कांचरापाड़ा) पुस्तक में संकलित है। मित्रों को ढेर सारे पत्र लिखे।नृतत्त्वशास्त्र पढ़ाया। घर में खाना पकानेवाली, और घरेलू काम करनेवाली बेबी हालदार को आत्मकथा लिखने की प्रेरणा दी। जिसकी आत्मकथा ‘आलो आंधारि’ (प्रकाशक- संजय भारती, रोशनाई प्रकाशन, कांचरापाड़ा) को अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली।

उन्हें एन्थ्रोपोलॉजिस्ट और बेबी हालदार के ‘तातुश’ के रूप में लोग ज्यादा जानते हैं पर उन्होंने भारतीय कथा–परम्परा में अपनी लगभग पचास कहानियों और एक उपन्यास– ‘निरीहों की दुनिया’ (प्रकाशक- संजय भारती, रोशनाई प्रकाशन, कांचरापाड़ा) का अवदान देकर, अपने तरह का अनुपम गद्य रचा, कुछ विलक्षण कथा तत्त्वों का समावेश किया। उनकी कहानियां पाँचवें और छठे दशक में कई साहित्यिक पत्रिकाओं में– वसुधा, कल्पना, कृति, समवेत, राष्ट्रवाणी, कहानी आदि- में छपी थीं। उनका साहित्यिक जीवन प्राइवेट–सा साहित्यिक जीवन भी कहा जा सकता है। वे निराकांक्षी रहे। अपनी रचनाओं को प्रकाशित करने पर कभी नहीं सोचा। अंग्रेजी और बांग्ला साहित्य के गहरे पाठक रहे। शरत बाबू (शरतचंद्र) के साहित्य पर उनकी अपनी तरह की अंतर्दृष्टि रही।

इतना काम करने के बाद भी उन पर कोई मुक्कमल काम, कोई लेख हमें नहीं मिलता।

यह लेख प्रबोध कुमार श्रीवास्तव, जिन्हें हम ‘प्रबोध जी’ के नाम से पुकारते थे, को याद करने की कोशिश है। प्रबोध जी के प्रति मेरी व्यक्तिगत अटूट श्रद्धा ने यह कार्य संपन्न करवा दिया। इस साल, दो हजार इक्कीस में कोरोना काल के जनवरी महीने में उनके नहीं रहने की खबर सुन स्मृतियों का ज्वार सा उठा।

मैं उन पर लिखने में व्यस्त हो गयी। अपने इस काम में जितना ही गहरे उतरती गयी प्रबोध जी के जीवन की कई परतें खुलती गयीं। यह संस्मरण लिखने का यही कारण है। मेरे पास उनके जीवन वृत्त का कोई प्रामाणिक विवरण नहीं है। स्मृति से नोट्स बनाती गयी। संस्मरण लिखने की प्रेरणा उनसे हुई दो मुलाकातों और उनसे हुए पत्र व्यवहार से भी बनी। मुझे इस बात का पूरा एहसास है कि मेरे पास जो सामग्री है वह उनकी मुकम्मल तस्वीर को उजागर करने में, वह जितने बड़े इन्सान थे बताने में अपर्याप्त होगी। यह लेख भूले- बिसराए व्यक्तित्व के कार्यकलाप में दिलचस्पी जगाने का अपने तईं सत्प्रयास भर है। उनके विविध विषयों पर जो विचार थे उसे यहाँ बहुत संक्षेप में साझा करने की कोशिश कर रही हूं।

प्रबोध जी को याद करते हुए अशोक सेकसरिया का निवास स्थल सोलह लार्ड सिन्हा रोड खूब याद आया जहाँ एहसास के फूल उगा करते थे। प्रबोध जी से मेरी पहली मुलाकात सोलह लार्ड सिन्हा रोड में उन्नीस सौ छियानवे में अशोक जी (सेकसरिया) के कमरे में हुई थी। जितना याद पड़ता है जाती हुई सर्दियों के दिन थे। वे अशोक जी को ध्यान से सुन रहे थे। उन्हें देखकर ऐसा लगा कि वे धीरे-धीरे बोलनेवाले कोमल और शांत व्यक्ति हैं।

जब मैं उनसे पहली बार मिली वे अशोक जी से तरह-तरह की बातें कर रहे थे, ढेर सारी बातों के साथ दोनों के बीच में विनोदपूर्ण ढंग से उनकी अपनी जन्म तिथियों को लेकर बात होने लगी। अशोक जी का जन्म सोलह अगस्त उन्नीस सौ चौंतीस का है। प्रबोधजी का जन्म आठ जनवरी उन्नीस सौ पैंतीस का, पर प्रबोध जी का कहना था कि- ‘मैं अशोक से बड़ा हूं।’

उस दिन वे कह रहे थे- तुम्हारे अनुसार तुम्हारा जन्म 1934 में हुआ था। अंकशास्त्र के हिसाब से 1+9+3+4=17=1+7=8 तुम्हारा अंक है और मेरा 1+9+3+5= 18=1+8=9 बनता है। यदि 8 से 9 अधिक बनता है तो मैं तुमसे बड़ा हूँ।’

यह सुनकर अशोक जी मुस्कुरा दिए और मैं भी। मुझे उनकी बातें सुनना अच्छा लगा। मैं खूब ध्यान से उन्हें सुनने लगी।

साल दो हजार में सच्चिदानंद सिन्हा की नक्सल आन्दोलन पर पुस्तक पढ़ने के बाद उन्होंने कुछ बातें साझा की थीं वे इस प्रकार हैं।

‘सच्चिदानन्द सिन्हा ने जिस वैचारिक संकट की बात कही है वह नक्सलियों के आलावा हर दल में देखा जा सकता है। आज जैसे सभी के पैरों के नीचे से जमीन खिसक चुकी है और लोग अधर में लटके हुए हैं। वामपंथी, कांग्रेसी …किसी के पास कुछ भी करने को नहीं रह गया है। यदि कांग्रेस भाजपा की ‘बी टीम’ है तो दूसरे दलों की स्थिति भी भिन्न नहीं है।सब समय काट रहे हैं किसी चमत्कार के घटने की प्रतीक्षा में। सरकार के घटकों में थोड़ा भी मनमुटाव होता है तो सभी की जीभें लपलपाने लगती हैं कि सरकार अब गिरी तब गिरी। उन्हें नहीं पता कि मनमुटाव का यह नाटक खेला ही इसलिए जाता है कि विरोधी दल बस सपने ही पोसते रहें।’

प्रबोध जी जब भी किसी अनुवाद-कार्य में लगते अशोक जी से एक-एक शब्द पर खूब बात करते थे। पत्रों में लगातार शब्दों के विभिन्न अर्थों को लेकर चर्चा होती रहती थी। एक बार ‘रिफ्लेक्स’ शब्द पर बात होती रही।

वह बोले- ‘रिफ्लेक्स’ के लिए मानविकी हिंदी शब्दकोश में ‘प्रतिवर्त’ दिया हुआ है और बांग्ला अभिधान में ‘प्रतिवर्ती’।सामान्य बोलचाल की भाषा में यह शब्द नहीं फबेगा। मेरे पास डंकन फोबर्स का अंग्रेजी–हिन्दुस्तानी शब्दकोश है जो पहली बार 1866 में छपा था। इसमें ‘रिफ्लेक्स’ के लिए ‘मकूस’ (मैं इस शब्द से परिचित नहीं हूँ) ‘बाज अन्देखता’ और ‘बाज–पेचीदा’ दिए हैं। इतना सोचते-सोचते मेरे मन में ‘अनायास’ शब्द आया। मैकग्रेगर का हिंदी–अंग्रेजी शब्दकोश देखा तो ‘अनायास के दो अर्थ मिले- ‘इन्वालंटरी’ और ‘सडेन्ली’। मैं समझता हूँ कि ‘रिफ्लेक्स’ के लिए ‘प्रतिवर्त’ से ‘अनायास’ बेहतर रहेगा।

साल दो हजार था और शायद फरवरी का महीना। जनसत्ता अखबार में एक तस्वीर थी जिसमें तसलीमा नसरीन कुछ कवियों के साथ खड़ी नजर आयीं। वे कलकत्ता में थीं। मेरी एक मित्र विजया ने ‘आनंद बाजार’ पत्र देखकर बताया कि मंगलवार को चार बजे रासबिहारी में जो ‘द मेलोडी’ दुकान है वहाँ ‘गोल्लाछूट’ कैसेट का उद्घाटन करेंगी। प्रबोध जी का आग्रह था कि हम तसलीमा नसरीन से मिल आएं।

मैं और अशोक जी साढ़े तीन बजे ‘द मैलोडी’ पहुँच गये। दुकान के सामने बड़ा बैनर लगा हुआ था जिसमें तसलीमा नसरीन का नाम बांग्ला में लिखा हुआ था। अशोक जी थोड़ी दूर एक किनारे खड़े हो गये और मैं’ गोल्लाछूट’ कैसेट खरीदने और उसके मलाट पर तसलीमा नसरीन के हस्ताक्षर करवाने, जो कतार लगी थी उसमें खड़ी हो गयी। क्यू में बीस-पच्चीस लोग तो रहे ही होंगे। और लोग आ रहे थे। अचानक मैंने देखा, अशोक जी गायब हो गये। कहीं अशोक जी अपनी बड़ी बहन पन्ना बाई जो रासबिहारी में रहती हैं उनके घर तो नहीं चले गये! मेरी आँखें उन्हें खोजने लगीं, तभी वे सामने से आते दिखे, हाथ में ‘रिजेंट’ सिगरेट थी। आधे घंटे के बाद तसलीमा नसरीन सफेद चमचमाती एम्बैसडर गाड़ी से नीले रंग की तांत सिल्क की साड़ी पहने उतरीं। थोड़ी देर बाद मैं तसलीमा नसरीन के सामने खड़ी थी। मैंने उन्हें पास से देखा। वे झुक कर कैसेट के मलाट पर हस्ताक्षर करने लगीं। शर्मिली सी हैं एक पल के लिए मन में आया। मैंने उन्हें ‘सामयिक वार्ता’ पत्रिका दी और कहा- ‘तसलीमा की पीड़ा’, लेखक – प्रबोध कुमार, लेख जरूर पढ़ें। वह बोलीं- अपना नाम भी पत्रिका पर लिख दो। यह भी कहा कि सात मार्च तक वे कलकत्ते में हैं। मैंने उनकी पुस्तक ‘नष्ट लड़की नष्ट गद्य’ के मलाट पर भी उनसे हस्ताक्षर करवाया।

इन सालों में मैंने कई बार सोचा एक दिन गुड़गाँव जाऊँगी, और प्रबोध जी से मिल कर आऊँगी। पर मैं किस घर में जाऊँगी! मुझे यह पता चला कि जिस घर में बेबी पाल ने ‘आलो आंधारि’ की और प्रबोध जी ने ‘निरीहों की दुनिया’ की रचना की, वह घर अब नहीं रहा। वहाँ नया मकान खड़ा है। जिस घर में मैं साल दो हजार में एक दिन ठहरी थी, प्रबोध जी और बेबी के साथ रात का खाना खाया था वह घर टूट गया है।

एक बार प्रबोध जी ने अशोक जी को लिखा था :-

‘तुम दिल्ली नहीं आओगे, बताकर तुमने मुझे थोड़े संकट में डाल दिया है। अब मरने के लिए ऐसी जगह तलाशनी पड़ेगी जहाँ जाने में तुम्हें कोई एतराज नहीं होगा। तुम पहले मरे (भगवान न करे) तो मैं कलकत्ता जरूर आऊंगा, चाहे यही सोचकर कि इसी बहाने कलकत्ता घूमना भी हो जाएगा।’

अशोक सेकसरिया ने उनतीस नवम्बर दो हजार चौदह को कलकत्ते में अन्तिम साँस ली पर प्रबोध जी नहीं आए!

प्रबोध जी ने सात साल बाद बीस जनवरी दो हजार इक्कीस को अन्तिम साँसें लीं। अपने घर में उन्होंने शरीर नहीं छोड़ा! क्यों? इन जटिल प्रश्नों का उत्तर कौन देगा?